Monday, November 16, 2020

पगली

"

अरे!!ये पगली है,  देखो इसे!!,
पत्थर उठा कर मार दिया इसने बच्चों को। देखो-देखो कैसे दांत पीस रही है, लगता है जैसेे चबा ही जाएगी", कुछ लोग चिल्ला कर कह रहे थे।


और

मोहल्ले की कुछ औरते राजश्री की माँ के पास उसकी शिकायत ले कर आयीं, "सम्भालो अपनी लाडली को, आते-जाते बच्चों पर पत्थर फेंकती है। पकड़ ले तो काट लेती है।"


"

मेरे तो करम ही फूट गए, कितने अरमानों से बेटी व्याही थी। ऊँचा खानदान, खाता-पीता घर और अच्छी नौकरी बाला दामाद। लेकिन क्या करें जब इस अभागी के भाग्य में सुख लिखा ही नहीं था।


अरे छः महीने भी तो नहीं हुए थे व्याह को और उस खाते-पीते घर के पीने खाने वाले दामाद ने इसे मारना-पीटना शुरू कर दिया।


क्या कमी थी हमारे दान-दहेज में? आस-पास किसी ने सायकल तक नहीं दी होगी अपनी बेटी को और हमने,..हमने तो मोटरसाइकिल दी थी।


फिर भी मेरी फूल सी बेटी को ताना दिया जाता


कि

कंगाल बाप की बेटी लायी ही क्या है दहेज में... अरे सरकारी नोकरी करता है हमारा बेटा कितने अच्छे रिश्ते आये लेकिन ...

हम तो ये सब भी बर्दाश्त कर ही रहे थे कि चलो समय के साथ सब बदल जाएगा लेकिन उस दिन ज्यादा पीकर मोटरसाइकिल चलाते हुए दामाद ट्रक के नीचे...


हाये !!


बिल्कुल पत्थर हो गयी मेरी बेटी एक बूंद आंसू तक ना निकला इसकी पथराई आंखों से।

और वे लोग इसे फेंक गए यहां ये कहकर की ये मनहूस अपने पति को खा गयी और एक बूंद आँसू तक ना बहाया।

क्या करूँ बहन मेरी अभागी बेटी उस सदमे से टूट गयी और अपने होश खोकर पागल हो गयी।"


राजश्री की माँ सुचित्रा रोते हुए उसे पकड़ कर अंदर लायी और कमरे में बंद कर दिया।


राजश्री को आजकल कमरे में बंद करके रखा जाता है या फिर हाथ पांव बांधकर आंगन में चारपाई पर बांध दिया जाता है।


उसकी अवस्था दिन प्रतिदिन हिंसक होती जा रही है।


इधर एक दिन सोमनाथ बाबू को 'श्री' की इस हालत के बारे में पता लगा तो दुख से उनकी आंखें गीली हो गईं और कुछ पुरानी यादें उनकी आंसू से भरी धुंधली आंखों में स्पस्ट चित्रित होने लगीं।


सोमनाथ बाबू को याद आयी सत्रह बरस की तितली सी उड़ती अल्हड़ राजश्री जिसकी एक झलक उनके दिल में ऐसे गहरी उतरी की वे बस हर समय उस झलक को ही ढूंढने लगे।


बीस बरस के सोमनाथ बाबू कालेज में पढ़ रहे थे और राजश्री के पड़ोस में ही अपने किसी सम्बन्धी के घर पर रह रहे थे।


पुराना समय था लोग गली मोहल्ले में किसी के भी रिश्तेदार से बड़ी आत्मीयता से बात करते थे सभी लोग एक दूसरे से सम्बन्ध निभाते थे।


एक दिन श्री की माता जी सुचित्रा देवी ने सोमनाथ बाबू को ठेले से सब्जी लेते देखा और उनके पास जाकर उनके बारे में पूछने लगीं ।


कुछ ही देर की चर्चा के बाद सोमनाथ बाबू सुचित्रा देवी के कोई दूर के सम्बन्धी बन चुके थे सुचित्रा देवी ने उनसे कोई रिश्तेदारी निकाल ली थी ।


अभी ये लोग बात कर ही रहे थे तभी अल्हड़ तितली सी उछलती 'श्री' वहां आ गयी तब पहली बार सोमनाथ बाबू ने श्री को देखा था और वे बस एक तक उसे देखते ही राह गए थे।


श्री बिल्कुल किसी अप्सरा की मूर्ति जान पड़ती थी गोरा चिट्टा रंग लंबे सुनहरे लाल बाल गहरी काली आंखें वे सांचे में ढले नाक नक्श एक अद्भुत आकर्षण था श्री के रूप में।


अनायास ही सोमनाथ की आंखे श्री की आंखों से टकरा गयीं और श्री की आंखों ने भी उनका पूरे सम्मान से स्वागत किया।


दोनों की आंखे मानो जन्मों से बिछड़ी हो ऐसे एकाकार हो गईं दोनों की पलके झपकना भूल गयीं उनके दिल की धड़कने रेस के घोड़े की तरह सरपट दौड़ने लगीं ।


ना जाने क्यों, लेकिन यूँ आंखों का मिलना उन दोनों को ही बहुत सुखद अहसास दे गया।


उसके बाद जाने कितनी बार उन दोनों की आंखों ने ये एकाकार होने का सुख पाया किन्तु कभी एक शब्द की बात भी उनके बीच नहीं हुई थी। लेकिन आंखों के मिलन से ऐसे लगता था जैसे ये दोनों जन्म जन्मांतर के प्रेमी है जो न जाने कब से मिलन के लिए व्याकुल हैं।


उस दिन राजश्री सोमनाथ बाबू के कमरे पर आयी,"जल्दी चलिए आपको माँ ने बुलाया है आज आपका खाना हमारे घर पर है",श्री ने सोमनाथ को देखते ही उतावले पन से कहा।


"अच्छा आप चलिए हम अभी आते हैं", सोमनाथ बाबू ने धीरे से जबाब दिया।


"आते हैं नहीं, चलिए! अभी हमारे साथ", ये कहकर श्री ने सोमनाथ का हाथ पकड़ लिया।


सोमनाथ बाबू को जैसे बिजली का झटका लगा इस स्पर्श से, न जाने इस स्पर्श में ऐसा क्या था जो सोमनाथ बाबू को इतना सुखद लगा जैसे ये स्पर्श उनका चिरपरिचित है जैसे वे जन्मों से इस स्पर्श को जानते हैं।


इधर श्री को भी कुछ ऐसी ही अनुभूति हो रही थी रोज नज़रें मिलाने का बहाना ढूंढने बाली श्री आज शरमा कर नज़रे झुका रही थी। किन्तु हाथ छोड़ना जैसे अब उसके बस में ना था।


"क्या हुआ", सोमनाथ बाबू ने बहुत हिम्मत जुटा कर उससे पूछा।


"

क..क.क...कुछ !!",नहीं श्री ने सकुचा कर कहा और उनका हाथ होले से दबा दिया।


"अच्छा चलो आता हूँ ", सोमनाथ बाबू ने फिर प्यार से धीरे से कहा और श्री ने उनका हाथ छोड़ दिया।


हाथ छोड़ते ही श्री को लगा जैसे एक पल पहले वह पूर्ण थे और अब एक अधूरा पन उसके मन को उदास कर रहा है।


अब अक्सर ये होने लगा की श्री या कभी सोमनाथ जी भी बहाने से एक दूसरे के पास आते और आंखों से बातें करते या कभी हाथ स्पर्श हो जाते तो नज़रें शरमा कर खुदबखुद झुक जाती।


सोमनाथ बाबू पूछते ,"हमारा क्या सम्बन्ध है श्री जो आप आस-पास होती हो तब सबकुछ इतना अच्छा लगता है।"


"हमें क्या पता अपने हृदय से पूछो", श्री धीरे से कहती और दौड़ती हुई चली जाती।


"पगली" पीछे से सोमनाथ बाबू कहते और मुस्कुराने लगते।


"आज मेरी श्री सच में पगली हो गयी" सोमनाथ बाबू खुद में ही बुदबुदाने लगे ।


मुझे एक बार जाना चाहिए उसे देखने शायद उसके बैचैन मन को कुछ धैर्य बंध जाये।


"क्या मुझे जाना चाहिए?? " सोमनाथ बाबू ने खुद से सवाल किया।


"

अगर उसके घरवाले फिर से नाराज़ हो गए तो?"

सोमनाथ बाबू को याद आया की कैसे जब श्री के भाइयों को उनके प्रेम प्रसंग के विषय में जानकारी हुई थी तो वे गुस्से से आग बबूला हो गए थे।


हालांकि श्री की माताजी ने उन्हें समझाया भी था कि "लड़का पढ़ा लिखा है, अच्छे खानदान का है और बिरादरी के भी हैं; कर देते हैं दोनों की शादी।"


किन्तु श्री के दोनों भाइयों को ये कतई मंज़ूर नहीं था कि उनकी बहन प्रेम विवाह करे।


उस दिन शाम को दोनों भाई कंधे पर लाठी लिए आये थे इर सोमनाथ को धमका कर बोले थे,"खबरदार जो आगे से श्री के आसपास भी नज़र आये तो हाथ पांव तोड़ देंगे, तुम्हारी भलाई इसी में है की ये शहर हमेशा के लिए छोड़कर चले जाओ, ये भूल जाना की तुम कभी श्री से मिले थे।"


सोमनाथ बाबू करते भी तो क्या उनके रिश्तेदारों ने भी उन्हें अपने यहां रखने को मना कर दिया ।


सोमनाथ बाबू उदास परेशान अधूरे से गांव लौट आये एवं मन लगाने के लिए गांव में एक छोटा सा स्कूल खोल लिया।


उनके आने के दो महीने बाद ही उन्हें पता लगा कि श्री के भाइयों ने इसका विवाह तय कर दिया है।


उन्हें पता था कि वह लड़का शराबी है और श्री के लिए ठीक नहीं है उसने किसी परिचित से श्री की माता जी पर खबर भी भिजवाई, किन्तु श्री के भाई अपनी जिद पर अड़े रहे।


और श्री की शादी कर दी।


किन्तु सोमनाथ बाबू ने घरवालों के लाख समझाने पर भी शादी नहीं की, वे ज्यादातर समय स्कूल में ही रहते थे कभी-कभी तो खाना खाने भी नहीं आते और स्कूल में ही सो जाते।


सोमनाथ बाबू शहर से चले तो आये थे किंतु कुछ अधूरे से उनकी आत्मा जैसे राजश्री के पास ही राह गयी थी।


जीवन जीने की अभिलाषा उनमें शेष न थी बस किसी तरह यादों के सहारे समय व्यतीत कर रहे थे।


"हे ईश्वर मेरी पगली आज सचमुच की पगली हो गयी है


क्या अब भी मुझे नहीं जाना चाहिए??" सोमनाथ बाबू फिर खुद से सवाल करने लगे।


"जीवन की कोई अभिलाषा तो अब है नहीं, जीवन के डर से तो मैं तब भी नहीं लौटा था, मुझे तो तब चिंता थी 'श्री' के सम्मान की ओर उसके उज्जवल भविष्य की मुझे डर था कि आवेश में श्री के भाई कहीं श्री को नुकसान..! किन्तु अब परिस्थितियां भिन्न हैं अब श्री को कोई क्या नुकसान पहुंचाएगा उसकी तो चेतना ही लुप्त हो चुकी है; मुझे जाना ही होगा", सोमनाथ ने जैसे कोई निर्णय सा किया।


"किन्तु यदि उसने हमें नहीं पहचाना तब?" उनका मस्तिष्क तो सारी यादें भुला चुका है, वह तो अपनी मां, अपने भाइयों तक को नहीं पहचानती।" सोमनाथ जी के मस्तिष्क ने फिर से सवाल किया।


"जरूर पहचानेगी वह उस स्पर्श को, उन आंखों के मिलन को, इस दिल की धड़कनों को सुनकर अवश्य जागेगी मेरी श्री की सोई चेतना। हमारा सम्बन्ध तो आत्माओं का है, हम तो जन्मजन्मांतर के साथी हैं, ऐसे कब तक नियति हमें अलग करती रहेगी।


बस बहुत हुआ अब उन्हें मेरी आत्मा की आवाज सुननी ही होगी", उनके हृदय ने जैसे कोई निश्चय किया और वे उठ खड़े हुए।


सोमनाथ जी को आज पल-पल सदियों से लंबा लग रहा था वे उड़ कर श्री के पास पहुँचना चाहते थे। उनका दिल किसी अनहोनी की आशंका से बार-बार डर रहा था बैठ रहा था।


जैसे ही सोमनाथ बाबू ने राजश्री के घर में प्रवेश किया उन्हें एक झटका सा लगा; घर में बहुत भीड़ थी कुछ सफेद कोट धारी नर्स एवं अस्पताल के अन्य कर्मचारी भी थे।


यूँ तो उन्होंने घर के बाहर ही अस्पताल की गाड़ी भी देख ली थी,। उनकी धड़कने तो तभी बढ़ गईं थी, किन्तु अब उनकी धड़कने मानो बन्द होने लगीं थी ।


"कहीं मेरी श्री को कुछ", उनके मन की आवाज आई।


"क्या हुआ हटिए आप लोग", सोमनाथ जी ने जोर से कहा तो सारे लोग एक तरफ हट गए।


सामने का दृश्य देखकर सोमनाथ जी जम से गये उनके हृदय ने धड़कना लगभग बन्द ही कर दिया।


सामने राजश्री जंजीरों में जकड़ी खड़ी थी उसके हाथों, पांव एवं गले में भी जंजीरें डाली गयीं थी।


उसके बाल बिखरे हुए थे, उनमें धूल भरी हुई थी, श्री के कपड़े फटे हुए थे और उसके बदन पर असंख्य चोटों के निशान थे, कुछ निशान तो इतने गहरे थे कि उनमें से खून बह रहा था। राजश्री बार-बार अपने सर को झटके देते हुए दांत किटकिटा रही थी। उसकी आंखें पथराई हुई एक जगह जैसे जम सी गयीं थीं और उसकी पलकें मानों झपकना ही भूल चुकी थी।


सोमनाथ से राजश्री की ये हालत देखी नहीं गयी, उनकी आंखें आंसू बहाने लगीं; वे बिना किसी की परवाह किये राजश्री की और बढ़ने लगे।


"ऐ क्या करता है देखता नहीं ये पगली है, काट खाएगी उसके पास मत जा ऐ मेन", एक नर्स जोर से चीखी लेकिन सोमनाथजी पर जैसे उसकी चीख का कोई असर ही नही हुआ, या कहो कि उन्हें तो इस समय राजश्री के अलावा कोई नज़र ही नहीं आ रहा था।


"श्री,, !! ये क्या हाल बना लिया तुमने मेरे तनिक दूर जाते ही" सोमनाथ जी ने जोर से कहा।


आश्चर्य!! जो श्री किसी आवाज को नहीं सुनती थी वह इस आवाज पर पलट कर देखने लगी, उसकी आंखें सीधी होने लगीं।


सोमनाथ जी ने उसके बन्धन खोलने का इशारा किया, और उसकी आँखों में देखने लगे, राजश्री भी उनकी आँखों से नज़र मिलने लगी।


जब तक सोमनाथ जी श्री के पास पहुंचते उसके सारे बन्धन खोल दिए गए थे।


सोमनाथ जी ने बिना उसकी आँखों से आँखे हटाये उसका हाथ पकड़ लिया।


"क्या श्री हम तनिक छुपन छुपाई में क्या छिपे की तुमने तो खुद को ही भुला दिया", कहते हुए सोमनाथ जी ने राजश्री का हाथ दबा दिया।


लोगों ने देखा कि राजश्री की पथराई हुई आंखों की धुन्ध उसके आंसुओं के साथ बह रही है राजश्री रो रही है।


"क्या हुआ श्री? भूल गयी क्या हमें?", सोमनाथ जी ने धीरे से पूछा।


अबकी राजश्री की पलक हल्के से झपकी जिससे उसकी आँखों से आंसुओं की कुछ मोटी-मोटी बूंदे छलक पड़ीं।


"कहाँ चले गए थे आप??" श्री ने सुबकते हुए कहा और सोमनाथ के गले लग कर हिलकी भर कर रोने लगी।


"कहीं नही गया मैं श्री, मैं तो सदा तुम्हारे हृदय में था, लेकिन तुम ही पता नही क्यों हम सब से दूर जा रही थी, लेकिन अब नहीं। अब हम कभी अलग नहीं होंगे,आओ अपने घर चलें हमेशा के लिए।" सोमनाथ जी ने राजश्री का हाथ पकड़े पकड़े कहा।


"चलिए, और अब कभी मत छोड़कर जाना हमें , राजश्री की आंखे निरन्तर बरस रही थीं मानो उनमें जमी बरसों की बर्फ प्यार की गर्मी पाकर पिघल उठी हो।


दोनों हाथ पकड़े घर से बाहर निकलने लगे तब राजश्री की मां ने उसे अपनी चादर उढ़ा दी, आज राजश्री के दोनों भाई भी इन्हें जाते देख रहें है किन्तु उनकी आंखों में गुस्सा नहीं बल्कि पश्चताप एवं प्रसन्नता के आंसू हैं।


समाप्त


©नृपेंद्र शर्मा "सागर"



Friday, September 18, 2020

आजादी

15 अगस्त को 11 साल की शाइस्ता स्कूल से घर आयी उसके हाथ में लड्डू की थैली है, घर आते ही चहकते हुए अम्मी (कौसरजहां) से बोली "अम्मी अम्मी देखो हमें कितने लड्डू मिले ओहो अम्मी कहाँ हैं आप देखिए ना।"
"अरे मेरा बच्चा अम्मी के लिए भी लड्डू लाया", कहते हुए अम्मी ने शाइस्ता को गोद में उठा लिया।

"अच्छा अम्मी ये आज़ादी क्या होती है, स्कूल में मेम बता रही थीं कि आज के दिन हमें आज़ादी मिली थी इसी लिए आज के दिन हम खुशिया मनाते हैं मिठाइयां बांटते हैं।"शाइस्ता ने सवाल किया।।

"बेटा आज़ादी का मतलब होता है अपने मन मुताबिक जीने के लिए छूट होना।

बरसों पहले हमारा हिंदुस्तान अंग्रेजों का गुलाम था, तब हम लोग कोई काम भी अपनी मर्जी का नहीं कर पाते थे।
हमें हर काम में उनका हुक्म मानना होता था नहीं तो वे लोग जुल्म करते थे मारते थे जेल में बंद कर देते थे।
तब हमारे देश के नेताओ ने, युवाओं ने आंदोलन छेड़ दिया बहुत से लोग धरने पर बैठ गए , कुछ युवा उनके खिलाफ युद्ध करने लगे तब बहुत कोशिशों के बाद हमारा देश अंग्रेजों की जुल्म की हुकूमत से आज़ाद हुआ।"अम्मी ने शाइस्ता को समझाया।

"लेकिन अम्मी जब उस दिन अब्बू ने कहा था कि 'जाओ बेगम मैं तुम्हे अपने मुताल्लिक हर फ़र्ज़ से आज़ाद करता हूँ, मैं तुम्हे तलाक देता हूँ,' तब तो आप बहुत रोई थीं तब तो आपने कोई खुशी नहीं मनाई थी?", मासूम शाइस्ता कुछ सोचते हुए बोली।

कौसर जहाँ का चेहरा उदासी से फक्क पड़ गया उसकी आँखों की कोरें गीली हो गयी, अभी वह कुछ कह पाती तब तक शाइस्ता फिर बोलने लगी,"अम्मी अम्मी, क्या अंग्रेज भी हिंदुस्तान को तलाक देकर गए थे अम्मी जैसे अब्बू ने आप को आजाद कर दिया अंग्रेजो ने भी कहा होगा, जाओ हिंदुस्तान आज से तुम आजाद हो हम तुम्हे तलाक देते हैं।"

"चुप कर तू, कुछ भी अनाप शनाप बकती है", अम्मी दुख एवं गुस्से से बोली।

"क्यों अम्मी क्या हुआ, बताइये ना आप उस दिन इतना दुखी इतना उदास क्यों थी अपने दो दिन तक खाना भी नहीं खाया था बस आप लगातार रोती ही रही और हमसे भी ठीक से बात नहीं की, बोलो ना अम्मी क्या आज़ादी बुरी बात होती है अम्मी।
अम्मी अब्बू क्यों नहीं आते वे अब कहाँ चले गए", शाइस्ता मासूमियत से कहते कहते खुद भी उदास हो गई।।

"बेटा आज़ादी बुरी बात नहीं होती लेकिन तलाक अच्छी बात नहीं है तलाक का मतलब होता है सारे रिश्ते तोड़ कर अजनबी बन जाना।
तलाक का लफ्ज़ भी जुबान पर लाना नापाक है इसे तो अल्लाह ने भी बुरा ही कहा है।
अब आप ही सोचो अगर हम आपसे कहें कि आज से हम आपकी अम्मी नहीं रहे तो आपको कैसा लगेगा।"कौसर ने रोते हुए कहा।

नहीं!!!, ऐसा नही हो सकता अम्मी हम तो मर ही जायेंगे आप ऐसा सोचना भी मत।

लेकिन उस दिन आपके अब्बू ने यही किया था मेरे बच्चे उस दिन उन्होंने कहा था कि वे अब हमारे शौहर नहीं रहे अब से वे आपके अब्बू नहीं रहे ,उन्होंने हमें आज़ादी नहीं दी थी बल्कि वे खुद अपनी ज़िम्मेदारियों से आज़ाद हुए थे।
हम दोनों उन्हें बोझ लग रही थी तो उन्होंने इंसानियत का गला घोंट कर हमें इन्सान ना मानते हुए खुद को हमारी जिम्मेदारी से आज़ाद कर लिया था"। कौसर अब जोर जोर से रो रही थी।

"अम्मी अम्मी आप रोईए मत, हम हैं ना आपके साथ हम कभी आपसे दूर नहीं जाएंगे , शाइस्ता अम्मी के गले लग कर उनके आंसू पोंछने लगी।

शाइस्ता स्कूल से लौट रही थी, उसे किसी से पता लगा की उसके अब्बू एक दूकान पर काम करते हैं वह जान बूझ कर उस तरफ आ गयी, उसने दूर से देखा कि उसके अब्बू (शमशाद) एक गाड़ी को खोले उसके अंदर देख रहे हैं।
शाइस्ता एक दम उनके पास पहुंच कर लहरा कर गिरी ओर जोर से चीखी, आहह!! अम्मी,

उसकी चीख से शमशाद का ध्यान इधर गया और वह दौड़ कर उधर आया उसने शाइस्ता को गोद में उठा लिया और उसके कपड़े झाड़ने लगा।

अरे शाइस्ता आप, आप इधर कैसे बच्चे? शमशाद उसे देखकर हैरान होकर बोला।
आप हमें जानते है?? शाइस्ता बड़े भोले पन से बोली।
अरे हम आपके अब्बू हैं शाइस्ता केसी बात कर रही हो आप हम भला आपको क्यों नहीं जानेंगे आप हमारी अपनी बच्ची हो जान हो हमारी।

अच्छा!! जान हैं हम ??, फिर आप हमें तलाक देकर क्यों आ गए? शाइस्ता गुस्से से बिफरी।

"क्या कहा आपने? तलाक आपको? आपसे किसने कहा ये नामुराद लफ्ज? कहाँ से सीखा आपने? शमशाद एकदम गुस्सा हो गया।
"

"क्यों अब्बू आप ही ने तो उस दिन अम्मी से कहा था जब आप घर छोड़कर आये थे कि", जाओ कौसर मैं तुम्हे आज़ाद करता हूँ तलाक देता हूँ मैं तुम्हे और आप तब से घर बापस नहीं आये।"शाइस्ता कुछ याद करते हुए बोली।

"लेकिन वह तो मैं तुम्हारी अम्मी की रोज रोज की चिक चिक से तंग आकर उसे... "शमशाद धीरे से बोला।

"लेकिन अब्बू आप तो अम्मी को भी जान कहते थे ना और अम्मी आपको? अब अगर किसी की जान उसे तलाक दे दे, उसे छोड़ दे तो भला वह जिंदा कैसे रह सकता है?
और फिर आप अम्मी से नाराज़ थे! लेकिन मेरा क्या कसूर था? जो बिना खता मुझे मेरे ही अब्बू से तलाक मिल गया, मैं क्यों अब्बू की मोहब्बत उनके लाड़-प्यार और सरपरस्ती से महरूम हूँ, मेरी क्या गलती है??", शाइस्ता रोने लगी- "और बेचारी अम्मी!!, आपको पता है, अम्मी लगातार दो दिन तक दीवार में सर मारती रही और रोती रही उन्होंने खाना भी नहीं पकाया, मैं दो दिन घर में रखे बिस्कुट खाती रही और आपको याद करती रही कि अब्बू अभी आएंगे और हम फिर से मिठाइयां खाएंगे....
लेकिन अब्बू इतने दिन हो गए आप आये ही नहीं", शाइस्ता की आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे।

"मेरे बच्चे अब सब ठीक हो जाएगा, मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया है। आप घर जाओ और अपनी अम्मी का ख्याल रखना वे थोड़ी बुध्दू हैं", शमशाद ने शाइस्ता के माथे पर बोसा दिया और एक रिक्शा बुलाकर उसे घर का पता समझकर शाइस्ता को घर छोड़ने को कहा।
"और हाँ शाइस्ता अपनी अम्मी को मत बताना की आप हमसे मिले थे", शमशाद ने शाइस्ता को एक बार ओर गले लगाया और रिक्शा में बैठा दिया।

शाइस्ता आज बहुत खुश थी, कौसर ने कई बार पूछा किन्तु उसने कुछ नही बताया।
शाम को बेल बजी तो दरवाजा शाइस्ता ने खोला देखा सामने अब्बू .. तब तक कौसर भी आ गयी वह शमशाद को देखकर चौंक गई।

"अरे शाइस्ता ये लो मिठाइयां", शमशाद ने डिब्बा शाईस्ता को पकड़ाया- "और ये आप दोनों के लिए कुछ कपड़े.... मुझे माफ़ कर दो कौसर मैं गुस्से में भूल कर बैठा था। अब मुझे समझ आ गया है कि पति पत्नी की असली आज़ादी एक दूसरे का ख्याल रखने में है, एक दूसरे को समझने में है।
वो तो शुक्र है खुदा का जो उस दिन मेने बस एक ही तलाक बोला था बरना हमारी जिंदगी...", शमशाद की आवाज भर्रा रही थी।

"कुछ मत बोलिये आप, अब आप लौट आये हमे ओर कुछ नहीं चाहिए" कौसर ने शमशाद के होंटो पर हाथ रख दिया और शमशाद ने कौसर को गले लगा लिया।
"अरे भई हम भी आप दोनों की ही जान हैं", कहते हुए शाईस्ता बीच में घुस गई और दोनों हँसने लगे।

©नृपेंद्र शर्मा "सागर"

Sunday, August 23, 2020

एक हादसा

(एक कहानी यूँही)      
            #डर#

आधी रात बीत चुकी थी, देवेंद्र अपनी रेंजर से बहुत तेजी से पैडल मरते हुए घर लौट रहा था उसे आज अपनी प्रेमिका की बातों में समय का ध्यान ही नहीं रहा।
उसने पहले अपनी प्रेमिका को उसके घर छोड़ा और फिर अपने घर की ओर चल दिया।

आज की रात और दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही अँधेरी थी ऊपर से  हवा की तेरी सूखे पत्तों को सहलाकर हँसा रही थी जिनकी हँसी की 
खर्र..! खर्र.. चकककक चरर्त्तत...!! 
की कर्कश ध्वनि वातावरण में अलग ही भय उतपन्न कर रही थी।

माहौल इतना डरावना था कि गर्मी में भी देवेंद्र के जिस्म का हर रोंया खड़ा था जैसे किसी डर को देखकर शेर की गर्दन के बाल खड़े ही जाते हैं साही के कांटे खड़े हो जाते हैं।

अभी देवेंद्र काली नदी के पुल के बीच में ही पहुँचा था कि उसे सामने किसी के होने का अहसास हुआ उसे डर तो पहले से ही लग रहा था लेकिन अब तो उसकी साँसे राजधानी  की रफ्तार से चलने लगीं।
देवेंद्र ने अपनी रेंजर की गति को बढ़ाने में अपने फेफड़ों की पूरी ताकत लगा दी तभी वह साया उसे ठीक सामने खड़ा नज़र आया, उसके हाथ ब्रेक लीवर पर केस गए, रेंजर चिर्रर.... र्रर!! की आवाज करती हुई उस साये से एक फुट की दूरी पर रुक गयी।

देवेंद्र समने खड़े अजनबी को देखने लगा उसकी बड़ी बड़ी आंखे थी सर पर टोपी पहने हुए था।
लेकिन उसके चेहरे का कोई भी हिस्सा नज़र नहीं आ रहा था वहां बिल्कुल स्याह अँधेरा था।
देवेंद्र उसे देखकर बहुत डर गया उसके मुंह से अचानक तेज चीख निकली, 
भ...उ...त...!

तभी उस साये ने कहा, कहाँ घूम रहे हो इतनी रात को? तुम्हे पता नही देश मे कोरोना के चलते इमरजेंसी के हालात हैं , पूरे देश में कर्फ्यू लगा हुआ है और तुम सायकल पर आधी रात को हवा खोरी कर रहे हो इस बार तो चेतावनी देकर छोड़ रहा हूँ।अगली बार दिखे तो 144 में अंदर कर दूंगा।

तब देवेंद्र ने ठीक से देखा वह साया एक काला मास्क पहने हुए पुलिस वाला था।

देवेंद्र भाई चुपचाप लौट आये क्योंकि वह जानते हैं कि भूतों को तो फिर भी समझाया जा सकता है किंतु पुलिस......😢😢😢
नृपेंद्र शर्मा "सागर"

Wednesday, August 19, 2020

शहीद

#लघुकथा
शीर्षक:-शहीद

"ये जवान जो बॉर्डर पर लड़ते हुए शहीद हुआ है, ये हमारे गाँव का गौरव है। हम इसके नाम पर गाँव के विकास के लिए योजनाएं लाएँगे।" एक नेता जी ने तिरंगे में लिपटे फौजी के शव की ओर इशारा करके कहा।

"ये  फौजी हमारी कौम का था, हमारी कौम का नाम रौशन किया है इसने। हम इसके नाम से बड़ा स्मारक बनवाएंगे।" तभी दूसरे नेताजी खड़े होकर बोले।

"अरे मंत्री जी आ गए...", तभी एक शोर उठा।

"ये जवान जो पड़ोसी मुल्क से की जा रही गोलाबारी का सामना बहादुरी से करते हुए शहीद हुआ है, ये हमारे क्षेत्र का है। जिसने हमारे क्षेत्र का मान बढ़ाया है।
मैं सरकार में मन्त्री होने के नाते ये घोषणा करता हूँ इनके घर की तरफ आने वाली सड़क को चौड़ा करके मुख्य मार्ग से जोड़ा जाएगा और इस रोड का नाम इस शहीद के नाम पर होगा।
और जैसा कि हमारे साथी विपक्षी नेता जी ने अभी कहा था तो मैं इनके घर को स्मारक बनाने के लिए फंड दिलाने का आश्वासन देता हूँ।" 

नेता जी की जय, मंत्रीजी जिंदाबाद के नारों के बीच बेटे के कफ़न-दफन का इंतज़ाम करता उसका बाप अब मन ही मन अपने रहने के इंतज़ार के बारे में भी सोच रहा था।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

Wednesday, July 15, 2020

पिया मिलन

#पिया मिलन

सावन की झम झम झड़ी लगी, मैं पिया मिलन को जाय रही।
बैरन बिजुरी तड़ तड़ तड़ कर, पग पग पर मोहे डराय रही।
मोहे लगी लगन पिया साँवरे की, मैं पिया से प्रीत निभाय रही।
कोई और नहीं सुध रही मुझे, निज तन मन सभी भुलाये रही।
सावन मनभावन मास सखी, मुझे पिय की याद सताय रही।
बाहर की बिजली की क्या कहूँ, मेरे भीतर तड़ित समाय रही।
कोई बाधा राह ना रोक सके, मैं अविनाशी की बाँह गही।
मेरे प्रीतम जग के स्वामी हैं, मैं अंश जीव कहलाये रही।
ये जन्म मरण सब मिथ्या है, मैं मोक्ष परम पद पाय रही।
मुझे लोक लाज की कहाँ पड़ी, मैं तो निज धाम को जाय रही।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

Tuesday, July 14, 2020

#स्वप्न्न

स्वप्न्न:-

आज चौधरी हरपाल सिंह की हवेली पर बहुत रौनक हो रही है।
हो भी कियूं न ,उनका बेटा' चेतन 'आज डॉक्टरी पास कर के गांव लौट कर आ रहा है।
उन्होंने पूरे गांव के जलपान की व्यवस्था कर रखी है, और मन मे एक विचार भी रखा है कि, किस शान से वह अपने चेतन को गांव बालो से मिलायेगे ।
"मिलिए मेरे बेटे डाक्टर चेतन चौधरी से जो अपने गांव वालों की सेवा खातिर डॉक्टर बन कर आया है , अब कोई लाइलाज न मरेगा गांव में।"
उन्होंने तो अपनी एक एकड़ जमीन जो राजमार्ग से बस 500 मीटर अंदर है ,उस पर अस्पताल निर्माण की योजना भी बना रखी है।
क्या शान होगी गांव की जब दूर दूर से लोग उनके गांव आएंगे इलाज़ के लिए ।
बड़े शहर की सारी सुबिधा रखाएँगे हम अपने अस्पताल में, और गांव बालों से बस दवाई का मूल्य लिया जाएगा।
बाहर के लोगों के आवाजाही से गांव के कई लोगन को रोजगार भी तो मिलेगा।

अभी हरपाल सिंह अपने मधुर दिवास्वप्न में खोये थे कि किसी ने उनको झिंझोड़ा अरे चौधरी साब ,"भैया आ गए" आएं स्वागत करें।
एक हर्ष मिश्रित शोरगुल उठा डाक्टर साब आ गए डाक्टर साब आ गए।
आ गया बेटा ,,,देख सारा गांव तेरे स्वागत को आया है।
ओ डैड ये क्या जाहिलों की भीड़ इकट्ठा कर रखी है आपने ।
कितने डर्टी-डर्टी लोग है जर्म्स से भरे।
उफ्फ !!!मुझे तो घुटन होती है।
चेतन ने कहा और हवेली में अंदर चला गया उसने किसी को सम्मान या अभिवादन तक भी न किया।
चौधरी साब भी उसके पीछे पीछे अंदर आये।ये क्या व्यभार है ,चेतन !!??
गांव के सारे मौजूद बुजुर्ग और गणमान्य लोग तुम्हें आशीर्वाद देने आए थे ओर तुमने किसी को राम राम तक भी न की।
ओह्ह!! डैडी क्या है ये सब ,मुझे अभी निकलना है आज रात 10 बजे मेरी फ़्लाइट है अमेरिका की।
बाहर गाड़ी में आपकी बहु मेरा इंतज़ार कर रही है ,
मैं तो आपको कहने आया था कि आप भी यहां का सारा कारोबार समेट लो मैं अगले महीने आऊंगा और आपको भी हमेशा के लिए अपने साथ ले जाऊँगा।

बहु!!!!!!!!@!! अमेरिका!!!????
हरपाल सिंह पर तो जैसे वज्रपात ही हो गया हाथ पांव सुन्न हो गए।
कितने अरमान से उन्होंने अपने एकलौते बेटे चेतन को पाला था ।अकेले मां और बाप दोनो बन कर।
उनकी पत्नी सरिता देवी की 16 साल पहले डेंगू से मौत हो गई थी , तब से बस यही एक सपना एक उम्मीद पल रही थी उनके मन मे कि," उनका चेतन डाक्टर बनेगा और किसी गांव बाले को लाइलाज नही मरने देगा"।
लेकिन ये क्या ,,,,, चेतन डाक्टर तो बन गया लेकिन हरपाल सिंह का सपना,,,,,, !!!
और बहु,,,!!
,यानी तुमने बिना पूछे शादी भी कर ली ??
कौन है लड़की? किस खानदान की है,?, क्या कुछ भी मायने नही रखता तुम्हारे लिए,,,??
क्लासमेट है डैड ,और हमने शादी नही की बस हम 2 साल से साथ रहते हैं लिवइन में।
और आजकल शादी का झंझट कोन करता है डैडी।
अच्छा छोड़ो आप नहीं समझोगे ये सब ,मैं और रश्मि एक साथ डॉक्टरी पढ़े हैं ।
और और दो साल से लिवइन रिलेशन में हैं सोच था आपको बता दूं ,लेकिन रश्मि ने कहा कि पढ़ाई पूरी होने पर बताएंगे।

हमे अमेरिका में जॉब और हायर स्टडी दोनो का आफर है आज ही निकलना है ।
आपको बताने आये है कि अब हम वहीं अमेरिका में सैटल हो जाएंगे ,आपभी इधर का जमीन जायदाद बेचकर अगले महीने हमारे साथ ही आकर रहो।
अच्छा डैड अब चलते हैं अभी रश्मि के घर भी जाना है।

तो क्या बहु !गाड़ी से भी नही उतरेगी??
अरे डैड उसे गांव के पॉल्युशन से एलर्जी है इसलिए गाड़ी में ही (ऐ सी )चला कर बैठी है ,अच्छा अब निकलता हूँ बहुत लेट हो गया।
कहकर चेतन ने अपना सामान उठा लिया,,,,,।
बेटा!!!!!
हरपाल सिंग ने दबी आवाज से पुकारा ।
"जी डैड कहो।"
क्या "तुम और बहु "यहीं रहकर एक अस्पताल नही खोल सकते ??मेरे सपनों का अस्पताल ।
मे तुम्हारी शादी भी स्वीकृत कर लूंगा, लड़की की जाती कुल खानदान भी नही पूछूंगा , बस तुम मुझे छोड़कर मत जाओ। ये देखो घर का आंगन जो तुम्हारी माँ ने अपने हाथों से लीपा था ,मैने आज तक उसे बैसा ही रखा है। बहुत गहरी यादें जुड़ी हैं मेरी इस मिट्टी से । मुझसे अलग ना हुआ जाएगा उन यादों से। मैं तेरे हाथ जोड़कर भीख मांगता हूं तू यहीं रह कर अस्पताल खोल ले। मैं अपना सब बेच कर शहर से ज्यादा सुबिधायें तुझे यहीं उपलब्ध करा दूँगा मेरे बेटे।

ओह डैड !!
आप तो बेकार में सेंटी हो रहे हो, मैं लेट हो रहा हूँ आप आराम से सोचना पूरा एक मंथ है आपके पास ,बता देना मुझे सोच समझ कर ।
अच्छा चलता हूँ बाय।
कह कर चेतन झटके से निकल गया।
हरपाल सिंह एकदम सुन्न पड़ गए ,जैसे उन्हें लकवा मार गया हो।
बाहर गाड़ी स्टार्ट होने की आवाज आई , गांव बालों को कुछ समझ नहीं आया कि क्या हुआ डाक्टर बाबू यूं अचानक आये और अचानक चले गए। अंदर जाकर देखा तो हरपाल सिंह जमीन पर उनकी पत्नी के हाथ से लीपे आंगन के कोने में जमीन पर बैठे है एकदम जड़, उनकी आंखों से अश्रु धारा अनवरत वह रही है ।
गांव बाले सन्न रह गए।
करीब तीन दिन बाद चौधरी साब कुछ संयमित हुए और उन्होंने एक वकील बुलाया। और बोले, वकील बाबू मैं अपनी सारी जायदाद से चेतन को बेदखल करके अपनी सारी चल अचल पूंजी से एक ट्रस्ट बनाना चाहता हूं , जिसमे एक अस्पताल और एक धर्मशाला हो ,जहां सस्ते में लोगों को इलाज़ की सारी सुबिधायें मिलें बहुत कम खर्चे पर।
उसका नाम हो ,सरितादेवी आयुष ट्रस्ट।
वकील ने वसीयत तैयार कराई और अस्पताल का काम सुरु हो गया ।
इस बीच चैधरी साब ने चेतन से कोई बात नही की, आज महीने का आखिरी दिन है ,चेतन आज उन्हें लेने आने वाला है।
चैधरी साब अभी अस्पताल के दफ्तर कक्ष का उदघाटन करके लौटे हैं । जहां उनकी पत्नी और उनकी मूर्तियां बनी हैं। उनकी ही इच्छा थी कि ये काम एक महीने में हो जाये। और अब उनके मुख पर उदासी मिश्रित गर्व है।
चौधरी साब पत्नी के लीपे आंगन में आकर बैठ गए ,जैसे कोई मुसाफिर मंज़िल पाने पर थक कर प्रसन्नता से बैठ जाता है।
उनके मुख पर प्रसन्नता और गर्व है।
चेतन आ गया , ,,,
डैड चलो मैं आपको लेने आया हूँ , अब आप हमारे साथ ही रहेंगे।
लेकिन उधर से कोई प्रतिक्रिया न पाकर उसने चैधरी साब के कन्धे पर हाथ रखा ,,,, लेकिन ये क्या मुख पर विजय मुस्कान लिए उनकी निष्प्राण देह इनकी पत्नी की याद से लिपट गई। और उनकी निस्वार्थ आत्मा अपना स्वप्न्न पूरा करके अपनी आत्मा अपनी प्राण प्रिया के पास चिरलोक में चली गई। रह गए तो उदास गांव वाले, और पछतावे के भाव लिए निष्ठुर चेतन।
एक ऐंसा पछतावा लिए जो ताउम्र उसके मन पर बोझ रहेगा।
"नृपेंद्र"

Thursday, June 25, 2020

काँटा

एक लघुकथा

काँटा

एक चूहा बड़ा सा काँटा लिए दौड़ा चला जा रहा था। रास्ते में मेंढक ने पूछा कि, "अरे मूषक भाई ये काँटा लिए कहाँ दौड़ लगा रहे हो?"

"अरे भाई! साँप को काँटा चुभा है, तो मेरे पास आया था मदद माँगने। बस वही निकालने के लिए ले जा रहा हूँ", चूहे ने चलते-चलते जवाब दिया।

"लेकिन काँटा तो तुम अपने तेज़ दाँतो या नुकीले नाखूनों से भी निकाल सकते हो?" मेंढक ने सवाल किया।

"बिल्कुल निकाल सकता हूँ मित्र, लेकिन फिर उसे याद कैसे रहेगा", चूहे ने मुस्कुराकर कहा और दौड़ लगा दी।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
9045548008

Friday, June 19, 2020

#कहानी/ प्रेम और बदला

भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा के पास माठ तहसील है, जहाँ पर राधा रानी का मंदिर है। 
वहीं की एक सच्ची घटना है ये , बात साल 2012 या 13 की है, मंदिर के चबूतरे पर कुछ बंदर बैठे थे, उनके 3,4 छोटे- छोटे बच्चे वहीं खेलने में मगन थे। 
तभी कहीं से एक नाग निकल आया और बंदर के एक बच्चे को डस लिया।
सारे बन्दर क्रुद्ध क्रंदन करने लगे ,और नाग वहीं एक बिल में घुस कर छिप गया। 
बंदरों ने अपनी भाषा मे न जाने क्या संदेश प्रसारित किया कि ,देखते ही देखते सैकड़ों बंदर वहाँ इकट्ठा हो गए। कुछ बन्दरों ने उस बच्चे को चबुतरे पर लिटाया ओर नीम की टहनियां तोड़ तोड़ कर लाने लगे। 
कुछ बंदर, नाग की सरणस्थली की ओर लपके। 
बंदरों की फौज देखकर आते -जाते राहगीर, अपनी गाड़ी रोक कर तमाशा देखने लगे।
देखते ही देखते हजारों लोगों का हुजूम उक्त द्रश्य देखने के लिए एकत्र हो गया। 
बंदर इस सब से बेपरवाह अपने काम मे मगन थे। कुछ बंदर नीम की डाली से बच्चे का जहर उतार रहे थे, वे उसके सर से पाव की ओर टहनी घुमाते और कुछ बुदबुदाते, फिर टहनी बदल कर उक्त क्रिया दोहराते।
कुछ बंदर नाग का बिल अपने नाखूनों से खोदने लगे ,और दो तीन बंदर बिल पर घात लगाए बैठ गए, एकदम मुस्तेद चौकन्ने अपने लक्ष्य पर सम्पूर्ण ध्यान्द्रष्टि।
तभी कुछ बंदर नल से अपनी हथेलियों में पानी भरकर लाने लगे ओर बिल में भरने लगे। ये देख कर एक दर्शक ने बोतल में पानी भरकर छोड़ दिया ओर दूर हट गया। 
बंदर ने झट से बोतल उठाई ओर बिल में उड़ेलने लगा।

एक बोतल दो बोतल तीन बोतल ,,,,
नाग ने जैसे ही बिल से सर निकाला कि एक बंदर ने जो कि घात लगाए बैठा था झट से उसे दबोच लिया, और लगा बिल से बाहर खींचने।
नाग ने बहुत शक्ति प्रयास किया किन्तु बंदर ने उसे बिल से बाहर खींच कर धरती पर पटक ही लिया। किन्तु उसका मुंह बंदर ने अपनी मज़बूत पकड़ में दबाए रखा।
नाग को बाहर आया देख सारे बंदर क्रोध में चीखने लगे जैसे कह रहे हों पटको इसको मार डालो छोड़ना मत।।। 
और उधर बच्चे का इलाज चालू , इधर लगे बंदरों को जैसे उधर से कोई मतलब नही। या कहो कि पूर्ण विस्वास कि, ये अपना काम पूर्ण कर ही लेंगे।
नाग को पकड़े बंदर ने इसे जमीन में रगड़ना शुरु किया और तीन चार बार रगड़ कर उसे देख कर सूंघा और खीं ख ख खी खीं,,, की आवाज निकलने लगा। जैसे कह रहा हो कि अब भुगतो सजा अपने कृत्य की।
और बाकी के बंदर भी क्रोध में खिखिखिखिकरें कर के उस बंदर का उत्साहबर्धन करने लगे।

काफी देर ये द्रश्य चलता रहा,,, बंदर ने सांप को रगड़ रगड़ कर मार डाला। उधर सांप ने आखिरी सांस ली, इधर वह बच्चा उछल कर अपनी मां से लिपट गया। 
बंदर सांप की मृत देह को घसीटकर हर्ष ध्वनि के साथ अपना विजय उत्सब मनाने लगे। और दर्शक आश्चर्य व्यक्त करते हुए अपने अपने गंतव्य स्थलों की ओर जाने लगे।

©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

#प्रेम/ भ्रम

नवीन ने गांव से दूर शहर के कालेज में एडमिशन लिया और एक परिचित के प्रयास से उसे पेइंग गेस्ट के रूप में रहने की जगह भी मिल गयी।
जब क्योंकि खाने बनाने की झंझट नहीं थी तो उसने समय का सदुपयोग करते हुए दो तीन ट्यूशन भी पढ़ाने शुरू कर दिए जिससे उसका जेब खर्च निकलने लगा।
यूँ तो नवीन शुरू से ही बहुत शर्मीला था लेकिन नई जगह आकर वह और भी झिझकने लगा वह किसी से भी ज्यादा बात नही करता औऱ लड़कियों से तो ऐसे शर्माता जैसे उसे खा जाएंगी।
नवीन पढ़ाई में बहुत तेज़ था अतः कॉलेज में जल्दी ही उसके बहुत से दोस्त बन गए, यूँ तो कई लड़कियां भी उससे मित्रता करना चाहती थी लेकिन यसज रूखा व्यवहार और शर्मीलापन हमेशा उसे लड़कियों से दूर ही रखता।
नवीन ज्यादातर समय पढ़ने और पढ़ाने में ही लगाता था अतः वह ज्यादा लोगों से घुल मिल ही नही पाता था।
उसके मकान मालिक बुजुर्ग दम्पत्ति थे उनके बच्चे दूर शहरों में सेटल थे इसी लिए अपना अकेला पन दूर करने के लिए उन्हीने नवीन को रखा था।
नवीन भी उनकी हर जरूरत का पूरा ध्यान रखता था कुछ ही दिनों में नवीन उनका चहेता बन गया।
दिन भर कॉलेज उसके बाद टयूशन की थकान के बाद शाम को दो घण्टे छत पर खुली हवा में बैठना पढ़ना नवीन की नियमित दिनचर्या का हिस्सा बन गया था।
एक दिन उसने सुना की पड़ोस में कोई नए किरायेदार आये हैं, ये कोई नई बात नहीं थी क्योंकि शहर में तो अक्सर किरायेदार आते जाते रहते हैं तो उसने ज्यादा ध्यान नहीं दिया यूँ भी वह किसी से ज्यादा मतलब भी नही रखता था।
उस दिन भी नवीन रोज की तरह छत पर बैठ कर चाय पीते हुए अपनी किताब में खोया हुआ था, अचानक उसकी नज़र सामने की छत पर पड़ी जहां एक लड़की बैठी कुछ पढ़ रही थी।
अचानक उसने चेहरा उठाया और अनायास ही उसकी नज़रे नवीन की नज़रों से मिली, नवीन तो बस उसे देखता ही रह गया, उसका गोरा रंग ऐसा मानो दूध में ऊषाकाल के सूर्य की छाया पड़ रही हो उसकी बड़ी बड़ी काली आंखे, पतले गुलाबी होंठ ओर सुंदर गोल नाक।
उसकी लम्बी पत्नी गर्दन और काले घने लंबे बाल कुछ यूं बिखरे थे जैसे घने बादल चाँद को अपने आगोश में लेने की कोशिश कर रहे हों या कहो कि उसके रूप को छिपाने का प्रयास कर रहे हों।
उसकी सुंदरता देखकर नवीन सुधबुध भूल का एकटक उसे देखता रह गया, उसे लगा मानो स्वर्ग से साक्षात अप्सरा ही उतर आई हो।
यूँ तो नवीन कभी किसी लड़की से ठीक से बात नहीं करता था लेकिन इस अप्सरा ने उसकी वह साधना भंग कर दी थी,यूँ तो कितनी ही लड़कियां नवीन से बात करना उस से दोस्ती करना चाहती थीं किन्तु नवीन तो अब....

नवीन अब रोज शाम होते ही छत पर जाकर बैठ जाता, किताब के पीछे से उसकी नजरें किसी को खोजती रहती, अब वह उस से बात करने को बैचेन होने लगा था।
दोनों घरों के बीच में बस एक पतली गली ही तो थी दोनों छतें आमने सामने थीं अब कई बार दोनों छत के एकदम कोने पर आ जाते और अमन सामने आकर नज़रे मिलाकर शरमाकर नज़रे झुका लेते दोनों ही एक जैसे हाल में थे।
उस दिन जब वह एकदम सामने आई तो नवीन ने हिम्मत करके बोल ही दिया ,"हेल्लो माय सेल्फ 'नवीन' एंड उअर स्वीट नेम?"
'सीमा' एक छोटा सा जबाब मिला इर साथ में ढेर सारी हंसी की खनक। वह हंसी हुई भाग गई थी और रह गया था जड़वत मूर्ति बना नवीन, नीचे से आई मांजी की आवाज से वह अपनी चेतना में लौटा ओर नीचे दौड़ गया।

"सीमा"!! हिहिहि
रात भर उसके कानों में यह खनक गूंजती रही, सारी रात वह उसी के विषय में सोचता रहा, और उसी के सपनो में खोया सो गया।

अगले दिन वह बहुत खोया खोया से था, "ये क्या हो रहा है मुझे" वह अपने आप से पूछ रहा था।
"कहीं मुझे प्यार"?? फिर खुद ही मुस्कुरा उठता ओर शरमाकर नज़रे चुराने लगता।
आज वह शाम को बहुत जल्दी छत पर आ गया उसकी नज़रे बड़ी शिद्दत से सामने की छत पर कुछ ढूंढ रही थीं।
घण्टों हो गए लेकिन उधर कोई आहट तक ना हुई,  अब नवीन बहुत परेशान हो गया आज वह पूरा मन बनाकर आया था कि आज वह उस से अपने मन की बात कहेगा।
किन्तु आज तो वह आयी ही नहीं, नवीन का दिल बैठा जा रहा था वह सोच रहा था कि क्या वह भी उसे प्यार...
या ये सिर्फ उसका एक भ्रम है?
नवीन इंतज़ार करके थक गया था, वह उसे प्यार नही करती यह सच मे उसका भ्रम ही था उसने सोचा और नीचे जाने के लिए मुड़ा।
अभी वह दो कदम ही चला था कि पीछे से आवाज आई,
"रुको, न वी न,,"
मुझे आपसे कुछ कहना है।
नवीन को तो जैसे कोई खज़ाना ही मिल गया,वह तेज़ी से मुड़ा," सीमा", वह दौड़ता हुआ उसके पास आया।
कब से इंतज़ार कर रहा था कितनी देर कर दी आज अपने सीमा सब ठीक तो है, नवीन ने पूछा।

सब ठीक है नवीन मैं पढ़ाई कर रही थी और मैथ्स में ऐसी उलझी की समय का ध्यान ही नही दिया फिर भी मुझे बहुत कम समझ आया, अच्छा क्या आप मुझे घर आकर मेथ्स पढ़ा सकते हो ? सीमा ने मुस्कुराकर पूछा।
हाँ जरूर लेकिन तुम्हारे पैरेंट्स?? नवीन सकुचाया अच्छा मैं उनसे बात करके कल बताती हूँ सीमा मुस्कुरादी और चली गयी।
आज फिर नवीन को नींद नही आई वह कल सीमा क्या जबाब देगी इसी विषय पर खुद के बनाये सवालों के जबाब रात भर खुद को देता रहा।
अगले दिन सीमा ने उसे खुशखबरी सुनाई की वह कल से उसके घर आकर उसकी मेथ्स समझने में हेल्प करेगा इसके लिए सीमा के परेंट्स मान गए।
अगला दिन नवीन का बहुत बेचैनी में निकला, यार ये शाम क्यों नही हो रही आज, वह खुद से कई बार पूछ चुका था।
शाम होते ही वह सीमा के घर पहुंच गया वहां उसने शिष्टाचार में उसकी माँ के पांव छुए, सीमा के पिताजी शाम को देर से ही आते थे तो.. 

अच्छा तुम दोनों पढ़ाई करो मैं चाय बनाती हूँ कहकर सीमा की माताजी रसोई में चली गयीं।
इससे पहले की नवीन कुछ कहे सीमा ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसकी आँखों में देखकर मुस्कुराने लगी।
"क्या सच" नवीन ने खुश होकर पूछा बदले में सीमा ने मुस्कुराकर उसका हाथ दबाया और पलके झुका लीं।

अच्छा मैं किताबे लाती हूँ सीमा ने धीरे से कहा और हाथ छुड़ाकर तेज़ी से हंसती हुई चली गई।

उसके बाद शुरू हो गया रोज का सिलसिला,"कल कब मिलेंगे, आज इतनी देर कहाँ लगा दी,  कल आप आये नही सब ठीक तो है मेरा तो मन ही नही लग रहा था,
कल थोड़ा जल्दी आना, आपके बिना दिल नही लगता,,, आदि आदि का सिलसिला।
अब नवीन बहुत खुश था उसे बिन मांगे संसार की सारी दौलत मिल गयी थी, इसी तरह तेज़ी से गुजरते समय के साथ उनके इस प्यार को तीन साल हो गए जिसमे आंखों से बातें करने हाथ पकड़ने ओर मुस्कुराने से आगे कभी कुछ नही हुआ, लेकिन दोनों ही को लगता था कि वे एक दूसरे में बिना अधूरे हैं।
नवीन का कॉलेज खत्म होते ही उसे एक कम्पनी में जॉब मिल गयी, और अब उसपर घरवालों की ओर से शादी करने के लिए दबाव भी पड़ने लगा।
किन्तु वह हमेशा कोई न कोई बहाना बनाकर उन्हें टालने लगा लेकिन कब तक??
अब उसे लगने लगा कि वह ज्यादा दिन परिवार वालो को रोक नही पायेगा अतः उसने सीमा से शादी के लिए बात करने का निर्णय किया।

आज नवीन बहुत खुश था क्योंकि वह सीमा से शादी के लिए बात करने जाने वाला था, उसे पूरा भरोसा था की सीमा उसे ना नहीं करेगी उसे अपने प्यार पर विश्वास था।
यूँ तो कई बात बातों बातों में सीमा ने भी शादी के लिए इशारा किया था लेकिन तब वह तैयार नही था किंतु आज उसके पास जॉब है वह शादी की जिम्मेदारी के लिए तैयार है अतः अब वह सीमा से बात कर सकता है, उसे यकीन था कि सीमा के पेरेंट्स उनकी शादी के लिए मान जाएंगे।
आज नवीन अच्छे से तैयार हुआ और पहुंच गया सीमा के घर, उसने बेल बजायी दरवाज़ा सीमा ने ही खोला और उसे देखकर बिना मुस्कुराए बोली, "अरे नवीन तुम, आओ अंदर आओ"। 
आज न जाने क्यों नवीन को सीमा कुछ बदली हुई लगी, वह और दिनों की तरफ नवीन को देखकर न तो मुस्कुराई और ना ही उसकी आँखों में चमक दिखी।
नवीन अंदर आकर बैठ गया उसे घर में कोई भी नज़र नही आया।
"कहो नवीन कैसे आना हुआ?" सीमा ने पूछा।
"तुम्हारे परेंट्स कहाँ हैं सीमा?" नवीन ने पूछा।

"क्यों, कुछ खास काम" सीमा ने उल्टा सवाल किया।
"आज मैं उनसे हम दोनों के लिए बात करने आया था सीमा" नवीन ने मुस्कुराकर जबाब दिया।
"क्या बात?" फिर वही रूखा से सवाल सीमा के मुँह से निकला।
"सीमा मैने शादी करने का फैसला कर लिया है", नवीन चहककर बोला।
"किसके साथ?" सिमा ने सपाट स्वर में पूछा।

"तुम्हारे साथ भई ओर कौंन, आज मैं तुम्हारे मम्मी पापा से इस विषय में बात करने आया हूँ", नवीन उसकी आँखों में देखकर मुस्कुराया।
ये बात सुनकर भी सीमा के चेहरे पर कोई खुशी नहीं आयी।

"क्या बात है सीमा तुम खुश नहीं हो?" नवीन अब परेशान हो गया था उसका दिल अब अनजाने भय से डर रहा था।
"कुछ नहीं" सीमा ने वही रूखा सा जबाब दिया।
" क्या बात है सीमा तुम कुछ अपसेट लग रही हो, सब ठीक तो है?" नवीन ने उदास होकर पूछा।

"नवीन हमारी शादी नहीं हो सकती", सीमा के इस एक वाक्य ने नवीन का दिल उसकी उम्मीदे सब चकनाचूर कर दिए।
उसके चाहते पर गहरी उदासी और आँखों में बेचैनी झलक रही थी।

"क्यों!!, क्या हुआ?" बड़ी मुश्किल से उसके मुंह से ये शब्द निकले।
"क्योंकि मैं नही चाहती", सीमा ने बहुत रूखे पन से जबाब दिया।

"और वे सब बातें वो प्यार के वादे वह सब क्या था?" नवीन धीरे से बोला।

"'भ्रम", हां भ्रम था वो हमारा नवीन वह प्यार नही था केवल एक कच्ची उम्र का आकर्षण था वह केवल एक अहसास था जो हमें एक दूसरे के साथ अच्छा लगता था जिसमें हम अपना बचपन शेयर करते थे लड़ते झगड़ते थे लेकिन प्यार, बोलो प्यार जैसा हमारे बीच कब हुआ नवीन हम केवल अच्छे दोस्त थे बस और हमेशा रहेंगे, मेरे जीवन में तुम्हारी वह जगह कोई नहीं ले सकता लेकिन शादी, नहीं नवीन मुझे तुममे अपना जीवनसाथी नही दिखता बस हम दोस्त ही हो सकते हैं", सीमा एक सांस में सब कह गयी।
" लेकिन मैं तुम्हे सच्चा प्यार करता हूँ सीमा", नवीन ने कुछ कहना चाहा।

"नहीं नवीन मुझे भूल जाओ", सीमा ने बेरुखी से कहा और अंदर चली गयी।
नवीन जैसे जड़ हो गया उसमे अब उठने की ताकत ही नही बची थी।
उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था की सीमा ने यह सब कहा है।
वह ना जाने कितनी देर वहां बैठा उस दरवाजे को देखता रहा जहां से सीमा अंदर गयी थी, इसे यकीन था कि अभी सीमा हंसती हुई आएगी और कहेगी की क्यों केस बुद्धू बनाया लेकिन यह भी केवल उसका भ्रम ही निकला वह नही आई और नवीन थके थके कदमो से बापस लौट आया।
नवीन अंदर तक टूट गया था, वह कई दिन तक इस उमीद में छत पर जाता रहा कि शायद सीमा लौट आये किन्तु उसका ये भ्रम भी नही टूटा।

अब नवीन समझ गया था कि यह प्यार एक धोखा है एक भ्रम है बाकी कुछ नहीं।

अब उसने घरवालों की मर्जी से शादी कर ली।
उसकी पत्नी सुंदर, सुशील एवं पढ़ी लिखी है, वह एक अच्छी पत्नी के सभी गुण रखती है, लेकिन नवीन उसमें भी सीमा को ही खोजता है क्योंकि पहला प्यार भुलाना कोई आसान काम है क्या फिर चाहे वह कोई भ्रम ही क्यों न हो।।
समाप्त।।।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"

#हॉरर/ छलावा

बाजार से लौटते समय बच्चों के लिए खरीदी पॉपकॉर्न की थैली कब तालाब के किनारे गिर गयी हरिसिंह को पता भी नहीं चला।
घर आकर वह कुछ उदास हुए की बच्चों को कुछ नही खिला पाया।

अगले दिन फिर बाजार से बच्चों के लिए लाया गया लायी चना तालाब के किनारे सरक गया।
हरि को समज़ह नही आया कि क्या हो रहा है।

आज हरि को बाजार से लौटते समय थोड़ी देर हो गयी थी तो वह बच्चों के लिए कुछ नहीं खरीद पाया।
जैसे ही हरि तालाब के किनारे पहुंचे उसे पीछे से कुछ भिनभिनाहट जैसी आवाज सुनाई दी,
"आज कुछ नहीं खिलायेगा हरिया!!??"
हरि ने पलट कर देखा एक विशाल चौपाया इंसानी खोपड़ी के साथ इसे देख कर खिलखिला कर हंस रहा था,,,, "रोज तो खिला कर जाता है हरिया आज भूल गया मुझे",उसने कहा।

हरिया उसे देख कर भय से बेसुध होकर गिर पड़ा,,,

#हॉरर/ डर

सुबह के चार बजे 'वीरेंद्र' झांसी रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतरा और पैदल ही अपने बड़े भाई के घर की तरफ चल दिया।
यूँ तो वीरेंद्र इधर कई बार आता जाता है किंतु इतनी जल्दी सुबह कभी नही पहुंच।

वीरेंद्र के भाई ने झांसी में ये नया मकान बनाया था सारी कॉलोनी अभी नई ही बन रही थी जगह भी शहर से बाहर ही थी।
वीरेंद्र ने जल्दी पहुंचने के चक्कर में पटरी के किनारे का शार्ट कट पकड़ा और चल दिया अकेला मस्ती में गुनगुनाता।

नवम्बर का महीना था सर्दी शुरू हो चुकी थी, सुबह चार बजे भी ऐसा लग रहा था जैसे आधी रात ही हो रही हो।

वीरेन्द्र अकेला इस सुनसान रास्ते पर तेज़ी से चला जा रहा था  तभी उसे लगा कोई सात-आठ साल का बच्चा बनियान पहने दौड़ कर इसके आगे निकल गया और आगे आगे चलने लगा, तभी एक और बच्चा दौड़ कर उसके पीछे पीछे चलने लगा।

वीरेंद्र ने उनपर ध्यान नहीं दिया किन्तु वह आगे बाला बच्चा बार बार पलट कर इसे देखता ओर कुछ अजीब ढंग से मुस्कुराता कभी चेहरा टेढ़ा करता।
अचानक वीरेंद्र ने पलट कर देखा, पीछे बाला बच्चा कुछ ज्यादा ही लंबा लग रहा था और एकदम बांस जैसा पतला।

वीरेंद्र को अब कुछ शक होने लगा उसने अपनी चाल को तेज कर दिया, किन्तु दोनो बच्चे बराबर उसके साथ चल रहे थे।
वीरेंद्र अब दौड़ने लगा किन्तु ये बच्चे सामान्य गति से चल रहे थे और बीभत्स हंसी हंस रहे थे।
इनके बीच की दूरी अभी भी उतनी ही थी।
वीरेंद्र को अब भय लगने लगा उसे समझ आ गया कि ये अवश्य कोई छल है, उसने आस पास देखा वह उनके चक्कर में शहर से बाहर श्मशान के रास्ते पर बढ़ रहा था।
वीरेंद्र कांपने लगा उसको उस भरी सर्दी में भी पसीना आने लगा था वह दौड़ रहा था।

तभी रास्ते में एक पीपल का बड़ा पेड़ आया, जैसे ही वीरेंद्र ने उस पेड़ को पार किया अचानक एक आदमी दौड़ता हुआ इसके पीछे से आया और जोर से बोला, हमारे पीछे आओ।
वीरेंद्र बिना सोचे उसके पीछे चलने लगा, वह आदमी शरीर में बहुत बड़ा था उसने एकदम सफेद कपड़े पहने थे और बिना रुके बिना मुड़े तेजी से चल रहा था।
वीरेंद्र को उसके साथ चलने के लिए लगभग दौड़ना पड़ रहा था।

कॉलोनी के पास पहुंच कर वह व्यक्ति ना जाने कहाँ गायब हो गया।
ओर वह बच्चे कब पीछे छूट गए, वीरेंद्र इस सब से बेखबर दौड़ता दौड़ता अपने भाई के घर पहुंच गया, वह बहुत डर गया था इस सब से।
कई दिन तक वीरेन्द्र को बुखार आया रहा वह कांपता रहा घबराहट में।
बाद में जब वीरेंद्र ने सभी  को ये बात बताई तब कुछ लोगों ने बताया की किसी महिला ने अपने दो बच्चों के साथ पटरी के किनारे आत्म हत्या कर ली थी,, तभी से वहां इस तरह की घटना अक्सर होती रहती हैं।

वो तो तुम्हारी किस्मत अच्छी थी जो पीपल की किसी अच्छी आत्मा ने तुम्हे उनसे बचा लिया , एक व्यक्ति ने बताया।

अब ये उसका डर था या कोई छलाबा वीरेंद्र आज तक नहीं समझ पाया किन्तु उसके बाद वह दोबारा कभी उस रास्ते पर नहीं गया।

©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

#कहानी/नई राह

मोहित बचपन से ही मनमौजी था कभी किसी की बात सुनना या घर के कोई काम करना उसकी शान के खिलाफ था।
दिन भर दोस्तों के साथ घूमना  इधर उधर टाइम बर्बाद करना उसके दिनचर्या का हिस्सा था ; लेकिन तभी कुछ ऐसा हुआ कि मोहित बिल्कुल ही बदल गया।
मोहित अपने किसी जानने वाले को अस्पताल देखने गया था, जब वह अस्पताल से बाहर निकल रहा था तभी उसने देखा ,एक बूढ़ा घायल पड़ा हुआ था और उसके पास बैठी एक बूढ़ी महिला रो रही थी।
उनका हाल देखकर पहली नज़र में ही लग रहा था कि दोनों बहुत गरीब हैं।
कभी किसी की बात न सुनने वाला मोहित आज उन्हें देख कर न जाने कैसे उनके पास चला गया, " क्या हुआ अम्मा इन्हें??", मोहित ने बूढ़ी से पूछा।
फिसल कर गिर गए बेटा सर में चोट लगी है कित्ता खून बह गया।
फिर आपने इनका इलाज?? 
क्या करूँ बेटा डॉक्टर कह रहे हैं पहले रपट लिखा के आओ अक्सीडेंट का मामला है या क्या पता किसी ने मारने के लिए,, अब तुम्ही बताओ जब हम कह रहे हैं फिसल कर गिर गए फिर भी भर्ती नहीं करते,, औरत रोने लगीं।

आपके साथ ओर कोई नहीं है क्या??  आज ना जाने किस प्रभाव से मोहित द्रवित हो रहा था उसे उन लोगों पर तरस आ रहा था।

कोई नहीं है हमारा दुनिया में, हम दोनों ही रहते हैं अपनी झोंपड़ी में।
ये छोटा मोटा काम करके कुछ कमा लेते हैं उसी में दोनों गुजारा कर लेते हैं।
पर कई दिन से इन्हें कोई काम ना मिला अब काम नहीं तो रोटी भी नहीं बस इसी से कमज़ोरी में चक्कर खा कर गिर गए,, बुढ़िया माई लगातार रोये जा रही थी।

मोहित ने अस्पताल में हंगामा कर दिया, उसने लापरवाही के लिए सभी को झाड़ लगाई और उनकी शिकायत करने की धमकी दी।
अस्पताल बालो ने जल्दी ही बूढ़े व्यक्ति को भर्ती कर लिया,, मोहित ने अपने खर्चे पर उनका अच्छा इलाज करवाया, कोई दो तीन घण्टे में बूढ़े को होश आया गया इस बीच मोहित एक बोतल अपना ओर दो बोतल दोस्तों का खून बूढ़े को चढ़वा चुका था।
बुढ़िया न जाने कितनी आशीष मोहित पर वार रही थी जमाने की सारी दुआएँ उसके मुंह से मोहित के लिए निकल रही थी।
ओर इसी से हो रहा था मोहित का ह्रदय परिवर्तन।
मोहित बूढ़े के पूरी तरह ठीक होने तक रोज सुबह शाम अस्पताल का चक्कर लगाता रहा।
उसके बाद उसने अपने कुछ दोस्तों को साथ मिला कर उनके खाने की व्यवस्था भी कर दी।
मोहित अब सबकी मदद करने लगा, जब कोई उसे मदद के बदले आशीष दुआ देता है मोहित और विनम्र बन जाता है।
मोहित को ये सेवा कार्य बहुत आत्मसंतुष्टि देता है।
जल्द ही मोहित ने अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर एक सेवा ट्रस्ट बना लिया जिसमें असहाय बीमार कमज़ोर लोगों का सही इलाज और खाने पीने की व्यवस्था की जाती है।
मोहित अभी भी उस बूढ़ी माई का आशीर्वाद लेने जाता रहता है जिसने इसकी जिंदगी बदल कर उसे एक नई राह दे दी।

©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

#कहानी/दादी

चिंटू अरे ओ चिंटू,,,, 
अस्सी बरस की रामकली बिस्तर पर लेटे लेटे अपने पोते को पुकार रही है। 
रामकली बूढी अवश्य हो गई है किंतु जीवन जीने की आशा ने उसे कभी जीर्ण होने नहीं दिया। खाल सिकुड़ अवश्य गई है किंतु मन की तरुणाई कहीं उसके मनन करते मन के किसी कोने में अभी भी जीवित है। और जीवन की इसी आशा ने कभी उसके हाथ पांव को जड़ करने की जुर्रत नहीं की। किन्तु अब हाथ पांव में कम्पन अवश्य होने लगा है। 
क्या हुआ जो चन्द कदम चलने के प्रयास में साँस चढ़ जाती है। इस से उसके मन के दौड़ते मनोभावों को तो विराम नहीं लगता। 
वह पुनः अपनी खटिया में लेट कर मन की कल्पना के अश्व पर सवार हो चल पड़ती है, अपनी विचार यात्रा पर। 

उसका साठ साल का बेटा रामधन जो खुद भी बूढ़ा हो चला है , किन्तु माँ की दृष्टि उसे अभी भी तरुण ही समझती है , और अपनी नसीहत न मान ने पर ,मन ही मन खीझती है।

रामकली की कल्पना कभी उसे खेत पर ले जाती है जहाँ, रामधन अपने खुद की तरह जीर्ण होते बैलों के कंधे पर जुआ रखे, उसमे हल बांधे  इनके पीछे-पीछे हाथ में लकड़ी लिए कभी पुचकरता कभी भद्दी गालियां देता कभी मारता हुआ चल रहा है। 
रामकली सोचती कितने निकम्मे बैल हो गए हैं । मार से भी नहीं बढ़ते ,बेचारा 'रामधन' इस गति से कैसे इतने बड़े खेत को जोत पायेगा ,अभी तो तीन हिस्सा बाकि है। 
यही बैल रामधन के बापू की एक हांक पर कैसे हवा से आंधी बन जाते थे और आज देखो,,,!!!
रामधन के बापू का ख्याल आते ही रामकली के झुर्रियो भरे गाल लाल हो गए और कुछ क्षण के लिए झुर्रियों के बीच से बीस वर्ष की लजाती हुई सोहनलाल को छिप कर देखती हुई रामकली प्रकट हो गई। 
जो दोपहर को मटकती लहराती रोटी की पोटली बांधे पतली मेड़ो से होकर रास्ता छोटा करते हुए खेत पर जा रही है। उसे मन मीत से मिलने की शिघ्रता है या उन्हें जल्दी खाना खिलाने की लालसा ये तो उसका मन ही बेहतर जाने।
इसे दूर से आता देख सोहन भी बैलों को हल से मुक्त कर पेड़ के नीचे घास पर बैठ जाता।
बैल भी शायद उसके आने से प्रसन्न हो जाते ,ये कार्य मुक्ति की प्रसन्नता है,,, 
"नहीं नहीं" रामकली बैलों के लिए गुड़ के ढेले लेकर आती है उसी लालच में बैल पूंछ पटकते हैं। 
सोहन जब तक भोजन करता रामकली उसके मुख को तकती लजाती रहती। कितना प्यार करते थे रामधन के बापू उसे।
और बो खो जाती प्रेम मिलन की उस अद्भुत कल्पना में जिसमे उसके पूरे बदन में जोश और लज्जा के साझा रक्त संचार से ,कुछ पल को जवान रामकली लौट जाती। उस कल्पना में रामकली कभी मुस्कुराती कभी लजाती कभी खुद में ही सिमट जाती। कितने भाव उसके मुख की भाव भंगिमा की बदलते रहते। 
अब रामकली अपने मन की कल्पना के घोड़े को एड लगाती चली जाती मोहन की दुकान पर । 
मोहन रामकली का पोता और रामधन का लड़का है ,पैंतीस बरस का मजबूत सुंदर जवान। 
रामकली को उसमे सोहन की छवि दिखती है वो उसे देख कर बलिहारी जाती है ।
जुग-जुग जिए मेरा मोहन बिलकुल अपने दादा पर गया है। आज अगर बो होते तो देखते रत्ती भर का बी फर्क नई पडा सूरत में बोही नयन नक्शा बैसे ही चौड़े कंधे।
काश !!!  वह होते आज ,,,
सोचकर रामकली की आँखे गीली हो गईं ।
यही मोहन दो बरस का था जब इसे बरसात की उस  रात उलटी दस्त लग गए थे । 
गांव के हकीम जी ने कहा सोहन शहर ले जा बच्चे को यहाँ इलाज़ ना है अब इस बीमारी का। सारे गांव में बीमारी फैली है साफ सफाई बी ना है गांव में जल्दी कर । 

और सोहन रात में ही मोहन की छाती से लगाए दौड़ गया था शहर की और ।
कोई सवारी का साधन नहीं था बस बही बैल गाड़ी। 
और सोहन ने कहा बैलगाड़ी से जल्द तो मैं पहुंच जाऊंगा बटिया से दौड़ कर । 
ओर भीगते भागते दौड़ते उसने मोहन को तो बचा लिया, शहर ले जा कर, लेकिन खुद को म्यादि बुखार से न बचा पाया ,और छोड़ गया रामकली को बेसहारा । 
तब से मोहन को रामकली ने अपना साया देकर पाला । अपनी सारी शक्ति अपना सारा सुख और मन के सारे कोमल भाव लगा दिए रामकली ने परिवार को पालने में।
चिंटू उसी मोहन का सात बरस का बेटा है आजकल रामकली सोच रही है रामधन के बापू ने जन्म लिया है चिंटू के रूप में । 
और अपना संपूर्ण बत्सल्य लुटा रही है ,अपने इस पड पोते पर। 
आज कोई उसे लड्डू दे गया था सुबह बस बही पल्लु के कोने में बांधे पुकार रही है,, 
चिंटू अरे ओ चिंटू कहाँ है रे,,, 

तभी कहूँ से चिंटू लौट आया,, क्या है दादी,, ?
हर बक्त चिंटू- चिंटू बोल क्या काम है,,??

ये बत्सल्य के परदे से बंद आँखे सब अनदेखा करती टटोल कर पल्लु खोलती लड्डू निकलती है।
हैं !!लड्डू,, 
कहाँ से लाई दादी ,
मेरी प्यारी दादी कहते हुए चिन्टू उसकि गोद में घुसकर लड्डू में मुह मरने लगता है।

©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

Thursday, June 18, 2020

#कहानी/गन्दी परम्परा

रिंकू अपनी मां के साथ अपने नानी के घर आया था।
रिंकू की उम्र यही कोई सात आठ साल की है बहुत हँसमुख, तेज़ और पढ़ाई में होशियार।

रिंकू की मम्मी कोई तीन साल बाद मायके आयी थीं तो वह वहां ज्यादा लोगों को नही पहचानता था।
उसके रिश्ते के एक मामा जिसकी उम्र यही कोई पन्द्रह सोलह साल रही होगी ने रिंकू से अच्छी दोस्ती गांठ ली,वह पूरे दिन उसे तरह तरह की बातें बताता रहा और उसके साथ खेलता रहा।
रात को भी रिंकू कहानियां सुनता सुनता अपने इसी मामा के पास सो गया, अब मामा है तो किसी ने एतराज भी नही किया और रिंकू को भी कोई गलत नहीं लगा।

किन्तु रात में सोते सोते रिंकू को एहसास हुआ कि मामा उसके पीछे गलत जगह हाथ लगा रहा है, रिंकू नींद में था वह थोड़ा कुनमुनाया तो उसने हाथ हटा  लिया।
कुछ देर में रिंकू को लगा कि उसका निक्कर सरका हुए है और मामा उसके पीछे कुछ कर रहा है उसे अपने पीछे कुछ अलग चीज़ की छुअन भी महसूस हुई किन्तु नींद के कारण वह ज्यादा समझ ना सका।

कुछ देर बाद रिंकू को हल्का दर्द महसूस हुआ तो वह उचक कर उठने लगा।
उसके मामा ने कुछ नही है कुछ नही है कहकर उसे वापस सुला दिया।

सुबह जागने पर रिंकू ने दर्द महसूस किया और उसे कुछ गीला चिपचिपा सा भी लगा, उसे समझ तो कुछ नहीं आया किन्तु ये अवश्य समझ आ गया कि उसके साथ कुछ गलत हुआ है जो नहीं होना चाहिए था।

रिंकू नें गुस्से से मामा को देखते हुए कहा,"क्या किया आपने मेरे साथ"?
कक कुछ नहीं , मामा कुछ घबराते हुए बोला।

मुंह सब पता है आपने मेरे साथ जो किया उसे बाल यौन शोषण कहते हैं, मैने आप पर कितना विश्वास किया और आपने ,,,?
किउं किया ऐसा बताओ,, ?,किसने सिखाया आपको ये गंदा काम?  रिंकू गुस्से से देखते हुए बोला।

चार साल पहले मैं अपने पापा के साथ तुम्हारे घर गया था तब तुम्हारे चाचा ने मेरे साथ,,,,,।
मामा उदास होकर बोला।
मुझे भी बहुत दर्द हुआ था लेकिन शर्म या कहो डर के कारण मैने किसी को नही बताया।
लेकिन मैं  जानना चाहता था कि उन्होंने ऐसे क्यों किया मेरे साथ या ये कहो कि मैं उनके किये का बदला भी लेना चाहता था इसी लिए तुम्हारे साथ ये सब,, मामा ने सर झुकाये जबाब दिया।
ओह्ह !!तो ये एक परंपरा है,, एक गन्दी परम्परा,,
तब तो मुझे भी आपके बच्चों के साथ ,,,,
ओर फिर उन्हें मेरे बच्चों के साथ,, 
किसी को तो इस गन्दी परम्परा को तोड़ना होगा मामा,,?

शायद शुरुआत मुझे ही, कहकर रिंकू दौड़ कर गया और सारी बात अपनी माँ को बता दी।

प्रेम विवाह में तलाक क्यों

दोनों ने प्यार किया था, सीमाओं से पार का प्यार।
दुनिया ही सिमट गई थी उनकी एक दूजे के प्यार में। 
और प्यार को परवान भी चढ़ाया , समाज जाती के बंधन तोड़ कर। 
शादी कर ली उन्होंने दिल का पवित्र बंधन जोड़ कर। 

एक साल जैसे पंख लगाकर उड़ गया ,
दोनों खोये रहे प्रेम के स्वप्निल संसार में। 
बस प्रेम ही छलकता रहा उनके जीवन व्यभार में। 
किन्तु अब
!! प्रेमिका कहीं विलुप्त होती जा रही है।।।। 
वह एक विषुद्ध पत्नी बनती जा रही है। 
पत्नी के सारे अधिकार अब उसने ले लिए हैं निज हाथों में। फिक्र होने लगी है गृहस्थी की ,अब समय नहीं गँवा सकती बस प्रेमालाप की बातों में। 
अब वह पत्नी बन चुकी है , विशुद्ध भारतीय पत्नी । 

लोक लाज से भरी घर परिवार में रंगी, समाज की चिंता करती पत्नी। 
पति वेचारा,,,,,,,, 
उसकी प्रेमिका कहीं खो गई है, और वह ढूंढ रहा है उसे अपनी पत्नी में।
वो चाहता है वही प्रेम के क्षण । 
लेकिन अब पत्नी बनी प्रेमिका के पास समय कहाँ,कि वह उसके बालों में उँगलियाँ घुमाये।
या फिर देखे बैठ कर घण्टों उसकी आँखों में। 

वह झुंझला रहा है उकता गया है ,उसकी अनदेखी की आदत से। 
पत्नी वही बेचारी परेशां है, कि जो प्रेमी उसकी एक इच्छा पर कुर्वान करता था खुद को। 
आप प्रेम की नज़रों से देखता तक नहीं उसको।
अब तो वह उसकी बातें तक नहीं सुनता ध्यान से। 
क्या हो गया है ये ,रोज वह घंटों पूछती है पूजा में भगवन से। दोनों क्षुब्द रोज़ खटपट ,,, 
और नतीजा ,,,, 
,,,,,,,"तलाक",,

#कहानी/लगन

मुन्नू बिना मां बाप का आठ दस वर्ष का अनाथ बालक था, उसके मां बाप और छोटी बहन पिछले साल गांव में फैले हैजे का शिकार हो गए।
और मुन्नू अकेला रह गया उदास हताश असहाय।
मुन्नू को भूख लगती तो वह रोता रहता क्योंकि उसके पास ना तो पैसे थे और ना ही उसे खाना पकाना आता था।

मुन्नू का परिवार बहुत गरीब था उसके मां और पिता दोनों हो लोगों के खेतों में काम करते थे, उनके पास अपना कहने को एक कच्चे मकान के अलावा कुछ नहीं था।
उसके बाप "रामदास" की हार्दिक इच्छा थी कि वह इस साल एक दुधारू गाय अवश्य लेगा, इसके बच्चे भी दूसरों की तरह दूध का स्वाद जानेंगे।
किन्तु वक्त और विधि के विधान के आगे किसकी चली है।
और वक़्त के एक झटके से मुन्नू अनाथ हो गया अब उसका कोई सरपरस्त नहीं था जो उसके भविष्य के बारे में सोचे।

मुन्नू को कुछ दिन पड़ोसियों ने खाना दे दिया किन्तु फिर एक दिन किसी ने कहा, " मुन्नू कब तक हम तुम्हे ऐसे मुफ्त में खाना देंगे ? और फिर तुम्हारी अन्य ज़रूरतें भी तो हैं कपड़े आदि, तो क्या तुम सब कुछ मांग कर लोगे? "

"तुम्हे भी आगे की जिंदगी के लिए कुछ काम करना चाहिए।" दूसरे व्यक्ति ने भी पहले की हाँ में हाँ मिलाई।

"लेकिन मैं क्या काम करूंगा चाचा? मुझसे तो खेतों में काम भी नहीं होगा, मैं तो वजन भी नहीं उठा सकता", मुन्नू उदासी में बोला था ।
"डंगर तो घेर सकता है"?,, चाचा ने कहा।
"हाँ वो तो मैं कर लूंगा", मुन्नू ने धीरे से कहा।

"ठीक है मैं दो चार घरों में बात करता हूँ और कल बताता हूँ तुझे", चाचा ने उसे रोटी देकर कल आने को कहा और चले गए।

अगले दिन से मुन्नू चार घरों की गाय भैंस चराने का काम मिल गया जिसकी एवज में उसे महीने के चार सौ रुपए ओर रोज़ एक घर में खाना मिलना तय हुआ।
अब मुन्नू को सुबह दो रोटी गुड़ चटनी देकर गाय भैंसों के साथ जंगल भेज दिया जाता और शाम को लौटने पर अपनी बारी के घर से रात का खाना खिला दिया जाता।
सुबह से शाम तक नन्हा मुन्नू डंगरों के पीछे दौड़ता रहता।
शुरू में तो उसे बहुत बुरा लगा लेकिन बाद में यही इसके लिए खेल बन गया और कल्लो, लल्लो, भूरी, चांदी (गाय; भैंस)आदि उसकी दोस्त, जिन्हें वो अपनी अम्मा ओर बापू के किस्से सुनाता और उनके गले लगता।

उसे याद आता था कैसे उसकी अम्मा उसे रोज कहानी सुनाती और बड़ा आदमी बनने को कहती।

वह गाय भैंसों से पूछता, "क्या तुम कोई कहानी जानती हो, मेरी अम्मा जैसे?"
और भैंस बस हम्ममम्मममम्म करके रह जाती,
गाय भी उसके जबाब में अम्म्म्महहहह के अलावा कुछ नहीं कह पाती।

फिर वह पूछता,"ये बड़ा आदमी क्या होता है", लेकिन फिर जबाब हम्ममम्मममम्म, अम्म्म्म के अलावा कुछ नहीं मिलता।

एक दिन वह अपनी रो में यही बातें कल्लो(भैंस) व लल्लो(गाय) से पूछ रहा था और वहां से दूसरे गांव के अध्यापक जा रहे थे, उन्हें एक छोटे बच्चे का इस तरह भैंस और गाय से बातें करना कुछ अलग सा लगा, मुन्नू के चेहरे की मासूमियत उन्हें अपनी ओर खींचने लगी।

"क्या बात है बेटा,?" उन्होंने मासूम मुन्नू के सर पर हाथ रख कर कहा।
मां के बाद पहली बार किसी ने मुन्नू के सर को इतने प्यार से सहलाया था।
उसकी आँखों में जमी साल भर की बर्फ पिघल कर उसके गालों पर बहने लगी, उसकी सिसकी बंध गयी, मुन्नू सुबक सुबक कर रोने लगा आँसू उसके गौरे किन्तु धूमिल गालों को भोगोकर एक निशान बना रहे थे।

अध्यापक उसके सर पर हाथ फेरते रहे, उसकी मासूमियत ओर उदासी उनके मन को विचलित कर रही थी।

"क्या पूछ रहे थे तुम इन जानवरों से?"उन्होंने धीरे से मुन्नू से पूछा।
मुन्नू खुद को संयमित करते हुए बोला, "मैं इनसे कहानी सुनाने को कह रहा था काका, जब से अम्मा मरी है किसी ने कहानी नहीं सुनाई।"
"क्या तुम्हें पढ़ना नहीं आता? तुम खुद कहानियां पढ़ सकते हो में तुम्हे किताब दे दूंगा कहानियों की", मास्साब ने कहा।

"पढ़ना?" मुन्नू को समझ नहीं आया।
गांव में कोई स्कूल नहीं था तो मुन्नू को पढ़ाई के बारे में कुछ भी पता नहीं था।

"पढ़ाई क्या होती है काका? और ये किताबें क्या कहानी सुनाना जानती हैं?" मुन्नू जिज्ञासा से भर उठा।

"हाँ किताबे तुम्हारे सारे सवालों के जबाब जानती हैं बेटे बस जरूरत है तुम्हे उनसे दोस्ती करने की उन्हें पढ़ना सीखने की।" मास्साब ने मुस्कुरा कर कहा।

"मैं करूँगा उनसे दोस्ती काका", मुन्नू ने दृढ़ता से कहा।
"अच्छा तुम वो नदी पार बाला गांव जानते हो?" मास्टर जी ने पूछा। 
"हाँ काका", मुन्नू ने धीरे से कहा।
"तो तुम शाम को वहीं आ जाना मेरे घर, आ जाओगे? किसी से भी पूछ लेना कहना मास्टरसाहब के घर जाना है।" मास्साब ने उसे अपना पता समझाया।
"ठीक है काका", मुन्नू ने खुश होकर कहा।

आज मुन्नू ने डंगर जल्दी ही हांक दिए और बिना खाये पिये ही दौड़ लगा दी नदी पार के गांव की ओर जो उसके गांव से बस एक डेढ़ किलोमीटर दूर ही होगा।
दोनो गांव के बीच में एक छोटी सी नदी बहती थी जो बरसात के अलावा लगभग सूखी ही रहती थी, उसे पार करने के लिए उसके ऊपर दो बड़े खजूर के पेड़ काटकर पुल जैसा बना रखा था।
मुन्नू पुल को भी दौड़ कर पार कर गया, उसे तो लगन थी कहानियों की।
वह गांव में सीधा मास्साब के घर पहुंचा, गांव में घुसते ही पहले ही आदमी से उसे मास्साब का घर पता चल गया था।
मास्साब ने उसे बिठाया पीने को दूध और गुड़ दिया।

"मास्साब लाओ किताब मैं उससे कहानियाँ सुनूंगा।" मुन्नू उतावलेपन से बोला।
"हाहाहा!!"
मास्साब जोर से हँसने लगे।
"क्या हुआ?" मुन्नू उन्हें देखते हुए बोला।

"किताबे कहानी सुनाती नहीं उन्हें खुद पढ़ना पड़ता है", मास्टर साहब बोले।
"पढ़ना?लेकिन मुझे पढ़ना नहीं आता", मुन्नू उदास होकर बोला।
"मैं सिखाऊंगा तुम्हे पढ़ना", बस तुम्हे लगन से मेहनत से सीखना होगा।
"मैं सीखूंगा", जो कहोगे करूँगा मुन्नू ने कहा।

"ठीक है कल से रोज इसी समय आना होगा", मास्साब ने उसे एक तख्ती औऱ एक किताब देकर कहा ओर कुछ अक्षर बताकर नकल का अभ्यास करने को दिया।

मुन्नू घर लौट आया, रात भर वह उस किताब में छपे चित्र देखकर उन्हें समझने का प्रयास करता रहा, फिर कुछ अक्षर तख्ती पर खड़िया से लिखने लगा, उसे इस खेल में मज़ा आ रहा था, रात भर में उसने कितनी ही बार तख्ती लिखी।

मुन्नू रोज शाम को मास्साब के घर जाकर पढ़ने लगा, उसकी लगन और मेहनत से कुछ ही महीनों में वह बिना रुके बिना हिज्जे किये पुस्तक पढ़ने लगा, और बहुत सुंदर लिखाई भी करने लगा।
जल्दी ही मुन्नू ने बहुत सारी कहानियां भी पढ़ लीं थी अब उसे पता था कि बड़ा आदमी क्या होता है।
मास्साब ने उसका नाम स्कूल में लिखवा दिया और उसे शाम को घर पर ही पढ़ाने लगे, उन्होंने मुन्नू को इम्तिहान देने के लिए मना लिया था।
पांचवी का परिणाम मुन्नू के लिए बहुत खुशी लेकर आया वह स्कूल में प्रथम आया था, मुन्नू को भाषा, गणित और सामाजिक अध्ययन में बहुत अच्छे अंक मिले थे।
इधर मुन्नू इन तीन सालों में अपने सारे पैसे बचा कर रखता रहा अब उसके पास करीब सात आठ हजार रुपए की पूंजी थी, जिसकी मदद से उसने पक्की सड़क के किनारे एक कच्ची गुमटी बना ली और चाय नास्ता बेचने की एक छोटी दुकान खोल ली।
अब मुन्नू किसी का नौकर नहीं था और अब उसके पास पढ़ने के लिए पर्याप्त समय था।
उसकी लगन और मेहनत ने हमेशा उसका साथ दिया और उसने समय के साथ गांव से आठवीं की परीक्षा पास करके शहर में दाखिला ले या मुन्नू पढ़लिख कर बड़ा आदमी बनना चाहता था , वह अपनी अम्मा का सपना पूरा करना चाहता था।
मुन्नू बहुत ईमानदारी और मेहनत से अपनी दुकान चलाता और पूरी लगन से पढ़ाई करता, जल्दी ही उसे एक और अनाथ लड़का मिल गया उसके पास भी खाने रहने को कुछ नहीं था।
मुन्नू ने उसे अपने साथ रख लिया अब दुकान में दो लोगों के रहने से उसे पढ़ने के लिए अधिक समय मिलने लगा और वह उस लड़के को भी पढ़ाने लगा।
दसवीं की परीक्षा में मुन्नू को जिले में प्रथम स्थान मिला इससे उसकी और पढ़ने की लगन को बहुत बल मिला।
ऐसे हैं पूरी लगन से मुन्नू परिश्रम करता रहा, अब उसने अपनी गांव की झोपड़ी बेच कर सड़क के किनारे जमीन का एक टुकड़ा खरीद लिया था जिसमें कच्चा बड़ा मकान ओर आगे वही चाय की दुकान बना ली थी।
अब उसके साथ चार पांच अनाथ लड़के रहते थे जो उसकी दुकान सम्भालते और वह उन्हें भी लगन से पढ़ता।

इसी प्रकार समय के साथ मुन्नू आगे पड़ता गया और उसका घर बड़ा होता गया जहां अनाथों बेसहारा लोगों के लिए हमेशा स्थान मिलता रहा।
मुन्नू अपनी मेहनत और लगन से एक दिन भारतीय प्रसाशनिक सेवा में चयनित हो गया, अब वह सच में बड़ा आदमी था उसकी मां का सपना साकार हो चुका था।
उसने अब अपने घर को अनाथालय और बृद्धाश्रम बना दिया जहां उसे कितने सारे भाई- बहन और मां बाप मिल गए जो हमेशा उसके लिए दुआएँ करते हैं।

मुन्नू को अभी भी लगन है कि कोई अनाथ कभी भी बिना कहानी सुने न सोये, और कोई भी इसलिए अनपढ़ ना रहे कि वह अनाथ है।
उसमे अभी भी लगन है हर शहर में एक ऐसा आलय खोलने की जिसमे अभावग्रस्त लोगों को मुफ्त शिक्षा और रहने की व्यवस्था हो।
मुन्नू सच्चा बड़ा आदमी है , यूँ तो अब उसका नाम श्री मुनेश कुमार है, किन्तु वह मुन्नू कहलाया जाना ही पसंद करता है।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"
९०४५५४८००८(वाट्सप)

#कहानी/और वह मर गयी

नदी किनारे गांव के एक छोर पर एक छोटे से घर में रहती थी गांव की बूढी दादी माँ। 
घर क्या था ,उसे बस एक झोंपडी कहना ही उचित होगा। गांव की दादी माँ, जी हां पूरा गांव ही यही संबोधन देता था उन्हें। नाम तो शायद ही किसी को याद हो।

70/75 बरस की नितान्त अकेली अपनी ही धुन में मगन। कहते हैं पूरा परिवार था उनका नाती पोते बाली थीं वो। लेकिन एक काल कलुषित वर्षा की अशुभ!! रात की नदी की बाढ़ ,,, उनका सब समां ले गई अपने उफान में । 
उसदिन सौभाग्य कहो या दुर्भाग्य कि, बो अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ बच्चा होने की खुशियां मानाने गई हुई थीं। कोन जनता था कि वह मनहूस रात उनके ही नाती बेटों को उनसे दूर कर, उन्हें ही जीवन भर के गहन दुःख देने को आएगी। 
उसी दिन से सारे गांव को ही उन्होंने अपना नातेदार बना लिया, और गांव बाले भी उनका परिवार बन कर खुश थे।

किसी के घर का छोटे से छोटा उत्सव भी उनके बिना न शुरू होता न ख़तम।
गांव की औरतें भी बड़े आदर से पूछती," अम्मा "ये कैसे करें बो कैसे होता है। और अम्मा बड़े मनुहार से कहती इतनी बड़ी हो गई इत्ती सी बात न सिख पाई अभी तक । 
सब खुश थे सबके काम आसान थे । किसी के यहां शादी विवाह में तो अम्मा 4 दिन पहले से ही बुला ली जाती थीं। 

हम बच्चे रोज शाम जबतक अम्मा से दो चार कहानियां न सुन ले न तो खाना हज़म होता और न नींद ही आती। 
अम्मा रोज नई नई कहानियां सुनाती राजा -रानी, परी -राक्षस, चोर -डाकू ऐंसे न जाने कितने पात्र रोज अम्मा की कहानियों में जीवंत होते और मारते थे।

समय यूँही गुजर रहा था और अम्मा की उम्र भी। आजकल अम्मा बीमार आसक्त हैं उनको दमा और लकवा एक साथ आ गया। चलने फिरने में असमर्थ , ठीक से आवाज भी नहीं लगा पाती । 
कुछ दिन तो गांव बाले अम्मा को देखने आते रहे, रोटी पानी दवा अदि पहुंचते रहे। लेकिन धीरे धीरे लोग उनसे कटने लगे बच्चे भी अब उधर नहीं आते कि, कहीं अम्मा कुछ काम न बतादे। 
बो अम्मा जिसका पूरा गांव परिवार था अब बच्चों तक को देखने को तरसती रहती।
वही लोग जिनका अम्मा के बिना कुछ काम नहीं होता था , अब उन्हें भूलने लगे। 
औरते अब बच्चो को उधर मत जाना नहीं तो बीमारी लग जाएगी की शिक्षा देने लगी। 
अम्मा बेचारी अकेली उदास गुनगुना रही है- 
सुख में सब साथी दुःख में न कोई। 
अब तो कोई उधर से गुजरता भी नहीं । अम्मा आवाज लगा रही है अरे कोई रोटी देदो। थोड़ा पानी ही पिला दो।।।।!!
नदी किनारे रहकर भी अम्मा पानी के घूँट को तरसती उस रात मर गई। 
सुबह किसी ने देखा और गांव में खबर फैली की बुढ़िया जो नदी किनारे रहती थी आज मर गई।
लोग आये दो चार बूँद आंसू गिराये औरतों में चर्चा थी वेचारी सब के कितना काम आती थी,और आज मर गई।

कुछ देर में बुढ़िया का शरीर आग के घेरे में पड़ा था लोग अपने घर लौट रहे थे। और अब कहीं चर्चा नहीं थी कि वह मर गई। 

यही दुनिया है यही इसकी रीत है। जीवित हैं तो सबके हैं । मर गए तो भूत हैं। और कोई याद तक नहीं करता कि वह मर गई।

#कहानी/जैसा खाये अन्न

कुछ दिन से  चिंटू(चूहे) में जीवन मे कुछ अलग अनुभव हो रहा है, वह जब भी किसी छोटे जानवर को देखता उसके मुंह से भेड़िये जैसी गुर्राहट निकलने लगती, उसकी मूंछे खड़ी हो जाती उसकी नाक भी कजकल कुछ ज्यादा ही सूंघने लगी है।
कई बार तो अपनी इस वहशियाना स्थिति में वह अपने कई बिरादरी वालों को भी घायल कर चुका है।
चान्दनी रात में तो उसकी स्थिति और भयावह होने लगी है कल पूर्णिमा की रात में उसे कई बार वहशियत के दौरे पड़े उसने एक खरगोश को मार डाला, एक बिल्ले से भिड़ गया और घायल होने से पहले बिल्ले को लगभग मार ही डाला होता उसने अगर वह भाग ना गया होता।

सारे चूहा बिरादरी उसकी इस हालत से बहुत डरे डरे से सहमे से हैं।
उन्हें चिंटू से अपनी जान का खतरा होने लगा था, वह अपने बच्चों को उससे छिपाने लगे थे, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि ये चिंटू को आखिर हो क्या गया है, वह अचानक चूहे से भेड़िया कैसे बन गया?

अरे चिंटू तुझे याद भी है क्या हुआ था जब से तेरे ये हालात हुए  कुद्दु दादा ने चिंटू को शांत बैठे देख बहुत डरते डरते धीरे से पूछा।
मुझे कुछ नहीं मालूम दादा बस उस दिन मैंने एक नारे जानवर की हड्डी पर लगा मांस का टुकड़ा खाया था उसके बाद से पता नहीं मुझे क्या हो गया, चिंटू अफसोस करते हुए बोला।
ऑफ़ह!!तूने जरूर किसी नरभक्षी भेड़िये का मांस खा लिया चिंटू,,दादा अभी कह ही रहे थे कि सामने से एक लोमड़ी गुजरी ओर चिंटू ने गुर्राते हुए उसपर छलांग लगा दी चिंटू इतनी तेजी से उसकी गर्दन पर झपटा की जबतक वह सम्भल पाती चिंटू  उसकी गर्दन से मांस का एक बड़ा टुकड़ा नोच चुका था, ये देखकर दादा डर कर न जाने जब बिल में सरक गए पता भी न चला।

चिंटू के ख़ौफ़ और वहशी दरिंदा बनने के चर्चे पूरे जंगल में फैल चुके थे, छोटे तो छोटे अब तो बड़े जानवर भी उससे बचने ओर अपने छोटे बच्चों को उससे छिपाने लगे थे।

चिंटू खुद भी बहुत परेशान था कि आखिर उसे हो क्या जाता है, उसे तो कुछ याद भी नहीं रहता कि उसने किया क्या था बस देखता है खुद को घायल और साथियों को आश्चर्यचकित होता।

आजकल चिंटू अकेला हो गया है उसके वहशियत भरे दौरों के चलते अब उसके सारे परिवार और विरादरी बालों ने उससे दूरी बना ली है।
चिंटू अब कालिया लहरी की कब्रगाह (पढ़िए कहानी "चिंटू की चतुराई")
में रहता है बिरादरी से दूर अकेले में, लेकिन उधर से बाकी जानवर भी बहुत सावधानी से गुजरते हैं, यूँ तो चिंटू दिन में हमेशा शांत ही रहता है लेकिन शाम होते ही रोज खूनी दरिंदा बन जाता है।
अभी कल ही की बात है, दो भेड़िये इधर शिकार की तलाश में आ गए शायद बाहर किसी जंगल से आये थे उन्हें चिंटू के बारे में पता नहीं था।
सर्दी की रात थी चाँद की चान्दनी फैली थी ओस की बूंदें मोती की तरह चमक रही थीं और चिंटू उनसे खेलने में मग्न था तभी उसे अपने पीछे कुछ सरसराहट सुनाई दी उसके कान खड़े हो गए, नाक हवा में सूंघने लगी उसकी आंखें चमकने लगी मूंछ के बाल बरछी की तरह खड़े हो गए।
उसके मुंह से भेडिये जैसी ही गुर्राहट निकलने लगी और वह झपट पड़ा उसके शिकार की घात में बढ़ते भेड़ियों पर।

चिंटू का हमला इतना तेज था कि भेड़िये संभल भी न सके  तब तक चिंटू दोनों के गले की खाल उधेड़ चुका था।
दोनों भेड़िये सतर्क हो गये उन्हें समझ आ गया कि ये छोटा चूहा बहुत खतरनाक है।
दोनों शिकारी संयुक्त रूप से चिंटू पर हमला करने लगे किन्तु चिंटू बहुत होशियारी से उनके दांव पैंतरा बदल के चुका देता और किसी की पूंछ तो किसी का पैर कुतर देता।
दोनों भेड़िये उसकी फुर्ती ओर ताकत से सकते में थे चिंटू उनसे बिल्कुल किसी शिकारी भेड़िये की तरह ही लड़ रहा था।
लड़ते लड़ते आधी रात हो गयी दोनों पक्षों के खून से जमीन पर निशान बन गए लेकिन कोई भी पक्ष हार नहीं मान रहा था।
भेड़िये समझ चुके थे कि उसकी फुर्ती और शक्ति कुछ और है ये चूहे की ताकत नहीं है दोनों भेड़िये थकने लगे थे और अंततः चिंटू के आगे भेड़िये हार गए , दोनों भेड़िये एक ओर जंगल में भाग गए।
चिंटू का भी इस लड़ाई में बहुत खून बह गया था अतः वह भी बेशुध होकर जमीन पर गिर गया।
सुबह कुछ चूहों ने चिंटू को ऐसे जमीन पर पड़ा देखा और आसपास बिखरा खून देख कर समझ गए कि रात फिर चिंटू ने किसी शिकारी जानवर से खूनी संघर्ष किया है लेकिन ये ऐसे क्यों पड़ा है?? क्या चिंटू मर गया?? 
चूहों की बस्ती में हल्ला मचा हुआ था कि चिंटू मर गया,,, रात उससे भेडियो की लड़ाई हुई वहां पंजो के निशान हैं , सभी चूहे चर्चा कर रहे थे इधर चिंटू लड़खड़ा कर उठा और उसके मुंह से आवाज आई "माँ' ,,,
"चुकचुक" (चिंटू की मां) जो पास ही थी दौड़ कर उसके पास आयी और उसे सहारा देकर उठाने लगी, बाकी चूहे भी उसके सहायता को दौड़ आये,हालाँकि चिंटू के वहशी पन का ख़ौफ़ अभी भी उनके दिलों में था।

अब चिंटू ठीक हो गया है और अब वह दरिंदा भी नहीं बनता वह पूरी तरह सामान्य हो चुका है।
ये चमत्कार कैसे हुआ दद्दा मैं ठीक कैसे हुआ ?उसने, "कुद्दु" से पूछा।
उस लड़ाई में तेरा बहुत खून बह गया था चिंटू ओर उसी के साथ बह गया तेरे अंदर से खूंखार भेड़िये का अंश, अनुभवी दादा ने उसे समझाया।
सारे चूहे जान गए थे कि चिंटू अब फिर से चूहा बन चुका है, लेकिन ये बात उन्होंने जंगल से छिपा कर रखी हुई है और बाकी जंगली जानवरों के लिए चिंटू अभी भी दरिंदा ही है और उसके इस खोफ से चूहों की बस्ती सुरक्षित है।

दोस्तो ऐसे ही कई बार हमारे जीवन में भी अचानक परिवर्तन होते हैं, जैसे अच्छे भले निकले शाम की बीमार हो गए।
अचानक किसी को नुकसान पहुँचाने के ख्याल आने लगे, त बैठे बैठे कुछ भी अजीब लगने लगे तो,,,
"एक बार ये अवश्य सोच लें कि आज क्या खाया और किसका खाया"
क्योंकि
"जैसा खाये अन्न वैसा होवे मन"
©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
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#कहानी/ चिंटू की चतुराई


चिन्टू एक नन्हा चूहा है चिकचिक ओर चुकचुक की इकलौती औलाद।
यूँ तो चुकचुक को कई बार प्रसव हुआ कई संताने जन्मी लेकिन हर बार कालिया लहरी उनको जिंदा निगल गया।
कालिया एक बहुत बड़ा नाग है जो चलते चूहों उछलते मेंढकों ओर चिड़ियों के अंडों पर अपना जन्मजात अधिकार समझता है।
चिन्टू भी अभी तक इसीलिए बचा हुआ है कियूंकि उसके बाहर खुले में घूमने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा हुआ है।
आसपास के सारे चूहा परिवार इसी दंश से पीड़ित हैं कि कालिया लहरी उनके वंश को मिटाने पर तुला है।
किसी का एक तो किसी के दो बच्चे बमुश्किल बचे हुए हैं।
सारे चूहे कालिया का नाम सुनकर थरथर कांपने लगते हैं।

हम ऐसे कब तक कालिया के भय से मरणासन्न जीवन जिएंगे?? चिन्टू ने चूहों के सामने प्रश्न रखा।

क्या करें हम बेटा चिन्टू, अगर लहरी चाहे तो हम सभी को एक बार में ही निगल सकता है।
हम चूहे हैं और वह नाग, एक बूढ़े चूहे ने आंसू गिराकर कहा।

तो क्या हम कभी जी नहीं पायेंगे?? और फिर ऐसे डर डर कर जीने से तो अच्छा है कि हम उसका भोजन ही बन जाएं।
लेकिन चिन्टू यूँ जानबूझ कर मौत के मुंह में कोन जाना चाहेगा?, चिकचिक ने उदासी से कहा।
किउं ना हम सारे मिलकर एक साथ उस पर हमला करके उसे काट खाएं क्या होगा ज्यादा से ज्यादा दो चार लोगों को खा जाएगा लेकिन आने वाली पीढ़ी तो उसके भय से सुरक्षित हो जाएगी।
लेकिन कौन कुर्बानी देगा?? सभी के चेहरे लटक गए और सब चूहे चुपचाप सर झुका के चले गए।

बहुत हो चुका अब, कब तक हमारे लोग कालिया का निवाला बनते रहेंगे??आज उसने टुक टुक के बच्चे निगले हैं कल सुनिया को खा गया था हो सकता है कल को मुझे या आपमें से किसी को,,, चिन्टू गुस्से से बिफर रहा था।
टुक टुक ओर टिक टिक सर झुकाये आंसू बहा रहे थे ,अभी तो मेरे बच्चों ने आंखे भी नहीं खोली थी बेटा चिन्टू, टिकटिक जोर से रोने लगी।
अब रोने से क्या होगा चाची, हम बुजदिल चूहे क्या बस रोते ही रहेंगे, ?
नहीं अब बस,अब हमें कुछ करना ही होगा चिन्टू कुछ निश्चय करके खड़ा हो गया।
लेकिन क्या?? सभी ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।
हमें एक बिल तैयार करने में कितना समय लगता है बतातो?? चिन्टू ने सभी चूहों से पूछा।

ज्यादा से ज्यादा चार पांच दिन, सभी ने एक मत से जबाब दिया।

तो क्या आप सभी मुझे अपने पांच दिन देंगे?? चिन्टू ने पूछा।

हाँ हाँ सभी एक स्वर में बोले।
तो ठीक है ध्यान से सुनो ओर समझो, ओर चिन्टू उन्हें अपनी योजना समझाने लगा।

उस घटना को आज सात दिन हो गए इस बीच एक भी चूहा बाहर घूमता नही मिला कालिया बहुत परेशान है कि सारे चूहे गए कहाँ, वह भूख से परेशान था।
गुनगुनी धूप खिली हुई है कालिया सर को घास की छाया में किये धूप का मज़ा ले रहा है तभी एक चूहा तेज़ी से उसके सामने से निकल गया, कालिया चौकन्ना हो गया उसे चूहे की गंध अपनी ओर आकर्षित कर रही है।
कालिया ने सर उठा कर देखा चिन्टू चूहा लापरवाही से एक झाड़ी के पास बैठा कुछ कुतर रहा है।
कालिया खुशी से झूम उठा और सावधानी से उसके पीछे रेंगने लगा जैसे ही कालिया ने चूहे पर झपट्टा मार चूहा बिल में सरक गया और उसके पीछे कालिया भी बिल में घुस गया कालिया बिल में दूर अंधेरे में चूहे की गंध सूंघता घुसता चला गया, आगे बिल की चौड़ाई बहुत कम थी और कालिया उसमें लगभग फंस ही गया और इससे पहले की वह बापस लौटता उसके ऊपर कंकर पत्थर और मिट्टी का ढेर गिरने लगा ।
कालिया बहुत कोशिशों के बाद भी हिल ना सका और उस बिल में ही उसकी जीवित कब्र बन गयी।
आज उसका लालच उसके पापों पर भारी पड़ गया।
चिन्टू ने उसके लिए एक ऐसी योजना बनाई थी जिसमें एक लंबा पतला बिल था जिसमें सैकड़ो बिल जुड़े हुए थे, उनमें चूहों ने छोटे छोटे कंकर पत्थर और मिट्टी भर रखी थी।
जब कालिया चिन्टू के पीछे बिल में घुसा तो चिन्टू तो घूम कर दूसरे बिल में घुस कर दूसरी ओर निकल गया और बाकी चूहों ने मिट्टी कंकर सरकाकर कालिया को दफन कर दिया।
सारे चूहे चिन्टू की चालाकी की प्रसंशा कर रहे थे और चिन्टू को अपना राजा बना कर जय जय कार कर रहे थे।

©नृपेन्द्र शर्मा"सागर"

#कहानी/ गांव के रिश्ते

उत्तरप्रदेश का एक छोटा सा गांव है जिसमें बस दो ही विरादरी के लोग रहते हैं।
गांव में सभी भाईचारा रखते हैं सुखदुख में सभी एक दूसरे के साथी हैं।
पूरे गाँव की आबादी होगी यहि कोई सात आठ सौ।

गांव की अपनी एक पंचायत है जिसमें दोनों जाती के लोग समान संख्या में पंच हैं।
पंचायत का निर्णय किसी के भी लिए ईस्वर वाक्य होता है, जो निर्णय एक बार हो गया वह बदल नहीं सकता गांव में रहने की यही शर्त है।
गांव में चारों ओर खुशहाली है, अधिकतर लोग सब्जी उगाते हैं , बाकी अन्य अनाज ,दलहन, तिलहन आदि भी भरपूर पैदा होता है लेकिन मुख्यतः सब्जी की खेती ही प्राथमिकता होती है।

कुछ बर्ष पूर्व तक,

गांव के पूर्व में कल्लू का घर था, कुछ कच्चा ,कुछ पक्का, कल्लू एक अल्हड़, जवान और मेहनती नौजवान था।
उसकी मेहनत से इसकी फसलें गांव भर में चर्चा पाती थीं।
उसकी दुधारू भैंसे देखकर हर कोई ईर्ष्या करता था।
वहीं  गांव के पश्चिमी छोर पर घर था माधोसिंग का, कच्चा मकान, छोटा लेकिन व्यवस्थित।

माधोसिंग के पास ज्यादा जमीन नहीं थी अतः वह दूसरे किसानों की जमीनों में मजदूरी करता था।
माधोसिंग की एक बेटी थी 'नीला' अठारह उन्नीस वर्ष की, अल्हड़, बेफिक्र, हवा में बादल सी उड़ती, चिड़िया सी चहकती, सांवली, सुंदर और खूब हंसमुख थी नीला।

नीला काम मे माधोसिंग का हाथ बंटाती खुद भी खेतों में मटर तोड़ने, गाजर उखाड़ने या निराई गुड़ाई करने का काम करती थी।

आज माधोसिंग को कल्लू( कालीचरण सिंह) ने बुलाया था कुछ आलू निकालकर और मटर तोड़ कर मंडी भेजना था।

लेकिन माधोसिंग को अचानक कहीं बाहर जाना पड़ा, तो उसने नीला से कहा था कि वह जाकर मटर की तुड़ाई कर दे। बाकी आलू कल्लू खुद निकाल लेगा और माधोसिंग लौटकर मंडी छोड़ आएगा।

उछलती, कूदती, नीला जब खेतों पर पहुंची तो कल्लू खेत में दण्ड पेल रहा था, नीला उसके सामने जाकर खड़ी हो गयी।

"आज पिताजी को कहीं जाना पड़ गया तो वे तो नई आएंगे मैं फली तोड़ दूंगी तुम आलू  खोद लो", नीला जोर से बोली।

कल्लू ने मुंडी उठाकर नीला को देखा तो देखता ही रह गया, नीला का सांवरा मुखड़ा लंबे काले बाल गुलाबी होंठ, गहरी काली चमकदार आंखे, कल्लू उनमें डूबकर ही रह गया वह सब कुछ भूलकर एकटक नीला को देख रहा था।

नीला भी कल्लू को यूं बाबला हुए उसे घूरते देख शरमा गयी,उसकी  जबानी के अरमान कल्लू की इन नज़रों का अर्थ अच्छी तरह समझ रहे थे।
नीला को आज कल्लू का इस तरह सुध-बुध भूल कर उसे देखना अच्छा लग रहा था, वह खुद कल्लू के भरपूर जवान अल्हड़ रूप पर मुग्ध थी।
"क्या हुआ ऐसे क्या देख रहे हो कालीचरण??" नीला धीरे से मुस्कुरा कर बोली।

"क.. क ..कुछ नहीं नीलू , तेरे बापू कहाँ गए ? सब ठीक तो है?" 
कल्लू की आंखें अब भी नीला के मुखड़े पर ही जमी हुई थीं।

"हां सब ठीक है, बस उन्हें कुछ काम आ गया तो जाना पड़ा, तीन चार घण्टे में आ जाएंगे पिताजी।" नीलू मुस्कुरा कर बोली।

"अच्छा, फिर तू अकेली मटर तोड़ेगी?" कल्लू ने उसकी आँखों में देखते हुए पूछा।

"हां तब तक तुम आलू खोदो", नीला मुस्कुरा कर बोली।

"क्यों ना पहले हम मिलकर मटर तोड़ें, उसके बाद मैं आलू खोदूँगा तुम बीनना", कल्लू बराबर उसकी आँखों में देखते हुए बोला।

"ठीक है लेकिन ये आज तुम मुझे ऐसे क्यों घूर रहे हो जैसे पहले कभी देखा ना हो मुझे", नीलू मन ही मन खुश होते हुए बोली।

"आयें,, ह हाँ, आज तुम बहुत अलग लग रही हो नीलू,, बहुत सुंदर", कल्लू ने धीरे से कहा।

"सच??", नीलू ने शरमा कर धीरे से कहा।

"सच तेरी कसम,  आज जाने क्यों तुझे देखते रहने का मन कर रहा है नीलू", कल्लू मुस्कुरा कर बोला।

नीला और कल्लू दोनों एक साथ मटर की फलियां तोड़ने लगे जिसमें न जाने कितनी बार इनकी उंगलियां आपस में टकराई या कहो टकरायी गयीं।
और आंखे तो ऐसे चिपकी रहीं मानो बरसों की बिछड़ी हों।
नीला के बापू शाम को आये तब तक दोनों(नीला और कल्लू) आँखों ही आंखों में एक रिश्ता जोड़ चुके थे।

कल्लू ओर नीला इस एक ही मुलाकात में एक दूसरे के हो गए,ऐसा नहीं था कि दोनों पहली बार मिले थे लेकिन असज की मुलाकात ही कुछ अलग थी।
रात भर दोनों एक दूसरे के बारे में ही सोचते रहे और सुबह फिर दौड़े खेत में जहां उन्हें मटर तोड़ने की नहीं आंखे जोड़ने की जल्दी थी।

अब नीला कल्लू के अलाबा किसी ओर के खेतों में काम नहीं करती,,काम ना रहने पर भी रोज नीला कल्लू के खेतों में जाती है ,दोनों देर तक कभी अरहर तो कभी तिल की फसल से घास निकालते हैं।
आज उनके पहले मिलन को साल से ज्यादा हो गया, अब तो दबी जुबान में लोग इनकी चर्चा भी करने लगे हैं।


आज सरपंच जी ने कल्लू को बुलाया और पूछा ," कल्लू ये जो तुम्हारे ओर माधो की लड़की के बारे में फैली है क्या ये बात सच है?" 
देखो हमारा छोटा सा गांव है सभी लोगों में भाई चारे के माहौल है।
ओर फिर माधो ओर तुम तो विरादरी के भी हो तो तुम्हारा ओर नीला का रिश्ता भाई बहन से ज्यादा नहीं हो सकता मुखे यकीन है तुम गांव की परंपरा और अपनी मर्यादा का ध्यान रखोगे।

सरपंच से मिलकर लौट कर कल्लू बहुत परेशान हो गया।
क्यों वह दिल के हाथों मजबूर हुए क्यों उनका रिश्ता दोस्ती से आगे ,,,
ओर फिर अब तो ये चाहकर भी भाई बहन नहीं बन सकते, उसे याद आ गयी वह बरसात जब दोनों अरहर की घास निकाल रहे थे।
उस दिन बारिश ने इनके तन के साथ मन को भी भिगो दिया था , ये दोनों अपने प्यार में सीमाएं लांघ गए थे उस दिन।
कल्लू ने उसी दिन नीला की मांग में खेत की मिट्टी से निशानी लगा कर इसे प्रकृति को साक्षी मान कर रिश्ता मजबूत कर लिया था, और उसके बाद बारिश में भीगते हुए दोनों पिघल कर एक दूसरे में समा कर बरसात से बह गए थे।

नीला के आते ही कल्लू ने उदास होकर सारी बात उसे बतायी।
तो!! अब। क्या होगा जी?? नीला तो लगभग रोने ही लगी।।

चल,, कल्लू ने नीला का हाथ कसकर पकड़ लिया और चल दिया नीला के घर।

घर जाकर उसने माधोसिंग के पांव छूकर कहा," हम प्रेम करते हैं चाचा  विवाह भी कर लिया हमने इंदर देवता के सामने अब बस तुम इसे गांव के सामने मान लो"।
अब हमारा रिश्ता बहुत आगे बढ़ गत है चाचा, कल्लू आंखों में पानी भर लाया।

मेरे मानने से कुछ नही होगा बच्चों, हमारी पनचेत इस बात को नई मानती , गांव के सारे लड़के लड़की भाई बहन हो सके है बस बाकी कुछ नई।
सरपंच ने मुझे भी धमकी दी कि मैं अपनी लड़की को समझा दूँ, नहीं तो मुझे भी सज़ा मिलेगी।

पंचेत की नज़र में एक गांव के लोगो की शादी पाप है, ओर ऐसे पाप से गांव पे मुशीबत अस सकती है।

लेकिन चाचा हमतो गांव के अलग अलग छोर पर रहते हैं इर फिर एक ही जाती बिरादरी,,,

वो सब ठीक है बेटा लेकिन पंचेत नही मानेगी।

तो चाचा मैं गांव छोड़के शहर में?? 
नही होगा बेटा कोई नहीं मानेगा तब भी।

तू नीला को भूल जा कल्लू छोड़ दे अपनी जिद।

नही चाचा मैं पंचयात से बात करूंगा कल्लू कहकर चला गया।

पंचयात बैठी हुई थी सभी एक ही बात कह रहे थे," एक गांव के लड़के लड़की की शादी, मतलब भाई बहन की शादी मतलब महापाप।
हम गांव में ये पाप हरगिज नहीं होने देंगे, इस रक्षा बंधन को नीला पंचात के सामने कल्लू को राखी बांधेगी बस , सरपंच ने फैसला सुना दिया।

चार दिन बाद ही तो रक्षाबंधन है, कल्लू सोच रहा था इधर नीला का रो रोकर बुरा हाल था, माधोसिंग उसे समझा रहा था, पंचायत के फैसले से माधो भी दुखी था, वह कहीं न7 कहीं चाहता था कि उसकी इकलौती बेटी उसकी आँखों के सामने रहे,, ओर फिर कल्लू जैसा खुशाल मेहनती किसान उसे कहाँ मिलेगा।
लेकिन पंचयात से विरोध करके भी तो,,, माधोसिंग की आंखे गीली थीं।

हम आज रात ही गांव छोड़ देंगे चाचा कल्लू ने अपना फैसला सुनाया,, जबाब में माधोसिंग कुछ नही बोला बस उसे जाते देखता रहा।


रात को कल्लू रात भर नीलू का इंतज़ार करता रहा सड़क पर जहां से बस पकड़कर उन्हें शहर जाना था लेकिन नीलू नहीं आयी।

सुबह हो चली थी कल्लू उदास परेशान धीरे धीरे गांव लौट रहा था तभी उसे उसका दोस्त बिल्लू दौड़ता आता दिखा,, 

बो नीला,, नीला!! मर गयी रात कल्लू। बिल्लू हाँफते हुए बोला।
क्या मेरी नीलू!! कल्लू सर पकड़कर बैठ गया।

माधोसिंग जोर जोर से रो रहा था छाती पीट रहा था तभी कल्लू दौड़ता हुआ आया और माधोसिंग से लिपट कर रोने लगा,, क्या हुआ तंग चाचा नीलू को??ऐसे अचानक कैसे??

उल्टी दस्त लगे थे उसे रात भर में पेट का पानी खत्म हो गया इर दवाई इलाज न होने से मर गयी।
सरपँच ने कहा उसके चाहते पर इस वक़्त दुख नहीं बल्कि कुटिल मुस्कान थी।

चलो चलो रोने धोने से कुछ नहीं होगा लाश को ठिकाने लगाओ जल्दी पूरा गांव तब तक कुछ नहीं खायेगा जब तक इसकी चिता नहीं जलेगी।

नीलू की लाश को अर्थी में रखते समय कल्लू ने धीरे से उसकी मांग में सिंदूर लगा दिया, और श्मशान में माधो की मदद करने के बहाने अग्नि भी कल्लू ने ही,,,
कल्लू ने धीरे से अपने पति होने के कर्तव्य निभा लिए।

कल्लू ने उसके बाद शादी नहीं की, अब माधोसिंग ओर कल्लू साथ ही रहते हैं, कल्लू माधोसिंग के लिए उसका बेटा ही है।
माधोसिंग ने कल्लू को कब का बता दिया की नीलू को उस दिन किसी ने जहर,,, लेकिन दोनों पंचायत के डर से खामोश ही रहते हैं।

©नृपेन्द्र शर्मा"सागर"

#यात्रा वृतांत/ नीलकंठ की यात्रा

अगस्त, 2007 बरसात अपने पूरे यौवन पर थी बादल कई बार दिन को ही रात बनाकर खेल रहे थे।
सावन का पावन महीना था भक्त भीगते झूमते बाबा(भोलेनाथ)" को मनाने कांवर उठाये हरिद्वार से जल भरकर अपने अपने श्रद्धा धाम की और दौड़ रहे थे।
चारों और वातावरण भोले की बम से गूँज रहा था।

"सावन की शिवरात्री को क्यों ना नीलकण्ठ में जाकर जल चढ़या जाए",मैंने अपने मित्र नरेंद्र सिंह आरोलिया से कहा।
बहुत अच्छा विचार है यार चलो प्रोग्राम बनाते हैं, "कल तय करते हैं कैसे चलना है और बाकी लोगों से भी पूछ लेते हैं नरेंद्र ने कहा।

अगले दिन मैं नरेंद्र, के.के.सिंह के साथ हमारे तीन और मित्रों
का जाने का तय हुआ कि रविवार को सुबह बस पकड़ेंगे पूरा दिन हरिद्वार घूमेंगे उसके बाद शाम को निकल जाएंगे ऋषिकेश के लिए।
रात को गीता भवन में रुकेंगे वे सुबह चार बजे से नीलकण्ठ की चढ़ाई,,,

कई दिन से मौसम अमूमन साफ ही था, हमारी तैयारी पूरी थी शनिवार की शाम को ही हमने अपने बैग सही कर लिए माता जी ने पूरियां और सुखी सब्जी की सारी तैयारी कर दी , सुबह जब तक तुम नहाकर तैयार होंगे पूरी बन जाएगी माँ ने कहा।
भोलेनाथ की जय बोल कर प्रसन्न मन से शनिवार की रात को मैं सो गया।

रात कोई दो बजे बदल गड़गड़ाने की जोर की आवाजें आने लगी देखते ही देखते मूसलाधार बारिश होने लगी सुबह के पांच बजे तक चारों ओर पानी ही पानी हो गया, बारिश के रूप में जैसे भोले नाथ हमारी परीक्षा ले रहे थे हम हाथ जोड़े प्रार्थना कर रहे थे लेकिन बारिश के रूप में बाबा का क्रोध बढ़ता ही जा रहा था।

"क्या किया जाय" ?? मैंने नरेंद्र को फ़ोन किया।
नरेंद्र ओर कृष्णकुमार एक ही साथ एक मकान में किराए से रहते थे और मैं कोई दस मिनट के रास्ते पर दूसरे मकान में हम सभी किराये से रहते थे।
करना क्या है चलेंगे , सारी तैयारी पूरी है अब हम किसी भी परीक्षा के लिए तैयार हैं।

ठीक है फिर तुम सामने देखो क्या कोई बस मिलेगी काशीपुर जाने के लिए? 
हमारे बाकी तीन मित्र काशीपुर(उधमसिंह नगर उत्तराखण्ड) में रहते थे और हरिद्वार की बस हमें वहीं से मिलनी थी।

कोई बस नहीं है यार चारो तरफ घुटनो तक पानी भरा हुआ है और बारिश भी रुकने का नाम नहीं ले रही, नरेंद्र ने मुझे फ़ोन करके बताया।
फिर?? मैंने पूछा।
किसी तरह काशीपुर पहुंच जाएं फिर तो रोडवेज की बस मिल जाएगी नरेंद्र ने कहा।
ठीक है मैं बाइक लेकर आता हूँ तुम लोग निकलो मैंने अपना बैग लिया और बाइक उठा कर भोले की जय बोल कर निकल गया।

हम तीन लोग बाइक से भरी बारिश में किसी तरह काशीपुर पहुंचे कई बार तो मार्ग में इतना पानी भरा था कि बाइक का बस हैन्डल ही दिख रहा था,कितनी ही बार पानी में तैरते सांप हमारा रास्ता काट रहे थे।
हम लगातार जय भोले की बोल रहे थे।

काशीपुर पहुंच कर पाता लगा कि बाकी तीनों लोगों का प्रोग्राम कैंसिल है इतनी बारिश में उनकी हिम्मत नहीं हुई चलने की।
हमने बाइक उनके रूम पर खड़ी की ओर कभी घुटनों कभी कमर तक पानी में होकर आ गये बस अड्डे पर।

हमारे कपड़े पूरी तरह भीगे हुए थे बारिश थमने के कपि आसार नहीं थे कहीं ना कहीं मन मे ख्याल था कि कहीं हमने कोई गलती तो नहीं कि ऐसे खराब मौसम में चलने का निर्णय करके।
लेकिन मन मे एक ही भाव था कि बाबा का बुलाबा है तो सब ठीक होगा।

आधे घण्टे बाद एक बस आयी जो हरिद्वार जा रही थी उसमें आठ दस लोग बैठे हुए थे उन्हें देखकर हमे लगा कि हम अकेले नहीं है इस बरसात में सफर करने बाले।
बस में बैठकर सबसे पहले हमने कपड़े बदले, कपड़े क्या बस लुंगी और बनियान,, बाकी गीले कपड़े निचोड़ कर बस की खिड़की के सामने डाल लिए और नीलकण्ठ बाबा को याद करते उनकी जय बोलते रहे।

ठीक दस बजे हम लोग हरिद्वार पहुंच गए अब बारिश बहुत हल्की हो गयी थी हमलोग ने खुशी खुशी हर की पैड़ी पर स्नान किया गंगा मैया के मंदिर में दर्शन करके जल भरकर हम आगे चल दिये।
आगे हमने वैष्णोदेवी मन्दिर, भारतमाता मन्दिर और अन्य कई मंदिरों में दर्शन किया जो सारे एक ही रास्ते पर है हरिद्वार ऋषिकेश मार्ग पर उसके आगे शांतिकुंज है।

शाम चार बजे हम लोग ऋषिकेश पहुंच गए, रामझूला पार करके हमने वेदांतनिकेन में रहने की व्यवस्था की ओर समान रखकर घूमने निकल गए, बारिश अभी भी माध्यम गति से हो रही थी।
हमने रामझूला के पास शाम को फिर गंगास्नान किया और गंगा आरती में शामिल हुए, गङ्गा आरती बहुत भव्य तरीके से होती है बहुत मोहक दर्शय होता है।
मन आत्मा भक्ति से भर गए, मार्ग के सारे कष्ट सारी थकान मिट गई।
उसके बाद हमने चोटी बाला भोजनालय में खाना खाया और धर्मशाला आकर आराम किया।
हमारे पास पहनने के लिए एक भी सूखा कपड़ा नहीं था तो वही, लुंगी ओर कुर्ता,,,

सुबह तीन बजे उठ कर हम नित्यकर्मों से निपट कर फिर गंगा मैया के पास पहुंचे हमने गङ्गा स्नान करके सुबह ठीक चार बजे पैदल मार्ग से नीलकण्ठ की यात्रा नीलकण्ठ की जय के साथ प्रारम्भ की।

नीलकण्ठ धाम ऋषिकेश रामझूला से पैदल 16 किलोमीटर ओर मोटरमार्ग से 25 किलोमीटर की दूरी पर है।
ये स्थान "मुनि की रेती", में आता है।
मोटर मार्ग से लगातार टैक्सियाँ मिलती रहती हैं।
हमने पैदल मार्ग चुना और पूरे जोश से चलने लगे नीलकण्ठ की जय बोलते हुए।
मार्ग बहुत सँकरा और ऊबड़खाबड़ था ऊपर से लगातार होती बारिश से फिसलन भी बहुत हो रही थी फिर भी नीलकण्ठ की जय बाबा की बम के नारे और लोगों की बढ़ती भीड़ हमारे पैरों में पंख लगा रही थी।

कई जगह चढ़ाई इतनी अधिक थी कि हमारी सांस फूल जाती, ऊपर से पूरे मार्ग में पीने का पानी उपलब्ध नहीं था (पानी की बोतल साथ ले कर जाएँ)हर जगह बस जलजीरा शिकंजी कोल्डड्रिंक ही बिक रही थी।

कोई आठ बजे हम लोग मंदिर के सामने लगी आधा किलोमीटर लंबी लाइन में जा लगे मन मे बहुत प्रसन्नता थी कि अब हमें हमारे इष्ट के दर्शन होने बाले हैं।
लगातार जयकार करते भजन गाते लोग और धीरे धीरे सरकती लाइन,,,
11 बजे तक हम लोग नीलकण्ठ बाबा पर जल चढ़ा कर बाहर आ गए नीलकण्ठ धाम एक गहरी घाटी में स्थित है चारो ओर ऊंची पहाड़ियां और बीच में रख गोल घाटी बहुत सुंदर लगती है।
सावन में तो वहां इतनी भीड़ हो जाती है कि दर्शन करना मुश्किल होता है।
हमारे पूरे मार्ग में बारिश एक पल भी नहीं रुकी थी, नीलकण्ठ घाटी में ऐसे भी ज्यादा बारिश होती है।

वहाँ से हमलोग ऊपर सिद्धबाबा के दर्शन करने पहुंचे जो स्थान हनुमान जी को समर्पित है, वहाँ की चढ़ाई बिल्कुल खड़ी है, सांस फूल जाती है पहुंचते पहुंचते।

वहाँ दर्शन करके हमलोगों ने माता पार्वती के दर्शन के लिए पार्वती धाम का मार्ग लिया , पार्वती मन्दिर नीलकण्ठ से कोई चार किलोमीटर ऊपर है रास्ता ऊबड़खाबड़ ओर सँकरा था ऊपर से चढ़ाई भी अधिक थी(अब पार्वती मंदिर के दो किलोमीटर पास तक मोटर मार्ग बन गया है)
कोई दो घण्टे में हम लोग माता पार्वती के सामने थे, माता का रूप बहुत सौम्य वात्सलय है मन्दिर भी काफी बड़ा है और वहाँ पर्वत के दर्शय भी बहुत रमणीक हैं।

वहां मीठे नीम(कड़ी पत्ता) की पकोड़ी बहुत प्रसिद्ध हैं जो आपको पूरे नीलकण्ठ मार्ग में मिलेगी।
वहां से कोई दो कोलोमिटर ऊपर झिलमिल गुफा है और झिलमिल से कोई आधा किलोमीटर गणेश गुफा।
गणेश गुफा तो लगता है सीधे खड़े पर्वत में ही बनी है ।

बापसी में हमने मोटर मार्ग लिया और छः बजे तक बापस हरिद्वार पहुंच गए।
हमारी इस पूरी यात्रा में कभी भी बरसात बन्द नहीं हुई और मौसम की भयावहता ने एक पल के लिए भी हमारा ध्यान हमारे इष्ट के चरणों से हटने नहीं दिया।
रात कोई दो बजे तक हम लोग अपने घर पहुंच गए थे।

उसी बर्ष हमलोगों ने अपने खुद के मकान बनाने प्रारम्भ कर दिए थे ये हमारी उस परीक्षा का फल था।
अगली शिवरात्रि(फरवरी) हमने अपने खुद के घर में मनाई।
हम तीनों लोग अब अपने खुद के मकानों में रहते हैं।
और प्रयास रहता है कि बर्ष में एक बार बाबा नीलकण्ठ का धन्यवाद करने उनके धाम पर सर अवश्य झुका आएं।
इस यात्रा को हम कभी नहीं भूलेंगे बहुत अविस्मरणीय यात्रा थी वह।

बहुत शक्ति है नीलकण्ठ बाबा की , जो मांगो मिलता है बस भक्ति अच्छी और श्रद्धा सच्ची होनी चाहिए।
बोलिये नीलकण्ठ बाबा की जय।
नृपेन्द्र शर्मा

#कहानी/ मूर्ति

आज फिर खाना नहीं बना फूलो?? हारा थका लालू झोंपड़ी के बाहर ठंडे चूल्हे को गीली आंखों से देखता हुआ बोला।

कहाँ से बने कित्ते दिन है गए तुम कुछ लाये कमा के फूलो तुनकती हुई बोली।
क्या करूँ फूलो आजकल मूर्ति बनती ही नहीं ठीक से कई पत्थर टूट जाते हैं कुछ मूर्ति बनत भी है तो उसमें सुघड़ता नई आबे।
अब बता मेरा क्या दोष है मैं तो सुबह से शाम लगा देता हूँ मूर्ति गढ़ने में, लालू दीवार का सहारा लेकर जमीन पर बैठते हुए बोला।
लालू  35-40 साल का कृषकाय युवक है जिसकी आंखे पीली होकर गढ्ढे में धंस गयी हैं, वह मंदिर से कुछ दूर पत्थर की मूर्ति बना कर बेचता है, फूलवती उसकी पत्नी है, उसे भी जीर्णता ने बेरंग बना दिया है कभी उसे देखकर लालू कहता था, "मेरी फूलो भगवान की बनाई सबसे सुंदर मूर्ति है" और आखिर हो भी क्यों ना मैं भी तो उस भगवान की इतनी सुंदर मूर्तियां गढ़ता हूँ, ना जाने कितने मंदिरों में मेरी बनाई मूर्ति की पूजा होती। लालू गर्व से कहता तभी तो उसने मेरे लिए संसार की सबसे सुंदर मूर्ति बनाकर भेजी, और फूलो शर्म से लाल होकर उसमे समा जाती।

लालू की बनाई सुंदर मुर्तिया अच्छे पैसे में बिकती थी घर ठीक ठाक चल रहा था लेकिन कुछ दिन से मंदिर के आस पास प्लास्टर ऑफ पेरिस से मूर्ति बनाने वाले लोग आ गए उनकी बनाई मूर्ति देखने में सुंदर बजन में हल्की ओर कीमत में आधी से भी कम, अस्तु लालू के काम पर इसका बुरा असर हुआ, उसकी बनाई मूर्ति की बिक्री घट कर ना के बराबर हो गयी।
काम मन्द होने से घर में भुखमरी के हालात बनने लगे,उसी बीच फूलो को दो बार बच्चा हुआ लेकिन कुपोषण ओर कमजोरी के चलते दोनों बार मोत उन्हें अपने साथ ले गयी और उसके बाद तो डॉक्टर ने उन्हें मना कर दिया कि अब अगर बच्चा हुआ तो फूलो की जिंदगी बचाना मुश्किल हो जाएगा।

कोई बात नहीं फूलो ऐसे भी हम बच्चों को हैब खिला पिला नहीं सकते तो हमें उन्हें दुनिया में लाना भी नहीं चाहिए और फिर अबतो उस ऊपर बाले की भी यही इच्छा है। लालू ने फूलो को सीने से लगा कर प्यार से समझाया था।
फूलों ने भी दिल पर पत्थर रख इसे अपनी किस्मत मान लिया था।

लेकिन आज तीन दिन से लालू एक भी मूर्ति बेच नहीं पाया है  घर में  अनाज का दाना तक नहीं है लालू इतना कमजोर हो रहा है कि पत्थर तराशने जैसा बारीक काम उसके लिए असम्भव हो चला है, आज फूलो पहली बार दुखी और बराज होकर बोली," अरे मन्दिर के बाहर बैठा भिखारी भी कभी भूखा नहीं सोता, तुम तो उसकी मूर्ति बनाते हो जिनमे लोग इसके दर्शन करके उस भगवान की पूजा करते हैं।
जाने क्या माया है तुम्हारे भगबान की जो एक उसके नाम पर मांग खाता है और जिसकी बजह से लोग उसका नाम बार बार लेते हैं वो मूर्ति बाला भूखा सोता है, बन्द करो तुम भी ये मूर्ति का काम अरे इससे तो अच्छा दोनों भीख ही मांग खाये, फूलो की आंखों से आंसू बहने लगे आज वह जी भर कर भगवान को कोस रही थी जो मन में आ रहा था बुरा भला कह रही थी।
और लालू हाथ जोड़े बस एक ही प्रार्थना कर रहा था कि हे मालिक ये नहीं जानती की कितनी चोटें खाकर एक पत्थर मूर्ति बन पाता है अगर ऐसे दुख पीड़ा से टूट जाये तो उसकी किस्मत सड़क की कंकर बनकर रह जाती है ,मैं जानता हूँ प्रभु ये हमारी परीक्षा है और तूने जरूर हमारे लिए कुछ अच्छा सोच रखा होगा, उसे विस्वास था कि भगवान फूलो की गलती को माफ करेगा और उनका जीवन एक दिन ज़रूर बदलेगा।

इसी प्रार्थना में लालू को कब नींद आयी उसे पता भी नहीं चला उसकी नींद खुली एक तेज़ आवाज से जो उसकी झोपड़ी का दरवाजा जोर जोर से पीटने से आ रही थी।

लालू जल्दी से उठ कर बाहर आया बाहर दो बड़ी बड़ी गाड़ियां खड़ी थीं और कुछ लोग  उसके सामने खड़े थे।

जी मालिक??लालू डरा सहमा हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।
तुम्ही मूर्तिकार हो? उनमें से एक नए पूछा।

जी सरकार मैं ही हूँ।

सेठजी एक बड़ा मंदिर बना रहे हैं उसमें बीस पच्चीस मूर्तियां बनानी हैं बना लोगे?उस व्यक्ति ने पूछा।

जी मालिक हो जाएगा।
ठीक है चलो हमारे साथ, इस बार सेठजी ने कहा।
वो हुजूर मेरी पत्नी?? लालू ने कुछ बोलना चाहा।

आप दोनों के रहने खाने का इंतज़ाम मंदिर के पास ही रहेगा ये लो कुछ रुपये ओर हमारा पता तुम लोग एक हफ्ते में यहाँ से कम खत्म करके आ जाना, कहकर ये लोग चले गए।
लालू हाथ जोड़े देर तक उन्हें जाते देखता रहा।

ये ले फूलो पूरे पांच हजार रुपए हैं , जब पेशगी इतनी बड़ी है तो कम कितना बड़ा होगा सोच।
आज भगवान ने तेरी सुन ली भगवान चल अब चलने की तैयारी कर, मैं बाजार से कुछ खाने पीने का सामान लाता हूँ तू ये पैसे सम्भाल।
कहकर लालू तेज़ी से निकल गया, और फूला भगवान के सामने आंसू बहाती बैठी अपनी गलतियों के लिए प्रयाश्चित करती उनकी कृपा के लिए धन्यवाद देने लगी।

आज उसे समझ आ गया था कि पत्थर को मूर्ति बनने के लिए कुछ चोट साहनी ही पड़ती हैं।

©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"