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Wednesday, March 13, 2024

मतलब की माँ

        मतलब की माँ



  “अजी सुनो ना, मैं क्या कहती हूँ क्यों ना हम माँजी को अपने साथ ही रख लें, ऐसे अकेले रहती हैं सारे गांव वाले ताने मारते हैं कि दो जवान बेटों के होते हुए भी बूढ़ी मां अकेले रहती है और खुद बनाकर खाती है।” रात को बड़ी मीठी आवाज में रुचि ने अपने पति सचिन से कहा।

  “लेकिन आज अचानक तुम्हें मां पर इतना प्यार कैसे आ गया? तुम तो सीधे मुँह कभी मां से बात भी नहीं करती हो? और फिर ऐसे अचानक मां भला हमारे साथ रहने की बात क्यों मानेगी? तुम भूल गयीं कैसे हमने लड़कर मां को अलग कर दिया था?” सचिन ने कुछ याद करते हुए धीरे से कहा।

 “मुझे याद है जी, ऐसे तो मां बेटों में कहा-सुनी हो ही जाती है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि मां बेटों के दिल जुदा हो जाते हैं? मुझे यकीन है अगर तुम मां से एक बार कहोगे तो वे मना नहीं करेंगी।” रुचि ने मधुर आवाज में कहा और सचिन के बालों में उंगलियां घुमाने लगी।

 “तुम खुद क्यों नहीं बात करती हो मां से? एक बार तुम कह कर देख लो शायद तुम्हारे कहने से मां मान जाए।” सचिन ने धीरे से कहा लेकिन इस समय उसका चेहरा बता रहा था कि वह किसी गहरी सोच में डूबा हुआ था।

 “मैं…? मैं कैसे बात करूँ? मुझे तो माँजी कभी अच्छी नज़र से नहीं देखती हैं, उन्हें जैसे ये लगता है कि मैं उनकी दुश्मन हूँ और शायद घर के झगड़े का कारण भी वे मुझे ही मानती हैं।” रुचि ने धीरे से कहा।

 “मां गलत भी तो नहीं सोचती रुचि, हमारी शादी से पहले सब कितना अच्छा चल रहा था, मां मैं और भैया भाभी सब एक साथ ही तो रहते थे, सभी मां का बनाया खाना खाते थे और अपना-अपना काम करते थे।” सचिन ने कहा।

 “अच्छा जी! तो आप भी यही कहना चाहते हो कि घर में झगड़े का कारण मैं हूँ? अरे तुम लोग तो हमारी शादी से बहुत पहले ही अलग हो गए थे। मुझे सब पता है कि कैसे पापा जी के मरने के बाद उनकी तेरहवीं के दिन ही, तुम दोनों भाई उनके इलाज पर हुए खर्च और कर्ज को लेकर लड़ने लगे थे। तुम दोनों भाइयों ने तो सारी जमीन के भी तभी तीन हिस्से कर ये थे, एक-एक आप भाइयों का और एक माँजी का।” सचिन की बात पर रुचि तुनककर बोली, उसकी आवाज में गुस्सा साफ झलक रहा था।

 “कुछ भी हो रुचि, लेकिन हमारे विवाह तक रहते तो हम साथ ही थे ना? वह तो तुम्हारे आने के बाद भाभी और तुम्हारा रोज झगड़ा शुरू हो गया और तुम दोनों देवरानी-जिठानी लड़ने के बाद रोज मां को गाली देने लगीं, तब माँ ने अपना चूल्हा अलग कर लिया और जाकर बैठक में रहने लगी।” सचिन ने जैसे रुचि को याद दिलाया।

 “हाँ तो मैं घर की नौकरानी बनी रहती और तुम खेत के दिहाड़ी मजदूर? तुम भूल गए कि क्या चल रहा था घर में मेरे आने के बाद? अरे घर का सारा खाना, कपड़े, चौका-वासन मैं करती थी। गाय भैंस का चारा-पानी माँ जी करती थीं और तुम सारा दिन बैल बने बैलों के पीछे खेत में घूमते रहते थे, और उसका फल हमें क्या मिलता था? रोज खाने में सैकड़ों कमियां गिनाई जाती थीं और दूध सारा भाभी बेच देती थीं। पीने के लिए तो छोड़ो हम जब कभी चाय के लिए भी दूध मांगते तो भाभी यही जवाब देतीं कि दूध तो मुन्ने के लिए भी नहीं बचा तुम्हें चाय के लिए कहाँ से दूँ? तुम्हें क्या लगता है मैं अपने लिए लड़ती हूँ? अरे दिन भर खेत में खटने के बाद तुम दोनों मां बेटों को एक-एक कप दूध भी ना मिले तो क्या फायदा इतने ढोर पालने का? बस उस दिन मैंने यही बात तो कह दी थी, तो आपके भाई और भाभी ने सारा घर सिर पर उठा लिया और माँजी ने भी मुझसे ही गुस्सा होकर हमारे गाय-बच्छी बांट दिए और बस हो गए घर में तीन चूल्हे। लेकिन छोड़ो उसे, उस बात को याद करके क्या फायदा। अब मैं चाहती हूँ कि मां सारी बात भूलकर हमें माफ कर दें और हमारे साथ ही रहें।” रुचि ने शब्दों को नरम करते हुए कहा।

 “तुम भूल गयीं रुचि कि पापा को गले का कैंसर हुआ था और उनके इलाज में बहुत खर्च हो गया था, उसके लिए भैया ने इधर-उधर से कर्ज भी लिया था। जब पिताजी का देहांत हुआ तब सारे रिश्तेदारों ने मिलकर हम लोगों की जमीन बांट दी थी, जिससे बाद में हमारे बीच कोई झगड़ा ना हो लेकिन साथ ही यह भी तय हुआ था कि जब तक सारा कर्ज नहीं चुक जाएगा हम दोनों भाई साथ में मिलकर ही काम करेंगे। तुम जिस दूध को बेचने की बात करती हो वह भी भाभी बेचकर घर की जरूरतों पर ही खर्च करती थीं और तुम्हें लगता था कि भाभी उन पैसों से अपना घर भर रही हैं। रुचि एक गिलास दूध अगर उस दो साल के मुन्ने के लिए भाभी ने रख भी लिया था तो तुम्हें ऐसे हंगामा नहीं करना चाहिए था।” सचिन ने मन की बात कह दी।

 “अरे छोड़ो ना उन सब गयी बीती बातों को, अब क्यों गढ़े मुर्दे उखाड़ रहे हो? देखो मैं पेट से हूँ और अब हमें किसी अनुभवी महिला के साथ की बहुत जरूरत है। इसीलिए मैं चाहती हूँ कि माँजी हमारे साथ रहें, ऐसे भी मूल से प्यारा ब्याज होता है मैं जानती हूँ कि जब माँजी को पता लगेगा कि वे दादी बनने वाली हैं तो वे सबकुछ भूलकर हमारे साथ रहने आ जायेंगीं।” अब रुचि ने असली बात कही।

 “अच्छा तो यह बात है? लेकिन इसके लिये तुम अपनी माँ से क्यों बात नहीं करतीं? अरे अनुभव तो उन्हें भी बहुत है, तुम उन्हें ही बुला लो मैं तो मां से बात नहीं करूँगा। उस दिन कितना सुना दिया था मैंने मां को, अब मेरी हिम्मत नहीं है रुचि कि मैं मां से बात करूं। मैं किस मुँह से उनसे कहूँगा की मां मुझे माफ़ करके हमारे साथ रहने आ जाओ, क्या मैं इतना बड़ा हो गया हूँ रुचि कि जिस मां ने मुझे जन्म देकर इतना बड़ा किया उसे अपने साथ रख सकूँ? नहीं रुचि मैं बात नहीं करूँगा, अरे जिन बच्चों को मां-बाप के साथ रहना चाहिए वे ऐसा कैसे सोच लेते हैं कि वे मां-पापा को अपने साथ रख सकते हैं।” सचिन ने कहा और मुँह घुमाकर लेट गया।

 “हुँह! तुमसे कुछ नहीं हो सकता, तुम सो जाओ चैन से सुबह मैं खुद ही माँजी से बात कर लूँगी।” रुचि ने तुनककर कहा और कुछ सोचने लगी।


  “अरे माँजी लाइये ये बाल्टी मैं रख देती हूँ, आप क्यों ये पानी की बाल्टी उठाती हो? मुझे कह दिया करो मैं रख दिया करूँगी आपके नहाने की बाल्टी, और सादा पानी क्यों? आप मुझे कहो तो मैं पानी गर्म करके दे दिया करूँगी आपको नहाने के लिए।

 माँजी हम आपके बच्चे हैं और बच्चे तो गलती करते ही हैं, इसका मतलब ये तो नहीं हो जाता कि मां-बाप उनसे नाराज़ होकर बात ही करना बंद कर दें। मैं तो उसी दिन से इनसे कह रही हूँ कि मुझे अच्छा नहीं लगता, माँजी इस उम्र में इतना काम करें, लेकिन ये तो डरते हैं कि आप इन्हें कहीं छड़ी से पीट ही ना दो; लेकिन अब मुझसे और नहीं देखा जाता माँ! अब से आप हमारे साथ ही रहोगी बस और आपके सारे काम मैं खुद करूँगी। आप तो बस मुझे बता दिया करो कि क्या और कैसे करना है।” रुचि ने नहाने का पानी भरकर ले जाती सास के पाँव छूकर उनके हाथ से पानी की बाल्टी लेते हुए कहा। यह सब करते समय रुचि ने इस बात का विशेष ध्यान रखा था कि उसकी जेठानी उस समय घर में नहीं थी।

 

 “अरे! आज ये सूरज दक्खन से कैसे निकल पड़ा बहुरिया? छोड़ मेरी बाल्टी, कहीं मेरी बाल्टी उठाने में तेरे नाजुक हाथों में छाले ना पड़ जाएं।” रुचि की सास ने रुचि के इस व्यवहार पर चौंकते हुए कहा।

  “आपने मुझे माफ़ नहीं किया ना मां? तभी ऐसा कह रही हो। मैं दिल से अपनी भूल पर शर्मिंदा हूँ माँ और आज मैं आपके पैर तब तक नहीं छोडूंगी जब तक आप मुझे माफ़ नहीं कर देती हो।” रुचि ने बाल्टी को मजबूती से पकड़ते हुए कहा।

 “मैं माफ करने वाली कौन होती हूँ बहुरिया? मैं तो डायन हूँ तेरी और तेरे खसम की दुश्मन हूँ मैं तो।” रुचि की सास ने रुचि के ताने याद करते हुए कहा और फिर अपनी बाल्टी उठाकर जाने लगीं, अबकी बार बाल्टी खींचने में रुचि को झटका लगा और वह थोड़ा पीछे हो गयी।

 “आह!! मां…जी…!” रुचि के मुँह से हल्की कराह निकली और वह चक्कर खाते हुए जमीन पर फैल गयी।

 “हे भगवान! ये इसे क्या हो गया? कहीं मेरे झटकने से इसे चोट तो नहीं लग गयी? अरे सचिन?? बड़की बहु? अरे कोई है?” माँजी घबराकर आवाज लगाने लगीं लेकिन घर में तो इस समय कोई था ही नहीं।

 “हे भगवान! लगता है सारे लोग बाहर गए हैं। कहीं इसे कुछ हो गया तो सारे लोग यही कहेंगे कि सास ने बहु को कुछ कर दिया होगा। क्या करूँ मैं? मुझे कुछ तो करना पड़ेगा।” माँजी ने एक पल के लिए सोचा और फिर रुचि को उठाकर पास पड़ी चारपाई पर लिटा दिया। उसके बाद वे दौड़ गयीं पड़ोस से डॉक्टर को बुलाने।


  “मुबारक हो माँजी, आप दादी बनने वाली हो। बहु को कुछ नहीं हुआ है वह तो बस पेट से होने के कारण इसे चक्कर आ गया होगा। तुम्हारी बहु कमज़ोर है माँजी, इसे आराम और पोषण की बहुत जरूरत है। मैं कुछ टॉनिक लिख रहा हूँ इन्हें मंगा लीजिए और हो सके तो शुरू के तीन महीने बहु को पूरा आराम कराईये। उसके बाद भी इसे भारी कामों और वजन उठाने को मना करियेगा।” डॉक्टर ने कहा और एक पर्चा लिखकर माँजी के हाथ में देकर चला गया।

 “रुचि! अरे कहाँ गयी?” सचिन आवाज लगाता हुआ घर में घुसा तो उसे मां रुचि के कमरे में बैठी दिखाई दी, जो रुचि को पँखा झल रही थी। सचिन की आवाज सुनकर माँ झटपट बाहर आयी और कड़ी आवाज में बोली, “खबरदार जो शोर किया या बहु को तंग किया तो। जा दौड़कर बाजार जा और ये सामान लेकर आ। बाप बनने वाला है और बचपना अभी गया नहीं, बीबी के पल्लू में घुसे बिना काम नहीं चलता तुम्हारा जो हर समय बस रुचि-रुचि। अरे कभी खुद के काम खुद से भी कर लिया करो। रुचि पेट से है, डॉक्टर ने उसे भारी काम करने को मना किया है और ये दवाइयां लिखकर गया है जा ये लेकर आ तब तक मैं खाना बनाती हूँ।” माँ ने पेपर सचिन के हाथ पर रखते हुए उसे अधिकार से डाँटते हुए कहा और फिर कमरे के अंदर चली गयी। रुचि ऑंख खोले यह सब देख रही थी और सुन भी रही थी।

 “तू जाग गयी बहु! देख अबसे तेरा भारी काम करना बंद, तुझे पूरा आराम करना है और अपना ध्यान रखना है। डॉक्टर कह कर गया है कि तू कमज़ोर है, तो तुझे पोषण की जरूरत है, सचिन गया है दवाई और सामान लाने। अब से खाना मैं बनाउंगी और तेरे लिए छोंका भी, तेरी गैया दूध कम दे रही है तो मैं भी अपना दूध बेचना आज से बन्द कर रही हूँ, पहले अपना पेट है बाकी सब उसके बाद। तू आराम कर बहु मैं बस अभी आयी।” कहकर मां कमरे से बाहर निकल गयी। 

 रुचि बिस्तर पर पड़ी-पड़ी मां के बारे में सोच रही थी और अपनी योजना की सफलता पर हँस रही थी।


 “देखो जी उस रुचि की चाल, अब जब खुद पेट से है तो उसने कैसे माँजी को अपने भोलेपन के जाल में फंसा लिया। अरे जो माँ हमारे घर दूध ना होने पर मुन्ने के लिए एक कटोरी दूध के लिए भी मना कर दे आज उसने सारा दूध छुड़ा दिया और बहू की ऐसे सेवा कर रही है जैसे वह इनकी सास है।” बड़ी बहू ने रात में अपने पति को सुनाते हुए कहा।

 “अरे तो क्या हो गया यार! भूल गयी जब तुम पेट से थी तब माँ ने तुम्हें भी एक तिनका नहीं तोड़ने दिया था और गाय-भैंसों के सारा दूध बेचना बन्द कर दिया था। रोज मां मुट्ठीभर मेवे पीसकर घी में भूनकर तुम्हें दूध में घोलकर पिलाती थीं। अब रुचि पेट से है तो माँ उसके लिए कर रही है। भाई मां है वह और अब दादी बनने की खुशी में वह एक बार फिर वही सब कर रही है तो तुम्हें बुरा क्यों लग रहा है?” बड़े बेटे ने अपनी पत्नी को समझाते हुए कहा।

 “दादी तो वे हमारे मुन्ने की भी हैं जी! या फिर ये रुचि उन्हें अनोखा दादी बना रही है? हमारे मुन्ने को भी तो दो बूंद दूध दे सकती हैं वे, या बस हम ही पराए हैं बाकी सब उनके खास।” बड़ी बहू ने उसी आवाज में कहा।

 “बेकार की बात मत करो, एक बार तुमने कभी मुन्ने से पूछा कि दादी ने उसे दूध दिया या नहीं? मैं जानता हूँ माँ रोज अपने दूध में से एक कटोरी रबड़ी बनाती है और तुम्हारी नज़र बचाकर मुन्ने को खिला देती है। माँ इस बात से डरती है शायद कि कहीं मुन्ने को उनके पास देखकर तुम नाराज़ ना हो जाओ।” बड़े बेटे ने गम्भीर आवाज में कहा।

 “अच्छा जी तो अब तुम्हारी माँ मेरे बेटे को ही मेरे खिलाफ भड़का रही है औऱ उसे झूठ भी बोलना सिखा रही है। मैं भी कहूँ मुन्ना शाम को खाना कम क्यों खाता है और उसके पेट में गांठें कैसे हो जाती हैं। तो यह तुम्हारी माँ की रबड़ी की देन है, अरे जिस मुन्ने को डॉक्टर ने गाय के दूध में भी पानी मिलाकर पिलाने को कहा है उसे चोरी-चोरी रबड़ी खिलाकर तुम्हारी मां उसका पेट खराब कर रही है। बस इसी लिए मैं मुन्ने को तुम्हारी माँ के पास जाने को मना करती हूँ, बुढ़िया रबड़ी की रिश्वत देकर मेरे मुन्ने को मुझसे ही झूठ बोलना सिखा रही है; डायन कहीं की।” बड़ी बहू ने तुनककर कहा और मुँह घुमाकर सो गयी।


 रुचि ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया माँजी बहुत खुश थीं वह बच्चे को गोद में लेकर गर्व से कहतीं, “देख रे सचिन, बिल्कुल अपने बाबा पर गया है हमारा चुन्ना।” और उनकी इस बात पर रुचि मन ही मन कुढ़ जाती।

 एक दिन जब उससे रहा नहीं गया तो उसने पूछ ही लिया, “माँजी आप हमारे बेटे को चुन्ना क्यों कहती हो, मुझे यह नाम बिल्कुल पसंद नहीं?”

 “अरे बहु मैंने बड़े के बेटे को मुन्ना कहा तब उन्होंने तो मुझसे सवाल नहीं किया, ख़ैर तू पूछ रही है तो बता देती हूँ। देख एक मेरा मुन्ना और दूसरा चुन्ना दोनों मेरी आँख के तारे हैं मुझे मेरे दोनों पोते प्यारे हैं।”और ऐसा कहकर माँजी हँसने लगीं।

 “हुँह! दोनों पोते प्यारे हैं, बिल्कुल पागल बुढ़िया है ये। चुन्ना-मुन्ना ओह गॉड! भला आजकल भी कोई बच्चों को ऐसे बुलाता है। वह तो मुझे तुझसे अपना काम कराना था बुढ़िया, नहीं तो मैं तेरी ये बातें कभी बर्दाश्त नहीं करती।” रुचि गुस्से से मुँह बनाये अपने कमरे में बड़बड़ा रही थी तभी माँजी पीछे से आ गयीं।

 “क्या कहा बहु तूने? मतलब?? तो मैं मां नहीं मतलब हूँ ‘मतलब की माँ’ ?” और मैं समझती थी तुम सुधर गयी हो और सच में अपनी गलती सुधारने के लिए मुझे अपने घर लायी हो।” माँजी ने रुचि की बात सुन ली थी जिसका उन्हें बहुत दुःख हुआ था। 

 उसी समय माँजी ने अपना सामान उठाया और फिर आ गयीं अपने पुराने ठिकाने पर, घर से बाहर बनी छोटी सी बैठक जो एक बरामद था जिसे खाद के पुराने कट्टे सिलकर पर्दा लगाकर उन्होंने कमरा जैसा बना लिया था।

 शाम को जब सचिन घर लौटा तो उसने देखा कि माँ वही चार ईंटे रखे उनमें लकड़ी सुलगाये फूँक मारकर आग ठीक कर रही है लेकिन उसने एक शब्द भी नहीं कहा और चुपचाप अपने कमरे की ओर बढ़ गया।

  माँजी ने उसे जाता देख लिया था लेकिन उन्होंने भी उसे आवाज नहीं लगायी क्योंकि वे जानती थीं कि आवाज देने पर बेटा शायद रुक भी जाये लेकिन रुचि का पति वहाँ नहीं रुकेगा और अगर रुका तो उसका जीना मुश्किल हो जाएगा।


 चार दिन बाद बड़ा बेटा मां के पास आया और बैठकर बोला, “देख लिया मां छोटे से मोह करने का नतीजा? मैंने तुझे कितनी बार समझाया था कि ये लोग कितने मतलबी हैं लेकिन तुझे तो कभी कुछ समझ में आता ही नहीं है। अब छोड़ ये चौका चूल्हा और चल मेरे साथ अपने पोते के साथ रहने, वह रोज बस एक ही बात पूछता है कि क्या दादी बस चुन्ना की ही दादी है? तो फिर मेरी दादी कहाँ है। चल मां अब से तू हमारे साथ ही रहेगी बस।”

 “ना बेटा ना अब मैं किसी के साथ नहीं रहूँगी, मैं यहीं खुश हूँ अपने इस घर में। यह कम से कम मेरा अपना तो है, यहाँ मैं किसी और के साथ नहीं रहती बल्कि अपने खुद के साथ रहती हूँ। अपने पति की यादों के साथ रहती हूँ, अपनी मर्जी से जीती हूँ, अपनी पसंद का खाती हूँ और रही बात पोतों की तो वे तो बच्चे हैं वे अगर मेरे पास आएँगे तो मैं उन्हें दादी का प्यार क्यों नहीं दूँगी? लेकिन मैं जानती हूँ कि तुम्हारी पत्नियां कभी नहीं चाहतीं कि उनके बेटे उनकी जगह दादी को प्यार करें।” माँजी ने रूखेपन से जवाब दिया और अपने कपड़े तह करने लगीं।

 “अरे माँ क्या बस घर का यही हिस्सा तेरा घर है? क्या मेरा घर तेरा घर नहीं है? और फिर ये जगह रहने लायक है भी तो नहीं, यहाँ तो ना दरवाजा है और ना ही खिड़की। अच्छा ऐसा करते हैं कि इस बरामदे में सामने एक दीवार लगाकर उसमें एक दरवाजा और खिड़की लगवा देते हैं। जब तक ये जगह ठीक होती है तब तक तू हमारे साथ रह ले माँ, मुझसे तुझे ऐसे सर्दी में बोरे के पर्दे की आड़ में ठिठुरते नहीं देखा जाता। अच्छा देख मैं पाँच हज़ार रुपये लगा दूँगा बाकी तेरे पास कुछ…?और किसी को बताना मत की मैंने इस काम के लिए पैसे दिए हैं।” बड़े बेटे ने बहुत धीरे से कहा।

 “चल ठीक है बेटा ले ये छः हज़ार मेरे पास रखे हैं, करवा दे काम।” माँजी ने बक्सा खोलकर पैसे बड़े के हाथ पर रखते हुए कहा।

 “अच्छा मां एक बात और, वो क्या है ना कि तू एक बार फिर दादी बनने वाली है। मां तेरी बड़ी बहू पेट से है और डॉक्टर ने उसे पूरा आराम करने को कहा है।” बड़े बेटे ने बड़े धीरे से कहा और पैसे गिनते हुए चला गया।

 “वाह रे दुनिया! मां भी अब मतलब की हो गयी है।” बुढ़िया बुदबुदाई और अपना सामान लेकर धीरे-धीरे बड़े बेटे के घर की ओर चल दी।



  नृपेंद्र शर्मा

ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

 

Friday, June 19, 2020

#कहानी/नई राह

मोहित बचपन से ही मनमौजी था कभी किसी की बात सुनना या घर के कोई काम करना उसकी शान के खिलाफ था।
दिन भर दोस्तों के साथ घूमना  इधर उधर टाइम बर्बाद करना उसके दिनचर्या का हिस्सा था ; लेकिन तभी कुछ ऐसा हुआ कि मोहित बिल्कुल ही बदल गया।
मोहित अपने किसी जानने वाले को अस्पताल देखने गया था, जब वह अस्पताल से बाहर निकल रहा था तभी उसने देखा ,एक बूढ़ा घायल पड़ा हुआ था और उसके पास बैठी एक बूढ़ी महिला रो रही थी।
उनका हाल देखकर पहली नज़र में ही लग रहा था कि दोनों बहुत गरीब हैं।
कभी किसी की बात न सुनने वाला मोहित आज उन्हें देख कर न जाने कैसे उनके पास चला गया, " क्या हुआ अम्मा इन्हें??", मोहित ने बूढ़ी से पूछा।
फिसल कर गिर गए बेटा सर में चोट लगी है कित्ता खून बह गया।
फिर आपने इनका इलाज?? 
क्या करूँ बेटा डॉक्टर कह रहे हैं पहले रपट लिखा के आओ अक्सीडेंट का मामला है या क्या पता किसी ने मारने के लिए,, अब तुम्ही बताओ जब हम कह रहे हैं फिसल कर गिर गए फिर भी भर्ती नहीं करते,, औरत रोने लगीं।

आपके साथ ओर कोई नहीं है क्या??  आज ना जाने किस प्रभाव से मोहित द्रवित हो रहा था उसे उन लोगों पर तरस आ रहा था।

कोई नहीं है हमारा दुनिया में, हम दोनों ही रहते हैं अपनी झोंपड़ी में।
ये छोटा मोटा काम करके कुछ कमा लेते हैं उसी में दोनों गुजारा कर लेते हैं।
पर कई दिन से इन्हें कोई काम ना मिला अब काम नहीं तो रोटी भी नहीं बस इसी से कमज़ोरी में चक्कर खा कर गिर गए,, बुढ़िया माई लगातार रोये जा रही थी।

मोहित ने अस्पताल में हंगामा कर दिया, उसने लापरवाही के लिए सभी को झाड़ लगाई और उनकी शिकायत करने की धमकी दी।
अस्पताल बालो ने जल्दी ही बूढ़े व्यक्ति को भर्ती कर लिया,, मोहित ने अपने खर्चे पर उनका अच्छा इलाज करवाया, कोई दो तीन घण्टे में बूढ़े को होश आया गया इस बीच मोहित एक बोतल अपना ओर दो बोतल दोस्तों का खून बूढ़े को चढ़वा चुका था।
बुढ़िया न जाने कितनी आशीष मोहित पर वार रही थी जमाने की सारी दुआएँ उसके मुंह से मोहित के लिए निकल रही थी।
ओर इसी से हो रहा था मोहित का ह्रदय परिवर्तन।
मोहित बूढ़े के पूरी तरह ठीक होने तक रोज सुबह शाम अस्पताल का चक्कर लगाता रहा।
उसके बाद उसने अपने कुछ दोस्तों को साथ मिला कर उनके खाने की व्यवस्था भी कर दी।
मोहित अब सबकी मदद करने लगा, जब कोई उसे मदद के बदले आशीष दुआ देता है मोहित और विनम्र बन जाता है।
मोहित को ये सेवा कार्य बहुत आत्मसंतुष्टि देता है।
जल्द ही मोहित ने अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर एक सेवा ट्रस्ट बना लिया जिसमें असहाय बीमार कमज़ोर लोगों का सही इलाज और खाने पीने की व्यवस्था की जाती है।
मोहित अभी भी उस बूढ़ी माई का आशीर्वाद लेने जाता रहता है जिसने इसकी जिंदगी बदल कर उसे एक नई राह दे दी।

©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

#कहानी/दादी

चिंटू अरे ओ चिंटू,,,, 
अस्सी बरस की रामकली बिस्तर पर लेटे लेटे अपने पोते को पुकार रही है। 
रामकली बूढी अवश्य हो गई है किंतु जीवन जीने की आशा ने उसे कभी जीर्ण होने नहीं दिया। खाल सिकुड़ अवश्य गई है किंतु मन की तरुणाई कहीं उसके मनन करते मन के किसी कोने में अभी भी जीवित है। और जीवन की इसी आशा ने कभी उसके हाथ पांव को जड़ करने की जुर्रत नहीं की। किन्तु अब हाथ पांव में कम्पन अवश्य होने लगा है। 
क्या हुआ जो चन्द कदम चलने के प्रयास में साँस चढ़ जाती है। इस से उसके मन के दौड़ते मनोभावों को तो विराम नहीं लगता। 
वह पुनः अपनी खटिया में लेट कर मन की कल्पना के अश्व पर सवार हो चल पड़ती है, अपनी विचार यात्रा पर। 

उसका साठ साल का बेटा रामधन जो खुद भी बूढ़ा हो चला है , किन्तु माँ की दृष्टि उसे अभी भी तरुण ही समझती है , और अपनी नसीहत न मान ने पर ,मन ही मन खीझती है।

रामकली की कल्पना कभी उसे खेत पर ले जाती है जहाँ, रामधन अपने खुद की तरह जीर्ण होते बैलों के कंधे पर जुआ रखे, उसमे हल बांधे  इनके पीछे-पीछे हाथ में लकड़ी लिए कभी पुचकरता कभी भद्दी गालियां देता कभी मारता हुआ चल रहा है। 
रामकली सोचती कितने निकम्मे बैल हो गए हैं । मार से भी नहीं बढ़ते ,बेचारा 'रामधन' इस गति से कैसे इतने बड़े खेत को जोत पायेगा ,अभी तो तीन हिस्सा बाकि है। 
यही बैल रामधन के बापू की एक हांक पर कैसे हवा से आंधी बन जाते थे और आज देखो,,,!!!
रामधन के बापू का ख्याल आते ही रामकली के झुर्रियो भरे गाल लाल हो गए और कुछ क्षण के लिए झुर्रियों के बीच से बीस वर्ष की लजाती हुई सोहनलाल को छिप कर देखती हुई रामकली प्रकट हो गई। 
जो दोपहर को मटकती लहराती रोटी की पोटली बांधे पतली मेड़ो से होकर रास्ता छोटा करते हुए खेत पर जा रही है। उसे मन मीत से मिलने की शिघ्रता है या उन्हें जल्दी खाना खिलाने की लालसा ये तो उसका मन ही बेहतर जाने।
इसे दूर से आता देख सोहन भी बैलों को हल से मुक्त कर पेड़ के नीचे घास पर बैठ जाता।
बैल भी शायद उसके आने से प्रसन्न हो जाते ,ये कार्य मुक्ति की प्रसन्नता है,,, 
"नहीं नहीं" रामकली बैलों के लिए गुड़ के ढेले लेकर आती है उसी लालच में बैल पूंछ पटकते हैं। 
सोहन जब तक भोजन करता रामकली उसके मुख को तकती लजाती रहती। कितना प्यार करते थे रामधन के बापू उसे।
और बो खो जाती प्रेम मिलन की उस अद्भुत कल्पना में जिसमे उसके पूरे बदन में जोश और लज्जा के साझा रक्त संचार से ,कुछ पल को जवान रामकली लौट जाती। उस कल्पना में रामकली कभी मुस्कुराती कभी लजाती कभी खुद में ही सिमट जाती। कितने भाव उसके मुख की भाव भंगिमा की बदलते रहते। 
अब रामकली अपने मन की कल्पना के घोड़े को एड लगाती चली जाती मोहन की दुकान पर । 
मोहन रामकली का पोता और रामधन का लड़का है ,पैंतीस बरस का मजबूत सुंदर जवान। 
रामकली को उसमे सोहन की छवि दिखती है वो उसे देख कर बलिहारी जाती है ।
जुग-जुग जिए मेरा मोहन बिलकुल अपने दादा पर गया है। आज अगर बो होते तो देखते रत्ती भर का बी फर्क नई पडा सूरत में बोही नयन नक्शा बैसे ही चौड़े कंधे।
काश !!!  वह होते आज ,,,
सोचकर रामकली की आँखे गीली हो गईं ।
यही मोहन दो बरस का था जब इसे बरसात की उस  रात उलटी दस्त लग गए थे । 
गांव के हकीम जी ने कहा सोहन शहर ले जा बच्चे को यहाँ इलाज़ ना है अब इस बीमारी का। सारे गांव में बीमारी फैली है साफ सफाई बी ना है गांव में जल्दी कर । 

और सोहन रात में ही मोहन की छाती से लगाए दौड़ गया था शहर की और ।
कोई सवारी का साधन नहीं था बस बही बैल गाड़ी। 
और सोहन ने कहा बैलगाड़ी से जल्द तो मैं पहुंच जाऊंगा बटिया से दौड़ कर । 
ओर भीगते भागते दौड़ते उसने मोहन को तो बचा लिया, शहर ले जा कर, लेकिन खुद को म्यादि बुखार से न बचा पाया ,और छोड़ गया रामकली को बेसहारा । 
तब से मोहन को रामकली ने अपना साया देकर पाला । अपनी सारी शक्ति अपना सारा सुख और मन के सारे कोमल भाव लगा दिए रामकली ने परिवार को पालने में।
चिंटू उसी मोहन का सात बरस का बेटा है आजकल रामकली सोच रही है रामधन के बापू ने जन्म लिया है चिंटू के रूप में । 
और अपना संपूर्ण बत्सल्य लुटा रही है ,अपने इस पड पोते पर। 
आज कोई उसे लड्डू दे गया था सुबह बस बही पल्लु के कोने में बांधे पुकार रही है,, 
चिंटू अरे ओ चिंटू कहाँ है रे,,, 

तभी कहूँ से चिंटू लौट आया,, क्या है दादी,, ?
हर बक्त चिंटू- चिंटू बोल क्या काम है,,??

ये बत्सल्य के परदे से बंद आँखे सब अनदेखा करती टटोल कर पल्लु खोलती लड्डू निकलती है।
हैं !!लड्डू,, 
कहाँ से लाई दादी ,
मेरी प्यारी दादी कहते हुए चिन्टू उसकि गोद में घुसकर लड्डू में मुह मरने लगता है।

©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

Thursday, June 18, 2020

प्रेम विवाह में तलाक क्यों

दोनों ने प्यार किया था, सीमाओं से पार का प्यार।
दुनिया ही सिमट गई थी उनकी एक दूजे के प्यार में। 
और प्यार को परवान भी चढ़ाया , समाज जाती के बंधन तोड़ कर। 
शादी कर ली उन्होंने दिल का पवित्र बंधन जोड़ कर। 

एक साल जैसे पंख लगाकर उड़ गया ,
दोनों खोये रहे प्रेम के स्वप्निल संसार में। 
बस प्रेम ही छलकता रहा उनके जीवन व्यभार में। 
किन्तु अब
!! प्रेमिका कहीं विलुप्त होती जा रही है।।।। 
वह एक विषुद्ध पत्नी बनती जा रही है। 
पत्नी के सारे अधिकार अब उसने ले लिए हैं निज हाथों में। फिक्र होने लगी है गृहस्थी की ,अब समय नहीं गँवा सकती बस प्रेमालाप की बातों में। 
अब वह पत्नी बन चुकी है , विशुद्ध भारतीय पत्नी । 

लोक लाज से भरी घर परिवार में रंगी, समाज की चिंता करती पत्नी। 
पति वेचारा,,,,,,,, 
उसकी प्रेमिका कहीं खो गई है, और वह ढूंढ रहा है उसे अपनी पत्नी में।
वो चाहता है वही प्रेम के क्षण । 
लेकिन अब पत्नी बनी प्रेमिका के पास समय कहाँ,कि वह उसके बालों में उँगलियाँ घुमाये।
या फिर देखे बैठ कर घण्टों उसकी आँखों में। 

वह झुंझला रहा है उकता गया है ,उसकी अनदेखी की आदत से। 
पत्नी वही बेचारी परेशां है, कि जो प्रेमी उसकी एक इच्छा पर कुर्वान करता था खुद को। 
आप प्रेम की नज़रों से देखता तक नहीं उसको।
अब तो वह उसकी बातें तक नहीं सुनता ध्यान से। 
क्या हो गया है ये ,रोज वह घंटों पूछती है पूजा में भगवन से। दोनों क्षुब्द रोज़ खटपट ,,, 
और नतीजा ,,,, 
,,,,,,,"तलाक",,

#कहानी/लगन

मुन्नू बिना मां बाप का आठ दस वर्ष का अनाथ बालक था, उसके मां बाप और छोटी बहन पिछले साल गांव में फैले हैजे का शिकार हो गए।
और मुन्नू अकेला रह गया उदास हताश असहाय।
मुन्नू को भूख लगती तो वह रोता रहता क्योंकि उसके पास ना तो पैसे थे और ना ही उसे खाना पकाना आता था।

मुन्नू का परिवार बहुत गरीब था उसके मां और पिता दोनों हो लोगों के खेतों में काम करते थे, उनके पास अपना कहने को एक कच्चे मकान के अलावा कुछ नहीं था।
उसके बाप "रामदास" की हार्दिक इच्छा थी कि वह इस साल एक दुधारू गाय अवश्य लेगा, इसके बच्चे भी दूसरों की तरह दूध का स्वाद जानेंगे।
किन्तु वक्त और विधि के विधान के आगे किसकी चली है।
और वक़्त के एक झटके से मुन्नू अनाथ हो गया अब उसका कोई सरपरस्त नहीं था जो उसके भविष्य के बारे में सोचे।

मुन्नू को कुछ दिन पड़ोसियों ने खाना दे दिया किन्तु फिर एक दिन किसी ने कहा, " मुन्नू कब तक हम तुम्हे ऐसे मुफ्त में खाना देंगे ? और फिर तुम्हारी अन्य ज़रूरतें भी तो हैं कपड़े आदि, तो क्या तुम सब कुछ मांग कर लोगे? "

"तुम्हे भी आगे की जिंदगी के लिए कुछ काम करना चाहिए।" दूसरे व्यक्ति ने भी पहले की हाँ में हाँ मिलाई।

"लेकिन मैं क्या काम करूंगा चाचा? मुझसे तो खेतों में काम भी नहीं होगा, मैं तो वजन भी नहीं उठा सकता", मुन्नू उदासी में बोला था ।
"डंगर तो घेर सकता है"?,, चाचा ने कहा।
"हाँ वो तो मैं कर लूंगा", मुन्नू ने धीरे से कहा।

"ठीक है मैं दो चार घरों में बात करता हूँ और कल बताता हूँ तुझे", चाचा ने उसे रोटी देकर कल आने को कहा और चले गए।

अगले दिन से मुन्नू चार घरों की गाय भैंस चराने का काम मिल गया जिसकी एवज में उसे महीने के चार सौ रुपए ओर रोज़ एक घर में खाना मिलना तय हुआ।
अब मुन्नू को सुबह दो रोटी गुड़ चटनी देकर गाय भैंसों के साथ जंगल भेज दिया जाता और शाम को लौटने पर अपनी बारी के घर से रात का खाना खिला दिया जाता।
सुबह से शाम तक नन्हा मुन्नू डंगरों के पीछे दौड़ता रहता।
शुरू में तो उसे बहुत बुरा लगा लेकिन बाद में यही इसके लिए खेल बन गया और कल्लो, लल्लो, भूरी, चांदी (गाय; भैंस)आदि उसकी दोस्त, जिन्हें वो अपनी अम्मा ओर बापू के किस्से सुनाता और उनके गले लगता।

उसे याद आता था कैसे उसकी अम्मा उसे रोज कहानी सुनाती और बड़ा आदमी बनने को कहती।

वह गाय भैंसों से पूछता, "क्या तुम कोई कहानी जानती हो, मेरी अम्मा जैसे?"
और भैंस बस हम्ममम्मममम्म करके रह जाती,
गाय भी उसके जबाब में अम्म्म्महहहह के अलावा कुछ नहीं कह पाती।

फिर वह पूछता,"ये बड़ा आदमी क्या होता है", लेकिन फिर जबाब हम्ममम्मममम्म, अम्म्म्म के अलावा कुछ नहीं मिलता।

एक दिन वह अपनी रो में यही बातें कल्लो(भैंस) व लल्लो(गाय) से पूछ रहा था और वहां से दूसरे गांव के अध्यापक जा रहे थे, उन्हें एक छोटे बच्चे का इस तरह भैंस और गाय से बातें करना कुछ अलग सा लगा, मुन्नू के चेहरे की मासूमियत उन्हें अपनी ओर खींचने लगी।

"क्या बात है बेटा,?" उन्होंने मासूम मुन्नू के सर पर हाथ रख कर कहा।
मां के बाद पहली बार किसी ने मुन्नू के सर को इतने प्यार से सहलाया था।
उसकी आँखों में जमी साल भर की बर्फ पिघल कर उसके गालों पर बहने लगी, उसकी सिसकी बंध गयी, मुन्नू सुबक सुबक कर रोने लगा आँसू उसके गौरे किन्तु धूमिल गालों को भोगोकर एक निशान बना रहे थे।

अध्यापक उसके सर पर हाथ फेरते रहे, उसकी मासूमियत ओर उदासी उनके मन को विचलित कर रही थी।

"क्या पूछ रहे थे तुम इन जानवरों से?"उन्होंने धीरे से मुन्नू से पूछा।
मुन्नू खुद को संयमित करते हुए बोला, "मैं इनसे कहानी सुनाने को कह रहा था काका, जब से अम्मा मरी है किसी ने कहानी नहीं सुनाई।"
"क्या तुम्हें पढ़ना नहीं आता? तुम खुद कहानियां पढ़ सकते हो में तुम्हे किताब दे दूंगा कहानियों की", मास्साब ने कहा।

"पढ़ना?" मुन्नू को समझ नहीं आया।
गांव में कोई स्कूल नहीं था तो मुन्नू को पढ़ाई के बारे में कुछ भी पता नहीं था।

"पढ़ाई क्या होती है काका? और ये किताबें क्या कहानी सुनाना जानती हैं?" मुन्नू जिज्ञासा से भर उठा।

"हाँ किताबे तुम्हारे सारे सवालों के जबाब जानती हैं बेटे बस जरूरत है तुम्हे उनसे दोस्ती करने की उन्हें पढ़ना सीखने की।" मास्साब ने मुस्कुरा कर कहा।

"मैं करूँगा उनसे दोस्ती काका", मुन्नू ने दृढ़ता से कहा।
"अच्छा तुम वो नदी पार बाला गांव जानते हो?" मास्टर जी ने पूछा। 
"हाँ काका", मुन्नू ने धीरे से कहा।
"तो तुम शाम को वहीं आ जाना मेरे घर, आ जाओगे? किसी से भी पूछ लेना कहना मास्टरसाहब के घर जाना है।" मास्साब ने उसे अपना पता समझाया।
"ठीक है काका", मुन्नू ने खुश होकर कहा।

आज मुन्नू ने डंगर जल्दी ही हांक दिए और बिना खाये पिये ही दौड़ लगा दी नदी पार के गांव की ओर जो उसके गांव से बस एक डेढ़ किलोमीटर दूर ही होगा।
दोनो गांव के बीच में एक छोटी सी नदी बहती थी जो बरसात के अलावा लगभग सूखी ही रहती थी, उसे पार करने के लिए उसके ऊपर दो बड़े खजूर के पेड़ काटकर पुल जैसा बना रखा था।
मुन्नू पुल को भी दौड़ कर पार कर गया, उसे तो लगन थी कहानियों की।
वह गांव में सीधा मास्साब के घर पहुंचा, गांव में घुसते ही पहले ही आदमी से उसे मास्साब का घर पता चल गया था।
मास्साब ने उसे बिठाया पीने को दूध और गुड़ दिया।

"मास्साब लाओ किताब मैं उससे कहानियाँ सुनूंगा।" मुन्नू उतावलेपन से बोला।
"हाहाहा!!"
मास्साब जोर से हँसने लगे।
"क्या हुआ?" मुन्नू उन्हें देखते हुए बोला।

"किताबे कहानी सुनाती नहीं उन्हें खुद पढ़ना पड़ता है", मास्टर साहब बोले।
"पढ़ना?लेकिन मुझे पढ़ना नहीं आता", मुन्नू उदास होकर बोला।
"मैं सिखाऊंगा तुम्हे पढ़ना", बस तुम्हे लगन से मेहनत से सीखना होगा।
"मैं सीखूंगा", जो कहोगे करूँगा मुन्नू ने कहा।

"ठीक है कल से रोज इसी समय आना होगा", मास्साब ने उसे एक तख्ती औऱ एक किताब देकर कहा ओर कुछ अक्षर बताकर नकल का अभ्यास करने को दिया।

मुन्नू घर लौट आया, रात भर वह उस किताब में छपे चित्र देखकर उन्हें समझने का प्रयास करता रहा, फिर कुछ अक्षर तख्ती पर खड़िया से लिखने लगा, उसे इस खेल में मज़ा आ रहा था, रात भर में उसने कितनी ही बार तख्ती लिखी।

मुन्नू रोज शाम को मास्साब के घर जाकर पढ़ने लगा, उसकी लगन और मेहनत से कुछ ही महीनों में वह बिना रुके बिना हिज्जे किये पुस्तक पढ़ने लगा, और बहुत सुंदर लिखाई भी करने लगा।
जल्दी ही मुन्नू ने बहुत सारी कहानियां भी पढ़ लीं थी अब उसे पता था कि बड़ा आदमी क्या होता है।
मास्साब ने उसका नाम स्कूल में लिखवा दिया और उसे शाम को घर पर ही पढ़ाने लगे, उन्होंने मुन्नू को इम्तिहान देने के लिए मना लिया था।
पांचवी का परिणाम मुन्नू के लिए बहुत खुशी लेकर आया वह स्कूल में प्रथम आया था, मुन्नू को भाषा, गणित और सामाजिक अध्ययन में बहुत अच्छे अंक मिले थे।
इधर मुन्नू इन तीन सालों में अपने सारे पैसे बचा कर रखता रहा अब उसके पास करीब सात आठ हजार रुपए की पूंजी थी, जिसकी मदद से उसने पक्की सड़क के किनारे एक कच्ची गुमटी बना ली और चाय नास्ता बेचने की एक छोटी दुकान खोल ली।
अब मुन्नू किसी का नौकर नहीं था और अब उसके पास पढ़ने के लिए पर्याप्त समय था।
उसकी लगन और मेहनत ने हमेशा उसका साथ दिया और उसने समय के साथ गांव से आठवीं की परीक्षा पास करके शहर में दाखिला ले या मुन्नू पढ़लिख कर बड़ा आदमी बनना चाहता था , वह अपनी अम्मा का सपना पूरा करना चाहता था।
मुन्नू बहुत ईमानदारी और मेहनत से अपनी दुकान चलाता और पूरी लगन से पढ़ाई करता, जल्दी ही उसे एक और अनाथ लड़का मिल गया उसके पास भी खाने रहने को कुछ नहीं था।
मुन्नू ने उसे अपने साथ रख लिया अब दुकान में दो लोगों के रहने से उसे पढ़ने के लिए अधिक समय मिलने लगा और वह उस लड़के को भी पढ़ाने लगा।
दसवीं की परीक्षा में मुन्नू को जिले में प्रथम स्थान मिला इससे उसकी और पढ़ने की लगन को बहुत बल मिला।
ऐसे हैं पूरी लगन से मुन्नू परिश्रम करता रहा, अब उसने अपनी गांव की झोपड़ी बेच कर सड़क के किनारे जमीन का एक टुकड़ा खरीद लिया था जिसमें कच्चा बड़ा मकान ओर आगे वही चाय की दुकान बना ली थी।
अब उसके साथ चार पांच अनाथ लड़के रहते थे जो उसकी दुकान सम्भालते और वह उन्हें भी लगन से पढ़ता।

इसी प्रकार समय के साथ मुन्नू आगे पड़ता गया और उसका घर बड़ा होता गया जहां अनाथों बेसहारा लोगों के लिए हमेशा स्थान मिलता रहा।
मुन्नू अपनी मेहनत और लगन से एक दिन भारतीय प्रसाशनिक सेवा में चयनित हो गया, अब वह सच में बड़ा आदमी था उसकी मां का सपना साकार हो चुका था।
उसने अब अपने घर को अनाथालय और बृद्धाश्रम बना दिया जहां उसे कितने सारे भाई- बहन और मां बाप मिल गए जो हमेशा उसके लिए दुआएँ करते हैं।

मुन्नू को अभी भी लगन है कि कोई अनाथ कभी भी बिना कहानी सुने न सोये, और कोई भी इसलिए अनपढ़ ना रहे कि वह अनाथ है।
उसमे अभी भी लगन है हर शहर में एक ऐसा आलय खोलने की जिसमे अभावग्रस्त लोगों को मुफ्त शिक्षा और रहने की व्यवस्था हो।
मुन्नू सच्चा बड़ा आदमी है , यूँ तो अब उसका नाम श्री मुनेश कुमार है, किन्तु वह मुन्नू कहलाया जाना ही पसंद करता है।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"
९०४५५४८००८(वाट्सप)

#कहानी/और वह मर गयी

नदी किनारे गांव के एक छोर पर एक छोटे से घर में रहती थी गांव की बूढी दादी माँ। 
घर क्या था ,उसे बस एक झोंपडी कहना ही उचित होगा। गांव की दादी माँ, जी हां पूरा गांव ही यही संबोधन देता था उन्हें। नाम तो शायद ही किसी को याद हो।

70/75 बरस की नितान्त अकेली अपनी ही धुन में मगन। कहते हैं पूरा परिवार था उनका नाती पोते बाली थीं वो। लेकिन एक काल कलुषित वर्षा की अशुभ!! रात की नदी की बाढ़ ,,, उनका सब समां ले गई अपने उफान में । 
उसदिन सौभाग्य कहो या दुर्भाग्य कि, बो अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ बच्चा होने की खुशियां मानाने गई हुई थीं। कोन जनता था कि वह मनहूस रात उनके ही नाती बेटों को उनसे दूर कर, उन्हें ही जीवन भर के गहन दुःख देने को आएगी। 
उसी दिन से सारे गांव को ही उन्होंने अपना नातेदार बना लिया, और गांव बाले भी उनका परिवार बन कर खुश थे।

किसी के घर का छोटे से छोटा उत्सव भी उनके बिना न शुरू होता न ख़तम।
गांव की औरतें भी बड़े आदर से पूछती," अम्मा "ये कैसे करें बो कैसे होता है। और अम्मा बड़े मनुहार से कहती इतनी बड़ी हो गई इत्ती सी बात न सिख पाई अभी तक । 
सब खुश थे सबके काम आसान थे । किसी के यहां शादी विवाह में तो अम्मा 4 दिन पहले से ही बुला ली जाती थीं। 

हम बच्चे रोज शाम जबतक अम्मा से दो चार कहानियां न सुन ले न तो खाना हज़म होता और न नींद ही आती। 
अम्मा रोज नई नई कहानियां सुनाती राजा -रानी, परी -राक्षस, चोर -डाकू ऐंसे न जाने कितने पात्र रोज अम्मा की कहानियों में जीवंत होते और मारते थे।

समय यूँही गुजर रहा था और अम्मा की उम्र भी। आजकल अम्मा बीमार आसक्त हैं उनको दमा और लकवा एक साथ आ गया। चलने फिरने में असमर्थ , ठीक से आवाज भी नहीं लगा पाती । 
कुछ दिन तो गांव बाले अम्मा को देखने आते रहे, रोटी पानी दवा अदि पहुंचते रहे। लेकिन धीरे धीरे लोग उनसे कटने लगे बच्चे भी अब उधर नहीं आते कि, कहीं अम्मा कुछ काम न बतादे। 
बो अम्मा जिसका पूरा गांव परिवार था अब बच्चों तक को देखने को तरसती रहती।
वही लोग जिनका अम्मा के बिना कुछ काम नहीं होता था , अब उन्हें भूलने लगे। 
औरते अब बच्चो को उधर मत जाना नहीं तो बीमारी लग जाएगी की शिक्षा देने लगी। 
अम्मा बेचारी अकेली उदास गुनगुना रही है- 
सुख में सब साथी दुःख में न कोई। 
अब तो कोई उधर से गुजरता भी नहीं । अम्मा आवाज लगा रही है अरे कोई रोटी देदो। थोड़ा पानी ही पिला दो।।।।!!
नदी किनारे रहकर भी अम्मा पानी के घूँट को तरसती उस रात मर गई। 
सुबह किसी ने देखा और गांव में खबर फैली की बुढ़िया जो नदी किनारे रहती थी आज मर गई।
लोग आये दो चार बूँद आंसू गिराये औरतों में चर्चा थी वेचारी सब के कितना काम आती थी,और आज मर गई।

कुछ देर में बुढ़िया का शरीर आग के घेरे में पड़ा था लोग अपने घर लौट रहे थे। और अब कहीं चर्चा नहीं थी कि वह मर गई। 

यही दुनिया है यही इसकी रीत है। जीवित हैं तो सबके हैं । मर गए तो भूत हैं। और कोई याद तक नहीं करता कि वह मर गई।

#कहानी/ मूर्ति

आज फिर खाना नहीं बना फूलो?? हारा थका लालू झोंपड़ी के बाहर ठंडे चूल्हे को गीली आंखों से देखता हुआ बोला।

कहाँ से बने कित्ते दिन है गए तुम कुछ लाये कमा के फूलो तुनकती हुई बोली।
क्या करूँ फूलो आजकल मूर्ति बनती ही नहीं ठीक से कई पत्थर टूट जाते हैं कुछ मूर्ति बनत भी है तो उसमें सुघड़ता नई आबे।
अब बता मेरा क्या दोष है मैं तो सुबह से शाम लगा देता हूँ मूर्ति गढ़ने में, लालू दीवार का सहारा लेकर जमीन पर बैठते हुए बोला।
लालू  35-40 साल का कृषकाय युवक है जिसकी आंखे पीली होकर गढ्ढे में धंस गयी हैं, वह मंदिर से कुछ दूर पत्थर की मूर्ति बना कर बेचता है, फूलवती उसकी पत्नी है, उसे भी जीर्णता ने बेरंग बना दिया है कभी उसे देखकर लालू कहता था, "मेरी फूलो भगवान की बनाई सबसे सुंदर मूर्ति है" और आखिर हो भी क्यों ना मैं भी तो उस भगवान की इतनी सुंदर मूर्तियां गढ़ता हूँ, ना जाने कितने मंदिरों में मेरी बनाई मूर्ति की पूजा होती। लालू गर्व से कहता तभी तो उसने मेरे लिए संसार की सबसे सुंदर मूर्ति बनाकर भेजी, और फूलो शर्म से लाल होकर उसमे समा जाती।

लालू की बनाई सुंदर मुर्तिया अच्छे पैसे में बिकती थी घर ठीक ठाक चल रहा था लेकिन कुछ दिन से मंदिर के आस पास प्लास्टर ऑफ पेरिस से मूर्ति बनाने वाले लोग आ गए उनकी बनाई मूर्ति देखने में सुंदर बजन में हल्की ओर कीमत में आधी से भी कम, अस्तु लालू के काम पर इसका बुरा असर हुआ, उसकी बनाई मूर्ति की बिक्री घट कर ना के बराबर हो गयी।
काम मन्द होने से घर में भुखमरी के हालात बनने लगे,उसी बीच फूलो को दो बार बच्चा हुआ लेकिन कुपोषण ओर कमजोरी के चलते दोनों बार मोत उन्हें अपने साथ ले गयी और उसके बाद तो डॉक्टर ने उन्हें मना कर दिया कि अब अगर बच्चा हुआ तो फूलो की जिंदगी बचाना मुश्किल हो जाएगा।

कोई बात नहीं फूलो ऐसे भी हम बच्चों को हैब खिला पिला नहीं सकते तो हमें उन्हें दुनिया में लाना भी नहीं चाहिए और फिर अबतो उस ऊपर बाले की भी यही इच्छा है। लालू ने फूलो को सीने से लगा कर प्यार से समझाया था।
फूलों ने भी दिल पर पत्थर रख इसे अपनी किस्मत मान लिया था।

लेकिन आज तीन दिन से लालू एक भी मूर्ति बेच नहीं पाया है  घर में  अनाज का दाना तक नहीं है लालू इतना कमजोर हो रहा है कि पत्थर तराशने जैसा बारीक काम उसके लिए असम्भव हो चला है, आज फूलो पहली बार दुखी और बराज होकर बोली," अरे मन्दिर के बाहर बैठा भिखारी भी कभी भूखा नहीं सोता, तुम तो उसकी मूर्ति बनाते हो जिनमे लोग इसके दर्शन करके उस भगवान की पूजा करते हैं।
जाने क्या माया है तुम्हारे भगबान की जो एक उसके नाम पर मांग खाता है और जिसकी बजह से लोग उसका नाम बार बार लेते हैं वो मूर्ति बाला भूखा सोता है, बन्द करो तुम भी ये मूर्ति का काम अरे इससे तो अच्छा दोनों भीख ही मांग खाये, फूलो की आंखों से आंसू बहने लगे आज वह जी भर कर भगवान को कोस रही थी जो मन में आ रहा था बुरा भला कह रही थी।
और लालू हाथ जोड़े बस एक ही प्रार्थना कर रहा था कि हे मालिक ये नहीं जानती की कितनी चोटें खाकर एक पत्थर मूर्ति बन पाता है अगर ऐसे दुख पीड़ा से टूट जाये तो उसकी किस्मत सड़क की कंकर बनकर रह जाती है ,मैं जानता हूँ प्रभु ये हमारी परीक्षा है और तूने जरूर हमारे लिए कुछ अच्छा सोच रखा होगा, उसे विस्वास था कि भगवान फूलो की गलती को माफ करेगा और उनका जीवन एक दिन ज़रूर बदलेगा।

इसी प्रार्थना में लालू को कब नींद आयी उसे पता भी नहीं चला उसकी नींद खुली एक तेज़ आवाज से जो उसकी झोपड़ी का दरवाजा जोर जोर से पीटने से आ रही थी।

लालू जल्दी से उठ कर बाहर आया बाहर दो बड़ी बड़ी गाड़ियां खड़ी थीं और कुछ लोग  उसके सामने खड़े थे।

जी मालिक??लालू डरा सहमा हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।
तुम्ही मूर्तिकार हो? उनमें से एक नए पूछा।

जी सरकार मैं ही हूँ।

सेठजी एक बड़ा मंदिर बना रहे हैं उसमें बीस पच्चीस मूर्तियां बनानी हैं बना लोगे?उस व्यक्ति ने पूछा।

जी मालिक हो जाएगा।
ठीक है चलो हमारे साथ, इस बार सेठजी ने कहा।
वो हुजूर मेरी पत्नी?? लालू ने कुछ बोलना चाहा।

आप दोनों के रहने खाने का इंतज़ाम मंदिर के पास ही रहेगा ये लो कुछ रुपये ओर हमारा पता तुम लोग एक हफ्ते में यहाँ से कम खत्म करके आ जाना, कहकर ये लोग चले गए।
लालू हाथ जोड़े देर तक उन्हें जाते देखता रहा।

ये ले फूलो पूरे पांच हजार रुपए हैं , जब पेशगी इतनी बड़ी है तो कम कितना बड़ा होगा सोच।
आज भगवान ने तेरी सुन ली भगवान चल अब चलने की तैयारी कर, मैं बाजार से कुछ खाने पीने का सामान लाता हूँ तू ये पैसे सम्भाल।
कहकर लालू तेज़ी से निकल गया, और फूला भगवान के सामने आंसू बहाती बैठी अपनी गलतियों के लिए प्रयाश्चित करती उनकी कृपा के लिए धन्यवाद देने लगी।

आज उसे समझ आ गया था कि पत्थर को मूर्ति बनने के लिए कुछ चोट साहनी ही पड़ती हैं।

©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

#कहानी/ तलाक के बाद

दिसम्बर का महीना था, ठिठुरती सर्दी का मौसम था। दिल्ली से ट्रेन कोई शाम आठ-सवा आठ पर चली थी। सर्दी के कारण ट्रेन लगभग खाली थी और शाम छः बजे सूरज डूबने से आठ बजे तक भरपूर रात का अहसास होने लगा था।
रिजर्वेशन कोच में चार दोस्त- मनोज, रोहन, शकील और नौशाद एक साइड की तीनों और सामने की एक नीचे बाली सीट पर लेटे हुए थे जिन पर उनका रिज़र्वेशन था।

अभी ट्रेन सीटी दे कर धीरे-धीरे खिसकने लगी थी तभी एक महिला बुर्का डाले, जल्दी से ट्रेन में चढ़ी और उसके पीछे उसके शौहर ने एक अटैची ओर दो बैग लगभग फेंक कर मारे। महिला की गोद में एक छोटा बच्चा था। वह एक हाथ से उसे संभाले, दूसरे से बैग खिसकाने लगी। तभी एक बच्चे को पकड़े बड़बड़ाते हुए उसके शौहर ने ट्रेन में एंट्री ली-

"सब तुम्हारी बजह से हुआ रुखसाना!! आज तो ट्रेन छूट ही गयी थी", वह लगभग चिल्लाते हुए समान घसीटने लगा।

"अब इसमें मेरी क्या गलती है मियां? मैने तो कहा था रिक्शा कर लीजिए, लेकिन आप ही ने तो कहा चार कदम पर ही तो स्टेशन है",  बेगम ने धीरे से कहा।

"अच्छा-अच्छा! हमेशा मैं ही गलत होता हूँ, चार पैसे बचाने की सोचूं तब भी और तुमसे मुतालिक कोई बात कहूँ तब भी। तुम थोड़ा तेज़ भी तो चल सकती थीं। अच्छा अब आओ ये रही हमारी सीटें, एक ये बीच बाली और दूसरी सबसे ऊपर की", वह समान इकट्ठा करते हुए बोला।
इनकी बक -बक से, ये सारे दोस्त भी नीचे की सीट पर आकर बैठ गए थे और इनकी बातों का मज़ा ले रहे थे।

"क्या हुआ भाई जान कोई परेशानी है क्या?" नौशाद ने पूछा।

"कुछ नहीं भाई,बस थोड़ा लेट हो गए थे पहुंचने में; ट्रेन बस चलते-चलते पकड़ी।अब छोटे बच्चों के साथ ऊपर की सीटें!!एक और मुसीबत है। बैसे आप लोग कहाँ तक जाएँगे?" उसने पूछा।

"बंगलौर तक", नौशाद ने कहा।

"मेरा नाम शमशाद है, और ये मेरी बेगम रुखसाना है। हम भी बंगलौर जाएंगे, भाई जान अगर आप लोगों को दिक्कत ना हो तो क्या नीचे वाली सीटें आप लोग हमारे साथ बदल सकते हैं? अब देखिए न रात का मुआमला है, नींद आनी लाजमी है, ऐसे में कोई बच्चा अगर गिर गया तो....? ऐसे तो हम पूरी एहतियात रखेंगे लेकिन फिर भी.... " शमशाद ने इल्तिजा की।

नौशाद ने अपने साथियों की ओर देखा और उनकी आंख का इशारा समझ कर हाँ कर दी।

"हाँ हाँ क्यों नही भाई जान, इसमें क्या मुश्किल है", बैसे मैं हूँ नौशाद अहमद, ये मेरा दोस्त शकील हुसैन, ये मनोज और ये हैं रोहन।
आप आराम से नीचे सो जाना हम लोग ऊपर शिफ्ट हो जाएंगे, नौशाद ने सबका तार्रुफ़ कराते हुए कहा।
ट्रेन पूरी रफ्तार में चल रही थी और साथ ही जारी थी शमशाद और रुखसाना की नोकझोंक- 
"अरे रुखसाना तुम बिस्किट के कितने पैकट लायी थी?अब एक भी नही मिल रहा", शमशाद बैग में टटोलते हुए बोला।

"चार लायी थी जी, अब खत्म हो गए होंगे! पूरे दो घण्टे से तुम दोनों अब्बू-बेटा खाये जो जा रहे हो",  रुखसाना झल्ला कर बोली।

"तो क्या भूखे रहें? मुंह को ताला लगा कर बैठ जाएं? तुम्हे पता था रास्ता लंबा है, इतने में चार पैकेट से क्या होता है?तुम्हे ज्यादा लेने चाहिए थे रुखसाना; अब बोलो मुझे या गुड्डू को भूख लगी तो क्या खाएंगे?" शमशाद गुस्से से चीखा।

"मुझे ही खा लो तुम!! भुक्कड़ लोगो, हर वक्त बकरी की तरह मुंह चलता है तुम्हारा! अरे ले लेंगे किसी हॉकर से, या किसी टेशन से।
अब क्या घर से बोझा लादकर भागना सही था? तुमसे तो ये भी न हुआ की इतना समान है, दो मासूम बच्चे हैं; तो रिक्शा ही बुला लो। आखिर कितने रुपए बचे होंगे,बीस-तीस ही ना? उससे ज्यादा का नुकसान हो जाता अगर ट्रेन छूट जाती तो; या जल्दबाजी में किसी को चोट लग जाती", रुखसाना ताने मारती हुई बोली।

"तुम न रुखसाना! खुद इतनी लापरवाह हो, और तुम्हे कुछ कहो तो लड़ने लगती हो। अरे तुम्हे पता है यहाँ ट्रेन में दो की चीज़ नो में मिलती है। लेकिन तुम्हे क्या, रुपए तो हमे कमाने पड़ते हैं; तुम्हे रुपए की कीमत क्या पता! कभी रुपए देखे हो खानदान ने तब तो जानो, सब तो साले कंगले हैं तुम्हारे खानदान में। सफर में जाते हो तब तो पता हो कि कैसे जाना चाहिए! और फिर सफर में खाने-पीने को लेने के लिए पैसे भी तो होने चाहिए", शमशाद ताने मारने लगा।

"अच्छा मेरा खानदान कंगला है....! और जनाब तो जैसे निज़ाम के वारिस हैं, बड़ा याकूत का खजाना भरा है आप के खानदान की तिजोरियों में तो। सब पता है मियां आपके खानदान का मुझे! अब मेरा ज्यादा मुंह मत खुलबाओ; देखा था हुजूर की बारात में कैसे बिरयानी और यखनी में घुसे जा रहे थे लोग- गोया हफ़्तों से ग़िज़ा नसीब ना हुई हो।
और गुलाबजामुन तो मुंह के साथ-साथ जेबों में भी भर रहे थे; जैसे जिंदगी में पहली दफा देखी हो। आये बड़े खानदान के बारे में कहने बाले, अरे तुम्हारे अब्बा-अम्मी छः दफा आये थे दामन फैला कर, तब जाकर हमने निकाह के लिए हाँ की थी। हम नहीं मरे जा रहे थे आपके खानदान में आने को", रुखसाना बाकायदा नाराज़ हो गयी।

"अच्छा हम मरे जा रहे थे? और वो जो तुम्हारे बड़े-अब्बू रोज पार्क में हमारे बड़े मियां से तुम्हारी तारीफें करते थे! कोई लायक लड़का पूछते थे?" शमशाद मियां भी चुप ना रहे।

" लड़का पूछ भी लिया अगर तो इसका मतलब ये कब से हो गया कि अपने ही पोते का रिश्ता भेज दो? अरे हमारे बड़े अब्बू ने तो दोस्ती की खातिर अपनेपन में उन्हें बता दिया और बडे मियां खुद के पोते के लिए ही लार टपकाने लगे। मुझे तो ये रिश्ता रत्तीभर भी पसन्द नहीं था; वो तो बस घर वालो की इज़्ज़त रखने के लिए कुबूल बोल दिया," रुखसाना शमशाद को चिढ़ाते हुए बोली।

"अच्छा तुम्हे पसंद नहीं था??" शमशाद बिफर गया। हमे लगा था तुम हमसे मोहबत करती हो रुखसाना लेकिन अगर तुम मज़बूरी में ये निकाह निभा रही हो तो ये तो गलत है, और जबरदस्ती किसी को अपने साथ रिश्ते में बांध कर रखना गुनाह है। तो मैं आज! अभी! तुम्हे तुम्हारी सारी ज़िम्मेदारी से आज़ाद करता हूँ ।मैं तुम्हे अपनी बेगम होने के हर फ़र्ज़ से आज़ाद करता हूँ।
मैं तुझे तलाक देता हूँ रुखसाना-
तलाक!
तलाक!!
तलाक!!!"
शमशाद एक झटके में कह गया। 
रुखसाना चीखती हुए उसे रोकती रह गयी।

उनकी इस हरकत से, उनका सारा झगड़ा सुनकर मज़ा ले रहे, ये चारों भी सन्न रह गए।
अब वहां पूरी तरह से सन्नाटा था सारे लोग जैसे इस घटना से जम से गये थे।

रुखसाना सुबकते हुए सिसकियां ले रही थी, शमशाद का चेहरा ऐसे हो रहा था जैसे किसी जुआरी का-अपना सब कुछ हार जाने पर होता है। वह बार-बार अपना सर पीट रहा था।

"ये आपने क्या किया शमशाद भाई, अरे पति-पत्नी की इस मीठी नोक-झोंक से तो जिंदगी मज़ेदार बनती है, और आपने तो आप दोनों की ही जिंदगी एक सज़ा सी बना कर रख दी। अब आपके गुस्से ने आपकी जिंदगी को गुनाह में धकेल दिया; अरे आपने ये कुफ़्र तोड़ने से पहले अपने मासूम बच्चों के बारे में भी नहीं सोचा?" नौशाद शमशाद के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला।

"ये क्या हो गया मुझसे!! खुदा कसम! मुझे तो पता भी नहीं चला कि कब मैं ये गुनाह कर गया। उफ्फ मेरे मौला! तू तो जनता है ये गुनाह मुझसे बिल्कुल बेख्याली में हुआ है। मैं अपने बच्चों की कसम! खाकर कहता हूं मैने जान बूझकर कुछ नही किया।
अरे मैं तो उन नापाक-लफ़्ज़ों को अपनी जुबान पर भी कभी लाना नहीं चाहता। फिर भी खुदा जाने कैसे मेरे मुंह से निकल गए।
मैं तो अपनी रुखसाना से बेइंतहा मोहब्बत करता हूँ। ये तो बस उसे छेड़ने में मुझे मज़ा आता है", शमशाद की आँखें आँसुओं से भर गयीं और वह सुबकते हुए आगे बोला-
"अरे रुखसाना! तेरे बिना मैं मर ही जाऊंगा; अल्लाह कसम!! तू ही तो जिंदगी है मेरी। अरे पागल तू तो जानती है, मैं बचपन से तुझ पर मरता था। या मेरे खुदा!! मुझे मुआफ़ करदे।
मैं अपनी मोहब्बत से अलग नहीं रह पाऊंगा।
लेकिन 'शरीयत' उसके मुत्तालिक तो अब... हलाला...उफ्फ!! ..हमें मौलवी साब को बताना पड़ेगा; या खुदा! मेरी रुखसाना को दूसरे मर्द के साथ, नहीं-नहीं, ये मेरी इज़्ज़त है", ओर शमशाद वाकायदा रोने लगा।

इधर रुखसाना पागलों की तरह बस रोये जा रही थी। ट्रेन के इस कूपे में इनके इलावा कोई शख्स नहीं था
रात का कोई बारह का टाइम हो रहा था, ठंड में बाहर चाँद-तारे भी ठिठुर रहे थे। या खुद को कोहरे की चादर में लपेट लिए थे। लेकिन ऐसी सर्दी की रात में इस डब्बे में मौजूद, हर शख्स के माथे पर पसीना छलक रहा था और उनके दिल धौकनी बने हुए थे।

"भाई जान कुरान हमने भी पढ़ी है, शरीयत हम भी समझते हैं, और उसमें जानबूझ कर हलाला को भी कुफ़्र ही माना गया है।
उसके मुतालिक तो ऐसे तलाक के बाद औरत अगर दूसरा निकाह करती है और संयोग से अगर दूसरा शौहर भी तलाक दे देता है, तो वह पहले पति से दोबारा निकाह कर सकती है। लेकिन ऐसा संयोग से ही होना चाहिए , जानबूझ कर पैसे लेकर हलाला कराना भी गलत ही है।" नौशाद और शकील ने शमशाद को समझाया।

"लेकिन भाई हमें दीन के मुतालिक तो चलना ही पड़ेगा। और कोई रास्ता है क्या हमारे पास?" , शमशाद बहुत उदास होकर बोला।

"फिर अब आप क्या करेंगे?" अबकी रुखसाना रोते हुए बोली।

"सीधे जाकर मौलवी साब को बताएंगे और उनसे इल्तिजा करेंगे कि वे हमारे साथ-साथ रहने की कोई राह निकालें, शरीयत के मुताल्लिक।" शमशाद ने जैसे फैसला कर लिया।

" यानी हलाला", रुखसाना अनजाने भय से सिहर उठी, उसकी आंखें आंसुओं से भर गईं।

"आप बच्चों को संभाल लेना, अब मैं तो खुदकुशी कर लुंगी; क्योंकि मेने भी हमेशा से बस तुमसे ही मोहब्बत की है शमशाद।
मुझे तुम्हारे अलाबा कोई कोई छुए, ये मुझे हरगिज गवारा नहीं होगा। किसी गैर मर्द के साथ.....! नहीं-नही चाहे वह कोई मेरे निकाह में ही कियूं न हो; मेरा दिल किसी ओर को कबूल नहीं करेगा शमशाद।
हम नही मानते ऐसे शरीयत के कानून को, जो किसी के जज्बातों को ना समझकर अपने जबरदस्ती के कानून चलाये।
हम या तो सीधे घर चलेंगे और भूल जाएंगे की इधर ट्रेन में क्या हुआ। नहीं तो हम खुदकुशी करेंगे बस, आप सोच लीजिये की आपको क्या करना है। अगर आप मौलवी के पास गए तो हम खत्म कर लेंगे खुद को बस," रुकसाना ने अपना फैसला सुना दिया।

"लेकिन रुखसाना खुदकुशी को भी तो गुनाह माना गया है। और हम गुनाह से बचने के लिए....", शमशाद ने कुछ कहना चाहा।

"खुदकुशी नहीं है ये शमशाद मियां!! ये तो कत्ल है मेरा, जो आपने वे मनहूस लफ्ज बोल कर किया है। और ना जाने कितने शौहर अपनी नादानी में अपनी बीबियों का करते हैं, ये नापाक लफ्ज बोलकर।
और फिर अपना होश! आने पर, अपना गुनाह छिपाने के लिए हलाला के नाम पर फिर उस औरत का कत्ल करते हैं, बार-बार करते हैं।
अरे कोई उस औरत से कियूं नही पूछता की वह क्या चाहती है? क्या औरत कोई बेजान चीज है? जिसे जो चाहे, जैसे चाहे, इस्तेमाल करे और जब मन भर जाए तो दूसरों को दे दे।
अरे हम भी अल्लाह की पाक रूह हैं, हम भी मर्दो की ही तरहा इंसान हैं। हमारे भी दिल हैं, जज्बात हैं और पसंद ना पसंद है।
और फिर कैसे कोई इंसान अपनी मोहब्बत को ऐसे बेजार कर सकता है।
नहीं-नहीं शमशाद!! हम ये बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। हम सच कह रहे हैं शमशाद हम मर जायेंगे", रुखसाना बदस्तूर रोते हुए बोली लेकिन अबकी उसकी आवाज में गुस्सा था, नाराज़गी थी।

"कुछ समझ नहीं आ रहा कि क्या करूँ?" शमशाद इन दोस्तों को देखते हुए उदास होकर बोला।

"हमारे पास तरकीब है, अगर आप राजी हो तो? आपकी शरीयत की शर्त भी पूरी हो जाएगी और आप सुबह साथ-साथ घर भी जा पाएंगे। आपके मन पर बोझ भी नही रहेगा कि आप दीन के खिलाफ गए", मनोज कुछ सोचते हुए बोला।

"क्या"!!??
शमशाद ओर रुखसाना एक साथ बोले।

"देखिए हमारे शकील मियाँ आलिम हैं और नोसाद भाई कुँआरे। बाकी हम दोनों हो जाएंगे गवाह। तो अगर आप चाहें तो हम रुखसाना भाभी जान का निकाह अभी नौशाद भाई से पढ़ा देते हैं और तीन घण्टे बाद ये उनको तलाक दे देंगे, उसके बाद आप उनसे दोबारा निकाह कर लेना। इस तरह आपकी शरीयत की बात भी रह जाएगी और आप साथ-साथ घर भी जा पाएंगे," चारों दोस्त मुस्कुराकर बोले।

"लेकिन इद्दत की मुद्दत?" शमशाद कुछ सोचते हुए बोला।

"देखिए मियां हमने कहीं पढ़ा था कि नेकी करने वालों और ईमान लाने वालों की सजा को साल से महीनों में महीनों से दिनों में और दिनों से घण्टों में तब्दील कर दिया जाएगा। तो मियां हम तीन महीने की इद्दत को तीन घण्टों में पूरा हुआ मान लेंगे और ऐसा करने के लिए हम सब उस परवरदिगार से मुआफ़ी भी मांग लेंगे।
और हमें पता है, मोहब्बत करने बालों को खुदा! हमेशा पसंद करता है।
तो इतनी हेराफेरी के लिए अल्लाह हमें जरूर मुआफ़ कर देगा", शकील मियां ने अपनी दलीलें देकर सबकी बोलती बंद कर दी।

जल्द ही रुखसाना ओर नौशाद का निकाह पढ़ाया गया और अगले तीन घण्टे रुखसाना नौशाद के साथ उसकी सीट पर बैठी, जहाँ उन्होंने कई बार प्यार से नौशाद का सर सहलाया।
अगले तीन घण्टे बाद फिर एक बार रुखसाना का तलाक हो गया लेकिन इस बार वह दुखी या उदास नहीं बल्कि खुश थी।

अगले तीन घण्टे बाद, सुबह सात बजे फिर से रुखसाना और शमशाद का निकाह पढ़ाया गया। उसके बाद अगले स्टेशन पर शमशाद ने सभी को चाय नास्ता कराया और अपने घर आने की दावत दी।


समाप्त