Thursday, June 18, 2020

#कहानी/लगन

मुन्नू बिना मां बाप का आठ दस वर्ष का अनाथ बालक था, उसके मां बाप और छोटी बहन पिछले साल गांव में फैले हैजे का शिकार हो गए।
और मुन्नू अकेला रह गया उदास हताश असहाय।
मुन्नू को भूख लगती तो वह रोता रहता क्योंकि उसके पास ना तो पैसे थे और ना ही उसे खाना पकाना आता था।

मुन्नू का परिवार बहुत गरीब था उसके मां और पिता दोनों हो लोगों के खेतों में काम करते थे, उनके पास अपना कहने को एक कच्चे मकान के अलावा कुछ नहीं था।
उसके बाप "रामदास" की हार्दिक इच्छा थी कि वह इस साल एक दुधारू गाय अवश्य लेगा, इसके बच्चे भी दूसरों की तरह दूध का स्वाद जानेंगे।
किन्तु वक्त और विधि के विधान के आगे किसकी चली है।
और वक़्त के एक झटके से मुन्नू अनाथ हो गया अब उसका कोई सरपरस्त नहीं था जो उसके भविष्य के बारे में सोचे।

मुन्नू को कुछ दिन पड़ोसियों ने खाना दे दिया किन्तु फिर एक दिन किसी ने कहा, " मुन्नू कब तक हम तुम्हे ऐसे मुफ्त में खाना देंगे ? और फिर तुम्हारी अन्य ज़रूरतें भी तो हैं कपड़े आदि, तो क्या तुम सब कुछ मांग कर लोगे? "

"तुम्हे भी आगे की जिंदगी के लिए कुछ काम करना चाहिए।" दूसरे व्यक्ति ने भी पहले की हाँ में हाँ मिलाई।

"लेकिन मैं क्या काम करूंगा चाचा? मुझसे तो खेतों में काम भी नहीं होगा, मैं तो वजन भी नहीं उठा सकता", मुन्नू उदासी में बोला था ।
"डंगर तो घेर सकता है"?,, चाचा ने कहा।
"हाँ वो तो मैं कर लूंगा", मुन्नू ने धीरे से कहा।

"ठीक है मैं दो चार घरों में बात करता हूँ और कल बताता हूँ तुझे", चाचा ने उसे रोटी देकर कल आने को कहा और चले गए।

अगले दिन से मुन्नू चार घरों की गाय भैंस चराने का काम मिल गया जिसकी एवज में उसे महीने के चार सौ रुपए ओर रोज़ एक घर में खाना मिलना तय हुआ।
अब मुन्नू को सुबह दो रोटी गुड़ चटनी देकर गाय भैंसों के साथ जंगल भेज दिया जाता और शाम को लौटने पर अपनी बारी के घर से रात का खाना खिला दिया जाता।
सुबह से शाम तक नन्हा मुन्नू डंगरों के पीछे दौड़ता रहता।
शुरू में तो उसे बहुत बुरा लगा लेकिन बाद में यही इसके लिए खेल बन गया और कल्लो, लल्लो, भूरी, चांदी (गाय; भैंस)आदि उसकी दोस्त, जिन्हें वो अपनी अम्मा ओर बापू के किस्से सुनाता और उनके गले लगता।

उसे याद आता था कैसे उसकी अम्मा उसे रोज कहानी सुनाती और बड़ा आदमी बनने को कहती।

वह गाय भैंसों से पूछता, "क्या तुम कोई कहानी जानती हो, मेरी अम्मा जैसे?"
और भैंस बस हम्ममम्मममम्म करके रह जाती,
गाय भी उसके जबाब में अम्म्म्महहहह के अलावा कुछ नहीं कह पाती।

फिर वह पूछता,"ये बड़ा आदमी क्या होता है", लेकिन फिर जबाब हम्ममम्मममम्म, अम्म्म्म के अलावा कुछ नहीं मिलता।

एक दिन वह अपनी रो में यही बातें कल्लो(भैंस) व लल्लो(गाय) से पूछ रहा था और वहां से दूसरे गांव के अध्यापक जा रहे थे, उन्हें एक छोटे बच्चे का इस तरह भैंस और गाय से बातें करना कुछ अलग सा लगा, मुन्नू के चेहरे की मासूमियत उन्हें अपनी ओर खींचने लगी।

"क्या बात है बेटा,?" उन्होंने मासूम मुन्नू के सर पर हाथ रख कर कहा।
मां के बाद पहली बार किसी ने मुन्नू के सर को इतने प्यार से सहलाया था।
उसकी आँखों में जमी साल भर की बर्फ पिघल कर उसके गालों पर बहने लगी, उसकी सिसकी बंध गयी, मुन्नू सुबक सुबक कर रोने लगा आँसू उसके गौरे किन्तु धूमिल गालों को भोगोकर एक निशान बना रहे थे।

अध्यापक उसके सर पर हाथ फेरते रहे, उसकी मासूमियत ओर उदासी उनके मन को विचलित कर रही थी।

"क्या पूछ रहे थे तुम इन जानवरों से?"उन्होंने धीरे से मुन्नू से पूछा।
मुन्नू खुद को संयमित करते हुए बोला, "मैं इनसे कहानी सुनाने को कह रहा था काका, जब से अम्मा मरी है किसी ने कहानी नहीं सुनाई।"
"क्या तुम्हें पढ़ना नहीं आता? तुम खुद कहानियां पढ़ सकते हो में तुम्हे किताब दे दूंगा कहानियों की", मास्साब ने कहा।

"पढ़ना?" मुन्नू को समझ नहीं आया।
गांव में कोई स्कूल नहीं था तो मुन्नू को पढ़ाई के बारे में कुछ भी पता नहीं था।

"पढ़ाई क्या होती है काका? और ये किताबें क्या कहानी सुनाना जानती हैं?" मुन्नू जिज्ञासा से भर उठा।

"हाँ किताबे तुम्हारे सारे सवालों के जबाब जानती हैं बेटे बस जरूरत है तुम्हे उनसे दोस्ती करने की उन्हें पढ़ना सीखने की।" मास्साब ने मुस्कुरा कर कहा।

"मैं करूँगा उनसे दोस्ती काका", मुन्नू ने दृढ़ता से कहा।
"अच्छा तुम वो नदी पार बाला गांव जानते हो?" मास्टर जी ने पूछा। 
"हाँ काका", मुन्नू ने धीरे से कहा।
"तो तुम शाम को वहीं आ जाना मेरे घर, आ जाओगे? किसी से भी पूछ लेना कहना मास्टरसाहब के घर जाना है।" मास्साब ने उसे अपना पता समझाया।
"ठीक है काका", मुन्नू ने खुश होकर कहा।

आज मुन्नू ने डंगर जल्दी ही हांक दिए और बिना खाये पिये ही दौड़ लगा दी नदी पार के गांव की ओर जो उसके गांव से बस एक डेढ़ किलोमीटर दूर ही होगा।
दोनो गांव के बीच में एक छोटी सी नदी बहती थी जो बरसात के अलावा लगभग सूखी ही रहती थी, उसे पार करने के लिए उसके ऊपर दो बड़े खजूर के पेड़ काटकर पुल जैसा बना रखा था।
मुन्नू पुल को भी दौड़ कर पार कर गया, उसे तो लगन थी कहानियों की।
वह गांव में सीधा मास्साब के घर पहुंचा, गांव में घुसते ही पहले ही आदमी से उसे मास्साब का घर पता चल गया था।
मास्साब ने उसे बिठाया पीने को दूध और गुड़ दिया।

"मास्साब लाओ किताब मैं उससे कहानियाँ सुनूंगा।" मुन्नू उतावलेपन से बोला।
"हाहाहा!!"
मास्साब जोर से हँसने लगे।
"क्या हुआ?" मुन्नू उन्हें देखते हुए बोला।

"किताबे कहानी सुनाती नहीं उन्हें खुद पढ़ना पड़ता है", मास्टर साहब बोले।
"पढ़ना?लेकिन मुझे पढ़ना नहीं आता", मुन्नू उदास होकर बोला।
"मैं सिखाऊंगा तुम्हे पढ़ना", बस तुम्हे लगन से मेहनत से सीखना होगा।
"मैं सीखूंगा", जो कहोगे करूँगा मुन्नू ने कहा।

"ठीक है कल से रोज इसी समय आना होगा", मास्साब ने उसे एक तख्ती औऱ एक किताब देकर कहा ओर कुछ अक्षर बताकर नकल का अभ्यास करने को दिया।

मुन्नू घर लौट आया, रात भर वह उस किताब में छपे चित्र देखकर उन्हें समझने का प्रयास करता रहा, फिर कुछ अक्षर तख्ती पर खड़िया से लिखने लगा, उसे इस खेल में मज़ा आ रहा था, रात भर में उसने कितनी ही बार तख्ती लिखी।

मुन्नू रोज शाम को मास्साब के घर जाकर पढ़ने लगा, उसकी लगन और मेहनत से कुछ ही महीनों में वह बिना रुके बिना हिज्जे किये पुस्तक पढ़ने लगा, और बहुत सुंदर लिखाई भी करने लगा।
जल्दी ही मुन्नू ने बहुत सारी कहानियां भी पढ़ लीं थी अब उसे पता था कि बड़ा आदमी क्या होता है।
मास्साब ने उसका नाम स्कूल में लिखवा दिया और उसे शाम को घर पर ही पढ़ाने लगे, उन्होंने मुन्नू को इम्तिहान देने के लिए मना लिया था।
पांचवी का परिणाम मुन्नू के लिए बहुत खुशी लेकर आया वह स्कूल में प्रथम आया था, मुन्नू को भाषा, गणित और सामाजिक अध्ययन में बहुत अच्छे अंक मिले थे।
इधर मुन्नू इन तीन सालों में अपने सारे पैसे बचा कर रखता रहा अब उसके पास करीब सात आठ हजार रुपए की पूंजी थी, जिसकी मदद से उसने पक्की सड़क के किनारे एक कच्ची गुमटी बना ली और चाय नास्ता बेचने की एक छोटी दुकान खोल ली।
अब मुन्नू किसी का नौकर नहीं था और अब उसके पास पढ़ने के लिए पर्याप्त समय था।
उसकी लगन और मेहनत ने हमेशा उसका साथ दिया और उसने समय के साथ गांव से आठवीं की परीक्षा पास करके शहर में दाखिला ले या मुन्नू पढ़लिख कर बड़ा आदमी बनना चाहता था , वह अपनी अम्मा का सपना पूरा करना चाहता था।
मुन्नू बहुत ईमानदारी और मेहनत से अपनी दुकान चलाता और पूरी लगन से पढ़ाई करता, जल्दी ही उसे एक और अनाथ लड़का मिल गया उसके पास भी खाने रहने को कुछ नहीं था।
मुन्नू ने उसे अपने साथ रख लिया अब दुकान में दो लोगों के रहने से उसे पढ़ने के लिए अधिक समय मिलने लगा और वह उस लड़के को भी पढ़ाने लगा।
दसवीं की परीक्षा में मुन्नू को जिले में प्रथम स्थान मिला इससे उसकी और पढ़ने की लगन को बहुत बल मिला।
ऐसे हैं पूरी लगन से मुन्नू परिश्रम करता रहा, अब उसने अपनी गांव की झोपड़ी बेच कर सड़क के किनारे जमीन का एक टुकड़ा खरीद लिया था जिसमें कच्चा बड़ा मकान ओर आगे वही चाय की दुकान बना ली थी।
अब उसके साथ चार पांच अनाथ लड़के रहते थे जो उसकी दुकान सम्भालते और वह उन्हें भी लगन से पढ़ता।

इसी प्रकार समय के साथ मुन्नू आगे पड़ता गया और उसका घर बड़ा होता गया जहां अनाथों बेसहारा लोगों के लिए हमेशा स्थान मिलता रहा।
मुन्नू अपनी मेहनत और लगन से एक दिन भारतीय प्रसाशनिक सेवा में चयनित हो गया, अब वह सच में बड़ा आदमी था उसकी मां का सपना साकार हो चुका था।
उसने अब अपने घर को अनाथालय और बृद्धाश्रम बना दिया जहां उसे कितने सारे भाई- बहन और मां बाप मिल गए जो हमेशा उसके लिए दुआएँ करते हैं।

मुन्नू को अभी भी लगन है कि कोई अनाथ कभी भी बिना कहानी सुने न सोये, और कोई भी इसलिए अनपढ़ ना रहे कि वह अनाथ है।
उसमे अभी भी लगन है हर शहर में एक ऐसा आलय खोलने की जिसमे अभावग्रस्त लोगों को मुफ्त शिक्षा और रहने की व्यवस्था हो।
मुन्नू सच्चा बड़ा आदमी है , यूँ तो अब उसका नाम श्री मुनेश कुमार है, किन्तु वह मुन्नू कहलाया जाना ही पसंद करता है।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"
९०४५५४८००८(वाट्सप)

#कहानी/और वह मर गयी

नदी किनारे गांव के एक छोर पर एक छोटे से घर में रहती थी गांव की बूढी दादी माँ। 
घर क्या था ,उसे बस एक झोंपडी कहना ही उचित होगा। गांव की दादी माँ, जी हां पूरा गांव ही यही संबोधन देता था उन्हें। नाम तो शायद ही किसी को याद हो।

70/75 बरस की नितान्त अकेली अपनी ही धुन में मगन। कहते हैं पूरा परिवार था उनका नाती पोते बाली थीं वो। लेकिन एक काल कलुषित वर्षा की अशुभ!! रात की नदी की बाढ़ ,,, उनका सब समां ले गई अपने उफान में । 
उसदिन सौभाग्य कहो या दुर्भाग्य कि, बो अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ बच्चा होने की खुशियां मानाने गई हुई थीं। कोन जनता था कि वह मनहूस रात उनके ही नाती बेटों को उनसे दूर कर, उन्हें ही जीवन भर के गहन दुःख देने को आएगी। 
उसी दिन से सारे गांव को ही उन्होंने अपना नातेदार बना लिया, और गांव बाले भी उनका परिवार बन कर खुश थे।

किसी के घर का छोटे से छोटा उत्सव भी उनके बिना न शुरू होता न ख़तम।
गांव की औरतें भी बड़े आदर से पूछती," अम्मा "ये कैसे करें बो कैसे होता है। और अम्मा बड़े मनुहार से कहती इतनी बड़ी हो गई इत्ती सी बात न सिख पाई अभी तक । 
सब खुश थे सबके काम आसान थे । किसी के यहां शादी विवाह में तो अम्मा 4 दिन पहले से ही बुला ली जाती थीं। 

हम बच्चे रोज शाम जबतक अम्मा से दो चार कहानियां न सुन ले न तो खाना हज़म होता और न नींद ही आती। 
अम्मा रोज नई नई कहानियां सुनाती राजा -रानी, परी -राक्षस, चोर -डाकू ऐंसे न जाने कितने पात्र रोज अम्मा की कहानियों में जीवंत होते और मारते थे।

समय यूँही गुजर रहा था और अम्मा की उम्र भी। आजकल अम्मा बीमार आसक्त हैं उनको दमा और लकवा एक साथ आ गया। चलने फिरने में असमर्थ , ठीक से आवाज भी नहीं लगा पाती । 
कुछ दिन तो गांव बाले अम्मा को देखने आते रहे, रोटी पानी दवा अदि पहुंचते रहे। लेकिन धीरे धीरे लोग उनसे कटने लगे बच्चे भी अब उधर नहीं आते कि, कहीं अम्मा कुछ काम न बतादे। 
बो अम्मा जिसका पूरा गांव परिवार था अब बच्चों तक को देखने को तरसती रहती।
वही लोग जिनका अम्मा के बिना कुछ काम नहीं होता था , अब उन्हें भूलने लगे। 
औरते अब बच्चो को उधर मत जाना नहीं तो बीमारी लग जाएगी की शिक्षा देने लगी। 
अम्मा बेचारी अकेली उदास गुनगुना रही है- 
सुख में सब साथी दुःख में न कोई। 
अब तो कोई उधर से गुजरता भी नहीं । अम्मा आवाज लगा रही है अरे कोई रोटी देदो। थोड़ा पानी ही पिला दो।।।।!!
नदी किनारे रहकर भी अम्मा पानी के घूँट को तरसती उस रात मर गई। 
सुबह किसी ने देखा और गांव में खबर फैली की बुढ़िया जो नदी किनारे रहती थी आज मर गई।
लोग आये दो चार बूँद आंसू गिराये औरतों में चर्चा थी वेचारी सब के कितना काम आती थी,और आज मर गई।

कुछ देर में बुढ़िया का शरीर आग के घेरे में पड़ा था लोग अपने घर लौट रहे थे। और अब कहीं चर्चा नहीं थी कि वह मर गई। 

यही दुनिया है यही इसकी रीत है। जीवित हैं तो सबके हैं । मर गए तो भूत हैं। और कोई याद तक नहीं करता कि वह मर गई।

#कहानी/जैसा खाये अन्न

कुछ दिन से  चिंटू(चूहे) में जीवन मे कुछ अलग अनुभव हो रहा है, वह जब भी किसी छोटे जानवर को देखता उसके मुंह से भेड़िये जैसी गुर्राहट निकलने लगती, उसकी मूंछे खड़ी हो जाती उसकी नाक भी कजकल कुछ ज्यादा ही सूंघने लगी है।
कई बार तो अपनी इस वहशियाना स्थिति में वह अपने कई बिरादरी वालों को भी घायल कर चुका है।
चान्दनी रात में तो उसकी स्थिति और भयावह होने लगी है कल पूर्णिमा की रात में उसे कई बार वहशियत के दौरे पड़े उसने एक खरगोश को मार डाला, एक बिल्ले से भिड़ गया और घायल होने से पहले बिल्ले को लगभग मार ही डाला होता उसने अगर वह भाग ना गया होता।

सारे चूहा बिरादरी उसकी इस हालत से बहुत डरे डरे से सहमे से हैं।
उन्हें चिंटू से अपनी जान का खतरा होने लगा था, वह अपने बच्चों को उससे छिपाने लगे थे, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि ये चिंटू को आखिर हो क्या गया है, वह अचानक चूहे से भेड़िया कैसे बन गया?

अरे चिंटू तुझे याद भी है क्या हुआ था जब से तेरे ये हालात हुए  कुद्दु दादा ने चिंटू को शांत बैठे देख बहुत डरते डरते धीरे से पूछा।
मुझे कुछ नहीं मालूम दादा बस उस दिन मैंने एक नारे जानवर की हड्डी पर लगा मांस का टुकड़ा खाया था उसके बाद से पता नहीं मुझे क्या हो गया, चिंटू अफसोस करते हुए बोला।
ऑफ़ह!!तूने जरूर किसी नरभक्षी भेड़िये का मांस खा लिया चिंटू,,दादा अभी कह ही रहे थे कि सामने से एक लोमड़ी गुजरी ओर चिंटू ने गुर्राते हुए उसपर छलांग लगा दी चिंटू इतनी तेजी से उसकी गर्दन पर झपटा की जबतक वह सम्भल पाती चिंटू  उसकी गर्दन से मांस का एक बड़ा टुकड़ा नोच चुका था, ये देखकर दादा डर कर न जाने जब बिल में सरक गए पता भी न चला।

चिंटू के ख़ौफ़ और वहशी दरिंदा बनने के चर्चे पूरे जंगल में फैल चुके थे, छोटे तो छोटे अब तो बड़े जानवर भी उससे बचने ओर अपने छोटे बच्चों को उससे छिपाने लगे थे।

चिंटू खुद भी बहुत परेशान था कि आखिर उसे हो क्या जाता है, उसे तो कुछ याद भी नहीं रहता कि उसने किया क्या था बस देखता है खुद को घायल और साथियों को आश्चर्यचकित होता।

आजकल चिंटू अकेला हो गया है उसके वहशियत भरे दौरों के चलते अब उसके सारे परिवार और विरादरी बालों ने उससे दूरी बना ली है।
चिंटू अब कालिया लहरी की कब्रगाह (पढ़िए कहानी "चिंटू की चतुराई")
में रहता है बिरादरी से दूर अकेले में, लेकिन उधर से बाकी जानवर भी बहुत सावधानी से गुजरते हैं, यूँ तो चिंटू दिन में हमेशा शांत ही रहता है लेकिन शाम होते ही रोज खूनी दरिंदा बन जाता है।
अभी कल ही की बात है, दो भेड़िये इधर शिकार की तलाश में आ गए शायद बाहर किसी जंगल से आये थे उन्हें चिंटू के बारे में पता नहीं था।
सर्दी की रात थी चाँद की चान्दनी फैली थी ओस की बूंदें मोती की तरह चमक रही थीं और चिंटू उनसे खेलने में मग्न था तभी उसे अपने पीछे कुछ सरसराहट सुनाई दी उसके कान खड़े हो गए, नाक हवा में सूंघने लगी उसकी आंखें चमकने लगी मूंछ के बाल बरछी की तरह खड़े हो गए।
उसके मुंह से भेडिये जैसी ही गुर्राहट निकलने लगी और वह झपट पड़ा उसके शिकार की घात में बढ़ते भेड़ियों पर।

चिंटू का हमला इतना तेज था कि भेड़िये संभल भी न सके  तब तक चिंटू दोनों के गले की खाल उधेड़ चुका था।
दोनों भेड़िये सतर्क हो गये उन्हें समझ आ गया कि ये छोटा चूहा बहुत खतरनाक है।
दोनों शिकारी संयुक्त रूप से चिंटू पर हमला करने लगे किन्तु चिंटू बहुत होशियारी से उनके दांव पैंतरा बदल के चुका देता और किसी की पूंछ तो किसी का पैर कुतर देता।
दोनों भेड़िये उसकी फुर्ती ओर ताकत से सकते में थे चिंटू उनसे बिल्कुल किसी शिकारी भेड़िये की तरह ही लड़ रहा था।
लड़ते लड़ते आधी रात हो गयी दोनों पक्षों के खून से जमीन पर निशान बन गए लेकिन कोई भी पक्ष हार नहीं मान रहा था।
भेड़िये समझ चुके थे कि उसकी फुर्ती और शक्ति कुछ और है ये चूहे की ताकत नहीं है दोनों भेड़िये थकने लगे थे और अंततः चिंटू के आगे भेड़िये हार गए , दोनों भेड़िये एक ओर जंगल में भाग गए।
चिंटू का भी इस लड़ाई में बहुत खून बह गया था अतः वह भी बेशुध होकर जमीन पर गिर गया।
सुबह कुछ चूहों ने चिंटू को ऐसे जमीन पर पड़ा देखा और आसपास बिखरा खून देख कर समझ गए कि रात फिर चिंटू ने किसी शिकारी जानवर से खूनी संघर्ष किया है लेकिन ये ऐसे क्यों पड़ा है?? क्या चिंटू मर गया?? 
चूहों की बस्ती में हल्ला मचा हुआ था कि चिंटू मर गया,,, रात उससे भेडियो की लड़ाई हुई वहां पंजो के निशान हैं , सभी चूहे चर्चा कर रहे थे इधर चिंटू लड़खड़ा कर उठा और उसके मुंह से आवाज आई "माँ' ,,,
"चुकचुक" (चिंटू की मां) जो पास ही थी दौड़ कर उसके पास आयी और उसे सहारा देकर उठाने लगी, बाकी चूहे भी उसके सहायता को दौड़ आये,हालाँकि चिंटू के वहशी पन का ख़ौफ़ अभी भी उनके दिलों में था।

अब चिंटू ठीक हो गया है और अब वह दरिंदा भी नहीं बनता वह पूरी तरह सामान्य हो चुका है।
ये चमत्कार कैसे हुआ दद्दा मैं ठीक कैसे हुआ ?उसने, "कुद्दु" से पूछा।
उस लड़ाई में तेरा बहुत खून बह गया था चिंटू ओर उसी के साथ बह गया तेरे अंदर से खूंखार भेड़िये का अंश, अनुभवी दादा ने उसे समझाया।
सारे चूहे जान गए थे कि चिंटू अब फिर से चूहा बन चुका है, लेकिन ये बात उन्होंने जंगल से छिपा कर रखी हुई है और बाकी जंगली जानवरों के लिए चिंटू अभी भी दरिंदा ही है और उसके इस खोफ से चूहों की बस्ती सुरक्षित है।

दोस्तो ऐसे ही कई बार हमारे जीवन में भी अचानक परिवर्तन होते हैं, जैसे अच्छे भले निकले शाम की बीमार हो गए।
अचानक किसी को नुकसान पहुँचाने के ख्याल आने लगे, त बैठे बैठे कुछ भी अजीब लगने लगे तो,,,
"एक बार ये अवश्य सोच लें कि आज क्या खाया और किसका खाया"
क्योंकि
"जैसा खाये अन्न वैसा होवे मन"
©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
9045548008 my wtsp No.

#कहानी/ चिंटू की चतुराई


चिन्टू एक नन्हा चूहा है चिकचिक ओर चुकचुक की इकलौती औलाद।
यूँ तो चुकचुक को कई बार प्रसव हुआ कई संताने जन्मी लेकिन हर बार कालिया लहरी उनको जिंदा निगल गया।
कालिया एक बहुत बड़ा नाग है जो चलते चूहों उछलते मेंढकों ओर चिड़ियों के अंडों पर अपना जन्मजात अधिकार समझता है।
चिन्टू भी अभी तक इसीलिए बचा हुआ है कियूंकि उसके बाहर खुले में घूमने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा हुआ है।
आसपास के सारे चूहा परिवार इसी दंश से पीड़ित हैं कि कालिया लहरी उनके वंश को मिटाने पर तुला है।
किसी का एक तो किसी के दो बच्चे बमुश्किल बचे हुए हैं।
सारे चूहे कालिया का नाम सुनकर थरथर कांपने लगते हैं।

हम ऐसे कब तक कालिया के भय से मरणासन्न जीवन जिएंगे?? चिन्टू ने चूहों के सामने प्रश्न रखा।

क्या करें हम बेटा चिन्टू, अगर लहरी चाहे तो हम सभी को एक बार में ही निगल सकता है।
हम चूहे हैं और वह नाग, एक बूढ़े चूहे ने आंसू गिराकर कहा।

तो क्या हम कभी जी नहीं पायेंगे?? और फिर ऐसे डर डर कर जीने से तो अच्छा है कि हम उसका भोजन ही बन जाएं।
लेकिन चिन्टू यूँ जानबूझ कर मौत के मुंह में कोन जाना चाहेगा?, चिकचिक ने उदासी से कहा।
किउं ना हम सारे मिलकर एक साथ उस पर हमला करके उसे काट खाएं क्या होगा ज्यादा से ज्यादा दो चार लोगों को खा जाएगा लेकिन आने वाली पीढ़ी तो उसके भय से सुरक्षित हो जाएगी।
लेकिन कौन कुर्बानी देगा?? सभी के चेहरे लटक गए और सब चूहे चुपचाप सर झुका के चले गए।

बहुत हो चुका अब, कब तक हमारे लोग कालिया का निवाला बनते रहेंगे??आज उसने टुक टुक के बच्चे निगले हैं कल सुनिया को खा गया था हो सकता है कल को मुझे या आपमें से किसी को,,, चिन्टू गुस्से से बिफर रहा था।
टुक टुक ओर टिक टिक सर झुकाये आंसू बहा रहे थे ,अभी तो मेरे बच्चों ने आंखे भी नहीं खोली थी बेटा चिन्टू, टिकटिक जोर से रोने लगी।
अब रोने से क्या होगा चाची, हम बुजदिल चूहे क्या बस रोते ही रहेंगे, ?
नहीं अब बस,अब हमें कुछ करना ही होगा चिन्टू कुछ निश्चय करके खड़ा हो गया।
लेकिन क्या?? सभी ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।
हमें एक बिल तैयार करने में कितना समय लगता है बतातो?? चिन्टू ने सभी चूहों से पूछा।

ज्यादा से ज्यादा चार पांच दिन, सभी ने एक मत से जबाब दिया।

तो क्या आप सभी मुझे अपने पांच दिन देंगे?? चिन्टू ने पूछा।

हाँ हाँ सभी एक स्वर में बोले।
तो ठीक है ध्यान से सुनो ओर समझो, ओर चिन्टू उन्हें अपनी योजना समझाने लगा।

उस घटना को आज सात दिन हो गए इस बीच एक भी चूहा बाहर घूमता नही मिला कालिया बहुत परेशान है कि सारे चूहे गए कहाँ, वह भूख से परेशान था।
गुनगुनी धूप खिली हुई है कालिया सर को घास की छाया में किये धूप का मज़ा ले रहा है तभी एक चूहा तेज़ी से उसके सामने से निकल गया, कालिया चौकन्ना हो गया उसे चूहे की गंध अपनी ओर आकर्षित कर रही है।
कालिया ने सर उठा कर देखा चिन्टू चूहा लापरवाही से एक झाड़ी के पास बैठा कुछ कुतर रहा है।
कालिया खुशी से झूम उठा और सावधानी से उसके पीछे रेंगने लगा जैसे ही कालिया ने चूहे पर झपट्टा मार चूहा बिल में सरक गया और उसके पीछे कालिया भी बिल में घुस गया कालिया बिल में दूर अंधेरे में चूहे की गंध सूंघता घुसता चला गया, आगे बिल की चौड़ाई बहुत कम थी और कालिया उसमें लगभग फंस ही गया और इससे पहले की वह बापस लौटता उसके ऊपर कंकर पत्थर और मिट्टी का ढेर गिरने लगा ।
कालिया बहुत कोशिशों के बाद भी हिल ना सका और उस बिल में ही उसकी जीवित कब्र बन गयी।
आज उसका लालच उसके पापों पर भारी पड़ गया।
चिन्टू ने उसके लिए एक ऐसी योजना बनाई थी जिसमें एक लंबा पतला बिल था जिसमें सैकड़ो बिल जुड़े हुए थे, उनमें चूहों ने छोटे छोटे कंकर पत्थर और मिट्टी भर रखी थी।
जब कालिया चिन्टू के पीछे बिल में घुसा तो चिन्टू तो घूम कर दूसरे बिल में घुस कर दूसरी ओर निकल गया और बाकी चूहों ने मिट्टी कंकर सरकाकर कालिया को दफन कर दिया।
सारे चूहे चिन्टू की चालाकी की प्रसंशा कर रहे थे और चिन्टू को अपना राजा बना कर जय जय कार कर रहे थे।

©नृपेन्द्र शर्मा"सागर"

#कहानी/ गांव के रिश्ते

उत्तरप्रदेश का एक छोटा सा गांव है जिसमें बस दो ही विरादरी के लोग रहते हैं।
गांव में सभी भाईचारा रखते हैं सुखदुख में सभी एक दूसरे के साथी हैं।
पूरे गाँव की आबादी होगी यहि कोई सात आठ सौ।

गांव की अपनी एक पंचायत है जिसमें दोनों जाती के लोग समान संख्या में पंच हैं।
पंचायत का निर्णय किसी के भी लिए ईस्वर वाक्य होता है, जो निर्णय एक बार हो गया वह बदल नहीं सकता गांव में रहने की यही शर्त है।
गांव में चारों ओर खुशहाली है, अधिकतर लोग सब्जी उगाते हैं , बाकी अन्य अनाज ,दलहन, तिलहन आदि भी भरपूर पैदा होता है लेकिन मुख्यतः सब्जी की खेती ही प्राथमिकता होती है।

कुछ बर्ष पूर्व तक,

गांव के पूर्व में कल्लू का घर था, कुछ कच्चा ,कुछ पक्का, कल्लू एक अल्हड़, जवान और मेहनती नौजवान था।
उसकी मेहनत से इसकी फसलें गांव भर में चर्चा पाती थीं।
उसकी दुधारू भैंसे देखकर हर कोई ईर्ष्या करता था।
वहीं  गांव के पश्चिमी छोर पर घर था माधोसिंग का, कच्चा मकान, छोटा लेकिन व्यवस्थित।

माधोसिंग के पास ज्यादा जमीन नहीं थी अतः वह दूसरे किसानों की जमीनों में मजदूरी करता था।
माधोसिंग की एक बेटी थी 'नीला' अठारह उन्नीस वर्ष की, अल्हड़, बेफिक्र, हवा में बादल सी उड़ती, चिड़िया सी चहकती, सांवली, सुंदर और खूब हंसमुख थी नीला।

नीला काम मे माधोसिंग का हाथ बंटाती खुद भी खेतों में मटर तोड़ने, गाजर उखाड़ने या निराई गुड़ाई करने का काम करती थी।

आज माधोसिंग को कल्लू( कालीचरण सिंह) ने बुलाया था कुछ आलू निकालकर और मटर तोड़ कर मंडी भेजना था।

लेकिन माधोसिंग को अचानक कहीं बाहर जाना पड़ा, तो उसने नीला से कहा था कि वह जाकर मटर की तुड़ाई कर दे। बाकी आलू कल्लू खुद निकाल लेगा और माधोसिंग लौटकर मंडी छोड़ आएगा।

उछलती, कूदती, नीला जब खेतों पर पहुंची तो कल्लू खेत में दण्ड पेल रहा था, नीला उसके सामने जाकर खड़ी हो गयी।

"आज पिताजी को कहीं जाना पड़ गया तो वे तो नई आएंगे मैं फली तोड़ दूंगी तुम आलू  खोद लो", नीला जोर से बोली।

कल्लू ने मुंडी उठाकर नीला को देखा तो देखता ही रह गया, नीला का सांवरा मुखड़ा लंबे काले बाल गुलाबी होंठ, गहरी काली चमकदार आंखे, कल्लू उनमें डूबकर ही रह गया वह सब कुछ भूलकर एकटक नीला को देख रहा था।

नीला भी कल्लू को यूं बाबला हुए उसे घूरते देख शरमा गयी,उसकी  जबानी के अरमान कल्लू की इन नज़रों का अर्थ अच्छी तरह समझ रहे थे।
नीला को आज कल्लू का इस तरह सुध-बुध भूल कर उसे देखना अच्छा लग रहा था, वह खुद कल्लू के भरपूर जवान अल्हड़ रूप पर मुग्ध थी।
"क्या हुआ ऐसे क्या देख रहे हो कालीचरण??" नीला धीरे से मुस्कुरा कर बोली।

"क.. क ..कुछ नहीं नीलू , तेरे बापू कहाँ गए ? सब ठीक तो है?" 
कल्लू की आंखें अब भी नीला के मुखड़े पर ही जमी हुई थीं।

"हां सब ठीक है, बस उन्हें कुछ काम आ गया तो जाना पड़ा, तीन चार घण्टे में आ जाएंगे पिताजी।" नीलू मुस्कुरा कर बोली।

"अच्छा, फिर तू अकेली मटर तोड़ेगी?" कल्लू ने उसकी आँखों में देखते हुए पूछा।

"हां तब तक तुम आलू खोदो", नीला मुस्कुरा कर बोली।

"क्यों ना पहले हम मिलकर मटर तोड़ें, उसके बाद मैं आलू खोदूँगा तुम बीनना", कल्लू बराबर उसकी आँखों में देखते हुए बोला।

"ठीक है लेकिन ये आज तुम मुझे ऐसे क्यों घूर रहे हो जैसे पहले कभी देखा ना हो मुझे", नीलू मन ही मन खुश होते हुए बोली।

"आयें,, ह हाँ, आज तुम बहुत अलग लग रही हो नीलू,, बहुत सुंदर", कल्लू ने धीरे से कहा।

"सच??", नीलू ने शरमा कर धीरे से कहा।

"सच तेरी कसम,  आज जाने क्यों तुझे देखते रहने का मन कर रहा है नीलू", कल्लू मुस्कुरा कर बोला।

नीला और कल्लू दोनों एक साथ मटर की फलियां तोड़ने लगे जिसमें न जाने कितनी बार इनकी उंगलियां आपस में टकराई या कहो टकरायी गयीं।
और आंखे तो ऐसे चिपकी रहीं मानो बरसों की बिछड़ी हों।
नीला के बापू शाम को आये तब तक दोनों(नीला और कल्लू) आँखों ही आंखों में एक रिश्ता जोड़ चुके थे।

कल्लू ओर नीला इस एक ही मुलाकात में एक दूसरे के हो गए,ऐसा नहीं था कि दोनों पहली बार मिले थे लेकिन असज की मुलाकात ही कुछ अलग थी।
रात भर दोनों एक दूसरे के बारे में ही सोचते रहे और सुबह फिर दौड़े खेत में जहां उन्हें मटर तोड़ने की नहीं आंखे जोड़ने की जल्दी थी।

अब नीला कल्लू के अलाबा किसी ओर के खेतों में काम नहीं करती,,काम ना रहने पर भी रोज नीला कल्लू के खेतों में जाती है ,दोनों देर तक कभी अरहर तो कभी तिल की फसल से घास निकालते हैं।
आज उनके पहले मिलन को साल से ज्यादा हो गया, अब तो दबी जुबान में लोग इनकी चर्चा भी करने लगे हैं।


आज सरपंच जी ने कल्लू को बुलाया और पूछा ," कल्लू ये जो तुम्हारे ओर माधो की लड़की के बारे में फैली है क्या ये बात सच है?" 
देखो हमारा छोटा सा गांव है सभी लोगों में भाई चारे के माहौल है।
ओर फिर माधो ओर तुम तो विरादरी के भी हो तो तुम्हारा ओर नीला का रिश्ता भाई बहन से ज्यादा नहीं हो सकता मुखे यकीन है तुम गांव की परंपरा और अपनी मर्यादा का ध्यान रखोगे।

सरपंच से मिलकर लौट कर कल्लू बहुत परेशान हो गया।
क्यों वह दिल के हाथों मजबूर हुए क्यों उनका रिश्ता दोस्ती से आगे ,,,
ओर फिर अब तो ये चाहकर भी भाई बहन नहीं बन सकते, उसे याद आ गयी वह बरसात जब दोनों अरहर की घास निकाल रहे थे।
उस दिन बारिश ने इनके तन के साथ मन को भी भिगो दिया था , ये दोनों अपने प्यार में सीमाएं लांघ गए थे उस दिन।
कल्लू ने उसी दिन नीला की मांग में खेत की मिट्टी से निशानी लगा कर इसे प्रकृति को साक्षी मान कर रिश्ता मजबूत कर लिया था, और उसके बाद बारिश में भीगते हुए दोनों पिघल कर एक दूसरे में समा कर बरसात से बह गए थे।

नीला के आते ही कल्लू ने उदास होकर सारी बात उसे बतायी।
तो!! अब। क्या होगा जी?? नीला तो लगभग रोने ही लगी।।

चल,, कल्लू ने नीला का हाथ कसकर पकड़ लिया और चल दिया नीला के घर।

घर जाकर उसने माधोसिंग के पांव छूकर कहा," हम प्रेम करते हैं चाचा  विवाह भी कर लिया हमने इंदर देवता के सामने अब बस तुम इसे गांव के सामने मान लो"।
अब हमारा रिश्ता बहुत आगे बढ़ गत है चाचा, कल्लू आंखों में पानी भर लाया।

मेरे मानने से कुछ नही होगा बच्चों, हमारी पनचेत इस बात को नई मानती , गांव के सारे लड़के लड़की भाई बहन हो सके है बस बाकी कुछ नई।
सरपंच ने मुझे भी धमकी दी कि मैं अपनी लड़की को समझा दूँ, नहीं तो मुझे भी सज़ा मिलेगी।

पंचेत की नज़र में एक गांव के लोगो की शादी पाप है, ओर ऐसे पाप से गांव पे मुशीबत अस सकती है।

लेकिन चाचा हमतो गांव के अलग अलग छोर पर रहते हैं इर फिर एक ही जाती बिरादरी,,,

वो सब ठीक है बेटा लेकिन पंचेत नही मानेगी।

तो चाचा मैं गांव छोड़के शहर में?? 
नही होगा बेटा कोई नहीं मानेगा तब भी।

तू नीला को भूल जा कल्लू छोड़ दे अपनी जिद।

नही चाचा मैं पंचयात से बात करूंगा कल्लू कहकर चला गया।

पंचयात बैठी हुई थी सभी एक ही बात कह रहे थे," एक गांव के लड़के लड़की की शादी, मतलब भाई बहन की शादी मतलब महापाप।
हम गांव में ये पाप हरगिज नहीं होने देंगे, इस रक्षा बंधन को नीला पंचात के सामने कल्लू को राखी बांधेगी बस , सरपंच ने फैसला सुना दिया।

चार दिन बाद ही तो रक्षाबंधन है, कल्लू सोच रहा था इधर नीला का रो रोकर बुरा हाल था, माधोसिंग उसे समझा रहा था, पंचायत के फैसले से माधो भी दुखी था, वह कहीं न7 कहीं चाहता था कि उसकी इकलौती बेटी उसकी आँखों के सामने रहे,, ओर फिर कल्लू जैसा खुशाल मेहनती किसान उसे कहाँ मिलेगा।
लेकिन पंचयात से विरोध करके भी तो,,, माधोसिंग की आंखे गीली थीं।

हम आज रात ही गांव छोड़ देंगे चाचा कल्लू ने अपना फैसला सुनाया,, जबाब में माधोसिंग कुछ नही बोला बस उसे जाते देखता रहा।


रात को कल्लू रात भर नीलू का इंतज़ार करता रहा सड़क पर जहां से बस पकड़कर उन्हें शहर जाना था लेकिन नीलू नहीं आयी।

सुबह हो चली थी कल्लू उदास परेशान धीरे धीरे गांव लौट रहा था तभी उसे उसका दोस्त बिल्लू दौड़ता आता दिखा,, 

बो नीला,, नीला!! मर गयी रात कल्लू। बिल्लू हाँफते हुए बोला।
क्या मेरी नीलू!! कल्लू सर पकड़कर बैठ गया।

माधोसिंग जोर जोर से रो रहा था छाती पीट रहा था तभी कल्लू दौड़ता हुआ आया और माधोसिंग से लिपट कर रोने लगा,, क्या हुआ तंग चाचा नीलू को??ऐसे अचानक कैसे??

उल्टी दस्त लगे थे उसे रात भर में पेट का पानी खत्म हो गया इर दवाई इलाज न होने से मर गयी।
सरपँच ने कहा उसके चाहते पर इस वक़्त दुख नहीं बल्कि कुटिल मुस्कान थी।

चलो चलो रोने धोने से कुछ नहीं होगा लाश को ठिकाने लगाओ जल्दी पूरा गांव तब तक कुछ नहीं खायेगा जब तक इसकी चिता नहीं जलेगी।

नीलू की लाश को अर्थी में रखते समय कल्लू ने धीरे से उसकी मांग में सिंदूर लगा दिया, और श्मशान में माधो की मदद करने के बहाने अग्नि भी कल्लू ने ही,,,
कल्लू ने धीरे से अपने पति होने के कर्तव्य निभा लिए।

कल्लू ने उसके बाद शादी नहीं की, अब माधोसिंग ओर कल्लू साथ ही रहते हैं, कल्लू माधोसिंग के लिए उसका बेटा ही है।
माधोसिंग ने कल्लू को कब का बता दिया की नीलू को उस दिन किसी ने जहर,,, लेकिन दोनों पंचायत के डर से खामोश ही रहते हैं।

©नृपेन्द्र शर्मा"सागर"

#यात्रा वृतांत/ नीलकंठ की यात्रा

अगस्त, 2007 बरसात अपने पूरे यौवन पर थी बादल कई बार दिन को ही रात बनाकर खेल रहे थे।
सावन का पावन महीना था भक्त भीगते झूमते बाबा(भोलेनाथ)" को मनाने कांवर उठाये हरिद्वार से जल भरकर अपने अपने श्रद्धा धाम की और दौड़ रहे थे।
चारों और वातावरण भोले की बम से गूँज रहा था।

"सावन की शिवरात्री को क्यों ना नीलकण्ठ में जाकर जल चढ़या जाए",मैंने अपने मित्र नरेंद्र सिंह आरोलिया से कहा।
बहुत अच्छा विचार है यार चलो प्रोग्राम बनाते हैं, "कल तय करते हैं कैसे चलना है और बाकी लोगों से भी पूछ लेते हैं नरेंद्र ने कहा।

अगले दिन मैं नरेंद्र, के.के.सिंह के साथ हमारे तीन और मित्रों
का जाने का तय हुआ कि रविवार को सुबह बस पकड़ेंगे पूरा दिन हरिद्वार घूमेंगे उसके बाद शाम को निकल जाएंगे ऋषिकेश के लिए।
रात को गीता भवन में रुकेंगे वे सुबह चार बजे से नीलकण्ठ की चढ़ाई,,,

कई दिन से मौसम अमूमन साफ ही था, हमारी तैयारी पूरी थी शनिवार की शाम को ही हमने अपने बैग सही कर लिए माता जी ने पूरियां और सुखी सब्जी की सारी तैयारी कर दी , सुबह जब तक तुम नहाकर तैयार होंगे पूरी बन जाएगी माँ ने कहा।
भोलेनाथ की जय बोल कर प्रसन्न मन से शनिवार की रात को मैं सो गया।

रात कोई दो बजे बदल गड़गड़ाने की जोर की आवाजें आने लगी देखते ही देखते मूसलाधार बारिश होने लगी सुबह के पांच बजे तक चारों ओर पानी ही पानी हो गया, बारिश के रूप में जैसे भोले नाथ हमारी परीक्षा ले रहे थे हम हाथ जोड़े प्रार्थना कर रहे थे लेकिन बारिश के रूप में बाबा का क्रोध बढ़ता ही जा रहा था।

"क्या किया जाय" ?? मैंने नरेंद्र को फ़ोन किया।
नरेंद्र ओर कृष्णकुमार एक ही साथ एक मकान में किराए से रहते थे और मैं कोई दस मिनट के रास्ते पर दूसरे मकान में हम सभी किराये से रहते थे।
करना क्या है चलेंगे , सारी तैयारी पूरी है अब हम किसी भी परीक्षा के लिए तैयार हैं।

ठीक है फिर तुम सामने देखो क्या कोई बस मिलेगी काशीपुर जाने के लिए? 
हमारे बाकी तीन मित्र काशीपुर(उधमसिंह नगर उत्तराखण्ड) में रहते थे और हरिद्वार की बस हमें वहीं से मिलनी थी।

कोई बस नहीं है यार चारो तरफ घुटनो तक पानी भरा हुआ है और बारिश भी रुकने का नाम नहीं ले रही, नरेंद्र ने मुझे फ़ोन करके बताया।
फिर?? मैंने पूछा।
किसी तरह काशीपुर पहुंच जाएं फिर तो रोडवेज की बस मिल जाएगी नरेंद्र ने कहा।
ठीक है मैं बाइक लेकर आता हूँ तुम लोग निकलो मैंने अपना बैग लिया और बाइक उठा कर भोले की जय बोल कर निकल गया।

हम तीन लोग बाइक से भरी बारिश में किसी तरह काशीपुर पहुंचे कई बार तो मार्ग में इतना पानी भरा था कि बाइक का बस हैन्डल ही दिख रहा था,कितनी ही बार पानी में तैरते सांप हमारा रास्ता काट रहे थे।
हम लगातार जय भोले की बोल रहे थे।

काशीपुर पहुंच कर पाता लगा कि बाकी तीनों लोगों का प्रोग्राम कैंसिल है इतनी बारिश में उनकी हिम्मत नहीं हुई चलने की।
हमने बाइक उनके रूम पर खड़ी की ओर कभी घुटनों कभी कमर तक पानी में होकर आ गये बस अड्डे पर।

हमारे कपड़े पूरी तरह भीगे हुए थे बारिश थमने के कपि आसार नहीं थे कहीं ना कहीं मन मे ख्याल था कि कहीं हमने कोई गलती तो नहीं कि ऐसे खराब मौसम में चलने का निर्णय करके।
लेकिन मन मे एक ही भाव था कि बाबा का बुलाबा है तो सब ठीक होगा।

आधे घण्टे बाद एक बस आयी जो हरिद्वार जा रही थी उसमें आठ दस लोग बैठे हुए थे उन्हें देखकर हमे लगा कि हम अकेले नहीं है इस बरसात में सफर करने बाले।
बस में बैठकर सबसे पहले हमने कपड़े बदले, कपड़े क्या बस लुंगी और बनियान,, बाकी गीले कपड़े निचोड़ कर बस की खिड़की के सामने डाल लिए और नीलकण्ठ बाबा को याद करते उनकी जय बोलते रहे।

ठीक दस बजे हम लोग हरिद्वार पहुंच गए अब बारिश बहुत हल्की हो गयी थी हमलोग ने खुशी खुशी हर की पैड़ी पर स्नान किया गंगा मैया के मंदिर में दर्शन करके जल भरकर हम आगे चल दिये।
आगे हमने वैष्णोदेवी मन्दिर, भारतमाता मन्दिर और अन्य कई मंदिरों में दर्शन किया जो सारे एक ही रास्ते पर है हरिद्वार ऋषिकेश मार्ग पर उसके आगे शांतिकुंज है।

शाम चार बजे हम लोग ऋषिकेश पहुंच गए, रामझूला पार करके हमने वेदांतनिकेन में रहने की व्यवस्था की ओर समान रखकर घूमने निकल गए, बारिश अभी भी माध्यम गति से हो रही थी।
हमने रामझूला के पास शाम को फिर गंगास्नान किया और गंगा आरती में शामिल हुए, गङ्गा आरती बहुत भव्य तरीके से होती है बहुत मोहक दर्शय होता है।
मन आत्मा भक्ति से भर गए, मार्ग के सारे कष्ट सारी थकान मिट गई।
उसके बाद हमने चोटी बाला भोजनालय में खाना खाया और धर्मशाला आकर आराम किया।
हमारे पास पहनने के लिए एक भी सूखा कपड़ा नहीं था तो वही, लुंगी ओर कुर्ता,,,

सुबह तीन बजे उठ कर हम नित्यकर्मों से निपट कर फिर गंगा मैया के पास पहुंचे हमने गङ्गा स्नान करके सुबह ठीक चार बजे पैदल मार्ग से नीलकण्ठ की यात्रा नीलकण्ठ की जय के साथ प्रारम्भ की।

नीलकण्ठ धाम ऋषिकेश रामझूला से पैदल 16 किलोमीटर ओर मोटरमार्ग से 25 किलोमीटर की दूरी पर है।
ये स्थान "मुनि की रेती", में आता है।
मोटर मार्ग से लगातार टैक्सियाँ मिलती रहती हैं।
हमने पैदल मार्ग चुना और पूरे जोश से चलने लगे नीलकण्ठ की जय बोलते हुए।
मार्ग बहुत सँकरा और ऊबड़खाबड़ था ऊपर से लगातार होती बारिश से फिसलन भी बहुत हो रही थी फिर भी नीलकण्ठ की जय बाबा की बम के नारे और लोगों की बढ़ती भीड़ हमारे पैरों में पंख लगा रही थी।

कई जगह चढ़ाई इतनी अधिक थी कि हमारी सांस फूल जाती, ऊपर से पूरे मार्ग में पीने का पानी उपलब्ध नहीं था (पानी की बोतल साथ ले कर जाएँ)हर जगह बस जलजीरा शिकंजी कोल्डड्रिंक ही बिक रही थी।

कोई आठ बजे हम लोग मंदिर के सामने लगी आधा किलोमीटर लंबी लाइन में जा लगे मन मे बहुत प्रसन्नता थी कि अब हमें हमारे इष्ट के दर्शन होने बाले हैं।
लगातार जयकार करते भजन गाते लोग और धीरे धीरे सरकती लाइन,,,
11 बजे तक हम लोग नीलकण्ठ बाबा पर जल चढ़ा कर बाहर आ गए नीलकण्ठ धाम एक गहरी घाटी में स्थित है चारो ओर ऊंची पहाड़ियां और बीच में रख गोल घाटी बहुत सुंदर लगती है।
सावन में तो वहां इतनी भीड़ हो जाती है कि दर्शन करना मुश्किल होता है।
हमारे पूरे मार्ग में बारिश एक पल भी नहीं रुकी थी, नीलकण्ठ घाटी में ऐसे भी ज्यादा बारिश होती है।

वहाँ से हमलोग ऊपर सिद्धबाबा के दर्शन करने पहुंचे जो स्थान हनुमान जी को समर्पित है, वहाँ की चढ़ाई बिल्कुल खड़ी है, सांस फूल जाती है पहुंचते पहुंचते।

वहाँ दर्शन करके हमलोगों ने माता पार्वती के दर्शन के लिए पार्वती धाम का मार्ग लिया , पार्वती मन्दिर नीलकण्ठ से कोई चार किलोमीटर ऊपर है रास्ता ऊबड़खाबड़ ओर सँकरा था ऊपर से चढ़ाई भी अधिक थी(अब पार्वती मंदिर के दो किलोमीटर पास तक मोटर मार्ग बन गया है)
कोई दो घण्टे में हम लोग माता पार्वती के सामने थे, माता का रूप बहुत सौम्य वात्सलय है मन्दिर भी काफी बड़ा है और वहाँ पर्वत के दर्शय भी बहुत रमणीक हैं।

वहां मीठे नीम(कड़ी पत्ता) की पकोड़ी बहुत प्रसिद्ध हैं जो आपको पूरे नीलकण्ठ मार्ग में मिलेगी।
वहां से कोई दो कोलोमिटर ऊपर झिलमिल गुफा है और झिलमिल से कोई आधा किलोमीटर गणेश गुफा।
गणेश गुफा तो लगता है सीधे खड़े पर्वत में ही बनी है ।

बापसी में हमने मोटर मार्ग लिया और छः बजे तक बापस हरिद्वार पहुंच गए।
हमारी इस पूरी यात्रा में कभी भी बरसात बन्द नहीं हुई और मौसम की भयावहता ने एक पल के लिए भी हमारा ध्यान हमारे इष्ट के चरणों से हटने नहीं दिया।
रात कोई दो बजे तक हम लोग अपने घर पहुंच गए थे।

उसी बर्ष हमलोगों ने अपने खुद के मकान बनाने प्रारम्भ कर दिए थे ये हमारी उस परीक्षा का फल था।
अगली शिवरात्रि(फरवरी) हमने अपने खुद के घर में मनाई।
हम तीनों लोग अब अपने खुद के मकानों में रहते हैं।
और प्रयास रहता है कि बर्ष में एक बार बाबा नीलकण्ठ का धन्यवाद करने उनके धाम पर सर अवश्य झुका आएं।
इस यात्रा को हम कभी नहीं भूलेंगे बहुत अविस्मरणीय यात्रा थी वह।

बहुत शक्ति है नीलकण्ठ बाबा की , जो मांगो मिलता है बस भक्ति अच्छी और श्रद्धा सच्ची होनी चाहिए।
बोलिये नीलकण्ठ बाबा की जय।
नृपेन्द्र शर्मा

#कहानी/ मूर्ति

आज फिर खाना नहीं बना फूलो?? हारा थका लालू झोंपड़ी के बाहर ठंडे चूल्हे को गीली आंखों से देखता हुआ बोला।

कहाँ से बने कित्ते दिन है गए तुम कुछ लाये कमा के फूलो तुनकती हुई बोली।
क्या करूँ फूलो आजकल मूर्ति बनती ही नहीं ठीक से कई पत्थर टूट जाते हैं कुछ मूर्ति बनत भी है तो उसमें सुघड़ता नई आबे।
अब बता मेरा क्या दोष है मैं तो सुबह से शाम लगा देता हूँ मूर्ति गढ़ने में, लालू दीवार का सहारा लेकर जमीन पर बैठते हुए बोला।
लालू  35-40 साल का कृषकाय युवक है जिसकी आंखे पीली होकर गढ्ढे में धंस गयी हैं, वह मंदिर से कुछ दूर पत्थर की मूर्ति बना कर बेचता है, फूलवती उसकी पत्नी है, उसे भी जीर्णता ने बेरंग बना दिया है कभी उसे देखकर लालू कहता था, "मेरी फूलो भगवान की बनाई सबसे सुंदर मूर्ति है" और आखिर हो भी क्यों ना मैं भी तो उस भगवान की इतनी सुंदर मूर्तियां गढ़ता हूँ, ना जाने कितने मंदिरों में मेरी बनाई मूर्ति की पूजा होती। लालू गर्व से कहता तभी तो उसने मेरे लिए संसार की सबसे सुंदर मूर्ति बनाकर भेजी, और फूलो शर्म से लाल होकर उसमे समा जाती।

लालू की बनाई सुंदर मुर्तिया अच्छे पैसे में बिकती थी घर ठीक ठाक चल रहा था लेकिन कुछ दिन से मंदिर के आस पास प्लास्टर ऑफ पेरिस से मूर्ति बनाने वाले लोग आ गए उनकी बनाई मूर्ति देखने में सुंदर बजन में हल्की ओर कीमत में आधी से भी कम, अस्तु लालू के काम पर इसका बुरा असर हुआ, उसकी बनाई मूर्ति की बिक्री घट कर ना के बराबर हो गयी।
काम मन्द होने से घर में भुखमरी के हालात बनने लगे,उसी बीच फूलो को दो बार बच्चा हुआ लेकिन कुपोषण ओर कमजोरी के चलते दोनों बार मोत उन्हें अपने साथ ले गयी और उसके बाद तो डॉक्टर ने उन्हें मना कर दिया कि अब अगर बच्चा हुआ तो फूलो की जिंदगी बचाना मुश्किल हो जाएगा।

कोई बात नहीं फूलो ऐसे भी हम बच्चों को हैब खिला पिला नहीं सकते तो हमें उन्हें दुनिया में लाना भी नहीं चाहिए और फिर अबतो उस ऊपर बाले की भी यही इच्छा है। लालू ने फूलो को सीने से लगा कर प्यार से समझाया था।
फूलों ने भी दिल पर पत्थर रख इसे अपनी किस्मत मान लिया था।

लेकिन आज तीन दिन से लालू एक भी मूर्ति बेच नहीं पाया है  घर में  अनाज का दाना तक नहीं है लालू इतना कमजोर हो रहा है कि पत्थर तराशने जैसा बारीक काम उसके लिए असम्भव हो चला है, आज फूलो पहली बार दुखी और बराज होकर बोली," अरे मन्दिर के बाहर बैठा भिखारी भी कभी भूखा नहीं सोता, तुम तो उसकी मूर्ति बनाते हो जिनमे लोग इसके दर्शन करके उस भगवान की पूजा करते हैं।
जाने क्या माया है तुम्हारे भगबान की जो एक उसके नाम पर मांग खाता है और जिसकी बजह से लोग उसका नाम बार बार लेते हैं वो मूर्ति बाला भूखा सोता है, बन्द करो तुम भी ये मूर्ति का काम अरे इससे तो अच्छा दोनों भीख ही मांग खाये, फूलो की आंखों से आंसू बहने लगे आज वह जी भर कर भगवान को कोस रही थी जो मन में आ रहा था बुरा भला कह रही थी।
और लालू हाथ जोड़े बस एक ही प्रार्थना कर रहा था कि हे मालिक ये नहीं जानती की कितनी चोटें खाकर एक पत्थर मूर्ति बन पाता है अगर ऐसे दुख पीड़ा से टूट जाये तो उसकी किस्मत सड़क की कंकर बनकर रह जाती है ,मैं जानता हूँ प्रभु ये हमारी परीक्षा है और तूने जरूर हमारे लिए कुछ अच्छा सोच रखा होगा, उसे विस्वास था कि भगवान फूलो की गलती को माफ करेगा और उनका जीवन एक दिन ज़रूर बदलेगा।

इसी प्रार्थना में लालू को कब नींद आयी उसे पता भी नहीं चला उसकी नींद खुली एक तेज़ आवाज से जो उसकी झोपड़ी का दरवाजा जोर जोर से पीटने से आ रही थी।

लालू जल्दी से उठ कर बाहर आया बाहर दो बड़ी बड़ी गाड़ियां खड़ी थीं और कुछ लोग  उसके सामने खड़े थे।

जी मालिक??लालू डरा सहमा हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।
तुम्ही मूर्तिकार हो? उनमें से एक नए पूछा।

जी सरकार मैं ही हूँ।

सेठजी एक बड़ा मंदिर बना रहे हैं उसमें बीस पच्चीस मूर्तियां बनानी हैं बना लोगे?उस व्यक्ति ने पूछा।

जी मालिक हो जाएगा।
ठीक है चलो हमारे साथ, इस बार सेठजी ने कहा।
वो हुजूर मेरी पत्नी?? लालू ने कुछ बोलना चाहा।

आप दोनों के रहने खाने का इंतज़ाम मंदिर के पास ही रहेगा ये लो कुछ रुपये ओर हमारा पता तुम लोग एक हफ्ते में यहाँ से कम खत्म करके आ जाना, कहकर ये लोग चले गए।
लालू हाथ जोड़े देर तक उन्हें जाते देखता रहा।

ये ले फूलो पूरे पांच हजार रुपए हैं , जब पेशगी इतनी बड़ी है तो कम कितना बड़ा होगा सोच।
आज भगवान ने तेरी सुन ली भगवान चल अब चलने की तैयारी कर, मैं बाजार से कुछ खाने पीने का सामान लाता हूँ तू ये पैसे सम्भाल।
कहकर लालू तेज़ी से निकल गया, और फूला भगवान के सामने आंसू बहाती बैठी अपनी गलतियों के लिए प्रयाश्चित करती उनकी कृपा के लिए धन्यवाद देने लगी।

आज उसे समझ आ गया था कि पत्थर को मूर्ति बनने के लिए कुछ चोट साहनी ही पड़ती हैं।

©नृपेन्द्र शर्मा "सागर"