लालच का फल
"जाओ तुम्हें आज से और अभी से ही जिन्नलोक से बाहर निकाला जाता है 'अहमर' आज के बाद तुम अगर जिन्नातों के बीच दिखे तो तुम्हें खार ए दोजख में हमेशा के लिए डाल दिया जायेगा जहाँ से तुम्हें कयामत तक भी कोई नहीं निकलेगा।" जिन्नों के बादशाह ने अपने सामने सिर झुकाए खड़े लाल रंग के जिन्न अहमर को गुस्से से फटकारते हुए कहा।
"लेकिन मेरे आका मेरा गुनाह क्या है? और मुझे क्यों ये सज़ा दी जा रही है?" अहमर और थोड़ा कमर झुकाकर झुकते हुए बड़ी दीन आवाज में बोला।
"गुनाह!! तुम्हें नहीं पता अहमर की तुमने क्या गुनाह किया है? वैसे गुनाह तो बहुत छोटा लफ्ज है तुम्हारे कुकर्म के लिए, तुमने तो गुनाह ए अज़ीम किया है अहमर कुफ्र किया है तुमने कुफ्र। और बेदीन तूने अपने लालच के चलते हमारी सारी कौम को बदनामी जा बदनुमा दाग लगा दिया। तेरी भूख इतनी बढ़ गयी अहमर कि तूने जिन्नों के लिए हराम जानवर को जिबह करके खा लिया और हम सब पर कुफ्र नाजिल कर दिया। अब तेरे लिए यही अच्छा रहेगा कि तू हमारे जिन्नलोक से इसी समय बाहर चला जा नहीं तो हम अभी तुझे खार के जंगल में फिंकवा देंगे।" जिन्नों का बादशाह बहुत गुस्से में अहमर को देखते हुए तेज़ आवाज में बोला।
"हुजूर! मेरे आका, मैने जानकर ये अपराध नहीं किया है। मुझे तो पता ही नहीं चला कि वह जानवर हराम था हमारे लिए, मुझे तो लगा था कि मैं बारहसिंगा के बच्चे को मार रहा हूँ। मुझे उसने धोखा दिया था मेरे हुजूर, वह कोई मायावी था। आप मुझपर रहम करो मेरे आका।" अहमर रोते हुए जमीन पर सिर रखकर बोला।
"जाओ अहमर निकल जाओ यहाँ से जब तक तुम्हें कोई ऐसा ना मिले जिसके लालच की भूख तुमसे ज्यादा हो और वह तुम्हारा लालच भी अपने लालच में मिलाकर तुम्हारा गोश्त खुशी से खा ले। जब कोई इंसान खुशी-खुशी तुम्हारा गोश्त खा लेगा तब तुम्हें तुम्हारे कुफ्र से निजात मिल जायेगी और तुम वापस जिन्नलोक लौट सकोगे।" जिन्नों के बादशाह ने कहा और अहमर जिन्नलोक से नीचे कूद गया।
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"आज पूरे दो दिन हो गए हैं, पेट में अन्न का एक दाना तक भी नहीं गया है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो हमें मरने से कोई नहीं बचा सकता, आखिर ऐसे नमक का पानी पीकर हम कब तक जिंदा रहेंगे जी? आप उठकर कुछ काम करो नहीं तो हमारी मौत का पाप भी आपके ही सिर पर आएगा क्योंकि हमसे विवाह करके और इन बच्चों को पैदा करके इनकी जिम्मेदारी अपने अपनी इच्छा से स्वीकार की है।" सारू भाट की पत्नी खनकी उसे ताने मारते हुए कह रही थी क्योंकि सारू कई दिन से ना तो कोई काम कर रहा था और ना ही भीख ही मांग रहा था। सारू कोई चालीस साल का भाट था जो अपनी बेतुकी तुकबंदियों से लोगों को हँसाकर कुछ पैसे मांग कर लाता था और इसी से उसका घर चलता था। कई दिन से सारू को कुछ सूझ ही नहीं रहा था और उसकी पुरानी तुकबंदियों पर लोग अब ना तो हँसते थे और ना ही सारू को कोई पैसा देते थे।
"अब पड़े-पड़े सोच क्या रहे हो जी? जाओ और जाकर कुछ काम करो नहीं तो हम भूखे मर जायेंगे।" खनकी फिर खनकते हुए बोली।
"मुझे समझ में ही नहीं आ रहा है खनकी कि मैं क्या काम करूँ? अरे अब नई कोई तुकबंदी मुझसे बनती नहीं और पुरानी पर कोई कुछ देता नहीं, अब तुम ही बताओ खनकी कि मैं करूँ तो क्या करूँ? मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा।"
"कुछ समझ नहीं आ रहा तो जँगल जाकर कुछ लकड़ी या घास ही काटकर बाजार में बेच आओ, सारे लोग गप सुनाकर ही तो नहीं जी रहे हैं।" खनकी फिर गुस्सा करते हुए बोली तो सारू एक रस्सी और फरसा लेकर घर से निकल गया। सारू जनता था कि ये लकड़हारे या घसियारे का काम उसके बस का नहीं है लेकिन फिर भी वह अब घर में रहकर खनकी के ताने और नहीं सुनना चाहता था।
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क्या करूँ मेरे इष्ट देव! मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। ये घास कैसे काटूं और कटकर कहाँ बेचूं? ऐसा करता हूँ घास रहने देता हूँ और लकड़ी काटता हूँ, फिर उसे लेजाकर किसी हलवाई को बेच दूँगा। लेकिन लकड़ी उठाऊंगा कैसे? मैंने तो कभी अपनी नाजुक खोपड़ी पर कोई वजन नहीं उठाया।" सारू सोचते-सोचते आगे बढ़ता जा रहा था और ऐसे ही चलते-चलते वह घने जंगल में पहुँच गया जहाँ ऊँचे-ऊँचे पेड़ थे, इन पेड़ों के नीचे बहुत सारी सुखी लकड़ियाँ भी टूटी पड़ी थीं।
सारू ने कुछ सोचते हुए वहाँ पड़ी सूखी लकड़ियाँ उठाकर रस्सी पर रखनी शुरू कर दीं। अब सारू लकड़ियां उठाने में ये भूल गया कि उसे इन्हें उठाकर भी ले जाना होगा और वह सामने आती हर सूखी-गीली लकड़ी उठाता रहा। कुछ ही देर में सारू ने लकड़ियों का ढेर लगा लिया लेकिन अब ये ढेर इतना बड़ा हो गया था कि उसे बंधने के लिए सारू की रस्सी भी छोटी पर रही थी,वह एक सिरे को खींचता तो दूसरा सिर ढेर के नीचे चला जाता और उसे खींचता तो यह सिरा नीचे सरक जाता। काफी देर तक सारू ऐसे ही मशक्कत करता रहा लेकिन वह उस ढेरी को अपनी रस्सी में नहीं बाँध पाया तो सिर पर हाथ रखकर बैठ गया और सोचने लगा।
"बंधता नहीं ये ढेर कैसे लेकर जाऊं, घर जाकर मैं एक और रस्सी लेता आऊँ।
क्या करूँ समझ मेरी अब काम ना आवे।
ऐसा न हो ले जाये कौ चोर जो रस्सी लेने जाऊँ।।"
सारू ना तो उस ढेर को कम करना चाहता था और ना ही उसे बांध पाता था। अब शाम होने लगी थी लेकिन सारू को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि वह करे तो क्या करे।
सामने पेड़ पर बैठा 'अहमर' बहुत देर से सारू को देख रहा था और अब तक वह ये समझ चुका था कि सामने जो लकड़हारा है वह लालची है, लेकिन कितना लालची? क्या यह अहमर का काम कर सकता है?" अहमर ने कुछ देर सोचा और फिर एक बूढ़े का रूप बनाकर वह सारू के सामने आ गया।
"क्या बात है भाई! बहुत देर से देख रहा हूँ तुम बहुत परेशान से बैठे हो? क्या मैं तुम्हारी कोई सहायता कर सकता हूँ?" अहमर ने मीठी आवाज में सारू से सवाल किया।
"कोई परेशानी नहीं है बड़े भाई! लेकिन आप इस समय इस घने जंगल में कहाँ घूम रहे हो? जल्दी चले जाओ यहाँ से, अगर किसी जंगली जानवर को दिख गए तो उसका भोजन बन जाओगे। जाओ भाई जाओ मुझे कोई कष्ट नहीं है। " सारू ने एक नजर उस बूढ़े की ओर देखा और उसे टालने वाली आवाज में कहकर फिर अपना सिर ठोकने लगा।
"मुझे लगता है कि तुम्हें इस गठरी को अपने घर तक ले जाने की चिंता है जिसे तुम ना बाँध पा रहे हो और ना ही उठा पा रहे हो। अगर तुम चाहो तो मैं इसे तुम्हारे घर तक ले जाने में मदद कर सकता हूँ।" असगर उस ढेरी की ओर देखते हुए मुस्कुरा कर बोला।
"मैं खुद इसे ले जाऊँगा बड़े भाई, आप अपने रस्ते जाओ और मुझे मेरा काम खुद करने दो।" सारू के मन में डर था कि कहीं ये आदमी उसकी लकड़ी लेकर गायब ना हो जाये।
"अरे भाई! इंसान ही तो इंसान के काम आता है, तुम डरो मत मैं इन सारी लकड़ियों को तुम्हारे घर पहुँचा दूँगा बस बदले में तुम आज रात मेरे भोजन और विश्राम की व्यवस्था कर देना। हमारा हिसाब बराबर हो जायेगा।" अहमर सारू को लालच देते हुए बोला।
अहमर की बात सुनकर सारू सोच में पड़ गया, वह सोच रहा था कि, "भोजन के लिए ही तो ये सारा बखेड़ा खड़ा हुआ है और ये भी भोजन ही मांग रहा है? अब अगर मैं ये लकड़ियाँ ले भी चलूँ तो रात में इन्हें बेचूँगा कहाँ और बिना इनके बिके भोजन सामग्री खरीदने के पैसे कहाँ से आयेंगे?"
"क्या सोचने लगे मित्र? क्या आपको मेरा ये प्रस्ताव भी स्वीकार नहीं है? क्या तुम इस बात से डर रहे हो कि मैं तुम्हारी लकड़ियां लेकर भाग जाऊँगा? अरे भाई मेरा विश्वास करो मैं ये सारी की सारी लकड़ियाँ सुरक्षित आपके घर पहुँचा दूँगा।" अहमर फिर बोला।
"कुछ नहीं सोच रहा मैं, मुझे पता है कि तुम मेरी लकड़ियां लेकर नहीं भागोगे लेकिन मैं तुम्हें भोजन नहीं करा पाऊँगा। यदि केवल रुकने की जगह के बदले मेरा काम करते हो तो बताओ?" सारू ने अहमर के सामने प्रस्ताव रखा तो अहमर मुस्कुराते हुए बोला, "ठीक है भाई जैसी आपकी मर्जी। चलो मैं इसे उठा लेता हूँ, आप आगे-आगे चलो लेकिन मेरी एक शर्त है कि आप चलते समय पीछे मुड़कर नहीं देखोगे नहीं तो मैं ये सारी लकड़ियाँ यहीं फेंककर चला जाऊँगा फिर तुम जाओ और तुम्हारी लकड़ियाँ।"
"क...क्या? ये क्या शर्त हुई? अगर पीछे से तुम गायब हो गए मेरी लकड़ी लेकर तब?" सारू उसकी शर्त सुनकर चौंककर बोला।
"नहीं भागूँगा, मैं वादा करता हूँ। ऐसे भी तुम्हें मेरे आने की आवाज बराबर आती रहेगी।" अहमर ने हाथ बढ़ाकर कहा और सारू उसके हाथ पर हाथ रखकर उसका वचन स्वीकार करके आगे चल दिया।
अहमर ने उन सारी लकड़ियों को दबाकर उस रस्सी में ही बाँध दिया और रस्सी का एक सिरा पकड़कर सारू के पीछे-पीछे चलने लगा। लकड़ी का वह बड़ा सा गट्ठर हवा में तैरता हुआ अहमर के पीछे-पीछे आ रहा था। सारू आगे चल रहा था, उसे बराबर अहमर के भारी कदमों की आवाज आ रही थी। वह मन ही मन पीछे देखना चाहता था लेकिन उसे डर था कि यदि यह बूढ़ा नाराज़ हो गया तो उसकी सारी लकड़ियाँ यहीं रह जायेंगीं।
रात होने लगी थी, अंधेरा घिरने लगा था। सारू रात के डर से जल्दी-जल्दी चल रहा था, उतनी ही तेज़ी से अहमर भी उसके पीछे आ रहा था। देखते ही देखते सारू का घर आ गया, रास्ते में किसी को भी अहमर दिखाई नहीं दिया था। लोगों को यही लग रहा था कि सारू भाट आज लकड़ियों का एक बड़ा गट्ठर घसीटता हुआ घर ले जा रहा है, लेकिन रास्ते में किसी ने भी सारू को नहीं टोका था।
जैसे ही सारू अपने घर के सामने आया, अहमर ने लकड़ियों के गट्ठर को ऊपर करके जोर से उसके फाटक के बगल में पटक दिया। लकड़ियां तेज़ी से धड़धड़ाते हुए नीचे गिरीं जिनके गिरने का शोर सुनकर खनकी भी देखने के लिए दरवाजे पर आ गयी कि वहां क्या हुआ है।
"अरे! इतनी सारी लकड़ियां? लेकिन आप इन्हें घर क्यों ले आये? अरे आप को इन्हें बाजार में बेचकर आना चाहिए था, कम से कम इनके बदले में आज रात के खाने का कुछ अन्न तो मिल जाता। कबसे मैं बच्चों को यह कहकर दिलासा दे रही हूँ कि तुम्हारे बाबा बहुत सारा अनाज लेकर लौटेंगे और हम पेट भरकर खाना खायेंगे।" खनकी गुस्से से खनकते हुए बोली।
"अरे भगवान! मेरी बात तो सुन, मेरे आते ही तलवार जैसे खनकने लगी। देख आज मैं अकेला नहीं आया हूँ, मेरे साथ एक मेहमान भी है। दरअसल हुआ ये कि मैंने बहुत सारी लकड़ी काट तो लीं लेकिन उन्हें घर लाने के लिए कोई उपाय मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था तब इन्होंने मेरी सहायता की और ये सारी लकड़ियां घर आ गयीं। ये तो बदले में विश्राम का स्थान और भोजन दोनों माँगते थे लेकिन मैंने इन्हें केवल स्थान देने पर मना लिया। इतनी लकड़ी काटने में मुझे रात हो गयी थी तो उन्हें बाजार में ले जाने का समय ही नहीं बचा था। अब ऐसा करो इनके सोने का इंतज़ाम कर दो, हम सुबह इन सारी लकडियों को बेचकर खूब सारा अनाज खरीद लायेंगे।" सारू ने कहा तो खनकी इधर-उधर देखने लगी, तभी लकड़ियों के पीछे से अहमर हाथ जोड़े निकल आया और खनकी को अभिवादन करते हुए बोला, "ऐसे तो मुझे भी तेज भूख लगी है लेकिन फिर भी मैं नमक का पानी पीकर सोने का प्रयास करूँगा, शायद नींद आ जाये। ऐसे तो मैंने सुबह से कुछ भी नहीं खाया है।" अहमर अपने पेट पर हाथ फेरते हुए बोला।
"क्या करें भाई साहब! हम भी नहीं चाहते कि हमारा अतिथि भूखा सोए लेकिन हमारे पास एक दाना भी अन्न नहीं है जिससे हम भोजन बनाकर आपको खिला सकें या खुद खा सकें, हमारे तो बच्चे तक भी भूखे सो गए हैं।" खनकी हाथ जोड़कर उदास आवाज में बोली।
"बस इतनी सी बात है? आप जाकर कोई बर्तन ले आओ, मेरे पास कुछ अनाज है जिसे मैं आपको दे दूँगा और बदले में आप मुझे भोजन बनाकर दे देना।" अहमर मुस्कुराते हुए बोला।
"ठीक है भाई साहब मैं अभी लायी।" खनकी ने खुशी से खनकते
हुए कहा और दौड़कर एक बड़ा पतीला उठा लायी।
"लीजिए भाई साहब इसमें कर दीजिये जो भी है।" खनकी ने पतीला अहमर के सामने रखते हूए कहा तो अहमर ने अपनी झोली का मुँह उस पतीले में लगाकर झोली उल्टी कर दी।
देखते ही देखते वह बड़ा सा पतीला जिसमें सात-आठ किलो से कम अनाज नहीं आता होगा वह चावल से भर गया।
इतने सारे चावल देखकर खनकी तो खुशी से उछल ही पड़ी जबकि सारू इतनी सी झोली में से इतने ढेर सारे चावल निकलते देखकर चकरा रहा था।
"मैं अभी नमकीन भात पकाती हूँ, आप लोग मुँह-हाथ धोकर जरा कपड़े बदलो तब तक मैं चूल्हा जलाती हूँ।" खनकी ने कहा और पतीला उठाकर अंदर चली गयी।
"भाई आप तो हमारे लिए भगवान बनकर आये हो, क्या नाम है आपका और आप कहाँ से आये हो?" सारू ने अहमर से सवाल किया तो अहमर उसकी ओर देखते हुए बोला, "परदेशी हूँ भाई जँगल में रात होने लगी थी तो तुम्हारे साथ चला आया, अ...ह...म... अमर हां अमर नाम है मेरा। आप चाहो तो मैं कुछ दिन आपके पास रुककर आपकी मदद कर दूँगा उसके बाद अपने देश को चला जाऊँगा। आप मुझे बस सोने की जगह और थोड़ा भोजन दे दिया करना, मुझे बिल्कुल भी लालच नहीं है भाई और लालच किसी को होना भी नहीं चाहिए क्योंकि लालच का फल बहुत बुरा होता है।" अहमर ने अपनी असलियत छिपाते हुए कहा।
"ठीक है भाई अमर जी आप हमारे साथ रह सकते हो, ऐसे भी आपके आने भर से आज हमें भरपेट भात खाने को मिलेगा।" सारू ने कहा और अहमर को लेकर बैठक की ओर बढ़ गया जहाँ उसने एक चारपाई पर दरी और चादर बिछा दी।
"लो भाई अमर जी ये हो गया आपका बिस्तर, वह घड़े में रखा है पानी जिससे आप हाथ मुँह धो लो मैं जरा अंदर जाकर देखता हूँ कि भात पकने में कितनी देर है " सारू ने कहा और खुश होता हुआ अंदर चला गया।
"लगते तो दोनों पति-पत्नी ही लालची हैं लेकिन फिर भी मुझे होशियारी से काम लेना होगा, इन्हें छोटी-छोटी चीजें देकर बड़े लालच की ओर ले जाना होगा नहीं तो ये मेरा पाप खाने के लिए कभी तैयार नहीं होंगे।" सारू के जाने के बाद अहमर खुद से ही बातें कर रहा था। उधर अहमर की योजना से बेखबर सारू चुल्हे पर पकते भात में करछी चला रहा था।
भात पककर तैयार हुआ तो सबसे पहले अहमर और बच्चों को परोसकर खनकी ने एक थाली सारू की ओर भी बढ़ा दी।
"आप भी तो लीजिए खनकी जी, गर्म-गर्म नमकीन भात का स्वाद ही अलग होता है।" खाना शुरू करने से पहले अहमर ने खनकी से कहा तो खनकी मुस्कुराते हुए बोली, "आप खाइये भाई साहब, परोसने के लिए भी तो कोई चाहिए और फिर भात कहीं भागा नहीं जा रहा है, मैं आप लोगों के खाने के बाद खा लूंगी।
खनकी की बात सुनकर अहमर मुस्कुरा दिया और चुपचाप भात खाने लगा।
सुबह उठकर सारू उन लकड़ियों के छोटे-छोटे गट्ठर बनाने लगा तो खनकी ने उसके पास आकर सवाल किया, "ये क्या कर रहे हो जी आप? इन लकड़ियों को ऐसे क्यों बाँध रहे हो?"
"अरे खनकी! इतना भी नहीं समझती हो? अरे इन सारी लकडियों को एक साथ ऐसे ना तो मैं बाजार ले जा सकता हूँ और न ही एक साथ इतनी सारी लकड़ियां कोई खरीदार खरीद सकता है, बस इसीलिए मैं इनके छोटे-छोटे गट्ठर बना रहा हूँ।" सारू ने लकड़ी बांधते हुए जवाब दिया।
"रूक जाओ अभी और जरा मेरे साथ अंदर आओ, मुझे कुछ बात करनी है।" खनकी सारू की आँखों में देखते हुए बोली तो सारू चुपचाप उसके पीछे चल दिया।
"देखो जी! मुझे तो ये 'अमर' कोई मायावी लग रहा है, अब देखिए ना कल उसने अपनी छोटी सी झोली में से पाँच सेर चावल निकालकर दे दिए थे। आपको पता है, कल मैंने कोई एक सेर चावल पकाए होंगे लेकिन पतीले में चावल का एक दाना भी कम नहीं हुआ था। रात में मैंने यही कोई एक सेर चावल भिगोए थे सुबह पीसकर इडली बनाने के लिए लेकिन सुबह देखती हूँ कि पतीला ऊपर तक चावल से भरा हुआ है, एक दाना भी चावल कम नहीं हुआ है जी। अब आप उन लकडियों को ही देखो, कल जो लकड़ी मैंने जलायी थीं वह भी यहीं हैं और आप जो गट्ठर बना रहे हो ढेर में से वह लकड़ी भी बिल्कुल कम नहीं हो रही हैं। ऐसे तो हम लकड़ी और चावल बेचकर ही अमीर हो जायेंगे जी लेकिन ये कम हो क्यों नहीं रहे हैं? कभी आपने सोचा है इस बारे में?" खनकी सारू से सवाल कर रही थी।
खनकी की बात सुनकर सारू गहरे सोच में पड़ गया और फिर उठकर वह अहमर के पास जा पहुँचा।
"भाई अमर जी मुझे सच-सच बताओ कि आप कौन हो और ऐसे हमें ये कभी खत्म ना होने वाले चावल और लकड़ी आपने क्यों दी हैं?" सारू ने अहमर के सामने जाकर सवाल किया।
"मैं अमर हूँ सारू भाई, मेरे पास बहुत सी ताकतें हैं जिनसे मैं किसी की भी कोई भी मदद कर सकता हूँ और ये ताकतें मुझे मिली हैं मेरे गुरु से। यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हें भी ऐसी ताकत दे सकता हूँ जिससे आप जिसकी चाहो उसकी मदद कर सकते हो। इस ताकत के बाद आप जिस अनाज को अपने हाथ से किसी बर्तन में भर दोगे वह बर्तन कभी खाली नहीं होगा और तुम इतने ताकतवर हो जाओगे कि एक पर्वत को भी तिनके जैसा उठा सकोगे।" अहमर ने सारू को लालच देते हुए कहा।
"क्या सच में ऐसा हो सकता है अमर जी? क्या सच में मुझे इतनी ताकत मिल सकती है? लेकिन उसके लिए मुझे क्या करना होगा अमर भाई?" सारू ने उतावला होते हुए पूछा। अब अहमर सारू की आँखों में लालच साफ देख सकता था, अब अहमर को यकीन हो रहा था कि सारू का लालच उसे शाप से मुक्त कर देगा।
"कुछ ज्यादा नहीं करना होगा सारू भाई बस आप मेरे कन्धे पर ये माँस की गाँठ देख रहे हो ना? बस तुम्हें इसे काटकर पकाकर खाना होगा खुशी-खुशी और मेरी सारी ताकतें जो मुझे इस पोटली से हासिल होती हैं वह तुम्हें मिल जायेंगी।" अहमर ने गम्भीर चेहरा बनाकर सारू की आँखों में देखते हुए कहा।
क्या कहा माँस??
मैं तो जन्म से ही शाकाहारी हूँ, मैं भला माँस कैसे खा सकता हूँ? और वह भी नर मांस??" सारू के चेहरे पर घृणा के भाव थे। सारू अब दौड़कर घर के अन्दर चला गया और उसने अपनी पत्नी खनकी को सारी बात बतायी।
"क्या कहा इतनी सारी ताकतें? सच में आपको अमर भाई की वह ताकत की पोटली पकाकर खाने से अलौकिक ताकते मिल जायेंगीं? जरा सोचो तो, हमारे सारे कष्ट दूर हो जायेंगे, हमारी गरीबी मिट जायेगी और सब तरफ हमारा सम्मान होगा। आप भला ये क्यों सोचते हो कि आप कोई मांस खा रहे हो। अरे! जब आदमी बीमार पड़ता है तब ना जाने दवाई के नाम पर क्या क्या खाता है। आप तैयार हो जाओ तो मैं उसे ऐसे पका दूँगी की आप समझ भी नहीं पाओगे की वह आखिर है क्या और आप उसे स्वादिष्ट सब्जी मानकर खा जाओगे।" सारू की बात सुनकर खनकी के मन में भी लालच आ गया और दोनों तैयार होकर अहमर के पास आ गए।
"हम तैयार हैं अमर भाई, आप बतायें हमें कितना और कब कटना है?" सारू ने अहमर के पास जाकर कहा तो अहमर के चेहरे पर प्रसन्नता की मुस्कान तैर गयी।
"पहले यह बताओ कि क्या तुम अपनी खुशी से इस मांस को खाने के लिए तैयार हो? फिर यह ना कहना कि आपके साथ कोई धोखा हुआ है?" अहमर ने सारू और खनकी की ओर देखते हुए कहा।
"नहीं! हम लोग किसी दवाब में नहीं हैं बल्कि हम लोग पूरे होशो हवास में ताकत पाने के लिए आपकी ये माँस की पोटली खाने को तैयार हैं।" सारू ने गम्भीर होकर कहा।
"ठीक है सारू भाई ये लो छुरा और काटो इस गाँठ को और ध्यान रहे तुम्हें इसे पूरा खाना होगा नहीं तो तुम्हें पूरी ताकत नहीं मिलेगी।" अहमर ने छुरा सारू के हाथ में देते हुए कहा और सारू ने हिम्मत करके अहमर के कंधे पर से मांस की वह गाँठ काट ली और खनकी को दे दी जिसने उसे लेजाकर पका दिया।
जैसे ही सारू ने वह माँस की गाँठ खाई उसके दोनों कंधों और पीठ पर वैसी ही एक बड़ी सी गाँठ बन गयी और सारू भेड़िए की तरह गुर्राने लगा।
"मेरा काम हो गया सारू भाई, आपके लालच ने मुझे शाप से मुक्त कर दिया है। अब तुम्हें इस शाप के साथ ही जीना होगा।" अहमर ने हँसते हुए कहा और उसका रूप बदल गया, अब वह लाल रंग के बड़े से जिन्न के रूप में दिखाई दे रहा था।
"आपने हमसे झूठ कहा कि हमें इससे ताकतें हासिल हो जाएँगी जबकी हमें तो आपका शाप लग गया है। आपने हमारे साथ धोखा किया है।" सारू गुस्से से चिल्लाते हुए बोला।
"मिली हैं ताकतें आपको, अब आप हर बुरा काम बहुत आसानी से कर सकते हो। बड़े से बड़े जानवर का शिकार अपने हाथों की ताकत से कर सकते हो, भारी वजन चुटकी से उठा सकते हो। आपको इतनी ताकत मिल चुकी हैं कि आप शैतान का हर काम कर सकते हो। और ये सब तुम्हें कोई झूठ बोलकर नहीं दिया गया बल्कि तुमने अपनी मर्जी से चुना है। " अहमर ने गम्भीर होकर कहा।
"और ये शाप कब तक हमारे साथ रहेगा?" सारू ने रोने जैसी आवाज में पूछा।
"जबतक कोई लालच में आकर तुम्हारी इन गाँठों को पकाकर नहीं खा लेता। ध्यान रहे तुम बस लालच दे सकते हो लेकिन किसी को जबर्दस्ती या धोखे से इन्हें नहीं खिला सकते।" अहमर ने कहा और सीधा होकर हवा में उड़ गया।
जैसे-जैसे अहमर ऊपर जा रहा था, सारू नीचे झुकता जा रहा था और उसकी गाँठों में असहनीय दर्द और जलन हो रही थी। उसे उसके लालच का फल मिल गया था जो ऐसा दर्द था जिसे उसने खुद ही चुना था।
नृपेन्द्र शर्मा “सागर”
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