Wednesday, June 17, 2020

#रहस्य कथा/इंतज़ार करना

पुरानी कहानी (ये कहानी मैने गांव में किसी से सुनी थी)

बहुत पहले किसी गांव में एक किसान रहता था, उसके पास बहुत खेत थे इसीलिए गांव के लोग उन्हें चौधरी कहते थे।

पुराने जमाने में लोग सुबह जल्दी उठ कर दिशा मैदान(शौच) 
आदि के लिए जंगल जाते थे।
चौधरी साब भी रोज सुबह मुंह अंधेरे ही जंगल चले जाते थे।
चौधरी साब ऐसे  भी घर से कुछ दूरी पर बनी बैठक पर ही रहते थे।

उस दिन भी चौधरी साब सुबह चार बजे ही जंगल के लिए चल दिये।
जुलाई के महीने शुरू हो चुका था एकाध बार हल्की बारिश भी हुई थी फिर भी सुबह चार बजे उषाकाल का हल्का उजाला दिखने लगता था।
चौधरी साब ने जेजे ही गांव के बाहर बने कुएं को पर किया उन्हें एक बहुत सुंदर स्त्री गहनों से लदी कुएं की जगत (कुएं के ऊपर जो दीवार का घेरा होता है) पर बैठी दिखी।
उसके गहने अँधेरे में भी दूर से चमक रहे थे, उसे देखकर पहले तो चौधरी साब डरे क्योंकि उन्होंने बहुत लोगों से सुना था कि उक्त कुएं में माया रहती है।
लोग कहते थे कि माया लोगों को आवाज लगाती है मिंटू अगर कोई तीन बार पुकारने पर भी नहीं सुनता तो बापस कुएं में कूद जाती है।
चौधरी ने सोचा कि वह भी उसे अनसुना करके निकल जाएंगे, और चुपचाप चलने लगे, जैसे ही वे उसके पास पहुंचे उस स्त्री ने आवाज लगायी," सुन मुसाफिर जाने वाले धन दौलत से घर भर दूंगी, बदले में पहला फल लूँगी"।
चौधरी ने विचार किया माया है अब इसके पहले फल का क्या मतलब है ये पता नही बदले में क्या मांगले, तो उन्होंने उसे अनसुना कर दिया और चलने लगे।
जैसे ही चौधरी ने एक और कदम बढ़ाया फिर आवाज आई ," सुन मुसाफ़िर जाने वाले धन और माया नहीं घटेगी पुस्तें बैठी खाएंगी पहले फल से सोडा कर ये घड़ी न वापस आएगी।

चौधरी का दिमाग बहुत तेज़ी से काम कर रहा था उसने फिर आगे कदम बढ़ाया।
माया ने फिर आवाज लगाई मुसाफिर ये अंतिम पुकार है अपर सम्पदा को तेरी हां का इंतज़ार है।

अब तक चौधरी सोच चुका था कि उसे क्या करना है वह तपाक से बोला मेरी एक शर्त है।

क्या? माया ने पूछा।

आप मेरे घर चली जाए और मेरे लौट कर आने टास्क इंतज़ार करें उसके बाद आप जो मांगेंगी मैं आकर दे दूँगा।

ठीक है, माया ने जबाब दिया।

ऐसे नहीं, चौधरी ने हंस कर कहा।

फिर कैसे? माया ने पूछा।

आप वचन दीजिये मुझे की आप मेरे घर  से तब तक कहीं नहीं जाएंगी जब तक मैं लौट कर घर नहीं आता, और मेटे आने तक मेरे घर मे किसी को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचाएंगी। चौधरी ने हाथ बढ़ाकर कहा।

ठीक है हमने वचन दिया, कहकर माया ने अपना हाथ उसके हाथ पर रख दिया।

माया चौधरी के घर आ गयीं किन्तु चौधरी कभी घर लौट कर नहीं आया, वह वहीं से तीर्थ धाम करने निकल गया और अपनी यात्रा में ही कहीं मर गया।

माया आज भी चौधरी के घर पर उसके आने का इंतज़ार कर रही है, और चौधरी की पुस्तें माया की धन माया से सम्पन्न बनी हुई हैं।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"

#हॉरर/क्या था

अर्जुन या पंडित कभी कहीं अकेले गए हों बहुत कम होता था।
मौसी, मामा या बुआ के घर भी दोनो हमेशा साथ ही जाते थे, लेकिन उस दिन अर्जुन को अकेले सीता पुर जाना पड़ा।

सीता पुर नदी पर इनके गांव से कोई सात-आठ किलोमीटर दूर छोटा सा गांव था जहां अर्जुन की कोई रिश्ते की मौसी रहती थी, अर्जुन को किसी काम से जल्दी में उनके घर जाना पड़ा।
वह सुबह अकेला सायकल लेकर चल गया, लौटने में उसे रात हो गयी वह कोई दस ग्यारह बजे उधर से जंगल के रास्ते अकेला लौट रहा था।

अर्जुन जैसे ही नदी पार करके अपने गांव की सीमा में पहुंचा उसे सड़क पर कुछ लोग सामने से दौड़ते हुए आते दिखाई दिए जिन्होंने एक ही जैसे सफेद कपड़े पहन रखे थे।

इससे पहले की अर्जुन कुछ समझता या अलग बचकर चलता ये दौड़ते हुए उसे पार करके निकल गए और पीछे कुछ दूर जाकर सड़क पर घेरा बना कर सिर नीचे किये बैठ गए।

उफ़्फ़फ़!! ये क्या ? ये लोग ऐसे बिना टकराए कैसे मुझे पार कर गए जैसे मानो इंसान न हों हवा के झोंके हों,,
हवा!!?, अर्जुन सोचते हुए चोंका,, उसने इधर उधर देखा 

ये बिल्कुल उस जगह खड़ा था जहां धबल की भूत से कुश्ती हुई थी, अर्जुन का दिल धक-धक करने लगा,, 
तो क्या ये सच में भूत, कहीं छलाबा तो नहीं??,

सोचते हुए अर्जुन सायकल पकड़े गए बढ़ने लगा।

आगे कुछ ही दूर चला होगा  कि सामने सड़क पर राख का ऊंचा पहाड़ जैसा ढेर पड़ा था।

अब ये बीच सड़क पर रख किसने डाल दी यार, सारा रास्ता ही बन्द कर दिया थोड़ा बचाकर नहीं डाल सकता था,, सा,,,
अर्जुन गालियां देता हुआ बड़बड़ाने लगा।

अभी वह किधर से निकलूं ये सोच ही रहा था कि अचानक उस रख में हलचल होने लगी ।

देखते ही देखते राख ने एक बड़े मोटे सांप की आकृति ले ली और फन उठाकर उसके ठीक सामने खड़ा होकर फुफकारने लगा सांप कोई तीन चार फुट मोटा और करीब बीस तीस मीटर लंबा उसके ठीक सामने एक साथ कई फन लहराता फुंकार रहा था और हर फुंकार में भयानक गर्जना के साथ आग की लपटें भी निकल रही थी।

अर्जुन को मार्च की ठंडी रात में भी जेठ की दुपहरी जैसा पसीना आने लगा,, वह धीरे धीरे पीछे हटने लगा।

तभी उसे पीछे बैठे भूतों का ख्याल आता और उसके कदम रुक गए।

उसका दिल धुकधुकी और फेफड़े धौंकनी बने हुए थे, भय से उसके पैर कांप रहे थे।
वह ना आगे जा सकता था और न ही पीछे जा सकता था उसने निराशा में अपनी आंखें बंद कर लीं।
तभी उसके कानों में पंडित की आवाज गूँजी,, "हमारा डर ही छलाबे कि असली ताकत है और एक निश्चित दायरा उसकी सीमा रेखा जहां से वह हमें डराता है।

अर्जुन ने मुट्ठी भींचते हुए झटके से आंखे खोल दीं अब उसकी आँखों में डर के स्थान पर विस्वास और क्रोध था।

वह अपनी सायकल पर बैठा ओर बिना डरे उसने सायकल उस सांप की तरफ बढ़ा दी।
सांप बिल्कुल किसी बैल जैसी आवाज निकलते हुए फुंकारने लगा आग फेंकने लगा,, लेकिन वह अर्जुन को छू भी नहीं रहा था और अर्जुन बिना डरे आगे निकल आया।

थोड़ा ही आगे बढ़ा होगा कि वह भूतों की टोली उसे फिर से बीच सड़क पर नज़र आयी, उन्होंने कुछ हथियार लिए हुए थे और एक आदमी की गर्दन रेत रहे थे,, उनके बीच कुछ सर कटी लाशें पड़ी हुए थीं और उनमें से कुछ के मुंह पर खून भी लगा हुआ था।
सड़क पर भी खून फैला हुआ था उनके चेहरे बीभत्स नज़र आ रहे थे।

अर्जुन के कदम एक बार फिर ठिठके लेकिन फिर ना जाने क्या सोच कर उसके चेहरे पर मुस्कान फैल गयी और उसने सायकल आगे बढ़ा दी।

उसके बढ़ते ही उनके चेहरे बदलने लगे और ये लोग उसका रास्ता छोड़कर सड़क के दोनों ओर खड़े हो गए।
अर्जुन ने देखा वे लोग इसे देख कर मुस्कुरा रहे थे।

लौट कर अर्जुन घर आ गया लेकिन अब फिर से इसका दिल जोरों से धड़क रहा था।
अर्जुन ने सुबह सबसे पहले दौड़ कर पंडित को रात की सारी आपबीती सुनाई।
पंडित मुस्कुरस्ते हुए बोला चलो देख कर आते हैं उधर ही दिशा मैदान भी निबट लेंगे।

दोनो दोस्त सुबह सुबह नदी किनारे टहलते रहे और घटना से जुड़ी कोई संभावित चीज़ ढूंढते रहे लेकिन नाकाम रहने पर मुस्कुरस्ते हुए लौट आये।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
9045548008

#हॉरर/कौन थी वह

रात के कोई 10 बजे होंगे ब्रजेश माल उतार कर घर पहुंचने की जल्दी में ट्रक बहुत तेज़ चला रहा था।
उसके साथ था खलासी बिट्टू।

जैसे ही गाड़ी खूनी नाले को पार करके थोड़ी आगे बढ़ी,  उन्हें गाड़ी की लाइट में कोई बुर्खे बाली महिला हाथ हिला कर गाड़ी रूकवाने का प्रयास करती नज़र आयी।

"वो देखो उस्ताद औरत, अकेली इतनी रात में!! रोक लो उस्ताद किसी मुसिबत में लगती है। कहीं जाना होगा इसे," बिट्टू चहकते हुए बोला।

"अरे यार इतनी रात को अकेली औरत...? कहीं कोई मुसीबत ना हो," बृजेश ने ब्रेक पर पैर जमाते हुए कहा।

"अरे उस्ताद! क्या मुसीबत करेगी? ऐसे भी हम दो हैं और वह अकेली, और अगर पट गयी तो रास्ता मस्ती में....!  बिठा लो न उस्ताद", बिट्टू ने कुछ अर्थपूर्ण बात कही।

"चर्रर्र!!",  ब्रजेश ने उस औरत के पास जाकर जोर से ब्रेक मारकर गाड़ी रोक दी।

"क्या है?? कहाँ जाना है?", बिट्टू ने मुंह खिड़की से बाहर निकल कर पूछा।

"बस अगले गांव तक," उसने धीरे से जबाब दिया।

"आजाओ ऊपर", बिट्टू थोड़ा खिसककर जगह करते हुए बोला।

और गाड़ी आगे चल दी।

"अरे इतनी गर्मी है और आप मुंह ढक कर बैठी हो? आराम से बैठो", ब्रजेश ने उसे कनखियों से देखते हुए कहा।

"हाँ-हाँ!!  नकाब उलट दो मोहतरमा", बिट्टू उत्साहित होकर बोला।

"नही !! तुम बस चलते रहो", उसने दृढ़ता से कहा।


"अरे उठा भी दो ये नकाब आज हम भी चाँद देख लें," ब्रजेश वहशत से हँसते हुए बोला।

"नहीं..!!",  उसने दोबारा थोड़ा ज़ोर देते हुए कहा।

"अरे हटा भी दे इतना क्या भाव खाती है", बिट्टू ने कहा और उसका नकाब उलटने की कोशिश करने लगा।

"अच्छा गाड़ी रोको हटाती हूँ नकाब, आराम से देखना", उसने हँसकर कहा।
और ब्रजेश ने गाड़ी रोक दी।

"ठीक से देखना",  उसने नकाब उलटते हुए कहा,,,

"नहीं...!!"

उसके नकाब उलटते ही इन दोनो की चीख निकल गयी।

उसके चेहरे पर मांस के लोथड़े लटके हुए थे। लंबे-लंबे खूनी दांत बाहर दिख रहे थे और आंखें जैसे आग की बनी हुई थीं।

बहुत डरावना भूतिया चेहरा था उसका।

इन दोनों के चेहरे भय से पीले पड़ गए और इनकी आवाज इनके गले में घुट कर गों गों!! बनकर रह गयी।

"देख लिया??",  अब सीधे चलते रहो और जहां मैं कहूँ चुपचाप गाड़ी रोक देना",  उसने सर्द स्वर में कहा और नकाब डाल लिया।

ब्रजेश ने डरते डरते गाड़ी आगे बढ़ाई, अब वह दोनों उसकी तरफ देखने में भी घबरा रहे थे।

थोड़ा आगे जाकर उसने एक तालाब के किनारे गाड़ी रुकवायी और खिलखिलाते हुए गाड़ी से तालाब में छलांग लगा दी और पानी में गायब हो गयी।

ब्रजेश किसी तरह गाड़ी घर तो ले आया लेकिन तभी से एक महीने तक ये दोनों बुखार में पड़े रहे।

लेकिन वे किसी को कभी नही बता पाए कि,
कौन थी वह.....?

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

९०४५५४८००८

#हॉरर/सूखे सोत का भूत

कुछ दिन पहले एक इंग्लिश कहानी पढ़ी थी  "the canterville ghost" जिसका सारांश ये था कि ओटिस परिवार एक पुराना घर खरीदते हैं और उसमें रहने आ जाते हैं।

केंटरविले (उस घर) में एक भूत रहता है जो नहीं चाहता कि कोई और उस घर में रहकर उसकी शांति भंग करे,  उसने उन्हें डराने के लिए कई उपाय किये जैसे फर्श पर खून के धब्बे फैलाना, डरावनी हंसी हंसना कई तरह के भेष बदलना किन्तु ओटिस परिवार उसे नज़रंदाज़ करता रहा।
और बाद में परिवार के सदस्य उसे ही परेशान करने लगे और अंत में बहुत रोने लगा वह अपने 300 साल पुराने निवास को छोड़ गया।

इस कहानी को बताने का मेरा उद्देश्य वही है जो लोग हमेशा कहते हैं कि भूत हमेशा भय का होता है, भूत(छलाबा) हमारे डर को ही हमारे खिलाफ इस्तेमाल करता है।
वह हमें अभाषी दृश्य दिखाता है लेकिन हम अपने मन को दृढ़ रखें तो वह हमारे दिमाग पर कब्जा नही कर पाता और स्वम् ही डर कर या कहो हार कर चला जाता है।

मैने भी अपनी छलाबा सीरीज़ की हर कहानी में यही प्रयास किया है कि डर पर मजबूत इच्छाशक्ति की जीत हो, और आशा करता हूँ कि आप पाठकों को मेरी अर्जुन पंडित सीरीज की भूत गाथाएं पसंद आती होंगी।

आज मैं यहां एक छोटा सा संस्मरण लिख रहा हूँ ।

सूखे सोत का भूत,,
बात कोई बीस साल पुरानी है मैं और मेरा मित्र अर्जुन सिंह मेरे मामा के घर जा रहे थे, मेरे माना का घर कालागढ़ के पहाड़ी की तलहटी में बसा एक छोटा सा गांव है।

गांव तक जाने के लिए बस से उतर कर लगभग तीन किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था और हमारे यहां से लगभग साठ किलोमीटर बस से जाना पड़ता था।
घर से हम चाहे कितनी भी सुबह चलें, तीन बसें बदलकर वहाँ पहुचने में दोपहर हो ही जाती थी।
हम दोनों ठीक 12 बजे बस से उतरे और चल दिये पैदल गांव की ओर।
क्यों ना लंबे रास्ते के बजाए सूखे सोत (पहाड़ से बरसात का पानी लाने वाली एक गहरी नदी जैसी संरचना) से चलें जहां से हमे गांव जाने के लिए आधी दूरी (यही कोई दो किलोमीटर) ही चलना पड़ेगा,किन्तु उस रास्ते में तो जंगली जानवर??? अर्जुन ने कहा।
जंगली जानवर सदा अकेले आदमी पर हमला करते हैं, मैने समझाया।
और चोर खले का छलाबा??,अर्जुन फिर डरते हुए बोला।

अरे यार उस जगह का तो नाम ही चोर खला है वहाँ भूत का छलाबा नहीं रहता बल्कि चोर रहते हैं जो लोगों को डराकर उन्हें लूट लेते हैं, मैंने उसे बताया।
और हम दोनों आधा किलोमीटर सड़क पर चलकर सोत में उतर गए ये सोत मुख्य सड़क से लगभग दस मीटर गहरा और बीस मीटर चौड़ा किसी नदी के जैसा ही था जिसमें सुखी सफेद रेत भरी रहती थी और उसके दोनों किनारों पर घनी झाड़ियां तथा ऊंचे पेड़ लगे थे।
जून की भरी दोपहरी में भी उसके अंदर छाया के कारण अच्छी ठंडक हो रही थी।
हम दोनों लोग मज़े में चले जा रहे हे तभी हमने देखा चोर खले के पास (लगभग दस मीटर दूर) एक सरदार अजीब सी हरकते कर रहा था।
मैंने इशारे से अर्जुनसिंग को चुप रहते हुए रुकने का इशारा किया और सामने देखने को कहा।
वह सरदार डर से कांप रहा था वह अचानक जोर से गिर गया, ऐसा लग रहा था जैसे कोई उसे मार रहा है और वह अपने हाथ सामने करके बचने की कोशिश कर रहा है।
अचानक वह रेत में जोर से लुढका जैसे किसी ने उसे फेंका हो।

क्या है वहाँ?? अर्जुन ने पूछा ।
छलाबा,, मैंने सामने देखते हुए कहा।
क्या ये सरदार छलाबा है? अर्जुन ने फिर पूछा।

नहीं छलाबा इसके सामने है।

फिर हमें क्यों नही दिख रहा? अर्जुन ने फिर पूछा।
तभी सरदार अपनी गर्दन अपने दोनों हाथों से पकड़ कर किसी से छुड़ाने के प्रयास में खुद ही दबाने लगा।

आओ अर्जुन, मैने अर्जुन का हाथ पकड़कर उधर दौड़ लगा दी और अपनी बोतल का पानी जोर से उसके मुंह पर फेंक दिया।
पानी पड़ते ही सरदार जैसे नींद से जगा हो, वह चोंकते हुए बोला , कहाँ गया भूत??
तुम लोग कौन हो?? 

हम हैं अर्जुन और पंडित,मैने हँसते हुए कहा।

आपको क्या हुआ था?? अर्जुन ने पूछा।

भ, ,, भूत था यहाँ, मैं जैसे ही यहां आया वह इस खले(पाइप लाइन दबाने के लिए बने बड़े गड्ढे) से निकलकर अचानक मेरे सामने आ खड़ा हुआ ओर हंसते हुए बोला आगे जाना है तो मुझे कुश्ती में हरा कर जाओ।
मैने उसके सामने हाथ जोड़ दिए कि वह मुझे जाने दे मैं उसके मुकाबले बहुत कमजोर हूँ।
लेकिन वह मुझे उठा उठा कर पटकने लगा, वह तो मुझे गला दबाकर मार ही डालता अगर तुम दोनों मुझे बचा नहीं लेते।

आपको भूत नहीं आपका डर मार रहा था, अगर आपने हिम्मत करके उससे कहा होता कि आजा लड़ ले फिर वह चुपचाप भाग गया होता मैंने हंसते हुए कहा ।
आपको कहाँ जाना है आइये चलिए हमारे साथ अर्जुन बोला और हम हँसते हुए अपनी मंज़िल की ओर चल दिए।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
९०४५५४८००८

#हॉरर/माया की माया

बात पुरानी है, कोई तीस साल या उससे भी अधिक समय पहले की, रघुवरदयाल तीन भाइयों में सबसे छोटे थे।
सभी भाइयों के साथ संयुक्त परिवार में ही रहते थे।

उस समय उनकी आयु कोई चालीस बयालीस के आसपास रही होगी।
उनका घर बहुत बड़ा था घर के बाहर गुड़ बनाने का कोल्हू लगा था सामने पूरा बगीचा जिसमें आम अमरूद आड़ू ओर नाशपाती के पेड़ लगे थे, इसके बाद था उनका चार एकड़ का खेत।
घर के दरवाजे के दूसरी ओर बनी थी एक बड़ी सी दुआरी(दो कच्ची मिट्टी की दीवारों पर फूंस के छप्पर डाल कर बनी झोंपड़ी।) दुआरी गर्मी में स्वर्ग थी उसमें आज के a. c. से भी ज्यादी ठंडी हवा आती थी।
दुआरी में रखे बड़े घड़ों का पानी बिल्कुल ठंडा ओर मीठा।

दुआरी में हमेशा दो चार खटिया पड़ी होती थीं और वह सभी के लिए सदा खुली थी ।
कोई भी बिना रोकटोक वहां लेट जार थकान मिटा सकता था और पानी से प्यास बुझा सकता था।
अक्सर ताज़ा गुड़ भी वहां रखा ही रहता था जिसे चखने के लिए किसी को भी अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं थी।
दुआरी के सामने ही सड़क पर खड़े थे दो नीम और पाकड़ के बड़े पेड़।
गर्मी की रात में अक्सर पेड़ के नीचे ही सोने का आनंद लिया जाता था।
दयालु जी(रघुवरदयाल जी) अक्सर रात में दुआरी या पेड़ो के नीचे ही खटिया पर अपना बिस्तर लगाते थे।

रात के कोई ग्यारह साढ़े ग्यारह का समय रहा होगा, दयालु जी भरी नींद सो रहे थे ।

अचानक किसी ने उन्हें झिंझोड़ कर उठाया,
दयालु,, अरे उठो सोते रहोगे,,,देखो गांव के बाहर बड़े बड़(बरगद)के नीचे तुम्हारे लिए माया दबी है, है निकाल लाओ।
अकेले जाना और किसी को बताना मत वो सिर्फ तुम्हारे ही लिये है,,,।

दयालु जी आंखे मलते हुए उठे और बिना ये देखे की उठाने बाला कौन था, कहाँ गायब हो गया वह ,दयालु जी ने दुआरी से खुरपी और फावड़ी उठायी और चल पड़े पूर्व के रास्ते पर।

पूर्व का रास्ता बहुत गहरा पतला चकरोड का रास्ता था जिसके दोनो ओर बड़ी घनी झाड़ियां और फूंस उगा रहता था उधर दिन में भी अकेला आदमी जाते डरता था।
ऐसे में दयालु जी रात में अकेले चुपचाप चले जा रहे थे बरगद की ओर जो गांव से बाहर कोई एक किलोमीटर दूर होगा ।

रास्ते में स्यार झींगुर की आवाज गूंज रही थी जिससे बहुत डरावना माहौल हो रहा था किंतु दयालु जी के दिमाग में तो माया घूम रही थी और चल रही थीं योजनाएं।

अगर बहुत सी माया निकली तो वे एक ट्रेक्टिर लेंगे,, नही नहीं पहले पक्का मकान बनाएंगे,, बड़े भाई की बेटियां शादी लायक हो रही हैं उनकी शादी करा देंगे इस पैसे से,,, ऐसी कितनी योजनाएं कितने सपने बुनते दयालु जी पहुंच गए बरगद के पास।

बरगद का वह पेड़ सैकड़ो साल पुराना था और उसकी जटाओं बाद आसपास ऐसे कई पेड़ बना दिए थे,अब ये बरगद का पूरा बाग नज़र आता था किंतु वास्तव में ये एक ही पेड़ था।
दयालु जी ने इधर उधर खोजा बहुत देखने पर उन्हें एक जटा की जड़ में कुछ उभरा हुआ स्थान दिखाई दिया जहां खोदने पर इन्हें एक बड़ा मटका मिला जिसका मुंह कपड़े से बंधा था।
दयालु जी खिल उठे मटकी देखकर, उन्होंने मटकी अपनी धोती में छिपाई ओर तेज़ी से घर की तरफ लौट आये।
घर पहुंच कर दयालु जी जोर से आवाज लगाने लगे,, उठो सभी जागो,, देखो मुझे क्या मिला,, देखो,, वह चहकते हुए बोले,, ।

सभी हड़बड़ा कर उठे और पूछने लगे , क्या है??

श श श!!, अंदर चलो दयालु जी सभी को अंदर लेकर आये और मटकी सामने रखकर सारी बात बता दी।

खोलो,, उनके पिताजी ने कहा।

दयालु जी ने कांपते हाथों से मटके का कपड़ा हटाया,,, उसके नीचे मिट्टी का ढक्कन(पाला)  लगाया हुआ था उन्होंने धड़कते दिल के साथ ढक्कन खोल, सभी ने झांक कर देखा,, पूरा मटका कोयले से भरा था।

दयालु जी के कानों में वह आवाज गूंजने लगी,, 
वह सिर्फ तुम्हारे लिए है, ,, किसी को मत बताना,,
और वे सर पर हाथ रखकर बैठ गए।

आज भी वे ये नहीं समझ पाते कि क्या वह माया की कोई माया थी या किसी का गंभीर मज़ाक।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

9045548008

#हॉरर/डर पर जीत

एक दिन अर्जुन और पंडित जेठ की भरी दोपहरी में किसी काम से जंगल गए थे।

सूरज की गर्मी से  तप कर जमीन भी पिघलती महसूस हो रही थी, सामने दूर देखने पर हवा में कुछ लहराता हुआ सा लग रहा था।
लोग कहते हैं ऐसी दोपहरी में सुनसान स्थानों तालाबों या नदी के किनारे अक्सर छलाबा या भूत मिल जाता है।

अर्जुन और पंडित दोनो मित्र भूत को मानते तो थे किंतु भूत से डरते नहीं थे ।
जैसे ही ये दोनों चिरागबाली तालाब के पास पहुंचने लगे इन्हें तालाब में कुछ बिचित्र हलचल दिखाई देने लगी इन्हें लगा तालाब में कोई जानवर पानी पी रहा है।
(चिरागबाली तालाब वह जगह है जहां लोगों के मरने के बाद उनके नाम का दिया जलाया जाता है। रात में अक्सर वहां बहुत सारे चिराग जलते दिखाई दे जाते हैं।)

थोड़ा आगे बढ़ने पर इन्होंने देखा कि वह एक बहुत बड़ी भैंस है, लेकिन ये क्या इतनी बड़ी भैंस,, यार ये तो हाथी से भी बड़ी लग रही है, अर्जुन बोला।

हाँ यार ओर इसका मुंह तो देख किसी घोड़े के जैसा लग रहा है, पंडित ने कहा।

क्या है ये यार, अर्जुन कुछ घबराते हुए बोला।
छलाबा है यार, डर मत बस इसे नजरअंदाज करता चल फिर ये खुद भाग जाएगा, पंडित चलते चलते बोला।

कैसे नजरअंदाज करू यार इतनी बडी चीज़ को, अर्जुन घबराते हुए बोला।

चुप चाप चलता रह इधर उधर मत देख, पंडित ने कहा।

और आगे चलता रहा।

अभी कुछ ही कदम बढ़ाए होंगे कि वह छलाबा बहुत तेज़ गधे की सी हिनहिनाहट करने लगा और देखते ही देखते, वह एक गधे के मुंह बाला बहुत लंबा आदमी बन गया जो तालाब के बीच में पानी मे खड़ा होकर भयानक घुर्राहट कर रहा था।

अर्जुन बहुत घबरा रहा था और पंडित के पीछे छिपने की कोशिश कर रहा था लेकिन उसका बड़ा शरीर छोटे से पंडित के पीछे छिप नहीं पा रहा था।
फिर भी ये आगे बढ़ते हुए चलने लगे।

अब वह छलाबा बहुत तेज़ आवाज करते हुए अपने हाथ लंबे करके आसपास के पेड़ों की मोटी-मोटी डालियां तोड़कर तालाब में डालने लगा।
अर्जुन पंडित को डर लगने लगा था लेकिन पंडित जनता था कि उनका डर ही छलावे का सबसे बड़ा हथियार है और ये तालाब का पानी उसकी सीमा रेखा।

पंडित थोड़ा घूम कर तालाब से थोड़ा और दूर हो गया क्योंकि जाना तो इन्हें आगे ही था।

अचानक उन्हें किसी गाय के रंभाने की आवाज आई जैसे गाय रो रही हो।

इन्होंने देखा वह छलाबा बहुत बड़ा भेड़िया जैसा लग रहा था और उसने एक गाय को पकड़ा हुआ था।

इसकी तो साल निरीह गाय पर जोर दिखता है,,, कहते हुए अर्जुन ये भूल कर की वह छलावा है उस पर झपट पड़ा ।

अर्जुन रुक अरे रुक जा पहलवान,,, कहते हुए पंडित  भी उसके पीछे दौड़ा,, इधर छलाबा किसी आदमी की तरह जोर से हंसते हुए और लंबा होने लगा,,,
पंडित ने तालाब में पहुंचने से पहले ही अर्जुन के कंधे पर हाथ रख कर उसे रोक लिए ओर आंख से कुछ इशारा किया।

अब ये दोनों खेत से मिट्टी के ढ़ेले उठा कर उसे मारने लगे हर ढ़ेले की मार के बाद वह छोटा होने लगा और रोने जैसी आवाज निकलता हुआ तालाब में गायब हो गया।

ये दोनों दोस्त हंसते हुए आगे बढ़ गए,, इन्होंने अपने डर को हराकर, एक खतरनाक छलाबे को हरा दिया था।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

9045548008

#हॉरर/मैं नहीं डरता

हमारे गांव में एक व्यक्ति थे यही कोई पैंसठ वर्ष के, बड़ी डींगें मारते थे जैसे:-
अरे लल्ला तुम्हे क्या पता हमने तो शेरों के पंजे गिने हैं,, या बालकों एक बार तो रात में  भूत हुक्का पीने आ गया।
हम सभी बच्चे, तरुण ओर युवा शाम को खाना खाकर उनकी  कहानियां सुनने उनके चबूतरे पर इकट्ठे हो जाते थे।

दादा कोई नई बात बताओ आज, अर्जुन ने पूछा ओर मुझे देखकर धीरे से मुस्कुराया।

अरे लल्ला तुम्हे क्या पता एक बार तो रात को एक औरत मेरी  सायकल पर बैठ कर घर तक आ गई, वे अपने चिरपरिचित अंदाज़ में बोले।

कब! कैसे दादा सुनाओ ना, मैंने धीरे से कहा और बाकी सारे बच्चे हाँ  सुनाओ दादा की रट लगाने लगे।

अच्छा सुनो बे अपने हुक्के में दम लगाकर गुड़गुड़ करने के बाद बोले।
एक बार रात को मैं फेक्ट्री से आ रिया था रात को लौट कर ड्यूटी के बाद (दादा फैक्ट्री में शिफ्ट की ड्यूटी करते थे)
सायकल से घर आ रिया था।
अचानक नहर पर करते ही मेरी सायकल भारी चलन लगी।
मुझे लगा कोई मेरी सायकल पे  पिच्छे बैठा है पर मैं बिना पीछे देखे पैडल मरता रिया।
बीच बीच में मुझे किसी औरत के हँसने जैसी नवाब बी आ रई थी पर मैने पिच्छे देखना ठीक ना समझा बस सायकल भगाता हुआ घर आ गया सुबह रिंकू की दादी ने बसंती(उनकी पत्नी) से बूझा कौन आयी रात तुमारे घर पधान की सायकल पे बैठ के।
बसंती ने मुझसे पूछा नाराज़ होकर किसे लाये कल रात को।
तो मैने समझाया अरे कोई ना थी रात एक चुड़ैल बैठ आई सायकल पे।
दादा चुड़ैल???? सब ने एक साथ पूछा।
हाँ ओर मैं  तनक सा बी ना डरा।
सब बच्चे रोज उनके ऐसे ही भूत मिलने और ना डरने के किस्से सुनते औऱ चूहा सरकने पर भी उनके चेहरे का भय मैं और अर्जुन आसानी से पढ़ लेते।

होली आने वाली थी, सभी बच्चों को  होली के कुछ दिन पहले रात में बाहर रहने और होली खेलने की छूट मिल जाती थी और पूरी बालक टोली हुड़दंग मचाती आधी रात तक फाग गाती थी उसी की आड़ में होली के लिए लकड़ियां चुराने का भी काम होता था।
एक दिन टोली की योजना बनी की आज फेंकू दादा की हिम्मत की परीक्षा की जाए और रात को उस योजना को अंजाम दिया गया।

रात को चार मज़बूत कंधे दादा को चारपाई समेत उठा ले गए और रख दिया ले जाकर श्मशान में।
उसके बाद  बाकी छिपी टोली ने भूतिया,
हुहुबुभुहूहूहूहू!!!, की भूतिया ध्वनि निकाली
दादा चोंक कर उठे और थर थर कांपने लगे।
बचाओ,,,!!< भूत,,,!! बे जोर से चीखे ओर बेहोश होकर चारपाई से नीचे गिर गए।
टोली ने उन्हें उठाया और जिस खामोशी से उन्हें ले गए थे उसी सफाई से वापस ला कर उनके चबोतरे पर सुला कर हंसते हुए चले गए।

दादा को तीन दिन में होश आया और हफ़्तों बुखार में कांपते रहे।
टोली रोज जाकर उन्हें सपने में श्मशान और भूत की कहानी सुनाती रही।

अब दादा को सच्चाई पता है और बे कभी भूत देखने की डींग नहीं मरते।।

(कृपया कहानी को मनोरंजन के लिए ही पढ़े और किसी के साथ ये खेल न खेलें फिर चाहे वह कितना ही बड़ा फेंकू हो।)

नृपेंद्र "सागर"