Thursday, June 18, 2020

#कहानी/ डर

आधी रात बीत चुकी थी, देवेंद्र अपनी रेंजर से बहुत तेजी से पैडल मरते हुए घर लौट रहा था उसे आज अपनी प्रेमिका की बातों में समय का ध्यान ही नहीं रहा।
उसने पहले अपनी प्रेमिका को उसके घर छोड़ा और फिर अपने घर की ओर चल दिया।

आज की रात और दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही अँधेरी थी ऊपर से  हवा की तेरी सूखे पत्तों को सहलाकर हँसा रही थी जिनकी हँसी की 
खर्र..! खर्र.. चकककक चरर्त्तत...!! 
की कर्कश ध्वनि वातावरण में अलग ही भय उतपन्न कर रही थी।

माहौल इतना डरावना था कि गर्मी में भी देवेंद्र के जिस्म का हर रोंया खड़ा था जैसे किसी डर को देखकर शेर की गर्दन के बाल खड़े ही जाते हैं साही के कांटे खड़े हो जाते हैं।

अभी देवेंद्र काली नदी के पुल के बीच में ही पहुँचा था कि उसे सामने किसी के होने का अहसास हुआ उसे डर तो पहले से ही लग रहा था लेकिन अब तो उसकी साँसे राजधानी  की रफ्तार से चलने लगीं।
देवेंद्र ने अपनी रेंजर की गति को बढ़ाने में अपने फेफड़ों की पूरी ताकत लगा दी तभी वह साया उसे ठीक सामने खड़ा नज़र आया, उसके हाथ ब्रेक लीवर पर केस गए, रेंजर चिर्रर.... र्रर!! की आवाज करती हुई उस साये से एक फुट की दूरी पर रुक गयी।

देवेंद्र समने खड़े अजनबी को देखने लगा उसकी बड़ी बड़ी आंखे थी सर पर टोपी पहने हुए था।
लेकिन उसके चेहरे का कोई भी हिस्सा नज़र नहीं आ रहा था वहां बिल्कुल स्याह अँधेरा था।
देवेंद्र उसे देखकर बहुत डर गया उसके मुंह से अचानक तेज चीख निकली, 
भ...उ...त...!

तभी उस साये ने कहा, कहाँ घूम रहे हो इतनी रात को? तुम्हे पता नही देश मे कोरोना के चलते इमरजेंसी के हालात हैं , पूरे देश में कर्फ्यू लगा हुआ है और तुम सायकल पर आधी रात को हवा खोरी कर रहे हो इस बार तो चेतावनी देकर छोड़ रहा हूँ।अगली बार दिखे तो 144 में अंदर कर दूंगा।

तब देवेंद्र ने ठीक से देखा वह साया एक काला मास्क पहने हुए पुलिस वाला था।

देवेंद्र भाई चुपचाप लौट आये क्योंकि वह जानते हैं कि भूतों को तो फिर भी समझाया जा सकता है किंतु पुलिस......😢😢😢
नृपेंद्र शर्मा "सागर"

#कहानी/ तलाक के बाद

दिसम्बर का महीना था, ठिठुरती सर्दी का मौसम था। दिल्ली से ट्रेन कोई शाम आठ-सवा आठ पर चली थी। सर्दी के कारण ट्रेन लगभग खाली थी और शाम छः बजे सूरज डूबने से आठ बजे तक भरपूर रात का अहसास होने लगा था।
रिजर्वेशन कोच में चार दोस्त- मनोज, रोहन, शकील और नौशाद एक साइड की तीनों और सामने की एक नीचे बाली सीट पर लेटे हुए थे जिन पर उनका रिज़र्वेशन था।

अभी ट्रेन सीटी दे कर धीरे-धीरे खिसकने लगी थी तभी एक महिला बुर्का डाले, जल्दी से ट्रेन में चढ़ी और उसके पीछे उसके शौहर ने एक अटैची ओर दो बैग लगभग फेंक कर मारे। महिला की गोद में एक छोटा बच्चा था। वह एक हाथ से उसे संभाले, दूसरे से बैग खिसकाने लगी। तभी एक बच्चे को पकड़े बड़बड़ाते हुए उसके शौहर ने ट्रेन में एंट्री ली-

"सब तुम्हारी बजह से हुआ रुखसाना!! आज तो ट्रेन छूट ही गयी थी", वह लगभग चिल्लाते हुए समान घसीटने लगा।

"अब इसमें मेरी क्या गलती है मियां? मैने तो कहा था रिक्शा कर लीजिए, लेकिन आप ही ने तो कहा चार कदम पर ही तो स्टेशन है",  बेगम ने धीरे से कहा।

"अच्छा-अच्छा! हमेशा मैं ही गलत होता हूँ, चार पैसे बचाने की सोचूं तब भी और तुमसे मुतालिक कोई बात कहूँ तब भी। तुम थोड़ा तेज़ भी तो चल सकती थीं। अच्छा अब आओ ये रही हमारी सीटें, एक ये बीच बाली और दूसरी सबसे ऊपर की", वह समान इकट्ठा करते हुए बोला।
इनकी बक -बक से, ये सारे दोस्त भी नीचे की सीट पर आकर बैठ गए थे और इनकी बातों का मज़ा ले रहे थे।

"क्या हुआ भाई जान कोई परेशानी है क्या?" नौशाद ने पूछा।

"कुछ नहीं भाई,बस थोड़ा लेट हो गए थे पहुंचने में; ट्रेन बस चलते-चलते पकड़ी।अब छोटे बच्चों के साथ ऊपर की सीटें!!एक और मुसीबत है। बैसे आप लोग कहाँ तक जाएँगे?" उसने पूछा।

"बंगलौर तक", नौशाद ने कहा।

"मेरा नाम शमशाद है, और ये मेरी बेगम रुखसाना है। हम भी बंगलौर जाएंगे, भाई जान अगर आप लोगों को दिक्कत ना हो तो क्या नीचे वाली सीटें आप लोग हमारे साथ बदल सकते हैं? अब देखिए न रात का मुआमला है, नींद आनी लाजमी है, ऐसे में कोई बच्चा अगर गिर गया तो....? ऐसे तो हम पूरी एहतियात रखेंगे लेकिन फिर भी.... " शमशाद ने इल्तिजा की।

नौशाद ने अपने साथियों की ओर देखा और उनकी आंख का इशारा समझ कर हाँ कर दी।

"हाँ हाँ क्यों नही भाई जान, इसमें क्या मुश्किल है", बैसे मैं हूँ नौशाद अहमद, ये मेरा दोस्त शकील हुसैन, ये मनोज और ये हैं रोहन।
आप आराम से नीचे सो जाना हम लोग ऊपर शिफ्ट हो जाएंगे, नौशाद ने सबका तार्रुफ़ कराते हुए कहा।
ट्रेन पूरी रफ्तार में चल रही थी और साथ ही जारी थी शमशाद और रुखसाना की नोकझोंक- 
"अरे रुखसाना तुम बिस्किट के कितने पैकट लायी थी?अब एक भी नही मिल रहा", शमशाद बैग में टटोलते हुए बोला।

"चार लायी थी जी, अब खत्म हो गए होंगे! पूरे दो घण्टे से तुम दोनों अब्बू-बेटा खाये जो जा रहे हो",  रुखसाना झल्ला कर बोली।

"तो क्या भूखे रहें? मुंह को ताला लगा कर बैठ जाएं? तुम्हे पता था रास्ता लंबा है, इतने में चार पैकेट से क्या होता है?तुम्हे ज्यादा लेने चाहिए थे रुखसाना; अब बोलो मुझे या गुड्डू को भूख लगी तो क्या खाएंगे?" शमशाद गुस्से से चीखा।

"मुझे ही खा लो तुम!! भुक्कड़ लोगो, हर वक्त बकरी की तरह मुंह चलता है तुम्हारा! अरे ले लेंगे किसी हॉकर से, या किसी टेशन से।
अब क्या घर से बोझा लादकर भागना सही था? तुमसे तो ये भी न हुआ की इतना समान है, दो मासूम बच्चे हैं; तो रिक्शा ही बुला लो। आखिर कितने रुपए बचे होंगे,बीस-तीस ही ना? उससे ज्यादा का नुकसान हो जाता अगर ट्रेन छूट जाती तो; या जल्दबाजी में किसी को चोट लग जाती", रुखसाना ताने मारती हुई बोली।

"तुम न रुखसाना! खुद इतनी लापरवाह हो, और तुम्हे कुछ कहो तो लड़ने लगती हो। अरे तुम्हे पता है यहाँ ट्रेन में दो की चीज़ नो में मिलती है। लेकिन तुम्हे क्या, रुपए तो हमे कमाने पड़ते हैं; तुम्हे रुपए की कीमत क्या पता! कभी रुपए देखे हो खानदान ने तब तो जानो, सब तो साले कंगले हैं तुम्हारे खानदान में। सफर में जाते हो तब तो पता हो कि कैसे जाना चाहिए! और फिर सफर में खाने-पीने को लेने के लिए पैसे भी तो होने चाहिए", शमशाद ताने मारने लगा।

"अच्छा मेरा खानदान कंगला है....! और जनाब तो जैसे निज़ाम के वारिस हैं, बड़ा याकूत का खजाना भरा है आप के खानदान की तिजोरियों में तो। सब पता है मियां आपके खानदान का मुझे! अब मेरा ज्यादा मुंह मत खुलबाओ; देखा था हुजूर की बारात में कैसे बिरयानी और यखनी में घुसे जा रहे थे लोग- गोया हफ़्तों से ग़िज़ा नसीब ना हुई हो।
और गुलाबजामुन तो मुंह के साथ-साथ जेबों में भी भर रहे थे; जैसे जिंदगी में पहली दफा देखी हो। आये बड़े खानदान के बारे में कहने बाले, अरे तुम्हारे अब्बा-अम्मी छः दफा आये थे दामन फैला कर, तब जाकर हमने निकाह के लिए हाँ की थी। हम नहीं मरे जा रहे थे आपके खानदान में आने को", रुखसाना बाकायदा नाराज़ हो गयी।

"अच्छा हम मरे जा रहे थे? और वो जो तुम्हारे बड़े-अब्बू रोज पार्क में हमारे बड़े मियां से तुम्हारी तारीफें करते थे! कोई लायक लड़का पूछते थे?" शमशाद मियां भी चुप ना रहे।

" लड़का पूछ भी लिया अगर तो इसका मतलब ये कब से हो गया कि अपने ही पोते का रिश्ता भेज दो? अरे हमारे बड़े अब्बू ने तो दोस्ती की खातिर अपनेपन में उन्हें बता दिया और बडे मियां खुद के पोते के लिए ही लार टपकाने लगे। मुझे तो ये रिश्ता रत्तीभर भी पसन्द नहीं था; वो तो बस घर वालो की इज़्ज़त रखने के लिए कुबूल बोल दिया," रुखसाना शमशाद को चिढ़ाते हुए बोली।

"अच्छा तुम्हे पसंद नहीं था??" शमशाद बिफर गया। हमे लगा था तुम हमसे मोहबत करती हो रुखसाना लेकिन अगर तुम मज़बूरी में ये निकाह निभा रही हो तो ये तो गलत है, और जबरदस्ती किसी को अपने साथ रिश्ते में बांध कर रखना गुनाह है। तो मैं आज! अभी! तुम्हे तुम्हारी सारी ज़िम्मेदारी से आज़ाद करता हूँ ।मैं तुम्हे अपनी बेगम होने के हर फ़र्ज़ से आज़ाद करता हूँ।
मैं तुझे तलाक देता हूँ रुखसाना-
तलाक!
तलाक!!
तलाक!!!"
शमशाद एक झटके में कह गया। 
रुखसाना चीखती हुए उसे रोकती रह गयी।

उनकी इस हरकत से, उनका सारा झगड़ा सुनकर मज़ा ले रहे, ये चारों भी सन्न रह गए।
अब वहां पूरी तरह से सन्नाटा था सारे लोग जैसे इस घटना से जम से गये थे।

रुखसाना सुबकते हुए सिसकियां ले रही थी, शमशाद का चेहरा ऐसे हो रहा था जैसे किसी जुआरी का-अपना सब कुछ हार जाने पर होता है। वह बार-बार अपना सर पीट रहा था।

"ये आपने क्या किया शमशाद भाई, अरे पति-पत्नी की इस मीठी नोक-झोंक से तो जिंदगी मज़ेदार बनती है, और आपने तो आप दोनों की ही जिंदगी एक सज़ा सी बना कर रख दी। अब आपके गुस्से ने आपकी जिंदगी को गुनाह में धकेल दिया; अरे आपने ये कुफ़्र तोड़ने से पहले अपने मासूम बच्चों के बारे में भी नहीं सोचा?" नौशाद शमशाद के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला।

"ये क्या हो गया मुझसे!! खुदा कसम! मुझे तो पता भी नहीं चला कि कब मैं ये गुनाह कर गया। उफ्फ मेरे मौला! तू तो जनता है ये गुनाह मुझसे बिल्कुल बेख्याली में हुआ है। मैं अपने बच्चों की कसम! खाकर कहता हूं मैने जान बूझकर कुछ नही किया।
अरे मैं तो उन नापाक-लफ़्ज़ों को अपनी जुबान पर भी कभी लाना नहीं चाहता। फिर भी खुदा जाने कैसे मेरे मुंह से निकल गए।
मैं तो अपनी रुखसाना से बेइंतहा मोहब्बत करता हूँ। ये तो बस उसे छेड़ने में मुझे मज़ा आता है", शमशाद की आँखें आँसुओं से भर गयीं और वह सुबकते हुए आगे बोला-
"अरे रुखसाना! तेरे बिना मैं मर ही जाऊंगा; अल्लाह कसम!! तू ही तो जिंदगी है मेरी। अरे पागल तू तो जानती है, मैं बचपन से तुझ पर मरता था। या मेरे खुदा!! मुझे मुआफ़ करदे।
मैं अपनी मोहब्बत से अलग नहीं रह पाऊंगा।
लेकिन 'शरीयत' उसके मुत्तालिक तो अब... हलाला...उफ्फ!! ..हमें मौलवी साब को बताना पड़ेगा; या खुदा! मेरी रुखसाना को दूसरे मर्द के साथ, नहीं-नहीं, ये मेरी इज़्ज़त है", ओर शमशाद वाकायदा रोने लगा।

इधर रुखसाना पागलों की तरह बस रोये जा रही थी। ट्रेन के इस कूपे में इनके इलावा कोई शख्स नहीं था
रात का कोई बारह का टाइम हो रहा था, ठंड में बाहर चाँद-तारे भी ठिठुर रहे थे। या खुद को कोहरे की चादर में लपेट लिए थे। लेकिन ऐसी सर्दी की रात में इस डब्बे में मौजूद, हर शख्स के माथे पर पसीना छलक रहा था और उनके दिल धौकनी बने हुए थे।

"भाई जान कुरान हमने भी पढ़ी है, शरीयत हम भी समझते हैं, और उसमें जानबूझ कर हलाला को भी कुफ़्र ही माना गया है।
उसके मुतालिक तो ऐसे तलाक के बाद औरत अगर दूसरा निकाह करती है और संयोग से अगर दूसरा शौहर भी तलाक दे देता है, तो वह पहले पति से दोबारा निकाह कर सकती है। लेकिन ऐसा संयोग से ही होना चाहिए , जानबूझ कर पैसे लेकर हलाला कराना भी गलत ही है।" नौशाद और शकील ने शमशाद को समझाया।

"लेकिन भाई हमें दीन के मुतालिक तो चलना ही पड़ेगा। और कोई रास्ता है क्या हमारे पास?" , शमशाद बहुत उदास होकर बोला।

"फिर अब आप क्या करेंगे?" अबकी रुखसाना रोते हुए बोली।

"सीधे जाकर मौलवी साब को बताएंगे और उनसे इल्तिजा करेंगे कि वे हमारे साथ-साथ रहने की कोई राह निकालें, शरीयत के मुताल्लिक।" शमशाद ने जैसे फैसला कर लिया।

" यानी हलाला", रुखसाना अनजाने भय से सिहर उठी, उसकी आंखें आंसुओं से भर गईं।

"आप बच्चों को संभाल लेना, अब मैं तो खुदकुशी कर लुंगी; क्योंकि मेने भी हमेशा से बस तुमसे ही मोहब्बत की है शमशाद।
मुझे तुम्हारे अलाबा कोई कोई छुए, ये मुझे हरगिज गवारा नहीं होगा। किसी गैर मर्द के साथ.....! नहीं-नही चाहे वह कोई मेरे निकाह में ही कियूं न हो; मेरा दिल किसी ओर को कबूल नहीं करेगा शमशाद।
हम नही मानते ऐसे शरीयत के कानून को, जो किसी के जज्बातों को ना समझकर अपने जबरदस्ती के कानून चलाये।
हम या तो सीधे घर चलेंगे और भूल जाएंगे की इधर ट्रेन में क्या हुआ। नहीं तो हम खुदकुशी करेंगे बस, आप सोच लीजिये की आपको क्या करना है। अगर आप मौलवी के पास गए तो हम खत्म कर लेंगे खुद को बस," रुकसाना ने अपना फैसला सुना दिया।

"लेकिन रुखसाना खुदकुशी को भी तो गुनाह माना गया है। और हम गुनाह से बचने के लिए....", शमशाद ने कुछ कहना चाहा।

"खुदकुशी नहीं है ये शमशाद मियां!! ये तो कत्ल है मेरा, जो आपने वे मनहूस लफ्ज बोल कर किया है। और ना जाने कितने शौहर अपनी नादानी में अपनी बीबियों का करते हैं, ये नापाक लफ्ज बोलकर।
और फिर अपना होश! आने पर, अपना गुनाह छिपाने के लिए हलाला के नाम पर फिर उस औरत का कत्ल करते हैं, बार-बार करते हैं।
अरे कोई उस औरत से कियूं नही पूछता की वह क्या चाहती है? क्या औरत कोई बेजान चीज है? जिसे जो चाहे, जैसे चाहे, इस्तेमाल करे और जब मन भर जाए तो दूसरों को दे दे।
अरे हम भी अल्लाह की पाक रूह हैं, हम भी मर्दो की ही तरहा इंसान हैं। हमारे भी दिल हैं, जज्बात हैं और पसंद ना पसंद है।
और फिर कैसे कोई इंसान अपनी मोहब्बत को ऐसे बेजार कर सकता है।
नहीं-नहीं शमशाद!! हम ये बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। हम सच कह रहे हैं शमशाद हम मर जायेंगे", रुखसाना बदस्तूर रोते हुए बोली लेकिन अबकी उसकी आवाज में गुस्सा था, नाराज़गी थी।

"कुछ समझ नहीं आ रहा कि क्या करूँ?" शमशाद इन दोस्तों को देखते हुए उदास होकर बोला।

"हमारे पास तरकीब है, अगर आप राजी हो तो? आपकी शरीयत की शर्त भी पूरी हो जाएगी और आप सुबह साथ-साथ घर भी जा पाएंगे। आपके मन पर बोझ भी नही रहेगा कि आप दीन के खिलाफ गए", मनोज कुछ सोचते हुए बोला।

"क्या"!!??
शमशाद ओर रुखसाना एक साथ बोले।

"देखिए हमारे शकील मियाँ आलिम हैं और नोसाद भाई कुँआरे। बाकी हम दोनों हो जाएंगे गवाह। तो अगर आप चाहें तो हम रुखसाना भाभी जान का निकाह अभी नौशाद भाई से पढ़ा देते हैं और तीन घण्टे बाद ये उनको तलाक दे देंगे, उसके बाद आप उनसे दोबारा निकाह कर लेना। इस तरह आपकी शरीयत की बात भी रह जाएगी और आप साथ-साथ घर भी जा पाएंगे," चारों दोस्त मुस्कुराकर बोले।

"लेकिन इद्दत की मुद्दत?" शमशाद कुछ सोचते हुए बोला।

"देखिए मियां हमने कहीं पढ़ा था कि नेकी करने वालों और ईमान लाने वालों की सजा को साल से महीनों में महीनों से दिनों में और दिनों से घण्टों में तब्दील कर दिया जाएगा। तो मियां हम तीन महीने की इद्दत को तीन घण्टों में पूरा हुआ मान लेंगे और ऐसा करने के लिए हम सब उस परवरदिगार से मुआफ़ी भी मांग लेंगे।
और हमें पता है, मोहब्बत करने बालों को खुदा! हमेशा पसंद करता है।
तो इतनी हेराफेरी के लिए अल्लाह हमें जरूर मुआफ़ कर देगा", शकील मियां ने अपनी दलीलें देकर सबकी बोलती बंद कर दी।

जल्द ही रुखसाना ओर नौशाद का निकाह पढ़ाया गया और अगले तीन घण्टे रुखसाना नौशाद के साथ उसकी सीट पर बैठी, जहाँ उन्होंने कई बार प्यार से नौशाद का सर सहलाया।
अगले तीन घण्टे बाद फिर एक बार रुखसाना का तलाक हो गया लेकिन इस बार वह दुखी या उदास नहीं बल्कि खुश थी।

अगले तीन घण्टे बाद, सुबह सात बजे फिर से रुखसाना और शमशाद का निकाह पढ़ाया गया। उसके बाद अगले स्टेशन पर शमशाद ने सभी को चाय नास्ता कराया और अपने घर आने की दावत दी।


समाप्त

#कहानी/ रुखसार

साल 1992 उत्तरप्रदेश का एक छोटा सा गांव -
अम्मी,, अम्मी आप समझाइये ना अब्बू को,,, रुखसार अपनी बड़ी-बड़ी काली आंखों में मोटे-मोटेआंसू लिए अपनी अम्मी के पीछे-पीछे डोल रही थी।
अम्मी में एक बार उसकी तरफ देखा और मुंह घुमा लिया, अम्मी के चेहरे पर बेचारगी के निशान साफ नजर आ रहे थे।

अम्मी,, हम अपने हर दर्ज़े में अब्बल आते रहे हैं पढ़-लिख कर हम कुछ बनना चाहते है हम अपनी ज़िंदगी मे कुछ अच्छा करना चाहते हैं,, रुखसार लगभग रोते हुए बोली।

हम कुछ मदद नहीं कर सकते मेरी बच्ची,, जमीला(अम्मी) की आवाज़ बेबशी से भीगी हुई थी।
तुम्हारे अब्बू तो प्राइमरी के बाद ही तुम्हारा स्कूल छुड़ाना चाहते थे ,,,
तब भी हमने रो रो कर तुम्हारी शिफारिश कर दी थी लेकिन उसी वक़्त उन्होंने साफ बोल दिया था ,,
"बस जूनियर हाईस्कूल तक जहां तक गांव में स्कूल है, आगे शहर जाने की जिद ना करे तुम्हारी लाडली" 
हमने उस वक़्त ही कह दिया था कि आगे तुम्हारी तालीम के वास्ते हम बात नहीं करेंगे।
अम्मी!!!, रुखसार अब बाकायदा रोने लगी, एक बार बात तो करो आप, रुख़रास धीरे से बोली।

जमीला बिना कुछ बोले अपने आँसू पोंछते हुए चली गयी।

रुखसार आगे पढ़ना चाहती है,, जमीला ने रात को शमशाद का सर सहलाते हुए बड़े मनुहार से धीरे से कहा।
हमने आपसे पहले ही कहा था बेगम, की रुखसार को छूट मत दो हमें पता था ये दिन आएगा इसी लिए हमने पहले ही कह दिया था कि रुखसार गाँव में पढ़ाई खत्म करके घर के काम में हाथ लगाएगी।
आप तो जानती हो बेगम बिरादरी का हाल ज्यादा पढ़ने लिखने के बाद लड़की के लिए रिश्ता भी नहीं आएगा बिरादरी से, अरे यहां तो लड़के भी बस अलिफ बे पढ़कर मौलवी साब से दीन की तालीम लेकर हैण्डलूम पर बैठ जाते हैं सारी अंसारी बिरादरी जुलाहे का काम करती है।
ओर आपकी लाडली बड़े स्कूल जाकर सबको मुंह चिढ़ाने पर लगी है।
बेगम आप समझाओ रुख़सार को हमें की बिरादरी के साथ चलना है  फिर आगे  बच्चों के शादी बियाह बी करने हैं।
दो हैण्डलूम हैं हमारे कुछ तुम दरी बुनती हो , सारा दिन धागों से उलझने के बाद भी जिंदगी की मुश्किलें नहीं सुलझती ऊपर से शहर की पढ़ाई का खर्च।
ओर फिर लड़की ऐसे मुंह खोले फिरेगी तो आपको पता है कितनी बातें बनेंगी लोग जीना मुश्किल कर देंगे मोहल्ले में।
मैं नहीं चाहता कि मेरे घर की औरतें बिना हिज़ाब बिना पर्दे के घूमें।
जमीला चुप होकर सो गई हालांकि वो चाहती थी कि रुखसार को आगे पढ़ने की इजाज़त मिले लेकिन वह भी लाचार थी।

अब्बू मैं कोई खर्च नहीं मांगूंगी आपसे मैं अपनी दरी की आमदनी से अपना खर्च निकाल लुंगी घर मे भी सारे काम में हाथ लगाउंगी बस मुझे आगे पढ़ने दीजिये,, अब्बू मैं हमेशा बुर्के में रहूँगी मुंह खोलकर नहीं घूमूंगी अब्बू शहर के स्कूल में बहुत सी लड़किया बुर्के में आती हैं ,मैं आपको कभी शिकायत का मौका नहीं दूंगी।
मान जाईये ना अब्बू मेरे प्यारे अब्बू मेरे अच्छे अब्बू रुखसार ने रोते रोते शमशाद को मस्का लगाते हुए कहा।
आप चलकर देख लीजिए ना अब्बू एक बार ,,शहर में लड़कियों के लिए अलहदा स्कूल है सारी लड़कियां ही पढ़ती हैं उसमें अब्बू मैं पढ़ना चाहती हूं रुखसार बराबर आंसू बहाते हुए बोली।

आज तीन दिन से रुखसार बिना खाये पिये रोये जा रही थी घर के काम तो वह बराबर कर रही थी लेकिन निवाला उसने कतई मुंह के अंदर नहीं डाला था।
जमीला लगातार शमशाद से इल्तजा कर रही थी कि वह रुखसार को इज़ाज़त देदे चाहे अपनी शर्तें लगा ले नहीं तो रुखसार गम में बीमार हो जाएगी एक ही तो बेटी है उनकी उसके बाद तीन बेटे,,,
अरे ना आये कोई रिश्ता यहां से हम अपनी बेटी शहर में बियाह देंगे शहर में तो पढ़ाई लिखाई की बहुत कद्र है।

ठीक है रुखसार चली जाओ शहर पढ़ने लेकिन जिस दिन किसी ने तुम्हारी गलत शोहबत या बेपर्दा निकलने की शिकायत की उसी दिन से बिना कुछ बात सुने स्कूल बंद।

रुखसार शहर में कन्या इण्टर कॉलेज जाने लगी,, उसने घर की मजबूरी बता कर बुर्के में रहने की इजाज़त ले ली थी।

रुख़सार की लगन और मेहनत से वह बहुत कम समय में ही कॉलेज में सारे टीचर्स की चहेती बन गयी ।
वह घर से निकल के बस में कॉलेज तक पूरी एहतियात बरतती की कोई शिकायत किसी को ना रहे।
रुख़सार की  मेहनत का नतीजा था कि दसवीं में उसने सारे कॉलेज में सबसे ज्यादा नम्बर पाए थे।

स्कूल से उसे कई ईनाम मिले ओर साथ ही साथ उसका वजीफा भी शुरू हो गया स्कूल में फीस तो ऐसे भी नही देनी पड़ती थी।
आगे उसने  और ज्यादा मेहनत की घर पर वह देर रात तक दरी बनाने का काम करती, अब्बू के हैण्डलूम का ताना कर देती उनकी धागे की नालियां ठीक से रखती।
उसकी बनाई दरियां इतनी सुंदर होतीं की उसे ऊंची कीमत मिलती।

अब्बू को रुख़सार से कोई शिकायत नहीं थी, अलबत्ता बिरादरी वाले ज़रूर दबी जुबान में कहते, " भाई शमशाद तो अपनी लड़की को कलेट्टर बनाएगा शहर में पढ़ने भेज दिया अकेली लड़की को,,कुछ ऊंच नीच हो जाये तो नाक तो सारी बिरादरी की कटेगी,,," 
लेकिन सामने कोई कुछ नहीं बोलता।

आज रुख़सार के पास दो खुशखबरी थीं लेकिन वह कशमकश में थी कि दूसरी बाली अब्बू को कैसे बताए, उसे पता था अब्बू फिर गुस्सा करेंगे बहुत नराज होंगे लेकिन रुख़सार बहुत खुश थी ,,

अब्बू मैंने बारहवीं में सारे जिले में टॉप किया है रुख़सार चहक कर बोली,, मैं जिले में अब्बल आयी हूँ अब्बू।
शमशाद ने कुछ नहीं बोला बस हल्के से मुस्कुराकर झटके से हैण्डलूम की नली इधर से उधर सरका दी।

अब्बू वो,,, अब्बू मुझे आपको कुछ और भी बताना है उम्मीद है आप गुस्सा नहीं करेंगे।
शमशाद ने आंखे टेढ़ी करके उसे देखा जैसे पूछा हो क्या? 
वो अब्बू हमने मेडिकल की पढ़ाई के लिए इम्तिहान,,, हमारा नम्बर उसमें आ गया अब्बू हमें सबसे अच्छा कॉलेज मिला है अब्बू ओर हमें फीस वी ज़्यादा नहीं पड़ेगी,,, मैं कर लूंगी अपने पास से अब्बू,, मुझे स्कोलरशिप भी मिली है,,आप बस जाने की इजाज़त दे दीजिए,, रुख़सार एक सांस में सारी बात बोल गई।

घर में कोहराम मचा हुआ था,, रुख़सार कहीं नहीं जाएगी जमीला, शमशाद ने चिल्ला कर कहा।
रुख़सार पर्दे के पीछे बैठी जोर जोर से रो रही थी उसकी सिसकियों की आवाज बादस्तूर आ रही थी उसके छोटे भाई जिन्हें उसकी वजह से आगे पढ़ने को मिल रहा था इसके गले लगे उसके आंसू पोंछ रहे थे।
आपकी बजह से ये लड़की बहुत आगे बढ़ गयी हमने समझाया था आपको की इसे ज्यादा शह मत दो लेकिन बेटी की मोहब्बत में तुम्हारी तो आंखें ओर कान बन्द थे,,
अब इतनी दूर पराये शहर!! अरे क्या अकेली लड़की का ऐसे दूसरे राज्य में जाकर अकेले रहना ठीक है!??
ऐसे ही सारी बिरादरी थू थू कर रही है हमपर किसी के लड़के ने भी कभी बारहवीं के बाद आगे पढ़ाई नहीं की,, ओर तुम्हारी लाडली,,, नहीं नहीं अब हम इज़ाज़त नहीं देंगे।

लेकिन आपी तो लड़कियों के हॉस्टल में रहेगी अब्बू,, अबकी नुशरत थोड़ा तेज़ होकर बोला, नुशरत खुद अबकी दसवीं में था और पढ़ई की कीमत समझने लगा था।
तुम खामोश रहो नुशरत तुम्हे कुछ नहीं पता बाहर के माहौल का, अब्बू ने उसे डांट कर चुप करते हुए कहा।


पूरे एक हफ्ते की जद्दोजहद के बाद आखिर रुख़सार मेडिकल की पढ़ाई के लिए चली गयी।
सारा घर रुख़सार के पक्ष में शमशाद मियां के खिलाफ हो गया था खाना पीना बन्द था कोई बात भी नहीं कर रहा था,, 
ठीक है जो तुम लोगों को सही लगे करो,, शमशाद ने हथियार डालते हुए कहा।


आज पूरे सात साल हो गए शमशाद ने रुख़सार से कोई बात नहीं की, वह छुट्टियों में घर आती सब उससे बात करते लेकिन शमशाद मियां की नाराजगी जारी रहती,, जमील ने कई बार उन्हें समझाने की कोशिशें की लेकिन वह नहीं माने।

mbbs  के बाद रुख़सार ने ms में दाखिला लिया और उसके बाद अस्पताल में ,,,

आज उसके सम्मान में एक पार्टी थी कॉलेज में जहां इसके जिला अस्पताल में मुख्य सर्जन के रूप में नियुक्त होने की खुशी मनाई जा रही थी।
आज हमारे कॉलेज की पहचान हमारी ब्रिलियंट रुख़सार अंसारी को अपने ही जिले के जिला अस्पताल में प्रमुख सर्जन के तौर पर अपॉइंट होने पर हम सबको उनपर गर्व है, ओर हम उनकी मंजिल दर मंजिल कामयाबी की दुआ करते हैं ,, कहकर उसे उसके साथी डॉक्टरों ने एक बॉक्स थमाया ओर सभी तालियां बजाने लगे,, रुख़सार का चेहरा आज भी हिज़ाब में केद था।
पार्टी के बाद रुख़सार गिफ्ट खोल रही थी तभी उसकी नज़र कपड़े में बंधे एक बॉक्स पर पड़ी,,
अरे ये कौन देकर गया वह चोंकते हुए उठी और उसे खोलने लगी,, कपड़े के नीचे एक ख़त था वह उसे खोलकर पढ़ने लगी उसमें लिखा था,
"खुदा तुझे सलामत रखे और तुझे तेरा सोचा हर मुकाम हाशिल हो मेरी बच्ची।
उम्मीद करता हूँ तू मेरी ज्यादतियों के लिए मुझे ज़रूर मुआफ़ कर देगी, मैं गलत था जो बिरादरी ओर समाज की सोचता रहा और आपकी बच्ची के सपनों की उड़ान पहचान नहीं पाया लेकिन अब मुझे फक्र है की तुमने अपना नाम इतना बड़ा कर लिया अब सारी बिरादरी को तुमने दिखा दिया की लड़कियां भी कुछ भी कर सकती हैं।

अब मैं तुमसे नहीं खुद से नाराज़ हूँ कि मैंने तुम्हें दुःख दिया, लेकिन मेरी बच्ची मैं तुमसे मुआफ़ी मांगते हुए कहता हूं की मैं तुम्हारी कामयाबी से बहुत खुश हूं।
मुझे बहुत फख्र होता है जब लोग अदब से कहते है,", वो देखो डॉक्टर रुख़सार के अब्बू" 
और हाँ अब तुम्हे ये हिज़ाब ये नकाब में अपना चेहरा छिपाने की कोई ज़रूरत नहीं लोगों को पता लगना चाहिए की शमशाद अंसारी की दुखतर रुख़सार अंसारी बिल्कुल उन्ही की तरह दिखती है और उन्ही की तरहा जिद्दी भी है।

आगे उसने बॉक्स खोला तो उसकी पसंद का नीले रंग का रेशम का सलवार कुर्ता था और एक सफेद कोट जिसपर गिरी एक आँसू की बूंद अपना निशान छोड़ गई थी।

रुख़सार की आँख से निकला एक आँसू अपने अब्बू के आँसू में जज्ब हो गया लेकिन ये खुशी का आँसू था।

©नृपेंद्र शर्मा"सागर"
9045548008वस्ट्सप नमम्बर

#कहानी/ इंसान बनूँगा

"बाबा..बाबा, मैं भी इंसान बनूँगा", चिंटू (चूहे) ने सबके सामने घोषणा की।

चिकचिक अवाक उसका मुंह देखता रह गया, "तुमसे किसने कहा कि चूहे इंसान बन सकते हैं?" उसने हैरानी से पूछा।

"मुझे पता है इंसान पहले चूहा था, फिर बंदर बना, उसके बाद आदि मानव, और फिर इंसान।" चिंटू एक सांस में कह गया।

"लेकिन तुम्हे ये कहा किसने चिंटू? रुको -रुको तुमने कल क्या खाया था? कहीं किसी वैज्ञानिक के घर तो....?" कुद्दु ने उसे आश्चर्य से देखते हुए कहा।
"क्या दद्दा आपको हमेशा मैं नशे में दिखाई देता हूँ क्या?", चिंटू गुस्से से बोला।

"और नहीं तो क्या, याद नहीं तुमने भेड़िये का मांस खाकर कैसे उधम मचाया था।" (पढ़ें,जैसा खाये अन्न और चिंटू की चतुराई) कुद्दु ने उसी रो में जवाब दिया।

"कुछ नहीं खाया मैंने; मैं तो बस्ती से बाहर भी नहीं गया, कहीं कुछ नहीं खाया।" चिंटू अभी भी मुंह बनाये हुए था।

"अच्छा ये तो बताओ तुम्हे ये शिक्षा किसने दी की मनुष्य पहले चूहा था फिर बन्दर बना फिर इंसान...।"सभी ने एक साथ उससे पूछा।

"लालूराम" 

"क्या !!? क्या कहा तुमने 'लालूराम', अरे उसे कुछ नहीं पता;  वह बस ऐसे ही लोगों को उलझलूल बातें सुनता रहता ह।"ै कुद्दु ने हँसकर कहा।

"एक बार गया था वह भी इंसान बनने, दो पैरो पर चलकर ।एक मदारी ने पकड़ लिया था उसे, उसके बाद बेचारा बहुत दिन तक डंडे के डर से इंसानो की नकल करता रहा।
  उसी मदारी ने बार-बार अपने खेल में कहा कि बन्दर इंसान के पूर्वज हैं, और लालूराम को तभी से अपने ऊपर इंसान का पूर्वज होने का गर्व होने लगा।" कुद्दु हँसते हुए बताने लगा।

"एक दिन लालूराम बहुत मुश्किल से मदारी से छूट कर भागा तो किसी स्कूल में छिपा हुआ था, वहां इसने ये सुन लिया कि चूहे भी इंसान के पूर्वज हैं, तभी से हर किसी को लालू बस यही कहानी सुनाता है।" चिकचिक ने हँसते हुए आगे कहा और सारे चूहे चिंटू पर हँसने लगे।


"स्कूल वाले भला गलत क्यों पढ़ाएंगे??" मतलब सच में चूहे इंसान के पूर्वज हैं, तभी तो अपनी किताबों में लिखा उन्होंने।
मैं भी जाकर डॉक्टरों से मिलूंगा, अरे आप लोगों को पता नहीं अब तो मनुष्य ने  विज्ञान में इतनी तरक्की कर ली है की किसी की भी सर्जरी करके उसका रूप बदल सकते है।
मैं सबसे पहले तो अपनी दुम हटवाउंगा,  कितनी बदनाम है ये दुम,, चूहे की दुम, चिंटू मुंह बनाकर बोला।
उसके बाद अपनी मूँछे सही करवाऊंगा ओर थोड़ा अपने कान ओर नाक.., 
उसके बाद मैं अपने पैर और कमर सीधी करवाकर दो पैरों पर चलने  लगूँगा, फिर बस बन गया मैं इंसान।
मैं कल ही लैबोरेट्री जाऊँगा " चिंटू आत्मविश्वास से भरकर बोला।

"क्या!!..? क्या कहा तूने.. लैबोरेट्री??" चिकचिक लगभग चीख ही पड़ा।

"बिल्कुल नही जाओगे तुम वहाँ। चिकचिक  ने नाराज़ होकर कहा।
तुम्हे पता है, ये निर्दयी इंसान अपने अतीत (जिससे उसका मोई मतलब नहीं ) उसे जानने के लिए कितने जीवों को बेदर्दी से मरता है इन लेबोरेट्री में।
अरे कितने मेंढक, कितने केंचुए, कितने कॉकरोच, कितने खरगोश, और न जाने कितने चूहों की कत्लगाह हैं इनकी ये लैबोरेट्री।

एक ओर तो ये भगवान को पूजते हैं जो बिल्कुल इन्ही की तरह दिखते हैं और मानता है कि ईस्वर तब भी था जब कुछ भी नहीं था, जीवन शुरू भी नहीं हुआ था तब।
ओर जनता है ईश्वर प्रलय (कयामत) के बाद भी रहेगा।
अरे जब ईस्वर हमेशा इंसान के जैसा दिखता है तो उसका बनाया इंसान कैसे चूहे या बन्दर जैसा रहा होगा, लेकिन इंसान को कोन समझाए। तुम ही सोचो चिंटू, हमारे आदि मूषक मूषकराज , युगों से आदि देव महागणेश जी के साथी हैं लाखों बार उनसे स्पर्श भी होते हैं, लेकिन क्या आज वह तक इंसान बने।

चिंटू ये सब इंसानो का लालच है कि किसी जंतु के शरीर की बनाबट उनके जैसी हो तो उसे ढूंढो ताकि इंसान उस पर अपनी बीमारियों और नयी दवाईयों का परीक्षण कर सके।

अरे लाखो घोघे तो सिर्फ खून का रंग देखने के लिए कत्ल कर दिए जाते हैं इन प्रयोगशालाओं में।

चिंटू तुम बिल्कुल नही जाओगे किसी लैब में, हम नहीं चाहते कि तुम वहां किसी लैबोरेटरी में इंसानी खुराफात का साधन बनो ओर उनके किसी परीक्षण का हिस्सा बनकर ....।"चिकचिक की आवाज दुख के आंसुओं से भीग गयी और वह आगे कुछ ना कह सका।
और चिंटू दौड़ कर चिकचिक के गले लग गया, उसके चेहरे पर पश्चताप के भाव थे।
मित्रों  क्या लैब में परीक्षण के नाम पर निर्बोध जानवरों का कत्ल उचित है, क्या वह अमानवीय नहीं है? 
नृपेंद्र शर्मा 'सागर'
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
9045548008

Wednesday, June 17, 2020

#कविता- जय जवान

चीनी चूहों को शेरों ने वो औकात दिखाई है।
लाठी और डंडों के बल पर दुगुनी लाश गिराई है।
सोचो बोनो क्या होता गर ये बंदूक उठा लेते।
बिना शस्त्र जब भारत वीरों ने तुमको धूल चटाई है।
ज्यादा मत उछलो बन्दर से यहाँ मदारी भी होते हैं।
तुम जैसे कितने बन्दर और बन्दरी हमने नचाई है।
ऐसा न ही मिट जाए विश्व पटल से नाम चीन का।
कई बार तुम जैसे दुश्मन की हस्ती हमने मिटाई है।।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"

#हॉरर/तीस साल बाद

यूँ तो वह घर से शाम को अँधेरा होने से पहले ही निकला था लेकिन फिर भी घर से चार किलोमीटर का जंगल और पहाड़ चढ़ने में उसे कोई तीन घण्टे का समय लग गया।

और जब वह ऊपर रोड तक पहुंचा तब तक अँधेरा पूरी तरह घिर आया था।
उसने अपना मोबाइल निकाल कर समय देखा, "अरे साढ़े नौ बजे गए?!! अब तो मुझे कोई वाहन भी नहीं मिलेगा।
उसने अफसोस किया और एक पत्थर पर बैठ गया।

हुआ कुछ ऐसा था कि हरीश को उसके भाई का फ़ोन आया कि कल सुबह तक वह कुछ भी करके दिल्ली पहुंचे क्योंकि कल उसके पिताजी का ऑपरेशन होना है और उन्हें खून की जरूरत भी पड़ेगी।
उसके पिताजी काफी समय से बीमार चल रहे थे और उसका बड़ा भाई उन्हें लेकर इलाज के लिए दिल्ली गया हुआ था।
घर में हरीश उसकी भाभी और बूढ़ी माँ ही थे।

हरीश ने फोन अपनी भाभी को दिया और दोनों ने बात करने के बाद आपस में सलाह की।
"भाभी अब शाम होने वाली है और दिल्ली बहुत दूर है।
फिर भी मै अभी निकल जाता हूँ, आप रास्ते के लिए कुछ खाने का बना दो। और मां को मत बताना नहीं तो चिंता करेगी", हरीश ने कहा।

"ठीक है तुम हरिद्वार हाइवे तक पहुँच जाओगे तो तुम्हे ट्रक या दूसरी कोई गाड़ी मिल जाएगी।
आजकल चार धाम की यात्रा चल रही है रात में भी कई गाड़ियां आती-जाती रहती हैं", उसकी भाभी ने कहा और उसके लिए पराँठे बनाने लगी।

मई के आखिरी दिन चल रहे थे, शाम को सात बजे तक ठीक-ठाक उजाला रहता था।
हरीश ने अपना छोटा सा बैग उठाया और निकल पड़ा जँगल के रास्ते।
उनका गाँव रुद्रप्रयाग जिले में मेन रोड से कोई  चार-पांच किलोमीटर नीचे था।
रोड तक आने के लिए कच्ची पगड़न्ड़ी थी जो चीड़ के घने जंगल से होकर आती थी।
हरीश के पिता जी  'रुद्रनाथजी' के बहुत बड़े भक्त थे, और उनके साथ ही हरीश और उसका भाई भी मन्दिर में सेवा  करते थे। हरीश ने घर में रखे रुद्रनाथ जी के विग्रह के सामने दिया जलाया और अपनी तथा अपने पिताजी की सलामती के लिए प्रार्थना की।
जैसे ही हरीश जँगल में पहुंचा अचानक बहुत तेज़ हवा चलने लगी और घना अँधेरा छा गया। चीड़ की पत्तियां उस तेज हवा में उड़ने लगीं और कुछ ही देर में पगड़न्ड़ी दिखाई देनी बन्द हो गयी।
हरीश की उम्र अभी सोलह-सत्रह साल की ही थी वह इस मंजर से घबरा तो रहा था लेकिन लड़कपन के जोश में उसने चलना जारी रखा।
एक बार फिर हरीश ने सच्चे मन से हाथ जोड़कर रुद्रनाथ जी को याद किया और आगे बढ़ गया।
कुछ दूर चलने पर हरीश को जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई उसे रास्ता दिखा रहा है।
उसे नहीं पता था कि वह किस ओर जा रहा है, लेकिन वह तेजी से चल जा रहा था।
और अब वह उस सड़क पर एक पत्थर पर बैठा हुआ था।
उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसे यहाँ तक पहुंचने में ढाई-तीन घण्टे कैसे लगे जबकि उसका घर से रोड तक आने का समय ज्यादा से ज्यादा एक-डेढ़ घटा था।

हरीश को वह रोड भी जानी पहचानी नहीं लग रही थी ये कोई बहुत चौड़ी रोड थी और बहुत ऊँचाई पर थी।
इस रोड के एक ओर ऊँचा पहाड़ था और दूसरी ओर बहुत गहरी खाई।

हरीश को आये कोई दस-पन्द्रह मिनट ही हुए होंगे, अभी वह कुछ सोच ही रहा था कि सामने मोड़ से एक बस के हॉर्न की आवाज आई।
हरीश उठकर खड़ा हो गया और लिफ्ट मांगने के लिए हाथ हिलाने लगा।

उसे सामने से दो लाइट्स दिखयी दे रही थीं, उसने जोर जोर से हाथ हिलाना शुरू कर दिया।
चरर्रर्रर!!!
बस उसके पास आकर  चरर्रर्रर की तेज आवाज करती हुई रुक गयी।
वह दौड़ कर बस  के पास आया बस बहुत पुरानी लग रही थी उसका पेंट मिट चुका था और उसपर लगा लाल-लाल जंग इस अंधेरे में भी नजर आ रहा था।
हरीश तेजी से खिड़की की तरफ लपका, बस की खिड़की भी टूटी हई थी।
उसके अंदर एक बहुत हल्की लाइट जल रही थी, हरीश जल्दी से अंदर चढ़ा और उसके चढ़ते ही बस चल पड़ी।

बस लगभग खाली थी कंडक्टर और ड्राइवर के अलावा कुछ दस-बारह लोग ही बस में थे और ज्यादातर सीटें खाली थीं।

हरीश एक पूरी खाली सीट पर खिड़की के पास बैठ गया।

बस के सभी यात्री और कंडक्टर की आँखे खुली हुईं थीं, लेकिन उनमें से किसी ने भी इसे देखकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी।
उसने बहुत ध्यान से उन सबको देखा वे सब ऐसे लग रहे थे जैसे आंखें खोल कर सो रहे हों।
हरीश को बहुत अजीब लगा कि कैसे लोग हैं जो आंखें खोल कर सो रहे हैं।

कुछ देर बाद वह उठकर कंडक्टर के पास आया उसने उसे आवाज लगाई, "दाज्यू टिकिट बना दीजिये", लेकिन कंडक्टर आंखें खोले शून्य में ही देखता रहा उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
"अरे ये सब पुतले हैं क्या?", हरीश ने अपने मन में सोचा।
अब वह घूमकर ड्राइवर के पास गया।
ड्राइवर की स्थिति भी बिल्कुल बैसी ही थी। उसकी आंखें भी शून्य में टिकी हुई थीं, उसके हाथों के अलावा बाकी कोई अंग हरकत नहीं कर रहा था।

गाड़ी की रफ्तार भी बहुत तेज़ थी लेकिन वह न तो ब्रेक लगा रहा था और ना ही गियर बदल रहा था।

अब हरीश को पहली बार डर लगा, उसके रोंगटे खड़े हो गए।
उसे लगा कि कुछ तो विचित्र घट रहा है उसके साथ।
उसने खिड़की के बाहर झांक कर देखा, वह गाड़ी जैसे हवा में उड़ रही थी।

"रोको!!!@...", हरीश की डर के मारे चीख निकल गयी।
तभी उसे भिनभिनाती हुई ऐसे आवाज आई जैसे हज़ारों मधुमक्खी एक साथ भिनभिना रही हों।

उसने ध्यान से देखा, बस में बैठा हर आदमी हँस रहा था और उनके मुँह से हँसने की बहुत धीमी आवाज आ रही थी।
उनकी आंखें अभी भी शून्य में ही देख रही थीं और उनके चेहरे के भाव भी नहीं बदले थे।

हरीश अब डरकर जोर से चिल्ला रहा था, "बस रोको.. उतारो मुझे..
वह बस से कूदना चाहता था लेकिन इतनी तेज भागती बस से कूदना भी उसके लिए आत्महत्या करने जैसा ही था।

वह बस में आगे पीछे भाग रहा था और उनके हँसने की आवाज अब तेज़ होती जा रही थी।

काफी देर ऐसे ही भागने के बाद अचानक फिर, "चिरर्रर!!!" की तेज आवाज के साथ वह बस रुकी।
हरीश जल्दी से अपना बैग लेकर नीचे उतर गया।

"उधर चले जाओ...! " तभी उसने एक आवाज सुनी, उसने पलट कर देखा, कंडक्टर उसे एक तरफ को इशारा करके बता रहा था।

हरीश को कुछ समझ नहीं आया कि उसके साथ क्या हो रहा है लेकिन फिर भी वह उसकी बतायी दिशा में चल दिया।
कोई आधा घण्टा उस पहाड़ से नीचे उतरने पर उसे बहुत सारी लाइट्स नजर आने लगीं जैसे कि बहुत बड़ा शहर हो।

उसने अपनी गति और बढ़ा दी और जब वह नीचे उतर कर शहर में पहुँचा तो उसे पता चला कि ये ऋषिकेश है।

उसने पूछताछ की तो उसे रात दो बजे दिल्ली के लिए ट्रेन होने की जानकारी मिली जो स्पेशल ट्रेन थी और चारधाम यात्रा के लिए चलाई गई थी।

उसने अपना मोबाइल निकाल कर समय देखा रात का एक बजकर बीस मिनट हो गए थे अर्थात उसके पास स्टेशन पहुँचकर गाड़ी पकड़ने के लिए पर्याप्त समय था।

हरीश टिकिट लेकर गाड़ी में बैठ गया, वह पूरे रास्ते उस बस के बारे में ही सोच रहा था।
अगले दिन वह समय से दिल्ली पहुंच गया जहाँ उसके पिताजी का सफल ऑपरेशन हुआ।
इन दोनों ही भाइयों को दो-दो यूनिट खून देना पड़ा था।

शाम को होटल में चाय पीते समय हरीश की नज़र सामने पड़े अखबार पर पड़ी उसमे मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था,

"तीस साल पहले" खाई में गिरी बस कल रात रुद्रप्रयाग ऋषिकेश मार्ग पर दिखी।

उसे पढ़कर हरीश के हाथ से चाय का गिलास छूट गया और वह अपने होश खोकर जमीन पर गिर गया।

दो दिन बाद नार्मल होने पर हरीश सोच रहा था कि "ये सब उसके साथ क्यों हुआ? ये जरूर भगवान रुद्रनाथ जी की माया थी जो उन्होंने इनके पिताजी को बचाने के लिए की थी।

तबसे हरीश हर साल चारधाम यात्रा में भगवान रुद्रनाथ जी के नाम से भंडार लगाता है।

©नृपेंद्र शर्मा "सागर"
९०४५५४८००८

#रहस्य कथा/इंतज़ार करना

पुरानी कहानी (ये कहानी मैने गांव में किसी से सुनी थी)

बहुत पहले किसी गांव में एक किसान रहता था, उसके पास बहुत खेत थे इसीलिए गांव के लोग उन्हें चौधरी कहते थे।

पुराने जमाने में लोग सुबह जल्दी उठ कर दिशा मैदान(शौच) 
आदि के लिए जंगल जाते थे।
चौधरी साब भी रोज सुबह मुंह अंधेरे ही जंगल चले जाते थे।
चौधरी साब ऐसे  भी घर से कुछ दूरी पर बनी बैठक पर ही रहते थे।

उस दिन भी चौधरी साब सुबह चार बजे ही जंगल के लिए चल दिये।
जुलाई के महीने शुरू हो चुका था एकाध बार हल्की बारिश भी हुई थी फिर भी सुबह चार बजे उषाकाल का हल्का उजाला दिखने लगता था।
चौधरी साब ने जेजे ही गांव के बाहर बने कुएं को पर किया उन्हें एक बहुत सुंदर स्त्री गहनों से लदी कुएं की जगत (कुएं के ऊपर जो दीवार का घेरा होता है) पर बैठी दिखी।
उसके गहने अँधेरे में भी दूर से चमक रहे थे, उसे देखकर पहले तो चौधरी साब डरे क्योंकि उन्होंने बहुत लोगों से सुना था कि उक्त कुएं में माया रहती है।
लोग कहते थे कि माया लोगों को आवाज लगाती है मिंटू अगर कोई तीन बार पुकारने पर भी नहीं सुनता तो बापस कुएं में कूद जाती है।
चौधरी ने सोचा कि वह भी उसे अनसुना करके निकल जाएंगे, और चुपचाप चलने लगे, जैसे ही वे उसके पास पहुंचे उस स्त्री ने आवाज लगायी," सुन मुसाफिर जाने वाले धन दौलत से घर भर दूंगी, बदले में पहला फल लूँगी"।
चौधरी ने विचार किया माया है अब इसके पहले फल का क्या मतलब है ये पता नही बदले में क्या मांगले, तो उन्होंने उसे अनसुना कर दिया और चलने लगे।
जैसे ही चौधरी ने एक और कदम बढ़ाया फिर आवाज आई ," सुन मुसाफ़िर जाने वाले धन और माया नहीं घटेगी पुस्तें बैठी खाएंगी पहले फल से सोडा कर ये घड़ी न वापस आएगी।

चौधरी का दिमाग बहुत तेज़ी से काम कर रहा था उसने फिर आगे कदम बढ़ाया।
माया ने फिर आवाज लगाई मुसाफिर ये अंतिम पुकार है अपर सम्पदा को तेरी हां का इंतज़ार है।

अब तक चौधरी सोच चुका था कि उसे क्या करना है वह तपाक से बोला मेरी एक शर्त है।

क्या? माया ने पूछा।

आप मेरे घर चली जाए और मेरे लौट कर आने टास्क इंतज़ार करें उसके बाद आप जो मांगेंगी मैं आकर दे दूँगा।

ठीक है, माया ने जबाब दिया।

ऐसे नहीं, चौधरी ने हंस कर कहा।

फिर कैसे? माया ने पूछा।

आप वचन दीजिये मुझे की आप मेरे घर  से तब तक कहीं नहीं जाएंगी जब तक मैं लौट कर घर नहीं आता, और मेटे आने तक मेरे घर मे किसी को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचाएंगी। चौधरी ने हाथ बढ़ाकर कहा।

ठीक है हमने वचन दिया, कहकर माया ने अपना हाथ उसके हाथ पर रख दिया।

माया चौधरी के घर आ गयीं किन्तु चौधरी कभी घर लौट कर नहीं आया, वह वहीं से तीर्थ धाम करने निकल गया और अपनी यात्रा में ही कहीं मर गया।

माया आज भी चौधरी के घर पर उसके आने का इंतज़ार कर रही है, और चौधरी की पुस्तें माया की धन माया से सम्पन्न बनी हुई हैं।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"