Wednesday, June 18, 2025

चोर बाजार

चोर बाजार

 यह घटना साल 1988 की है, रहमत अली दिल्ली के बड़े व्यापारी थे। एक दिन रहमत अली  अपने स्कूटर से किसी काम से दिल्ली के चोर बाजार में गए थे, उन्होंने अपना स्कूटर एक दुकान के सामने खड़ा किया और दुकान की सीढ़ियां चढ़ने लगे। अभी रहमत मियाँ आधी दूरी तक ही पहुँचे थे कि एक आदमी उनके स्कूटर को घसीटकर ले जाने लगा जिसका हैंडल लॉक लगाना रहमत अली भूल गए थे।
 "अरे क्या करता है? ये मेरी गाड़ी है, छोड़ उसे चोर कहीं के।" कहते हुए रहमत अली उस चोर के पीछे भागे, वह चोर बहुत तेजी से उनकी स्कूटर घसीटता हुआ जा रहा था और अचानक वह एक कबाड़ी की दुकान के सामने स्कूटर पटककर उसे 'दो' उंगली दिखाकर वहाँ से भाग गया।
 रहमत अली हाँफते-हाँफते अपने स्कूटर के पास पहुँचे और उसे उठाने लगे तो एक भारी-भरकम हाथ ने उनका हाथ पकड़ लिया।
 "अमाँ क्या करते हो? इस गाड़ी को हाथ केसे लगा रहे हो?" रहमत अली के कानों में एक भारी आवाज पड़ी तो उन्होंने गर्दन उठाकर ऊपर देखा, उनके सामने एक तगड़ा आदमी खड़ा था जिसने कुर्ता और तहमद पहना हुआ था।
 "ये गाड़ी हमारी है जनाब, वह आदमी हमारी गाड़ी दुकान के सामने से घसीटकर यहाँ फेंक गया है तो बस हम अपनी गाड़ी ले रहे हैं। देखिये इसकी चाबी हमारे पास है और कागजात भी।" रहमत मियाँ उस आदमी की डील-डौल देखकर थोड़े नम्र स्वर में बोले।
 "अमाँ रही होगी गाड़ी आपकी लेकिन अब ये हमारी है, वह आदमी इसे पूरे दो हजार में हमें बेचकर गया है।" वह आदमी फिर उसी कड़क आवाज में बोला और रहमत अली का हाथ झटक दिया।
 रहमत अली को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें, वह माथे पर बल डाले कुछ सोच रहे थे।
 "देखो मियाँ! ये चोर बाजार है और यहाँ धंधा ऐसे ही चलता है। अगर तुम पुलिस के पास जाने की सोच रहे हो तो बस अपना टेम खराब करोगे क्योंकि पहले तो पुलिस यहाँ आती नहीं है और अगर आयी भी तो जब तक पुलिस यहाँ आयेगी ये गाड़ी खत्म हो चुकी होगी और पुलिस को इसका एक पुर्जा तक नहीं मिलेगा। अच्छा ये रहेगा कि आप तीन हजार रुपये दो और ये गाड़ी हमसे खरीद लो।" वह आदमी इस बार थोड़ा नर्म आवाज में बोला।
 "लेकिन मैं भला अपनी ही गाड़ी क्यों खरीदूँ और वह भी तीन हजार रुपयों में यह गाड़ी ढाई हजार से ज्यादा में कोई भी नहीं लेगा, बहुत पुरानी गाड़ी है ये तो।" रहमत अली झुंझलाते हुए बोले।
 "आपकी मर्जी मियाँ, मत लो लेकिन अब यहाँ से जाओ और धंधे के टाइम मेरा दिमाग खराब मत करो।" वह आदमी फिर झिड़की देते हुए बोला।
 रहमत अली देख रहे थे कि धीरे-धीरे चोर बाजार के बाकी कबाड़ी भी इनके चारों ओर इकठे हो गए थे और रहमत अली को घूर रहे थे। रहमत अली समझ गए थे कि ये अंधेर नगरी है और यहाँ उनकी कोई भी नहीं सुनेगा।
 रहमत अली धीमे से मुस्कुराए और बोले, "अच्छा मियाँ पच्चीस सौ ले लो, हमारा तो बड़ा नुकसान ही गया आज अपनी ही गाड़ी दोबारा खरीदनी पड़ रही है।
 "चलो सत्ताईस सौ निकालो।" वह आदमी जैसे फाइनल दाम बोला और दुकाब के अंदर जाने लगा।
 "ठीक है मियाँ सत्ताईस ही ले लो, अब तो मैं अपनी गाड़ी ले लूँ?" रहमत अली जैसे हथियार डालते हुए बोले।
 "ठीक है ले लो और सत्ताईस सौ रुपये ढीले करो।" वह आदमी हाथ फैलाते हुए बोला।
 "अभी देता हूँ।" कहकर रहमत अली ने स्कूटर सीधा करके खड़ा किया और उसकी डिक्की खोल कर उसमें से सौ के नोट की दो गड्डी निकाली, अपने पैसे सही सलामत देखकर रहमत अली के चेहरे पर मुस्कान थी उन्होंने एक गड्डी में से पैसे गिने और कबाड़ी के हाथ पर रखकर स्कूटर स्टार्ट कर ली।
 कबाड़ी और दूर खड़े चोर के चेहरे देखने लायक थे।

   नृपेंद्र शर्मा
 ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

Friday, February 21, 2025

वो साया



1.वो साया


साल 2010 स्थान देहरादून के पास कहीं,

पूनम  अपनी देवरानी के साथ कुछ फोटो बनबाने के लिए आई थी, कुछ पासपोर्ट फोटो उन्हें बैंक एकाउंट के लिए चाहिए थे और कुछ वे ऐसे ही यादगार के लिए चाहती थीं।
पूनम, जैसा नाम वैसा ही रूप, सिंदूरी दूध सा गोरा रंग, पतले खूबसूरत गुलाबी होंठ, सुंतबा नाक और गहरी काली पनीली आंखे उस दिन गुलाबी साड़ी में वह बिल्कुल अप्सरा ही लग रही थी हर युवा दिल उसे देखकर तेज़ी से धड़कने लगा था।
ऐसे तो पूनम पैंतीस की उम्र पार कर चुकी थी उनके दो बच्चे भी हैं, लेकिन उनका छरहरा जिस्म ओर प्राकृतिक सुंदरता उनकी उम्र को कभी पच्चीस पार ही नहीं करने देती।
अभी पूनम और उनकी देवरानी रास्ते में ही थीं कि अचानक तेज हवा के साथ जोर की बारिश शुरू हो गयी, ये दोनों भीगने से बचने की कोशिश में दौड़ते हुए एक बाग में आकर खड़ी हो गईं लेकिन इस भाग दौड़ में दोनों पूरी तरह भीग चुकी थीं।
पूनम की गुलाबी साड़ी भीगकर उसके गोरे बदन से कस कर लिपट गयी थी, अब उसकी जवानी के सारे चिन्ह स्प्ष्ट उभर आये थे, वह जितना अपनी साड़ी की सही करने की कोशिश कर रही थी वह उतना ही और कसती जा रही थी।
ये दोनो बारिश से बचकर एक पेड़ के नीचे खड़ी अपने गीले बालों को झटक रही थीं।
पूनम के लंबे काले बाल उसके चाँद जैसे मुखड़े को बादल बनकर खुद में समेट लेना चाहते थे जिन्हें वह बड़ी अदा से झटक कर अपने चेहरे से अलग कर देती थी।
अपनी इस वेख्याली में की गई लुभाविनी अदाएं करते वक्त वह ये नहीं देख पाई की बाग में कुछ दूर एक मज़ार के पास खड़ा धुएं जैसा 'साया' उसकी हर अदा को बड़े गौर से देख रहा था।

पूनम बचपन से ही बहुत सुंदर थी, और सोलह सत्रह तक आते-आते तो उसकी सुंदरता कई हीरोइनों को मात देने लगी थी।

उसका पूनम के पूर्ण चाँद से भी गोरा मुख किसी को भी अपनी तरफ आकर्षित कर लेता था।

जो उसे एक बार देख लेता उसका जहन कई दिनों तक पूनम के पास गिरवी हो जाता।

स्कूल और कॉलेज में हमेशा पूनम की सुंदरता चर्चा के शिखर पर रही हर युवा दिल पूनम के नाम से आहे भरता रहा।
इक्कीस की उम्र तक आते आते पूनम की शादी देहरादून के पास कहीं पहाड़ी इलाके में हो गयी।
पूनम के पति ऐसी सुंदर पत्नी पाकर बहुत खुश थे वे पूनम को खुश करने का कोई मौका नही चूकते थे, इधर पूनम भी पहाड़ी गाँव की आवोहवा में रहकर ओर ज्यादा निखर गयी थी।
दो बच्चे होने पर भी उसके बदन की कसावट में कोई फर्क नहीं पड़ा था बल्कि वह दिनों दिन ओर निखरती जाती थी।

जबसे पूनम भीगकर बापस आयी उसे कुछ अजीब लग रहा था, उसके पति और सास को लगा कि भीगने से तबियत खराब हुई होगी तो उन्होंने पास के ही एक डॉक्टर से उसे दवाई दिला दी जिसे खाकर पूनम को नींद आ गई किन्तु नींद में या कहो उनींदी में उसे लगा कोई साया सफेद घोड़े पर बैठा उसे अपनी ओर बुला रहा है।
इस साये की उमर इकीस बाइस के जैसे लग रही थी, बहुत सुंदर गठीला नौजवान मुस्कुरा कर हाथ बढ़ाये पूनम को पुकार रहा था, ओर पूनम ना जाने क्यों खुद पर काबू न रख कर उसके आकर्षक में उसकी ओर खींची चली जा रही थी।

अगले दो तीन दिन पूनम बिस्तर पर लेटी रही उसका बदन निस्तेज, शक्तिहीन बना रहा उसे हर वक्त वो साया अपने आसपास महसूस हो रहा था।
एक खूबसूरत नौजवान अब पूनम को स्पस्ट दिखने लगा था, वह उसे देखकर प्यार से मुस्कुराता उसकी आंखों में देखता रहता, कभी वह सफेद घोड़े पर बैठकर आता पगड़ी पहने दूल्हा जैसे सजा हुआ।
वह बार बार पूनम को अपने साथ चलने का इशारा करता और पूनम अपना सर झटक कर खुद को उसके ख्याल से मुक्त करने का प्रयास करती, हां केवल प्रयास ही क्योंकि पूनम जिधर भी मुंह करती, उसकी आंखें जिस दिशा में भी देखती उसे वही साया मुस्कुराता नज़र आता।
पूनम अपने हाथ पांव हिला नही पाती थी ना ही उसके मुंह से शब्द निकलते थे, वह बहुत चाहती कि चीखकर सबको उसकी उपस्थिति बताए लेकिन उसे लगता कि किसी माया ने उसके सारे अंगों को जकड़ कर जड़ कर दिया गया है।
कभी उसे लगता कि ये सब बस एक सपना है, .. लेकिन इतना लंबा सपना।

पूनम के परिजनों ने कई डॉक्टर बुलाये जो आते, उसकी जांच करते और कहते "इन्हें कोई बीमारी नही है बस थोड़ी कमज़ोरी है", और एकाध ताकत का इंजेक्शन लगाकर कुछ दवाइया दे जाते।

किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है।
तीसरे दिन पूनम उठी, उसने थोड़ा सा खाना भी खाया उसके बाद उसने सभी परिवार को अपने आसपास किसी अनजान साये के होने की बात बताई ,लेकिन किसी ने भी उसकी बात पर विस्वास नहीं किया उसके पति और सास ने कहा कि बीमारी और कमजोरी की वजह से उसे वहम हो गया है।

उसी रात में आधी रात को जब पुनम की आंख खुली तो उसने देखा, वह साया उसके पति की छाती पर बैठा पूनम को बड़े मनुहार से देख रहा है उसकी उंगलियां पूनम के बालों से खेल रही हैं।
पूनम बहुत घबरा गई, उसने डरते डरते मरी आवाज में पूछा,"कौन हो तुम? ओर ऐसे मेरे पीछे क्यों पड़े हो??"

"सय्यद" उसने मुस्कुराकर कहा, याद है उसदिन बाग में बारिश से भीगी हुई तुम अपने बाल खोलकर उन्हें झटक रही थी।
वहीं पास ही मेरी मज़ार है, मैं वहीं बैठा हुआ था तुम्हारी खूबसूरती देख कर मुझसे रहा नही गया मुझे तुमसे मोहब्बत हो गयी और मैं तुम्हारे खुले बालों की खुश्बू में बंध कर तुम्हारे साथ आ गया।
तुम्हारी खूबसूरती का दीवाना हो गया हूँ मैं, अब तुम्हे अपना बनाना चाहता हूं, बस अपना", उसने कुटिलता से मुस्कुराकर कहा।
"नहीं" पुनम ने चिल्लाने की कोशिश की लेकिन उसकी आवाज उसके गले से ऐसे निकल रही थी जैसे वह किसी गहरे कुएं में कैद हो।
पूनम छटपटा रही थी उसकी आँखों से आंसू छलक रहे थे।

पूनम ने अपनी पूरी शक्ति समेट कर अपना एक हाथ उठा कर उसे अपने पति की छाती से परे धकेला, उसकी इस हरकत से जैसे वहाँ कोई जलजला आ गया, पूनम का पलंग बहुत तेज़ी से ऊपर उठ कर गोल घूमने लगा।

अब वह साया उसके पति की छाती पर पैर रखे खड़ा था उसकी आंखें गुस्से से लाल हो रही थी अचानक उसके चेहरे से मांस धुआं बनकर उड़ने लगा और दिखने लगा हड्डियों का भयानक ढांचा।
पूनम भय से मरी जा रही थी तभी उसे एक आवाज सुनाई दी ऐसी तीखी भयानक आवाज जैसे हज़ारो भौंरे एक साथ बिल्कुल उसके कान के अंदर गुंजार रहे हों।
वह कह रहा था, "तुम्हे मेरी होने से अब कोई नही रोक सकता, अब या तो तुम मेरे साथ चलो, नहीं तो तुम्हारे पति को मारकर मैं यहीं तुम्हारे साथ रहूंगा तुम चुन लो तुम्हे क्या मंज़ूर है।", ये कहकर वह जोर से हँसने लगा जिससे उसके मांस रहित डरावने हड्डी के ढांचे में जमे दांत चमकने लगे।
पूनम अपनी चेतना खोकर निढाल हो गयी अब वह हिल भी नही रही थी लेकिन उसकी भययुक्त आंखे अभी भी उसे देख रही थीं।

अचनक वह साया फिर से सुंदर नोजवान बनकर पूनम के सिरहाने बैठ गया, उसकी उंगलियां पूनम के बालों से खेलने लगी, वह पूनम के सर, माथे और गालों को सहला रहा था, अचानक वह झुका और पूनम के होंठो पर अपनी जीभ फिराने लगा, वह उसके होंठ चूम रहा था, अनायास पूनम का मुंह न चाहते हुए भी खुल गया अब वह उसके होंठो को पूरे जोर से चूस रहा था, अचानक पूनम को लगा कि वह साया धुंए में बदल रहा है, ओर देखते ही देखते वह धुआं बनकर उसके मुंह के रास्ते पूनम के पेट में चला गया।
उसके बाद से पूनम के पेट में बहुत दर्द रहने लगा, उसे भूख भी बहुत लगती लेकिन इतना खाने के बाद भी उसकी सेहत दिन प्रतिदिन गिरती जा रही थी।
पूनम का चाँद सा चेहरा जैसे पूनम से अमावस्या में तब्दील होता जा रहा था, उसकी सुंदरता को जैसे कोई ग्रहण लग गया था।
पूनम की सुंदर आंखें गढ्ढो में धंस गयी थीं, आंखों के चारों ओर काले घेरे अपना डेरा जमा चुके थे, पूनम का उजला रंग स्याह पड़ता जा रहा था।
कमजोरी के चलते पूनम अब ज्यादा समय बिस्तर पर ही लेटी रहती थी।
पूनम को लगता था की 'वह साया' हर वक़्त उसके साथ है, वह पूरी तरह से सय्यद के वश में हो चुकी थी सय्यद जब चाहता था मनमानी करता , पूनम असहाय होकर बस सबकुछ सहती रहती।
वह जब किसी को कुछ बताती तो कोई उसकी बात पर विश्वास नहीं करता।
अब तो लोग उसे मानसिक विक्षिप्त तक कहने लगे थे।


पूनम को याद आता था वह दिन जब वह साया उसके होंठो को चूमते हुए उसके पेट मे चला गया था , उसने पूनम के अंगों को बुरी तरह कुचला था जैसे अपने रहने की जगह बना रहा हो, पूनम को असहनीय पीड़ा हुई थी उसे ऐसा लग रहा था जैसे प्रसव की पीड़ा होती है, उसके कमर की हड्डियां तक चरमरा गई थीं।
लेकिन पूनम न तो हाथ पांव हिला पाई और न ही किसी को कुछ बता पाई बस उसकी आँखों से आंसू छलकते रहे।

उसी रात पूनम जब सोई तो उसे लगा कि अचानक उसके सारे वस्त्र अपने आप हट गए हैं और वह साया मुस्कुराते हुए उसके सामने खड़ा मुस्कुरा रहा है।
यूँ तो पूनम को अपने कपड़े बदन पर ही दिख रहे थे किंतु उसे न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि वह निर्वस्त्र है।
अचनक सय्यद उसके पास बैठ कर उसके बालों में उंगलियां घुमाने लगा।
"अब तुम पूरी तरह से मेरी हो लेकिन जो एक कमी रह गई उसे मैं आज पूरी कर लूंगा, फिर चाहे कोई कितनी  भी कोशिश करे तुम मेरी होकर रहोगी, मैं तुम्हारी सुंदरता पर आशिक हूँ, तुम्हारा हुस्न मुझे दीवाना कर देता है आज इस हुस्न को मैं जी भर कर प्यार करूँगा ओर तू सदा-सदा के लिए मेरी हो जाएगी", सय्यद पूनम की आंखों में देखते हुए बोला।
पूनम ना में सर हिलाने लगी वह जैसे आंखों ही आंखों में उस से छोड़ देने को कह रही हो।
सय्यद मुस्कुराया और पूनम के माथे को चूम लिया, उसने बड़े  प्यार से उसके आंसू पोंछे और पूनम के बदन को सहलाने लगा।
पूनम को उसका स्पर्श अपने सारे बदन पर हो रहा था उसकी उंगलियां उसके होंठ पूनम के जिस्म से खेल रहे थे। पूनम खुद को बहुत असहाय महसूस कर रही थी ।
पूनम को लग रहा था कि वह उसके अंग से खेल रहा है।

पूनम को अपने बदन पर उसकी उंगलियां मचलती महसूस हो रही थी।
पूनम उसे हटाना चाहती थी लेकिन वह कुछ नही कर पा रही थी, वह ना चाहते हुए भी बिना मर्जी उसके इस काम में साथ थी, सय्यद घण्टों पूनम के साथ जिस्मानी होता रहा और पूनम उसे ना चाहते हुए भी बर्दाश्त करती रही पूनम का 'जिस्म' फोड़े की तरह दुख रहा था अब वह बेहोश सी होने लगी थी।
पूनम को याद नही की सय्यद कब तक उसके जिस्म से खेलता रहा लेकिन उसके दर्द और निजी अंगों का गीलापन इस बात के गवाही दे रहे थे कि सय्यद ने पूनम से कई बार जिस्मानी सम्बन्ध बनाये थे, और रात के तीसरे पहर के खत्म होते ही वह उसके मुंह के रास्ते उसके पेट में चला गया था।

अब तो ये जैसे रोज का काम हो गया था दिन भर वह उसके पेट में रहता और रात होते ही बाहर आकर पूनम के जिस्म से खेलता उसकी बिना मर्जी उसके साथ सम्बन्ध बनाता।
ऐसे ही छः सात महीने बीत गए पूनम की हालत एकदम मरणासन्न ही गई, सभी को लगने लगा की पूनम को कोई मानसिक बीमारी हो गयी है, तभी वह अजीब बातें करती है और हर समय अजीब सी आंखे चढ़ाये रहती है।

अब पूनम अपने पति को अपने पास नही आने देती थी, वह उनको कुछ भी फेंक कर मार देती थी, वह कई बार उनपर हिंसक हो चुकी थी।
तभी लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि पूनम पागल हो गयी है।
लेकिन केवल पूनम ओर वह साया जानते थे कि ये सब कौन कर रहा है।
पूनम असहाय थी, बेवस थी ऊपर से कोई भी उसकी बातों पर यकीन नहीं करता था।

एक दिन पूनम की जेठानी की लड़की राधिका उसको देखने आयी, राधिका सोलह साल की समझदार लड़की थी, पूनम ने उसे सारी बात बताई, राधिका को पूनम के हालात और उसकी बातों पर यकीन आ रहा था।
राधिका अपने कुल देवता की पूजा करती थी, कुल देवता का राधा पर विशेष आशीर्वाद था उसमें थोड़ी अलौकिक शक्ति भी थी।
रात को राधा पूनम के साथ ही सो गई, राधिका की उपस्थिति से सय्यद पूनम से दूर हो गया वह राधिका की ऊर्जा का मुकाबला नही कर पा रहा था ।

सय्यद आंखे चढ़ाये गुस्से से पूनम को देख रहा था, वह बार बार पूनम से राधिका को अपने पास से हटाने को बोल रहा था ,वह बहुत परेशान था बहुत गुस्से में था आज इतने दिन में पहली बार इसे पूनम का जिस्म भोगने को नहीं मिल रहा था ।

सय्यद दूर से अपने चेहरे को विकृत करके पूनम को डराने की कोशिश कर रहा था लेकिन वह इसके पास नही जा पा रहा था।

अगले पंद्रह दिन राधिका पूनम के साथ ही रही और इन पंद्रह दिनों में सय्यद एक बार भी पूनम के पास नहीं आ पाया था वह बस दूर से उसे  डराने की कोशिश करता था ।

पूनम की हालत में थोड़ा सुधार आने लगा था , अब वह थोड़ा चलने फिरने भी लगी लगी थी और सेहत भी सुधर रही थी।
सब सही होने लगा था कि अचानक उस दिन राधिका की स्कूटी ट्रक से टकरा गई और उसकी दोनों टांगो में फ्रेक्चर हो गया जिससे उसके पैरों का ऑपरेशन करना पड़ा और राधिका को अस्पताल में रहना पड़ा।

उस रात सय्यद ने पूनम को बहुत प्रताड़ित किया , वह क्रूर हँसी हंसते हुए बोला," जो भी हमारे बीच अएगा उसका यही हाल होगा।
फिर वह पूनम के जिस्म को नोचने लगा आज सय्यद प्यार से नही बल्कि गुस्से और वासना से पूनम का बलात्कार कर रहा था वह उसे यातनाएं दे रहा था।

सुबह होते होते पूनम बिल्कुल बेहोश होकर पड़ गई उसका जिस्म सफेद पड़ गया था जैसे किसी ने उसका सारा खून निचोड़ कर पी लिया हो।
अब पूनम को भी अस्पताल में भर्ती करना पड़ा जहाँ राधिका भर्ती थी।
अस्पताल में पूनम और राधिका को इनके परिवार ने मिन्नत करके एक ही कमरे में शिफ्ट करवा दिया, जिससे दोनों की एक साथ देखभाल में उन्हें आसानी रहे।
उस रात फिर से सय्यद पूनम को छू नहीं पाया हालांकि वह एकदम उसके नज़दीक खड़ा था क्यूंकि राधिका की ऊर्जा उसके बीमार होने से कुछ कमज़ोर हो गयी थी अतः वह कमरे में तो आ गया लेकिन वह पूनम को छू नहीं पा रहा था।
सय्यद फिर से चिढ़ गया, वह अजीब सी डरावनी गुर्राहट निकालने लगा  जैसे बहुत सारे भेड़िये एक साथ गुर्रा रहे हों जिनके हाथ से शिकार निकल गया हो।

सय्यद को पूनम के जिस्म की आदत हो गयी थी, वह इसके बिना बहुत वेचैन था सय्यद लगभग बाबला होकर पूनम को डरा रहा था।
पूनम खुली आँखों से उसे देख रही थी सय्यद का चेहरा देखते ही देखते बहुत बड़ा और विकृत होने लगा उसके दांत लंबे होकर मुंह से बाहर दिखने लगे।
वह पूनम से कह रहा था, "चल यहां से नहीं तो अभी तुझे मार दूंगा ओर साथ ही तेरी इस रक्षक को भी, ये बड़ी भगतनी बनी है ना, मैं चाहूँ तो अभी इसका खून पी जाऊंगा लेकिन मैं फालतू लोगों पर अपनी ताकत बर्बाद भी करना चाहता।
तू चुपचाप चल मेरे साथ", और बोलते समय उसकी आवाज ऐसी गुर्राहट के साथ निकल रही थी जैसे कोई भेड़िया किसी आदमी की आवाज में बोल रहा हो।

पूनम चुपचाप मुंह बंद किये लेटी रही, पूनम को ये बात समझ आ गयी थी कि राधिका के आस-पास सय्यद उसका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा।
किन्तु बाद में!!?
पूनम जानती थी कि दो चार दिन में उसे अस्पताल से छुट्टी मिल ही जाएगी...उसके बाद..!
पूनम उसकी वहशत को याद करके सिहर उठी की कैसे इसने पूनम के जिस्म को अंदर ओर बाहर पूरा रौंद डाला था पिछली रात, वह जानती थी कि अब इसका गुस्सा फिर से पूनम पर बरसेगा।
किन्तु वह बेबस थी क्योंकि उसे पता था कि घर में कोई भी पूनम की बात नहीं समझता उनमें से कोई ये मानने को तैयार नहीं कि ये किसी ऊपरी साये का काम है।
उन्हें तो बस यही लगता था कि पूनम पर पागलपन के दौरे पड़ते हैं।

इधर सय्यद दो तीन दिन फिर पूनम से दूर रहा तो दवाइयां अपना काम करने लगीं और पूनम ठीक होने लगी।

चौथे दिन डाक्टर ने कहा कि अब पूनम पहले से वेहतर है तो आप इन्हें घर ले जा सकते हैं और कुछ दवाइयां खाने के लिए दे दीं।
पूनम अस्पताल से या कहो राधिका के पास से जाना नही चाहती थी लेकिन वह कुछ बोल नहीं पाई।

घर आने के बाद पूनम सामान्य थी उसका पूरा दिन आराम से बीत गया।
रात को वह अपने पति के साथ सोई।
कोई आधी रात को पूनम को लगा कि उसके कपड़े अपने आप उतर रहे हैं वह निर्वस्त्र होती जा रही है।
पूनम ने आंख खोल कर देख तो उसके पति पलंग से नीचे पड़े थे और सय्यद उनके सीने पर पैर रखे खड़ा था।
सय्यद ने बहुत सुंदर चमकीले कपड़े पहने थे और सर पर पगड़ी पहनी हुई थी।
वह हाथ बढ़ाकर पूनम से कह रहा था," ऐ हुस्न की तस्वीर, तू क्यों मुझे तड़फाती है, आ मेरे साथ चल मेरी दुनिया में मैं तेरे साथ  निकाह करके तुझे अपनी दुनिया में ले चलता हूँ हमेशा के लिए।
पूनम ने गुस्से से उसे घूर कर देखा और इनकार में सर हिलाकर मुंह फेर लिया।

पूनम की इस हरकत से जैसे वह फिर गुस्से से पागल हो उठा उसने अपना पांव पूनम के पति के गले पर रख दिया और अपना आकर बढ़ाने लगा। धीरे-धीरे वह बहुत विशाल होने लगा था, पूनम के पति के गले से गूँ गूँ की आवाजें आ रही थीं,  उनकी आंखे बाहर उबलने लगी, ये देखकर पूनम ने उसके आगे हाथ जोड़ दिए ये पूनम का उसे मनमानी करने के लिए बेमन से किया 'हाँ' का इशारा था।

सय्यद फ़ौरन उसके पास आकर बैठ गया और पूनम के बदन से खेलने लगा, वह फिर पूनम से बड़ी बेरहमी से पेश आ रहा था पूनम उसके इस वहशियत से बहुत दर्द महसूस कर रही थी।
"चलो मेरे साथ तुम्हारे सारे दर्द दूर हो जाएंगे और तुम मेरी मल्लिका बनकर रहोगी", वह पूनम के कान में बोला।

"मार डालो मुझे अब दर्द बर्दास्त नहीं होता, तुम कहते हो कि तुम मुझसे इश्क़ करते हो और दर्द ऐसे देते हो कि कोई दुश्मन भी किसी को ना दे, हाँ तुम मार डालो मुझे", पूनम बहुत हिम्मत करके उससे गुस्से में बोली।

"नहीं, ऐसे नहीं तुम मुझे कुबूल करलो फिर मैं तुम्हे अपने साथ ले चलूंगा, लेकिन ऐसे नही जब तुम्हें मुझसे मोहब्बत हो जाएगी तब" सय्यद मुस्कुरा कर बोला और अगले ही पल किसी हिंसक जानवर की तरह उसे नोचने लगा।

पूनम को लग रहा था कि उसके नाजुक अंग में कुछ असहनीय पीड़ा हो रही है, उसने बड़ी मुश्किल से सर उठा कर देखा और उसकी सांस ही अटक गई।
सय्यद पूनम के अंग से उसके अंदर प्रवेश कर रहा था और देखते ही देखते सय्यद पूनम के शरीर में समा गया।

इसके बाद फिर शुरू हो गया सिलसिला।

 सय्यद अब फिर रोज रात भर पूनम के साथ मनमानी करता और सुबह होने से पहले कभी मुंह से तो कभी किसी दूसरे अंग से उसके अंदर प्रवेश कर जाता।
अब वह पूनम से प्यार से पेश आने लगा था, वह इससे बहुत प्यार भरी बातें करता और रात भर पूनम के शरीर को भोगता।

धीरे-धीरे पूनम को भी इसकी आदत होने लगी, वह ना चहते हुए भी सय्यद को पसंद करने लगी थी।
पूनम को सय्यद का प्यार से पेश आना प्यार की बाते करना और भरपूर प्यार करना न जाने कैसे लेकिन अच्छा लगने लगा था।

अब पूनम सामान्य रहने लगी लेकिन उसके बदन से पूरा खून जैसे सूख सा गया था अब वह केवल हड्डियों का ढांचा मात्र रह गयी थी।
उसका दूधिया गोरा रंग काला पड़ गया था,  उसकी आंखें गहरे गड्ढे में धंस गयीं थी।

एक दिन पूनम अपनी देवरानी के साथ दवाई लेने जा रही थी तभी उन्हें उनकी कोई परिचित महिला रास्ते में मिल गयी।
वे पूनम को देखते ही चौंक पड़ीं और बोलीं, "अरे ये पूनम के चाँद को ग्रहण कैसे लग गया क्या हो गया तुम्हे पूनम?"

"जी मुझे लगता है मेरे ऊपर कोई ऊपरी साया है, लेकिन हमारे ये ओर परिवार वाले मानते ही  नहीं बस डॉक्टर से दवाई लेने जा रही हूं", पूनम ने उन्हें धीरे से कहा।

तभी वह महिला पूनम की देवरानी को अलग ले जाकर बोली, "मुझे भी लगता है कि पूनम किसी ऊपरी साये की चपेट में है, देखो तीन दिन बाद पड़ोस के गांव में जागर है तुम लोग पूनम को वहां लेकर आ जाओ, जागर में देवता सब बात बता देंगे कि क्या हुआ है।
ओर हाँ पूनम से कुछ मत कहना नही यो वह साया तुम्हे उधर जाने से रोकने के लिए कुछ अनहोनी  भी कर सकता है।"
"ठीक है, हम आ जाएंगे", पूनम की दोरानी ने कहा और मुस्कुराते हुए चली गयी।

तीन दिन बाद जागर में पूनम की देवरानी, उसकी जेठानी, उसकी सास और उसके पति पूनम के साथ आये।

जागर में जब 'नरसिंह देवता' अपने पुजारी पर आए तो उन्होंने पूनम की तरफ इशारा करके जोर से कहा,  "बचालो इसे, वह शैतान जिन्न इसे अंदर ओर बाहर दोनों तरफ से खत्म कर रहा है, अब बस पंद्रह दिन बचे हैं इसके पास दूर करदो उस शैतान को इस से, वह बहुत दुष्ट आत्मा है।
वह इसे अपने साथ अपनी दुनिया में ले जायेगा, उसने तुम्हारे  घर की लड़की का भी एक्सीडेंट कर दिया था क्योंकि वह इसके रास्ते में रुकावट बन रही थी।"

जागर में कई मठों के पुजारी भी थे, उनमें से एक पुजारी ने इन्हें इशारा किया कि वह इनकी मदद करेगा।

पुजारी ने अगले ही दिन इनके घर आकर पूजा की इनके घर को गोमूत्र एवं गङ्गा जल से शुद्ध किया, फिर उन्होंने पूजा करके एक नारियल और कुछ दूसरा समान एक लाल कपड़े में बांध कर पूनम के पलंग में सिरहाने दायीं तरफ बांध दिया। उन्होंने इनके घर के चारों तरफ भी सुरक्षा घेरा बना दिया।

रात को फिर सय्यद ने पूनम को धमकाना शुरू किया वह बार-बार उसे वह पोटली फेंकने को बोल रहा था, वह तरह-तरह के भेष बनाकर अजीब सी डरावनी शक्ल करके पूनम को डरा रहा था किंतु पूनम को छू भी नही पा रहा था।
अब पूनम समझ गयी थी कि पूजन सामग्री सय्यद को उसके पास आने से रोक रही है।

अगले दिन पूनम कुछ सामान्य थी उसने पण्डित जी को रात की घटना बताई।
पण्डित जी ने पूनम के पलंग के सुरक्षा कवच बनाने के साथ ही पूनम को भी कई ताबीज बनाकर दिए।

कुछ दिन तो सय्यद नियमित आता और पूनम को धमकाता किन्तु पूजा एवं रक्षा कवच (ताबीज) की शक्ति के आगे बेबस होकर धीरे-धीरे उसने आना बंद कर दिया।
पूनम आज भी सय्यद को याद करके सिहर जाती हैं।
यह उनके जीवन का एक काला अध्याय है जो पूरे दो साल तक चला।


2 . पान का बीड़ा



1995राजस्थान कोटा,

सन्तोष बाइस-चौबीस साल का मजबूत जवान लड़का एक ट्रक पर ड्राइवर था।
उसका समान लाद कर कभी जयपुर तो कभी मंदसौर(मध्यप्रदेश) आना जाना होता रहता था।
उसके साथ एक लड़का रवि खलासी का काम करता था, उस दिन भी इन्होंने कोटा से मन्दसौर का कोई समान ट्रक में भरा और निकल पड़े सुबह-सुबह।
सन्तोष को पान खाने का बहुत शौक है तो उसने रास्ते से एक पान मुँह में डाल लिया  और एक जोड़ा बंधवाकर अपनी जेब में रख लिया, सुबह का सुहाना मौसम ओर खाली सड़क सन्तोष मस्ती में गुनगुनाता सरपट गाड़ी दौड़ा रहा था, अभी ये लोग एक घने निर्जन जंगल से गुजर रहे थे कि अचानक 'भम्म' की तेज़ आवाज के साथ गाड़ी का एक (पिछला)टायर फट गया ।
सन्तोष ने गाड़ी साइड लगाई और लगा देखने, "ओ साला अंदर का टायर है यार, औए रवि चल जैक निकाल टायर फट गया यार, बदलना पड़ेगा चल जैक लगा मैं स्टेपनि उतरता हूँ", उसने खलासी से कहा।
आधे घण्टे अथक मेहनत के बाद पसीना बहाते हुए पहिया बदल कर ये लोग अपने साफर पर निकल पड़े सब कुछ सामान्य था।
कुछ आगे जाने पर सन्तोष की पान खाने की इच्छा हुई किन्तु ये क्या पान तो जेब से नदारद था।
"औए रवि मेने पान लियो थो ना, मिल काएँ नीं रयो", उसने खलासी से कहा।

"उस्ताद जी बठे पहियों बदलो थो अपन ने, बठे गिर गयो होगो", खलासी ने याद करके बताया।
"हाँ यार हो सकता है", संतोष ने गाड़ी की रफ्तार बढ़ाते हुए कहा।

 दोनो अपना काम खत्म करके शाम तक घर आ गये सब सामान्य ही था।

रात को सन्तोष अकेला छत पर सोता था, उस दिन भी खा पीकर सोया था। रात का कोई बारह एक बजा होगा , सन्तोष को लगा कि कोई उसकी चादर खेंच रहा है, अभी ये कुछ समझ भी नही पाया था तभी एक सुरीली आवाज आई, "उठो सा एक पान नही खिलाओगे? मीठा पान।"
सन्तोष ने एक झटके से आंखें खोल दी एक बहुत सुंदर लड़की उसकी खटिया पर पैरों की ओर बैठी मुस्कुरा रही थी।

सन्तोष के तो तिरपन कांप गए उसे देख कर,
"क.क.क..क!!को!! कौन!! हो थम??", उसका हलक सुख गया जबान तालु से चिपक कर रह गई।

और वह अनजाने भय से बदहवास हो कर चीखने की कोशिश करने लगा किन्तु उसकी चीखें उसके गले में ही घुटकर रह गयी और सन्तोष बेहोश हो गया।
सुबह उठकर उसे लगा कि रात को उसने एक डरावना सपना देखा होगा और वह अपने सामान्य दिनचर्या में लग गया किन्तु उसे लगा कि आज उसकी तबियत कुछ खराब है, शायद बुखार हो रहा है।
किन्तु सन्तोष अपने काम में लगा रहा।  अगले दिन संतोष गाड़ी लेकर फिर उसी रास्ते पर जा रहा था, कि उसकी पान खाने की इच्छा हुई उसने जेब से पान निकल कर उसका कागज उतारा ही था कि एक आवाज सुनी, "अकेले खाओगे सा? मन्ने ना दोगे?", और एक मधुर हंसी 

 
उसने पलट कर देखा वही रात वाली लड़की उसके साथ हाथ पसारे बैठी थी। सन्तोष डर कर सिहर गया और हड़बड़ाहट में पान उसके हाथ से नीचे गिर गया,  वह ये नहीं देख पाया कि यह वही जगह थी जहां इन्होंने टायर बदला था।

सन्तोष को फिर लगा कि ये उसके मन का वहम होगा और वह इस घटना को भी भूल गया।

उस रात सब सामान्य रहा और सुबह से उसे अपनी तबियत में भी कुछ सुधार लगा।
अगले दिन सन्तोष का चक्कर जोधपुर का था और कोई अप्रत्याशित घटना नहीं हुई।
रात को फिर से सन्तोष छत पर सोया था। समय यही कोई बारह एक का था उसकी चादर फिर सरक गयी, उसने आंख खोल कर देखा तो वही लड़की उसके सामने खड़ी मुस्कुरा रही थी,
"आज पान खिलाने नहीं आये सा", उसने मिनमिनाते हुए कहा और  अपना हाथ इसके सामने फैला दिया।

सन्तोष ने उठकर भागना चाहा किन्तु उसे लगा की किसी ने उसे चारपाई पर चिपका दिया है। उसने चीखना चाहा किन्तु उसकी आवाज बस गूँ गूँ बनकर रह गई, सामने खड़ी लड़की उसकी हालत पर जोर से हंस रही थी और सन्तोष की चेतना उसे छोड़कर जा चुकी थी।
सन्तोष सुबह देर तक नहीं उठा तो उसकी माँ उसे उठाने आ गई किन्तु ये क्या, सन्तोष तो खटिया से नीचे पड़ा था और कांप रहा था।
उसे ऐसे देख कर उसकी माँ की चीख निकल गई ।
उसके परिजन सन्तोष को नीचे आंगन में ले आये, संतोष का पूरा बदन बुखार की आग में जल रहा था और ये जोर से कराह रहा था, आसपास के लोग भी इकट्ठा हो गए, डॉक्टर-वैद्य भी बुलाये गए किन्तु किसी को कुछ समझ में नही आया। तभी किसी ने सुझाया,"ऊपर का चक्कर लगता है भैरों मठ के बाबा जी को बुला लो।"
और एक आदमी दौड़ा भैरो गढ़ी, 'भैरो नाथ बाबा जी' ने आते ही कहा, "हट जाओ सब यहां से।" और वे कुछ मन्त्र पढ़कर फूंकने लगे, शांत हो जाओ ये कोई खतरनाक चुड़ैल नहीं है, बस एक अतृप्त भटकती आत्मा है। और उन्होंने आसन लगा कर कोई पूजा शुरू कर दी, कुछ ही देर में सन्तोष स्थिर होकर बैठ गया और अनजानी मुस्कान बिखेरने लगा,
"कोन है तू और क्या चाहती है?" बाबा भैरोनाथ ने कड़क कर पूछा।
"कुछ नहीं ,कुछ भी नहीं, मैं किसी को सताने नहीं आई। मुझे इन्होंने उस दिन पान खिलाया था, बस उसी के मीठे स्वाद के लालच में यहां आ गई,  एक दिन और इन्होंने पान खिलाया उसके बाद मुझे भूल गए", उसके मुंह से पतली आवाज निखली और सन्तोष लड़की की तरह हँसने लगा।
"कौन है तू??" बाबा जी ने फिर पूछा।

 "मैं अमुक गांव की लड़की हूँ, अपने पति के साथ मोटरसाइकिल पर ससुराल जा रही थी। रास्ते में हमने मुंह में मीठा पान डाला था, हम लोग अपनी मंजिल पर जा रहे थे कि एक ट्रक ने हमें कुचल दिया। बस तभी से मैं उस स्थान पर भटक रही हूँ।
उस दिन इन्होंने पान खिलाया तो मुझे बहुत अच्छा लगा और मैं इनके साथ आ गई", सँतोष लड़की की आवाज़ में बोला।
"ऐसे किसी को परेशान करना ठीक है क्या?", बाबाजी कड़क कर बोले और धूने में लोबान डाल दिया जिस से उस आत्मा को कष्ट होने लगा।
"मुझे छोड़ दो, मुझे जाने दो, मैं किसी को नहीं सताती", सन्तोष के मुँह से पतली आवाज में निकला और वह सुबकने लगा।
"अच्छा बोल तुझे क्या चाहिए और हाँ उसके बाद कभी परेशान किया तो समझ ले जला दूँगा तुझे", भैरोनाथ जी ने पूछा।
"बस पान, नए कपड़े और श्रंगार", उसने मिनमिनाते हुए कहा।
"ठीक है तेरे स्थान पर दे देंगे अब यहां मत आया करना कभी, चल नाक रगड़ और वचन दे", बाबा जी ने कहा।


 सन्तोष ने नाक रगड़ी और ह

हाथ उठाकर कहा, " दिया वचन, नहीं आऊँगी कभी।" और सन्तोष सामान्य होने लगा।
सन्तोष की माँ ने दो जोड़े लहंगा ओढ़नी, पूरे एक सौ एक मीठे पान और श्रंगार का सारा सामान, उस स्थान पर रखवाया जहां सन्तोष का पान गिरा था।
सन्तोष अब इस रास्ते से भूल कर भी नहीं गुजरता और जब भी उस लड़की को याद जरते है सिहर जाता है।


Saturday, November 23, 2024

प्यार

तुम जो कह दो तो मैं प्यार कर जाऊँगा।
ना करोगे जो तुम तो  मैं मर जाऊँगा।
तेरी आँखों की दरिया में डूबा हूँ मैं।
जो मिला लो नज़र तो मैं तर जाऊँगा।
तुम जो कह दो तो मैं प्यार कर जाऊँगा।।

दिल मिला लो तनिक मेरे दिल से जो तुम।
मुस्कुरा दो जरा सा मुझे देखकर।
थाह पा लूँगा मैं तेरे यौवन की भी।
प्यार में इतना गहरा उतर जाऊँगा।
तुम जो कह दो तो मैं प्यार कर जाऊँगा।।

धड़कनों से कभी कहना तुम प्यार हो।
मेरे जीवन का तुम ही तो बस सार हो।
तुम मिलो तो जिऊंगा मैं सारी उमर।
ना करोगी तो दो पल में मर जाऊँगा।
तुम जो कह दो तो मैं प्यार कर जाऊंगा।।

जिंदगी भर चलो साथ मेरे जो तुम।
तोड़ देंगे सभी रस्में दुनिया की हम।
साथ तेरा मिला तो मिलेगा वो बल।
प्यार की सारी हद पार कर जाऊँगा।
तुम जो कह दो तो मैं प्यार कर जाऊँगा।
ना करोगे तो मैं यार मर जाऊँगा।।

  नृपेन्द्र शर्मा "सागर"


Wednesday, March 13, 2024

मतलब की माँ

        मतलब की माँ



  “अजी सुनो ना, मैं क्या कहती हूँ क्यों ना हम माँजी को अपने साथ ही रख लें, ऐसे अकेले रहती हैं सारे गांव वाले ताने मारते हैं कि दो जवान बेटों के होते हुए भी बूढ़ी मां अकेले रहती है और खुद बनाकर खाती है।” रात को बड़ी मीठी आवाज में रुचि ने अपने पति सचिन से कहा।

  “लेकिन आज अचानक तुम्हें मां पर इतना प्यार कैसे आ गया? तुम तो सीधे मुँह कभी मां से बात भी नहीं करती हो? और फिर ऐसे अचानक मां भला हमारे साथ रहने की बात क्यों मानेगी? तुम भूल गयीं कैसे हमने लड़कर मां को अलग कर दिया था?” सचिन ने कुछ याद करते हुए धीरे से कहा।

 “मुझे याद है जी, ऐसे तो मां बेटों में कहा-सुनी हो ही जाती है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि मां बेटों के दिल जुदा हो जाते हैं? मुझे यकीन है अगर तुम मां से एक बार कहोगे तो वे मना नहीं करेंगी।” रुचि ने मधुर आवाज में कहा और सचिन के बालों में उंगलियां घुमाने लगी।

 “तुम खुद क्यों नहीं बात करती हो मां से? एक बार तुम कह कर देख लो शायद तुम्हारे कहने से मां मान जाए।” सचिन ने धीरे से कहा लेकिन इस समय उसका चेहरा बता रहा था कि वह किसी गहरी सोच में डूबा हुआ था।

 “मैं…? मैं कैसे बात करूँ? मुझे तो माँजी कभी अच्छी नज़र से नहीं देखती हैं, उन्हें जैसे ये लगता है कि मैं उनकी दुश्मन हूँ और शायद घर के झगड़े का कारण भी वे मुझे ही मानती हैं।” रुचि ने धीरे से कहा।

 “मां गलत भी तो नहीं सोचती रुचि, हमारी शादी से पहले सब कितना अच्छा चल रहा था, मां मैं और भैया भाभी सब एक साथ ही तो रहते थे, सभी मां का बनाया खाना खाते थे और अपना-अपना काम करते थे।” सचिन ने कहा।

 “अच्छा जी! तो आप भी यही कहना चाहते हो कि घर में झगड़े का कारण मैं हूँ? अरे तुम लोग तो हमारी शादी से बहुत पहले ही अलग हो गए थे। मुझे सब पता है कि कैसे पापा जी के मरने के बाद उनकी तेरहवीं के दिन ही, तुम दोनों भाई उनके इलाज पर हुए खर्च और कर्ज को लेकर लड़ने लगे थे। तुम दोनों भाइयों ने तो सारी जमीन के भी तभी तीन हिस्से कर ये थे, एक-एक आप भाइयों का और एक माँजी का।” सचिन की बात पर रुचि तुनककर बोली, उसकी आवाज में गुस्सा साफ झलक रहा था।

 “कुछ भी हो रुचि, लेकिन हमारे विवाह तक रहते तो हम साथ ही थे ना? वह तो तुम्हारे आने के बाद भाभी और तुम्हारा रोज झगड़ा शुरू हो गया और तुम दोनों देवरानी-जिठानी लड़ने के बाद रोज मां को गाली देने लगीं, तब माँ ने अपना चूल्हा अलग कर लिया और जाकर बैठक में रहने लगी।” सचिन ने जैसे रुचि को याद दिलाया।

 “हाँ तो मैं घर की नौकरानी बनी रहती और तुम खेत के दिहाड़ी मजदूर? तुम भूल गए कि क्या चल रहा था घर में मेरे आने के बाद? अरे घर का सारा खाना, कपड़े, चौका-वासन मैं करती थी। गाय भैंस का चारा-पानी माँ जी करती थीं और तुम सारा दिन बैल बने बैलों के पीछे खेत में घूमते रहते थे, और उसका फल हमें क्या मिलता था? रोज खाने में सैकड़ों कमियां गिनाई जाती थीं और दूध सारा भाभी बेच देती थीं। पीने के लिए तो छोड़ो हम जब कभी चाय के लिए भी दूध मांगते तो भाभी यही जवाब देतीं कि दूध तो मुन्ने के लिए भी नहीं बचा तुम्हें चाय के लिए कहाँ से दूँ? तुम्हें क्या लगता है मैं अपने लिए लड़ती हूँ? अरे दिन भर खेत में खटने के बाद तुम दोनों मां बेटों को एक-एक कप दूध भी ना मिले तो क्या फायदा इतने ढोर पालने का? बस उस दिन मैंने यही बात तो कह दी थी, तो आपके भाई और भाभी ने सारा घर सिर पर उठा लिया और माँजी ने भी मुझसे ही गुस्सा होकर हमारे गाय-बच्छी बांट दिए और बस हो गए घर में तीन चूल्हे। लेकिन छोड़ो उसे, उस बात को याद करके क्या फायदा। अब मैं चाहती हूँ कि मां सारी बात भूलकर हमें माफ कर दें और हमारे साथ ही रहें।” रुचि ने शब्दों को नरम करते हुए कहा।

 “तुम भूल गयीं रुचि कि पापा को गले का कैंसर हुआ था और उनके इलाज में बहुत खर्च हो गया था, उसके लिए भैया ने इधर-उधर से कर्ज भी लिया था। जब पिताजी का देहांत हुआ तब सारे रिश्तेदारों ने मिलकर हम लोगों की जमीन बांट दी थी, जिससे बाद में हमारे बीच कोई झगड़ा ना हो लेकिन साथ ही यह भी तय हुआ था कि जब तक सारा कर्ज नहीं चुक जाएगा हम दोनों भाई साथ में मिलकर ही काम करेंगे। तुम जिस दूध को बेचने की बात करती हो वह भी भाभी बेचकर घर की जरूरतों पर ही खर्च करती थीं और तुम्हें लगता था कि भाभी उन पैसों से अपना घर भर रही हैं। रुचि एक गिलास दूध अगर उस दो साल के मुन्ने के लिए भाभी ने रख भी लिया था तो तुम्हें ऐसे हंगामा नहीं करना चाहिए था।” सचिन ने मन की बात कह दी।

 “अरे छोड़ो ना उन सब गयी बीती बातों को, अब क्यों गढ़े मुर्दे उखाड़ रहे हो? देखो मैं पेट से हूँ और अब हमें किसी अनुभवी महिला के साथ की बहुत जरूरत है। इसीलिए मैं चाहती हूँ कि माँजी हमारे साथ रहें, ऐसे भी मूल से प्यारा ब्याज होता है मैं जानती हूँ कि जब माँजी को पता लगेगा कि वे दादी बनने वाली हैं तो वे सबकुछ भूलकर हमारे साथ रहने आ जायेंगीं।” अब रुचि ने असली बात कही।

 “अच्छा तो यह बात है? लेकिन इसके लिये तुम अपनी माँ से क्यों बात नहीं करतीं? अरे अनुभव तो उन्हें भी बहुत है, तुम उन्हें ही बुला लो मैं तो मां से बात नहीं करूँगा। उस दिन कितना सुना दिया था मैंने मां को, अब मेरी हिम्मत नहीं है रुचि कि मैं मां से बात करूं। मैं किस मुँह से उनसे कहूँगा की मां मुझे माफ़ करके हमारे साथ रहने आ जाओ, क्या मैं इतना बड़ा हो गया हूँ रुचि कि जिस मां ने मुझे जन्म देकर इतना बड़ा किया उसे अपने साथ रख सकूँ? नहीं रुचि मैं बात नहीं करूँगा, अरे जिन बच्चों को मां-बाप के साथ रहना चाहिए वे ऐसा कैसे सोच लेते हैं कि वे मां-पापा को अपने साथ रख सकते हैं।” सचिन ने कहा और मुँह घुमाकर लेट गया।

 “हुँह! तुमसे कुछ नहीं हो सकता, तुम सो जाओ चैन से सुबह मैं खुद ही माँजी से बात कर लूँगी।” रुचि ने तुनककर कहा और कुछ सोचने लगी।


  “अरे माँजी लाइये ये बाल्टी मैं रख देती हूँ, आप क्यों ये पानी की बाल्टी उठाती हो? मुझे कह दिया करो मैं रख दिया करूँगी आपके नहाने की बाल्टी, और सादा पानी क्यों? आप मुझे कहो तो मैं पानी गर्म करके दे दिया करूँगी आपको नहाने के लिए।

 माँजी हम आपके बच्चे हैं और बच्चे तो गलती करते ही हैं, इसका मतलब ये तो नहीं हो जाता कि मां-बाप उनसे नाराज़ होकर बात ही करना बंद कर दें। मैं तो उसी दिन से इनसे कह रही हूँ कि मुझे अच्छा नहीं लगता, माँजी इस उम्र में इतना काम करें, लेकिन ये तो डरते हैं कि आप इन्हें कहीं छड़ी से पीट ही ना दो; लेकिन अब मुझसे और नहीं देखा जाता माँ! अब से आप हमारे साथ ही रहोगी बस और आपके सारे काम मैं खुद करूँगी। आप तो बस मुझे बता दिया करो कि क्या और कैसे करना है।” रुचि ने नहाने का पानी भरकर ले जाती सास के पाँव छूकर उनके हाथ से पानी की बाल्टी लेते हुए कहा। यह सब करते समय रुचि ने इस बात का विशेष ध्यान रखा था कि उसकी जेठानी उस समय घर में नहीं थी।

 

 “अरे! आज ये सूरज दक्खन से कैसे निकल पड़ा बहुरिया? छोड़ मेरी बाल्टी, कहीं मेरी बाल्टी उठाने में तेरे नाजुक हाथों में छाले ना पड़ जाएं।” रुचि की सास ने रुचि के इस व्यवहार पर चौंकते हुए कहा।

  “आपने मुझे माफ़ नहीं किया ना मां? तभी ऐसा कह रही हो। मैं दिल से अपनी भूल पर शर्मिंदा हूँ माँ और आज मैं आपके पैर तब तक नहीं छोडूंगी जब तक आप मुझे माफ़ नहीं कर देती हो।” रुचि ने बाल्टी को मजबूती से पकड़ते हुए कहा।

 “मैं माफ करने वाली कौन होती हूँ बहुरिया? मैं तो डायन हूँ तेरी और तेरे खसम की दुश्मन हूँ मैं तो।” रुचि की सास ने रुचि के ताने याद करते हुए कहा और फिर अपनी बाल्टी उठाकर जाने लगीं, अबकी बार बाल्टी खींचने में रुचि को झटका लगा और वह थोड़ा पीछे हो गयी।

 “आह!! मां…जी…!” रुचि के मुँह से हल्की कराह निकली और वह चक्कर खाते हुए जमीन पर फैल गयी।

 “हे भगवान! ये इसे क्या हो गया? कहीं मेरे झटकने से इसे चोट तो नहीं लग गयी? अरे सचिन?? बड़की बहु? अरे कोई है?” माँजी घबराकर आवाज लगाने लगीं लेकिन घर में तो इस समय कोई था ही नहीं।

 “हे भगवान! लगता है सारे लोग बाहर गए हैं। कहीं इसे कुछ हो गया तो सारे लोग यही कहेंगे कि सास ने बहु को कुछ कर दिया होगा। क्या करूँ मैं? मुझे कुछ तो करना पड़ेगा।” माँजी ने एक पल के लिए सोचा और फिर रुचि को उठाकर पास पड़ी चारपाई पर लिटा दिया। उसके बाद वे दौड़ गयीं पड़ोस से डॉक्टर को बुलाने।


  “मुबारक हो माँजी, आप दादी बनने वाली हो। बहु को कुछ नहीं हुआ है वह तो बस पेट से होने के कारण इसे चक्कर आ गया होगा। तुम्हारी बहु कमज़ोर है माँजी, इसे आराम और पोषण की बहुत जरूरत है। मैं कुछ टॉनिक लिख रहा हूँ इन्हें मंगा लीजिए और हो सके तो शुरू के तीन महीने बहु को पूरा आराम कराईये। उसके बाद भी इसे भारी कामों और वजन उठाने को मना करियेगा।” डॉक्टर ने कहा और एक पर्चा लिखकर माँजी के हाथ में देकर चला गया।

 “रुचि! अरे कहाँ गयी?” सचिन आवाज लगाता हुआ घर में घुसा तो उसे मां रुचि के कमरे में बैठी दिखाई दी, जो रुचि को पँखा झल रही थी। सचिन की आवाज सुनकर माँ झटपट बाहर आयी और कड़ी आवाज में बोली, “खबरदार जो शोर किया या बहु को तंग किया तो। जा दौड़कर बाजार जा और ये सामान लेकर आ। बाप बनने वाला है और बचपना अभी गया नहीं, बीबी के पल्लू में घुसे बिना काम नहीं चलता तुम्हारा जो हर समय बस रुचि-रुचि। अरे कभी खुद के काम खुद से भी कर लिया करो। रुचि पेट से है, डॉक्टर ने उसे भारी काम करने को मना किया है और ये दवाइयां लिखकर गया है जा ये लेकर आ तब तक मैं खाना बनाती हूँ।” माँ ने पेपर सचिन के हाथ पर रखते हुए उसे अधिकार से डाँटते हुए कहा और फिर कमरे के अंदर चली गयी। रुचि ऑंख खोले यह सब देख रही थी और सुन भी रही थी।

 “तू जाग गयी बहु! देख अबसे तेरा भारी काम करना बंद, तुझे पूरा आराम करना है और अपना ध्यान रखना है। डॉक्टर कह कर गया है कि तू कमज़ोर है, तो तुझे पोषण की जरूरत है, सचिन गया है दवाई और सामान लाने। अब से खाना मैं बनाउंगी और तेरे लिए छोंका भी, तेरी गैया दूध कम दे रही है तो मैं भी अपना दूध बेचना आज से बन्द कर रही हूँ, पहले अपना पेट है बाकी सब उसके बाद। तू आराम कर बहु मैं बस अभी आयी।” कहकर मां कमरे से बाहर निकल गयी। 

 रुचि बिस्तर पर पड़ी-पड़ी मां के बारे में सोच रही थी और अपनी योजना की सफलता पर हँस रही थी।


 “देखो जी उस रुचि की चाल, अब जब खुद पेट से है तो उसने कैसे माँजी को अपने भोलेपन के जाल में फंसा लिया। अरे जो माँ हमारे घर दूध ना होने पर मुन्ने के लिए एक कटोरी दूध के लिए भी मना कर दे आज उसने सारा दूध छुड़ा दिया और बहू की ऐसे सेवा कर रही है जैसे वह इनकी सास है।” बड़ी बहू ने रात में अपने पति को सुनाते हुए कहा।

 “अरे तो क्या हो गया यार! भूल गयी जब तुम पेट से थी तब माँ ने तुम्हें भी एक तिनका नहीं तोड़ने दिया था और गाय-भैंसों के सारा दूध बेचना बन्द कर दिया था। रोज मां मुट्ठीभर मेवे पीसकर घी में भूनकर तुम्हें दूध में घोलकर पिलाती थीं। अब रुचि पेट से है तो माँ उसके लिए कर रही है। भाई मां है वह और अब दादी बनने की खुशी में वह एक बार फिर वही सब कर रही है तो तुम्हें बुरा क्यों लग रहा है?” बड़े बेटे ने अपनी पत्नी को समझाते हुए कहा।

 “दादी तो वे हमारे मुन्ने की भी हैं जी! या फिर ये रुचि उन्हें अनोखा दादी बना रही है? हमारे मुन्ने को भी तो दो बूंद दूध दे सकती हैं वे, या बस हम ही पराए हैं बाकी सब उनके खास।” बड़ी बहू ने उसी आवाज में कहा।

 “बेकार की बात मत करो, एक बार तुमने कभी मुन्ने से पूछा कि दादी ने उसे दूध दिया या नहीं? मैं जानता हूँ माँ रोज अपने दूध में से एक कटोरी रबड़ी बनाती है और तुम्हारी नज़र बचाकर मुन्ने को खिला देती है। माँ इस बात से डरती है शायद कि कहीं मुन्ने को उनके पास देखकर तुम नाराज़ ना हो जाओ।” बड़े बेटे ने गम्भीर आवाज में कहा।

 “अच्छा जी तो अब तुम्हारी माँ मेरे बेटे को ही मेरे खिलाफ भड़का रही है औऱ उसे झूठ भी बोलना सिखा रही है। मैं भी कहूँ मुन्ना शाम को खाना कम क्यों खाता है और उसके पेट में गांठें कैसे हो जाती हैं। तो यह तुम्हारी माँ की रबड़ी की देन है, अरे जिस मुन्ने को डॉक्टर ने गाय के दूध में भी पानी मिलाकर पिलाने को कहा है उसे चोरी-चोरी रबड़ी खिलाकर तुम्हारी मां उसका पेट खराब कर रही है। बस इसी लिए मैं मुन्ने को तुम्हारी माँ के पास जाने को मना करती हूँ, बुढ़िया रबड़ी की रिश्वत देकर मेरे मुन्ने को मुझसे ही झूठ बोलना सिखा रही है; डायन कहीं की।” बड़ी बहू ने तुनककर कहा और मुँह घुमाकर सो गयी।


 रुचि ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया माँजी बहुत खुश थीं वह बच्चे को गोद में लेकर गर्व से कहतीं, “देख रे सचिन, बिल्कुल अपने बाबा पर गया है हमारा चुन्ना।” और उनकी इस बात पर रुचि मन ही मन कुढ़ जाती।

 एक दिन जब उससे रहा नहीं गया तो उसने पूछ ही लिया, “माँजी आप हमारे बेटे को चुन्ना क्यों कहती हो, मुझे यह नाम बिल्कुल पसंद नहीं?”

 “अरे बहु मैंने बड़े के बेटे को मुन्ना कहा तब उन्होंने तो मुझसे सवाल नहीं किया, ख़ैर तू पूछ रही है तो बता देती हूँ। देख एक मेरा मुन्ना और दूसरा चुन्ना दोनों मेरी आँख के तारे हैं मुझे मेरे दोनों पोते प्यारे हैं।”और ऐसा कहकर माँजी हँसने लगीं।

 “हुँह! दोनों पोते प्यारे हैं, बिल्कुल पागल बुढ़िया है ये। चुन्ना-मुन्ना ओह गॉड! भला आजकल भी कोई बच्चों को ऐसे बुलाता है। वह तो मुझे तुझसे अपना काम कराना था बुढ़िया, नहीं तो मैं तेरी ये बातें कभी बर्दाश्त नहीं करती।” रुचि गुस्से से मुँह बनाये अपने कमरे में बड़बड़ा रही थी तभी माँजी पीछे से आ गयीं।

 “क्या कहा बहु तूने? मतलब?? तो मैं मां नहीं मतलब हूँ ‘मतलब की माँ’ ?” और मैं समझती थी तुम सुधर गयी हो और सच में अपनी गलती सुधारने के लिए मुझे अपने घर लायी हो।” माँजी ने रुचि की बात सुन ली थी जिसका उन्हें बहुत दुःख हुआ था। 

 उसी समय माँजी ने अपना सामान उठाया और फिर आ गयीं अपने पुराने ठिकाने पर, घर से बाहर बनी छोटी सी बैठक जो एक बरामद था जिसे खाद के पुराने कट्टे सिलकर पर्दा लगाकर उन्होंने कमरा जैसा बना लिया था।

 शाम को जब सचिन घर लौटा तो उसने देखा कि माँ वही चार ईंटे रखे उनमें लकड़ी सुलगाये फूँक मारकर आग ठीक कर रही है लेकिन उसने एक शब्द भी नहीं कहा और चुपचाप अपने कमरे की ओर बढ़ गया।

  माँजी ने उसे जाता देख लिया था लेकिन उन्होंने भी उसे आवाज नहीं लगायी क्योंकि वे जानती थीं कि आवाज देने पर बेटा शायद रुक भी जाये लेकिन रुचि का पति वहाँ नहीं रुकेगा और अगर रुका तो उसका जीना मुश्किल हो जाएगा।


 चार दिन बाद बड़ा बेटा मां के पास आया और बैठकर बोला, “देख लिया मां छोटे से मोह करने का नतीजा? मैंने तुझे कितनी बार समझाया था कि ये लोग कितने मतलबी हैं लेकिन तुझे तो कभी कुछ समझ में आता ही नहीं है। अब छोड़ ये चौका चूल्हा और चल मेरे साथ अपने पोते के साथ रहने, वह रोज बस एक ही बात पूछता है कि क्या दादी बस चुन्ना की ही दादी है? तो फिर मेरी दादी कहाँ है। चल मां अब से तू हमारे साथ ही रहेगी बस।”

 “ना बेटा ना अब मैं किसी के साथ नहीं रहूँगी, मैं यहीं खुश हूँ अपने इस घर में। यह कम से कम मेरा अपना तो है, यहाँ मैं किसी और के साथ नहीं रहती बल्कि अपने खुद के साथ रहती हूँ। अपने पति की यादों के साथ रहती हूँ, अपनी मर्जी से जीती हूँ, अपनी पसंद का खाती हूँ और रही बात पोतों की तो वे तो बच्चे हैं वे अगर मेरे पास आएँगे तो मैं उन्हें दादी का प्यार क्यों नहीं दूँगी? लेकिन मैं जानती हूँ कि तुम्हारी पत्नियां कभी नहीं चाहतीं कि उनके बेटे उनकी जगह दादी को प्यार करें।” माँजी ने रूखेपन से जवाब दिया और अपने कपड़े तह करने लगीं।

 “अरे माँ क्या बस घर का यही हिस्सा तेरा घर है? क्या मेरा घर तेरा घर नहीं है? और फिर ये जगह रहने लायक है भी तो नहीं, यहाँ तो ना दरवाजा है और ना ही खिड़की। अच्छा ऐसा करते हैं कि इस बरामदे में सामने एक दीवार लगाकर उसमें एक दरवाजा और खिड़की लगवा देते हैं। जब तक ये जगह ठीक होती है तब तक तू हमारे साथ रह ले माँ, मुझसे तुझे ऐसे सर्दी में बोरे के पर्दे की आड़ में ठिठुरते नहीं देखा जाता। अच्छा देख मैं पाँच हज़ार रुपये लगा दूँगा बाकी तेरे पास कुछ…?और किसी को बताना मत की मैंने इस काम के लिए पैसे दिए हैं।” बड़े बेटे ने बहुत धीरे से कहा।

 “चल ठीक है बेटा ले ये छः हज़ार मेरे पास रखे हैं, करवा दे काम।” माँजी ने बक्सा खोलकर पैसे बड़े के हाथ पर रखते हुए कहा।

 “अच्छा मां एक बात और, वो क्या है ना कि तू एक बार फिर दादी बनने वाली है। मां तेरी बड़ी बहू पेट से है और डॉक्टर ने उसे पूरा आराम करने को कहा है।” बड़े बेटे ने बड़े धीरे से कहा और पैसे गिनते हुए चला गया।

 “वाह रे दुनिया! मां भी अब मतलब की हो गयी है।” बुढ़िया बुदबुदाई और अपना सामान लेकर धीरे-धीरे बड़े बेटे के घर की ओर चल दी।



  नृपेंद्र शर्मा

ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

 

Wednesday, May 10, 2023

जहरीला गुलाब

सूखा गुलाब

आज बहुत दिन बाद अलमारी साफ करते समय रश्मि को अपनी पुरानी डायरी मिली।
रश्मि को शादी से पहले डायरी लिखने का शौक था, यह उसकी वही पुरानी डायरी थी।
रश्मि ने जैसे ही वह डायरी खोली तो उसमें से एक सूखा हुआ गुलाब नीचे गिर गया।
रश्मि ने गुलाब उठाया और उसे देखने लगी, उस गुलाब की सूखी महक के साथ उसे उससे जुड़ी पुरानी यादें भी आने लगीं।
"हमारी शादी ऐसे नहीं हो सकती रश्मि, पिताजी का कहना है कि दहेज में पच्चीस लाख रुपये लाओ चाहे जिससे शादी करो। ऐसा नहीं है तो हमारी पसन्द से शादी करो, वह लोग तीस लाख देने को तैयार हैं। हम तो तुम्हारे प्यार की खातिर पाँच लाख का नुकसान सह लेंगे लेकिन उससे अधिक नहीं। अब तुम ही बताओ क्या तुम्हारे पिताजी पच्चीस लाख दे पाएंगे।" ललित ने रश्मि का हाथ पकड़कर बनावटी उदासी के साथ कहा था।
"पच्चीस लाख!! क्या कह रहे हो ललित? ये हमारे प्रेम के बीच दहेज कहाँ से आ गया?" रश्मि ने चौंकते हुए कहा।
"मैं मजबूर हूँ रश्मि, यदि मैंने पिताजी की बात नहीं मानी तो वे मुझे बेदखल कर देंगे।" ललित ने कहा और उठकर चला गया।
रश्मि को अब यह गुलाब जहरीला लग रहा था, उसकी खुश्बू उसे असहनीय हो रही थी। कल ही तो ललित ने रश्मि को प्रेम से यह गुलाब दिया था और उसे 'बेपर्दा' कर दिया था। रश्मि को लगा कि ये गुलाब ही शापित था जिसे लेने के बाद उसका सब कुुुछ लुट गया और उसका दो साल पुराना रिश्ता भी खत्म हो गया।
"ललित!" रश्मि का चेहरा गुस्से से तन गया और उसकी पकड़ से वह जहरीला गुलाब चूरा-चूरा होकर मिट्टी में मिल गया।

  नृपेंद्र शर्मा "सागर"
  ठाकुरद्वारा मुरादाबाद


Wednesday, April 19, 2023

बूढ़ा घोड़ा

बूढ़ा घोड़ा

एक जमीदार के चार बेटे थे और एक शानदार नस्ली घोड़ा।
 समय के साथ जमीदार और घोड़ा दोनों बूढ़े हो गए।
 एक दिन जमीदार का एक बेटा पिस्तौल ले आया और जमीदार को दिखाते हुए बोला, "देखो बापू 'घोड़ा' जर्मनी का है एक बार में सात राउण्ड चल सकता है।"
 दूर खड़ा घोड़ा यह सुन रहा था और सोच रहा था 'घोड़ा!! तो फिर वह कौन है?"

 कुछ दिन बाद जमीदार का दूसरा बेटा एक बुलेट मोटरसाइकिल खरीद लाया और जमीदार को दिखाते हुए बोला, "देखो बापू 'घोड़ा' इसपर चढ़कर जिधर निकलो अपनी धाक जम जाती है, रफ्तार और ताकत ऐसी की कहीं भी दौड़ा दो कभी थकता नहीं कभी रुकता नहीं।
 जमीदार बहुत खुश था मोटरसाइकिल को देखकर।
 उधर घोड़ा फिर वही सोच रहा था कि यह घोड़ा है तो मैं कौन हूँ?
 कुछ दिन बाद जमीदार का तीसरा बेटा एक थार कार ले आया और जमीदार को दिखाते हुए बोला, "देखो बापू 'असली घोड़ा' 4×4, इसे जहाँ चाहे चढ़ा दो कीचड़ में रेत में चाहे पहाड़ पर। इसकी ताकत के आगे कोई घोड़ा कुछ  नहीं।
 जमीदार गर्व से हँस रहा था और घोड़ा फिर वही बात दोहरा रहा था, "असली 'घोड़ा' तो हम क्या नकली हैं।

 कुछ दिन बाद जमीदार का चौथा बेटा एक लड़की के साथ आया, इनके साथ एक रोबदाब वाला अधेड़ व्यक्ति भी था। वह जमीदार से बोला, "देखो बापू मेरी प्रेमिका, हम जल्दी शादी करेंगे और ये हैं हमारे बापू, अब हम इनके साथ रहेंगे।
 "बापू!!, तो फिर हम कौन हैं? जमीदार को जैसे झटका लगा और इस बार घोड़ा हँस रहा था...?

 नृपेंद्र शर्मा "सागर"
 ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

Friday, March 17, 2023

सहारा

        सहारा

रुद्रदत्त शहर के जाने माने प्रतिष्ठित व्यापारी थे। उन्होंने अपने दोनों बेटों को खूब पढ़ाया, वे नहीं चाहते थे कि उनके बेटे भी उन्ही की तरह दुकान की गद्दी पर बैठकर सुबह से रात तक खुद को घिसते रहें। उनके बेटे बड़े अफसर बनें, लोग उन्हें सम्मान दें, दूर-दूर तक उनका नाम हो उनका बस यही सपना था। उनके दोनों बेटे उच्च शिक्षित होकर बड़े आदमी बन भी गए। उनका बड़ा बेटा डॉक्टर बनकर स्पेशलाइजेशन करने ऑस्ट्रेलिया गया तो वह वहीं का होकर रह गया। उसने वहीं एक लड़की से शादी भी कर ली, अब वह वापस आना नहीं चाहता था। उसके गम में रुद्रदत्त जी की पत्नी अंदर ही अंदर टूट गयीं और धीरे-धीरे बीमार रहकर उनकी मृत्यु हो गयी, किसी भी डॉक्टर को उनकी बीमारी समझ नहीं आयी थी। रुद्रदत्त जी ने क्यों बार बेटे को फोन पर उसकी माँ के बारे में बताया लेकिन वह बस बहाने बनाता रहा और ना बीमारी पर और ना ही मरने पर अपनी माँ को देखने आया।

  एक वर्ष बाद उनका दूसरा बेटा भी कम्प्यूटर साइंस से बीटेक करने के बाद मास्टर डिग्री के नाम पर अमेरिका चला गया और फिर उसने भी वहीं एक लड़की पसन्द करके शादी कर ली।

रुद्रदत्त जी ने उसे भी कई बार कॉल करके वापस आने को कहा लेकिन उसने साफ जवाब दे दिया, "डैड! मुझे यहाँ एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है। यदि आप चाहें तो हमारे साथ आकर रह सकते हैं। ऐसे भी हमारे पास किसी चीज़ की कमी नहीं है, आप इंडिया से सब बेचकर हमारे पास आ जाइये या फिर भाई के पास चले जाइये। ऐसे भी अकेले आप वहाँ क्या करेंगे?"

रुद्रदत्त जी ने अपनी मिट्टी छोड़ने को ये कहकर मना कर दिया कि, "मेरे पुरखों की मिट्टी जिस मिट्टी में मिली है मैं उसे छोड़कर नहीं आ सकता, मैं चाहता हूँ  कि मेरी मिट्टी भी मेरे मरने के बाद इसी पवित्र भूमि में मिले।"

उसके बाद रुद्रदत्त जी ने कभी अपने बेटों से सम्पर्क नहीं किया था।

रुद्रदत्त जी अभी भी अपनी दुकान चलाते थे, वे हर सुबह जल्दी जाग जाते थे और सुबह पाँच बजे तक पार्क का एक चक्कर लगाकर दो किलोमीटर दौड़ चुके होते थे। इसीलिए वे सत्तावन साल की आयु में भी चालीस से अधिक नहीं लगते थे। ऊँचे कद और गठीले बदन के मालिक गोरे रँग पर जब नीली या काली शर्ट पहनकर निकलते थे तो सैकड़ों की भीड़ में भी दूर से दिख जाते थे।

उस दिन भी दो चक्कर दौड़ने के बाद रुद्रदत्त जी पार्क में बड़े पेड़ों के नीचे बनी सीमेंट की बेंच पर बैठे हुए थे। आज उन्होंने ब्लैक कलर की हाफ टीशर्ट और ग्रे कलर का लोअर पहना हुआ था। दौड़ने के बाद आयीं पसीने की कुछ बूंदें उनके माथे पर आ गयीं थीं जो सूरज की पहली किरण पड़ने पर उनके गौर माथे पर सिंदूरी सोने जैसी चमक रही थीं।

अभी रुद्रदत्त जी ने अपनी बोतल से दो घूँट पानी पीकर उसे नीचे रखा ही था और बोतल रखकर जैसे ही उन्होंने सिर उठाया, एक महिला ट्रेक सूट पहने सामने खड़ी थी। उसकी साँसे तेज़-तेज़ चल रही थीं मानों बहुत दूर से दौड़ती चली आ रही थी। रुद्रदत्त जी ने गौर से उसे देखा, उसकी उम्र कोई चालीस साल के आसपास थी, गौरा रँग, पाँच फीट चार इंच के लगभग हाइट, कसा हुआ चुस्त जिस्म और अकर्षक शारिरिक कटाव उसे बहुत आकर्षक बना रहे थे। उसकी पर्सनेलिटी ऐसी थी कि कोई भी उसे देखे तो कुछ देर उसे बस देखता ही रहे।

"क्या मैं यहाँ बैठ सकती हूँ मिस्टर...?" अभी रुद्रदत्त जी उसके भूगोल को देख ही रहे थे कि उनके कानों में उसका मधुर स्वर पड़ा।

"ज...जी...जी बिल्कुल", रुद्रदत्त जी हड़बड़ाते हुए बोले और खिसककर बेंच के एक कोने पर हो गए।

"अरे! यहाँ तो ऐसे ही बहुत जगह थी, आपको और जगह बनाने की कोई ज़रूरत नहीं थी।" वह महिला रुद्रदत्त जी की हालत देखकर मुस्कुराते हुए बोली और फिर उनके पास ही बैठ गयी। अब रुद्रदत्त जी को उससे झेंप हो रही थी और वे उसकी ओर आँखे नहीं उठा रहे थे।

"मेरा नाम गिरिजा है, गिरिजा गोस्वामी! और आप...?" कुछ देर ऐसे ही बैठकर रुद्रदत्त जी की ओर देखने के बाद उस महिला ने मुस्कुराते हुए कहा और रुद्रदत्त जी की ओर अपना हाथ बढ़ा दिया।

"ज...जी मैं रुद्र... रुद्रदत्त बंसल, मैं एक व्यापारी हूँ। मेन मार्केट में मेरी किराने और ड्राईफ्रूट्स की छोटी सी दुकान है।" महिला के पहल करने पर रुद्रदत्त जी ने अपना पूरा परिचय उसे दे दिया।

"जी मैं शिक्षिका हूँ, इंटर कॉलेज में बायोलॉजी पढ़ाती हूँ। अभी कुछ दिन पहले ही यहाँ ट्रांसफर हुआ है, अभी ये शहर मेरे लिए अजनबी है।" गिरिजा ने भी अपना परिचय देते हुए कहा। 

अब इन दोनों के बीच सामान्य बातें होने लगीं और कोई आधा घण्टे बाद दोनों वहाँ से चले गए।

अब ये नित्य नियम बन गया था रुद्रदत्त जी और गिरिजा पार्क में मिलते और साथ-साथ दौड़ते उसके बाद आधा-एक घण्टे बैंच पर बैठकर बातें करते। ये दोनों अब एक दूसरे के बारे में सब कुछ जान चुके थे। गिरिजा गोस्वामी उत्तराखंड के चमोली जिले से आती थीं। शहर के कॉलेज में शिक्षिका थीं। गिरिजा को उनके प्रेमी ने धोखा दिया था तबसे उसने कभी शादी ना करने और मर्दो से दूर रहने की कसम खयी थी। गिरिजा की उम्र अब अड़तालीस वर्ष की थी लेकिन रोज एक्सरसाइज करने और फिटनेस पर ध्यान देने के चलते वह चालीस से अधिक की नहीं लगती थी। पिछले कुछ समय से गिरिजा रोज सुबह इस पार्क में दौड़ने आती थी और दूर से रुद्रदत्त जी को कसरत करते हुए देखती थी। उस दिन उससे रहा नहीं गया और गिरिजा ने रुद्रदत्त जी से परिचय बढ़ा लिया था।

"अभी आप कहाँ रहती हैं टीचर जी?" रुद्रदत्त जी ने प्रश्न किया और विशेष भाव से मुस्कुरा दिए।

"अरे सर! हमारा नाम है, आप हमें टीचर जी की जगह गिरिजा कहेंगे तो हमें ज्यादा अच्छा लगेगा। आपको नहीं लगता ये टीचर जी ये लाला जी बहुत पराये से लगते हैं। वैसे अभी तो मैं एक होटल में ही रहती हूँ , कोई अच्छा सा रूम मिल जाये तो वहाँ शिफ्ट होकर सेटल हो जाऊँ। आपकी नजर में है कोई अच्छा कमरा?" गिरिजा ने रुद्रदत्त जी की आँखों में देखते हुए प्रश्न किया। इस समय गिरिजा के चेहरे पर बहुत भोली मुस्कान थी।

  "आप ठीक समझो तो मेरे घर..., इतना बड़ा घर है और रहने वाला मैं अकेला। आप कोई किराया भी मत देना बस भोजन..., आपको रहने का सहारा हो जाएगा और मुझे भोजन का।" रुद्रदत्त जी ने धीरे से कहा।

"सहारा..., ठीक है तो मैं कल ही अपना सामान लेकर आ जाती हूँ, कल सन्डे है आराम से रूम सेट हो जाएगा।" गिरिजा ने कुछ सोचकर कहा और दोनों मुस्कुराते हुए चले गए।

गिरिजा अब रुद्रदत्त जी के बड़े से घर में आ गयी थीं। रविवार का दिन था तो आराम से वह अपना सामान जमा सकती थीं। ऐसे भी गिरिजा जी के पास ज्यादा सामान नहीं था। बस कुछ कपड़े थोड़े से बर्तन और कुछ किताबें।

"आप ये ना समझना कि बस ये एक कमरा ही आपका है, मेरी ओर से ये पूरा घर आपका है आप जहाँ चाहें रह सकती हैं जहाँ चाहें जो चाहे कर सकती हैं।" रुद्रदत्त जी ने गिरिजा की किताबें जमाते हुए कहा। आज रुद्रदत्त जी भी दुकान नहीं गए थे। पत्नी के जाने के बाद ये पहली बार था जब उन्होंने दुकान समय पर नहीं खोली थी। हालाँकि पहले तो ये अक्सर हुआ करता था। खासकर उनकी शादी के प्रारम्भिक दिनों में। आज ना जाने क्यों रुद्रदत्त जी को वे दिन बहुत याद आ रहे थे।

"आपका कमरा कौन सा है 'रुद्र' चलो मुझे दिखाओ।" अचानक किताब रखकर गिरिजा रुद्रदत्त जी की  ओर घूमी और उनकी आँखों में देखते हुए गम्भीर होकर बोली।

"वो... उधर वहाँ है मेरा कमरा।" रुद्रदत्त जी ने हकलाते हुए उंगली से इशारा करके बताया।

"अच्छा! चलो मुझे देखना है।" गिरिजा ने कहा और उस रूम की ओर बढ़ गयी।

रुद्रदत्त जी भी उसके पीछे आने लगे।

कमरे में आकर कुछ देर इधर-उधर देखने के बाद गिरिजा की नजर एक तस्वीर पर जाकर अटक गई। कमरे में दीवार पर एक बड़े से फ्रेम में किसी महिला की तस्वीर लगी थी जिसपर फूलमाला चढ़ी हुई थी।

"ये मेरी पत्नी गंगा की तस्वीर है। लोग कहते हैं कि गङ्गा मोक्ष तक साथ रहती है लेकिन मेरी गङ्गा तो मुझे बीच राह में मुझे छोड़कर चली गई।" रुद्रदत्त जी गिरिजा की आँखों का मतलब समझकर उसे बताते हुए बोले।

"अच्छा! फिर आपने इनकी तस्वीर यहाँ क्यों लगा रखी है। क्या आप नहीं चाहते कि इन्हें मोक्ष मिले। अरे यदि आप ऐसे इन्हें तस्वीर में कैद करके रखोगे तो कैसे जा पायेंगी ये परलोक, आप इन्हें अपनी यादों से आज़ाद कीजिये पहले।" गिरिजा ने गम्भीर होकर कहा और रुद्रदत्त की आँखों में देखने लगी।

रुद्रदत्त जी ने कुछ नहीं कहा और बस गिरिजा की आँखों में देखने लगे। अचानक गिरिजा ने उनका हाथ पकड़ लिया। ये स्पर्श रुद्रदत्त जी को डूबते को तिनके का सहारा सा लगा और उनका ध्यान टूट गया।

"अच्छा अब आप दुकान पर जाइये यहाँ मैं सब ठीक कर दूँगी।" गिरिजा ने कहा और रुद्रदत्त जी बिना कुछ कहे दुकान के लिए निकल गए।

 शाम को गिरिजा ने भोजन में कई तरह के पकवान बनाये थे, पत्नी के देहांत के बाद रुद्रदत्त जी ने पहली बार मन और पेट दोनों की तृप्ति की थी। 

 "वाह क्या स्वाद है, जादू है आपके हाथों में गिरिजा जी। आपको बायोलॉजी का नहीं कुकिंग का टीचर होना चाहिए था।" भोजन के बाद रुद्रदत्त जी ने गिरिजा की तारीफ करते हुए कहा।

 "अच्छा जी! चलो कोई बात नहीं यहाँ मैं आपको कुकिंग सिखाने को जॉब कर लेती हूँ लेकिन केवल आपको ही सिखाऊंगी।" गिरिजा ने मुस्कुराते हुए कहा।

 "केवल मुझे ही क्यों?" रुद्रदत्त जी ने गिरिजा की आँखों में देखते हुए पूछा।

 "सहारे के लिए लाला जी, अब कभी अगर मैं बीमार पड़ी तो मुझे भी तो दो रोटी का सहारा चाहिए होगा ना, तब आप मेरे लिए खाना बनाना।" गिरिजा ने हँसते हुए कहा लेकिन तभी रुद्रदत्त जी ने गिरिजा के मुँह पर हाथ रख दिया और धीरे से बोले, "बीमार पड़ें आपके दुश्मन।"

 तभी गिरिजा ने रुद्रदत्त जी के हाथ को चूम लिया और मुस्कुराते हुए उनकी आँखों में देखने लगी।

 "क्या देख रही हो ऐसे?" रुद्रदत्त जी ने उससे नज़रें चुराकर अपने हाथ को देखते हुए कहा।

 "क...कुछ नहीं! बस ऐसे ही।" गिरिजा ने कहा और बर्तन समेटने लगी।

 "अरे गिरिजा जी! ये हमारे कमरे का हुलिया किसने बदल दिया? और गंगा की तस्वीर कहाँ है?"कुछ ही देर बाद कमरे से रुद्रदत्त जी की आवाज आयी।

 "हमने किया है, और गंगा जी को हमने उनकी तस्वीर की कैद से मुक्त कर दिया अब आप भी उन्हें अपनी यादों से मुक्त कर दो ताकि वे अपने मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ सकें और इस कार्य के लिए जो सहारा चाहिए आपको मैं देने के लिए तैयार हूँ।" गिरिजा ने अर्थपूर्ण स्वर में कहा और मुस्कुराते हुए वापस जाने लगी।

 "कैसा सही गिरिजा?" रुद्रदत्त जी ने उसकी आँखों की चमक देखते हुए पूछा।

 "आती हूँ अभी थोड़ी प्रतीक्षा कीजिये।" गिरिजा ने हँसकर कहा और रसोई की ओर बढ़ गयी। 

 रुद्रदत्त जी सोच रहे थे कि गिरिजा आज ना जाने क्या करने वाली है।


 कुछ देर बाद जब गिरिजा उनके सामने आई तो वे छक्के-बक्के से उसे देखते रह गए।

 गिरिजा ने बहुत सुंदर लहँगा और चोली पहनी हुई थी। उसने एक जड़ाऊ चुनरी से अपने सिर को भी ढका हुआ था। वह आगे आयी और रुद्रदत्त जी के सामने आकर खड़ी हो गई। रुद्रदत्त जी तो समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या करें। इन कपड़ों में गिरिजा बिल्कुल अप्सरा लग रही थी। उसका रूप उसका यौवन किसी नवविवाहित नवयौवना को भी फेल कर रहा था। रुद्रदत्त जी तो पलकें तक झपकाना भूल गए थे।

 "ऐसे क्या देख रहे हैं रुद्र क्या मैं अच्छी नहीं लग रही?" गिरिजा ने धीरे से मुस्कुराते हुए पूछा।

 "बहुत अच्छी लग रही हो गिरिजा किन्तु ये सब...?" रुद्रदत्त जी ने फिर उसकी ओर देखते हुए पूछा।

 "ये सब आपको सहारा देने के लिए ताकि आप गंगा जी को भुला सको और भुला सको उन कुपुत्रों को जिन्हें अपने सुख के आगे अपने पिता के रोज सूखते आँसू कभी दिखाई नहीं दिए।" गिरिजा ने कहा और रुद्रदत्त जी के पास बिस्तर पर बैठ गयी। 

 गिरिजा की सुंदरता रुद्रदत्त जी को।मोहित कर रही थी। उसके शरीर की मादक गंध उन्हें मदहोश कर रही थी।

 वे सोच नहीं पा रहे थे कि क्या करें तभी गिरिजा ने उनका हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोली, "जब इस दुनिया में सभी अपने हिसाब से जीना चाहते हैं, सभी को बस अपने आप से मतलब है तो हम इस मतलबी दुनिया की परवाह क्यों करें। क्यों ना आज से हम एक दूसरे का भावनात्मक सहारा बनें? क्यों ना हम एक दूसरे की कमी पूरी करें? क्यों ना हम सबकुछ भूलकर बस अपने सुख के लिए जियें।" गिरिजा रुद्रदत्त जी के हाथ को दबा रही थी।

 आज वर्षों बाद किसी स्त्री का ये स्पर्श उन्हें अंदर से गुदगुदा रहा था। उनकी नसों में खून का संचार तेज होने लगा था। उनके भीतर का पुरुष जाग रहा था।

 उन्होंने गिरिजा को अपनी ओर करते हुए उसका घुँघट उठा दिया और बोले, "तुम ठीक कहती हो गिरिजा, हमें भी अपने लिए जीना चाहिए, जब किसी को हमारी परवाह नहीं जब समय पर कोई हमारा सहारा नहीं बनना चाहता तो क्यों ना हम अपना सहारा खुद ही खोज लें और अपने सहारे का सच्चा सहारा बनें।" कहते हुए रुद्रदत्त जी ने गिरिजा का माथा चूम लिया। गिरिजा भी अब उनकी बाहों में सिमट गई थी। रुद्रदत्त जी के होंठ गिरिजा के माथे से आँखों पर फिसलते हुए उसके होंठों पर पहुँच गए थे और उनके हाथ उसके गले से फिसलकर उसकी पर्वत चोटियों की बर्फ हटाने लगे थे। उनके हाथ का गर्म स्पर्श पाकर गिरिजा पिघल उठी और रुद्रदत्त जी उसकी पर्वत चोटियों का अमृतरस पीने लगे। गिरिजा को ये सब बहुत अच्छा लग रहा था और वो चाहती थी कि रुद्र उसमें समा जाएँ और ये रात कभी खत्म ही ना हो।  वह रुद्रदत्त से लिपटी जा रही थी और उन्होंने उसे किसी लता की भाँति मज़बूत वृक्ष बनकर सहारा दे रखा था।

 उनके चुम्बन की गति और दबाब दोनो बढ़ चुके थे। उनके बीच के सारे पर्दे हट चुके थे। रुद्रदत्त जी के हाथ अब बिना रुकावट गिरिजा के संगमरमरी जिस्म पर फिसल रहे थे। इन दोनों की ही साँसें बहक चुकी थीं तूफान अपने चरम पर था तभी रुद्रदत्त जी गिरिजा से लिपटकर वह पा गए जिसे पाने के लिए ये सारा तूफान उठाया जा रहा था। वे उसके अंदर समाते चले गए जिसे गिरिजा ने भी पूरे मन से स्वीकार किया और जब ये तूफान थमा तो दोनों के चेहरे सन्तुष्टि से चमक रहे थे। थोड़ी देर ऐसे ही पड़े रहकर साँसे ठीक करने के बाद दोनों को होश आया कि कुछ देर पहले उनके बीच से क्या तूफान गुजरा है जिसने एक ज्वालामुखी को पिघला दिया था। गिरिजा के यौवन पर वर्षों से जमी बर्फ पिघल चुकी थी। रुद्रदत्त जी भी काफी सालों बाद अपने पुरुष होने पर गर्व कर रहे थे। इस उम्र में भी उनकी शक्ति क्षीण नहीं हुई थी। गिरिजा उनसे पूरी तरह खुश थी।

 "क्या हम विवाह कर लें गिरिजा?" गिरिजा के बालों में उंगलियाँ घुमाते हुए रुद्रदत्त जी ने धीरे से पूछा।

 "नहीं! उसकी कोई ज़रूरत नहीं है।" गिरिजा ने उनके सीने पर से अपना सिर उठाते हुए कहा।

 "लेकिन क्यों? अब जब हमारे बीच ये सम्बन्ध बन ही गया है तो तुम्हें नहीं लगता हमें इसके लिए सामाजिक मान्यताओं को मानते हुए हमारे रिश्ते की औपचारिक घोषणा कर देनी चाहिए?" रुद्रदत्त जी ने प्रश्न किया।

 "नहीं मुझे नहीं लगता। हमें एक दूसरे का सहारा चाहिए सो हमें मिल गया, इसके लिए हमें हमारे रिश्ते को कोई नाम देने की कोई ज़रूरत नहीं है, और फिर जब हमें भावनात्मक स्पोर्ट चाहिए था तब तो यही ज़माना हमारा मज़ाक उड़ा रहा था ना तो अब हम इसकी परवाह क्यों करें।

 ऐसे भी आप विवाह करके, परिवार बना कर देख चुके हो, कौन है आज आपके पास? मैने भी प्रयास किया था लेकिन मेरा प्रेमी विवाह के मंडप तक भी नहीं आता। तब जब मुझे लोगों से मोरल स्पोर्ट की आशा थी लोग उल्टे मेरा ही मज़ाक उड़ा रहे थे कि शायद उसे मेरी किसी बात का पता चल गया होगा इसलिए वह मुझसे विवाह करने नहीं आया। जिस लड़के के लिए मैं दुनिया से लड़ी, अपने पेरेंट्स को छोड़ दिया वह उस समय भाग गया जब मुझे सहारा चाहिए था। उसने मुझे धोखा दिया तो मुझे नफरत हो गयी विवाह के नाम से ही।" गिरिजा ने गम्भीर आवाज में कहा।

 रुद्रदत्त जी अवाक उसका मुँह ताकते रहे और फिर उसे अपनी बाहों में कसते हुए बोले, "हम हमेशा एक दूसरे का सहारा रहेंगे गिरिजा।" 

 गिरिजा ने भी उन्हें कस लिया और दोनों सो गए। 

 ये दोनों एक दूसरे का सहारा बनकर बहुत खुश थे, 

 दोनों के हृदय की धड़कन मानों गा रही थीं, "तुम जो मिल गए हो..."

  समाप्त