Thursday, June 25, 2020

काँटा

एक लघुकथा

काँटा

एक चूहा बड़ा सा काँटा लिए दौड़ा चला जा रहा था। रास्ते में मेंढक ने पूछा कि, "अरे मूषक भाई ये काँटा लिए कहाँ दौड़ लगा रहे हो?"

"अरे भाई! साँप को काँटा चुभा है, तो मेरे पास आया था मदद माँगने। बस वही निकालने के लिए ले जा रहा हूँ", चूहे ने चलते-चलते जवाब दिया।

"लेकिन काँटा तो तुम अपने तेज़ दाँतो या नुकीले नाखूनों से भी निकाल सकते हो?" मेंढक ने सवाल किया।

"बिल्कुल निकाल सकता हूँ मित्र, लेकिन फिर उसे याद कैसे रहेगा", चूहे ने मुस्कुराकर कहा और दौड़ लगा दी।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
9045548008

Friday, June 19, 2020

#कहानी/ प्रेम और बदला

भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा के पास माठ तहसील है, जहाँ पर राधा रानी का मंदिर है। 
वहीं की एक सच्ची घटना है ये , बात साल 2012 या 13 की है, मंदिर के चबूतरे पर कुछ बंदर बैठे थे, उनके 3,4 छोटे- छोटे बच्चे वहीं खेलने में मगन थे। 
तभी कहीं से एक नाग निकल आया और बंदर के एक बच्चे को डस लिया।
सारे बन्दर क्रुद्ध क्रंदन करने लगे ,और नाग वहीं एक बिल में घुस कर छिप गया। 
बंदरों ने अपनी भाषा मे न जाने क्या संदेश प्रसारित किया कि ,देखते ही देखते सैकड़ों बंदर वहाँ इकट्ठा हो गए। कुछ बन्दरों ने उस बच्चे को चबुतरे पर लिटाया ओर नीम की टहनियां तोड़ तोड़ कर लाने लगे। 
कुछ बंदर, नाग की सरणस्थली की ओर लपके। 
बंदरों की फौज देखकर आते -जाते राहगीर, अपनी गाड़ी रोक कर तमाशा देखने लगे।
देखते ही देखते हजारों लोगों का हुजूम उक्त द्रश्य देखने के लिए एकत्र हो गया। 
बंदर इस सब से बेपरवाह अपने काम मे मगन थे। कुछ बंदर नीम की डाली से बच्चे का जहर उतार रहे थे, वे उसके सर से पाव की ओर टहनी घुमाते और कुछ बुदबुदाते, फिर टहनी बदल कर उक्त क्रिया दोहराते।
कुछ बंदर नाग का बिल अपने नाखूनों से खोदने लगे ,और दो तीन बंदर बिल पर घात लगाए बैठ गए, एकदम मुस्तेद चौकन्ने अपने लक्ष्य पर सम्पूर्ण ध्यान्द्रष्टि।
तभी कुछ बंदर नल से अपनी हथेलियों में पानी भरकर लाने लगे ओर बिल में भरने लगे। ये देख कर एक दर्शक ने बोतल में पानी भरकर छोड़ दिया ओर दूर हट गया। 
बंदर ने झट से बोतल उठाई ओर बिल में उड़ेलने लगा।

एक बोतल दो बोतल तीन बोतल ,,,,
नाग ने जैसे ही बिल से सर निकाला कि एक बंदर ने जो कि घात लगाए बैठा था झट से उसे दबोच लिया, और लगा बिल से बाहर खींचने।
नाग ने बहुत शक्ति प्रयास किया किन्तु बंदर ने उसे बिल से बाहर खींच कर धरती पर पटक ही लिया। किन्तु उसका मुंह बंदर ने अपनी मज़बूत पकड़ में दबाए रखा।
नाग को बाहर आया देख सारे बंदर क्रोध में चीखने लगे जैसे कह रहे हों पटको इसको मार डालो छोड़ना मत।।। 
और उधर बच्चे का इलाज चालू , इधर लगे बंदरों को जैसे उधर से कोई मतलब नही। या कहो कि पूर्ण विस्वास कि, ये अपना काम पूर्ण कर ही लेंगे।
नाग को पकड़े बंदर ने इसे जमीन में रगड़ना शुरु किया और तीन चार बार रगड़ कर उसे देख कर सूंघा और खीं ख ख खी खीं,,, की आवाज निकलने लगा। जैसे कह रहा हो कि अब भुगतो सजा अपने कृत्य की।
और बाकी के बंदर भी क्रोध में खिखिखिखिकरें कर के उस बंदर का उत्साहबर्धन करने लगे।

काफी देर ये द्रश्य चलता रहा,,, बंदर ने सांप को रगड़ रगड़ कर मार डाला। उधर सांप ने आखिरी सांस ली, इधर वह बच्चा उछल कर अपनी मां से लिपट गया। 
बंदर सांप की मृत देह को घसीटकर हर्ष ध्वनि के साथ अपना विजय उत्सब मनाने लगे। और दर्शक आश्चर्य व्यक्त करते हुए अपने अपने गंतव्य स्थलों की ओर जाने लगे।

©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

#प्रेम/ भ्रम

नवीन ने गांव से दूर शहर के कालेज में एडमिशन लिया और एक परिचित के प्रयास से उसे पेइंग गेस्ट के रूप में रहने की जगह भी मिल गयी।
जब क्योंकि खाने बनाने की झंझट नहीं थी तो उसने समय का सदुपयोग करते हुए दो तीन ट्यूशन भी पढ़ाने शुरू कर दिए जिससे उसका जेब खर्च निकलने लगा।
यूँ तो नवीन शुरू से ही बहुत शर्मीला था लेकिन नई जगह आकर वह और भी झिझकने लगा वह किसी से भी ज्यादा बात नही करता औऱ लड़कियों से तो ऐसे शर्माता जैसे उसे खा जाएंगी।
नवीन पढ़ाई में बहुत तेज़ था अतः कॉलेज में जल्दी ही उसके बहुत से दोस्त बन गए, यूँ तो कई लड़कियां भी उससे मित्रता करना चाहती थी लेकिन यसज रूखा व्यवहार और शर्मीलापन हमेशा उसे लड़कियों से दूर ही रखता।
नवीन ज्यादातर समय पढ़ने और पढ़ाने में ही लगाता था अतः वह ज्यादा लोगों से घुल मिल ही नही पाता था।
उसके मकान मालिक बुजुर्ग दम्पत्ति थे उनके बच्चे दूर शहरों में सेटल थे इसी लिए अपना अकेला पन दूर करने के लिए उन्हीने नवीन को रखा था।
नवीन भी उनकी हर जरूरत का पूरा ध्यान रखता था कुछ ही दिनों में नवीन उनका चहेता बन गया।
दिन भर कॉलेज उसके बाद टयूशन की थकान के बाद शाम को दो घण्टे छत पर खुली हवा में बैठना पढ़ना नवीन की नियमित दिनचर्या का हिस्सा बन गया था।
एक दिन उसने सुना की पड़ोस में कोई नए किरायेदार आये हैं, ये कोई नई बात नहीं थी क्योंकि शहर में तो अक्सर किरायेदार आते जाते रहते हैं तो उसने ज्यादा ध्यान नहीं दिया यूँ भी वह किसी से ज्यादा मतलब भी नही रखता था।
उस दिन भी नवीन रोज की तरह छत पर बैठ कर चाय पीते हुए अपनी किताब में खोया हुआ था, अचानक उसकी नज़र सामने की छत पर पड़ी जहां एक लड़की बैठी कुछ पढ़ रही थी।
अचानक उसने चेहरा उठाया और अनायास ही उसकी नज़रे नवीन की नज़रों से मिली, नवीन तो बस उसे देखता ही रह गया, उसका गोरा रंग ऐसा मानो दूध में ऊषाकाल के सूर्य की छाया पड़ रही हो उसकी बड़ी बड़ी काली आंखे, पतले गुलाबी होंठ ओर सुंदर गोल नाक।
उसकी लम्बी पत्नी गर्दन और काले घने लंबे बाल कुछ यूं बिखरे थे जैसे घने बादल चाँद को अपने आगोश में लेने की कोशिश कर रहे हों या कहो कि उसके रूप को छिपाने का प्रयास कर रहे हों।
उसकी सुंदरता देखकर नवीन सुधबुध भूल का एकटक उसे देखता रह गया, उसे लगा मानो स्वर्ग से साक्षात अप्सरा ही उतर आई हो।
यूँ तो नवीन कभी किसी लड़की से ठीक से बात नहीं करता था लेकिन इस अप्सरा ने उसकी वह साधना भंग कर दी थी,यूँ तो कितनी ही लड़कियां नवीन से बात करना उस से दोस्ती करना चाहती थीं किन्तु नवीन तो अब....

नवीन अब रोज शाम होते ही छत पर जाकर बैठ जाता, किताब के पीछे से उसकी नजरें किसी को खोजती रहती, अब वह उस से बात करने को बैचेन होने लगा था।
दोनों घरों के बीच में बस एक पतली गली ही तो थी दोनों छतें आमने सामने थीं अब कई बार दोनों छत के एकदम कोने पर आ जाते और अमन सामने आकर नज़रे मिलाकर शरमाकर नज़रे झुका लेते दोनों ही एक जैसे हाल में थे।
उस दिन जब वह एकदम सामने आई तो नवीन ने हिम्मत करके बोल ही दिया ,"हेल्लो माय सेल्फ 'नवीन' एंड उअर स्वीट नेम?"
'सीमा' एक छोटा सा जबाब मिला इर साथ में ढेर सारी हंसी की खनक। वह हंसी हुई भाग गई थी और रह गया था जड़वत मूर्ति बना नवीन, नीचे से आई मांजी की आवाज से वह अपनी चेतना में लौटा ओर नीचे दौड़ गया।

"सीमा"!! हिहिहि
रात भर उसके कानों में यह खनक गूंजती रही, सारी रात वह उसी के विषय में सोचता रहा, और उसी के सपनो में खोया सो गया।

अगले दिन वह बहुत खोया खोया से था, "ये क्या हो रहा है मुझे" वह अपने आप से पूछ रहा था।
"कहीं मुझे प्यार"?? फिर खुद ही मुस्कुरा उठता ओर शरमाकर नज़रे चुराने लगता।
आज वह शाम को बहुत जल्दी छत पर आ गया उसकी नज़रे बड़ी शिद्दत से सामने की छत पर कुछ ढूंढ रही थीं।
घण्टों हो गए लेकिन उधर कोई आहट तक ना हुई,  अब नवीन बहुत परेशान हो गया आज वह पूरा मन बनाकर आया था कि आज वह उस से अपने मन की बात कहेगा।
किन्तु आज तो वह आयी ही नहीं, नवीन का दिल बैठा जा रहा था वह सोच रहा था कि क्या वह भी उसे प्यार...
या ये सिर्फ उसका एक भ्रम है?
नवीन इंतज़ार करके थक गया था, वह उसे प्यार नही करती यह सच मे उसका भ्रम ही था उसने सोचा और नीचे जाने के लिए मुड़ा।
अभी वह दो कदम ही चला था कि पीछे से आवाज आई,
"रुको, न वी न,,"
मुझे आपसे कुछ कहना है।
नवीन को तो जैसे कोई खज़ाना ही मिल गया,वह तेज़ी से मुड़ा," सीमा", वह दौड़ता हुआ उसके पास आया।
कब से इंतज़ार कर रहा था कितनी देर कर दी आज अपने सीमा सब ठीक तो है, नवीन ने पूछा।

सब ठीक है नवीन मैं पढ़ाई कर रही थी और मैथ्स में ऐसी उलझी की समय का ध्यान ही नही दिया फिर भी मुझे बहुत कम समझ आया, अच्छा क्या आप मुझे घर आकर मेथ्स पढ़ा सकते हो ? सीमा ने मुस्कुराकर पूछा।
हाँ जरूर लेकिन तुम्हारे पैरेंट्स?? नवीन सकुचाया अच्छा मैं उनसे बात करके कल बताती हूँ सीमा मुस्कुरादी और चली गयी।
आज फिर नवीन को नींद नही आई वह कल सीमा क्या जबाब देगी इसी विषय पर खुद के बनाये सवालों के जबाब रात भर खुद को देता रहा।
अगले दिन सीमा ने उसे खुशखबरी सुनाई की वह कल से उसके घर आकर उसकी मेथ्स समझने में हेल्प करेगा इसके लिए सीमा के परेंट्स मान गए।
अगला दिन नवीन का बहुत बेचैनी में निकला, यार ये शाम क्यों नही हो रही आज, वह खुद से कई बार पूछ चुका था।
शाम होते ही वह सीमा के घर पहुंच गया वहां उसने शिष्टाचार में उसकी माँ के पांव छुए, सीमा के पिताजी शाम को देर से ही आते थे तो.. 

अच्छा तुम दोनों पढ़ाई करो मैं चाय बनाती हूँ कहकर सीमा की माताजी रसोई में चली गयीं।
इससे पहले की नवीन कुछ कहे सीमा ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसकी आँखों में देखकर मुस्कुराने लगी।
"क्या सच" नवीन ने खुश होकर पूछा बदले में सीमा ने मुस्कुराकर उसका हाथ दबाया और पलके झुका लीं।

अच्छा मैं किताबे लाती हूँ सीमा ने धीरे से कहा और हाथ छुड़ाकर तेज़ी से हंसती हुई चली गई।

उसके बाद शुरू हो गया रोज का सिलसिला,"कल कब मिलेंगे, आज इतनी देर कहाँ लगा दी,  कल आप आये नही सब ठीक तो है मेरा तो मन ही नही लग रहा था,
कल थोड़ा जल्दी आना, आपके बिना दिल नही लगता,,, आदि आदि का सिलसिला।
अब नवीन बहुत खुश था उसे बिन मांगे संसार की सारी दौलत मिल गयी थी, इसी तरह तेज़ी से गुजरते समय के साथ उनके इस प्यार को तीन साल हो गए जिसमे आंखों से बातें करने हाथ पकड़ने ओर मुस्कुराने से आगे कभी कुछ नही हुआ, लेकिन दोनों ही को लगता था कि वे एक दूसरे में बिना अधूरे हैं।
नवीन का कॉलेज खत्म होते ही उसे एक कम्पनी में जॉब मिल गयी, और अब उसपर घरवालों की ओर से शादी करने के लिए दबाव भी पड़ने लगा।
किन्तु वह हमेशा कोई न कोई बहाना बनाकर उन्हें टालने लगा लेकिन कब तक??
अब उसे लगने लगा कि वह ज्यादा दिन परिवार वालो को रोक नही पायेगा अतः उसने सीमा से शादी के लिए बात करने का निर्णय किया।

आज नवीन बहुत खुश था क्योंकि वह सीमा से शादी के लिए बात करने जाने वाला था, उसे पूरा भरोसा था की सीमा उसे ना नहीं करेगी उसे अपने प्यार पर विश्वास था।
यूँ तो कई बात बातों बातों में सीमा ने भी शादी के लिए इशारा किया था लेकिन तब वह तैयार नही था किंतु आज उसके पास जॉब है वह शादी की जिम्मेदारी के लिए तैयार है अतः अब वह सीमा से बात कर सकता है, उसे यकीन था कि सीमा के पेरेंट्स उनकी शादी के लिए मान जाएंगे।
आज नवीन अच्छे से तैयार हुआ और पहुंच गया सीमा के घर, उसने बेल बजायी दरवाज़ा सीमा ने ही खोला और उसे देखकर बिना मुस्कुराए बोली, "अरे नवीन तुम, आओ अंदर आओ"। 
आज न जाने क्यों नवीन को सीमा कुछ बदली हुई लगी, वह और दिनों की तरफ नवीन को देखकर न तो मुस्कुराई और ना ही उसकी आँखों में चमक दिखी।
नवीन अंदर आकर बैठ गया उसे घर में कोई भी नज़र नही आया।
"कहो नवीन कैसे आना हुआ?" सीमा ने पूछा।
"तुम्हारे परेंट्स कहाँ हैं सीमा?" नवीन ने पूछा।

"क्यों, कुछ खास काम" सीमा ने उल्टा सवाल किया।
"आज मैं उनसे हम दोनों के लिए बात करने आया था सीमा" नवीन ने मुस्कुराकर जबाब दिया।
"क्या बात?" फिर वही रूखा से सवाल सीमा के मुँह से निकला।
"सीमा मैने शादी करने का फैसला कर लिया है", नवीन चहककर बोला।
"किसके साथ?" सिमा ने सपाट स्वर में पूछा।

"तुम्हारे साथ भई ओर कौंन, आज मैं तुम्हारे मम्मी पापा से इस विषय में बात करने आया हूँ", नवीन उसकी आँखों में देखकर मुस्कुराया।
ये बात सुनकर भी सीमा के चेहरे पर कोई खुशी नहीं आयी।

"क्या बात है सीमा तुम खुश नहीं हो?" नवीन अब परेशान हो गया था उसका दिल अब अनजाने भय से डर रहा था।
"कुछ नहीं" सीमा ने वही रूखा सा जबाब दिया।
" क्या बात है सीमा तुम कुछ अपसेट लग रही हो, सब ठीक तो है?" नवीन ने उदास होकर पूछा।

"नवीन हमारी शादी नहीं हो सकती", सीमा के इस एक वाक्य ने नवीन का दिल उसकी उम्मीदे सब चकनाचूर कर दिए।
उसके चाहते पर गहरी उदासी और आँखों में बेचैनी झलक रही थी।

"क्यों!!, क्या हुआ?" बड़ी मुश्किल से उसके मुंह से ये शब्द निकले।
"क्योंकि मैं नही चाहती", सीमा ने बहुत रूखे पन से जबाब दिया।

"और वे सब बातें वो प्यार के वादे वह सब क्या था?" नवीन धीरे से बोला।

"'भ्रम", हां भ्रम था वो हमारा नवीन वह प्यार नही था केवल एक कच्ची उम्र का आकर्षण था वह केवल एक अहसास था जो हमें एक दूसरे के साथ अच्छा लगता था जिसमें हम अपना बचपन शेयर करते थे लड़ते झगड़ते थे लेकिन प्यार, बोलो प्यार जैसा हमारे बीच कब हुआ नवीन हम केवल अच्छे दोस्त थे बस और हमेशा रहेंगे, मेरे जीवन में तुम्हारी वह जगह कोई नहीं ले सकता लेकिन शादी, नहीं नवीन मुझे तुममे अपना जीवनसाथी नही दिखता बस हम दोस्त ही हो सकते हैं", सीमा एक सांस में सब कह गयी।
" लेकिन मैं तुम्हे सच्चा प्यार करता हूँ सीमा", नवीन ने कुछ कहना चाहा।

"नहीं नवीन मुझे भूल जाओ", सीमा ने बेरुखी से कहा और अंदर चली गयी।
नवीन जैसे जड़ हो गया उसमे अब उठने की ताकत ही नही बची थी।
उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था की सीमा ने यह सब कहा है।
वह ना जाने कितनी देर वहां बैठा उस दरवाजे को देखता रहा जहां से सीमा अंदर गयी थी, इसे यकीन था कि अभी सीमा हंसती हुई आएगी और कहेगी की क्यों केस बुद्धू बनाया लेकिन यह भी केवल उसका भ्रम ही निकला वह नही आई और नवीन थके थके कदमो से बापस लौट आया।
नवीन अंदर तक टूट गया था, वह कई दिन तक इस उमीद में छत पर जाता रहा कि शायद सीमा लौट आये किन्तु उसका ये भ्रम भी नही टूटा।

अब नवीन समझ गया था कि यह प्यार एक धोखा है एक भ्रम है बाकी कुछ नहीं।

अब उसने घरवालों की मर्जी से शादी कर ली।
उसकी पत्नी सुंदर, सुशील एवं पढ़ी लिखी है, वह एक अच्छी पत्नी के सभी गुण रखती है, लेकिन नवीन उसमें भी सीमा को ही खोजता है क्योंकि पहला प्यार भुलाना कोई आसान काम है क्या फिर चाहे वह कोई भ्रम ही क्यों न हो।।
समाप्त।।।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"

#हॉरर/ छलावा

बाजार से लौटते समय बच्चों के लिए खरीदी पॉपकॉर्न की थैली कब तालाब के किनारे गिर गयी हरिसिंह को पता भी नहीं चला।
घर आकर वह कुछ उदास हुए की बच्चों को कुछ नही खिला पाया।

अगले दिन फिर बाजार से बच्चों के लिए लाया गया लायी चना तालाब के किनारे सरक गया।
हरि को समज़ह नही आया कि क्या हो रहा है।

आज हरि को बाजार से लौटते समय थोड़ी देर हो गयी थी तो वह बच्चों के लिए कुछ नहीं खरीद पाया।
जैसे ही हरि तालाब के किनारे पहुंचे उसे पीछे से कुछ भिनभिनाहट जैसी आवाज सुनाई दी,
"आज कुछ नहीं खिलायेगा हरिया!!??"
हरि ने पलट कर देखा एक विशाल चौपाया इंसानी खोपड़ी के साथ इसे देख कर खिलखिला कर हंस रहा था,,,, "रोज तो खिला कर जाता है हरिया आज भूल गया मुझे",उसने कहा।

हरिया उसे देख कर भय से बेसुध होकर गिर पड़ा,,,

#हॉरर/ डर

सुबह के चार बजे 'वीरेंद्र' झांसी रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतरा और पैदल ही अपने बड़े भाई के घर की तरफ चल दिया।
यूँ तो वीरेंद्र इधर कई बार आता जाता है किंतु इतनी जल्दी सुबह कभी नही पहुंच।

वीरेंद्र के भाई ने झांसी में ये नया मकान बनाया था सारी कॉलोनी अभी नई ही बन रही थी जगह भी शहर से बाहर ही थी।
वीरेंद्र ने जल्दी पहुंचने के चक्कर में पटरी के किनारे का शार्ट कट पकड़ा और चल दिया अकेला मस्ती में गुनगुनाता।

नवम्बर का महीना था सर्दी शुरू हो चुकी थी, सुबह चार बजे भी ऐसा लग रहा था जैसे आधी रात ही हो रही हो।

वीरेन्द्र अकेला इस सुनसान रास्ते पर तेज़ी से चला जा रहा था  तभी उसे लगा कोई सात-आठ साल का बच्चा बनियान पहने दौड़ कर इसके आगे निकल गया और आगे आगे चलने लगा, तभी एक और बच्चा दौड़ कर उसके पीछे पीछे चलने लगा।

वीरेंद्र ने उनपर ध्यान नहीं दिया किन्तु वह आगे बाला बच्चा बार बार पलट कर इसे देखता ओर कुछ अजीब ढंग से मुस्कुराता कभी चेहरा टेढ़ा करता।
अचानक वीरेंद्र ने पलट कर देखा, पीछे बाला बच्चा कुछ ज्यादा ही लंबा लग रहा था और एकदम बांस जैसा पतला।

वीरेंद्र को अब कुछ शक होने लगा उसने अपनी चाल को तेज कर दिया, किन्तु दोनो बच्चे बराबर उसके साथ चल रहे थे।
वीरेंद्र अब दौड़ने लगा किन्तु ये बच्चे सामान्य गति से चल रहे थे और बीभत्स हंसी हंस रहे थे।
इनके बीच की दूरी अभी भी उतनी ही थी।
वीरेंद्र को अब भय लगने लगा उसे समझ आ गया कि ये अवश्य कोई छल है, उसने आस पास देखा वह उनके चक्कर में शहर से बाहर श्मशान के रास्ते पर बढ़ रहा था।
वीरेंद्र कांपने लगा उसको उस भरी सर्दी में भी पसीना आने लगा था वह दौड़ रहा था।

तभी रास्ते में एक पीपल का बड़ा पेड़ आया, जैसे ही वीरेंद्र ने उस पेड़ को पार किया अचानक एक आदमी दौड़ता हुआ इसके पीछे से आया और जोर से बोला, हमारे पीछे आओ।
वीरेंद्र बिना सोचे उसके पीछे चलने लगा, वह आदमी शरीर में बहुत बड़ा था उसने एकदम सफेद कपड़े पहने थे और बिना रुके बिना मुड़े तेजी से चल रहा था।
वीरेंद्र को उसके साथ चलने के लिए लगभग दौड़ना पड़ रहा था।

कॉलोनी के पास पहुंच कर वह व्यक्ति ना जाने कहाँ गायब हो गया।
ओर वह बच्चे कब पीछे छूट गए, वीरेंद्र इस सब से बेखबर दौड़ता दौड़ता अपने भाई के घर पहुंच गया, वह बहुत डर गया था इस सब से।
कई दिन तक वीरेन्द्र को बुखार आया रहा वह कांपता रहा घबराहट में।
बाद में जब वीरेंद्र ने सभी  को ये बात बताई तब कुछ लोगों ने बताया की किसी महिला ने अपने दो बच्चों के साथ पटरी के किनारे आत्म हत्या कर ली थी,, तभी से वहां इस तरह की घटना अक्सर होती रहती हैं।

वो तो तुम्हारी किस्मत अच्छी थी जो पीपल की किसी अच्छी आत्मा ने तुम्हे उनसे बचा लिया , एक व्यक्ति ने बताया।

अब ये उसका डर था या कोई छलाबा वीरेंद्र आज तक नहीं समझ पाया किन्तु उसके बाद वह दोबारा कभी उस रास्ते पर नहीं गया।

©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

#कहानी/नई राह

मोहित बचपन से ही मनमौजी था कभी किसी की बात सुनना या घर के कोई काम करना उसकी शान के खिलाफ था।
दिन भर दोस्तों के साथ घूमना  इधर उधर टाइम बर्बाद करना उसके दिनचर्या का हिस्सा था ; लेकिन तभी कुछ ऐसा हुआ कि मोहित बिल्कुल ही बदल गया।
मोहित अपने किसी जानने वाले को अस्पताल देखने गया था, जब वह अस्पताल से बाहर निकल रहा था तभी उसने देखा ,एक बूढ़ा घायल पड़ा हुआ था और उसके पास बैठी एक बूढ़ी महिला रो रही थी।
उनका हाल देखकर पहली नज़र में ही लग रहा था कि दोनों बहुत गरीब हैं।
कभी किसी की बात न सुनने वाला मोहित आज उन्हें देख कर न जाने कैसे उनके पास चला गया, " क्या हुआ अम्मा इन्हें??", मोहित ने बूढ़ी से पूछा।
फिसल कर गिर गए बेटा सर में चोट लगी है कित्ता खून बह गया।
फिर आपने इनका इलाज?? 
क्या करूँ बेटा डॉक्टर कह रहे हैं पहले रपट लिखा के आओ अक्सीडेंट का मामला है या क्या पता किसी ने मारने के लिए,, अब तुम्ही बताओ जब हम कह रहे हैं फिसल कर गिर गए फिर भी भर्ती नहीं करते,, औरत रोने लगीं।

आपके साथ ओर कोई नहीं है क्या??  आज ना जाने किस प्रभाव से मोहित द्रवित हो रहा था उसे उन लोगों पर तरस आ रहा था।

कोई नहीं है हमारा दुनिया में, हम दोनों ही रहते हैं अपनी झोंपड़ी में।
ये छोटा मोटा काम करके कुछ कमा लेते हैं उसी में दोनों गुजारा कर लेते हैं।
पर कई दिन से इन्हें कोई काम ना मिला अब काम नहीं तो रोटी भी नहीं बस इसी से कमज़ोरी में चक्कर खा कर गिर गए,, बुढ़िया माई लगातार रोये जा रही थी।

मोहित ने अस्पताल में हंगामा कर दिया, उसने लापरवाही के लिए सभी को झाड़ लगाई और उनकी शिकायत करने की धमकी दी।
अस्पताल बालो ने जल्दी ही बूढ़े व्यक्ति को भर्ती कर लिया,, मोहित ने अपने खर्चे पर उनका अच्छा इलाज करवाया, कोई दो तीन घण्टे में बूढ़े को होश आया गया इस बीच मोहित एक बोतल अपना ओर दो बोतल दोस्तों का खून बूढ़े को चढ़वा चुका था।
बुढ़िया न जाने कितनी आशीष मोहित पर वार रही थी जमाने की सारी दुआएँ उसके मुंह से मोहित के लिए निकल रही थी।
ओर इसी से हो रहा था मोहित का ह्रदय परिवर्तन।
मोहित बूढ़े के पूरी तरह ठीक होने तक रोज सुबह शाम अस्पताल का चक्कर लगाता रहा।
उसके बाद उसने अपने कुछ दोस्तों को साथ मिला कर उनके खाने की व्यवस्था भी कर दी।
मोहित अब सबकी मदद करने लगा, जब कोई उसे मदद के बदले आशीष दुआ देता है मोहित और विनम्र बन जाता है।
मोहित को ये सेवा कार्य बहुत आत्मसंतुष्टि देता है।
जल्द ही मोहित ने अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर एक सेवा ट्रस्ट बना लिया जिसमें असहाय बीमार कमज़ोर लोगों का सही इलाज और खाने पीने की व्यवस्था की जाती है।
मोहित अभी भी उस बूढ़ी माई का आशीर्वाद लेने जाता रहता है जिसने इसकी जिंदगी बदल कर उसे एक नई राह दे दी।

©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

#कहानी/दादी

चिंटू अरे ओ चिंटू,,,, 
अस्सी बरस की रामकली बिस्तर पर लेटे लेटे अपने पोते को पुकार रही है। 
रामकली बूढी अवश्य हो गई है किंतु जीवन जीने की आशा ने उसे कभी जीर्ण होने नहीं दिया। खाल सिकुड़ अवश्य गई है किंतु मन की तरुणाई कहीं उसके मनन करते मन के किसी कोने में अभी भी जीवित है। और जीवन की इसी आशा ने कभी उसके हाथ पांव को जड़ करने की जुर्रत नहीं की। किन्तु अब हाथ पांव में कम्पन अवश्य होने लगा है। 
क्या हुआ जो चन्द कदम चलने के प्रयास में साँस चढ़ जाती है। इस से उसके मन के दौड़ते मनोभावों को तो विराम नहीं लगता। 
वह पुनः अपनी खटिया में लेट कर मन की कल्पना के अश्व पर सवार हो चल पड़ती है, अपनी विचार यात्रा पर। 

उसका साठ साल का बेटा रामधन जो खुद भी बूढ़ा हो चला है , किन्तु माँ की दृष्टि उसे अभी भी तरुण ही समझती है , और अपनी नसीहत न मान ने पर ,मन ही मन खीझती है।

रामकली की कल्पना कभी उसे खेत पर ले जाती है जहाँ, रामधन अपने खुद की तरह जीर्ण होते बैलों के कंधे पर जुआ रखे, उसमे हल बांधे  इनके पीछे-पीछे हाथ में लकड़ी लिए कभी पुचकरता कभी भद्दी गालियां देता कभी मारता हुआ चल रहा है। 
रामकली सोचती कितने निकम्मे बैल हो गए हैं । मार से भी नहीं बढ़ते ,बेचारा 'रामधन' इस गति से कैसे इतने बड़े खेत को जोत पायेगा ,अभी तो तीन हिस्सा बाकि है। 
यही बैल रामधन के बापू की एक हांक पर कैसे हवा से आंधी बन जाते थे और आज देखो,,,!!!
रामधन के बापू का ख्याल आते ही रामकली के झुर्रियो भरे गाल लाल हो गए और कुछ क्षण के लिए झुर्रियों के बीच से बीस वर्ष की लजाती हुई सोहनलाल को छिप कर देखती हुई रामकली प्रकट हो गई। 
जो दोपहर को मटकती लहराती रोटी की पोटली बांधे पतली मेड़ो से होकर रास्ता छोटा करते हुए खेत पर जा रही है। उसे मन मीत से मिलने की शिघ्रता है या उन्हें जल्दी खाना खिलाने की लालसा ये तो उसका मन ही बेहतर जाने।
इसे दूर से आता देख सोहन भी बैलों को हल से मुक्त कर पेड़ के नीचे घास पर बैठ जाता।
बैल भी शायद उसके आने से प्रसन्न हो जाते ,ये कार्य मुक्ति की प्रसन्नता है,,, 
"नहीं नहीं" रामकली बैलों के लिए गुड़ के ढेले लेकर आती है उसी लालच में बैल पूंछ पटकते हैं। 
सोहन जब तक भोजन करता रामकली उसके मुख को तकती लजाती रहती। कितना प्यार करते थे रामधन के बापू उसे।
और बो खो जाती प्रेम मिलन की उस अद्भुत कल्पना में जिसमे उसके पूरे बदन में जोश और लज्जा के साझा रक्त संचार से ,कुछ पल को जवान रामकली लौट जाती। उस कल्पना में रामकली कभी मुस्कुराती कभी लजाती कभी खुद में ही सिमट जाती। कितने भाव उसके मुख की भाव भंगिमा की बदलते रहते। 
अब रामकली अपने मन की कल्पना के घोड़े को एड लगाती चली जाती मोहन की दुकान पर । 
मोहन रामकली का पोता और रामधन का लड़का है ,पैंतीस बरस का मजबूत सुंदर जवान। 
रामकली को उसमे सोहन की छवि दिखती है वो उसे देख कर बलिहारी जाती है ।
जुग-जुग जिए मेरा मोहन बिलकुल अपने दादा पर गया है। आज अगर बो होते तो देखते रत्ती भर का बी फर्क नई पडा सूरत में बोही नयन नक्शा बैसे ही चौड़े कंधे।
काश !!!  वह होते आज ,,,
सोचकर रामकली की आँखे गीली हो गईं ।
यही मोहन दो बरस का था जब इसे बरसात की उस  रात उलटी दस्त लग गए थे । 
गांव के हकीम जी ने कहा सोहन शहर ले जा बच्चे को यहाँ इलाज़ ना है अब इस बीमारी का। सारे गांव में बीमारी फैली है साफ सफाई बी ना है गांव में जल्दी कर । 

और सोहन रात में ही मोहन की छाती से लगाए दौड़ गया था शहर की और ।
कोई सवारी का साधन नहीं था बस बही बैल गाड़ी। 
और सोहन ने कहा बैलगाड़ी से जल्द तो मैं पहुंच जाऊंगा बटिया से दौड़ कर । 
ओर भीगते भागते दौड़ते उसने मोहन को तो बचा लिया, शहर ले जा कर, लेकिन खुद को म्यादि बुखार से न बचा पाया ,और छोड़ गया रामकली को बेसहारा । 
तब से मोहन को रामकली ने अपना साया देकर पाला । अपनी सारी शक्ति अपना सारा सुख और मन के सारे कोमल भाव लगा दिए रामकली ने परिवार को पालने में।
चिंटू उसी मोहन का सात बरस का बेटा है आजकल रामकली सोच रही है रामधन के बापू ने जन्म लिया है चिंटू के रूप में । 
और अपना संपूर्ण बत्सल्य लुटा रही है ,अपने इस पड पोते पर। 
आज कोई उसे लड्डू दे गया था सुबह बस बही पल्लु के कोने में बांधे पुकार रही है,, 
चिंटू अरे ओ चिंटू कहाँ है रे,,, 

तभी कहूँ से चिंटू लौट आया,, क्या है दादी,, ?
हर बक्त चिंटू- चिंटू बोल क्या काम है,,??

ये बत्सल्य के परदे से बंद आँखे सब अनदेखा करती टटोल कर पल्लु खोलती लड्डू निकलती है।
हैं !!लड्डू,, 
कहाँ से लाई दादी ,
मेरी प्यारी दादी कहते हुए चिन्टू उसकि गोद में घुसकर लड्डू में मुह मरने लगता है।

©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

Thursday, June 18, 2020

#कहानी/गन्दी परम्परा

रिंकू अपनी मां के साथ अपने नानी के घर आया था।
रिंकू की उम्र यही कोई सात आठ साल की है बहुत हँसमुख, तेज़ और पढ़ाई में होशियार।

रिंकू की मम्मी कोई तीन साल बाद मायके आयी थीं तो वह वहां ज्यादा लोगों को नही पहचानता था।
उसके रिश्ते के एक मामा जिसकी उम्र यही कोई पन्द्रह सोलह साल रही होगी ने रिंकू से अच्छी दोस्ती गांठ ली,वह पूरे दिन उसे तरह तरह की बातें बताता रहा और उसके साथ खेलता रहा।
रात को भी रिंकू कहानियां सुनता सुनता अपने इसी मामा के पास सो गया, अब मामा है तो किसी ने एतराज भी नही किया और रिंकू को भी कोई गलत नहीं लगा।

किन्तु रात में सोते सोते रिंकू को एहसास हुआ कि मामा उसके पीछे गलत जगह हाथ लगा रहा है, रिंकू नींद में था वह थोड़ा कुनमुनाया तो उसने हाथ हटा  लिया।
कुछ देर में रिंकू को लगा कि उसका निक्कर सरका हुए है और मामा उसके पीछे कुछ कर रहा है उसे अपने पीछे कुछ अलग चीज़ की छुअन भी महसूस हुई किन्तु नींद के कारण वह ज्यादा समझ ना सका।

कुछ देर बाद रिंकू को हल्का दर्द महसूस हुआ तो वह उचक कर उठने लगा।
उसके मामा ने कुछ नही है कुछ नही है कहकर उसे वापस सुला दिया।

सुबह जागने पर रिंकू ने दर्द महसूस किया और उसे कुछ गीला चिपचिपा सा भी लगा, उसे समझ तो कुछ नहीं आया किन्तु ये अवश्य समझ आ गया कि उसके साथ कुछ गलत हुआ है जो नहीं होना चाहिए था।

रिंकू नें गुस्से से मामा को देखते हुए कहा,"क्या किया आपने मेरे साथ"?
कक कुछ नहीं , मामा कुछ घबराते हुए बोला।

मुंह सब पता है आपने मेरे साथ जो किया उसे बाल यौन शोषण कहते हैं, मैने आप पर कितना विश्वास किया और आपने ,,,?
किउं किया ऐसा बताओ,, ?,किसने सिखाया आपको ये गंदा काम?  रिंकू गुस्से से देखते हुए बोला।

चार साल पहले मैं अपने पापा के साथ तुम्हारे घर गया था तब तुम्हारे चाचा ने मेरे साथ,,,,,।
मामा उदास होकर बोला।
मुझे भी बहुत दर्द हुआ था लेकिन शर्म या कहो डर के कारण मैने किसी को नही बताया।
लेकिन मैं  जानना चाहता था कि उन्होंने ऐसे क्यों किया मेरे साथ या ये कहो कि मैं उनके किये का बदला भी लेना चाहता था इसी लिए तुम्हारे साथ ये सब,, मामा ने सर झुकाये जबाब दिया।
ओह्ह !!तो ये एक परंपरा है,, एक गन्दी परम्परा,,
तब तो मुझे भी आपके बच्चों के साथ ,,,,
ओर फिर उन्हें मेरे बच्चों के साथ,, 
किसी को तो इस गन्दी परम्परा को तोड़ना होगा मामा,,?

शायद शुरुआत मुझे ही, कहकर रिंकू दौड़ कर गया और सारी बात अपनी माँ को बता दी।

प्रेम विवाह में तलाक क्यों

दोनों ने प्यार किया था, सीमाओं से पार का प्यार।
दुनिया ही सिमट गई थी उनकी एक दूजे के प्यार में। 
और प्यार को परवान भी चढ़ाया , समाज जाती के बंधन तोड़ कर। 
शादी कर ली उन्होंने दिल का पवित्र बंधन जोड़ कर। 

एक साल जैसे पंख लगाकर उड़ गया ,
दोनों खोये रहे प्रेम के स्वप्निल संसार में। 
बस प्रेम ही छलकता रहा उनके जीवन व्यभार में। 
किन्तु अब
!! प्रेमिका कहीं विलुप्त होती जा रही है।।।। 
वह एक विषुद्ध पत्नी बनती जा रही है। 
पत्नी के सारे अधिकार अब उसने ले लिए हैं निज हाथों में। फिक्र होने लगी है गृहस्थी की ,अब समय नहीं गँवा सकती बस प्रेमालाप की बातों में। 
अब वह पत्नी बन चुकी है , विशुद्ध भारतीय पत्नी । 

लोक लाज से भरी घर परिवार में रंगी, समाज की चिंता करती पत्नी। 
पति वेचारा,,,,,,,, 
उसकी प्रेमिका कहीं खो गई है, और वह ढूंढ रहा है उसे अपनी पत्नी में।
वो चाहता है वही प्रेम के क्षण । 
लेकिन अब पत्नी बनी प्रेमिका के पास समय कहाँ,कि वह उसके बालों में उँगलियाँ घुमाये।
या फिर देखे बैठ कर घण्टों उसकी आँखों में। 

वह झुंझला रहा है उकता गया है ,उसकी अनदेखी की आदत से। 
पत्नी वही बेचारी परेशां है, कि जो प्रेमी उसकी एक इच्छा पर कुर्वान करता था खुद को। 
आप प्रेम की नज़रों से देखता तक नहीं उसको।
अब तो वह उसकी बातें तक नहीं सुनता ध्यान से। 
क्या हो गया है ये ,रोज वह घंटों पूछती है पूजा में भगवन से। दोनों क्षुब्द रोज़ खटपट ,,, 
और नतीजा ,,,, 
,,,,,,,"तलाक",,

#कहानी/लगन

मुन्नू बिना मां बाप का आठ दस वर्ष का अनाथ बालक था, उसके मां बाप और छोटी बहन पिछले साल गांव में फैले हैजे का शिकार हो गए।
और मुन्नू अकेला रह गया उदास हताश असहाय।
मुन्नू को भूख लगती तो वह रोता रहता क्योंकि उसके पास ना तो पैसे थे और ना ही उसे खाना पकाना आता था।

मुन्नू का परिवार बहुत गरीब था उसके मां और पिता दोनों हो लोगों के खेतों में काम करते थे, उनके पास अपना कहने को एक कच्चे मकान के अलावा कुछ नहीं था।
उसके बाप "रामदास" की हार्दिक इच्छा थी कि वह इस साल एक दुधारू गाय अवश्य लेगा, इसके बच्चे भी दूसरों की तरह दूध का स्वाद जानेंगे।
किन्तु वक्त और विधि के विधान के आगे किसकी चली है।
और वक़्त के एक झटके से मुन्नू अनाथ हो गया अब उसका कोई सरपरस्त नहीं था जो उसके भविष्य के बारे में सोचे।

मुन्नू को कुछ दिन पड़ोसियों ने खाना दे दिया किन्तु फिर एक दिन किसी ने कहा, " मुन्नू कब तक हम तुम्हे ऐसे मुफ्त में खाना देंगे ? और फिर तुम्हारी अन्य ज़रूरतें भी तो हैं कपड़े आदि, तो क्या तुम सब कुछ मांग कर लोगे? "

"तुम्हे भी आगे की जिंदगी के लिए कुछ काम करना चाहिए।" दूसरे व्यक्ति ने भी पहले की हाँ में हाँ मिलाई।

"लेकिन मैं क्या काम करूंगा चाचा? मुझसे तो खेतों में काम भी नहीं होगा, मैं तो वजन भी नहीं उठा सकता", मुन्नू उदासी में बोला था ।
"डंगर तो घेर सकता है"?,, चाचा ने कहा।
"हाँ वो तो मैं कर लूंगा", मुन्नू ने धीरे से कहा।

"ठीक है मैं दो चार घरों में बात करता हूँ और कल बताता हूँ तुझे", चाचा ने उसे रोटी देकर कल आने को कहा और चले गए।

अगले दिन से मुन्नू चार घरों की गाय भैंस चराने का काम मिल गया जिसकी एवज में उसे महीने के चार सौ रुपए ओर रोज़ एक घर में खाना मिलना तय हुआ।
अब मुन्नू को सुबह दो रोटी गुड़ चटनी देकर गाय भैंसों के साथ जंगल भेज दिया जाता और शाम को लौटने पर अपनी बारी के घर से रात का खाना खिला दिया जाता।
सुबह से शाम तक नन्हा मुन्नू डंगरों के पीछे दौड़ता रहता।
शुरू में तो उसे बहुत बुरा लगा लेकिन बाद में यही इसके लिए खेल बन गया और कल्लो, लल्लो, भूरी, चांदी (गाय; भैंस)आदि उसकी दोस्त, जिन्हें वो अपनी अम्मा ओर बापू के किस्से सुनाता और उनके गले लगता।

उसे याद आता था कैसे उसकी अम्मा उसे रोज कहानी सुनाती और बड़ा आदमी बनने को कहती।

वह गाय भैंसों से पूछता, "क्या तुम कोई कहानी जानती हो, मेरी अम्मा जैसे?"
और भैंस बस हम्ममम्मममम्म करके रह जाती,
गाय भी उसके जबाब में अम्म्म्महहहह के अलावा कुछ नहीं कह पाती।

फिर वह पूछता,"ये बड़ा आदमी क्या होता है", लेकिन फिर जबाब हम्ममम्मममम्म, अम्म्म्म के अलावा कुछ नहीं मिलता।

एक दिन वह अपनी रो में यही बातें कल्लो(भैंस) व लल्लो(गाय) से पूछ रहा था और वहां से दूसरे गांव के अध्यापक जा रहे थे, उन्हें एक छोटे बच्चे का इस तरह भैंस और गाय से बातें करना कुछ अलग सा लगा, मुन्नू के चेहरे की मासूमियत उन्हें अपनी ओर खींचने लगी।

"क्या बात है बेटा,?" उन्होंने मासूम मुन्नू के सर पर हाथ रख कर कहा।
मां के बाद पहली बार किसी ने मुन्नू के सर को इतने प्यार से सहलाया था।
उसकी आँखों में जमी साल भर की बर्फ पिघल कर उसके गालों पर बहने लगी, उसकी सिसकी बंध गयी, मुन्नू सुबक सुबक कर रोने लगा आँसू उसके गौरे किन्तु धूमिल गालों को भोगोकर एक निशान बना रहे थे।

अध्यापक उसके सर पर हाथ फेरते रहे, उसकी मासूमियत ओर उदासी उनके मन को विचलित कर रही थी।

"क्या पूछ रहे थे तुम इन जानवरों से?"उन्होंने धीरे से मुन्नू से पूछा।
मुन्नू खुद को संयमित करते हुए बोला, "मैं इनसे कहानी सुनाने को कह रहा था काका, जब से अम्मा मरी है किसी ने कहानी नहीं सुनाई।"
"क्या तुम्हें पढ़ना नहीं आता? तुम खुद कहानियां पढ़ सकते हो में तुम्हे किताब दे दूंगा कहानियों की", मास्साब ने कहा।

"पढ़ना?" मुन्नू को समझ नहीं आया।
गांव में कोई स्कूल नहीं था तो मुन्नू को पढ़ाई के बारे में कुछ भी पता नहीं था।

"पढ़ाई क्या होती है काका? और ये किताबें क्या कहानी सुनाना जानती हैं?" मुन्नू जिज्ञासा से भर उठा।

"हाँ किताबे तुम्हारे सारे सवालों के जबाब जानती हैं बेटे बस जरूरत है तुम्हे उनसे दोस्ती करने की उन्हें पढ़ना सीखने की।" मास्साब ने मुस्कुरा कर कहा।

"मैं करूँगा उनसे दोस्ती काका", मुन्नू ने दृढ़ता से कहा।
"अच्छा तुम वो नदी पार बाला गांव जानते हो?" मास्टर जी ने पूछा। 
"हाँ काका", मुन्नू ने धीरे से कहा।
"तो तुम शाम को वहीं आ जाना मेरे घर, आ जाओगे? किसी से भी पूछ लेना कहना मास्टरसाहब के घर जाना है।" मास्साब ने उसे अपना पता समझाया।
"ठीक है काका", मुन्नू ने खुश होकर कहा।

आज मुन्नू ने डंगर जल्दी ही हांक दिए और बिना खाये पिये ही दौड़ लगा दी नदी पार के गांव की ओर जो उसके गांव से बस एक डेढ़ किलोमीटर दूर ही होगा।
दोनो गांव के बीच में एक छोटी सी नदी बहती थी जो बरसात के अलावा लगभग सूखी ही रहती थी, उसे पार करने के लिए उसके ऊपर दो बड़े खजूर के पेड़ काटकर पुल जैसा बना रखा था।
मुन्नू पुल को भी दौड़ कर पार कर गया, उसे तो लगन थी कहानियों की।
वह गांव में सीधा मास्साब के घर पहुंचा, गांव में घुसते ही पहले ही आदमी से उसे मास्साब का घर पता चल गया था।
मास्साब ने उसे बिठाया पीने को दूध और गुड़ दिया।

"मास्साब लाओ किताब मैं उससे कहानियाँ सुनूंगा।" मुन्नू उतावलेपन से बोला।
"हाहाहा!!"
मास्साब जोर से हँसने लगे।
"क्या हुआ?" मुन्नू उन्हें देखते हुए बोला।

"किताबे कहानी सुनाती नहीं उन्हें खुद पढ़ना पड़ता है", मास्टर साहब बोले।
"पढ़ना?लेकिन मुझे पढ़ना नहीं आता", मुन्नू उदास होकर बोला।
"मैं सिखाऊंगा तुम्हे पढ़ना", बस तुम्हे लगन से मेहनत से सीखना होगा।
"मैं सीखूंगा", जो कहोगे करूँगा मुन्नू ने कहा।

"ठीक है कल से रोज इसी समय आना होगा", मास्साब ने उसे एक तख्ती औऱ एक किताब देकर कहा ओर कुछ अक्षर बताकर नकल का अभ्यास करने को दिया।

मुन्नू घर लौट आया, रात भर वह उस किताब में छपे चित्र देखकर उन्हें समझने का प्रयास करता रहा, फिर कुछ अक्षर तख्ती पर खड़िया से लिखने लगा, उसे इस खेल में मज़ा आ रहा था, रात भर में उसने कितनी ही बार तख्ती लिखी।

मुन्नू रोज शाम को मास्साब के घर जाकर पढ़ने लगा, उसकी लगन और मेहनत से कुछ ही महीनों में वह बिना रुके बिना हिज्जे किये पुस्तक पढ़ने लगा, और बहुत सुंदर लिखाई भी करने लगा।
जल्दी ही मुन्नू ने बहुत सारी कहानियां भी पढ़ लीं थी अब उसे पता था कि बड़ा आदमी क्या होता है।
मास्साब ने उसका नाम स्कूल में लिखवा दिया और उसे शाम को घर पर ही पढ़ाने लगे, उन्होंने मुन्नू को इम्तिहान देने के लिए मना लिया था।
पांचवी का परिणाम मुन्नू के लिए बहुत खुशी लेकर आया वह स्कूल में प्रथम आया था, मुन्नू को भाषा, गणित और सामाजिक अध्ययन में बहुत अच्छे अंक मिले थे।
इधर मुन्नू इन तीन सालों में अपने सारे पैसे बचा कर रखता रहा अब उसके पास करीब सात आठ हजार रुपए की पूंजी थी, जिसकी मदद से उसने पक्की सड़क के किनारे एक कच्ची गुमटी बना ली और चाय नास्ता बेचने की एक छोटी दुकान खोल ली।
अब मुन्नू किसी का नौकर नहीं था और अब उसके पास पढ़ने के लिए पर्याप्त समय था।
उसकी लगन और मेहनत ने हमेशा उसका साथ दिया और उसने समय के साथ गांव से आठवीं की परीक्षा पास करके शहर में दाखिला ले या मुन्नू पढ़लिख कर बड़ा आदमी बनना चाहता था , वह अपनी अम्मा का सपना पूरा करना चाहता था।
मुन्नू बहुत ईमानदारी और मेहनत से अपनी दुकान चलाता और पूरी लगन से पढ़ाई करता, जल्दी ही उसे एक और अनाथ लड़का मिल गया उसके पास भी खाने रहने को कुछ नहीं था।
मुन्नू ने उसे अपने साथ रख लिया अब दुकान में दो लोगों के रहने से उसे पढ़ने के लिए अधिक समय मिलने लगा और वह उस लड़के को भी पढ़ाने लगा।
दसवीं की परीक्षा में मुन्नू को जिले में प्रथम स्थान मिला इससे उसकी और पढ़ने की लगन को बहुत बल मिला।
ऐसे हैं पूरी लगन से मुन्नू परिश्रम करता रहा, अब उसने अपनी गांव की झोपड़ी बेच कर सड़क के किनारे जमीन का एक टुकड़ा खरीद लिया था जिसमें कच्चा बड़ा मकान ओर आगे वही चाय की दुकान बना ली थी।
अब उसके साथ चार पांच अनाथ लड़के रहते थे जो उसकी दुकान सम्भालते और वह उन्हें भी लगन से पढ़ता।

इसी प्रकार समय के साथ मुन्नू आगे पड़ता गया और उसका घर बड़ा होता गया जहां अनाथों बेसहारा लोगों के लिए हमेशा स्थान मिलता रहा।
मुन्नू अपनी मेहनत और लगन से एक दिन भारतीय प्रसाशनिक सेवा में चयनित हो गया, अब वह सच में बड़ा आदमी था उसकी मां का सपना साकार हो चुका था।
उसने अब अपने घर को अनाथालय और बृद्धाश्रम बना दिया जहां उसे कितने सारे भाई- बहन और मां बाप मिल गए जो हमेशा उसके लिए दुआएँ करते हैं।

मुन्नू को अभी भी लगन है कि कोई अनाथ कभी भी बिना कहानी सुने न सोये, और कोई भी इसलिए अनपढ़ ना रहे कि वह अनाथ है।
उसमे अभी भी लगन है हर शहर में एक ऐसा आलय खोलने की जिसमे अभावग्रस्त लोगों को मुफ्त शिक्षा और रहने की व्यवस्था हो।
मुन्नू सच्चा बड़ा आदमी है , यूँ तो अब उसका नाम श्री मुनेश कुमार है, किन्तु वह मुन्नू कहलाया जाना ही पसंद करता है।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"
९०४५५४८००८(वाट्सप)

#कहानी/और वह मर गयी

नदी किनारे गांव के एक छोर पर एक छोटे से घर में रहती थी गांव की बूढी दादी माँ। 
घर क्या था ,उसे बस एक झोंपडी कहना ही उचित होगा। गांव की दादी माँ, जी हां पूरा गांव ही यही संबोधन देता था उन्हें। नाम तो शायद ही किसी को याद हो।

70/75 बरस की नितान्त अकेली अपनी ही धुन में मगन। कहते हैं पूरा परिवार था उनका नाती पोते बाली थीं वो। लेकिन एक काल कलुषित वर्षा की अशुभ!! रात की नदी की बाढ़ ,,, उनका सब समां ले गई अपने उफान में । 
उसदिन सौभाग्य कहो या दुर्भाग्य कि, बो अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ बच्चा होने की खुशियां मानाने गई हुई थीं। कोन जनता था कि वह मनहूस रात उनके ही नाती बेटों को उनसे दूर कर, उन्हें ही जीवन भर के गहन दुःख देने को आएगी। 
उसी दिन से सारे गांव को ही उन्होंने अपना नातेदार बना लिया, और गांव बाले भी उनका परिवार बन कर खुश थे।

किसी के घर का छोटे से छोटा उत्सव भी उनके बिना न शुरू होता न ख़तम।
गांव की औरतें भी बड़े आदर से पूछती," अम्मा "ये कैसे करें बो कैसे होता है। और अम्मा बड़े मनुहार से कहती इतनी बड़ी हो गई इत्ती सी बात न सिख पाई अभी तक । 
सब खुश थे सबके काम आसान थे । किसी के यहां शादी विवाह में तो अम्मा 4 दिन पहले से ही बुला ली जाती थीं। 

हम बच्चे रोज शाम जबतक अम्मा से दो चार कहानियां न सुन ले न तो खाना हज़म होता और न नींद ही आती। 
अम्मा रोज नई नई कहानियां सुनाती राजा -रानी, परी -राक्षस, चोर -डाकू ऐंसे न जाने कितने पात्र रोज अम्मा की कहानियों में जीवंत होते और मारते थे।

समय यूँही गुजर रहा था और अम्मा की उम्र भी। आजकल अम्मा बीमार आसक्त हैं उनको दमा और लकवा एक साथ आ गया। चलने फिरने में असमर्थ , ठीक से आवाज भी नहीं लगा पाती । 
कुछ दिन तो गांव बाले अम्मा को देखने आते रहे, रोटी पानी दवा अदि पहुंचते रहे। लेकिन धीरे धीरे लोग उनसे कटने लगे बच्चे भी अब उधर नहीं आते कि, कहीं अम्मा कुछ काम न बतादे। 
बो अम्मा जिसका पूरा गांव परिवार था अब बच्चों तक को देखने को तरसती रहती।
वही लोग जिनका अम्मा के बिना कुछ काम नहीं होता था , अब उन्हें भूलने लगे। 
औरते अब बच्चो को उधर मत जाना नहीं तो बीमारी लग जाएगी की शिक्षा देने लगी। 
अम्मा बेचारी अकेली उदास गुनगुना रही है- 
सुख में सब साथी दुःख में न कोई। 
अब तो कोई उधर से गुजरता भी नहीं । अम्मा आवाज लगा रही है अरे कोई रोटी देदो। थोड़ा पानी ही पिला दो।।।।!!
नदी किनारे रहकर भी अम्मा पानी के घूँट को तरसती उस रात मर गई। 
सुबह किसी ने देखा और गांव में खबर फैली की बुढ़िया जो नदी किनारे रहती थी आज मर गई।
लोग आये दो चार बूँद आंसू गिराये औरतों में चर्चा थी वेचारी सब के कितना काम आती थी,और आज मर गई।

कुछ देर में बुढ़िया का शरीर आग के घेरे में पड़ा था लोग अपने घर लौट रहे थे। और अब कहीं चर्चा नहीं थी कि वह मर गई। 

यही दुनिया है यही इसकी रीत है। जीवित हैं तो सबके हैं । मर गए तो भूत हैं। और कोई याद तक नहीं करता कि वह मर गई।

#कहानी/जैसा खाये अन्न

कुछ दिन से  चिंटू(चूहे) में जीवन मे कुछ अलग अनुभव हो रहा है, वह जब भी किसी छोटे जानवर को देखता उसके मुंह से भेड़िये जैसी गुर्राहट निकलने लगती, उसकी मूंछे खड़ी हो जाती उसकी नाक भी कजकल कुछ ज्यादा ही सूंघने लगी है।
कई बार तो अपनी इस वहशियाना स्थिति में वह अपने कई बिरादरी वालों को भी घायल कर चुका है।
चान्दनी रात में तो उसकी स्थिति और भयावह होने लगी है कल पूर्णिमा की रात में उसे कई बार वहशियत के दौरे पड़े उसने एक खरगोश को मार डाला, एक बिल्ले से भिड़ गया और घायल होने से पहले बिल्ले को लगभग मार ही डाला होता उसने अगर वह भाग ना गया होता।

सारे चूहा बिरादरी उसकी इस हालत से बहुत डरे डरे से सहमे से हैं।
उन्हें चिंटू से अपनी जान का खतरा होने लगा था, वह अपने बच्चों को उससे छिपाने लगे थे, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि ये चिंटू को आखिर हो क्या गया है, वह अचानक चूहे से भेड़िया कैसे बन गया?

अरे चिंटू तुझे याद भी है क्या हुआ था जब से तेरे ये हालात हुए  कुद्दु दादा ने चिंटू को शांत बैठे देख बहुत डरते डरते धीरे से पूछा।
मुझे कुछ नहीं मालूम दादा बस उस दिन मैंने एक नारे जानवर की हड्डी पर लगा मांस का टुकड़ा खाया था उसके बाद से पता नहीं मुझे क्या हो गया, चिंटू अफसोस करते हुए बोला।
ऑफ़ह!!तूने जरूर किसी नरभक्षी भेड़िये का मांस खा लिया चिंटू,,दादा अभी कह ही रहे थे कि सामने से एक लोमड़ी गुजरी ओर चिंटू ने गुर्राते हुए उसपर छलांग लगा दी चिंटू इतनी तेजी से उसकी गर्दन पर झपटा की जबतक वह सम्भल पाती चिंटू  उसकी गर्दन से मांस का एक बड़ा टुकड़ा नोच चुका था, ये देखकर दादा डर कर न जाने जब बिल में सरक गए पता भी न चला।

चिंटू के ख़ौफ़ और वहशी दरिंदा बनने के चर्चे पूरे जंगल में फैल चुके थे, छोटे तो छोटे अब तो बड़े जानवर भी उससे बचने ओर अपने छोटे बच्चों को उससे छिपाने लगे थे।

चिंटू खुद भी बहुत परेशान था कि आखिर उसे हो क्या जाता है, उसे तो कुछ याद भी नहीं रहता कि उसने किया क्या था बस देखता है खुद को घायल और साथियों को आश्चर्यचकित होता।

आजकल चिंटू अकेला हो गया है उसके वहशियत भरे दौरों के चलते अब उसके सारे परिवार और विरादरी बालों ने उससे दूरी बना ली है।
चिंटू अब कालिया लहरी की कब्रगाह (पढ़िए कहानी "चिंटू की चतुराई")
में रहता है बिरादरी से दूर अकेले में, लेकिन उधर से बाकी जानवर भी बहुत सावधानी से गुजरते हैं, यूँ तो चिंटू दिन में हमेशा शांत ही रहता है लेकिन शाम होते ही रोज खूनी दरिंदा बन जाता है।
अभी कल ही की बात है, दो भेड़िये इधर शिकार की तलाश में आ गए शायद बाहर किसी जंगल से आये थे उन्हें चिंटू के बारे में पता नहीं था।
सर्दी की रात थी चाँद की चान्दनी फैली थी ओस की बूंदें मोती की तरह चमक रही थीं और चिंटू उनसे खेलने में मग्न था तभी उसे अपने पीछे कुछ सरसराहट सुनाई दी उसके कान खड़े हो गए, नाक हवा में सूंघने लगी उसकी आंखें चमकने लगी मूंछ के बाल बरछी की तरह खड़े हो गए।
उसके मुंह से भेडिये जैसी ही गुर्राहट निकलने लगी और वह झपट पड़ा उसके शिकार की घात में बढ़ते भेड़ियों पर।

चिंटू का हमला इतना तेज था कि भेड़िये संभल भी न सके  तब तक चिंटू दोनों के गले की खाल उधेड़ चुका था।
दोनों भेड़िये सतर्क हो गये उन्हें समझ आ गया कि ये छोटा चूहा बहुत खतरनाक है।
दोनों शिकारी संयुक्त रूप से चिंटू पर हमला करने लगे किन्तु चिंटू बहुत होशियारी से उनके दांव पैंतरा बदल के चुका देता और किसी की पूंछ तो किसी का पैर कुतर देता।
दोनों भेड़िये उसकी फुर्ती ओर ताकत से सकते में थे चिंटू उनसे बिल्कुल किसी शिकारी भेड़िये की तरह ही लड़ रहा था।
लड़ते लड़ते आधी रात हो गयी दोनों पक्षों के खून से जमीन पर निशान बन गए लेकिन कोई भी पक्ष हार नहीं मान रहा था।
भेड़िये समझ चुके थे कि उसकी फुर्ती और शक्ति कुछ और है ये चूहे की ताकत नहीं है दोनों भेड़िये थकने लगे थे और अंततः चिंटू के आगे भेड़िये हार गए , दोनों भेड़िये एक ओर जंगल में भाग गए।
चिंटू का भी इस लड़ाई में बहुत खून बह गया था अतः वह भी बेशुध होकर जमीन पर गिर गया।
सुबह कुछ चूहों ने चिंटू को ऐसे जमीन पर पड़ा देखा और आसपास बिखरा खून देख कर समझ गए कि रात फिर चिंटू ने किसी शिकारी जानवर से खूनी संघर्ष किया है लेकिन ये ऐसे क्यों पड़ा है?? क्या चिंटू मर गया?? 
चूहों की बस्ती में हल्ला मचा हुआ था कि चिंटू मर गया,,, रात उससे भेडियो की लड़ाई हुई वहां पंजो के निशान हैं , सभी चूहे चर्चा कर रहे थे इधर चिंटू लड़खड़ा कर उठा और उसके मुंह से आवाज आई "माँ' ,,,
"चुकचुक" (चिंटू की मां) जो पास ही थी दौड़ कर उसके पास आयी और उसे सहारा देकर उठाने लगी, बाकी चूहे भी उसके सहायता को दौड़ आये,हालाँकि चिंटू के वहशी पन का ख़ौफ़ अभी भी उनके दिलों में था।

अब चिंटू ठीक हो गया है और अब वह दरिंदा भी नहीं बनता वह पूरी तरह सामान्य हो चुका है।
ये चमत्कार कैसे हुआ दद्दा मैं ठीक कैसे हुआ ?उसने, "कुद्दु" से पूछा।
उस लड़ाई में तेरा बहुत खून बह गया था चिंटू ओर उसी के साथ बह गया तेरे अंदर से खूंखार भेड़िये का अंश, अनुभवी दादा ने उसे समझाया।
सारे चूहे जान गए थे कि चिंटू अब फिर से चूहा बन चुका है, लेकिन ये बात उन्होंने जंगल से छिपा कर रखी हुई है और बाकी जंगली जानवरों के लिए चिंटू अभी भी दरिंदा ही है और उसके इस खोफ से चूहों की बस्ती सुरक्षित है।

दोस्तो ऐसे ही कई बार हमारे जीवन में भी अचानक परिवर्तन होते हैं, जैसे अच्छे भले निकले शाम की बीमार हो गए।
अचानक किसी को नुकसान पहुँचाने के ख्याल आने लगे, त बैठे बैठे कुछ भी अजीब लगने लगे तो,,,
"एक बार ये अवश्य सोच लें कि आज क्या खाया और किसका खाया"
क्योंकि
"जैसा खाये अन्न वैसा होवे मन"
©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
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#कहानी/ चिंटू की चतुराई


चिन्टू एक नन्हा चूहा है चिकचिक ओर चुकचुक की इकलौती औलाद।
यूँ तो चुकचुक को कई बार प्रसव हुआ कई संताने जन्मी लेकिन हर बार कालिया लहरी उनको जिंदा निगल गया।
कालिया एक बहुत बड़ा नाग है जो चलते चूहों उछलते मेंढकों ओर चिड़ियों के अंडों पर अपना जन्मजात अधिकार समझता है।
चिन्टू भी अभी तक इसीलिए बचा हुआ है कियूंकि उसके बाहर खुले में घूमने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा हुआ है।
आसपास के सारे चूहा परिवार इसी दंश से पीड़ित हैं कि कालिया लहरी उनके वंश को मिटाने पर तुला है।
किसी का एक तो किसी के दो बच्चे बमुश्किल बचे हुए हैं।
सारे चूहे कालिया का नाम सुनकर थरथर कांपने लगते हैं।

हम ऐसे कब तक कालिया के भय से मरणासन्न जीवन जिएंगे?? चिन्टू ने चूहों के सामने प्रश्न रखा।

क्या करें हम बेटा चिन्टू, अगर लहरी चाहे तो हम सभी को एक बार में ही निगल सकता है।
हम चूहे हैं और वह नाग, एक बूढ़े चूहे ने आंसू गिराकर कहा।

तो क्या हम कभी जी नहीं पायेंगे?? और फिर ऐसे डर डर कर जीने से तो अच्छा है कि हम उसका भोजन ही बन जाएं।
लेकिन चिन्टू यूँ जानबूझ कर मौत के मुंह में कोन जाना चाहेगा?, चिकचिक ने उदासी से कहा।
किउं ना हम सारे मिलकर एक साथ उस पर हमला करके उसे काट खाएं क्या होगा ज्यादा से ज्यादा दो चार लोगों को खा जाएगा लेकिन आने वाली पीढ़ी तो उसके भय से सुरक्षित हो जाएगी।
लेकिन कौन कुर्बानी देगा?? सभी के चेहरे लटक गए और सब चूहे चुपचाप सर झुका के चले गए।

बहुत हो चुका अब, कब तक हमारे लोग कालिया का निवाला बनते रहेंगे??आज उसने टुक टुक के बच्चे निगले हैं कल सुनिया को खा गया था हो सकता है कल को मुझे या आपमें से किसी को,,, चिन्टू गुस्से से बिफर रहा था।
टुक टुक ओर टिक टिक सर झुकाये आंसू बहा रहे थे ,अभी तो मेरे बच्चों ने आंखे भी नहीं खोली थी बेटा चिन्टू, टिकटिक जोर से रोने लगी।
अब रोने से क्या होगा चाची, हम बुजदिल चूहे क्या बस रोते ही रहेंगे, ?
नहीं अब बस,अब हमें कुछ करना ही होगा चिन्टू कुछ निश्चय करके खड़ा हो गया।
लेकिन क्या?? सभी ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।
हमें एक बिल तैयार करने में कितना समय लगता है बतातो?? चिन्टू ने सभी चूहों से पूछा।

ज्यादा से ज्यादा चार पांच दिन, सभी ने एक मत से जबाब दिया।

तो क्या आप सभी मुझे अपने पांच दिन देंगे?? चिन्टू ने पूछा।

हाँ हाँ सभी एक स्वर में बोले।
तो ठीक है ध्यान से सुनो ओर समझो, ओर चिन्टू उन्हें अपनी योजना समझाने लगा।

उस घटना को आज सात दिन हो गए इस बीच एक भी चूहा बाहर घूमता नही मिला कालिया बहुत परेशान है कि सारे चूहे गए कहाँ, वह भूख से परेशान था।
गुनगुनी धूप खिली हुई है कालिया सर को घास की छाया में किये धूप का मज़ा ले रहा है तभी एक चूहा तेज़ी से उसके सामने से निकल गया, कालिया चौकन्ना हो गया उसे चूहे की गंध अपनी ओर आकर्षित कर रही है।
कालिया ने सर उठा कर देखा चिन्टू चूहा लापरवाही से एक झाड़ी के पास बैठा कुछ कुतर रहा है।
कालिया खुशी से झूम उठा और सावधानी से उसके पीछे रेंगने लगा जैसे ही कालिया ने चूहे पर झपट्टा मार चूहा बिल में सरक गया और उसके पीछे कालिया भी बिल में घुस गया कालिया बिल में दूर अंधेरे में चूहे की गंध सूंघता घुसता चला गया, आगे बिल की चौड़ाई बहुत कम थी और कालिया उसमें लगभग फंस ही गया और इससे पहले की वह बापस लौटता उसके ऊपर कंकर पत्थर और मिट्टी का ढेर गिरने लगा ।
कालिया बहुत कोशिशों के बाद भी हिल ना सका और उस बिल में ही उसकी जीवित कब्र बन गयी।
आज उसका लालच उसके पापों पर भारी पड़ गया।
चिन्टू ने उसके लिए एक ऐसी योजना बनाई थी जिसमें एक लंबा पतला बिल था जिसमें सैकड़ो बिल जुड़े हुए थे, उनमें चूहों ने छोटे छोटे कंकर पत्थर और मिट्टी भर रखी थी।
जब कालिया चिन्टू के पीछे बिल में घुसा तो चिन्टू तो घूम कर दूसरे बिल में घुस कर दूसरी ओर निकल गया और बाकी चूहों ने मिट्टी कंकर सरकाकर कालिया को दफन कर दिया।
सारे चूहे चिन्टू की चालाकी की प्रसंशा कर रहे थे और चिन्टू को अपना राजा बना कर जय जय कार कर रहे थे।

©नृपेन्द्र शर्मा"सागर"

#कहानी/ गांव के रिश्ते

उत्तरप्रदेश का एक छोटा सा गांव है जिसमें बस दो ही विरादरी के लोग रहते हैं।
गांव में सभी भाईचारा रखते हैं सुखदुख में सभी एक दूसरे के साथी हैं।
पूरे गाँव की आबादी होगी यहि कोई सात आठ सौ।

गांव की अपनी एक पंचायत है जिसमें दोनों जाती के लोग समान संख्या में पंच हैं।
पंचायत का निर्णय किसी के भी लिए ईस्वर वाक्य होता है, जो निर्णय एक बार हो गया वह बदल नहीं सकता गांव में रहने की यही शर्त है।
गांव में चारों ओर खुशहाली है, अधिकतर लोग सब्जी उगाते हैं , बाकी अन्य अनाज ,दलहन, तिलहन आदि भी भरपूर पैदा होता है लेकिन मुख्यतः सब्जी की खेती ही प्राथमिकता होती है।

कुछ बर्ष पूर्व तक,

गांव के पूर्व में कल्लू का घर था, कुछ कच्चा ,कुछ पक्का, कल्लू एक अल्हड़, जवान और मेहनती नौजवान था।
उसकी मेहनत से इसकी फसलें गांव भर में चर्चा पाती थीं।
उसकी दुधारू भैंसे देखकर हर कोई ईर्ष्या करता था।
वहीं  गांव के पश्चिमी छोर पर घर था माधोसिंग का, कच्चा मकान, छोटा लेकिन व्यवस्थित।

माधोसिंग के पास ज्यादा जमीन नहीं थी अतः वह दूसरे किसानों की जमीनों में मजदूरी करता था।
माधोसिंग की एक बेटी थी 'नीला' अठारह उन्नीस वर्ष की, अल्हड़, बेफिक्र, हवा में बादल सी उड़ती, चिड़िया सी चहकती, सांवली, सुंदर और खूब हंसमुख थी नीला।

नीला काम मे माधोसिंग का हाथ बंटाती खुद भी खेतों में मटर तोड़ने, गाजर उखाड़ने या निराई गुड़ाई करने का काम करती थी।

आज माधोसिंग को कल्लू( कालीचरण सिंह) ने बुलाया था कुछ आलू निकालकर और मटर तोड़ कर मंडी भेजना था।

लेकिन माधोसिंग को अचानक कहीं बाहर जाना पड़ा, तो उसने नीला से कहा था कि वह जाकर मटर की तुड़ाई कर दे। बाकी आलू कल्लू खुद निकाल लेगा और माधोसिंग लौटकर मंडी छोड़ आएगा।

उछलती, कूदती, नीला जब खेतों पर पहुंची तो कल्लू खेत में दण्ड पेल रहा था, नीला उसके सामने जाकर खड़ी हो गयी।

"आज पिताजी को कहीं जाना पड़ गया तो वे तो नई आएंगे मैं फली तोड़ दूंगी तुम आलू  खोद लो", नीला जोर से बोली।

कल्लू ने मुंडी उठाकर नीला को देखा तो देखता ही रह गया, नीला का सांवरा मुखड़ा लंबे काले बाल गुलाबी होंठ, गहरी काली चमकदार आंखे, कल्लू उनमें डूबकर ही रह गया वह सब कुछ भूलकर एकटक नीला को देख रहा था।

नीला भी कल्लू को यूं बाबला हुए उसे घूरते देख शरमा गयी,उसकी  जबानी के अरमान कल्लू की इन नज़रों का अर्थ अच्छी तरह समझ रहे थे।
नीला को आज कल्लू का इस तरह सुध-बुध भूल कर उसे देखना अच्छा लग रहा था, वह खुद कल्लू के भरपूर जवान अल्हड़ रूप पर मुग्ध थी।
"क्या हुआ ऐसे क्या देख रहे हो कालीचरण??" नीला धीरे से मुस्कुरा कर बोली।

"क.. क ..कुछ नहीं नीलू , तेरे बापू कहाँ गए ? सब ठीक तो है?" 
कल्लू की आंखें अब भी नीला के मुखड़े पर ही जमी हुई थीं।

"हां सब ठीक है, बस उन्हें कुछ काम आ गया तो जाना पड़ा, तीन चार घण्टे में आ जाएंगे पिताजी।" नीलू मुस्कुरा कर बोली।

"अच्छा, फिर तू अकेली मटर तोड़ेगी?" कल्लू ने उसकी आँखों में देखते हुए पूछा।

"हां तब तक तुम आलू खोदो", नीला मुस्कुरा कर बोली।

"क्यों ना पहले हम मिलकर मटर तोड़ें, उसके बाद मैं आलू खोदूँगा तुम बीनना", कल्लू बराबर उसकी आँखों में देखते हुए बोला।

"ठीक है लेकिन ये आज तुम मुझे ऐसे क्यों घूर रहे हो जैसे पहले कभी देखा ना हो मुझे", नीलू मन ही मन खुश होते हुए बोली।

"आयें,, ह हाँ, आज तुम बहुत अलग लग रही हो नीलू,, बहुत सुंदर", कल्लू ने धीरे से कहा।

"सच??", नीलू ने शरमा कर धीरे से कहा।

"सच तेरी कसम,  आज जाने क्यों तुझे देखते रहने का मन कर रहा है नीलू", कल्लू मुस्कुरा कर बोला।

नीला और कल्लू दोनों एक साथ मटर की फलियां तोड़ने लगे जिसमें न जाने कितनी बार इनकी उंगलियां आपस में टकराई या कहो टकरायी गयीं।
और आंखे तो ऐसे चिपकी रहीं मानो बरसों की बिछड़ी हों।
नीला के बापू शाम को आये तब तक दोनों(नीला और कल्लू) आँखों ही आंखों में एक रिश्ता जोड़ चुके थे।

कल्लू ओर नीला इस एक ही मुलाकात में एक दूसरे के हो गए,ऐसा नहीं था कि दोनों पहली बार मिले थे लेकिन असज की मुलाकात ही कुछ अलग थी।
रात भर दोनों एक दूसरे के बारे में ही सोचते रहे और सुबह फिर दौड़े खेत में जहां उन्हें मटर तोड़ने की नहीं आंखे जोड़ने की जल्दी थी।

अब नीला कल्लू के अलाबा किसी ओर के खेतों में काम नहीं करती,,काम ना रहने पर भी रोज नीला कल्लू के खेतों में जाती है ,दोनों देर तक कभी अरहर तो कभी तिल की फसल से घास निकालते हैं।
आज उनके पहले मिलन को साल से ज्यादा हो गया, अब तो दबी जुबान में लोग इनकी चर्चा भी करने लगे हैं।


आज सरपंच जी ने कल्लू को बुलाया और पूछा ," कल्लू ये जो तुम्हारे ओर माधो की लड़की के बारे में फैली है क्या ये बात सच है?" 
देखो हमारा छोटा सा गांव है सभी लोगों में भाई चारे के माहौल है।
ओर फिर माधो ओर तुम तो विरादरी के भी हो तो तुम्हारा ओर नीला का रिश्ता भाई बहन से ज्यादा नहीं हो सकता मुखे यकीन है तुम गांव की परंपरा और अपनी मर्यादा का ध्यान रखोगे।

सरपंच से मिलकर लौट कर कल्लू बहुत परेशान हो गया।
क्यों वह दिल के हाथों मजबूर हुए क्यों उनका रिश्ता दोस्ती से आगे ,,,
ओर फिर अब तो ये चाहकर भी भाई बहन नहीं बन सकते, उसे याद आ गयी वह बरसात जब दोनों अरहर की घास निकाल रहे थे।
उस दिन बारिश ने इनके तन के साथ मन को भी भिगो दिया था , ये दोनों अपने प्यार में सीमाएं लांघ गए थे उस दिन।
कल्लू ने उसी दिन नीला की मांग में खेत की मिट्टी से निशानी लगा कर इसे प्रकृति को साक्षी मान कर रिश्ता मजबूत कर लिया था, और उसके बाद बारिश में भीगते हुए दोनों पिघल कर एक दूसरे में समा कर बरसात से बह गए थे।

नीला के आते ही कल्लू ने उदास होकर सारी बात उसे बतायी।
तो!! अब। क्या होगा जी?? नीला तो लगभग रोने ही लगी।।

चल,, कल्लू ने नीला का हाथ कसकर पकड़ लिया और चल दिया नीला के घर।

घर जाकर उसने माधोसिंग के पांव छूकर कहा," हम प्रेम करते हैं चाचा  विवाह भी कर लिया हमने इंदर देवता के सामने अब बस तुम इसे गांव के सामने मान लो"।
अब हमारा रिश्ता बहुत आगे बढ़ गत है चाचा, कल्लू आंखों में पानी भर लाया।

मेरे मानने से कुछ नही होगा बच्चों, हमारी पनचेत इस बात को नई मानती , गांव के सारे लड़के लड़की भाई बहन हो सके है बस बाकी कुछ नई।
सरपंच ने मुझे भी धमकी दी कि मैं अपनी लड़की को समझा दूँ, नहीं तो मुझे भी सज़ा मिलेगी।

पंचेत की नज़र में एक गांव के लोगो की शादी पाप है, ओर ऐसे पाप से गांव पे मुशीबत अस सकती है।

लेकिन चाचा हमतो गांव के अलग अलग छोर पर रहते हैं इर फिर एक ही जाती बिरादरी,,,

वो सब ठीक है बेटा लेकिन पंचेत नही मानेगी।

तो चाचा मैं गांव छोड़के शहर में?? 
नही होगा बेटा कोई नहीं मानेगा तब भी।

तू नीला को भूल जा कल्लू छोड़ दे अपनी जिद।

नही चाचा मैं पंचयात से बात करूंगा कल्लू कहकर चला गया।

पंचयात बैठी हुई थी सभी एक ही बात कह रहे थे," एक गांव के लड़के लड़की की शादी, मतलब भाई बहन की शादी मतलब महापाप।
हम गांव में ये पाप हरगिज नहीं होने देंगे, इस रक्षा बंधन को नीला पंचात के सामने कल्लू को राखी बांधेगी बस , सरपंच ने फैसला सुना दिया।

चार दिन बाद ही तो रक्षाबंधन है, कल्लू सोच रहा था इधर नीला का रो रोकर बुरा हाल था, माधोसिंग उसे समझा रहा था, पंचायत के फैसले से माधो भी दुखी था, वह कहीं न7 कहीं चाहता था कि उसकी इकलौती बेटी उसकी आँखों के सामने रहे,, ओर फिर कल्लू जैसा खुशाल मेहनती किसान उसे कहाँ मिलेगा।
लेकिन पंचयात से विरोध करके भी तो,,, माधोसिंग की आंखे गीली थीं।

हम आज रात ही गांव छोड़ देंगे चाचा कल्लू ने अपना फैसला सुनाया,, जबाब में माधोसिंग कुछ नही बोला बस उसे जाते देखता रहा।


रात को कल्लू रात भर नीलू का इंतज़ार करता रहा सड़क पर जहां से बस पकड़कर उन्हें शहर जाना था लेकिन नीलू नहीं आयी।

सुबह हो चली थी कल्लू उदास परेशान धीरे धीरे गांव लौट रहा था तभी उसे उसका दोस्त बिल्लू दौड़ता आता दिखा,, 

बो नीला,, नीला!! मर गयी रात कल्लू। बिल्लू हाँफते हुए बोला।
क्या मेरी नीलू!! कल्लू सर पकड़कर बैठ गया।

माधोसिंग जोर जोर से रो रहा था छाती पीट रहा था तभी कल्लू दौड़ता हुआ आया और माधोसिंग से लिपट कर रोने लगा,, क्या हुआ तंग चाचा नीलू को??ऐसे अचानक कैसे??

उल्टी दस्त लगे थे उसे रात भर में पेट का पानी खत्म हो गया इर दवाई इलाज न होने से मर गयी।
सरपँच ने कहा उसके चाहते पर इस वक़्त दुख नहीं बल्कि कुटिल मुस्कान थी।

चलो चलो रोने धोने से कुछ नहीं होगा लाश को ठिकाने लगाओ जल्दी पूरा गांव तब तक कुछ नहीं खायेगा जब तक इसकी चिता नहीं जलेगी।

नीलू की लाश को अर्थी में रखते समय कल्लू ने धीरे से उसकी मांग में सिंदूर लगा दिया, और श्मशान में माधो की मदद करने के बहाने अग्नि भी कल्लू ने ही,,,
कल्लू ने धीरे से अपने पति होने के कर्तव्य निभा लिए।

कल्लू ने उसके बाद शादी नहीं की, अब माधोसिंग ओर कल्लू साथ ही रहते हैं, कल्लू माधोसिंग के लिए उसका बेटा ही है।
माधोसिंग ने कल्लू को कब का बता दिया की नीलू को उस दिन किसी ने जहर,,, लेकिन दोनों पंचायत के डर से खामोश ही रहते हैं।

©नृपेन्द्र शर्मा"सागर"

#यात्रा वृतांत/ नीलकंठ की यात्रा

अगस्त, 2007 बरसात अपने पूरे यौवन पर थी बादल कई बार दिन को ही रात बनाकर खेल रहे थे।
सावन का पावन महीना था भक्त भीगते झूमते बाबा(भोलेनाथ)" को मनाने कांवर उठाये हरिद्वार से जल भरकर अपने अपने श्रद्धा धाम की और दौड़ रहे थे।
चारों और वातावरण भोले की बम से गूँज रहा था।

"सावन की शिवरात्री को क्यों ना नीलकण्ठ में जाकर जल चढ़या जाए",मैंने अपने मित्र नरेंद्र सिंह आरोलिया से कहा।
बहुत अच्छा विचार है यार चलो प्रोग्राम बनाते हैं, "कल तय करते हैं कैसे चलना है और बाकी लोगों से भी पूछ लेते हैं नरेंद्र ने कहा।

अगले दिन मैं नरेंद्र, के.के.सिंह के साथ हमारे तीन और मित्रों
का जाने का तय हुआ कि रविवार को सुबह बस पकड़ेंगे पूरा दिन हरिद्वार घूमेंगे उसके बाद शाम को निकल जाएंगे ऋषिकेश के लिए।
रात को गीता भवन में रुकेंगे वे सुबह चार बजे से नीलकण्ठ की चढ़ाई,,,

कई दिन से मौसम अमूमन साफ ही था, हमारी तैयारी पूरी थी शनिवार की शाम को ही हमने अपने बैग सही कर लिए माता जी ने पूरियां और सुखी सब्जी की सारी तैयारी कर दी , सुबह जब तक तुम नहाकर तैयार होंगे पूरी बन जाएगी माँ ने कहा।
भोलेनाथ की जय बोल कर प्रसन्न मन से शनिवार की रात को मैं सो गया।

रात कोई दो बजे बदल गड़गड़ाने की जोर की आवाजें आने लगी देखते ही देखते मूसलाधार बारिश होने लगी सुबह के पांच बजे तक चारों ओर पानी ही पानी हो गया, बारिश के रूप में जैसे भोले नाथ हमारी परीक्षा ले रहे थे हम हाथ जोड़े प्रार्थना कर रहे थे लेकिन बारिश के रूप में बाबा का क्रोध बढ़ता ही जा रहा था।

"क्या किया जाय" ?? मैंने नरेंद्र को फ़ोन किया।
नरेंद्र ओर कृष्णकुमार एक ही साथ एक मकान में किराए से रहते थे और मैं कोई दस मिनट के रास्ते पर दूसरे मकान में हम सभी किराये से रहते थे।
करना क्या है चलेंगे , सारी तैयारी पूरी है अब हम किसी भी परीक्षा के लिए तैयार हैं।

ठीक है फिर तुम सामने देखो क्या कोई बस मिलेगी काशीपुर जाने के लिए? 
हमारे बाकी तीन मित्र काशीपुर(उधमसिंह नगर उत्तराखण्ड) में रहते थे और हरिद्वार की बस हमें वहीं से मिलनी थी।

कोई बस नहीं है यार चारो तरफ घुटनो तक पानी भरा हुआ है और बारिश भी रुकने का नाम नहीं ले रही, नरेंद्र ने मुझे फ़ोन करके बताया।
फिर?? मैंने पूछा।
किसी तरह काशीपुर पहुंच जाएं फिर तो रोडवेज की बस मिल जाएगी नरेंद्र ने कहा।
ठीक है मैं बाइक लेकर आता हूँ तुम लोग निकलो मैंने अपना बैग लिया और बाइक उठा कर भोले की जय बोल कर निकल गया।

हम तीन लोग बाइक से भरी बारिश में किसी तरह काशीपुर पहुंचे कई बार तो मार्ग में इतना पानी भरा था कि बाइक का बस हैन्डल ही दिख रहा था,कितनी ही बार पानी में तैरते सांप हमारा रास्ता काट रहे थे।
हम लगातार जय भोले की बोल रहे थे।

काशीपुर पहुंच कर पाता लगा कि बाकी तीनों लोगों का प्रोग्राम कैंसिल है इतनी बारिश में उनकी हिम्मत नहीं हुई चलने की।
हमने बाइक उनके रूम पर खड़ी की ओर कभी घुटनों कभी कमर तक पानी में होकर आ गये बस अड्डे पर।

हमारे कपड़े पूरी तरह भीगे हुए थे बारिश थमने के कपि आसार नहीं थे कहीं ना कहीं मन मे ख्याल था कि कहीं हमने कोई गलती तो नहीं कि ऐसे खराब मौसम में चलने का निर्णय करके।
लेकिन मन मे एक ही भाव था कि बाबा का बुलाबा है तो सब ठीक होगा।

आधे घण्टे बाद एक बस आयी जो हरिद्वार जा रही थी उसमें आठ दस लोग बैठे हुए थे उन्हें देखकर हमे लगा कि हम अकेले नहीं है इस बरसात में सफर करने बाले।
बस में बैठकर सबसे पहले हमने कपड़े बदले, कपड़े क्या बस लुंगी और बनियान,, बाकी गीले कपड़े निचोड़ कर बस की खिड़की के सामने डाल लिए और नीलकण्ठ बाबा को याद करते उनकी जय बोलते रहे।

ठीक दस बजे हम लोग हरिद्वार पहुंच गए अब बारिश बहुत हल्की हो गयी थी हमलोग ने खुशी खुशी हर की पैड़ी पर स्नान किया गंगा मैया के मंदिर में दर्शन करके जल भरकर हम आगे चल दिये।
आगे हमने वैष्णोदेवी मन्दिर, भारतमाता मन्दिर और अन्य कई मंदिरों में दर्शन किया जो सारे एक ही रास्ते पर है हरिद्वार ऋषिकेश मार्ग पर उसके आगे शांतिकुंज है।

शाम चार बजे हम लोग ऋषिकेश पहुंच गए, रामझूला पार करके हमने वेदांतनिकेन में रहने की व्यवस्था की ओर समान रखकर घूमने निकल गए, बारिश अभी भी माध्यम गति से हो रही थी।
हमने रामझूला के पास शाम को फिर गंगास्नान किया और गंगा आरती में शामिल हुए, गङ्गा आरती बहुत भव्य तरीके से होती है बहुत मोहक दर्शय होता है।
मन आत्मा भक्ति से भर गए, मार्ग के सारे कष्ट सारी थकान मिट गई।
उसके बाद हमने चोटी बाला भोजनालय में खाना खाया और धर्मशाला आकर आराम किया।
हमारे पास पहनने के लिए एक भी सूखा कपड़ा नहीं था तो वही, लुंगी ओर कुर्ता,,,

सुबह तीन बजे उठ कर हम नित्यकर्मों से निपट कर फिर गंगा मैया के पास पहुंचे हमने गङ्गा स्नान करके सुबह ठीक चार बजे पैदल मार्ग से नीलकण्ठ की यात्रा नीलकण्ठ की जय के साथ प्रारम्भ की।

नीलकण्ठ धाम ऋषिकेश रामझूला से पैदल 16 किलोमीटर ओर मोटरमार्ग से 25 किलोमीटर की दूरी पर है।
ये स्थान "मुनि की रेती", में आता है।
मोटर मार्ग से लगातार टैक्सियाँ मिलती रहती हैं।
हमने पैदल मार्ग चुना और पूरे जोश से चलने लगे नीलकण्ठ की जय बोलते हुए।
मार्ग बहुत सँकरा और ऊबड़खाबड़ था ऊपर से लगातार होती बारिश से फिसलन भी बहुत हो रही थी फिर भी नीलकण्ठ की जय बाबा की बम के नारे और लोगों की बढ़ती भीड़ हमारे पैरों में पंख लगा रही थी।

कई जगह चढ़ाई इतनी अधिक थी कि हमारी सांस फूल जाती, ऊपर से पूरे मार्ग में पीने का पानी उपलब्ध नहीं था (पानी की बोतल साथ ले कर जाएँ)हर जगह बस जलजीरा शिकंजी कोल्डड्रिंक ही बिक रही थी।

कोई आठ बजे हम लोग मंदिर के सामने लगी आधा किलोमीटर लंबी लाइन में जा लगे मन मे बहुत प्रसन्नता थी कि अब हमें हमारे इष्ट के दर्शन होने बाले हैं।
लगातार जयकार करते भजन गाते लोग और धीरे धीरे सरकती लाइन,,,
11 बजे तक हम लोग नीलकण्ठ बाबा पर जल चढ़ा कर बाहर आ गए नीलकण्ठ धाम एक गहरी घाटी में स्थित है चारो ओर ऊंची पहाड़ियां और बीच में रख गोल घाटी बहुत सुंदर लगती है।
सावन में तो वहां इतनी भीड़ हो जाती है कि दर्शन करना मुश्किल होता है।
हमारे पूरे मार्ग में बारिश एक पल भी नहीं रुकी थी, नीलकण्ठ घाटी में ऐसे भी ज्यादा बारिश होती है।

वहाँ से हमलोग ऊपर सिद्धबाबा के दर्शन करने पहुंचे जो स्थान हनुमान जी को समर्पित है, वहाँ की चढ़ाई बिल्कुल खड़ी है, सांस फूल जाती है पहुंचते पहुंचते।

वहाँ दर्शन करके हमलोगों ने माता पार्वती के दर्शन के लिए पार्वती धाम का मार्ग लिया , पार्वती मन्दिर नीलकण्ठ से कोई चार किलोमीटर ऊपर है रास्ता ऊबड़खाबड़ ओर सँकरा था ऊपर से चढ़ाई भी अधिक थी(अब पार्वती मंदिर के दो किलोमीटर पास तक मोटर मार्ग बन गया है)
कोई दो घण्टे में हम लोग माता पार्वती के सामने थे, माता का रूप बहुत सौम्य वात्सलय है मन्दिर भी काफी बड़ा है और वहाँ पर्वत के दर्शय भी बहुत रमणीक हैं।

वहां मीठे नीम(कड़ी पत्ता) की पकोड़ी बहुत प्रसिद्ध हैं जो आपको पूरे नीलकण्ठ मार्ग में मिलेगी।
वहां से कोई दो कोलोमिटर ऊपर झिलमिल गुफा है और झिलमिल से कोई आधा किलोमीटर गणेश गुफा।
गणेश गुफा तो लगता है सीधे खड़े पर्वत में ही बनी है ।

बापसी में हमने मोटर मार्ग लिया और छः बजे तक बापस हरिद्वार पहुंच गए।
हमारी इस पूरी यात्रा में कभी भी बरसात बन्द नहीं हुई और मौसम की भयावहता ने एक पल के लिए भी हमारा ध्यान हमारे इष्ट के चरणों से हटने नहीं दिया।
रात कोई दो बजे तक हम लोग अपने घर पहुंच गए थे।

उसी बर्ष हमलोगों ने अपने खुद के मकान बनाने प्रारम्भ कर दिए थे ये हमारी उस परीक्षा का फल था।
अगली शिवरात्रि(फरवरी) हमने अपने खुद के घर में मनाई।
हम तीनों लोग अब अपने खुद के मकानों में रहते हैं।
और प्रयास रहता है कि बर्ष में एक बार बाबा नीलकण्ठ का धन्यवाद करने उनके धाम पर सर अवश्य झुका आएं।
इस यात्रा को हम कभी नहीं भूलेंगे बहुत अविस्मरणीय यात्रा थी वह।

बहुत शक्ति है नीलकण्ठ बाबा की , जो मांगो मिलता है बस भक्ति अच्छी और श्रद्धा सच्ची होनी चाहिए।
बोलिये नीलकण्ठ बाबा की जय।
नृपेन्द्र शर्मा

#कहानी/ मूर्ति

आज फिर खाना नहीं बना फूलो?? हारा थका लालू झोंपड़ी के बाहर ठंडे चूल्हे को गीली आंखों से देखता हुआ बोला।

कहाँ से बने कित्ते दिन है गए तुम कुछ लाये कमा के फूलो तुनकती हुई बोली।
क्या करूँ फूलो आजकल मूर्ति बनती ही नहीं ठीक से कई पत्थर टूट जाते हैं कुछ मूर्ति बनत भी है तो उसमें सुघड़ता नई आबे।
अब बता मेरा क्या दोष है मैं तो सुबह से शाम लगा देता हूँ मूर्ति गढ़ने में, लालू दीवार का सहारा लेकर जमीन पर बैठते हुए बोला।
लालू  35-40 साल का कृषकाय युवक है जिसकी आंखे पीली होकर गढ्ढे में धंस गयी हैं, वह मंदिर से कुछ दूर पत्थर की मूर्ति बना कर बेचता है, फूलवती उसकी पत्नी है, उसे भी जीर्णता ने बेरंग बना दिया है कभी उसे देखकर लालू कहता था, "मेरी फूलो भगवान की बनाई सबसे सुंदर मूर्ति है" और आखिर हो भी क्यों ना मैं भी तो उस भगवान की इतनी सुंदर मूर्तियां गढ़ता हूँ, ना जाने कितने मंदिरों में मेरी बनाई मूर्ति की पूजा होती। लालू गर्व से कहता तभी तो उसने मेरे लिए संसार की सबसे सुंदर मूर्ति बनाकर भेजी, और फूलो शर्म से लाल होकर उसमे समा जाती।

लालू की बनाई सुंदर मुर्तिया अच्छे पैसे में बिकती थी घर ठीक ठाक चल रहा था लेकिन कुछ दिन से मंदिर के आस पास प्लास्टर ऑफ पेरिस से मूर्ति बनाने वाले लोग आ गए उनकी बनाई मूर्ति देखने में सुंदर बजन में हल्की ओर कीमत में आधी से भी कम, अस्तु लालू के काम पर इसका बुरा असर हुआ, उसकी बनाई मूर्ति की बिक्री घट कर ना के बराबर हो गयी।
काम मन्द होने से घर में भुखमरी के हालात बनने लगे,उसी बीच फूलो को दो बार बच्चा हुआ लेकिन कुपोषण ओर कमजोरी के चलते दोनों बार मोत उन्हें अपने साथ ले गयी और उसके बाद तो डॉक्टर ने उन्हें मना कर दिया कि अब अगर बच्चा हुआ तो फूलो की जिंदगी बचाना मुश्किल हो जाएगा।

कोई बात नहीं फूलो ऐसे भी हम बच्चों को हैब खिला पिला नहीं सकते तो हमें उन्हें दुनिया में लाना भी नहीं चाहिए और फिर अबतो उस ऊपर बाले की भी यही इच्छा है। लालू ने फूलो को सीने से लगा कर प्यार से समझाया था।
फूलों ने भी दिल पर पत्थर रख इसे अपनी किस्मत मान लिया था।

लेकिन आज तीन दिन से लालू एक भी मूर्ति बेच नहीं पाया है  घर में  अनाज का दाना तक नहीं है लालू इतना कमजोर हो रहा है कि पत्थर तराशने जैसा बारीक काम उसके लिए असम्भव हो चला है, आज फूलो पहली बार दुखी और बराज होकर बोली," अरे मन्दिर के बाहर बैठा भिखारी भी कभी भूखा नहीं सोता, तुम तो उसकी मूर्ति बनाते हो जिनमे लोग इसके दर्शन करके उस भगवान की पूजा करते हैं।
जाने क्या माया है तुम्हारे भगबान की जो एक उसके नाम पर मांग खाता है और जिसकी बजह से लोग उसका नाम बार बार लेते हैं वो मूर्ति बाला भूखा सोता है, बन्द करो तुम भी ये मूर्ति का काम अरे इससे तो अच्छा दोनों भीख ही मांग खाये, फूलो की आंखों से आंसू बहने लगे आज वह जी भर कर भगवान को कोस रही थी जो मन में आ रहा था बुरा भला कह रही थी।
और लालू हाथ जोड़े बस एक ही प्रार्थना कर रहा था कि हे मालिक ये नहीं जानती की कितनी चोटें खाकर एक पत्थर मूर्ति बन पाता है अगर ऐसे दुख पीड़ा से टूट जाये तो उसकी किस्मत सड़क की कंकर बनकर रह जाती है ,मैं जानता हूँ प्रभु ये हमारी परीक्षा है और तूने जरूर हमारे लिए कुछ अच्छा सोच रखा होगा, उसे विस्वास था कि भगवान फूलो की गलती को माफ करेगा और उनका जीवन एक दिन ज़रूर बदलेगा।

इसी प्रार्थना में लालू को कब नींद आयी उसे पता भी नहीं चला उसकी नींद खुली एक तेज़ आवाज से जो उसकी झोपड़ी का दरवाजा जोर जोर से पीटने से आ रही थी।

लालू जल्दी से उठ कर बाहर आया बाहर दो बड़ी बड़ी गाड़ियां खड़ी थीं और कुछ लोग  उसके सामने खड़े थे।

जी मालिक??लालू डरा सहमा हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।
तुम्ही मूर्तिकार हो? उनमें से एक नए पूछा।

जी सरकार मैं ही हूँ।

सेठजी एक बड़ा मंदिर बना रहे हैं उसमें बीस पच्चीस मूर्तियां बनानी हैं बना लोगे?उस व्यक्ति ने पूछा।

जी मालिक हो जाएगा।
ठीक है चलो हमारे साथ, इस बार सेठजी ने कहा।
वो हुजूर मेरी पत्नी?? लालू ने कुछ बोलना चाहा।

आप दोनों के रहने खाने का इंतज़ाम मंदिर के पास ही रहेगा ये लो कुछ रुपये ओर हमारा पता तुम लोग एक हफ्ते में यहाँ से कम खत्म करके आ जाना, कहकर ये लोग चले गए।
लालू हाथ जोड़े देर तक उन्हें जाते देखता रहा।

ये ले फूलो पूरे पांच हजार रुपए हैं , जब पेशगी इतनी बड़ी है तो कम कितना बड़ा होगा सोच।
आज भगवान ने तेरी सुन ली भगवान चल अब चलने की तैयारी कर, मैं बाजार से कुछ खाने पीने का सामान लाता हूँ तू ये पैसे सम्भाल।
कहकर लालू तेज़ी से निकल गया, और फूला भगवान के सामने आंसू बहाती बैठी अपनी गलतियों के लिए प्रयाश्चित करती उनकी कृपा के लिए धन्यवाद देने लगी।

आज उसे समझ आ गया था कि पत्थर को मूर्ति बनने के लिए कुछ चोट साहनी ही पड़ती हैं।

©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

#कहानी/ डर

आधी रात बीत चुकी थी, देवेंद्र अपनी रेंजर से बहुत तेजी से पैडल मरते हुए घर लौट रहा था उसे आज अपनी प्रेमिका की बातों में समय का ध्यान ही नहीं रहा।
उसने पहले अपनी प्रेमिका को उसके घर छोड़ा और फिर अपने घर की ओर चल दिया।

आज की रात और दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही अँधेरी थी ऊपर से  हवा की तेरी सूखे पत्तों को सहलाकर हँसा रही थी जिनकी हँसी की 
खर्र..! खर्र.. चकककक चरर्त्तत...!! 
की कर्कश ध्वनि वातावरण में अलग ही भय उतपन्न कर रही थी।

माहौल इतना डरावना था कि गर्मी में भी देवेंद्र के जिस्म का हर रोंया खड़ा था जैसे किसी डर को देखकर शेर की गर्दन के बाल खड़े ही जाते हैं साही के कांटे खड़े हो जाते हैं।

अभी देवेंद्र काली नदी के पुल के बीच में ही पहुँचा था कि उसे सामने किसी के होने का अहसास हुआ उसे डर तो पहले से ही लग रहा था लेकिन अब तो उसकी साँसे राजधानी  की रफ्तार से चलने लगीं।
देवेंद्र ने अपनी रेंजर की गति को बढ़ाने में अपने फेफड़ों की पूरी ताकत लगा दी तभी वह साया उसे ठीक सामने खड़ा नज़र आया, उसके हाथ ब्रेक लीवर पर केस गए, रेंजर चिर्रर.... र्रर!! की आवाज करती हुई उस साये से एक फुट की दूरी पर रुक गयी।

देवेंद्र समने खड़े अजनबी को देखने लगा उसकी बड़ी बड़ी आंखे थी सर पर टोपी पहने हुए था।
लेकिन उसके चेहरे का कोई भी हिस्सा नज़र नहीं आ रहा था वहां बिल्कुल स्याह अँधेरा था।
देवेंद्र उसे देखकर बहुत डर गया उसके मुंह से अचानक तेज चीख निकली, 
भ...उ...त...!

तभी उस साये ने कहा, कहाँ घूम रहे हो इतनी रात को? तुम्हे पता नही देश मे कोरोना के चलते इमरजेंसी के हालात हैं , पूरे देश में कर्फ्यू लगा हुआ है और तुम सायकल पर आधी रात को हवा खोरी कर रहे हो इस बार तो चेतावनी देकर छोड़ रहा हूँ।अगली बार दिखे तो 144 में अंदर कर दूंगा।

तब देवेंद्र ने ठीक से देखा वह साया एक काला मास्क पहने हुए पुलिस वाला था।

देवेंद्र भाई चुपचाप लौट आये क्योंकि वह जानते हैं कि भूतों को तो फिर भी समझाया जा सकता है किंतु पुलिस......😢😢😢
नृपेंद्र शर्मा "सागर"

#कहानी/ तलाक के बाद

दिसम्बर का महीना था, ठिठुरती सर्दी का मौसम था। दिल्ली से ट्रेन कोई शाम आठ-सवा आठ पर चली थी। सर्दी के कारण ट्रेन लगभग खाली थी और शाम छः बजे सूरज डूबने से आठ बजे तक भरपूर रात का अहसास होने लगा था।
रिजर्वेशन कोच में चार दोस्त- मनोज, रोहन, शकील और नौशाद एक साइड की तीनों और सामने की एक नीचे बाली सीट पर लेटे हुए थे जिन पर उनका रिज़र्वेशन था।

अभी ट्रेन सीटी दे कर धीरे-धीरे खिसकने लगी थी तभी एक महिला बुर्का डाले, जल्दी से ट्रेन में चढ़ी और उसके पीछे उसके शौहर ने एक अटैची ओर दो बैग लगभग फेंक कर मारे। महिला की गोद में एक छोटा बच्चा था। वह एक हाथ से उसे संभाले, दूसरे से बैग खिसकाने लगी। तभी एक बच्चे को पकड़े बड़बड़ाते हुए उसके शौहर ने ट्रेन में एंट्री ली-

"सब तुम्हारी बजह से हुआ रुखसाना!! आज तो ट्रेन छूट ही गयी थी", वह लगभग चिल्लाते हुए समान घसीटने लगा।

"अब इसमें मेरी क्या गलती है मियां? मैने तो कहा था रिक्शा कर लीजिए, लेकिन आप ही ने तो कहा चार कदम पर ही तो स्टेशन है",  बेगम ने धीरे से कहा।

"अच्छा-अच्छा! हमेशा मैं ही गलत होता हूँ, चार पैसे बचाने की सोचूं तब भी और तुमसे मुतालिक कोई बात कहूँ तब भी। तुम थोड़ा तेज़ भी तो चल सकती थीं। अच्छा अब आओ ये रही हमारी सीटें, एक ये बीच बाली और दूसरी सबसे ऊपर की", वह समान इकट्ठा करते हुए बोला।
इनकी बक -बक से, ये सारे दोस्त भी नीचे की सीट पर आकर बैठ गए थे और इनकी बातों का मज़ा ले रहे थे।

"क्या हुआ भाई जान कोई परेशानी है क्या?" नौशाद ने पूछा।

"कुछ नहीं भाई,बस थोड़ा लेट हो गए थे पहुंचने में; ट्रेन बस चलते-चलते पकड़ी।अब छोटे बच्चों के साथ ऊपर की सीटें!!एक और मुसीबत है। बैसे आप लोग कहाँ तक जाएँगे?" उसने पूछा।

"बंगलौर तक", नौशाद ने कहा।

"मेरा नाम शमशाद है, और ये मेरी बेगम रुखसाना है। हम भी बंगलौर जाएंगे, भाई जान अगर आप लोगों को दिक्कत ना हो तो क्या नीचे वाली सीटें आप लोग हमारे साथ बदल सकते हैं? अब देखिए न रात का मुआमला है, नींद आनी लाजमी है, ऐसे में कोई बच्चा अगर गिर गया तो....? ऐसे तो हम पूरी एहतियात रखेंगे लेकिन फिर भी.... " शमशाद ने इल्तिजा की।

नौशाद ने अपने साथियों की ओर देखा और उनकी आंख का इशारा समझ कर हाँ कर दी।

"हाँ हाँ क्यों नही भाई जान, इसमें क्या मुश्किल है", बैसे मैं हूँ नौशाद अहमद, ये मेरा दोस्त शकील हुसैन, ये मनोज और ये हैं रोहन।
आप आराम से नीचे सो जाना हम लोग ऊपर शिफ्ट हो जाएंगे, नौशाद ने सबका तार्रुफ़ कराते हुए कहा।
ट्रेन पूरी रफ्तार में चल रही थी और साथ ही जारी थी शमशाद और रुखसाना की नोकझोंक- 
"अरे रुखसाना तुम बिस्किट के कितने पैकट लायी थी?अब एक भी नही मिल रहा", शमशाद बैग में टटोलते हुए बोला।

"चार लायी थी जी, अब खत्म हो गए होंगे! पूरे दो घण्टे से तुम दोनों अब्बू-बेटा खाये जो जा रहे हो",  रुखसाना झल्ला कर बोली।

"तो क्या भूखे रहें? मुंह को ताला लगा कर बैठ जाएं? तुम्हे पता था रास्ता लंबा है, इतने में चार पैकेट से क्या होता है?तुम्हे ज्यादा लेने चाहिए थे रुखसाना; अब बोलो मुझे या गुड्डू को भूख लगी तो क्या खाएंगे?" शमशाद गुस्से से चीखा।

"मुझे ही खा लो तुम!! भुक्कड़ लोगो, हर वक्त बकरी की तरह मुंह चलता है तुम्हारा! अरे ले लेंगे किसी हॉकर से, या किसी टेशन से।
अब क्या घर से बोझा लादकर भागना सही था? तुमसे तो ये भी न हुआ की इतना समान है, दो मासूम बच्चे हैं; तो रिक्शा ही बुला लो। आखिर कितने रुपए बचे होंगे,बीस-तीस ही ना? उससे ज्यादा का नुकसान हो जाता अगर ट्रेन छूट जाती तो; या जल्दबाजी में किसी को चोट लग जाती", रुखसाना ताने मारती हुई बोली।

"तुम न रुखसाना! खुद इतनी लापरवाह हो, और तुम्हे कुछ कहो तो लड़ने लगती हो। अरे तुम्हे पता है यहाँ ट्रेन में दो की चीज़ नो में मिलती है। लेकिन तुम्हे क्या, रुपए तो हमे कमाने पड़ते हैं; तुम्हे रुपए की कीमत क्या पता! कभी रुपए देखे हो खानदान ने तब तो जानो, सब तो साले कंगले हैं तुम्हारे खानदान में। सफर में जाते हो तब तो पता हो कि कैसे जाना चाहिए! और फिर सफर में खाने-पीने को लेने के लिए पैसे भी तो होने चाहिए", शमशाद ताने मारने लगा।

"अच्छा मेरा खानदान कंगला है....! और जनाब तो जैसे निज़ाम के वारिस हैं, बड़ा याकूत का खजाना भरा है आप के खानदान की तिजोरियों में तो। सब पता है मियां आपके खानदान का मुझे! अब मेरा ज्यादा मुंह मत खुलबाओ; देखा था हुजूर की बारात में कैसे बिरयानी और यखनी में घुसे जा रहे थे लोग- गोया हफ़्तों से ग़िज़ा नसीब ना हुई हो।
और गुलाबजामुन तो मुंह के साथ-साथ जेबों में भी भर रहे थे; जैसे जिंदगी में पहली दफा देखी हो। आये बड़े खानदान के बारे में कहने बाले, अरे तुम्हारे अब्बा-अम्मी छः दफा आये थे दामन फैला कर, तब जाकर हमने निकाह के लिए हाँ की थी। हम नहीं मरे जा रहे थे आपके खानदान में आने को", रुखसाना बाकायदा नाराज़ हो गयी।

"अच्छा हम मरे जा रहे थे? और वो जो तुम्हारे बड़े-अब्बू रोज पार्क में हमारे बड़े मियां से तुम्हारी तारीफें करते थे! कोई लायक लड़का पूछते थे?" शमशाद मियां भी चुप ना रहे।

" लड़का पूछ भी लिया अगर तो इसका मतलब ये कब से हो गया कि अपने ही पोते का रिश्ता भेज दो? अरे हमारे बड़े अब्बू ने तो दोस्ती की खातिर अपनेपन में उन्हें बता दिया और बडे मियां खुद के पोते के लिए ही लार टपकाने लगे। मुझे तो ये रिश्ता रत्तीभर भी पसन्द नहीं था; वो तो बस घर वालो की इज़्ज़त रखने के लिए कुबूल बोल दिया," रुखसाना शमशाद को चिढ़ाते हुए बोली।

"अच्छा तुम्हे पसंद नहीं था??" शमशाद बिफर गया। हमे लगा था तुम हमसे मोहबत करती हो रुखसाना लेकिन अगर तुम मज़बूरी में ये निकाह निभा रही हो तो ये तो गलत है, और जबरदस्ती किसी को अपने साथ रिश्ते में बांध कर रखना गुनाह है। तो मैं आज! अभी! तुम्हे तुम्हारी सारी ज़िम्मेदारी से आज़ाद करता हूँ ।मैं तुम्हे अपनी बेगम होने के हर फ़र्ज़ से आज़ाद करता हूँ।
मैं तुझे तलाक देता हूँ रुखसाना-
तलाक!
तलाक!!
तलाक!!!"
शमशाद एक झटके में कह गया। 
रुखसाना चीखती हुए उसे रोकती रह गयी।

उनकी इस हरकत से, उनका सारा झगड़ा सुनकर मज़ा ले रहे, ये चारों भी सन्न रह गए।
अब वहां पूरी तरह से सन्नाटा था सारे लोग जैसे इस घटना से जम से गये थे।

रुखसाना सुबकते हुए सिसकियां ले रही थी, शमशाद का चेहरा ऐसे हो रहा था जैसे किसी जुआरी का-अपना सब कुछ हार जाने पर होता है। वह बार-बार अपना सर पीट रहा था।

"ये आपने क्या किया शमशाद भाई, अरे पति-पत्नी की इस मीठी नोक-झोंक से तो जिंदगी मज़ेदार बनती है, और आपने तो आप दोनों की ही जिंदगी एक सज़ा सी बना कर रख दी। अब आपके गुस्से ने आपकी जिंदगी को गुनाह में धकेल दिया; अरे आपने ये कुफ़्र तोड़ने से पहले अपने मासूम बच्चों के बारे में भी नहीं सोचा?" नौशाद शमशाद के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला।

"ये क्या हो गया मुझसे!! खुदा कसम! मुझे तो पता भी नहीं चला कि कब मैं ये गुनाह कर गया। उफ्फ मेरे मौला! तू तो जनता है ये गुनाह मुझसे बिल्कुल बेख्याली में हुआ है। मैं अपने बच्चों की कसम! खाकर कहता हूं मैने जान बूझकर कुछ नही किया।
अरे मैं तो उन नापाक-लफ़्ज़ों को अपनी जुबान पर भी कभी लाना नहीं चाहता। फिर भी खुदा जाने कैसे मेरे मुंह से निकल गए।
मैं तो अपनी रुखसाना से बेइंतहा मोहब्बत करता हूँ। ये तो बस उसे छेड़ने में मुझे मज़ा आता है", शमशाद की आँखें आँसुओं से भर गयीं और वह सुबकते हुए आगे बोला-
"अरे रुखसाना! तेरे बिना मैं मर ही जाऊंगा; अल्लाह कसम!! तू ही तो जिंदगी है मेरी। अरे पागल तू तो जानती है, मैं बचपन से तुझ पर मरता था। या मेरे खुदा!! मुझे मुआफ़ करदे।
मैं अपनी मोहब्बत से अलग नहीं रह पाऊंगा।
लेकिन 'शरीयत' उसके मुत्तालिक तो अब... हलाला...उफ्फ!! ..हमें मौलवी साब को बताना पड़ेगा; या खुदा! मेरी रुखसाना को दूसरे मर्द के साथ, नहीं-नहीं, ये मेरी इज़्ज़त है", ओर शमशाद वाकायदा रोने लगा।

इधर रुखसाना पागलों की तरह बस रोये जा रही थी। ट्रेन के इस कूपे में इनके इलावा कोई शख्स नहीं था
रात का कोई बारह का टाइम हो रहा था, ठंड में बाहर चाँद-तारे भी ठिठुर रहे थे। या खुद को कोहरे की चादर में लपेट लिए थे। लेकिन ऐसी सर्दी की रात में इस डब्बे में मौजूद, हर शख्स के माथे पर पसीना छलक रहा था और उनके दिल धौकनी बने हुए थे।

"भाई जान कुरान हमने भी पढ़ी है, शरीयत हम भी समझते हैं, और उसमें जानबूझ कर हलाला को भी कुफ़्र ही माना गया है।
उसके मुतालिक तो ऐसे तलाक के बाद औरत अगर दूसरा निकाह करती है और संयोग से अगर दूसरा शौहर भी तलाक दे देता है, तो वह पहले पति से दोबारा निकाह कर सकती है। लेकिन ऐसा संयोग से ही होना चाहिए , जानबूझ कर पैसे लेकर हलाला कराना भी गलत ही है।" नौशाद और शकील ने शमशाद को समझाया।

"लेकिन भाई हमें दीन के मुतालिक तो चलना ही पड़ेगा। और कोई रास्ता है क्या हमारे पास?" , शमशाद बहुत उदास होकर बोला।

"फिर अब आप क्या करेंगे?" अबकी रुखसाना रोते हुए बोली।

"सीधे जाकर मौलवी साब को बताएंगे और उनसे इल्तिजा करेंगे कि वे हमारे साथ-साथ रहने की कोई राह निकालें, शरीयत के मुताल्लिक।" शमशाद ने जैसे फैसला कर लिया।

" यानी हलाला", रुखसाना अनजाने भय से सिहर उठी, उसकी आंखें आंसुओं से भर गईं।

"आप बच्चों को संभाल लेना, अब मैं तो खुदकुशी कर लुंगी; क्योंकि मेने भी हमेशा से बस तुमसे ही मोहब्बत की है शमशाद।
मुझे तुम्हारे अलाबा कोई कोई छुए, ये मुझे हरगिज गवारा नहीं होगा। किसी गैर मर्द के साथ.....! नहीं-नही चाहे वह कोई मेरे निकाह में ही कियूं न हो; मेरा दिल किसी ओर को कबूल नहीं करेगा शमशाद।
हम नही मानते ऐसे शरीयत के कानून को, जो किसी के जज्बातों को ना समझकर अपने जबरदस्ती के कानून चलाये।
हम या तो सीधे घर चलेंगे और भूल जाएंगे की इधर ट्रेन में क्या हुआ। नहीं तो हम खुदकुशी करेंगे बस, आप सोच लीजिये की आपको क्या करना है। अगर आप मौलवी के पास गए तो हम खत्म कर लेंगे खुद को बस," रुकसाना ने अपना फैसला सुना दिया।

"लेकिन रुखसाना खुदकुशी को भी तो गुनाह माना गया है। और हम गुनाह से बचने के लिए....", शमशाद ने कुछ कहना चाहा।

"खुदकुशी नहीं है ये शमशाद मियां!! ये तो कत्ल है मेरा, जो आपने वे मनहूस लफ्ज बोल कर किया है। और ना जाने कितने शौहर अपनी नादानी में अपनी बीबियों का करते हैं, ये नापाक लफ्ज बोलकर।
और फिर अपना होश! आने पर, अपना गुनाह छिपाने के लिए हलाला के नाम पर फिर उस औरत का कत्ल करते हैं, बार-बार करते हैं।
अरे कोई उस औरत से कियूं नही पूछता की वह क्या चाहती है? क्या औरत कोई बेजान चीज है? जिसे जो चाहे, जैसे चाहे, इस्तेमाल करे और जब मन भर जाए तो दूसरों को दे दे।
अरे हम भी अल्लाह की पाक रूह हैं, हम भी मर्दो की ही तरहा इंसान हैं। हमारे भी दिल हैं, जज्बात हैं और पसंद ना पसंद है।
और फिर कैसे कोई इंसान अपनी मोहब्बत को ऐसे बेजार कर सकता है।
नहीं-नहीं शमशाद!! हम ये बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। हम सच कह रहे हैं शमशाद हम मर जायेंगे", रुखसाना बदस्तूर रोते हुए बोली लेकिन अबकी उसकी आवाज में गुस्सा था, नाराज़गी थी।

"कुछ समझ नहीं आ रहा कि क्या करूँ?" शमशाद इन दोस्तों को देखते हुए उदास होकर बोला।

"हमारे पास तरकीब है, अगर आप राजी हो तो? आपकी शरीयत की शर्त भी पूरी हो जाएगी और आप सुबह साथ-साथ घर भी जा पाएंगे। आपके मन पर बोझ भी नही रहेगा कि आप दीन के खिलाफ गए", मनोज कुछ सोचते हुए बोला।

"क्या"!!??
शमशाद ओर रुखसाना एक साथ बोले।

"देखिए हमारे शकील मियाँ आलिम हैं और नोसाद भाई कुँआरे। बाकी हम दोनों हो जाएंगे गवाह। तो अगर आप चाहें तो हम रुखसाना भाभी जान का निकाह अभी नौशाद भाई से पढ़ा देते हैं और तीन घण्टे बाद ये उनको तलाक दे देंगे, उसके बाद आप उनसे दोबारा निकाह कर लेना। इस तरह आपकी शरीयत की बात भी रह जाएगी और आप साथ-साथ घर भी जा पाएंगे," चारों दोस्त मुस्कुराकर बोले।

"लेकिन इद्दत की मुद्दत?" शमशाद कुछ सोचते हुए बोला।

"देखिए मियां हमने कहीं पढ़ा था कि नेकी करने वालों और ईमान लाने वालों की सजा को साल से महीनों में महीनों से दिनों में और दिनों से घण्टों में तब्दील कर दिया जाएगा। तो मियां हम तीन महीने की इद्दत को तीन घण्टों में पूरा हुआ मान लेंगे और ऐसा करने के लिए हम सब उस परवरदिगार से मुआफ़ी भी मांग लेंगे।
और हमें पता है, मोहब्बत करने बालों को खुदा! हमेशा पसंद करता है।
तो इतनी हेराफेरी के लिए अल्लाह हमें जरूर मुआफ़ कर देगा", शकील मियां ने अपनी दलीलें देकर सबकी बोलती बंद कर दी।

जल्द ही रुखसाना ओर नौशाद का निकाह पढ़ाया गया और अगले तीन घण्टे रुखसाना नौशाद के साथ उसकी सीट पर बैठी, जहाँ उन्होंने कई बार प्यार से नौशाद का सर सहलाया।
अगले तीन घण्टे बाद फिर एक बार रुखसाना का तलाक हो गया लेकिन इस बार वह दुखी या उदास नहीं बल्कि खुश थी।

अगले तीन घण्टे बाद, सुबह सात बजे फिर से रुखसाना और शमशाद का निकाह पढ़ाया गया। उसके बाद अगले स्टेशन पर शमशाद ने सभी को चाय नास्ता कराया और अपने घर आने की दावत दी।


समाप्त

#कहानी/ रुखसार

साल 1992 उत्तरप्रदेश का एक छोटा सा गांव -
अम्मी,, अम्मी आप समझाइये ना अब्बू को,,, रुखसार अपनी बड़ी-बड़ी काली आंखों में मोटे-मोटेआंसू लिए अपनी अम्मी के पीछे-पीछे डोल रही थी।
अम्मी में एक बार उसकी तरफ देखा और मुंह घुमा लिया, अम्मी के चेहरे पर बेचारगी के निशान साफ नजर आ रहे थे।

अम्मी,, हम अपने हर दर्ज़े में अब्बल आते रहे हैं पढ़-लिख कर हम कुछ बनना चाहते है हम अपनी ज़िंदगी मे कुछ अच्छा करना चाहते हैं,, रुखसार लगभग रोते हुए बोली।

हम कुछ मदद नहीं कर सकते मेरी बच्ची,, जमीला(अम्मी) की आवाज़ बेबशी से भीगी हुई थी।
तुम्हारे अब्बू तो प्राइमरी के बाद ही तुम्हारा स्कूल छुड़ाना चाहते थे ,,,
तब भी हमने रो रो कर तुम्हारी शिफारिश कर दी थी लेकिन उसी वक़्त उन्होंने साफ बोल दिया था ,,
"बस जूनियर हाईस्कूल तक जहां तक गांव में स्कूल है, आगे शहर जाने की जिद ना करे तुम्हारी लाडली" 
हमने उस वक़्त ही कह दिया था कि आगे तुम्हारी तालीम के वास्ते हम बात नहीं करेंगे।
अम्मी!!!, रुखसार अब बाकायदा रोने लगी, एक बार बात तो करो आप, रुख़रास धीरे से बोली।

जमीला बिना कुछ बोले अपने आँसू पोंछते हुए चली गयी।

रुखसार आगे पढ़ना चाहती है,, जमीला ने रात को शमशाद का सर सहलाते हुए बड़े मनुहार से धीरे से कहा।
हमने आपसे पहले ही कहा था बेगम, की रुखसार को छूट मत दो हमें पता था ये दिन आएगा इसी लिए हमने पहले ही कह दिया था कि रुखसार गाँव में पढ़ाई खत्म करके घर के काम में हाथ लगाएगी।
आप तो जानती हो बेगम बिरादरी का हाल ज्यादा पढ़ने लिखने के बाद लड़की के लिए रिश्ता भी नहीं आएगा बिरादरी से, अरे यहां तो लड़के भी बस अलिफ बे पढ़कर मौलवी साब से दीन की तालीम लेकर हैण्डलूम पर बैठ जाते हैं सारी अंसारी बिरादरी जुलाहे का काम करती है।
ओर आपकी लाडली बड़े स्कूल जाकर सबको मुंह चिढ़ाने पर लगी है।
बेगम आप समझाओ रुख़सार को हमें की बिरादरी के साथ चलना है  फिर आगे  बच्चों के शादी बियाह बी करने हैं।
दो हैण्डलूम हैं हमारे कुछ तुम दरी बुनती हो , सारा दिन धागों से उलझने के बाद भी जिंदगी की मुश्किलें नहीं सुलझती ऊपर से शहर की पढ़ाई का खर्च।
ओर फिर लड़की ऐसे मुंह खोले फिरेगी तो आपको पता है कितनी बातें बनेंगी लोग जीना मुश्किल कर देंगे मोहल्ले में।
मैं नहीं चाहता कि मेरे घर की औरतें बिना हिज़ाब बिना पर्दे के घूमें।
जमीला चुप होकर सो गई हालांकि वो चाहती थी कि रुखसार को आगे पढ़ने की इजाज़त मिले लेकिन वह भी लाचार थी।

अब्बू मैं कोई खर्च नहीं मांगूंगी आपसे मैं अपनी दरी की आमदनी से अपना खर्च निकाल लुंगी घर मे भी सारे काम में हाथ लगाउंगी बस मुझे आगे पढ़ने दीजिये,, अब्बू मैं हमेशा बुर्के में रहूँगी मुंह खोलकर नहीं घूमूंगी अब्बू शहर के स्कूल में बहुत सी लड़किया बुर्के में आती हैं ,मैं आपको कभी शिकायत का मौका नहीं दूंगी।
मान जाईये ना अब्बू मेरे प्यारे अब्बू मेरे अच्छे अब्बू रुखसार ने रोते रोते शमशाद को मस्का लगाते हुए कहा।
आप चलकर देख लीजिए ना अब्बू एक बार ,,शहर में लड़कियों के लिए अलहदा स्कूल है सारी लड़कियां ही पढ़ती हैं उसमें अब्बू मैं पढ़ना चाहती हूं रुखसार बराबर आंसू बहाते हुए बोली।

आज तीन दिन से रुखसार बिना खाये पिये रोये जा रही थी घर के काम तो वह बराबर कर रही थी लेकिन निवाला उसने कतई मुंह के अंदर नहीं डाला था।
जमीला लगातार शमशाद से इल्तजा कर रही थी कि वह रुखसार को इज़ाज़त देदे चाहे अपनी शर्तें लगा ले नहीं तो रुखसार गम में बीमार हो जाएगी एक ही तो बेटी है उनकी उसके बाद तीन बेटे,,,
अरे ना आये कोई रिश्ता यहां से हम अपनी बेटी शहर में बियाह देंगे शहर में तो पढ़ाई लिखाई की बहुत कद्र है।

ठीक है रुखसार चली जाओ शहर पढ़ने लेकिन जिस दिन किसी ने तुम्हारी गलत शोहबत या बेपर्दा निकलने की शिकायत की उसी दिन से बिना कुछ बात सुने स्कूल बंद।

रुखसार शहर में कन्या इण्टर कॉलेज जाने लगी,, उसने घर की मजबूरी बता कर बुर्के में रहने की इजाज़त ले ली थी।

रुख़सार की लगन और मेहनत से वह बहुत कम समय में ही कॉलेज में सारे टीचर्स की चहेती बन गयी ।
वह घर से निकल के बस में कॉलेज तक पूरी एहतियात बरतती की कोई शिकायत किसी को ना रहे।
रुख़सार की  मेहनत का नतीजा था कि दसवीं में उसने सारे कॉलेज में सबसे ज्यादा नम्बर पाए थे।

स्कूल से उसे कई ईनाम मिले ओर साथ ही साथ उसका वजीफा भी शुरू हो गया स्कूल में फीस तो ऐसे भी नही देनी पड़ती थी।
आगे उसने  और ज्यादा मेहनत की घर पर वह देर रात तक दरी बनाने का काम करती, अब्बू के हैण्डलूम का ताना कर देती उनकी धागे की नालियां ठीक से रखती।
उसकी बनाई दरियां इतनी सुंदर होतीं की उसे ऊंची कीमत मिलती।

अब्बू को रुख़सार से कोई शिकायत नहीं थी, अलबत्ता बिरादरी वाले ज़रूर दबी जुबान में कहते, " भाई शमशाद तो अपनी लड़की को कलेट्टर बनाएगा शहर में पढ़ने भेज दिया अकेली लड़की को,,कुछ ऊंच नीच हो जाये तो नाक तो सारी बिरादरी की कटेगी,,," 
लेकिन सामने कोई कुछ नहीं बोलता।

आज रुख़सार के पास दो खुशखबरी थीं लेकिन वह कशमकश में थी कि दूसरी बाली अब्बू को कैसे बताए, उसे पता था अब्बू फिर गुस्सा करेंगे बहुत नराज होंगे लेकिन रुख़सार बहुत खुश थी ,,

अब्बू मैंने बारहवीं में सारे जिले में टॉप किया है रुख़सार चहक कर बोली,, मैं जिले में अब्बल आयी हूँ अब्बू।
शमशाद ने कुछ नहीं बोला बस हल्के से मुस्कुराकर झटके से हैण्डलूम की नली इधर से उधर सरका दी।

अब्बू वो,,, अब्बू मुझे आपको कुछ और भी बताना है उम्मीद है आप गुस्सा नहीं करेंगे।
शमशाद ने आंखे टेढ़ी करके उसे देखा जैसे पूछा हो क्या? 
वो अब्बू हमने मेडिकल की पढ़ाई के लिए इम्तिहान,,, हमारा नम्बर उसमें आ गया अब्बू हमें सबसे अच्छा कॉलेज मिला है अब्बू ओर हमें फीस वी ज़्यादा नहीं पड़ेगी,,, मैं कर लूंगी अपने पास से अब्बू,, मुझे स्कोलरशिप भी मिली है,,आप बस जाने की इजाज़त दे दीजिए,, रुख़सार एक सांस में सारी बात बोल गई।

घर में कोहराम मचा हुआ था,, रुख़सार कहीं नहीं जाएगी जमीला, शमशाद ने चिल्ला कर कहा।
रुख़सार पर्दे के पीछे बैठी जोर जोर से रो रही थी उसकी सिसकियों की आवाज बादस्तूर आ रही थी उसके छोटे भाई जिन्हें उसकी वजह से आगे पढ़ने को मिल रहा था इसके गले लगे उसके आंसू पोंछ रहे थे।
आपकी बजह से ये लड़की बहुत आगे बढ़ गयी हमने समझाया था आपको की इसे ज्यादा शह मत दो लेकिन बेटी की मोहब्बत में तुम्हारी तो आंखें ओर कान बन्द थे,,
अब इतनी दूर पराये शहर!! अरे क्या अकेली लड़की का ऐसे दूसरे राज्य में जाकर अकेले रहना ठीक है!??
ऐसे ही सारी बिरादरी थू थू कर रही है हमपर किसी के लड़के ने भी कभी बारहवीं के बाद आगे पढ़ाई नहीं की,, ओर तुम्हारी लाडली,,, नहीं नहीं अब हम इज़ाज़त नहीं देंगे।

लेकिन आपी तो लड़कियों के हॉस्टल में रहेगी अब्बू,, अबकी नुशरत थोड़ा तेज़ होकर बोला, नुशरत खुद अबकी दसवीं में था और पढ़ई की कीमत समझने लगा था।
तुम खामोश रहो नुशरत तुम्हे कुछ नहीं पता बाहर के माहौल का, अब्बू ने उसे डांट कर चुप करते हुए कहा।


पूरे एक हफ्ते की जद्दोजहद के बाद आखिर रुख़सार मेडिकल की पढ़ाई के लिए चली गयी।
सारा घर रुख़सार के पक्ष में शमशाद मियां के खिलाफ हो गया था खाना पीना बन्द था कोई बात भी नहीं कर रहा था,, 
ठीक है जो तुम लोगों को सही लगे करो,, शमशाद ने हथियार डालते हुए कहा।


आज पूरे सात साल हो गए शमशाद ने रुख़सार से कोई बात नहीं की, वह छुट्टियों में घर आती सब उससे बात करते लेकिन शमशाद मियां की नाराजगी जारी रहती,, जमील ने कई बार उन्हें समझाने की कोशिशें की लेकिन वह नहीं माने।

mbbs  के बाद रुख़सार ने ms में दाखिला लिया और उसके बाद अस्पताल में ,,,

आज उसके सम्मान में एक पार्टी थी कॉलेज में जहां इसके जिला अस्पताल में मुख्य सर्जन के रूप में नियुक्त होने की खुशी मनाई जा रही थी।
आज हमारे कॉलेज की पहचान हमारी ब्रिलियंट रुख़सार अंसारी को अपने ही जिले के जिला अस्पताल में प्रमुख सर्जन के तौर पर अपॉइंट होने पर हम सबको उनपर गर्व है, ओर हम उनकी मंजिल दर मंजिल कामयाबी की दुआ करते हैं ,, कहकर उसे उसके साथी डॉक्टरों ने एक बॉक्स थमाया ओर सभी तालियां बजाने लगे,, रुख़सार का चेहरा आज भी हिज़ाब में केद था।
पार्टी के बाद रुख़सार गिफ्ट खोल रही थी तभी उसकी नज़र कपड़े में बंधे एक बॉक्स पर पड़ी,,
अरे ये कौन देकर गया वह चोंकते हुए उठी और उसे खोलने लगी,, कपड़े के नीचे एक ख़त था वह उसे खोलकर पढ़ने लगी उसमें लिखा था,
"खुदा तुझे सलामत रखे और तुझे तेरा सोचा हर मुकाम हाशिल हो मेरी बच्ची।
उम्मीद करता हूँ तू मेरी ज्यादतियों के लिए मुझे ज़रूर मुआफ़ कर देगी, मैं गलत था जो बिरादरी ओर समाज की सोचता रहा और आपकी बच्ची के सपनों की उड़ान पहचान नहीं पाया लेकिन अब मुझे फक्र है की तुमने अपना नाम इतना बड़ा कर लिया अब सारी बिरादरी को तुमने दिखा दिया की लड़कियां भी कुछ भी कर सकती हैं।

अब मैं तुमसे नहीं खुद से नाराज़ हूँ कि मैंने तुम्हें दुःख दिया, लेकिन मेरी बच्ची मैं तुमसे मुआफ़ी मांगते हुए कहता हूं की मैं तुम्हारी कामयाबी से बहुत खुश हूं।
मुझे बहुत फख्र होता है जब लोग अदब से कहते है,", वो देखो डॉक्टर रुख़सार के अब्बू" 
और हाँ अब तुम्हे ये हिज़ाब ये नकाब में अपना चेहरा छिपाने की कोई ज़रूरत नहीं लोगों को पता लगना चाहिए की शमशाद अंसारी की दुखतर रुख़सार अंसारी बिल्कुल उन्ही की तरह दिखती है और उन्ही की तरहा जिद्दी भी है।

आगे उसने बॉक्स खोला तो उसकी पसंद का नीले रंग का रेशम का सलवार कुर्ता था और एक सफेद कोट जिसपर गिरी एक आँसू की बूंद अपना निशान छोड़ गई थी।

रुख़सार की आँख से निकला एक आँसू अपने अब्बू के आँसू में जज्ब हो गया लेकिन ये खुशी का आँसू था।

©नृपेंद्र शर्मा"सागर"
9045548008वस्ट्सप नमम्बर

#कहानी/ इंसान बनूँगा

"बाबा..बाबा, मैं भी इंसान बनूँगा", चिंटू (चूहे) ने सबके सामने घोषणा की।

चिकचिक अवाक उसका मुंह देखता रह गया, "तुमसे किसने कहा कि चूहे इंसान बन सकते हैं?" उसने हैरानी से पूछा।

"मुझे पता है इंसान पहले चूहा था, फिर बंदर बना, उसके बाद आदि मानव, और फिर इंसान।" चिंटू एक सांस में कह गया।

"लेकिन तुम्हे ये कहा किसने चिंटू? रुको -रुको तुमने कल क्या खाया था? कहीं किसी वैज्ञानिक के घर तो....?" कुद्दु ने उसे आश्चर्य से देखते हुए कहा।
"क्या दद्दा आपको हमेशा मैं नशे में दिखाई देता हूँ क्या?", चिंटू गुस्से से बोला।

"और नहीं तो क्या, याद नहीं तुमने भेड़िये का मांस खाकर कैसे उधम मचाया था।" (पढ़ें,जैसा खाये अन्न और चिंटू की चतुराई) कुद्दु ने उसी रो में जवाब दिया।

"कुछ नहीं खाया मैंने; मैं तो बस्ती से बाहर भी नहीं गया, कहीं कुछ नहीं खाया।" चिंटू अभी भी मुंह बनाये हुए था।

"अच्छा ये तो बताओ तुम्हे ये शिक्षा किसने दी की मनुष्य पहले चूहा था फिर बन्दर बना फिर इंसान...।"सभी ने एक साथ उससे पूछा।

"लालूराम" 

"क्या !!? क्या कहा तुमने 'लालूराम', अरे उसे कुछ नहीं पता;  वह बस ऐसे ही लोगों को उलझलूल बातें सुनता रहता ह।"ै कुद्दु ने हँसकर कहा।

"एक बार गया था वह भी इंसान बनने, दो पैरो पर चलकर ।एक मदारी ने पकड़ लिया था उसे, उसके बाद बेचारा बहुत दिन तक डंडे के डर से इंसानो की नकल करता रहा।
  उसी मदारी ने बार-बार अपने खेल में कहा कि बन्दर इंसान के पूर्वज हैं, और लालूराम को तभी से अपने ऊपर इंसान का पूर्वज होने का गर्व होने लगा।" कुद्दु हँसते हुए बताने लगा।

"एक दिन लालूराम बहुत मुश्किल से मदारी से छूट कर भागा तो किसी स्कूल में छिपा हुआ था, वहां इसने ये सुन लिया कि चूहे भी इंसान के पूर्वज हैं, तभी से हर किसी को लालू बस यही कहानी सुनाता है।" चिकचिक ने हँसते हुए आगे कहा और सारे चूहे चिंटू पर हँसने लगे।


"स्कूल वाले भला गलत क्यों पढ़ाएंगे??" मतलब सच में चूहे इंसान के पूर्वज हैं, तभी तो अपनी किताबों में लिखा उन्होंने।
मैं भी जाकर डॉक्टरों से मिलूंगा, अरे आप लोगों को पता नहीं अब तो मनुष्य ने  विज्ञान में इतनी तरक्की कर ली है की किसी की भी सर्जरी करके उसका रूप बदल सकते है।
मैं सबसे पहले तो अपनी दुम हटवाउंगा,  कितनी बदनाम है ये दुम,, चूहे की दुम, चिंटू मुंह बनाकर बोला।
उसके बाद अपनी मूँछे सही करवाऊंगा ओर थोड़ा अपने कान ओर नाक.., 
उसके बाद मैं अपने पैर और कमर सीधी करवाकर दो पैरों पर चलने  लगूँगा, फिर बस बन गया मैं इंसान।
मैं कल ही लैबोरेट्री जाऊँगा " चिंटू आत्मविश्वास से भरकर बोला।

"क्या!!..? क्या कहा तूने.. लैबोरेट्री??" चिकचिक लगभग चीख ही पड़ा।

"बिल्कुल नही जाओगे तुम वहाँ। चिकचिक  ने नाराज़ होकर कहा।
तुम्हे पता है, ये निर्दयी इंसान अपने अतीत (जिससे उसका मोई मतलब नहीं ) उसे जानने के लिए कितने जीवों को बेदर्दी से मरता है इन लेबोरेट्री में।
अरे कितने मेंढक, कितने केंचुए, कितने कॉकरोच, कितने खरगोश, और न जाने कितने चूहों की कत्लगाह हैं इनकी ये लैबोरेट्री।

एक ओर तो ये भगवान को पूजते हैं जो बिल्कुल इन्ही की तरह दिखते हैं और मानता है कि ईस्वर तब भी था जब कुछ भी नहीं था, जीवन शुरू भी नहीं हुआ था तब।
ओर जनता है ईश्वर प्रलय (कयामत) के बाद भी रहेगा।
अरे जब ईस्वर हमेशा इंसान के जैसा दिखता है तो उसका बनाया इंसान कैसे चूहे या बन्दर जैसा रहा होगा, लेकिन इंसान को कोन समझाए। तुम ही सोचो चिंटू, हमारे आदि मूषक मूषकराज , युगों से आदि देव महागणेश जी के साथी हैं लाखों बार उनसे स्पर्श भी होते हैं, लेकिन क्या आज वह तक इंसान बने।

चिंटू ये सब इंसानो का लालच है कि किसी जंतु के शरीर की बनाबट उनके जैसी हो तो उसे ढूंढो ताकि इंसान उस पर अपनी बीमारियों और नयी दवाईयों का परीक्षण कर सके।

अरे लाखो घोघे तो सिर्फ खून का रंग देखने के लिए कत्ल कर दिए जाते हैं इन प्रयोगशालाओं में।

चिंटू तुम बिल्कुल नही जाओगे किसी लैब में, हम नहीं चाहते कि तुम वहां किसी लैबोरेटरी में इंसानी खुराफात का साधन बनो ओर उनके किसी परीक्षण का हिस्सा बनकर ....।"चिकचिक की आवाज दुख के आंसुओं से भीग गयी और वह आगे कुछ ना कह सका।
और चिंटू दौड़ कर चिकचिक के गले लग गया, उसके चेहरे पर पश्चताप के भाव थे।
मित्रों  क्या लैब में परीक्षण के नाम पर निर्बोध जानवरों का कत्ल उचित है, क्या वह अमानवीय नहीं है? 
नृपेंद्र शर्मा 'सागर'
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
9045548008

Wednesday, June 17, 2020

#कविता- जय जवान

चीनी चूहों को शेरों ने वो औकात दिखाई है।
लाठी और डंडों के बल पर दुगुनी लाश गिराई है।
सोचो बोनो क्या होता गर ये बंदूक उठा लेते।
बिना शस्त्र जब भारत वीरों ने तुमको धूल चटाई है।
ज्यादा मत उछलो बन्दर से यहाँ मदारी भी होते हैं।
तुम जैसे कितने बन्दर और बन्दरी हमने नचाई है।
ऐसा न ही मिट जाए विश्व पटल से नाम चीन का।
कई बार तुम जैसे दुश्मन की हस्ती हमने मिटाई है।।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

#हॉरर/तीस साल बाद

यूँ तो वह घर से शाम को अँधेरा होने से पहले ही निकला था लेकिन फिर भी घर से चार किलोमीटर का जंगल और पहाड़ चढ़ने में उसे कोई तीन घण्टे का समय लग गया।

और जब वह ऊपर रोड तक पहुंचा तब तक अँधेरा पूरी तरह घिर आया था।
उसने अपना मोबाइल निकाल कर समय देखा, "अरे साढ़े नौ बजे गए?!! अब तो मुझे कोई वाहन भी नहीं मिलेगा।
उसने अफसोस किया और एक पत्थर पर बैठ गया।

हुआ कुछ ऐसा था कि हरीश को उसके भाई का फ़ोन आया कि कल सुबह तक वह कुछ भी करके दिल्ली पहुंचे क्योंकि कल उसके पिताजी का ऑपरेशन होना है और उन्हें खून की जरूरत भी पड़ेगी।
उसके पिताजी काफी समय से बीमार चल रहे थे और उसका बड़ा भाई उन्हें लेकर इलाज के लिए दिल्ली गया हुआ था।
घर में हरीश उसकी भाभी और बूढ़ी माँ ही थे।

हरीश ने फोन अपनी भाभी को दिया और दोनों ने बात करने के बाद आपस में सलाह की।
"भाभी अब शाम होने वाली है और दिल्ली बहुत दूर है।
फिर भी मै अभी निकल जाता हूँ, आप रास्ते के लिए कुछ खाने का बना दो। और मां को मत बताना नहीं तो चिंता करेगी", हरीश ने कहा।

"ठीक है तुम हरिद्वार हाइवे तक पहुँच जाओगे तो तुम्हे ट्रक या दूसरी कोई गाड़ी मिल जाएगी।
आजकल चार धाम की यात्रा चल रही है रात में भी कई गाड़ियां आती-जाती रहती हैं", उसकी भाभी ने कहा और उसके लिए पराँठे बनाने लगी।

मई के आखिरी दिन चल रहे थे, शाम को सात बजे तक ठीक-ठाक उजाला रहता था।
हरीश ने अपना छोटा सा बैग उठाया और निकल पड़ा जँगल के रास्ते।
उनका गाँव रुद्रप्रयाग जिले में मेन रोड से कोई  चार-पांच किलोमीटर नीचे था।
रोड तक आने के लिए कच्ची पगड़न्ड़ी थी जो चीड़ के घने जंगल से होकर आती थी।
हरीश के पिता जी  'रुद्रनाथजी' के बहुत बड़े भक्त थे, और उनके साथ ही हरीश और उसका भाई भी मन्दिर में सेवा  करते थे। हरीश ने घर में रखे रुद्रनाथ जी के विग्रह के सामने दिया जलाया और अपनी तथा अपने पिताजी की सलामती के लिए प्रार्थना की।
जैसे ही हरीश जँगल में पहुंचा अचानक बहुत तेज़ हवा चलने लगी और घना अँधेरा छा गया। चीड़ की पत्तियां उस तेज हवा में उड़ने लगीं और कुछ ही देर में पगड़न्ड़ी दिखाई देनी बन्द हो गयी।
हरीश की उम्र अभी सोलह-सत्रह साल की ही थी वह इस मंजर से घबरा तो रहा था लेकिन लड़कपन के जोश में उसने चलना जारी रखा।
एक बार फिर हरीश ने सच्चे मन से हाथ जोड़कर रुद्रनाथ जी को याद किया और आगे बढ़ गया।
कुछ दूर चलने पर हरीश को जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई उसे रास्ता दिखा रहा है।
उसे नहीं पता था कि वह किस ओर जा रहा है, लेकिन वह तेजी से चल जा रहा था।
और अब वह उस सड़क पर एक पत्थर पर बैठा हुआ था।
उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसे यहाँ तक पहुंचने में ढाई-तीन घण्टे कैसे लगे जबकि उसका घर से रोड तक आने का समय ज्यादा से ज्यादा एक-डेढ़ घटा था।

हरीश को वह रोड भी जानी पहचानी नहीं लग रही थी ये कोई बहुत चौड़ी रोड थी और बहुत ऊँचाई पर थी।
इस रोड के एक ओर ऊँचा पहाड़ था और दूसरी ओर बहुत गहरी खाई।

हरीश को आये कोई दस-पन्द्रह मिनट ही हुए होंगे, अभी वह कुछ सोच ही रहा था कि सामने मोड़ से एक बस के हॉर्न की आवाज आई।
हरीश उठकर खड़ा हो गया और लिफ्ट मांगने के लिए हाथ हिलाने लगा।

उसे सामने से दो लाइट्स दिखयी दे रही थीं, उसने जोर जोर से हाथ हिलाना शुरू कर दिया।
चरर्रर्रर!!!
बस उसके पास आकर  चरर्रर्रर की तेज आवाज करती हुई रुक गयी।
वह दौड़ कर बस  के पास आया बस बहुत पुरानी लग रही थी उसका पेंट मिट चुका था और उसपर लगा लाल-लाल जंग इस अंधेरे में भी नजर आ रहा था।
हरीश तेजी से खिड़की की तरफ लपका, बस की खिड़की भी टूटी हई थी।
उसके अंदर एक बहुत हल्की लाइट जल रही थी, हरीश जल्दी से अंदर चढ़ा और उसके चढ़ते ही बस चल पड़ी।

बस लगभग खाली थी कंडक्टर और ड्राइवर के अलावा कुछ दस-बारह लोग ही बस में थे और ज्यादातर सीटें खाली थीं।

हरीश एक पूरी खाली सीट पर खिड़की के पास बैठ गया।

बस के सभी यात्री और कंडक्टर की आँखे खुली हुईं थीं, लेकिन उनमें से किसी ने भी इसे देखकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी।
उसने बहुत ध्यान से उन सबको देखा वे सब ऐसे लग रहे थे जैसे आंखें खोल कर सो रहे हों।
हरीश को बहुत अजीब लगा कि कैसे लोग हैं जो आंखें खोल कर सो रहे हैं।

कुछ देर बाद वह उठकर कंडक्टर के पास आया उसने उसे आवाज लगाई, "दाज्यू टिकिट बना दीजिये", लेकिन कंडक्टर आंखें खोले शून्य में ही देखता रहा उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
"अरे ये सब पुतले हैं क्या?", हरीश ने अपने मन में सोचा।
अब वह घूमकर ड्राइवर के पास गया।
ड्राइवर की स्थिति भी बिल्कुल बैसी ही थी। उसकी आंखें भी शून्य में टिकी हुई थीं, उसके हाथों के अलावा बाकी कोई अंग हरकत नहीं कर रहा था।

गाड़ी की रफ्तार भी बहुत तेज़ थी लेकिन वह न तो ब्रेक लगा रहा था और ना ही गियर बदल रहा था।

अब हरीश को पहली बार डर लगा, उसके रोंगटे खड़े हो गए।
उसे लगा कि कुछ तो विचित्र घट रहा है उसके साथ।
उसने खिड़की के बाहर झांक कर देखा, वह गाड़ी जैसे हवा में उड़ रही थी।

"रोको!!!@...", हरीश की डर के मारे चीख निकल गयी।
तभी उसे भिनभिनाती हुई ऐसे आवाज आई जैसे हज़ारों मधुमक्खी एक साथ भिनभिना रही हों।

उसने ध्यान से देखा, बस में बैठा हर आदमी हँस रहा था और उनके मुँह से हँसने की बहुत धीमी आवाज आ रही थी।
उनकी आंखें अभी भी शून्य में ही देख रही थीं और उनके चेहरे के भाव भी नहीं बदले थे।

हरीश अब डरकर जोर से चिल्ला रहा था, "बस रोको.. उतारो मुझे..
वह बस से कूदना चाहता था लेकिन इतनी तेज भागती बस से कूदना भी उसके लिए आत्महत्या करने जैसा ही था।

वह बस में आगे पीछे भाग रहा था और उनके हँसने की आवाज अब तेज़ होती जा रही थी।

काफी देर ऐसे ही भागने के बाद अचानक फिर, "चिरर्रर!!!" की तेज आवाज के साथ वह बस रुकी।
हरीश जल्दी से अपना बैग लेकर नीचे उतर गया।

"उधर चले जाओ...! " तभी उसने एक आवाज सुनी, उसने पलट कर देखा, कंडक्टर उसे एक तरफ को इशारा करके बता रहा था।

हरीश को कुछ समझ नहीं आया कि उसके साथ क्या हो रहा है लेकिन फिर भी वह उसकी बतायी दिशा में चल दिया।
कोई आधा घण्टा उस पहाड़ से नीचे उतरने पर उसे बहुत सारी लाइट्स नजर आने लगीं जैसे कि बहुत बड़ा शहर हो।

उसने अपनी गति और बढ़ा दी और जब वह नीचे उतर कर शहर में पहुँचा तो उसे पता चला कि ये ऋषिकेश है।

उसने पूछताछ की तो उसे रात दो बजे दिल्ली के लिए ट्रेन होने की जानकारी मिली जो स्पेशल ट्रेन थी और चारधाम यात्रा के लिए चलाई गई थी।

उसने अपना मोबाइल निकाल कर समय देखा रात का एक बजकर बीस मिनट हो गए थे अर्थात उसके पास स्टेशन पहुँचकर गाड़ी पकड़ने के लिए पर्याप्त समय था।

हरीश टिकिट लेकर गाड़ी में बैठ गया, वह पूरे रास्ते उस बस के बारे में ही सोच रहा था।
अगले दिन वह समय से दिल्ली पहुंच गया जहाँ उसके पिताजी का सफल ऑपरेशन हुआ।
इन दोनों ही भाइयों को दो-दो यूनिट खून देना पड़ा था।

शाम को होटल में चाय पीते समय हरीश की नज़र सामने पड़े अखबार पर पड़ी उसमे मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था,

"तीस साल पहले" खाई में गिरी बस कल रात रुद्रप्रयाग ऋषिकेश मार्ग पर दिखी।

उसे पढ़कर हरीश के हाथ से चाय का गिलास छूट गया और वह अपने होश खोकर जमीन पर गिर गया।

दो दिन बाद नार्मल होने पर हरीश सोच रहा था कि "ये सब उसके साथ क्यों हुआ? ये जरूर भगवान रुद्रनाथ जी की माया थी जो उन्होंने इनके पिताजी को बचाने के लिए की थी।

तबसे हरीश हर साल चारधाम यात्रा में भगवान रुद्रनाथ जी के नाम से भंडार लगाता है।

©नृपेंद्र शर्मा "सागर"
९०४५५४८००८