Thursday, June 18, 2020

#कहानी/ इंसान बनूँगा

"बाबा..बाबा, मैं भी इंसान बनूँगा", चिंटू (चूहे) ने सबके सामने घोषणा की।

चिकचिक अवाक उसका मुंह देखता रह गया, "तुमसे किसने कहा कि चूहे इंसान बन सकते हैं?" उसने हैरानी से पूछा।

"मुझे पता है इंसान पहले चूहा था, फिर बंदर बना, उसके बाद आदि मानव, और फिर इंसान।" चिंटू एक सांस में कह गया।

"लेकिन तुम्हे ये कहा किसने चिंटू? रुको -रुको तुमने कल क्या खाया था? कहीं किसी वैज्ञानिक के घर तो....?" कुद्दु ने उसे आश्चर्य से देखते हुए कहा।
"क्या दद्दा आपको हमेशा मैं नशे में दिखाई देता हूँ क्या?", चिंटू गुस्से से बोला।

"और नहीं तो क्या, याद नहीं तुमने भेड़िये का मांस खाकर कैसे उधम मचाया था।" (पढ़ें,जैसा खाये अन्न और चिंटू की चतुराई) कुद्दु ने उसी रो में जवाब दिया।

"कुछ नहीं खाया मैंने; मैं तो बस्ती से बाहर भी नहीं गया, कहीं कुछ नहीं खाया।" चिंटू अभी भी मुंह बनाये हुए था।

"अच्छा ये तो बताओ तुम्हे ये शिक्षा किसने दी की मनुष्य पहले चूहा था फिर बन्दर बना फिर इंसान...।"सभी ने एक साथ उससे पूछा।

"लालूराम" 

"क्या !!? क्या कहा तुमने 'लालूराम', अरे उसे कुछ नहीं पता;  वह बस ऐसे ही लोगों को उलझलूल बातें सुनता रहता ह।"ै कुद्दु ने हँसकर कहा।

"एक बार गया था वह भी इंसान बनने, दो पैरो पर चलकर ।एक मदारी ने पकड़ लिया था उसे, उसके बाद बेचारा बहुत दिन तक डंडे के डर से इंसानो की नकल करता रहा।
  उसी मदारी ने बार-बार अपने खेल में कहा कि बन्दर इंसान के पूर्वज हैं, और लालूराम को तभी से अपने ऊपर इंसान का पूर्वज होने का गर्व होने लगा।" कुद्दु हँसते हुए बताने लगा।

"एक दिन लालूराम बहुत मुश्किल से मदारी से छूट कर भागा तो किसी स्कूल में छिपा हुआ था, वहां इसने ये सुन लिया कि चूहे भी इंसान के पूर्वज हैं, तभी से हर किसी को लालू बस यही कहानी सुनाता है।" चिकचिक ने हँसते हुए आगे कहा और सारे चूहे चिंटू पर हँसने लगे।


"स्कूल वाले भला गलत क्यों पढ़ाएंगे??" मतलब सच में चूहे इंसान के पूर्वज हैं, तभी तो अपनी किताबों में लिखा उन्होंने।
मैं भी जाकर डॉक्टरों से मिलूंगा, अरे आप लोगों को पता नहीं अब तो मनुष्य ने  विज्ञान में इतनी तरक्की कर ली है की किसी की भी सर्जरी करके उसका रूप बदल सकते है।
मैं सबसे पहले तो अपनी दुम हटवाउंगा,  कितनी बदनाम है ये दुम,, चूहे की दुम, चिंटू मुंह बनाकर बोला।
उसके बाद अपनी मूँछे सही करवाऊंगा ओर थोड़ा अपने कान ओर नाक.., 
उसके बाद मैं अपने पैर और कमर सीधी करवाकर दो पैरों पर चलने  लगूँगा, फिर बस बन गया मैं इंसान।
मैं कल ही लैबोरेट्री जाऊँगा " चिंटू आत्मविश्वास से भरकर बोला।

"क्या!!..? क्या कहा तूने.. लैबोरेट्री??" चिकचिक लगभग चीख ही पड़ा।

"बिल्कुल नही जाओगे तुम वहाँ। चिकचिक  ने नाराज़ होकर कहा।
तुम्हे पता है, ये निर्दयी इंसान अपने अतीत (जिससे उसका मोई मतलब नहीं ) उसे जानने के लिए कितने जीवों को बेदर्दी से मरता है इन लेबोरेट्री में।
अरे कितने मेंढक, कितने केंचुए, कितने कॉकरोच, कितने खरगोश, और न जाने कितने चूहों की कत्लगाह हैं इनकी ये लैबोरेट्री।

एक ओर तो ये भगवान को पूजते हैं जो बिल्कुल इन्ही की तरह दिखते हैं और मानता है कि ईस्वर तब भी था जब कुछ भी नहीं था, जीवन शुरू भी नहीं हुआ था तब।
ओर जनता है ईश्वर प्रलय (कयामत) के बाद भी रहेगा।
अरे जब ईस्वर हमेशा इंसान के जैसा दिखता है तो उसका बनाया इंसान कैसे चूहे या बन्दर जैसा रहा होगा, लेकिन इंसान को कोन समझाए। तुम ही सोचो चिंटू, हमारे आदि मूषक मूषकराज , युगों से आदि देव महागणेश जी के साथी हैं लाखों बार उनसे स्पर्श भी होते हैं, लेकिन क्या आज वह तक इंसान बने।

चिंटू ये सब इंसानो का लालच है कि किसी जंतु के शरीर की बनाबट उनके जैसी हो तो उसे ढूंढो ताकि इंसान उस पर अपनी बीमारियों और नयी दवाईयों का परीक्षण कर सके।

अरे लाखो घोघे तो सिर्फ खून का रंग देखने के लिए कत्ल कर दिए जाते हैं इन प्रयोगशालाओं में।

चिंटू तुम बिल्कुल नही जाओगे किसी लैब में, हम नहीं चाहते कि तुम वहां किसी लैबोरेटरी में इंसानी खुराफात का साधन बनो ओर उनके किसी परीक्षण का हिस्सा बनकर ....।"चिकचिक की आवाज दुख के आंसुओं से भीग गयी और वह आगे कुछ ना कह सका।
और चिंटू दौड़ कर चिकचिक के गले लग गया, उसके चेहरे पर पश्चताप के भाव थे।
मित्रों  क्या लैब में परीक्षण के नाम पर निर्बोध जानवरों का कत्ल उचित है, क्या वह अमानवीय नहीं है? 
नृपेंद्र शर्मा 'सागर'
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
9045548008

Wednesday, June 17, 2020

#कविता- जय जवान

चीनी चूहों को शेरों ने वो औकात दिखाई है।
लाठी और डंडों के बल पर दुगुनी लाश गिराई है।
सोचो बोनो क्या होता गर ये बंदूक उठा लेते।
बिना शस्त्र जब भारत वीरों ने तुमको धूल चटाई है।
ज्यादा मत उछलो बन्दर से यहाँ मदारी भी होते हैं।
तुम जैसे कितने बन्दर और बन्दरी हमने नचाई है।
ऐसा न ही मिट जाए विश्व पटल से नाम चीन का।
कई बार तुम जैसे दुश्मन की हस्ती हमने मिटाई है।।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

#हॉरर/तीस साल बाद

यूँ तो वह घर से शाम को अँधेरा होने से पहले ही निकला था लेकिन फिर भी घर से चार किलोमीटर का जंगल और पहाड़ चढ़ने में उसे कोई तीन घण्टे का समय लग गया।

और जब वह ऊपर रोड तक पहुंचा तब तक अँधेरा पूरी तरह घिर आया था।
उसने अपना मोबाइल निकाल कर समय देखा, "अरे साढ़े नौ बजे गए?!! अब तो मुझे कोई वाहन भी नहीं मिलेगा।
उसने अफसोस किया और एक पत्थर पर बैठ गया।

हुआ कुछ ऐसा था कि हरीश को उसके भाई का फ़ोन आया कि कल सुबह तक वह कुछ भी करके दिल्ली पहुंचे क्योंकि कल उसके पिताजी का ऑपरेशन होना है और उन्हें खून की जरूरत भी पड़ेगी।
उसके पिताजी काफी समय से बीमार चल रहे थे और उसका बड़ा भाई उन्हें लेकर इलाज के लिए दिल्ली गया हुआ था।
घर में हरीश उसकी भाभी और बूढ़ी माँ ही थे।

हरीश ने फोन अपनी भाभी को दिया और दोनों ने बात करने के बाद आपस में सलाह की।
"भाभी अब शाम होने वाली है और दिल्ली बहुत दूर है।
फिर भी मै अभी निकल जाता हूँ, आप रास्ते के लिए कुछ खाने का बना दो। और मां को मत बताना नहीं तो चिंता करेगी", हरीश ने कहा।

"ठीक है तुम हरिद्वार हाइवे तक पहुँच जाओगे तो तुम्हे ट्रक या दूसरी कोई गाड़ी मिल जाएगी।
आजकल चार धाम की यात्रा चल रही है रात में भी कई गाड़ियां आती-जाती रहती हैं", उसकी भाभी ने कहा और उसके लिए पराँठे बनाने लगी।

मई के आखिरी दिन चल रहे थे, शाम को सात बजे तक ठीक-ठाक उजाला रहता था।
हरीश ने अपना छोटा सा बैग उठाया और निकल पड़ा जँगल के रास्ते।
उनका गाँव रुद्रप्रयाग जिले में मेन रोड से कोई  चार-पांच किलोमीटर नीचे था।
रोड तक आने के लिए कच्ची पगड़न्ड़ी थी जो चीड़ के घने जंगल से होकर आती थी।
हरीश के पिता जी  'रुद्रनाथजी' के बहुत बड़े भक्त थे, और उनके साथ ही हरीश और उसका भाई भी मन्दिर में सेवा  करते थे। हरीश ने घर में रखे रुद्रनाथ जी के विग्रह के सामने दिया जलाया और अपनी तथा अपने पिताजी की सलामती के लिए प्रार्थना की।
जैसे ही हरीश जँगल में पहुंचा अचानक बहुत तेज़ हवा चलने लगी और घना अँधेरा छा गया। चीड़ की पत्तियां उस तेज हवा में उड़ने लगीं और कुछ ही देर में पगड़न्ड़ी दिखाई देनी बन्द हो गयी।
हरीश की उम्र अभी सोलह-सत्रह साल की ही थी वह इस मंजर से घबरा तो रहा था लेकिन लड़कपन के जोश में उसने चलना जारी रखा।
एक बार फिर हरीश ने सच्चे मन से हाथ जोड़कर रुद्रनाथ जी को याद किया और आगे बढ़ गया।
कुछ दूर चलने पर हरीश को जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई उसे रास्ता दिखा रहा है।
उसे नहीं पता था कि वह किस ओर जा रहा है, लेकिन वह तेजी से चल जा रहा था।
और अब वह उस सड़क पर एक पत्थर पर बैठा हुआ था।
उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसे यहाँ तक पहुंचने में ढाई-तीन घण्टे कैसे लगे जबकि उसका घर से रोड तक आने का समय ज्यादा से ज्यादा एक-डेढ़ घटा था।

हरीश को वह रोड भी जानी पहचानी नहीं लग रही थी ये कोई बहुत चौड़ी रोड थी और बहुत ऊँचाई पर थी।
इस रोड के एक ओर ऊँचा पहाड़ था और दूसरी ओर बहुत गहरी खाई।

हरीश को आये कोई दस-पन्द्रह मिनट ही हुए होंगे, अभी वह कुछ सोच ही रहा था कि सामने मोड़ से एक बस के हॉर्न की आवाज आई।
हरीश उठकर खड़ा हो गया और लिफ्ट मांगने के लिए हाथ हिलाने लगा।

उसे सामने से दो लाइट्स दिखयी दे रही थीं, उसने जोर जोर से हाथ हिलाना शुरू कर दिया।
चरर्रर्रर!!!
बस उसके पास आकर  चरर्रर्रर की तेज आवाज करती हुई रुक गयी।
वह दौड़ कर बस  के पास आया बस बहुत पुरानी लग रही थी उसका पेंट मिट चुका था और उसपर लगा लाल-लाल जंग इस अंधेरे में भी नजर आ रहा था।
हरीश तेजी से खिड़की की तरफ लपका, बस की खिड़की भी टूटी हई थी।
उसके अंदर एक बहुत हल्की लाइट जल रही थी, हरीश जल्दी से अंदर चढ़ा और उसके चढ़ते ही बस चल पड़ी।

बस लगभग खाली थी कंडक्टर और ड्राइवर के अलावा कुछ दस-बारह लोग ही बस में थे और ज्यादातर सीटें खाली थीं।

हरीश एक पूरी खाली सीट पर खिड़की के पास बैठ गया।

बस के सभी यात्री और कंडक्टर की आँखे खुली हुईं थीं, लेकिन उनमें से किसी ने भी इसे देखकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी।
उसने बहुत ध्यान से उन सबको देखा वे सब ऐसे लग रहे थे जैसे आंखें खोल कर सो रहे हों।
हरीश को बहुत अजीब लगा कि कैसे लोग हैं जो आंखें खोल कर सो रहे हैं।

कुछ देर बाद वह उठकर कंडक्टर के पास आया उसने उसे आवाज लगाई, "दाज्यू टिकिट बना दीजिये", लेकिन कंडक्टर आंखें खोले शून्य में ही देखता रहा उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
"अरे ये सब पुतले हैं क्या?", हरीश ने अपने मन में सोचा।
अब वह घूमकर ड्राइवर के पास गया।
ड्राइवर की स्थिति भी बिल्कुल बैसी ही थी। उसकी आंखें भी शून्य में टिकी हुई थीं, उसके हाथों के अलावा बाकी कोई अंग हरकत नहीं कर रहा था।

गाड़ी की रफ्तार भी बहुत तेज़ थी लेकिन वह न तो ब्रेक लगा रहा था और ना ही गियर बदल रहा था।

अब हरीश को पहली बार डर लगा, उसके रोंगटे खड़े हो गए।
उसे लगा कि कुछ तो विचित्र घट रहा है उसके साथ।
उसने खिड़की के बाहर झांक कर देखा, वह गाड़ी जैसे हवा में उड़ रही थी।

"रोको!!!@...", हरीश की डर के मारे चीख निकल गयी।
तभी उसे भिनभिनाती हुई ऐसे आवाज आई जैसे हज़ारों मधुमक्खी एक साथ भिनभिना रही हों।

उसने ध्यान से देखा, बस में बैठा हर आदमी हँस रहा था और उनके मुँह से हँसने की बहुत धीमी आवाज आ रही थी।
उनकी आंखें अभी भी शून्य में ही देख रही थीं और उनके चेहरे के भाव भी नहीं बदले थे।

हरीश अब डरकर जोर से चिल्ला रहा था, "बस रोको.. उतारो मुझे..
वह बस से कूदना चाहता था लेकिन इतनी तेज भागती बस से कूदना भी उसके लिए आत्महत्या करने जैसा ही था।

वह बस में आगे पीछे भाग रहा था और उनके हँसने की आवाज अब तेज़ होती जा रही थी।

काफी देर ऐसे ही भागने के बाद अचानक फिर, "चिरर्रर!!!" की तेज आवाज के साथ वह बस रुकी।
हरीश जल्दी से अपना बैग लेकर नीचे उतर गया।

"उधर चले जाओ...! " तभी उसने एक आवाज सुनी, उसने पलट कर देखा, कंडक्टर उसे एक तरफ को इशारा करके बता रहा था।

हरीश को कुछ समझ नहीं आया कि उसके साथ क्या हो रहा है लेकिन फिर भी वह उसकी बतायी दिशा में चल दिया।
कोई आधा घण्टा उस पहाड़ से नीचे उतरने पर उसे बहुत सारी लाइट्स नजर आने लगीं जैसे कि बहुत बड़ा शहर हो।

उसने अपनी गति और बढ़ा दी और जब वह नीचे उतर कर शहर में पहुँचा तो उसे पता चला कि ये ऋषिकेश है।

उसने पूछताछ की तो उसे रात दो बजे दिल्ली के लिए ट्रेन होने की जानकारी मिली जो स्पेशल ट्रेन थी और चारधाम यात्रा के लिए चलाई गई थी।

उसने अपना मोबाइल निकाल कर समय देखा रात का एक बजकर बीस मिनट हो गए थे अर्थात उसके पास स्टेशन पहुँचकर गाड़ी पकड़ने के लिए पर्याप्त समय था।

हरीश टिकिट लेकर गाड़ी में बैठ गया, वह पूरे रास्ते उस बस के बारे में ही सोच रहा था।
अगले दिन वह समय से दिल्ली पहुंच गया जहाँ उसके पिताजी का सफल ऑपरेशन हुआ।
इन दोनों ही भाइयों को दो-दो यूनिट खून देना पड़ा था।

शाम को होटल में चाय पीते समय हरीश की नज़र सामने पड़े अखबार पर पड़ी उसमे मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था,

"तीस साल पहले" खाई में गिरी बस कल रात रुद्रप्रयाग ऋषिकेश मार्ग पर दिखी।

उसे पढ़कर हरीश के हाथ से चाय का गिलास छूट गया और वह अपने होश खोकर जमीन पर गिर गया।

दो दिन बाद नार्मल होने पर हरीश सोच रहा था कि "ये सब उसके साथ क्यों हुआ? ये जरूर भगवान रुद्रनाथ जी की माया थी जो उन्होंने इनके पिताजी को बचाने के लिए की थी।

तबसे हरीश हर साल चारधाम यात्रा में भगवान रुद्रनाथ जी के नाम से भंडार लगाता है।

©नृपेंद्र शर्मा "सागर"
९०४५५४८००८

#रहस्य कथा/इंतज़ार करना

पुरानी कहानी (ये कहानी मैने गांव में किसी से सुनी थी)

बहुत पहले किसी गांव में एक किसान रहता था, उसके पास बहुत खेत थे इसीलिए गांव के लोग उन्हें चौधरी कहते थे।

पुराने जमाने में लोग सुबह जल्दी उठ कर दिशा मैदान(शौच) 
आदि के लिए जंगल जाते थे।
चौधरी साब भी रोज सुबह मुंह अंधेरे ही जंगल चले जाते थे।
चौधरी साब ऐसे  भी घर से कुछ दूरी पर बनी बैठक पर ही रहते थे।

उस दिन भी चौधरी साब सुबह चार बजे ही जंगल के लिए चल दिये।
जुलाई के महीने शुरू हो चुका था एकाध बार हल्की बारिश भी हुई थी फिर भी सुबह चार बजे उषाकाल का हल्का उजाला दिखने लगता था।
चौधरी साब ने जेजे ही गांव के बाहर बने कुएं को पर किया उन्हें एक बहुत सुंदर स्त्री गहनों से लदी कुएं की जगत (कुएं के ऊपर जो दीवार का घेरा होता है) पर बैठी दिखी।
उसके गहने अँधेरे में भी दूर से चमक रहे थे, उसे देखकर पहले तो चौधरी साब डरे क्योंकि उन्होंने बहुत लोगों से सुना था कि उक्त कुएं में माया रहती है।
लोग कहते थे कि माया लोगों को आवाज लगाती है मिंटू अगर कोई तीन बार पुकारने पर भी नहीं सुनता तो बापस कुएं में कूद जाती है।
चौधरी ने सोचा कि वह भी उसे अनसुना करके निकल जाएंगे, और चुपचाप चलने लगे, जैसे ही वे उसके पास पहुंचे उस स्त्री ने आवाज लगायी," सुन मुसाफिर जाने वाले धन दौलत से घर भर दूंगी, बदले में पहला फल लूँगी"।
चौधरी ने विचार किया माया है अब इसके पहले फल का क्या मतलब है ये पता नही बदले में क्या मांगले, तो उन्होंने उसे अनसुना कर दिया और चलने लगे।
जैसे ही चौधरी ने एक और कदम बढ़ाया फिर आवाज आई ," सुन मुसाफ़िर जाने वाले धन और माया नहीं घटेगी पुस्तें बैठी खाएंगी पहले फल से सोडा कर ये घड़ी न वापस आएगी।

चौधरी का दिमाग बहुत तेज़ी से काम कर रहा था उसने फिर आगे कदम बढ़ाया।
माया ने फिर आवाज लगाई मुसाफिर ये अंतिम पुकार है अपर सम्पदा को तेरी हां का इंतज़ार है।

अब तक चौधरी सोच चुका था कि उसे क्या करना है वह तपाक से बोला मेरी एक शर्त है।

क्या? माया ने पूछा।

आप मेरे घर चली जाए और मेरे लौट कर आने टास्क इंतज़ार करें उसके बाद आप जो मांगेंगी मैं आकर दे दूँगा।

ठीक है, माया ने जबाब दिया।

ऐसे नहीं, चौधरी ने हंस कर कहा।

फिर कैसे? माया ने पूछा।

आप वचन दीजिये मुझे की आप मेरे घर  से तब तक कहीं नहीं जाएंगी जब तक मैं लौट कर घर नहीं आता, और मेटे आने तक मेरे घर मे किसी को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचाएंगी। चौधरी ने हाथ बढ़ाकर कहा।

ठीक है हमने वचन दिया, कहकर माया ने अपना हाथ उसके हाथ पर रख दिया।

माया चौधरी के घर आ गयीं किन्तु चौधरी कभी घर लौट कर नहीं आया, वह वहीं से तीर्थ धाम करने निकल गया और अपनी यात्रा में ही कहीं मर गया।

माया आज भी चौधरी के घर पर उसके आने का इंतज़ार कर रही है, और चौधरी की पुस्तें माया की धन माया से सम्पन्न बनी हुई हैं।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"

#हॉरर/क्या था

अर्जुन या पंडित कभी कहीं अकेले गए हों बहुत कम होता था।
मौसी, मामा या बुआ के घर भी दोनो हमेशा साथ ही जाते थे, लेकिन उस दिन अर्जुन को अकेले सीता पुर जाना पड़ा।

सीता पुर नदी पर इनके गांव से कोई सात-आठ किलोमीटर दूर छोटा सा गांव था जहां अर्जुन की कोई रिश्ते की मौसी रहती थी, अर्जुन को किसी काम से जल्दी में उनके घर जाना पड़ा।
वह सुबह अकेला सायकल लेकर चल गया, लौटने में उसे रात हो गयी वह कोई दस ग्यारह बजे उधर से जंगल के रास्ते अकेला लौट रहा था।

अर्जुन जैसे ही नदी पार करके अपने गांव की सीमा में पहुंचा उसे सड़क पर कुछ लोग सामने से दौड़ते हुए आते दिखाई दिए जिन्होंने एक ही जैसे सफेद कपड़े पहन रखे थे।

इससे पहले की अर्जुन कुछ समझता या अलग बचकर चलता ये दौड़ते हुए उसे पार करके निकल गए और पीछे कुछ दूर जाकर सड़क पर घेरा बना कर सिर नीचे किये बैठ गए।

उफ़्फ़फ़!! ये क्या ? ये लोग ऐसे बिना टकराए कैसे मुझे पार कर गए जैसे मानो इंसान न हों हवा के झोंके हों,,
हवा!!?, अर्जुन सोचते हुए चोंका,, उसने इधर उधर देखा 

ये बिल्कुल उस जगह खड़ा था जहां धबल की भूत से कुश्ती हुई थी, अर्जुन का दिल धक-धक करने लगा,, 
तो क्या ये सच में भूत, कहीं छलाबा तो नहीं??,

सोचते हुए अर्जुन सायकल पकड़े गए बढ़ने लगा।

आगे कुछ ही दूर चला होगा  कि सामने सड़क पर राख का ऊंचा पहाड़ जैसा ढेर पड़ा था।

अब ये बीच सड़क पर रख किसने डाल दी यार, सारा रास्ता ही बन्द कर दिया थोड़ा बचाकर नहीं डाल सकता था,, सा,,,
अर्जुन गालियां देता हुआ बड़बड़ाने लगा।

अभी वह किधर से निकलूं ये सोच ही रहा था कि अचानक उस रख में हलचल होने लगी ।

देखते ही देखते राख ने एक बड़े मोटे सांप की आकृति ले ली और फन उठाकर उसके ठीक सामने खड़ा होकर फुफकारने लगा सांप कोई तीन चार फुट मोटा और करीब बीस तीस मीटर लंबा उसके ठीक सामने एक साथ कई फन लहराता फुंकार रहा था और हर फुंकार में भयानक गर्जना के साथ आग की लपटें भी निकल रही थी।

अर्जुन को मार्च की ठंडी रात में भी जेठ की दुपहरी जैसा पसीना आने लगा,, वह धीरे धीरे पीछे हटने लगा।

तभी उसे पीछे बैठे भूतों का ख्याल आता और उसके कदम रुक गए।

उसका दिल धुकधुकी और फेफड़े धौंकनी बने हुए थे, भय से उसके पैर कांप रहे थे।
वह ना आगे जा सकता था और न ही पीछे जा सकता था उसने निराशा में अपनी आंखें बंद कर लीं।
तभी उसके कानों में पंडित की आवाज गूँजी,, "हमारा डर ही छलाबे कि असली ताकत है और एक निश्चित दायरा उसकी सीमा रेखा जहां से वह हमें डराता है।

अर्जुन ने मुट्ठी भींचते हुए झटके से आंखे खोल दीं अब उसकी आँखों में डर के स्थान पर विस्वास और क्रोध था।

वह अपनी सायकल पर बैठा ओर बिना डरे उसने सायकल उस सांप की तरफ बढ़ा दी।
सांप बिल्कुल किसी बैल जैसी आवाज निकलते हुए फुंकारने लगा आग फेंकने लगा,, लेकिन वह अर्जुन को छू भी नहीं रहा था और अर्जुन बिना डरे आगे निकल आया।

थोड़ा ही आगे बढ़ा होगा कि वह भूतों की टोली उसे फिर से बीच सड़क पर नज़र आयी, उन्होंने कुछ हथियार लिए हुए थे और एक आदमी की गर्दन रेत रहे थे,, उनके बीच कुछ सर कटी लाशें पड़ी हुए थीं और उनमें से कुछ के मुंह पर खून भी लगा हुआ था।
सड़क पर भी खून फैला हुआ था उनके चेहरे बीभत्स नज़र आ रहे थे।

अर्जुन के कदम एक बार फिर ठिठके लेकिन फिर ना जाने क्या सोच कर उसके चेहरे पर मुस्कान फैल गयी और उसने सायकल आगे बढ़ा दी।

उसके बढ़ते ही उनके चेहरे बदलने लगे और ये लोग उसका रास्ता छोड़कर सड़क के दोनों ओर खड़े हो गए।
अर्जुन ने देखा वे लोग इसे देख कर मुस्कुरा रहे थे।

लौट कर अर्जुन घर आ गया लेकिन अब फिर से इसका दिल जोरों से धड़क रहा था।
अर्जुन ने सुबह सबसे पहले दौड़ कर पंडित को रात की सारी आपबीती सुनाई।
पंडित मुस्कुरस्ते हुए बोला चलो देख कर आते हैं उधर ही दिशा मैदान भी निबट लेंगे।

दोनो दोस्त सुबह सुबह नदी किनारे टहलते रहे और घटना से जुड़ी कोई संभावित चीज़ ढूंढते रहे लेकिन नाकाम रहने पर मुस्कुरस्ते हुए लौट आये।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
9045548008

#हॉरर/कौन थी वह

रात के कोई 10 बजे होंगे ब्रजेश माल उतार कर घर पहुंचने की जल्दी में ट्रक बहुत तेज़ चला रहा था।
उसके साथ था खलासी बिट्टू।

जैसे ही गाड़ी खूनी नाले को पार करके थोड़ी आगे बढ़ी,  उन्हें गाड़ी की लाइट में कोई बुर्खे बाली महिला हाथ हिला कर गाड़ी रूकवाने का प्रयास करती नज़र आयी।

"वो देखो उस्ताद औरत, अकेली इतनी रात में!! रोक लो उस्ताद किसी मुसिबत में लगती है। कहीं जाना होगा इसे," बिट्टू चहकते हुए बोला।

"अरे यार इतनी रात को अकेली औरत...? कहीं कोई मुसीबत ना हो," बृजेश ने ब्रेक पर पैर जमाते हुए कहा।

"अरे उस्ताद! क्या मुसीबत करेगी? ऐसे भी हम दो हैं और वह अकेली, और अगर पट गयी तो रास्ता मस्ती में....!  बिठा लो न उस्ताद", बिट्टू ने कुछ अर्थपूर्ण बात कही।

"चर्रर्र!!",  ब्रजेश ने उस औरत के पास जाकर जोर से ब्रेक मारकर गाड़ी रोक दी।

"क्या है?? कहाँ जाना है?", बिट्टू ने मुंह खिड़की से बाहर निकल कर पूछा।

"बस अगले गांव तक," उसने धीरे से जबाब दिया।

"आजाओ ऊपर", बिट्टू थोड़ा खिसककर जगह करते हुए बोला।

और गाड़ी आगे चल दी।

"अरे इतनी गर्मी है और आप मुंह ढक कर बैठी हो? आराम से बैठो", ब्रजेश ने उसे कनखियों से देखते हुए कहा।

"हाँ-हाँ!!  नकाब उलट दो मोहतरमा", बिट्टू उत्साहित होकर बोला।

"नही !! तुम बस चलते रहो", उसने दृढ़ता से कहा।


"अरे उठा भी दो ये नकाब आज हम भी चाँद देख लें," ब्रजेश वहशत से हँसते हुए बोला।

"नहीं..!!",  उसने दोबारा थोड़ा ज़ोर देते हुए कहा।

"अरे हटा भी दे इतना क्या भाव खाती है", बिट्टू ने कहा और उसका नकाब उलटने की कोशिश करने लगा।

"अच्छा गाड़ी रोको हटाती हूँ नकाब, आराम से देखना", उसने हँसकर कहा।
और ब्रजेश ने गाड़ी रोक दी।

"ठीक से देखना",  उसने नकाब उलटते हुए कहा,,,

"नहीं...!!"

उसके नकाब उलटते ही इन दोनो की चीख निकल गयी।

उसके चेहरे पर मांस के लोथड़े लटके हुए थे। लंबे-लंबे खूनी दांत बाहर दिख रहे थे और आंखें जैसे आग की बनी हुई थीं।

बहुत डरावना भूतिया चेहरा था उसका।

इन दोनों के चेहरे भय से पीले पड़ गए और इनकी आवाज इनके गले में घुट कर गों गों!! बनकर रह गयी।

"देख लिया??",  अब सीधे चलते रहो और जहां मैं कहूँ चुपचाप गाड़ी रोक देना",  उसने सर्द स्वर में कहा और नकाब डाल लिया।

ब्रजेश ने डरते डरते गाड़ी आगे बढ़ाई, अब वह दोनों उसकी तरफ देखने में भी घबरा रहे थे।

थोड़ा आगे जाकर उसने एक तालाब के किनारे गाड़ी रुकवायी और खिलखिलाते हुए गाड़ी से तालाब में छलांग लगा दी और पानी में गायब हो गयी।

ब्रजेश किसी तरह गाड़ी घर तो ले आया लेकिन तभी से एक महीने तक ये दोनों बुखार में पड़े रहे।

लेकिन वे किसी को कभी नही बता पाए कि,
कौन थी वह.....?

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

९०४५५४८००८

#हॉरर/सूखे सोत का भूत

कुछ दिन पहले एक इंग्लिश कहानी पढ़ी थी  "the canterville ghost" जिसका सारांश ये था कि ओटिस परिवार एक पुराना घर खरीदते हैं और उसमें रहने आ जाते हैं।

केंटरविले (उस घर) में एक भूत रहता है जो नहीं चाहता कि कोई और उस घर में रहकर उसकी शांति भंग करे,  उसने उन्हें डराने के लिए कई उपाय किये जैसे फर्श पर खून के धब्बे फैलाना, डरावनी हंसी हंसना कई तरह के भेष बदलना किन्तु ओटिस परिवार उसे नज़रंदाज़ करता रहा।
और बाद में परिवार के सदस्य उसे ही परेशान करने लगे और अंत में बहुत रोने लगा वह अपने 300 साल पुराने निवास को छोड़ गया।

इस कहानी को बताने का मेरा उद्देश्य वही है जो लोग हमेशा कहते हैं कि भूत हमेशा भय का होता है, भूत(छलाबा) हमारे डर को ही हमारे खिलाफ इस्तेमाल करता है।
वह हमें अभाषी दृश्य दिखाता है लेकिन हम अपने मन को दृढ़ रखें तो वह हमारे दिमाग पर कब्जा नही कर पाता और स्वम् ही डर कर या कहो हार कर चला जाता है।

मैने भी अपनी छलाबा सीरीज़ की हर कहानी में यही प्रयास किया है कि डर पर मजबूत इच्छाशक्ति की जीत हो, और आशा करता हूँ कि आप पाठकों को मेरी अर्जुन पंडित सीरीज की भूत गाथाएं पसंद आती होंगी।

आज मैं यहां एक छोटा सा संस्मरण लिख रहा हूँ ।

सूखे सोत का भूत,,
बात कोई बीस साल पुरानी है मैं और मेरा मित्र अर्जुन सिंह मेरे मामा के घर जा रहे थे, मेरे माना का घर कालागढ़ के पहाड़ी की तलहटी में बसा एक छोटा सा गांव है।

गांव तक जाने के लिए बस से उतर कर लगभग तीन किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था और हमारे यहां से लगभग साठ किलोमीटर बस से जाना पड़ता था।
घर से हम चाहे कितनी भी सुबह चलें, तीन बसें बदलकर वहाँ पहुचने में दोपहर हो ही जाती थी।
हम दोनों ठीक 12 बजे बस से उतरे और चल दिये पैदल गांव की ओर।
क्यों ना लंबे रास्ते के बजाए सूखे सोत (पहाड़ से बरसात का पानी लाने वाली एक गहरी नदी जैसी संरचना) से चलें जहां से हमे गांव जाने के लिए आधी दूरी (यही कोई दो किलोमीटर) ही चलना पड़ेगा,किन्तु उस रास्ते में तो जंगली जानवर??? अर्जुन ने कहा।
जंगली जानवर सदा अकेले आदमी पर हमला करते हैं, मैने समझाया।
और चोर खले का छलाबा??,अर्जुन फिर डरते हुए बोला।

अरे यार उस जगह का तो नाम ही चोर खला है वहाँ भूत का छलाबा नहीं रहता बल्कि चोर रहते हैं जो लोगों को डराकर उन्हें लूट लेते हैं, मैंने उसे बताया।
और हम दोनों आधा किलोमीटर सड़क पर चलकर सोत में उतर गए ये सोत मुख्य सड़क से लगभग दस मीटर गहरा और बीस मीटर चौड़ा किसी नदी के जैसा ही था जिसमें सुखी सफेद रेत भरी रहती थी और उसके दोनों किनारों पर घनी झाड़ियां तथा ऊंचे पेड़ लगे थे।
जून की भरी दोपहरी में भी उसके अंदर छाया के कारण अच्छी ठंडक हो रही थी।
हम दोनों लोग मज़े में चले जा रहे हे तभी हमने देखा चोर खले के पास (लगभग दस मीटर दूर) एक सरदार अजीब सी हरकते कर रहा था।
मैंने इशारे से अर्जुनसिंग को चुप रहते हुए रुकने का इशारा किया और सामने देखने को कहा।
वह सरदार डर से कांप रहा था वह अचानक जोर से गिर गया, ऐसा लग रहा था जैसे कोई उसे मार रहा है और वह अपने हाथ सामने करके बचने की कोशिश कर रहा है।
अचानक वह रेत में जोर से लुढका जैसे किसी ने उसे फेंका हो।

क्या है वहाँ?? अर्जुन ने पूछा ।
छलाबा,, मैंने सामने देखते हुए कहा।
क्या ये सरदार छलाबा है? अर्जुन ने फिर पूछा।

नहीं छलाबा इसके सामने है।

फिर हमें क्यों नही दिख रहा? अर्जुन ने फिर पूछा।
तभी सरदार अपनी गर्दन अपने दोनों हाथों से पकड़ कर किसी से छुड़ाने के प्रयास में खुद ही दबाने लगा।

आओ अर्जुन, मैने अर्जुन का हाथ पकड़कर उधर दौड़ लगा दी और अपनी बोतल का पानी जोर से उसके मुंह पर फेंक दिया।
पानी पड़ते ही सरदार जैसे नींद से जगा हो, वह चोंकते हुए बोला , कहाँ गया भूत??
तुम लोग कौन हो?? 

हम हैं अर्जुन और पंडित,मैने हँसते हुए कहा।

आपको क्या हुआ था?? अर्जुन ने पूछा।

भ, ,, भूत था यहाँ, मैं जैसे ही यहां आया वह इस खले(पाइप लाइन दबाने के लिए बने बड़े गड्ढे) से निकलकर अचानक मेरे सामने आ खड़ा हुआ ओर हंसते हुए बोला आगे जाना है तो मुझे कुश्ती में हरा कर जाओ।
मैने उसके सामने हाथ जोड़ दिए कि वह मुझे जाने दे मैं उसके मुकाबले बहुत कमजोर हूँ।
लेकिन वह मुझे उठा उठा कर पटकने लगा, वह तो मुझे गला दबाकर मार ही डालता अगर तुम दोनों मुझे बचा नहीं लेते।

आपको भूत नहीं आपका डर मार रहा था, अगर आपने हिम्मत करके उससे कहा होता कि आजा लड़ ले फिर वह चुपचाप भाग गया होता मैंने हंसते हुए कहा ।
आपको कहाँ जाना है आइये चलिए हमारे साथ अर्जुन बोला और हम हँसते हुए अपनी मंज़िल की ओर चल दिए।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
९०४५५४८००८