Friday, October 17, 2025

लालच का फल

लालच का फल




"जाओ तुम्हें आज से और अभी से ही जिन्नलोक से बाहर निकाला जाता है 'अहमर' आज के बाद तुम अगर जिन्नातों के बीच दिखे तो तुम्हें खार ए दोजख में हमेशा के लिए डाल दिया जायेगा जहाँ से तुम्हें कयामत तक भी कोई नहीं निकलेगा।" जिन्नों के बादशाह ने अपने सामने सिर झुकाए खड़े लाल रंग के जिन्न अहमर को गुस्से से फटकारते हुए कहा।

"लेकिन मेरे आका मेरा गुनाह क्या है? और मुझे क्यों ये सज़ा दी जा रही है?" अहमर और थोड़ा कमर झुकाकर झुकते हुए बड़ी दीन आवाज में बोला।

"गुनाह!! तुम्हें नहीं पता अहमर की तुमने क्या गुनाह किया है? वैसे गुनाह तो बहुत छोटा लफ्ज है तुम्हारे कुकर्म के लिए, तुमने तो गुनाह ए अज़ीम किया है अहमर कुफ्र किया है तुमने कुफ्र। और बेदीन तूने अपने लालच के चलते हमारी सारी कौम को बदनामी जा बदनुमा दाग लगा दिया।  तेरी भूख इतनी बढ़ गयी अहमर कि तूने जिन्नों के लिए हराम जानवर को जिबह करके खा लिया और हम सब पर कुफ्र नाजिल कर दिया। अब तेरे लिए यही अच्छा रहेगा कि तू हमारे जिन्नलोक से इसी समय बाहर चला जा नहीं तो हम अभी तुझे खार के जंगल में फिंकवा देंगे।" जिन्नों का बादशाह बहुत गुस्से में अहमर को देखते हुए तेज़ आवाज में बोला।

"हुजूर! मेरे आका, मैने जानकर ये अपराध नहीं किया है। मुझे तो पता ही नहीं चला कि वह जानवर हराम था हमारे लिए, मुझे तो लगा था कि मैं बारहसिंगा के बच्चे को मार रहा हूँ। मुझे उसने धोखा दिया था मेरे हुजूर, वह कोई मायावी था। आप मुझपर रहम करो मेरे आका।" अहमर रोते हुए जमीन पर सिर रखकर बोला।

"जाओ अहमर निकल जाओ यहाँ से जब तक तुम्हें कोई ऐसा ना मिले जिसके लालच की भूख तुमसे ज्यादा हो और वह तुम्हारा लालच भी अपने लालच में मिलाकर तुम्हारा गोश्त खुशी से खा ले। जब कोई इंसान खुशी-खुशी तुम्हारा गोश्त खा लेगा तब तुम्हें तुम्हारे कुफ्र से निजात मिल जायेगी और तुम वापस जिन्नलोक लौट सकोगे।" जिन्नों के बादशाह ने कहा और अहमर जिन्नलोक से नीचे  कूद गया।

  

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  "आज पूरे दो दिन हो गए हैं, पेट में अन्न का एक दाना तक भी नहीं गया है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो हमें मरने से कोई नहीं बचा सकता, आखिर ऐसे नमक का पानी पीकर हम कब तक जिंदा रहेंगे जी? आप उठकर कुछ काम करो नहीं तो हमारी मौत का पाप भी आपके ही सिर पर आएगा क्योंकि हमसे विवाह करके और इन बच्चों को पैदा करके इनकी जिम्मेदारी अपने अपनी इच्छा से स्वीकार की है।" सारू भाट की पत्नी खनकी उसे ताने मारते हुए कह रही थी क्योंकि सारू कई दिन से ना तो कोई काम कर रहा था और ना ही भीख ही मांग रहा था। सारू कोई चालीस साल का भाट था जो अपनी बेतुकी तुकबंदियों से लोगों को हँसाकर कुछ पैसे मांग कर लाता था और इसी से उसका घर चलता था। कई दिन से सारू को कुछ सूझ ही नहीं रहा था और उसकी पुरानी तुकबंदियों पर लोग अब ना तो हँसते थे और ना ही सारू को कोई पैसा देते थे।

"अब पड़े-पड़े सोच क्या रहे हो जी? जाओ और जाकर कुछ काम करो नहीं तो हम भूखे मर जायेंगे।"  खनकी फिर खनकते हुए बोली।

"मुझे समझ में ही नहीं आ रहा है खनकी कि मैं क्या काम करूँ? अरे अब नई कोई तुकबंदी मुझसे बनती नहीं और पुरानी पर कोई कुछ देता नहीं, अब तुम ही बताओ खनकी कि मैं करूँ तो क्या करूँ? मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा।" 

"कुछ समझ नहीं आ रहा तो जँगल जाकर कुछ लकड़ी या घास ही काटकर बाजार में बेच आओ, सारे लोग गप सुनाकर ही तो नहीं जी रहे हैं।" खनकी फिर गुस्सा करते हुए  बोली तो सारू एक रस्सी और फरसा लेकर घर से निकल गया। सारू जनता था कि ये लकड़हारे या घसियारे का काम उसके बस का नहीं है लेकिन फिर भी वह अब घर में रहकर खनकी के ताने और नहीं सुनना चाहता था।


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क्या करूँ मेरे इष्ट देव! मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। ये घास कैसे काटूं और कटकर कहाँ बेचूं? ऐसा करता हूँ घास रहने देता हूँ और लकड़ी काटता हूँ, फिर उसे लेजाकर किसी हलवाई को बेच दूँगा। लेकिन लकड़ी उठाऊंगा कैसे? मैंने तो कभी अपनी नाजुक खोपड़ी पर कोई वजन नहीं उठाया।" सारू सोचते-सोचते आगे बढ़ता जा रहा था और ऐसे ही चलते-चलते वह घने जंगल में पहुँच गया जहाँ ऊँचे-ऊँचे पेड़ थे, इन पेड़ों के नीचे बहुत सारी सुखी लकड़ियाँ भी टूटी पड़ी थीं।

सारू ने कुछ सोचते हुए वहाँ पड़ी सूखी लकड़ियाँ उठाकर रस्सी पर रखनी शुरू कर दीं। अब सारू लकड़ियां उठाने में ये भूल गया कि उसे इन्हें उठाकर भी ले जाना होगा और वह सामने आती हर सूखी-गीली लकड़ी उठाता रहा। कुछ ही देर में सारू ने लकड़ियों का ढेर लगा लिया लेकिन अब ये ढेर इतना बड़ा हो गया था कि उसे बंधने के लिए सारू की रस्सी भी छोटी पर रही थी,वह एक सिरे को खींचता तो दूसरा सिर ढेर के नीचे चला जाता और उसे खींचता तो यह सिरा नीचे सरक जाता। काफी देर तक सारू ऐसे ही मशक्कत करता रहा लेकिन वह उस ढेरी को अपनी रस्सी में नहीं बाँध पाया तो सिर पर हाथ रखकर बैठ गया और सोचने लगा।

"बंधता नहीं ये ढेर कैसे लेकर जाऊं, घर जाकर मैं एक और रस्सी लेता आऊँ।

क्या करूँ समझ मेरी अब काम ना आवे।

ऐसा न हो ले जाये कौ चोर जो रस्सी लेने जाऊँ।।"


सारू ना तो उस ढेर को कम करना चाहता था और ना ही उसे बांध पाता था।  अब शाम होने लगी थी लेकिन सारू को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि वह करे तो क्या करे। 

सामने पेड़ पर बैठा 'अहमर' बहुत देर से सारू को देख रहा था और अब तक वह ये समझ चुका था कि सामने जो लकड़हारा है वह लालची है, लेकिन कितना लालची? क्या यह अहमर का काम कर सकता है?" अहमर ने कुछ देर सोचा और फिर एक बूढ़े का रूप बनाकर वह सारू के सामने आ गया।

"क्या बात है भाई! बहुत देर से देख रहा हूँ तुम बहुत परेशान से बैठे हो? क्या मैं तुम्हारी कोई सहायता कर सकता हूँ?" अहमर ने मीठी आवाज में सारू से सवाल किया।

"कोई परेशानी नहीं है बड़े भाई! लेकिन आप इस समय इस घने जंगल में कहाँ घूम रहे हो? जल्दी चले जाओ यहाँ से, अगर किसी जंगली जानवर को दिख गए तो उसका भोजन बन जाओगे। जाओ भाई जाओ मुझे कोई कष्ट नहीं है। " सारू ने एक नजर उस बूढ़े की ओर देखा और उसे टालने वाली आवाज में कहकर फिर अपना सिर ठोकने लगा।

"मुझे लगता है कि तुम्हें इस गठरी को अपने घर तक ले जाने की चिंता है जिसे तुम ना बाँध पा रहे हो और ना ही उठा पा रहे हो। अगर तुम चाहो तो मैं इसे तुम्हारे घर तक ले जाने में मदद कर सकता हूँ।" असगर उस ढेरी की ओर देखते हुए मुस्कुरा कर बोला।

"मैं खुद इसे ले जाऊँगा बड़े भाई, आप अपने रस्ते जाओ और मुझे मेरा  काम खुद करने दो।" सारू के मन में डर था कि कहीं ये आदमी उसकी लकड़ी लेकर गायब ना हो जाये।

"अरे भाई! इंसान ही तो इंसान के काम आता है, तुम डरो मत मैं इन सारी लकड़ियों को तुम्हारे घर पहुँचा दूँगा बस बदले में तुम आज रात मेरे भोजन और विश्राम की व्यवस्था कर देना। हमारा हिसाब बराबर हो जायेगा।" अहमर सारू को लालच देते हुए बोला।

अहमर की बात सुनकर सारू सोच में पड़ गया, वह सोच रहा था कि, "भोजन के लिए ही तो ये सारा बखेड़ा खड़ा हुआ है और ये भी भोजन ही मांग रहा है? अब अगर मैं ये लकड़ियाँ ले भी चलूँ तो रात में इन्हें बेचूँगा कहाँ और बिना इनके बिके भोजन सामग्री खरीदने के पैसे कहाँ से आयेंगे?" 

"क्या सोचने लगे मित्र? क्या आपको मेरा ये प्रस्ताव भी स्वीकार नहीं है? क्या तुम इस बात से डर रहे हो कि मैं तुम्हारी लकड़ियां लेकर भाग जाऊँगा? अरे भाई मेरा विश्वास करो मैं ये सारी की सारी लकड़ियाँ सुरक्षित आपके घर पहुँचा दूँगा।" अहमर फिर बोला।

"कुछ नहीं सोच रहा मैं, मुझे पता है कि तुम मेरी लकड़ियां लेकर नहीं भागोगे लेकिन मैं तुम्हें भोजन नहीं करा पाऊँगा। यदि केवल रुकने की जगह के बदले मेरा काम करते हो तो बताओ?" सारू ने अहमर के सामने प्रस्ताव रखा तो अहमर मुस्कुराते हुए बोला, "ठीक है भाई जैसी आपकी मर्जी। चलो मैं इसे उठा लेता हूँ, आप आगे-आगे चलो लेकिन मेरी एक शर्त है कि आप चलते समय पीछे मुड़कर नहीं देखोगे नहीं तो मैं ये सारी लकड़ियाँ यहीं फेंककर चला जाऊँगा फिर तुम जाओ और तुम्हारी लकड़ियाँ।"

"क...क्या? ये क्या शर्त हुई? अगर पीछे से तुम गायब हो गए मेरी लकड़ी लेकर तब?" सारू उसकी शर्त सुनकर चौंककर बोला।

"नहीं भागूँगा, मैं वादा करता हूँ। ऐसे भी तुम्हें मेरे आने की आवाज बराबर आती रहेगी।" अहमर ने हाथ बढ़ाकर कहा और सारू उसके हाथ पर हाथ रखकर उसका वचन स्वीकार करके आगे चल दिया। 

अहमर ने उन सारी लकड़ियों को दबाकर उस रस्सी में ही बाँध दिया और रस्सी का एक सिरा पकड़कर सारू के पीछे-पीछे चलने लगा। लकड़ी का वह बड़ा सा गट्ठर हवा में तैरता हुआ अहमर के पीछे-पीछे आ रहा था। सारू आगे चल रहा था, उसे बराबर अहमर के भारी कदमों की आवाज आ रही थी। वह मन ही मन पीछे देखना चाहता था लेकिन उसे डर था कि यदि यह बूढ़ा नाराज़ हो गया तो उसकी सारी लकड़ियाँ यहीं रह जायेंगीं।

 रात होने लगी थी, अंधेरा घिरने लगा था। सारू रात के डर से जल्दी-जल्दी चल रहा था, उतनी ही तेज़ी से अहमर भी उसके पीछे आ रहा था। देखते ही देखते सारू का घर आ गया, रास्ते में किसी को भी अहमर दिखाई नहीं दिया था। लोगों को यही लग रहा था कि सारू भाट आज लकड़ियों का एक बड़ा गट्ठर घसीटता हुआ घर ले जा रहा है, लेकिन रास्ते में किसी ने भी सारू को नहीं टोका था।

 जैसे ही सारू अपने घर के सामने आया, अहमर ने लकड़ियों के गट्ठर को ऊपर करके जोर से उसके फाटक के बगल में पटक दिया। लकड़ियां तेज़ी से धड़धड़ाते हुए नीचे गिरीं जिनके गिरने का शोर सुनकर खनकी भी देखने के लिए दरवाजे पर आ गयी कि वहां क्या हुआ है।

 "अरे! इतनी सारी लकड़ियां? लेकिन आप इन्हें घर क्यों ले आये? अरे आप को इन्हें बाजार में बेचकर आना चाहिए था, कम से कम इनके बदले में आज रात के खाने का कुछ अन्न तो मिल जाता। कबसे मैं बच्चों को यह कहकर दिलासा दे रही हूँ कि तुम्हारे बाबा बहुत सारा अनाज लेकर लौटेंगे और हम पेट भरकर खाना खायेंगे।" खनकी गुस्से से खनकते हुए बोली।

 "अरे भगवान! मेरी बात तो सुन, मेरे आते ही तलवार जैसे खनकने लगी। देख आज मैं अकेला नहीं आया हूँ, मेरे साथ एक मेहमान भी है। दरअसल हुआ ये कि मैंने बहुत सारी लकड़ी काट तो लीं लेकिन उन्हें घर लाने के लिए कोई उपाय मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था तब इन्होंने मेरी सहायता की और ये सारी लकड़ियां घर आ गयीं। ये तो बदले में विश्राम का स्थान और भोजन दोनों माँगते थे लेकिन मैंने इन्हें केवल स्थान देने पर मना लिया। इतनी लकड़ी काटने में मुझे रात हो गयी थी तो उन्हें बाजार में ले जाने का समय ही नहीं बचा था। अब ऐसा करो इनके सोने का इंतज़ाम कर दो, हम सुबह इन सारी लकडियों को बेचकर खूब सारा अनाज खरीद लायेंगे।" सारू ने कहा तो खनकी इधर-उधर देखने लगी, तभी लकड़ियों के पीछे से अहमर हाथ जोड़े निकल आया और खनकी को अभिवादन करते हुए बोला, "ऐसे तो मुझे भी तेज भूख लगी है लेकिन फिर भी मैं नमक का पानी पीकर सोने का प्रयास करूँगा, शायद नींद आ जाये। ऐसे तो मैंने सुबह से कुछ भी नहीं खाया है।" अहमर अपने पेट पर हाथ फेरते हुए बोला।

 "क्या करें भाई साहब! हम भी नहीं चाहते कि हमारा अतिथि भूखा सोए लेकिन हमारे पास एक दाना भी अन्न नहीं है जिससे हम भोजन बनाकर आपको खिला सकें या खुद खा सकें, हमारे तो बच्चे तक भी भूखे सो गए हैं।" खनकी हाथ जोड़कर उदास आवाज में बोली।

 "बस इतनी सी बात है? आप जाकर कोई बर्तन ले आओ, मेरे पास कुछ अनाज है जिसे मैं आपको दे दूँगा और बदले में आप मुझे भोजन बनाकर दे देना।" अहमर मुस्कुराते हुए बोला।

 "ठीक है भाई साहब मैं अभी लायी।" खनकी ने खुशी से खनकते

हुए कहा और दौड़कर एक बड़ा पतीला उठा लायी।

 "लीजिए भाई साहब इसमें कर दीजिये जो भी है।" खनकी ने पतीला अहमर के सामने रखते हूए कहा तो अहमर ने अपनी झोली का  मुँह उस पतीले में लगाकर झोली उल्टी कर दी।

 देखते ही देखते वह बड़ा सा पतीला जिसमें सात-आठ किलो से कम अनाज नहीं आता होगा वह चावल से भर गया।

 इतने सारे चावल देखकर खनकी तो खुशी से उछल ही पड़ी जबकि सारू इतनी सी झोली में से इतने ढेर सारे चावल निकलते देखकर चकरा रहा था।

 "मैं अभी नमकीन भात पकाती हूँ, आप लोग मुँह-हाथ धोकर जरा कपड़े बदलो तब तक मैं चूल्हा जलाती हूँ।" खनकी ने कहा और  पतीला उठाकर अंदर चली गयी।

 "भाई आप तो हमारे लिए भगवान बनकर आये हो, क्या नाम है आपका और आप कहाँ से आये हो?" सारू ने अहमर से सवाल किया तो अहमर उसकी ओर देखते हुए बोला, "परदेशी हूँ भाई जँगल में रात होने लगी थी तो तुम्हारे साथ चला आया, अ...ह...म... अमर हां अमर नाम है मेरा। आप चाहो तो मैं कुछ दिन आपके पास रुककर आपकी मदद कर दूँगा उसके बाद अपने देश को चला जाऊँगा। आप मुझे बस सोने की जगह और थोड़ा भोजन दे दिया करना, मुझे बिल्कुल भी लालच नहीं है भाई और लालच किसी को होना भी नहीं चाहिए क्योंकि लालच का फल बहुत बुरा होता है।" अहमर ने अपनी असलियत छिपाते हुए कहा।

 "ठीक है भाई अमर जी आप हमारे साथ रह सकते हो, ऐसे भी आपके आने भर से आज हमें भरपेट भात खाने को मिलेगा।" सारू ने कहा और अहमर को लेकर बैठक की ओर बढ़ गया जहाँ उसने एक चारपाई पर दरी और चादर बिछा दी।

 "लो भाई अमर जी ये हो गया आपका बिस्तर, वह घड़े में रखा है पानी जिससे आप हाथ मुँह धो लो मैं जरा अंदर जाकर देखता हूँ कि भात पकने में कितनी देर है " सारू ने कहा और खुश होता हुआ अंदर चला गया।

 "लगते तो दोनों पति-पत्नी ही लालची हैं लेकिन फिर भी मुझे होशियारी से काम लेना होगा, इन्हें छोटी-छोटी चीजें देकर बड़े लालच की ओर ले जाना होगा नहीं तो ये मेरा पाप खाने के लिए कभी तैयार नहीं होंगे।" सारू के जाने के बाद अहमर खुद से ही बातें कर रहा था। उधर अहमर की योजना से बेखबर सारू चुल्हे पर पकते भात में करछी चला रहा था।

 भात पककर तैयार हुआ तो सबसे पहले अहमर और बच्चों को परोसकर खनकी ने एक थाली सारू की ओर भी बढ़ा दी।

 "आप भी तो लीजिए खनकी जी, गर्म-गर्म नमकीन भात का स्वाद ही अलग होता है।" खाना शुरू करने से पहले अहमर ने खनकी से कहा तो खनकी मुस्कुराते हुए बोली, "आप खाइये भाई साहब, परोसने के लिए भी तो कोई चाहिए और फिर भात कहीं भागा नहीं जा रहा है, मैं आप लोगों के खाने के बाद खा लूंगी।


 खनकी की बात सुनकर अहमर मुस्कुरा दिया और चुपचाप भात खाने लगा।


 सुबह उठकर सारू उन लकड़ियों के छोटे-छोटे गट्ठर बनाने लगा तो खनकी ने उसके पास  आकर सवाल किया, "ये क्या कर रहे हो जी आप? इन लकड़ियों को ऐसे क्यों बाँध रहे हो?" 

 "अरे खनकी! इतना भी नहीं समझती हो? अरे इन सारी लकडियों को एक साथ ऐसे ना तो मैं बाजार ले जा सकता हूँ और न ही एक साथ इतनी सारी लकड़ियां कोई खरीदार खरीद सकता है, बस इसीलिए मैं इनके छोटे-छोटे गट्ठर बना रहा हूँ।" सारू ने लकड़ी बांधते हुए जवाब दिया।

"रूक जाओ अभी और जरा मेरे साथ अंदर आओ, मुझे कुछ बात करनी है।" खनकी सारू की आँखों में देखते हुए बोली तो सारू चुपचाप उसके पीछे चल दिया।

 "देखो जी! मुझे तो ये 'अमर' कोई मायावी लग रहा है, अब देखिए ना कल उसने अपनी छोटी सी झोली में से पाँच सेर चावल निकालकर दे दिए थे। आपको पता है, कल मैंने कोई एक सेर चावल पकाए होंगे लेकिन पतीले में चावल का एक दाना भी कम नहीं हुआ था। रात में मैंने यही कोई एक सेर चावल भिगोए थे सुबह पीसकर इडली बनाने के लिए लेकिन सुबह देखती हूँ कि पतीला ऊपर तक चावल से भरा हुआ है, एक दाना भी चावल कम नहीं हुआ है जी। अब आप उन लकडियों को ही देखो, कल जो लकड़ी मैंने जलायी थीं वह भी यहीं हैं और आप जो गट्ठर बना रहे हो ढेर में से वह लकड़ी भी  बिल्कुल कम नहीं हो रही हैं। ऐसे तो हम लकड़ी और चावल बेचकर ही अमीर हो जायेंगे जी लेकिन ये कम हो क्यों नहीं रहे हैं? कभी आपने सोचा है इस बारे में?" खनकी सारू से  सवाल कर रही थी।

 खनकी की बात सुनकर सारू गहरे सोच में पड़ गया और फिर उठकर वह अहमर के पास जा पहुँचा।

 "भाई अमर जी मुझे सच-सच बताओ कि आप कौन हो और ऐसे हमें ये कभी खत्म ना होने वाले चावल और लकड़ी आपने क्यों दी हैं?" सारू ने अहमर के सामने जाकर सवाल किया।

 "मैं अमर हूँ सारू भाई, मेरे पास बहुत सी ताकतें हैं जिनसे मैं किसी की भी कोई भी मदद कर सकता हूँ और ये ताकतें मुझे मिली हैं मेरे गुरु से। यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हें भी ऐसी ताकत दे सकता हूँ जिससे आप जिसकी चाहो उसकी मदद कर सकते हो। इस ताकत के बाद आप जिस अनाज को अपने हाथ से किसी बर्तन में भर दोगे वह बर्तन कभी खाली नहीं होगा और तुम इतने ताकतवर हो जाओगे कि एक पर्वत को भी तिनके जैसा उठा सकोगे।" अहमर ने सारू को लालच देते हुए कहा।

 "क्या सच में ऐसा हो सकता है अमर जी? क्या सच में मुझे इतनी ताकत मिल सकती है? लेकिन उसके लिए मुझे क्या करना होगा अमर भाई?" सारू ने उतावला होते हुए पूछा। अब अहमर सारू की आँखों में लालच साफ देख सकता था, अब अहमर को यकीन हो रहा था कि सारू का लालच उसे शाप से मुक्त कर देगा।

 "कुछ ज्यादा नहीं करना होगा सारू भाई बस आप मेरे कन्धे पर ये माँस की गाँठ देख रहे हो ना? बस तुम्हें इसे काटकर पकाकर खाना होगा खुशी-खुशी और मेरी सारी ताकतें जो मुझे इस पोटली से हासिल होती हैं वह तुम्हें मिल जायेंगी।" अहमर ने गम्भीर चेहरा बनाकर सारू की आँखों में देखते हुए कहा।


 क्या कहा माँस??

मैं तो जन्म से ही शाकाहारी हूँ, मैं भला माँस कैसे खा सकता हूँ? और वह भी नर मांस??" सारू के चेहरे पर घृणा के भाव थे। सारू अब दौड़कर घर के अन्दर चला गया और उसने अपनी पत्नी खनकी को सारी बात बतायी।

 "क्या कहा इतनी सारी ताकतें? सच में आपको अमर भाई की वह ताकत की पोटली पकाकर खाने से अलौकिक ताकते  मिल जायेंगीं? जरा सोचो तो, हमारे सारे कष्ट दूर हो जायेंगे, हमारी गरीबी मिट जायेगी और सब तरफ हमारा सम्मान होगा। आप भला ये क्यों सोचते हो कि आप कोई मांस खा रहे हो। अरे! जब आदमी बीमार पड़ता है तब ना जाने दवाई के नाम पर क्या क्या खाता है। आप तैयार हो जाओ तो मैं उसे ऐसे पका दूँगी की आप समझ भी नहीं पाओगे की वह आखिर है क्या और आप उसे स्वादिष्ट सब्जी मानकर खा जाओगे।" सारू की बात सुनकर खनकी के मन में भी लालच आ गया और दोनों तैयार होकर अहमर के पास आ गए।

  "हम तैयार हैं अमर भाई, आप बतायें हमें कितना और कब कटना है?" सारू ने अहमर के पास जाकर कहा तो अहमर के चेहरे पर प्रसन्नता की मुस्कान तैर गयी।

 "पहले यह बताओ कि क्या तुम अपनी खुशी से इस मांस को खाने के लिए तैयार हो? फिर यह ना कहना कि आपके साथ कोई धोखा हुआ है?" अहमर ने सारू और खनकी की ओर देखते हुए कहा।

 "नहीं! हम लोग किसी दवाब में नहीं हैं बल्कि हम लोग पूरे होशो हवास में ताकत पाने के लिए आपकी ये  माँस की पोटली खाने को तैयार हैं।" सारू ने गम्भीर होकर कहा।


 "ठीक है सारू भाई ये लो छुरा और काटो इस गाँठ को और ध्यान रहे तुम्हें इसे पूरा खाना होगा नहीं तो तुम्हें पूरी ताकत नहीं मिलेगी।" अहमर ने छुरा सारू के हाथ में देते हुए कहा और सारू ने हिम्मत करके अहमर के कंधे पर से मांस की वह गाँठ काट ली और खनकी को दे दी जिसने उसे लेजाकर पका दिया।

 जैसे ही  सारू ने वह माँस की गाँठ खाई उसके दोनों कंधों और पीठ पर वैसी ही एक बड़ी सी गाँठ बन गयी और सारू भेड़िए की तरह गुर्राने लगा।

 "मेरा काम हो गया सारू भाई, आपके लालच ने मुझे शाप से मुक्त कर दिया है। अब तुम्हें इस शाप के साथ ही जीना होगा।" अहमर ने हँसते हुए कहा और उसका रूप बदल गया, अब वह लाल रंग के बड़े से जिन्न के रूप में दिखाई दे रहा था।

 "आपने हमसे झूठ कहा कि हमें इससे ताकतें हासिल हो जाएँगी जबकी हमें तो आपका शाप लग गया है। आपने हमारे साथ धोखा किया है।" सारू गुस्से से चिल्लाते हुए बोला।

 "मिली हैं ताकतें आपको, अब आप हर बुरा काम बहुत आसानी से कर सकते हो। बड़े से बड़े जानवर का शिकार अपने हाथों की ताकत से कर सकते हो, भारी वजन चुटकी से उठा सकते हो। आपको इतनी ताकत मिल चुकी हैं कि आप शैतान का हर काम कर सकते हो। और ये सब तुम्हें कोई झूठ बोलकर नहीं दिया गया बल्कि तुमने अपनी मर्जी से चुना है। " अहमर ने गम्भीर होकर कहा।

 "और ये शाप कब तक हमारे साथ रहेगा?" सारू ने रोने जैसी आवाज में पूछा।

 "जबतक कोई लालच में आकर तुम्हारी इन गाँठों को पकाकर नहीं खा लेता। ध्यान रहे तुम बस लालच दे सकते हो लेकिन किसी को जबर्दस्ती या धोखे से इन्हें नहीं खिला सकते।" अहमर ने कहा और सीधा होकर हवा में उड़ गया।

 जैसे-जैसे अहमर ऊपर जा रहा था, सारू नीचे झुकता जा रहा था और उसकी गाँठों में असहनीय दर्द और जलन हो रही थी। उसे उसके लालच का फल मिल गया था जो ऐसा दर्द था जिसे उसने खुद ही चुना था।



  नृपेन्द्र शर्मा “सागर”

Wednesday, June 18, 2025

चोर बाजार

चोर बाजार

 यह घटना साल 1988 की है, रहमत अली दिल्ली के बड़े व्यापारी थे। एक दिन रहमत अली  अपने स्कूटर से किसी काम से दिल्ली के चोर बाजार में गए थे, उन्होंने अपना स्कूटर एक दुकान के सामने खड़ा किया और दुकान की सीढ़ियां चढ़ने लगे। अभी रहमत मियाँ आधी दूरी तक ही पहुँचे थे कि एक आदमी उनके स्कूटर को घसीटकर ले जाने लगा जिसका हैंडल लॉक लगाना रहमत अली भूल गए थे।
 "अरे क्या करता है? ये मेरी गाड़ी है, छोड़ उसे चोर कहीं के।" कहते हुए रहमत अली उस चोर के पीछे भागे, वह चोर बहुत तेजी से उनकी स्कूटर घसीटता हुआ जा रहा था और अचानक वह एक कबाड़ी की दुकान के सामने स्कूटर पटककर उसे 'दो' उंगली दिखाकर वहाँ से भाग गया।
 रहमत अली हाँफते-हाँफते अपने स्कूटर के पास पहुँचे और उसे उठाने लगे तो एक भारी-भरकम हाथ ने उनका हाथ पकड़ लिया।
 "अमाँ क्या करते हो? इस गाड़ी को हाथ केसे लगा रहे हो?" रहमत अली के कानों में एक भारी आवाज पड़ी तो उन्होंने गर्दन उठाकर ऊपर देखा, उनके सामने एक तगड़ा आदमी खड़ा था जिसने कुर्ता और तहमद पहना हुआ था।
 "ये गाड़ी हमारी है जनाब, वह आदमी हमारी गाड़ी दुकान के सामने से घसीटकर यहाँ फेंक गया है तो बस हम अपनी गाड़ी ले रहे हैं। देखिये इसकी चाबी हमारे पास है और कागजात भी।" रहमत मियाँ उस आदमी की डील-डौल देखकर थोड़े नम्र स्वर में बोले।
 "अमाँ रही होगी गाड़ी आपकी लेकिन अब ये हमारी है, वह आदमी इसे पूरे दो हजार में हमें बेचकर गया है।" वह आदमी फिर उसी कड़क आवाज में बोला और रहमत अली का हाथ झटक दिया।
 रहमत अली को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें, वह माथे पर बल डाले कुछ सोच रहे थे।
 "देखो मियाँ! ये चोर बाजार है और यहाँ धंधा ऐसे ही चलता है। अगर तुम पुलिस के पास जाने की सोच रहे हो तो बस अपना टेम खराब करोगे क्योंकि पहले तो पुलिस यहाँ आती नहीं है और अगर आयी भी तो जब तक पुलिस यहाँ आयेगी ये गाड़ी खत्म हो चुकी होगी और पुलिस को इसका एक पुर्जा तक नहीं मिलेगा। अच्छा ये रहेगा कि आप तीन हजार रुपये दो और ये गाड़ी हमसे खरीद लो।" वह आदमी इस बार थोड़ा नर्म आवाज में बोला।
 "लेकिन मैं भला अपनी ही गाड़ी क्यों खरीदूँ और वह भी तीन हजार रुपयों में यह गाड़ी ढाई हजार से ज्यादा में कोई भी नहीं लेगा, बहुत पुरानी गाड़ी है ये तो।" रहमत अली झुंझलाते हुए बोले।
 "आपकी मर्जी मियाँ, मत लो लेकिन अब यहाँ से जाओ और धंधे के टाइम मेरा दिमाग खराब मत करो।" वह आदमी फिर झिड़की देते हुए बोला।
 रहमत अली देख रहे थे कि धीरे-धीरे चोर बाजार के बाकी कबाड़ी भी इनके चारों ओर इकठे हो गए थे और रहमत अली को घूर रहे थे। रहमत अली समझ गए थे कि ये अंधेर नगरी है और यहाँ उनकी कोई भी नहीं सुनेगा।
 रहमत अली धीमे से मुस्कुराए और बोले, "अच्छा मियाँ पच्चीस सौ ले लो, हमारा तो बड़ा नुकसान ही गया आज अपनी ही गाड़ी दोबारा खरीदनी पड़ रही है।
 "चलो सत्ताईस सौ निकालो।" वह आदमी जैसे फाइनल दाम बोला और दुकाब के अंदर जाने लगा।
 "ठीक है मियाँ सत्ताईस ही ले लो, अब तो मैं अपनी गाड़ी ले लूँ?" रहमत अली जैसे हथियार डालते हुए बोले।
 "ठीक है ले लो और सत्ताईस सौ रुपये ढीले करो।" वह आदमी हाथ फैलाते हुए बोला।
 "अभी देता हूँ।" कहकर रहमत अली ने स्कूटर सीधा करके खड़ा किया और उसकी डिक्की खोल कर उसमें से सौ के नोट की दो गड्डी निकाली, अपने पैसे सही सलामत देखकर रहमत अली के चेहरे पर मुस्कान थी उन्होंने एक गड्डी में से पैसे गिने और कबाड़ी के हाथ पर रखकर स्कूटर स्टार्ट कर ली।
 कबाड़ी और दूर खड़े चोर के चेहरे देखने लायक थे।

   नृपेंद्र शर्मा
 ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

Friday, February 21, 2025

वो साया



1.वो साया


साल 2010 स्थान देहरादून के पास कहीं,

पूनम  अपनी देवरानी के साथ कुछ फोटो बनबाने के लिए आई थी, कुछ पासपोर्ट फोटो उन्हें बैंक एकाउंट के लिए चाहिए थे और कुछ वे ऐसे ही यादगार के लिए चाहती थीं।
पूनम, जैसा नाम वैसा ही रूप, सिंदूरी दूध सा गोरा रंग, पतले खूबसूरत गुलाबी होंठ, सुंतबा नाक और गहरी काली पनीली आंखे उस दिन गुलाबी साड़ी में वह बिल्कुल अप्सरा ही लग रही थी हर युवा दिल उसे देखकर तेज़ी से धड़कने लगा था।
ऐसे तो पूनम पैंतीस की उम्र पार कर चुकी थी उनके दो बच्चे भी हैं, लेकिन उनका छरहरा जिस्म ओर प्राकृतिक सुंदरता उनकी उम्र को कभी पच्चीस पार ही नहीं करने देती।
अभी पूनम और उनकी देवरानी रास्ते में ही थीं कि अचानक तेज हवा के साथ जोर की बारिश शुरू हो गयी, ये दोनों भीगने से बचने की कोशिश में दौड़ते हुए एक बाग में आकर खड़ी हो गईं लेकिन इस भाग दौड़ में दोनों पूरी तरह भीग चुकी थीं।
पूनम की गुलाबी साड़ी भीगकर उसके गोरे बदन से कस कर लिपट गयी थी, अब उसकी जवानी के सारे चिन्ह स्प्ष्ट उभर आये थे, वह जितना अपनी साड़ी की सही करने की कोशिश कर रही थी वह उतना ही और कसती जा रही थी।
ये दोनो बारिश से बचकर एक पेड़ के नीचे खड़ी अपने गीले बालों को झटक रही थीं।
पूनम के लंबे काले बाल उसके चाँद जैसे मुखड़े को बादल बनकर खुद में समेट लेना चाहते थे जिन्हें वह बड़ी अदा से झटक कर अपने चेहरे से अलग कर देती थी।
अपनी इस वेख्याली में की गई लुभाविनी अदाएं करते वक्त वह ये नहीं देख पाई की बाग में कुछ दूर एक मज़ार के पास खड़ा धुएं जैसा 'साया' उसकी हर अदा को बड़े गौर से देख रहा था।

पूनम बचपन से ही बहुत सुंदर थी, और सोलह सत्रह तक आते-आते तो उसकी सुंदरता कई हीरोइनों को मात देने लगी थी।

उसका पूनम के पूर्ण चाँद से भी गोरा मुख किसी को भी अपनी तरफ आकर्षित कर लेता था।

जो उसे एक बार देख लेता उसका जहन कई दिनों तक पूनम के पास गिरवी हो जाता।

स्कूल और कॉलेज में हमेशा पूनम की सुंदरता चर्चा के शिखर पर रही हर युवा दिल पूनम के नाम से आहे भरता रहा।
इक्कीस की उम्र तक आते आते पूनम की शादी देहरादून के पास कहीं पहाड़ी इलाके में हो गयी।
पूनम के पति ऐसी सुंदर पत्नी पाकर बहुत खुश थे वे पूनम को खुश करने का कोई मौका नही चूकते थे, इधर पूनम भी पहाड़ी गाँव की आवोहवा में रहकर ओर ज्यादा निखर गयी थी।
दो बच्चे होने पर भी उसके बदन की कसावट में कोई फर्क नहीं पड़ा था बल्कि वह दिनों दिन ओर निखरती जाती थी।

जबसे पूनम भीगकर बापस आयी उसे कुछ अजीब लग रहा था, उसके पति और सास को लगा कि भीगने से तबियत खराब हुई होगी तो उन्होंने पास के ही एक डॉक्टर से उसे दवाई दिला दी जिसे खाकर पूनम को नींद आ गई किन्तु नींद में या कहो उनींदी में उसे लगा कोई साया सफेद घोड़े पर बैठा उसे अपनी ओर बुला रहा है।
इस साये की उमर इकीस बाइस के जैसे लग रही थी, बहुत सुंदर गठीला नौजवान मुस्कुरा कर हाथ बढ़ाये पूनम को पुकार रहा था, ओर पूनम ना जाने क्यों खुद पर काबू न रख कर उसके आकर्षक में उसकी ओर खींची चली जा रही थी।

अगले दो तीन दिन पूनम बिस्तर पर लेटी रही उसका बदन निस्तेज, शक्तिहीन बना रहा उसे हर वक्त वो साया अपने आसपास महसूस हो रहा था।
एक खूबसूरत नौजवान अब पूनम को स्पस्ट दिखने लगा था, वह उसे देखकर प्यार से मुस्कुराता उसकी आंखों में देखता रहता, कभी वह सफेद घोड़े पर बैठकर आता पगड़ी पहने दूल्हा जैसे सजा हुआ।
वह बार बार पूनम को अपने साथ चलने का इशारा करता और पूनम अपना सर झटक कर खुद को उसके ख्याल से मुक्त करने का प्रयास करती, हां केवल प्रयास ही क्योंकि पूनम जिधर भी मुंह करती, उसकी आंखें जिस दिशा में भी देखती उसे वही साया मुस्कुराता नज़र आता।
पूनम अपने हाथ पांव हिला नही पाती थी ना ही उसके मुंह से शब्द निकलते थे, वह बहुत चाहती कि चीखकर सबको उसकी उपस्थिति बताए लेकिन उसे लगता कि किसी माया ने उसके सारे अंगों को जकड़ कर जड़ कर दिया गया है।
कभी उसे लगता कि ये सब बस एक सपना है, .. लेकिन इतना लंबा सपना।

पूनम के परिजनों ने कई डॉक्टर बुलाये जो आते, उसकी जांच करते और कहते "इन्हें कोई बीमारी नही है बस थोड़ी कमज़ोरी है", और एकाध ताकत का इंजेक्शन लगाकर कुछ दवाइया दे जाते।

किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है।
तीसरे दिन पूनम उठी, उसने थोड़ा सा खाना भी खाया उसके बाद उसने सभी परिवार को अपने आसपास किसी अनजान साये के होने की बात बताई ,लेकिन किसी ने भी उसकी बात पर विस्वास नहीं किया उसके पति और सास ने कहा कि बीमारी और कमजोरी की वजह से उसे वहम हो गया है।

उसी रात में आधी रात को जब पुनम की आंख खुली तो उसने देखा, वह साया उसके पति की छाती पर बैठा पूनम को बड़े मनुहार से देख रहा है उसकी उंगलियां पूनम के बालों से खेल रही हैं।
पूनम बहुत घबरा गई, उसने डरते डरते मरी आवाज में पूछा,"कौन हो तुम? ओर ऐसे मेरे पीछे क्यों पड़े हो??"

"सय्यद" उसने मुस्कुराकर कहा, याद है उसदिन बाग में बारिश से भीगी हुई तुम अपने बाल खोलकर उन्हें झटक रही थी।
वहीं पास ही मेरी मज़ार है, मैं वहीं बैठा हुआ था तुम्हारी खूबसूरती देख कर मुझसे रहा नही गया मुझे तुमसे मोहब्बत हो गयी और मैं तुम्हारे खुले बालों की खुश्बू में बंध कर तुम्हारे साथ आ गया।
तुम्हारी खूबसूरती का दीवाना हो गया हूँ मैं, अब तुम्हे अपना बनाना चाहता हूं, बस अपना", उसने कुटिलता से मुस्कुराकर कहा।
"नहीं" पुनम ने चिल्लाने की कोशिश की लेकिन उसकी आवाज उसके गले से ऐसे निकल रही थी जैसे वह किसी गहरे कुएं में कैद हो।
पूनम छटपटा रही थी उसकी आँखों से आंसू छलक रहे थे।

पूनम ने अपनी पूरी शक्ति समेट कर अपना एक हाथ उठा कर उसे अपने पति की छाती से परे धकेला, उसकी इस हरकत से जैसे वहाँ कोई जलजला आ गया, पूनम का पलंग बहुत तेज़ी से ऊपर उठ कर गोल घूमने लगा।

अब वह साया उसके पति की छाती पर पैर रखे खड़ा था उसकी आंखें गुस्से से लाल हो रही थी अचानक उसके चेहरे से मांस धुआं बनकर उड़ने लगा और दिखने लगा हड्डियों का भयानक ढांचा।
पूनम भय से मरी जा रही थी तभी उसे एक आवाज सुनाई दी ऐसी तीखी भयानक आवाज जैसे हज़ारो भौंरे एक साथ बिल्कुल उसके कान के अंदर गुंजार रहे हों।
वह कह रहा था, "तुम्हे मेरी होने से अब कोई नही रोक सकता, अब या तो तुम मेरे साथ चलो, नहीं तो तुम्हारे पति को मारकर मैं यहीं तुम्हारे साथ रहूंगा तुम चुन लो तुम्हे क्या मंज़ूर है।", ये कहकर वह जोर से हँसने लगा जिससे उसके मांस रहित डरावने हड्डी के ढांचे में जमे दांत चमकने लगे।
पूनम अपनी चेतना खोकर निढाल हो गयी अब वह हिल भी नही रही थी लेकिन उसकी भययुक्त आंखे अभी भी उसे देख रही थीं।

अचनक वह साया फिर से सुंदर नोजवान बनकर पूनम के सिरहाने बैठ गया, उसकी उंगलियां पूनम के बालों से खेलने लगी, वह पूनम के सर, माथे और गालों को सहला रहा था, अचानक वह झुका और पूनम के होंठो पर अपनी जीभ फिराने लगा, वह उसके होंठ चूम रहा था, अनायास पूनम का मुंह न चाहते हुए भी खुल गया अब वह उसके होंठो को पूरे जोर से चूस रहा था, अचानक पूनम को लगा कि वह साया धुंए में बदल रहा है, ओर देखते ही देखते वह धुआं बनकर उसके मुंह के रास्ते पूनम के पेट में चला गया।
उसके बाद से पूनम के पेट में बहुत दर्द रहने लगा, उसे भूख भी बहुत लगती लेकिन इतना खाने के बाद भी उसकी सेहत दिन प्रतिदिन गिरती जा रही थी।
पूनम का चाँद सा चेहरा जैसे पूनम से अमावस्या में तब्दील होता जा रहा था, उसकी सुंदरता को जैसे कोई ग्रहण लग गया था।
पूनम की सुंदर आंखें गढ्ढो में धंस गयी थीं, आंखों के चारों ओर काले घेरे अपना डेरा जमा चुके थे, पूनम का उजला रंग स्याह पड़ता जा रहा था।
कमजोरी के चलते पूनम अब ज्यादा समय बिस्तर पर ही लेटी रहती थी।
पूनम को लगता था की 'वह साया' हर वक़्त उसके साथ है, वह पूरी तरह से सय्यद के वश में हो चुकी थी सय्यद जब चाहता था मनमानी करता , पूनम असहाय होकर बस सबकुछ सहती रहती।
वह जब किसी को कुछ बताती तो कोई उसकी बात पर विश्वास नहीं करता।
अब तो लोग उसे मानसिक विक्षिप्त तक कहने लगे थे।


पूनम को याद आता था वह दिन जब वह साया उसके होंठो को चूमते हुए उसके पेट मे चला गया था , उसने पूनम के अंगों को बुरी तरह कुचला था जैसे अपने रहने की जगह बना रहा हो, पूनम को असहनीय पीड़ा हुई थी उसे ऐसा लग रहा था जैसे प्रसव की पीड़ा होती है, उसके कमर की हड्डियां तक चरमरा गई थीं।
लेकिन पूनम न तो हाथ पांव हिला पाई और न ही किसी को कुछ बता पाई बस उसकी आँखों से आंसू छलकते रहे।

उसी रात पूनम जब सोई तो उसे लगा कि अचानक उसके सारे वस्त्र अपने आप हट गए हैं और वह साया मुस्कुराते हुए उसके सामने खड़ा मुस्कुरा रहा है।
यूँ तो पूनम को अपने कपड़े बदन पर ही दिख रहे थे किंतु उसे न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि वह निर्वस्त्र है।
अचनक सय्यद उसके पास बैठ कर उसके बालों में उंगलियां घुमाने लगा।
"अब तुम पूरी तरह से मेरी हो लेकिन जो एक कमी रह गई उसे मैं आज पूरी कर लूंगा, फिर चाहे कोई कितनी  भी कोशिश करे तुम मेरी होकर रहोगी, मैं तुम्हारी सुंदरता पर आशिक हूँ, तुम्हारा हुस्न मुझे दीवाना कर देता है आज इस हुस्न को मैं जी भर कर प्यार करूँगा ओर तू सदा-सदा के लिए मेरी हो जाएगी", सय्यद पूनम की आंखों में देखते हुए बोला।
पूनम ना में सर हिलाने लगी वह जैसे आंखों ही आंखों में उस से छोड़ देने को कह रही हो।
सय्यद मुस्कुराया और पूनम के माथे को चूम लिया, उसने बड़े  प्यार से उसके आंसू पोंछे और पूनम के बदन को सहलाने लगा।
पूनम को उसका स्पर्श अपने सारे बदन पर हो रहा था उसकी उंगलियां उसके होंठ पूनम के जिस्म से खेल रहे थे। पूनम खुद को बहुत असहाय महसूस कर रही थी ।
पूनम को लग रहा था कि वह उसके अंग से खेल रहा है।

पूनम को अपने बदन पर उसकी उंगलियां मचलती महसूस हो रही थी।
पूनम उसे हटाना चाहती थी लेकिन वह कुछ नही कर पा रही थी, वह ना चाहते हुए भी बिना मर्जी उसके इस काम में साथ थी, सय्यद घण्टों पूनम के साथ जिस्मानी होता रहा और पूनम उसे ना चाहते हुए भी बर्दाश्त करती रही पूनम का 'जिस्म' फोड़े की तरह दुख रहा था अब वह बेहोश सी होने लगी थी।
पूनम को याद नही की सय्यद कब तक उसके जिस्म से खेलता रहा लेकिन उसके दर्द और निजी अंगों का गीलापन इस बात के गवाही दे रहे थे कि सय्यद ने पूनम से कई बार जिस्मानी सम्बन्ध बनाये थे, और रात के तीसरे पहर के खत्म होते ही वह उसके मुंह के रास्ते उसके पेट में चला गया था।

अब तो ये जैसे रोज का काम हो गया था दिन भर वह उसके पेट में रहता और रात होते ही बाहर आकर पूनम के जिस्म से खेलता उसकी बिना मर्जी उसके साथ सम्बन्ध बनाता।
ऐसे ही छः सात महीने बीत गए पूनम की हालत एकदम मरणासन्न ही गई, सभी को लगने लगा की पूनम को कोई मानसिक बीमारी हो गयी है, तभी वह अजीब बातें करती है और हर समय अजीब सी आंखे चढ़ाये रहती है।

अब पूनम अपने पति को अपने पास नही आने देती थी, वह उनको कुछ भी फेंक कर मार देती थी, वह कई बार उनपर हिंसक हो चुकी थी।
तभी लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि पूनम पागल हो गयी है।
लेकिन केवल पूनम ओर वह साया जानते थे कि ये सब कौन कर रहा है।
पूनम असहाय थी, बेवस थी ऊपर से कोई भी उसकी बातों पर यकीन नहीं करता था।

एक दिन पूनम की जेठानी की लड़की राधिका उसको देखने आयी, राधिका सोलह साल की समझदार लड़की थी, पूनम ने उसे सारी बात बताई, राधिका को पूनम के हालात और उसकी बातों पर यकीन आ रहा था।
राधिका अपने कुल देवता की पूजा करती थी, कुल देवता का राधा पर विशेष आशीर्वाद था उसमें थोड़ी अलौकिक शक्ति भी थी।
रात को राधा पूनम के साथ ही सो गई, राधिका की उपस्थिति से सय्यद पूनम से दूर हो गया वह राधिका की ऊर्जा का मुकाबला नही कर पा रहा था ।

सय्यद आंखे चढ़ाये गुस्से से पूनम को देख रहा था, वह बार बार पूनम से राधिका को अपने पास से हटाने को बोल रहा था ,वह बहुत परेशान था बहुत गुस्से में था आज इतने दिन में पहली बार इसे पूनम का जिस्म भोगने को नहीं मिल रहा था ।

सय्यद दूर से अपने चेहरे को विकृत करके पूनम को डराने की कोशिश कर रहा था लेकिन वह इसके पास नही जा पा रहा था।

अगले पंद्रह दिन राधिका पूनम के साथ ही रही और इन पंद्रह दिनों में सय्यद एक बार भी पूनम के पास नहीं आ पाया था वह बस दूर से उसे  डराने की कोशिश करता था ।

पूनम की हालत में थोड़ा सुधार आने लगा था , अब वह थोड़ा चलने फिरने भी लगी लगी थी और सेहत भी सुधर रही थी।
सब सही होने लगा था कि अचानक उस दिन राधिका की स्कूटी ट्रक से टकरा गई और उसकी दोनों टांगो में फ्रेक्चर हो गया जिससे उसके पैरों का ऑपरेशन करना पड़ा और राधिका को अस्पताल में रहना पड़ा।

उस रात सय्यद ने पूनम को बहुत प्रताड़ित किया , वह क्रूर हँसी हंसते हुए बोला," जो भी हमारे बीच अएगा उसका यही हाल होगा।
फिर वह पूनम के जिस्म को नोचने लगा आज सय्यद प्यार से नही बल्कि गुस्से और वासना से पूनम का बलात्कार कर रहा था वह उसे यातनाएं दे रहा था।

सुबह होते होते पूनम बिल्कुल बेहोश होकर पड़ गई उसका जिस्म सफेद पड़ गया था जैसे किसी ने उसका सारा खून निचोड़ कर पी लिया हो।
अब पूनम को भी अस्पताल में भर्ती करना पड़ा जहाँ राधिका भर्ती थी।
अस्पताल में पूनम और राधिका को इनके परिवार ने मिन्नत करके एक ही कमरे में शिफ्ट करवा दिया, जिससे दोनों की एक साथ देखभाल में उन्हें आसानी रहे।
उस रात फिर से सय्यद पूनम को छू नहीं पाया हालांकि वह एकदम उसके नज़दीक खड़ा था क्यूंकि राधिका की ऊर्जा उसके बीमार होने से कुछ कमज़ोर हो गयी थी अतः वह कमरे में तो आ गया लेकिन वह पूनम को छू नहीं पा रहा था।
सय्यद फिर से चिढ़ गया, वह अजीब सी डरावनी गुर्राहट निकालने लगा  जैसे बहुत सारे भेड़िये एक साथ गुर्रा रहे हों जिनके हाथ से शिकार निकल गया हो।

सय्यद को पूनम के जिस्म की आदत हो गयी थी, वह इसके बिना बहुत वेचैन था सय्यद लगभग बाबला होकर पूनम को डरा रहा था।
पूनम खुली आँखों से उसे देख रही थी सय्यद का चेहरा देखते ही देखते बहुत बड़ा और विकृत होने लगा उसके दांत लंबे होकर मुंह से बाहर दिखने लगे।
वह पूनम से कह रहा था, "चल यहां से नहीं तो अभी तुझे मार दूंगा ओर साथ ही तेरी इस रक्षक को भी, ये बड़ी भगतनी बनी है ना, मैं चाहूँ तो अभी इसका खून पी जाऊंगा लेकिन मैं फालतू लोगों पर अपनी ताकत बर्बाद भी करना चाहता।
तू चुपचाप चल मेरे साथ", और बोलते समय उसकी आवाज ऐसी गुर्राहट के साथ निकल रही थी जैसे कोई भेड़िया किसी आदमी की आवाज में बोल रहा हो।

पूनम चुपचाप मुंह बंद किये लेटी रही, पूनम को ये बात समझ आ गयी थी कि राधिका के आस-पास सय्यद उसका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा।
किन्तु बाद में!!?
पूनम जानती थी कि दो चार दिन में उसे अस्पताल से छुट्टी मिल ही जाएगी...उसके बाद..!
पूनम उसकी वहशत को याद करके सिहर उठी की कैसे इसने पूनम के जिस्म को अंदर ओर बाहर पूरा रौंद डाला था पिछली रात, वह जानती थी कि अब इसका गुस्सा फिर से पूनम पर बरसेगा।
किन्तु वह बेबस थी क्योंकि उसे पता था कि घर में कोई भी पूनम की बात नहीं समझता उनमें से कोई ये मानने को तैयार नहीं कि ये किसी ऊपरी साये का काम है।
उन्हें तो बस यही लगता था कि पूनम पर पागलपन के दौरे पड़ते हैं।

इधर सय्यद दो तीन दिन फिर पूनम से दूर रहा तो दवाइयां अपना काम करने लगीं और पूनम ठीक होने लगी।

चौथे दिन डाक्टर ने कहा कि अब पूनम पहले से वेहतर है तो आप इन्हें घर ले जा सकते हैं और कुछ दवाइयां खाने के लिए दे दीं।
पूनम अस्पताल से या कहो राधिका के पास से जाना नही चाहती थी लेकिन वह कुछ बोल नहीं पाई।

घर आने के बाद पूनम सामान्य थी उसका पूरा दिन आराम से बीत गया।
रात को वह अपने पति के साथ सोई।
कोई आधी रात को पूनम को लगा कि उसके कपड़े अपने आप उतर रहे हैं वह निर्वस्त्र होती जा रही है।
पूनम ने आंख खोल कर देख तो उसके पति पलंग से नीचे पड़े थे और सय्यद उनके सीने पर पैर रखे खड़ा था।
सय्यद ने बहुत सुंदर चमकीले कपड़े पहने थे और सर पर पगड़ी पहनी हुई थी।
वह हाथ बढ़ाकर पूनम से कह रहा था," ऐ हुस्न की तस्वीर, तू क्यों मुझे तड़फाती है, आ मेरे साथ चल मेरी दुनिया में मैं तेरे साथ  निकाह करके तुझे अपनी दुनिया में ले चलता हूँ हमेशा के लिए।
पूनम ने गुस्से से उसे घूर कर देखा और इनकार में सर हिलाकर मुंह फेर लिया।

पूनम की इस हरकत से जैसे वह फिर गुस्से से पागल हो उठा उसने अपना पांव पूनम के पति के गले पर रख दिया और अपना आकर बढ़ाने लगा। धीरे-धीरे वह बहुत विशाल होने लगा था, पूनम के पति के गले से गूँ गूँ की आवाजें आ रही थीं,  उनकी आंखे बाहर उबलने लगी, ये देखकर पूनम ने उसके आगे हाथ जोड़ दिए ये पूनम का उसे मनमानी करने के लिए बेमन से किया 'हाँ' का इशारा था।

सय्यद फ़ौरन उसके पास आकर बैठ गया और पूनम के बदन से खेलने लगा, वह फिर पूनम से बड़ी बेरहमी से पेश आ रहा था पूनम उसके इस वहशियत से बहुत दर्द महसूस कर रही थी।
"चलो मेरे साथ तुम्हारे सारे दर्द दूर हो जाएंगे और तुम मेरी मल्लिका बनकर रहोगी", वह पूनम के कान में बोला।

"मार डालो मुझे अब दर्द बर्दास्त नहीं होता, तुम कहते हो कि तुम मुझसे इश्क़ करते हो और दर्द ऐसे देते हो कि कोई दुश्मन भी किसी को ना दे, हाँ तुम मार डालो मुझे", पूनम बहुत हिम्मत करके उससे गुस्से में बोली।

"नहीं, ऐसे नहीं तुम मुझे कुबूल करलो फिर मैं तुम्हे अपने साथ ले चलूंगा, लेकिन ऐसे नही जब तुम्हें मुझसे मोहब्बत हो जाएगी तब" सय्यद मुस्कुरा कर बोला और अगले ही पल किसी हिंसक जानवर की तरह उसे नोचने लगा।

पूनम को लग रहा था कि उसके नाजुक अंग में कुछ असहनीय पीड़ा हो रही है, उसने बड़ी मुश्किल से सर उठा कर देखा और उसकी सांस ही अटक गई।
सय्यद पूनम के अंग से उसके अंदर प्रवेश कर रहा था और देखते ही देखते सय्यद पूनम के शरीर में समा गया।

इसके बाद फिर शुरू हो गया सिलसिला।

 सय्यद अब फिर रोज रात भर पूनम के साथ मनमानी करता और सुबह होने से पहले कभी मुंह से तो कभी किसी दूसरे अंग से उसके अंदर प्रवेश कर जाता।
अब वह पूनम से प्यार से पेश आने लगा था, वह इससे बहुत प्यार भरी बातें करता और रात भर पूनम के शरीर को भोगता।

धीरे-धीरे पूनम को भी इसकी आदत होने लगी, वह ना चहते हुए भी सय्यद को पसंद करने लगी थी।
पूनम को सय्यद का प्यार से पेश आना प्यार की बाते करना और भरपूर प्यार करना न जाने कैसे लेकिन अच्छा लगने लगा था।

अब पूनम सामान्य रहने लगी लेकिन उसके बदन से पूरा खून जैसे सूख सा गया था अब वह केवल हड्डियों का ढांचा मात्र रह गयी थी।
उसका दूधिया गोरा रंग काला पड़ गया था,  उसकी आंखें गहरे गड्ढे में धंस गयीं थी।

एक दिन पूनम अपनी देवरानी के साथ दवाई लेने जा रही थी तभी उन्हें उनकी कोई परिचित महिला रास्ते में मिल गयी।
वे पूनम को देखते ही चौंक पड़ीं और बोलीं, "अरे ये पूनम के चाँद को ग्रहण कैसे लग गया क्या हो गया तुम्हे पूनम?"

"जी मुझे लगता है मेरे ऊपर कोई ऊपरी साया है, लेकिन हमारे ये ओर परिवार वाले मानते ही  नहीं बस डॉक्टर से दवाई लेने जा रही हूं", पूनम ने उन्हें धीरे से कहा।

तभी वह महिला पूनम की देवरानी को अलग ले जाकर बोली, "मुझे भी लगता है कि पूनम किसी ऊपरी साये की चपेट में है, देखो तीन दिन बाद पड़ोस के गांव में जागर है तुम लोग पूनम को वहां लेकर आ जाओ, जागर में देवता सब बात बता देंगे कि क्या हुआ है।
ओर हाँ पूनम से कुछ मत कहना नही यो वह साया तुम्हे उधर जाने से रोकने के लिए कुछ अनहोनी  भी कर सकता है।"
"ठीक है, हम आ जाएंगे", पूनम की दोरानी ने कहा और मुस्कुराते हुए चली गयी।

तीन दिन बाद जागर में पूनम की देवरानी, उसकी जेठानी, उसकी सास और उसके पति पूनम के साथ आये।

जागर में जब 'नरसिंह देवता' अपने पुजारी पर आए तो उन्होंने पूनम की तरफ इशारा करके जोर से कहा,  "बचालो इसे, वह शैतान जिन्न इसे अंदर ओर बाहर दोनों तरफ से खत्म कर रहा है, अब बस पंद्रह दिन बचे हैं इसके पास दूर करदो उस शैतान को इस से, वह बहुत दुष्ट आत्मा है।
वह इसे अपने साथ अपनी दुनिया में ले जायेगा, उसने तुम्हारे  घर की लड़की का भी एक्सीडेंट कर दिया था क्योंकि वह इसके रास्ते में रुकावट बन रही थी।"

जागर में कई मठों के पुजारी भी थे, उनमें से एक पुजारी ने इन्हें इशारा किया कि वह इनकी मदद करेगा।

पुजारी ने अगले ही दिन इनके घर आकर पूजा की इनके घर को गोमूत्र एवं गङ्गा जल से शुद्ध किया, फिर उन्होंने पूजा करके एक नारियल और कुछ दूसरा समान एक लाल कपड़े में बांध कर पूनम के पलंग में सिरहाने दायीं तरफ बांध दिया। उन्होंने इनके घर के चारों तरफ भी सुरक्षा घेरा बना दिया।

रात को फिर सय्यद ने पूनम को धमकाना शुरू किया वह बार-बार उसे वह पोटली फेंकने को बोल रहा था, वह तरह-तरह के भेष बनाकर अजीब सी डरावनी शक्ल करके पूनम को डरा रहा था किंतु पूनम को छू भी नही पा रहा था।
अब पूनम समझ गयी थी कि पूजन सामग्री सय्यद को उसके पास आने से रोक रही है।

अगले दिन पूनम कुछ सामान्य थी उसने पण्डित जी को रात की घटना बताई।
पण्डित जी ने पूनम के पलंग के सुरक्षा कवच बनाने के साथ ही पूनम को भी कई ताबीज बनाकर दिए।

कुछ दिन तो सय्यद नियमित आता और पूनम को धमकाता किन्तु पूजा एवं रक्षा कवच (ताबीज) की शक्ति के आगे बेबस होकर धीरे-धीरे उसने आना बंद कर दिया।
पूनम आज भी सय्यद को याद करके सिहर जाती हैं।
यह उनके जीवन का एक काला अध्याय है जो पूरे दो साल तक चला।


2 . पान का बीड़ा



1995राजस्थान कोटा,

सन्तोष बाइस-चौबीस साल का मजबूत जवान लड़का एक ट्रक पर ड्राइवर था।
उसका समान लाद कर कभी जयपुर तो कभी मंदसौर(मध्यप्रदेश) आना जाना होता रहता था।
उसके साथ एक लड़का रवि खलासी का काम करता था, उस दिन भी इन्होंने कोटा से मन्दसौर का कोई समान ट्रक में भरा और निकल पड़े सुबह-सुबह।
सन्तोष को पान खाने का बहुत शौक है तो उसने रास्ते से एक पान मुँह में डाल लिया  और एक जोड़ा बंधवाकर अपनी जेब में रख लिया, सुबह का सुहाना मौसम ओर खाली सड़क सन्तोष मस्ती में गुनगुनाता सरपट गाड़ी दौड़ा रहा था, अभी ये लोग एक घने निर्जन जंगल से गुजर रहे थे कि अचानक 'भम्म' की तेज़ आवाज के साथ गाड़ी का एक (पिछला)टायर फट गया ।
सन्तोष ने गाड़ी साइड लगाई और लगा देखने, "ओ साला अंदर का टायर है यार, औए रवि चल जैक निकाल टायर फट गया यार, बदलना पड़ेगा चल जैक लगा मैं स्टेपनि उतरता हूँ", उसने खलासी से कहा।
आधे घण्टे अथक मेहनत के बाद पसीना बहाते हुए पहिया बदल कर ये लोग अपने साफर पर निकल पड़े सब कुछ सामान्य था।
कुछ आगे जाने पर सन्तोष की पान खाने की इच्छा हुई किन्तु ये क्या पान तो जेब से नदारद था।
"औए रवि मेने पान लियो थो ना, मिल काएँ नीं रयो", उसने खलासी से कहा।

"उस्ताद जी बठे पहियों बदलो थो अपन ने, बठे गिर गयो होगो", खलासी ने याद करके बताया।
"हाँ यार हो सकता है", संतोष ने गाड़ी की रफ्तार बढ़ाते हुए कहा।

 दोनो अपना काम खत्म करके शाम तक घर आ गये सब सामान्य ही था।

रात को सन्तोष अकेला छत पर सोता था, उस दिन भी खा पीकर सोया था। रात का कोई बारह एक बजा होगा , सन्तोष को लगा कि कोई उसकी चादर खेंच रहा है, अभी ये कुछ समझ भी नही पाया था तभी एक सुरीली आवाज आई, "उठो सा एक पान नही खिलाओगे? मीठा पान।"
सन्तोष ने एक झटके से आंखें खोल दी एक बहुत सुंदर लड़की उसकी खटिया पर पैरों की ओर बैठी मुस्कुरा रही थी।

सन्तोष के तो तिरपन कांप गए उसे देख कर,
"क.क.क..क!!को!! कौन!! हो थम??", उसका हलक सुख गया जबान तालु से चिपक कर रह गई।

और वह अनजाने भय से बदहवास हो कर चीखने की कोशिश करने लगा किन्तु उसकी चीखें उसके गले में ही घुटकर रह गयी और सन्तोष बेहोश हो गया।
सुबह उठकर उसे लगा कि रात को उसने एक डरावना सपना देखा होगा और वह अपने सामान्य दिनचर्या में लग गया किन्तु उसे लगा कि आज उसकी तबियत कुछ खराब है, शायद बुखार हो रहा है।
किन्तु सन्तोष अपने काम में लगा रहा।  अगले दिन संतोष गाड़ी लेकर फिर उसी रास्ते पर जा रहा था, कि उसकी पान खाने की इच्छा हुई उसने जेब से पान निकल कर उसका कागज उतारा ही था कि एक आवाज सुनी, "अकेले खाओगे सा? मन्ने ना दोगे?", और एक मधुर हंसी 

 
उसने पलट कर देखा वही रात वाली लड़की उसके साथ हाथ पसारे बैठी थी। सन्तोष डर कर सिहर गया और हड़बड़ाहट में पान उसके हाथ से नीचे गिर गया,  वह ये नहीं देख पाया कि यह वही जगह थी जहां इन्होंने टायर बदला था।

सन्तोष को फिर लगा कि ये उसके मन का वहम होगा और वह इस घटना को भी भूल गया।

उस रात सब सामान्य रहा और सुबह से उसे अपनी तबियत में भी कुछ सुधार लगा।
अगले दिन सन्तोष का चक्कर जोधपुर का था और कोई अप्रत्याशित घटना नहीं हुई।
रात को फिर से सन्तोष छत पर सोया था। समय यही कोई बारह एक का था उसकी चादर फिर सरक गयी, उसने आंख खोल कर देखा तो वही लड़की उसके सामने खड़ी मुस्कुरा रही थी,
"आज पान खिलाने नहीं आये सा", उसने मिनमिनाते हुए कहा और  अपना हाथ इसके सामने फैला दिया।

सन्तोष ने उठकर भागना चाहा किन्तु उसे लगा की किसी ने उसे चारपाई पर चिपका दिया है। उसने चीखना चाहा किन्तु उसकी आवाज बस गूँ गूँ बनकर रह गई, सामने खड़ी लड़की उसकी हालत पर जोर से हंस रही थी और सन्तोष की चेतना उसे छोड़कर जा चुकी थी।
सन्तोष सुबह देर तक नहीं उठा तो उसकी माँ उसे उठाने आ गई किन्तु ये क्या, सन्तोष तो खटिया से नीचे पड़ा था और कांप रहा था।
उसे ऐसे देख कर उसकी माँ की चीख निकल गई ।
उसके परिजन सन्तोष को नीचे आंगन में ले आये, संतोष का पूरा बदन बुखार की आग में जल रहा था और ये जोर से कराह रहा था, आसपास के लोग भी इकट्ठा हो गए, डॉक्टर-वैद्य भी बुलाये गए किन्तु किसी को कुछ समझ में नही आया। तभी किसी ने सुझाया,"ऊपर का चक्कर लगता है भैरों मठ के बाबा जी को बुला लो।"
और एक आदमी दौड़ा भैरो गढ़ी, 'भैरो नाथ बाबा जी' ने आते ही कहा, "हट जाओ सब यहां से।" और वे कुछ मन्त्र पढ़कर फूंकने लगे, शांत हो जाओ ये कोई खतरनाक चुड़ैल नहीं है, बस एक अतृप्त भटकती आत्मा है। और उन्होंने आसन लगा कर कोई पूजा शुरू कर दी, कुछ ही देर में सन्तोष स्थिर होकर बैठ गया और अनजानी मुस्कान बिखेरने लगा,
"कोन है तू और क्या चाहती है?" बाबा भैरोनाथ ने कड़क कर पूछा।
"कुछ नहीं ,कुछ भी नहीं, मैं किसी को सताने नहीं आई। मुझे इन्होंने उस दिन पान खिलाया था, बस उसी के मीठे स्वाद के लालच में यहां आ गई,  एक दिन और इन्होंने पान खिलाया उसके बाद मुझे भूल गए", उसके मुंह से पतली आवाज निखली और सन्तोष लड़की की तरह हँसने लगा।
"कौन है तू??" बाबा जी ने फिर पूछा।

 "मैं अमुक गांव की लड़की हूँ, अपने पति के साथ मोटरसाइकिल पर ससुराल जा रही थी। रास्ते में हमने मुंह में मीठा पान डाला था, हम लोग अपनी मंजिल पर जा रहे थे कि एक ट्रक ने हमें कुचल दिया। बस तभी से मैं उस स्थान पर भटक रही हूँ।
उस दिन इन्होंने पान खिलाया तो मुझे बहुत अच्छा लगा और मैं इनके साथ आ गई", सँतोष लड़की की आवाज़ में बोला।
"ऐसे किसी को परेशान करना ठीक है क्या?", बाबाजी कड़क कर बोले और धूने में लोबान डाल दिया जिस से उस आत्मा को कष्ट होने लगा।
"मुझे छोड़ दो, मुझे जाने दो, मैं किसी को नहीं सताती", सन्तोष के मुँह से पतली आवाज में निकला और वह सुबकने लगा।
"अच्छा बोल तुझे क्या चाहिए और हाँ उसके बाद कभी परेशान किया तो समझ ले जला दूँगा तुझे", भैरोनाथ जी ने पूछा।
"बस पान, नए कपड़े और श्रंगार", उसने मिनमिनाते हुए कहा।
"ठीक है तेरे स्थान पर दे देंगे अब यहां मत आया करना कभी, चल नाक रगड़ और वचन दे", बाबा जी ने कहा।


 सन्तोष ने नाक रगड़ी और ह

हाथ उठाकर कहा, " दिया वचन, नहीं आऊँगी कभी।" और सन्तोष सामान्य होने लगा।
सन्तोष की माँ ने दो जोड़े लहंगा ओढ़नी, पूरे एक सौ एक मीठे पान और श्रंगार का सारा सामान, उस स्थान पर रखवाया जहां सन्तोष का पान गिरा था।
सन्तोष अब इस रास्ते से भूल कर भी नहीं गुजरता और जब भी उस लड़की को याद जरते है सिहर जाता है।


Saturday, November 23, 2024

प्यार

तुम जो कह दो तो मैं प्यार कर जाऊँगा।
ना करोगे जो तुम तो  मैं मर जाऊँगा।
तेरी आँखों की दरिया में डूबा हूँ मैं।
जो मिला लो नज़र तो मैं तर जाऊँगा।
तुम जो कह दो तो मैं प्यार कर जाऊँगा।।

दिल मिला लो तनिक मेरे दिल से जो तुम।
मुस्कुरा दो जरा सा मुझे देखकर।
थाह पा लूँगा मैं तेरे यौवन की भी।
प्यार में इतना गहरा उतर जाऊँगा।
तुम जो कह दो तो मैं प्यार कर जाऊँगा।।

धड़कनों से कभी कहना तुम प्यार हो।
मेरे जीवन का तुम ही तो बस सार हो।
तुम मिलो तो जिऊंगा मैं सारी उमर।
ना करोगी तो दो पल में मर जाऊँगा।
तुम जो कह दो तो मैं प्यार कर जाऊंगा।।

जिंदगी भर चलो साथ मेरे जो तुम।
तोड़ देंगे सभी रस्में दुनिया की हम।
साथ तेरा मिला तो मिलेगा वो बल।
प्यार की सारी हद पार कर जाऊँगा।
तुम जो कह दो तो मैं प्यार कर जाऊँगा।
ना करोगे तो मैं यार मर जाऊँगा।।

  नृपेन्द्र शर्मा "सागर"


Wednesday, March 13, 2024

मतलब की माँ

        मतलब की माँ



  “अजी सुनो ना, मैं क्या कहती हूँ क्यों ना हम माँजी को अपने साथ ही रख लें, ऐसे अकेले रहती हैं सारे गांव वाले ताने मारते हैं कि दो जवान बेटों के होते हुए भी बूढ़ी मां अकेले रहती है और खुद बनाकर खाती है।” रात को बड़ी मीठी आवाज में रुचि ने अपने पति सचिन से कहा।

  “लेकिन आज अचानक तुम्हें मां पर इतना प्यार कैसे आ गया? तुम तो सीधे मुँह कभी मां से बात भी नहीं करती हो? और फिर ऐसे अचानक मां भला हमारे साथ रहने की बात क्यों मानेगी? तुम भूल गयीं कैसे हमने लड़कर मां को अलग कर दिया था?” सचिन ने कुछ याद करते हुए धीरे से कहा।

 “मुझे याद है जी, ऐसे तो मां बेटों में कहा-सुनी हो ही जाती है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि मां बेटों के दिल जुदा हो जाते हैं? मुझे यकीन है अगर तुम मां से एक बार कहोगे तो वे मना नहीं करेंगी।” रुचि ने मधुर आवाज में कहा और सचिन के बालों में उंगलियां घुमाने लगी।

 “तुम खुद क्यों नहीं बात करती हो मां से? एक बार तुम कह कर देख लो शायद तुम्हारे कहने से मां मान जाए।” सचिन ने धीरे से कहा लेकिन इस समय उसका चेहरा बता रहा था कि वह किसी गहरी सोच में डूबा हुआ था।

 “मैं…? मैं कैसे बात करूँ? मुझे तो माँजी कभी अच्छी नज़र से नहीं देखती हैं, उन्हें जैसे ये लगता है कि मैं उनकी दुश्मन हूँ और शायद घर के झगड़े का कारण भी वे मुझे ही मानती हैं।” रुचि ने धीरे से कहा।

 “मां गलत भी तो नहीं सोचती रुचि, हमारी शादी से पहले सब कितना अच्छा चल रहा था, मां मैं और भैया भाभी सब एक साथ ही तो रहते थे, सभी मां का बनाया खाना खाते थे और अपना-अपना काम करते थे।” सचिन ने कहा।

 “अच्छा जी! तो आप भी यही कहना चाहते हो कि घर में झगड़े का कारण मैं हूँ? अरे तुम लोग तो हमारी शादी से बहुत पहले ही अलग हो गए थे। मुझे सब पता है कि कैसे पापा जी के मरने के बाद उनकी तेरहवीं के दिन ही, तुम दोनों भाई उनके इलाज पर हुए खर्च और कर्ज को लेकर लड़ने लगे थे। तुम दोनों भाइयों ने तो सारी जमीन के भी तभी तीन हिस्से कर ये थे, एक-एक आप भाइयों का और एक माँजी का।” सचिन की बात पर रुचि तुनककर बोली, उसकी आवाज में गुस्सा साफ झलक रहा था।

 “कुछ भी हो रुचि, लेकिन हमारे विवाह तक रहते तो हम साथ ही थे ना? वह तो तुम्हारे आने के बाद भाभी और तुम्हारा रोज झगड़ा शुरू हो गया और तुम दोनों देवरानी-जिठानी लड़ने के बाद रोज मां को गाली देने लगीं, तब माँ ने अपना चूल्हा अलग कर लिया और जाकर बैठक में रहने लगी।” सचिन ने जैसे रुचि को याद दिलाया।

 “हाँ तो मैं घर की नौकरानी बनी रहती और तुम खेत के दिहाड़ी मजदूर? तुम भूल गए कि क्या चल रहा था घर में मेरे आने के बाद? अरे घर का सारा खाना, कपड़े, चौका-वासन मैं करती थी। गाय भैंस का चारा-पानी माँ जी करती थीं और तुम सारा दिन बैल बने बैलों के पीछे खेत में घूमते रहते थे, और उसका फल हमें क्या मिलता था? रोज खाने में सैकड़ों कमियां गिनाई जाती थीं और दूध सारा भाभी बेच देती थीं। पीने के लिए तो छोड़ो हम जब कभी चाय के लिए भी दूध मांगते तो भाभी यही जवाब देतीं कि दूध तो मुन्ने के लिए भी नहीं बचा तुम्हें चाय के लिए कहाँ से दूँ? तुम्हें क्या लगता है मैं अपने लिए लड़ती हूँ? अरे दिन भर खेत में खटने के बाद तुम दोनों मां बेटों को एक-एक कप दूध भी ना मिले तो क्या फायदा इतने ढोर पालने का? बस उस दिन मैंने यही बात तो कह दी थी, तो आपके भाई और भाभी ने सारा घर सिर पर उठा लिया और माँजी ने भी मुझसे ही गुस्सा होकर हमारे गाय-बच्छी बांट दिए और बस हो गए घर में तीन चूल्हे। लेकिन छोड़ो उसे, उस बात को याद करके क्या फायदा। अब मैं चाहती हूँ कि मां सारी बात भूलकर हमें माफ कर दें और हमारे साथ ही रहें।” रुचि ने शब्दों को नरम करते हुए कहा।

 “तुम भूल गयीं रुचि कि पापा को गले का कैंसर हुआ था और उनके इलाज में बहुत खर्च हो गया था, उसके लिए भैया ने इधर-उधर से कर्ज भी लिया था। जब पिताजी का देहांत हुआ तब सारे रिश्तेदारों ने मिलकर हम लोगों की जमीन बांट दी थी, जिससे बाद में हमारे बीच कोई झगड़ा ना हो लेकिन साथ ही यह भी तय हुआ था कि जब तक सारा कर्ज नहीं चुक जाएगा हम दोनों भाई साथ में मिलकर ही काम करेंगे। तुम जिस दूध को बेचने की बात करती हो वह भी भाभी बेचकर घर की जरूरतों पर ही खर्च करती थीं और तुम्हें लगता था कि भाभी उन पैसों से अपना घर भर रही हैं। रुचि एक गिलास दूध अगर उस दो साल के मुन्ने के लिए भाभी ने रख भी लिया था तो तुम्हें ऐसे हंगामा नहीं करना चाहिए था।” सचिन ने मन की बात कह दी।

 “अरे छोड़ो ना उन सब गयी बीती बातों को, अब क्यों गढ़े मुर्दे उखाड़ रहे हो? देखो मैं पेट से हूँ और अब हमें किसी अनुभवी महिला के साथ की बहुत जरूरत है। इसीलिए मैं चाहती हूँ कि माँजी हमारे साथ रहें, ऐसे भी मूल से प्यारा ब्याज होता है मैं जानती हूँ कि जब माँजी को पता लगेगा कि वे दादी बनने वाली हैं तो वे सबकुछ भूलकर हमारे साथ रहने आ जायेंगीं।” अब रुचि ने असली बात कही।

 “अच्छा तो यह बात है? लेकिन इसके लिये तुम अपनी माँ से क्यों बात नहीं करतीं? अरे अनुभव तो उन्हें भी बहुत है, तुम उन्हें ही बुला लो मैं तो मां से बात नहीं करूँगा। उस दिन कितना सुना दिया था मैंने मां को, अब मेरी हिम्मत नहीं है रुचि कि मैं मां से बात करूं। मैं किस मुँह से उनसे कहूँगा की मां मुझे माफ़ करके हमारे साथ रहने आ जाओ, क्या मैं इतना बड़ा हो गया हूँ रुचि कि जिस मां ने मुझे जन्म देकर इतना बड़ा किया उसे अपने साथ रख सकूँ? नहीं रुचि मैं बात नहीं करूँगा, अरे जिन बच्चों को मां-बाप के साथ रहना चाहिए वे ऐसा कैसे सोच लेते हैं कि वे मां-पापा को अपने साथ रख सकते हैं।” सचिन ने कहा और मुँह घुमाकर लेट गया।

 “हुँह! तुमसे कुछ नहीं हो सकता, तुम सो जाओ चैन से सुबह मैं खुद ही माँजी से बात कर लूँगी।” रुचि ने तुनककर कहा और कुछ सोचने लगी।


  “अरे माँजी लाइये ये बाल्टी मैं रख देती हूँ, आप क्यों ये पानी की बाल्टी उठाती हो? मुझे कह दिया करो मैं रख दिया करूँगी आपके नहाने की बाल्टी, और सादा पानी क्यों? आप मुझे कहो तो मैं पानी गर्म करके दे दिया करूँगी आपको नहाने के लिए।

 माँजी हम आपके बच्चे हैं और बच्चे तो गलती करते ही हैं, इसका मतलब ये तो नहीं हो जाता कि मां-बाप उनसे नाराज़ होकर बात ही करना बंद कर दें। मैं तो उसी दिन से इनसे कह रही हूँ कि मुझे अच्छा नहीं लगता, माँजी इस उम्र में इतना काम करें, लेकिन ये तो डरते हैं कि आप इन्हें कहीं छड़ी से पीट ही ना दो; लेकिन अब मुझसे और नहीं देखा जाता माँ! अब से आप हमारे साथ ही रहोगी बस और आपके सारे काम मैं खुद करूँगी। आप तो बस मुझे बता दिया करो कि क्या और कैसे करना है।” रुचि ने नहाने का पानी भरकर ले जाती सास के पाँव छूकर उनके हाथ से पानी की बाल्टी लेते हुए कहा। यह सब करते समय रुचि ने इस बात का विशेष ध्यान रखा था कि उसकी जेठानी उस समय घर में नहीं थी।

 

 “अरे! आज ये सूरज दक्खन से कैसे निकल पड़ा बहुरिया? छोड़ मेरी बाल्टी, कहीं मेरी बाल्टी उठाने में तेरे नाजुक हाथों में छाले ना पड़ जाएं।” रुचि की सास ने रुचि के इस व्यवहार पर चौंकते हुए कहा।

  “आपने मुझे माफ़ नहीं किया ना मां? तभी ऐसा कह रही हो। मैं दिल से अपनी भूल पर शर्मिंदा हूँ माँ और आज मैं आपके पैर तब तक नहीं छोडूंगी जब तक आप मुझे माफ़ नहीं कर देती हो।” रुचि ने बाल्टी को मजबूती से पकड़ते हुए कहा।

 “मैं माफ करने वाली कौन होती हूँ बहुरिया? मैं तो डायन हूँ तेरी और तेरे खसम की दुश्मन हूँ मैं तो।” रुचि की सास ने रुचि के ताने याद करते हुए कहा और फिर अपनी बाल्टी उठाकर जाने लगीं, अबकी बार बाल्टी खींचने में रुचि को झटका लगा और वह थोड़ा पीछे हो गयी।

 “आह!! मां…जी…!” रुचि के मुँह से हल्की कराह निकली और वह चक्कर खाते हुए जमीन पर फैल गयी।

 “हे भगवान! ये इसे क्या हो गया? कहीं मेरे झटकने से इसे चोट तो नहीं लग गयी? अरे सचिन?? बड़की बहु? अरे कोई है?” माँजी घबराकर आवाज लगाने लगीं लेकिन घर में तो इस समय कोई था ही नहीं।

 “हे भगवान! लगता है सारे लोग बाहर गए हैं। कहीं इसे कुछ हो गया तो सारे लोग यही कहेंगे कि सास ने बहु को कुछ कर दिया होगा। क्या करूँ मैं? मुझे कुछ तो करना पड़ेगा।” माँजी ने एक पल के लिए सोचा और फिर रुचि को उठाकर पास पड़ी चारपाई पर लिटा दिया। उसके बाद वे दौड़ गयीं पड़ोस से डॉक्टर को बुलाने।


  “मुबारक हो माँजी, आप दादी बनने वाली हो। बहु को कुछ नहीं हुआ है वह तो बस पेट से होने के कारण इसे चक्कर आ गया होगा। तुम्हारी बहु कमज़ोर है माँजी, इसे आराम और पोषण की बहुत जरूरत है। मैं कुछ टॉनिक लिख रहा हूँ इन्हें मंगा लीजिए और हो सके तो शुरू के तीन महीने बहु को पूरा आराम कराईये। उसके बाद भी इसे भारी कामों और वजन उठाने को मना करियेगा।” डॉक्टर ने कहा और एक पर्चा लिखकर माँजी के हाथ में देकर चला गया।

 “रुचि! अरे कहाँ गयी?” सचिन आवाज लगाता हुआ घर में घुसा तो उसे मां रुचि के कमरे में बैठी दिखाई दी, जो रुचि को पँखा झल रही थी। सचिन की आवाज सुनकर माँ झटपट बाहर आयी और कड़ी आवाज में बोली, “खबरदार जो शोर किया या बहु को तंग किया तो। जा दौड़कर बाजार जा और ये सामान लेकर आ। बाप बनने वाला है और बचपना अभी गया नहीं, बीबी के पल्लू में घुसे बिना काम नहीं चलता तुम्हारा जो हर समय बस रुचि-रुचि। अरे कभी खुद के काम खुद से भी कर लिया करो। रुचि पेट से है, डॉक्टर ने उसे भारी काम करने को मना किया है और ये दवाइयां लिखकर गया है जा ये लेकर आ तब तक मैं खाना बनाती हूँ।” माँ ने पेपर सचिन के हाथ पर रखते हुए उसे अधिकार से डाँटते हुए कहा और फिर कमरे के अंदर चली गयी। रुचि ऑंख खोले यह सब देख रही थी और सुन भी रही थी।

 “तू जाग गयी बहु! देख अबसे तेरा भारी काम करना बंद, तुझे पूरा आराम करना है और अपना ध्यान रखना है। डॉक्टर कह कर गया है कि तू कमज़ोर है, तो तुझे पोषण की जरूरत है, सचिन गया है दवाई और सामान लाने। अब से खाना मैं बनाउंगी और तेरे लिए छोंका भी, तेरी गैया दूध कम दे रही है तो मैं भी अपना दूध बेचना आज से बन्द कर रही हूँ, पहले अपना पेट है बाकी सब उसके बाद। तू आराम कर बहु मैं बस अभी आयी।” कहकर मां कमरे से बाहर निकल गयी। 

 रुचि बिस्तर पर पड़ी-पड़ी मां के बारे में सोच रही थी और अपनी योजना की सफलता पर हँस रही थी।


 “देखो जी उस रुचि की चाल, अब जब खुद पेट से है तो उसने कैसे माँजी को अपने भोलेपन के जाल में फंसा लिया। अरे जो माँ हमारे घर दूध ना होने पर मुन्ने के लिए एक कटोरी दूध के लिए भी मना कर दे आज उसने सारा दूध छुड़ा दिया और बहू की ऐसे सेवा कर रही है जैसे वह इनकी सास है।” बड़ी बहू ने रात में अपने पति को सुनाते हुए कहा।

 “अरे तो क्या हो गया यार! भूल गयी जब तुम पेट से थी तब माँ ने तुम्हें भी एक तिनका नहीं तोड़ने दिया था और गाय-भैंसों के सारा दूध बेचना बन्द कर दिया था। रोज मां मुट्ठीभर मेवे पीसकर घी में भूनकर तुम्हें दूध में घोलकर पिलाती थीं। अब रुचि पेट से है तो माँ उसके लिए कर रही है। भाई मां है वह और अब दादी बनने की खुशी में वह एक बार फिर वही सब कर रही है तो तुम्हें बुरा क्यों लग रहा है?” बड़े बेटे ने अपनी पत्नी को समझाते हुए कहा।

 “दादी तो वे हमारे मुन्ने की भी हैं जी! या फिर ये रुचि उन्हें अनोखा दादी बना रही है? हमारे मुन्ने को भी तो दो बूंद दूध दे सकती हैं वे, या बस हम ही पराए हैं बाकी सब उनके खास।” बड़ी बहू ने उसी आवाज में कहा।

 “बेकार की बात मत करो, एक बार तुमने कभी मुन्ने से पूछा कि दादी ने उसे दूध दिया या नहीं? मैं जानता हूँ माँ रोज अपने दूध में से एक कटोरी रबड़ी बनाती है और तुम्हारी नज़र बचाकर मुन्ने को खिला देती है। माँ इस बात से डरती है शायद कि कहीं मुन्ने को उनके पास देखकर तुम नाराज़ ना हो जाओ।” बड़े बेटे ने गम्भीर आवाज में कहा।

 “अच्छा जी तो अब तुम्हारी माँ मेरे बेटे को ही मेरे खिलाफ भड़का रही है औऱ उसे झूठ भी बोलना सिखा रही है। मैं भी कहूँ मुन्ना शाम को खाना कम क्यों खाता है और उसके पेट में गांठें कैसे हो जाती हैं। तो यह तुम्हारी माँ की रबड़ी की देन है, अरे जिस मुन्ने को डॉक्टर ने गाय के दूध में भी पानी मिलाकर पिलाने को कहा है उसे चोरी-चोरी रबड़ी खिलाकर तुम्हारी मां उसका पेट खराब कर रही है। बस इसी लिए मैं मुन्ने को तुम्हारी माँ के पास जाने को मना करती हूँ, बुढ़िया रबड़ी की रिश्वत देकर मेरे मुन्ने को मुझसे ही झूठ बोलना सिखा रही है; डायन कहीं की।” बड़ी बहू ने तुनककर कहा और मुँह घुमाकर सो गयी।


 रुचि ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया माँजी बहुत खुश थीं वह बच्चे को गोद में लेकर गर्व से कहतीं, “देख रे सचिन, बिल्कुल अपने बाबा पर गया है हमारा चुन्ना।” और उनकी इस बात पर रुचि मन ही मन कुढ़ जाती।

 एक दिन जब उससे रहा नहीं गया तो उसने पूछ ही लिया, “माँजी आप हमारे बेटे को चुन्ना क्यों कहती हो, मुझे यह नाम बिल्कुल पसंद नहीं?”

 “अरे बहु मैंने बड़े के बेटे को मुन्ना कहा तब उन्होंने तो मुझसे सवाल नहीं किया, ख़ैर तू पूछ रही है तो बता देती हूँ। देख एक मेरा मुन्ना और दूसरा चुन्ना दोनों मेरी आँख के तारे हैं मुझे मेरे दोनों पोते प्यारे हैं।”और ऐसा कहकर माँजी हँसने लगीं।

 “हुँह! दोनों पोते प्यारे हैं, बिल्कुल पागल बुढ़िया है ये। चुन्ना-मुन्ना ओह गॉड! भला आजकल भी कोई बच्चों को ऐसे बुलाता है। वह तो मुझे तुझसे अपना काम कराना था बुढ़िया, नहीं तो मैं तेरी ये बातें कभी बर्दाश्त नहीं करती।” रुचि गुस्से से मुँह बनाये अपने कमरे में बड़बड़ा रही थी तभी माँजी पीछे से आ गयीं।

 “क्या कहा बहु तूने? मतलब?? तो मैं मां नहीं मतलब हूँ ‘मतलब की माँ’ ?” और मैं समझती थी तुम सुधर गयी हो और सच में अपनी गलती सुधारने के लिए मुझे अपने घर लायी हो।” माँजी ने रुचि की बात सुन ली थी जिसका उन्हें बहुत दुःख हुआ था। 

 उसी समय माँजी ने अपना सामान उठाया और फिर आ गयीं अपने पुराने ठिकाने पर, घर से बाहर बनी छोटी सी बैठक जो एक बरामद था जिसे खाद के पुराने कट्टे सिलकर पर्दा लगाकर उन्होंने कमरा जैसा बना लिया था।

 शाम को जब सचिन घर लौटा तो उसने देखा कि माँ वही चार ईंटे रखे उनमें लकड़ी सुलगाये फूँक मारकर आग ठीक कर रही है लेकिन उसने एक शब्द भी नहीं कहा और चुपचाप अपने कमरे की ओर बढ़ गया।

  माँजी ने उसे जाता देख लिया था लेकिन उन्होंने भी उसे आवाज नहीं लगायी क्योंकि वे जानती थीं कि आवाज देने पर बेटा शायद रुक भी जाये लेकिन रुचि का पति वहाँ नहीं रुकेगा और अगर रुका तो उसका जीना मुश्किल हो जाएगा।


 चार दिन बाद बड़ा बेटा मां के पास आया और बैठकर बोला, “देख लिया मां छोटे से मोह करने का नतीजा? मैंने तुझे कितनी बार समझाया था कि ये लोग कितने मतलबी हैं लेकिन तुझे तो कभी कुछ समझ में आता ही नहीं है। अब छोड़ ये चौका चूल्हा और चल मेरे साथ अपने पोते के साथ रहने, वह रोज बस एक ही बात पूछता है कि क्या दादी बस चुन्ना की ही दादी है? तो फिर मेरी दादी कहाँ है। चल मां अब से तू हमारे साथ ही रहेगी बस।”

 “ना बेटा ना अब मैं किसी के साथ नहीं रहूँगी, मैं यहीं खुश हूँ अपने इस घर में। यह कम से कम मेरा अपना तो है, यहाँ मैं किसी और के साथ नहीं रहती बल्कि अपने खुद के साथ रहती हूँ। अपने पति की यादों के साथ रहती हूँ, अपनी मर्जी से जीती हूँ, अपनी पसंद का खाती हूँ और रही बात पोतों की तो वे तो बच्चे हैं वे अगर मेरे पास आएँगे तो मैं उन्हें दादी का प्यार क्यों नहीं दूँगी? लेकिन मैं जानती हूँ कि तुम्हारी पत्नियां कभी नहीं चाहतीं कि उनके बेटे उनकी जगह दादी को प्यार करें।” माँजी ने रूखेपन से जवाब दिया और अपने कपड़े तह करने लगीं।

 “अरे माँ क्या बस घर का यही हिस्सा तेरा घर है? क्या मेरा घर तेरा घर नहीं है? और फिर ये जगह रहने लायक है भी तो नहीं, यहाँ तो ना दरवाजा है और ना ही खिड़की। अच्छा ऐसा करते हैं कि इस बरामदे में सामने एक दीवार लगाकर उसमें एक दरवाजा और खिड़की लगवा देते हैं। जब तक ये जगह ठीक होती है तब तक तू हमारे साथ रह ले माँ, मुझसे तुझे ऐसे सर्दी में बोरे के पर्दे की आड़ में ठिठुरते नहीं देखा जाता। अच्छा देख मैं पाँच हज़ार रुपये लगा दूँगा बाकी तेरे पास कुछ…?और किसी को बताना मत की मैंने इस काम के लिए पैसे दिए हैं।” बड़े बेटे ने बहुत धीरे से कहा।

 “चल ठीक है बेटा ले ये छः हज़ार मेरे पास रखे हैं, करवा दे काम।” माँजी ने बक्सा खोलकर पैसे बड़े के हाथ पर रखते हुए कहा।

 “अच्छा मां एक बात और, वो क्या है ना कि तू एक बार फिर दादी बनने वाली है। मां तेरी बड़ी बहू पेट से है और डॉक्टर ने उसे पूरा आराम करने को कहा है।” बड़े बेटे ने बड़े धीरे से कहा और पैसे गिनते हुए चला गया।

 “वाह रे दुनिया! मां भी अब मतलब की हो गयी है।” बुढ़िया बुदबुदाई और अपना सामान लेकर धीरे-धीरे बड़े बेटे के घर की ओर चल दी।



  नृपेंद्र शर्मा

ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

 

Wednesday, May 10, 2023

जहरीला गुलाब

सूखा गुलाब

आज बहुत दिन बाद अलमारी साफ करते समय रश्मि को अपनी पुरानी डायरी मिली।
रश्मि को शादी से पहले डायरी लिखने का शौक था, यह उसकी वही पुरानी डायरी थी।
रश्मि ने जैसे ही वह डायरी खोली तो उसमें से एक सूखा हुआ गुलाब नीचे गिर गया।
रश्मि ने गुलाब उठाया और उसे देखने लगी, उस गुलाब की सूखी महक के साथ उसे उससे जुड़ी पुरानी यादें भी आने लगीं।
"हमारी शादी ऐसे नहीं हो सकती रश्मि, पिताजी का कहना है कि दहेज में पच्चीस लाख रुपये लाओ चाहे जिससे शादी करो। ऐसा नहीं है तो हमारी पसन्द से शादी करो, वह लोग तीस लाख देने को तैयार हैं। हम तो तुम्हारे प्यार की खातिर पाँच लाख का नुकसान सह लेंगे लेकिन उससे अधिक नहीं। अब तुम ही बताओ क्या तुम्हारे पिताजी पच्चीस लाख दे पाएंगे।" ललित ने रश्मि का हाथ पकड़कर बनावटी उदासी के साथ कहा था।
"पच्चीस लाख!! क्या कह रहे हो ललित? ये हमारे प्रेम के बीच दहेज कहाँ से आ गया?" रश्मि ने चौंकते हुए कहा।
"मैं मजबूर हूँ रश्मि, यदि मैंने पिताजी की बात नहीं मानी तो वे मुझे बेदखल कर देंगे।" ललित ने कहा और उठकर चला गया।
रश्मि को अब यह गुलाब जहरीला लग रहा था, उसकी खुश्बू उसे असहनीय हो रही थी। कल ही तो ललित ने रश्मि को प्रेम से यह गुलाब दिया था और उसे 'बेपर्दा' कर दिया था। रश्मि को लगा कि ये गुलाब ही शापित था जिसे लेने के बाद उसका सब कुुुछ लुट गया और उसका दो साल पुराना रिश्ता भी खत्म हो गया।
"ललित!" रश्मि का चेहरा गुस्से से तन गया और उसकी पकड़ से वह जहरीला गुलाब चूरा-चूरा होकर मिट्टी में मिल गया।

  नृपेंद्र शर्मा "सागर"
  ठाकुरद्वारा मुरादाबाद


Wednesday, April 19, 2023

बूढ़ा घोड़ा

बूढ़ा घोड़ा

एक जमीदार के चार बेटे थे और एक शानदार नस्ली घोड़ा।
 समय के साथ जमीदार और घोड़ा दोनों बूढ़े हो गए।
 एक दिन जमीदार का एक बेटा पिस्तौल ले आया और जमीदार को दिखाते हुए बोला, "देखो बापू 'घोड़ा' जर्मनी का है एक बार में सात राउण्ड चल सकता है।"
 दूर खड़ा घोड़ा यह सुन रहा था और सोच रहा था 'घोड़ा!! तो फिर वह कौन है?"

 कुछ दिन बाद जमीदार का दूसरा बेटा एक बुलेट मोटरसाइकिल खरीद लाया और जमीदार को दिखाते हुए बोला, "देखो बापू 'घोड़ा' इसपर चढ़कर जिधर निकलो अपनी धाक जम जाती है, रफ्तार और ताकत ऐसी की कहीं भी दौड़ा दो कभी थकता नहीं कभी रुकता नहीं।
 जमीदार बहुत खुश था मोटरसाइकिल को देखकर।
 उधर घोड़ा फिर वही सोच रहा था कि यह घोड़ा है तो मैं कौन हूँ?
 कुछ दिन बाद जमीदार का तीसरा बेटा एक थार कार ले आया और जमीदार को दिखाते हुए बोला, "देखो बापू 'असली घोड़ा' 4×4, इसे जहाँ चाहे चढ़ा दो कीचड़ में रेत में चाहे पहाड़ पर। इसकी ताकत के आगे कोई घोड़ा कुछ  नहीं।
 जमीदार गर्व से हँस रहा था और घोड़ा फिर वही बात दोहरा रहा था, "असली 'घोड़ा' तो हम क्या नकली हैं।

 कुछ दिन बाद जमीदार का चौथा बेटा एक लड़की के साथ आया, इनके साथ एक रोबदाब वाला अधेड़ व्यक्ति भी था। वह जमीदार से बोला, "देखो बापू मेरी प्रेमिका, हम जल्दी शादी करेंगे और ये हैं हमारे बापू, अब हम इनके साथ रहेंगे।
 "बापू!!, तो फिर हम कौन हैं? जमीदार को जैसे झटका लगा और इस बार घोड़ा हँस रहा था...?

 नृपेंद्र शर्मा "सागर"
 ठाकुरद्वारा मुरादाबाद