Tuesday, April 13, 2021

दुल्हन

शीर्षक:- दुल्हन

मेहँदी भरे रचे हाथ
और किये सोलह सृंगार।
मन में उथल-पुथल कि जाने कैसा होगा ससुराल।।

नाजुक मन है, नाजुक तन है,
और है दिल में भाव अपार। 
क्या सास -ससुर दे पाएंगे,
अम्मा -बाबा जैसा प्यार।।

लाल परिधानों से सजी, 
और लज्जातुर कपोल भी लाल।
अभी उम्र बीती ही कितनी,
यही कोई साढ़े उन्नीस साल।।

कहाँ फिक्र थी उसे किसी की,
रही खेल खेलने में व्यस्त। 
लेकिन आज बना कर दुल्हन,
उसे बना डाला वयस्क।।

नए लोग और नए नातों की,
मर्यादा समझती माँ।
आज उम्मीदों से भी बढ़कर, 
कुछ ज्यादा समझाती मां।।

लेकिन मन से अभी बालपन,
गया कहाँ वह सोच रही है।
अपने अंदर भी एक माँ को, 
आज बेचारी खोज रही है।।

दुलहन बनकर अब आ पहुंची,
एक नए घर आँगन में।
ज्यूँ अम्बर से बिछड़ के पानी, 
वह जाता है सावन में।।

नज़र झुकाये तौल रही है, 
अपने दोनों आंगन को।
एक छोड़ दूजे में आई,
जग की रीत निभाने को।।

खोज रही कोई परिचित चेहरा,
नए लोगो की भीड़ में।
जोड़ रही खुद ही को उनसे,
सम्मान की उम्मीद में।।

साँझ हुई और हुआ अंधेरा, 
पिया मिलन की बेला आई।
भूल गई सब बातें दुल्हन, 
जब साजन ने गले लगाई।।

सुबह पिया संग इसका नाता,
 जन्म-जन्म का जुड़ा हुआ। 
जैसे पाकर प्यार की वर्षा, 
पुष्प हृदय का खिला हुआ।।

दुल्हन बनकर अब सब नाते,
निभा रही है तन मन से।
प्रेम विभल है प्रेम रंगी वह, 
खुश है संग में साजन के।।

याद मायके की आती है,
लेकिन केवल यादों में।
दुल्हन अब गृहणी बनकर,
व्यस्त है घर के कामों में।।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"

Saturday, February 27, 2021

प्रेमिका या दोस्त

प्रशांत पत्नी से लड़कर भुनभुनाता हुआ ऑफिस के लिए निकला। ऐसे तो ये उसका रोज का काम था, पत्नी से झगड़ना उसे मारना-पीटना और गन्दी गालियाँ देना।

शादी के कुछ ही महीनों बाद प्रशांत को साँवली सुधा नापसन्द आने लगी थी। प्रशांत अब सिर्फ उसकी कमियाँ ही ढूंढता रहता था; कभी खाने में कभी कपड़ों में और कभी उसके उठने-बैठने, हँसने-बोलने में।


सुधा ने कई बार प्रशांत के उस दुर्व्यवहार की शिकायत अपने घर में भी की थी लेकिन हर बार उसकी माँ और भाई उसे यही कहते कि, "ससुराल में थोडा तो एडजस्ट करना ही पड़ता है। अब तो तेरा वही घर है और समय के साथ सब ठीक हो जाएगा।" सुधा हमेशा ये सुनकर चुप हो जाती।


अब प्रशांत और सुधा घर से दूर दूसरे शहर में किराए के फ्लैट में रह रहे थे, क्योंकि प्रशांत का ट्रांसफर अब हेड ब्रान्च में हो गया था। पहले घर पर तो प्रशांत अपने मम्मी-पापा के सामने थोड़ा कम ही झगड़ता था, लेकिन जब से वह सुधा को लेकर यहाँ आया था उसका लगभग रोज़ ही सुधा से किसी न किसी छोटी-मोटी बात को लेकर झगड़ा होता ही था। जो छोटी बात से शुरू होकर सुधा के मायके वालों को गाली देते हुए दहेज़ के तानों पर खत्म होता।



जैसे की उस दिन, "तुम्हारे घर वालों ने मेरी किस्मत फोड़ दी एक तो बदसूरत लड़की से शादी कर दी ऊपर से दिया ही क्या है तेरे घर वालों ने।" और फिर गाली देते हुए घर से निकल गया।


अभी प्रशांत लिफ्ट से बाहर निकल ही रहा था कि वह उसके सामने एक बहुत सुंदर लड़की आ गयी झट से... वह तो सब कुछ भूलकर बस उसे देखता ही रह गया।


लंबी, गोरी, स्लीवलेस पिंक कलर की टॉप, ब्लैक मिनी स्कर्ट और पैरों में भी ब्लैक सैंडल पहने लहराती हुई सी..

प्रशांत की आँखें जैसे ही उसकी आँखों से मिलीं वह लड़की हल्का सा मुस्कुरा दी और प्रशांत को एकटक कुछ देर देखकर झटके से मुड़कर जाने लगी।


"हे… हएल्लो…!!", प्रशांत ने न जाने कैसे अटकते हुए उसे आवाज लगाई।


"यस..आपने मुझसे कुछ कहा मिस्टर…..?", लड़की ने पलटकर मुस्कुराते हुए सुरीली आवाज की खनक बिखेरी। उसका अंदाज़ कुछ ऐसा था जैसे परिचय पूछ रही हो।


"ज….जी माय सेल्फ प्रशांत.. यहीं फोर्थ फ़्लोर में रहता हूँ, आप?", प्रशांत ने भी सवालिया नज़रों से देखते हुए कहा।


"मैं हनी.. यहाँ नहीं रहती... , लेकिन रहना चाहती हूँ!", लड़की ने बायीं आँख धीरे से दबाते हुए मुस्कुरा कर जवाब दिया और अचानक खिलखिला कर हँसने लगी।


उसकी इस हरकत से प्रशांत झेंप गया और झपट कर स्टैंड से अपनी बाइक निकाल कर ऑफिस के लिए निकल गया।


एक सप्ताह बाद फिर प्रशांत ऑफिस के लिए निकलते समय उस लड़की (हनी)  से टकरा गया। उसे देखते ही प्रशांत एक दम से खिल उठा। वह भूल गया कि अभी-अभी वह बेचारी सुधा को गालियां देते हुए बेल्ट से पीटकर आया है।


"हेल्लो.. हनी जी, कैसे हैं आप?", प्रशांत ने मुस्कुराते हुए पूछा।


"जी सर हम तो ठीक हैं! आप अपनी सुनाइये?", हनी ने मुस्कान होंठों पर सजाते हुए बेधड़क हाथ प्रशान्त की तरफ बढ़ा दिया जिसे प्रशांत ने नदीदों की तरह दोनों हाथों में लपक लिया और उसके हाथ को पकड़ कर बूत सा जम गया जैसे हनी ने मन ही मन उसे स्टैच्यू बोल दिया हो और वह उसके ओवर बोलने का इंतजार कर रहा हो।

हनी का नर्म नाजुक गोरा हाथ उसे अपने हाथों में किसी गुनगुने स्पंज के होने का सुख दे रहा था। प्रशांत का खून हनी के हाथ की उस गर्माहट को प्रशांत के दिल तक बड़ी तेजी से ले जा रहा था तभी,

"अब छोड़िये भी सर हमें भी काम पर जाना है", ये शहद में लिपटा हुआ वाक्य प्रशांत के कानों में पड़ा।

और उसने शर्मिंदा होते हुए धीरे से अपने हाथ खींच लिए।

हनी अपनी मुस्कान को मधुर हँसी में बदलती हुई आगे बढ़ गयी और प्रशांत उसके नज़रों से ओझल होने तक उसके बैक पर नजरें गढ़ाए रहा।

आज हनी ने टाइट येल्लो जीन्स और ब्लैक टीशर्ट पहनी थी।


अब दिन प्रति दिन प्रशांत का सुधा के साथ झगड़ा बढ़ता ही जा रहा था। वह हर समय उसे गन्दी गालियां देकर बात करता और बिना वजह भी उसपर हाथ उठा देता।

सुधा को कुछ समझ नहीं आ रहा थी कि प्रशांत का ये व्यवहार क्यों है।

"क्या असली वजह दहेज है या सुधा की सुंदरता??", लेकिन सुधा तो बदसूरत बिल्कुल भी नहीं है। माना उसका रंग थोड़ा दबा हुआ है, तो क्या हुआ सुधा के नयन-नक्श उसे किसी फिल्मी हीरोइन से कहीं कम नहीं रखते।

कॉलेज में सारी सहेलियां कहती थीं कि "सुधा तू बिल्कुल मधुबाला जैसी दिखती है, देखना कोई राजकुमार खुद तेरा हाथ माँगने आएगा।"


उनकी बात सुनकर सुधा हमेशा आत्ममुग्ध हो जाती और अपने भावी राजकुमार की छवि अपने विचारों से हृदय में बनने लगती।

सुधा पढ़ने-लिखने में हमेशा बहुत तेज़ थी उसने अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र से परास्नातक की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में पास की थीं।

सुधा हमेशा टीचर बनना चाहती थी लेकिन… अब शादी के बाद उसके सारे सपने ही धूल में मिल गए थे।

सुधा जब भी प्रशांत से किसी स्कूल में टीचर की जॉब की बात करने जाने को कहती प्रशांत उसे बुरी तरह पीटता और उसके चरित्र को लेकर झूठे लांछन लगाता।


सुधा अब बहुत परेशान हो गयी थी। उसने अपनी मम्मी को सारी बात बताकर कहा कि अब वह और प्रशांत के साथ नहीं रह सकती वह तलाक चाहती है। तो उसकी मम्मी ने उल्टा सुधा को ही डाँट दिया कि, "दिमाग तो ठीक है तेरा? तलाक लेकर खानदान के नाम पर कालिख मलेगी!! अरे लोग क्या कहेंगे.. तेरे बाप दादा ने जो इज़्ज़त कमाई है उसे मिट्टी में मिला दे तू। देख सुधा हम लोग गरीब ज़रूर हैं लेकिन हमारे पास समाज में नाम और सम्मान की दौलत बहुत है। तो हम पर थोड़ा रहम कर बेटी: हमसे हमारी ये दौलत मत छीन। तलाक लेने की बात मुँह से फिर मत निकालना।

अब सुधा ने घर पर फोन करना भी बंद कर दिया था। बस अंदर ही अंदर घुट रही थी और रो रही थी।


सुधा और प्रशांत के बीच दुश्मनी के अलावा अब कुछ नहीं था। दो ऐसे दुश्मन जो एक ही घर में रह रहे थे। और जब कोई सम्बन्ध ही नहीं था तो बच्चा…!! फिर इन दोनों के बीच की मिसिंग कड़ी को जोड़ता भी तो कौन?


इधर पिछले पंद्रह दिन से प्रशांत को हनी कहीं नजर नहीं आयी थी।

प्रशांत का मन ना जाने क्यों अशांत था, वह हनी को देखना चाहता था। हालांकि इनके बीच कभी हाय; हेल्लो से ज्यादा कुछ नहीं हुआ था लेकिन प्रशांत अक्सर हनी के सपने देखने लगा था। वह उसकी अदाओ उसकी खूबसूरती का दीवाना होने लगा था।

वह ना जाने क्यों उसका इंतजार करने लगा था।

शायद इसी झुंझलाहट को वह सुधा पर निकाल कर धड़धड़ाते हुए घर से निकला तो देखा कि हनी बाइक स्टैंड पर ही स्कूटी पार्क कर रही थी।

उसे देखकर प्रशांत की आंखों में चमक आ गयी।

वह तेज़ कदमों से स्टैंड की ओर बढ़ा और प्रशन्नता भरी आवाज में बोल, "हाय हनी कैसे हो? कई दिन दिखे नहीं?"


"हेल्लो मिस्टर प्रशांत, मैं अच्छी हूँ.. आप कैसे हैं?", हनी ने जवाब के साथ ही सवाल किया।


"हम भी ठीक हैं जी।", प्रशान्त ने मुस्कुराते हुए कहा।


"अरे… वो क्या है ना मैं एक एन. जी. ओ. में सर्वे मैनेजर की जॉब करती हूँ तो अलग अलग जगहों पर जाना होता रहता है " हनी ने प्रशांत से हाथ मिलाते हुए कहा। और जब हनी ने प्रशांत का हाथ छोड़ा तो उसके हाथ नें छूटा था एक चमकता हुआ कार्ड जिसपर किसी एन. जी.ओ. के नाम के नीचे हनी माथुर लिखा था और नीचे एक मोबाइल नम्बर।

कार्ड देखकर प्रशांत की आंखों में चमक आ गयी और वह थेंक्स बोलकर अपनी बाइक निकालने लगा।


शाम को ऑफिस से लौटकर फ्रेस होने के बाद प्रशांत ने कार्ड निकाला और उसपर लिखा नम्बर डायल कर दिया..

"हेल्लो.. कौन?" उधर से सुरीली आवाज आई।


"जी मैं प्रशांत..! सुबह आपने कार्ड दिया था ना वाटिका पैलेस के सामने।", प्रशांत ने आवाज में मिश्री घोलते हुए कहा।


"ओह्ह!! आप! कैसे हैं आप? अच्छा अभी मैं थोड़ा बिजी हूँ तो क्या हम रात में बात करें?" कहकर हनी ने कॉल कट कर दी।


अब प्रशांत बेसबरी से रात होने का इंतज़ार करने लगा। उसके दिल में बार-बार हनी के ख्याल आ रहे थे और उसके कानों में हनी की हँसी की खनकती आवाज गूंज रही थी।


रात को कोई 9 बजे प्रशांत ने हनी का नम्बर डायल किया और दो रिंग के बाद कॉल कट कर दी।

सुधा और प्रशान्त तो हमेशा अलग ही सोते थे तो उसे कुछ पता चले इसकी सम्भावना नहीं थी। ऐसे भी प्रशांत को सुधा के होने ना होने से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था।


प्रशांत को पता था कि हनी ने उसका नम्बर जरूर सेव किया होगा, तो अब बस उसे इंतज़ार था उसकी मिस्डकॉल के रिप्लाय का।


कोई 20 मिनट बाद प्रशांत का फ़ोन बजा।  उसने डिसप्ले पर नम्बर देखा तो उसके दिल की धड़कने अनायास ही बढ़ गयीं, नम्बर हनी का ही था।

प्रशांत ने काल रिसीव करके कान से लगाया और धीरे से धड़कते दिल से हेल्लो बोला।


"हेल्लो, प्रशांत जी कैसे हैं आप?" उधर से खनकता धीमा स्वर उसके कानों में पड़ा।


"जी मैं अच्छा हूँ हनी जी, आप कैसे हैं?" प्रशांत ने स्वर में मिश्री घोलते हुए कहा।


"फिट एन्ड फाइन.. बोले तो एकदम मस्त!!" उधर से हनी की जोर से हँसने की आवाज आने लगी।

उझसे प्रशांत कुछ झेंप सा गया और चुप होकर उसकी हँसी सुनने लगा।


"अच्छा प्रशांत जी कोई काम था आपको?" हनी ने गम्भीर होकर सवाल किया।


"तो क्या मैं बिना काम के आपको कॉल नहीं कर सकता? क्या कोई काम होगा तभी आप बात करोगे हनी जी?" प्रशांत अचकचाते हुए हड़बड़ी में बोल गया।


"अरे नहीं जनाब ऐसा कुछ नहीं है, आप बिलकुल कर सकते हैं। आखिर हम मित्र हैं अब। लेकिन मुझे लगा कि आप बार-बार… कोई बेमतलब तो ऐसे किसी अजनबी को कॉल..!" हनी ने चिरपरिचित मधुरता के साथ जवाब दिया।


"क्या कहा आपने?? मित्र!!, तो क्या हम सच में मित्र हैं हनी जी? मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा कि इतनी खूबसूरत लड़की मेरी मित्र हैं।" प्रशांत एकदम खुश होते हुए बोला।


"हाँ हम दोस्त हैं अब सीरियसली, और आप अब मुझे हनी कह सकते हैं। ये जी का तकल्लुफ मुझे अच्छा नहीं लगता 'प्रशांत' बड़ा पराया सा लगने लगता है।" उधर से हनी की गम्भीरता भरी आवाज आयी।


"ठीक है ठीक है 'हनी'... कितना मीठा लगता है ना? अच्छा और बताओ, अब हम दोस्त हैं तो क्या इस दोस्ती की कोई लिमिट्स भी हैं? आयी मीन हमारी फ़्रेंडशिप में कोई लिमिट्स...??" प्रशांत ने धीरे से पूछा।


"कोई लिमिट्स नहीं हैं प्रशांत, लेकिन बस मर्यादित रहते हुए किसी भी लिमिट तक जा सकती है ये दोस्ती। क्योंकि मुझे नहीं पसन्द की कोई भी दोस्ती के नाम पर मुझसे फिजिकली…!! आयी होप की आप मेरी फीलिंग्स समझते हुए मुझे असुरक्षित फील नहीं होने दोगे।" उधर से हनी की बहुत गम्भीरता भरी आवाज आयी।


"मैं समझ गया हनी, आपकी इज्जत मेरी इज़्ज़त। आपको कभी भी शिकायत का मौका नही दूँगा।" प्रशांत ने कहा और दोनों हँसने लगे।


अब प्रशांत का ये रोज का काम हो गया था रात को आधी-आधी रात फोन पर हनी से बात करना। कई बार तो दिन में ऑफिस से भी वह हनी को कॉल कर लेता था।

छुट्टी के दिन तो दिन भर प्रशांत और हनी फोन पर बिजी रहते थे।


आजकल प्रशांत को सुधा से कोई मतलब नहीं था, वह उससे कोई भी बात नहीं करता था। उसे तो फुर्सत ही नहीं थी हनी के अलावा कुछ सोचने की.. कुछ करने की।

और इसी के चलते आजकल सुधा उसके कहर से बची हुई थी।


अब प्रशांत और हनी रेस्टोरेंट, पार्क के अलावा अन्य एकांत स्थानों पर भी मिलने लगे थे।

एक अनजाना अनकहा प्रेम सम्बन्ध सा इन दोनों के बीच स्थापित हो गया था।


शाम का समय था, प्रशांत ऑफिस से निकलकर सीधा शहर से बाहर गार्डन की तरफ़ आ गया था जहाँ हनी उसका इंतजार कर रही थी।

इन दोनों की आँखे जब मिली तो दोनों के चेहरे खिल उठे।

"आ गए आप!"  हनी ने मुस्कुराते हुए कहा और अपना हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया।

प्रशांत ने हनी का हाथ पकड़ा और दोनों हाथ में हाथ डाले बगीचे के अंदर चले गए। बगीचे में अन्य प्रेमी जोड़े भी हाथों में हाथ डाले या तो घूम रहे थे या बैठे हुए थे।


ये दोनों भी एक सुरक्षित एकांत देखकर घास पर बैठ गए। प्रशांत रास्ते से कुछ अंगूर खरीद लाया था तो उसने वे निकालकर सामने रख लिए, "लो हनी इन्हें अपने होंठों से छूकर और मीठा कर दो।" प्रशांत ने बहुत मधुर आवाज में एक अदा के साथ कहा और हनी ने मुस्कुराते हुए एक अंगूर उठा कर अपने दांतों में दबा लिया।


दोनों कुछ देर चुपचाप एक दूसरे की आंखों में देखते हुए अंगूर खाते रहे।


"क्या देख रहे हो ऐसे? ऐसे करोगे तो प्यार हो जाएगा आपसे।" हनी ने मुस्कुराते हुए नज़र झुका कर कहा।


"अभी तक नहीं हुआ क्या?" प्रशांत धीरे से बोला और फिर हनी की आंखों में देखने लगा।

हनी अब चुप थी।


कुछ देर बाद प्रशांत धीरे से बोला, "आयी लव यू हनी"

"क्या!! क्या कहा आपने…? सोच लो मिस्टर आप शादीशुदा हो।" हनी ने हँसते हुए कहा।


"तो क्या हुआ हनी प्यार तो प्यार है अब हो गया तो हो गया बस। अगर आपको मंजूर नहीं तो कोई बात नहीं!" प्रशांत ने उदास होकर कहा।


"अरे बाबा टाँग खींच रही हूँ.. ऐसे उदास मत हो।" हनी जोर से हँसते हुए बोली।


"अच्छा जी..फिर ठीक है आयी लव यू।" प्रशांत ने फिर कहा और हाथ हनी की तरफ बढ़ाने लगा।


"प्यार तो ठीक है प्रशांत जी लेकिन ये टच नहीं प्लीज़, इसके लिए आपको अपनी पत्नी से तलाक लेकर मुझसे शादी करनी होगी।" हनी ने बहुत गम्भीर होकर कहा।


"बस इतनी ही बात ना..? मेरा तो सुधा से ऐसे भी पति पत्नी जैसा कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं जल्दी ही वकील से मिलकर उसे तलाक दे दूँगा।" प्रशांत ने अंदर से खुश होते हुए जवाब दिया।


"फिर ठीक है प्रशांत जी, हमारा प्यार मंजिल पा जाएगा उसके बाद, अब हमें चलना चाहिए।" हनी ने उठते हुए कहा।


"मम्मी प्रशांत अब मुझे तलाक़ दे रहे हैं, अब मैं क्या करूँ?" सुधा रोते हुए अपनी मम्मी से फोन पर बात कर रही थी। तलाक का कानूनी नोटिस उसके सामने पड़ा हुआ था जो सरकारी डाक से कुछ देर पहले ही आया था।


"अब बेटा हम तो समझा ही सकते हैं इसके अलावा हम क्या कर सकते हैं। हम एक बार बात करेंगे दामाद जी से।" सुधा की माँ ने असहाय भाव से कहा। और सुधा फोन रखकर देर तक रोती रही। प्रशांत उसे रोते देखकर घर से बाहर निकल गया।



"आज मैंने अपने लॉयर से मिलकर सुधा को डिवोर्स जा नोटिस भेज दिया अब जल्दी ही मुझे उससे तलाक़ मिल जाएगा और हम दोनों हमेशा के लिए एक हो जाएंगे।" प्रशांत ने खुश होते हुए हनी को बताया।


"लेकिन इसमें तो छः से सात महीने लग जाएंगे क्योंकि कोर्ट ऐसे सीधे तलाक नहीं मंजूर करती। पहले कुछ समय साथ रहने को देती है।", हनी ने धीरे से कहा।


"हाँ लेकिन अगर सुधा भी राजी हो जाये तब कुछ कंपनसेशन के साथ हमें तलाक जल्दी भी मिल सकता है।" प्रशांत ने वकील का सुझाया रास्ता हनी को बताया।


"फिर आप सुधा से प्यार से पूछो की उसे क्या चाहिए और मनाकर जल्दी से इस मैटर को सॉल्व करो।" हनी ने उतावलेपन से कहा।


"ठीक है माई लव मैं पूछता हूँ उससे।" प्रशांत ने कहा और कुछ सोचने लगा।


आजकल प्रशांत सुधा से बहुत प्रेम से पेश आ रहा था वह ना उसे मरता पीटता और ना ही गालियां देता।


प्रशांत सुधा का नॉर्मल मूड देखकर बहुत मीठी आवाज में बोला, "देखो सुधा मुझे लगता है कि हम लोग साथ में कभी खुश नहीं रह पायेंगे, तो क्यों ना हम दोनों आपसी रजामंदी से अलग हो जाएं। इससे हमारा समय भी बचेगा और पैसा भी जो अदालत में खर्च होना है। मैं समझता हूँ कि आगे तुम्हे भी सैटल होने के लिए समय और पैसा चाहिए होगा तो तुम एक दो दिन में सोच समझकर मुझे बता दो की तुम्हे क्या चाहिए। और हाँ हम आगे से दोस्तों की तरह रह सकते हैं। तुम कभी भी अपनी कोई भी जरूरत मुझे कभी भी बता सकती हो।"


"ठीक है।" सुधा ने गहरी उदासी से भरी आवाज में कहा।


दो दिन में कमसे कम दस बार सुधा अपने मायके फोन कर चुकी थी। उसके भाइयों ने उसकी मदद करने से साफ मना कर दिया था और उसकी माँ ने अपनी बेटों पर आश्रिता होने की मजबूरी बता कर बात टाल दी थी। तो सुधा ने उन्हें याद दिलाया कि अब तलाक वह नहीं ले रही बल्कि प्रशांत उसे तलाक दे रहा है, तो क्या अब समाज में उसके परिवार का सम्मान सुरक्षित रहेगा। क्या समाज ये भी नहीं पूछेगा की आप लोगों ने अपनी बेटी के बुरे समय में उसका साथ क्यों नहीं दिया तो उसकी माँ ने फोन काट दिया था।

और अब मायके में उसका फोन ही नहीं उठ रहा था।

सुधा अब सब तरफ से निराश थी।


सुधा कोई आधे घण्टे से किसी से फोन पर बात कर रही थी, उसके चेहरे पर छिपी हुई मुस्कान थी लेकिन बाहर से वही उदासी जिसमें बनाबटी नकलीपन की हल्की रेखाएं अपनी झलक दिखा रही थीं।


तभी प्रशांत कहीं से गुनगुने हुए आया और उसकी आहत सुनकर सुधा ने फोन रख दिया।


"तो क्या सोचा तुमने सुधा?" प्रशांत ने धीमी आवाज में मधुरता लाते हुए पूछा।


"देखिए अगर हमारा तलाक कोर्ट से होता है तो आपको मुझे हर महीने गुजरा भत्ता देना होगा जो आपकी सैलेरी का यही कोई बीस पर्सेंट तक हो सकता है। और ये आपको हर महीने मुझे तब तक देना होगा जब तक मैं दूसरी शादी नहीं कर लेती। और अब जीवन में शादी करने का मेरा कोई विचार नहीं है।" सुधा सधी आवाज में धीरे से बोली।


"हाँ हो सकता है", प्रशांत ने उसकी बात सुनते हुए कहा।


"और ये भी तब होगा जब मैं तलाक के लिए मान जाऊं। और अगर मैं भी केस चलाऊं तो इस तलाक में वर्षों भी लग सकते हैं।" सुधा ने अब कुछ अर्थपूर्ण स्वर में कहा।


"तो क्या तुम मुकदमा लड़ने वाली हो?" प्रशांत ने चौंकते हुए कहा।


"नहीं!! मैं तो बस ये कह रही हूँ कि आप अपनी बस पर्सेंट सैलेरी का हिसाब लगाकर मुझे दस साल के पैसे इकट्ठा देकर मुझसे अलग हो जाएं और जियें अपनी जिंदगी। मैं उन बीस लाख रुपयों से अपनी जिंदगी आसानी से जी लूंगी।" सुधा ने मुस्कुराते हुए कहा।


"ठीक है मैं सोचकर बताऊँगा।" प्रशांत ने कहा और बाहर चला गया।


"ठीक ही तो कह रही है सुधा। और फिर सोचो ये अदालतों के चक्कर काटने और फिर कानूनन बिना उसकी मर्जी के तलाक लेते लेते हम बूढ़े हो जाएंगे।" प्रशांत की सारी बात सुनकर हनी ने कहा।


"तो क्या मैं उसे बीस लाख रुपये?" प्रशांत ने कुछ सोचते हुए सवाल सा किया।


"अरे डार्लिंग ये तो हमारे प्यार के आगे बहुत छोटा सा अमाउंट है। मैं अब आपसे अधिक दूर नहीं रह सकती। जल्दी और जैसे भी हो सुधा से वह घर खाली करवाओ। मैं कब से वहाँ रहना चाहती हूँ।" हनी ने उसके गले में बाहें डालते हुए कहा।


बीस लाख रुपये का चेक प्रशांत अदालत के माध्यम से सुधा को दे चुका था। सुधा ने शर्त रखी थी कि पैसे उसके खाते में ट्रांसफर होते ही वह तलाक के कागजों पर अदालत के सामने दस्तख़त कर देगी और फिर हमेशा के लिए प्रशांत और सुधा के रास्ते अलग हो जाएंगे।


आज सुधा और प्रशांत दस्तखत करके अदालत से बाहर निकले तो सामने हनी माला लेकर खड़ी थी।


उसे देखकर प्रशांत बहुत खुश हुआ और झपट कर आगे बढ़ा लेकिन हनी उसे नज़रंदाज़ करती हुई सुधा की ओर बढ़ चली।


"आज़ादी मुबारक हो सुधा।" हनी सुधा के गले में फूल माला डालकर हँसते हुए बोली और कसकर उसके गले लग गयी।


प्रशांत दूर खड़ा आँखें फाड़े उन दोनों को देख रहा था।


"अरे प्रशांत जी.. इससे मिलो, मेरे बचपन की सहेली एडवोकेट 'मधुबाला' इस मामले में इसने मेरी बहुत हेल्प की नहीं तो मैं तो अभी भी तुम्हारी गालियाँ और मार खा रही होती।" सुधा मुस्कुराते हुए बोली।



"लगता है तेरे पति.. आयी मीन एक्स हसबैंड को अभी भी कुछ समझ नहीं आया। ठीक है माय डार्लिंग प्रशांत मैं आपको समझाती हूँ।

वो क्या हुआ ना एक दिन मार्केट में अचानक सुधा से मेरी मुलाकात हो गयी जहाँ इसने मुझे तुम्हारे जुल्मों की दास्तां और अपने परिवार की बेरुखी की कहानी सुनाई। और बस फिर क्या था मैंने उसी समय ये नाटक लिख दिया जिसका पर्दा गिराकर हम लोग अभी-अभी अदालत से बाहर निकले हैं।

और ये सब कैसे हुआ शायद वो सब अब आपको बताने की जरूरत नहीं है।

आओ सुधि चलो अभी तुम्हारे आगे की लाइफ की प्लानिंग भी करनी है।" मधुबाला उर्फ हनी ने सुधा की कमर में हाथ डाला और हँसते हुए उसे खींचती हुई एक ओर चली गयी।


प्रशांत हारे हुए जुआरी की तरह देर तक उन्हें जाते देखता रहा…


समाप्त


नृपेंद्र शर्मा "सागर"




Monday, November 16, 2020

पगली

"

अरे!!ये पगली है,  देखो इसे!!,
पत्थर उठा कर मार दिया इसने बच्चों को। देखो-देखो कैसे दांत पीस रही है, लगता है जैसेे चबा ही जाएगी", कुछ लोग चिल्ला कर कह रहे थे।


और

मोहल्ले की कुछ औरते राजश्री की माँ के पास उसकी शिकायत ले कर आयीं, "सम्भालो अपनी लाडली को, आते-जाते बच्चों पर पत्थर फेंकती है। पकड़ ले तो काट लेती है।"


"

मेरे तो करम ही फूट गए, कितने अरमानों से बेटी व्याही थी। ऊँचा खानदान, खाता-पीता घर और अच्छी नौकरी बाला दामाद। लेकिन क्या करें जब इस अभागी के भाग्य में सुख लिखा ही नहीं था।


अरे छः महीने भी तो नहीं हुए थे व्याह को और उस खाते-पीते घर के पीने खाने वाले दामाद ने इसे मारना-पीटना शुरू कर दिया।


क्या कमी थी हमारे दान-दहेज में? आस-पास किसी ने सायकल तक नहीं दी होगी अपनी बेटी को और हमने,..हमने तो मोटरसाइकिल दी थी।


फिर भी मेरी फूल सी बेटी को ताना दिया जाता


कि

कंगाल बाप की बेटी लायी ही क्या है दहेज में... अरे सरकारी नोकरी करता है हमारा बेटा कितने अच्छे रिश्ते आये लेकिन ...

हम तो ये सब भी बर्दाश्त कर ही रहे थे कि चलो समय के साथ सब बदल जाएगा लेकिन उस दिन ज्यादा पीकर मोटरसाइकिल चलाते हुए दामाद ट्रक के नीचे...


हाये !!


बिल्कुल पत्थर हो गयी मेरी बेटी एक बूंद आंसू तक ना निकला इसकी पथराई आंखों से।

और वे लोग इसे फेंक गए यहां ये कहकर की ये मनहूस अपने पति को खा गयी और एक बूंद आँसू तक ना बहाया।

क्या करूँ बहन मेरी अभागी बेटी उस सदमे से टूट गयी और अपने होश खोकर पागल हो गयी।"


राजश्री की माँ सुचित्रा रोते हुए उसे पकड़ कर अंदर लायी और कमरे में बंद कर दिया।


राजश्री को आजकल कमरे में बंद करके रखा जाता है या फिर हाथ पांव बांधकर आंगन में चारपाई पर बांध दिया जाता है।


उसकी अवस्था दिन प्रतिदिन हिंसक होती जा रही है।


इधर एक दिन सोमनाथ बाबू को 'श्री' की इस हालत के बारे में पता लगा तो दुख से उनकी आंखें गीली हो गईं और कुछ पुरानी यादें उनकी आंसू से भरी धुंधली आंखों में स्पस्ट चित्रित होने लगीं।


सोमनाथ बाबू को याद आयी सत्रह बरस की तितली सी उड़ती अल्हड़ राजश्री जिसकी एक झलक उनके दिल में ऐसे गहरी उतरी की वे बस हर समय उस झलक को ही ढूंढने लगे।


बीस बरस के सोमनाथ बाबू कालेज में पढ़ रहे थे और राजश्री के पड़ोस में ही अपने किसी सम्बन्धी के घर पर रह रहे थे।


पुराना समय था लोग गली मोहल्ले में किसी के भी रिश्तेदार से बड़ी आत्मीयता से बात करते थे सभी लोग एक दूसरे से सम्बन्ध निभाते थे।


एक दिन श्री की माता जी सुचित्रा देवी ने सोमनाथ बाबू को ठेले से सब्जी लेते देखा और उनके पास जाकर उनके बारे में पूछने लगीं ।


कुछ ही देर की चर्चा के बाद सोमनाथ बाबू सुचित्रा देवी के कोई दूर के सम्बन्धी बन चुके थे सुचित्रा देवी ने उनसे कोई रिश्तेदारी निकाल ली थी ।


अभी ये लोग बात कर ही रहे थे तभी अल्हड़ तितली सी उछलती 'श्री' वहां आ गयी तब पहली बार सोमनाथ बाबू ने श्री को देखा था और वे बस एक तक उसे देखते ही राह गए थे।


श्री बिल्कुल किसी अप्सरा की मूर्ति जान पड़ती थी गोरा चिट्टा रंग लंबे सुनहरे लाल बाल गहरी काली आंखें वे सांचे में ढले नाक नक्श एक अद्भुत आकर्षण था श्री के रूप में।


अनायास ही सोमनाथ की आंखे श्री की आंखों से टकरा गयीं और श्री की आंखों ने भी उनका पूरे सम्मान से स्वागत किया।


दोनों की आंखे मानो जन्मों से बिछड़ी हो ऐसे एकाकार हो गईं दोनों की पलके झपकना भूल गयीं उनके दिल की धड़कने रेस के घोड़े की तरह सरपट दौड़ने लगीं ।


ना जाने क्यों, लेकिन यूँ आंखों का मिलना उन दोनों को ही बहुत सुखद अहसास दे गया।


उसके बाद जाने कितनी बार उन दोनों की आंखों ने ये एकाकार होने का सुख पाया किन्तु कभी एक शब्द की बात भी उनके बीच नहीं हुई थी। लेकिन आंखों के मिलन से ऐसे लगता था जैसे ये दोनों जन्म जन्मांतर के प्रेमी है जो न जाने कब से मिलन के लिए व्याकुल हैं।


उस दिन राजश्री सोमनाथ बाबू के कमरे पर आयी,"जल्दी चलिए आपको माँ ने बुलाया है आज आपका खाना हमारे घर पर है",श्री ने सोमनाथ को देखते ही उतावले पन से कहा।


"अच्छा आप चलिए हम अभी आते हैं", सोमनाथ बाबू ने धीरे से जबाब दिया।


"आते हैं नहीं, चलिए! अभी हमारे साथ", ये कहकर श्री ने सोमनाथ का हाथ पकड़ लिया।


सोमनाथ बाबू को जैसे बिजली का झटका लगा इस स्पर्श से, न जाने इस स्पर्श में ऐसा क्या था जो सोमनाथ बाबू को इतना सुखद लगा जैसे ये स्पर्श उनका चिरपरिचित है जैसे वे जन्मों से इस स्पर्श को जानते हैं।


इधर श्री को भी कुछ ऐसी ही अनुभूति हो रही थी रोज नज़रें मिलाने का बहाना ढूंढने बाली श्री आज शरमा कर नज़रे झुका रही थी। किन्तु हाथ छोड़ना जैसे अब उसके बस में ना था।


"क्या हुआ", सोमनाथ बाबू ने बहुत हिम्मत जुटा कर उससे पूछा।


"

क..क.क...कुछ !!",नहीं श्री ने सकुचा कर कहा और उनका हाथ होले से दबा दिया।


"अच्छा चलो आता हूँ ", सोमनाथ बाबू ने फिर प्यार से धीरे से कहा और श्री ने उनका हाथ छोड़ दिया।


हाथ छोड़ते ही श्री को लगा जैसे एक पल पहले वह पूर्ण थे और अब एक अधूरा पन उसके मन को उदास कर रहा है।


अब अक्सर ये होने लगा की श्री या कभी सोमनाथ जी भी बहाने से एक दूसरे के पास आते और आंखों से बातें करते या कभी हाथ स्पर्श हो जाते तो नज़रें शरमा कर खुदबखुद झुक जाती।


सोमनाथ बाबू पूछते ,"हमारा क्या सम्बन्ध है श्री जो आप आस-पास होती हो तब सबकुछ इतना अच्छा लगता है।"


"हमें क्या पता अपने हृदय से पूछो", श्री धीरे से कहती और दौड़ती हुई चली जाती।


"पगली" पीछे से सोमनाथ बाबू कहते और मुस्कुराने लगते।


"आज मेरी श्री सच में पगली हो गयी" सोमनाथ बाबू खुद में ही बुदबुदाने लगे ।


मुझे एक बार जाना चाहिए उसे देखने शायद उसके बैचैन मन को कुछ धैर्य बंध जाये।


"क्या मुझे जाना चाहिए?? " सोमनाथ बाबू ने खुद से सवाल किया।


"

अगर उसके घरवाले फिर से नाराज़ हो गए तो?"

सोमनाथ बाबू को याद आया की कैसे जब श्री के भाइयों को उनके प्रेम प्रसंग के विषय में जानकारी हुई थी तो वे गुस्से से आग बबूला हो गए थे।


हालांकि श्री की माताजी ने उन्हें समझाया भी था कि "लड़का पढ़ा लिखा है, अच्छे खानदान का है और बिरादरी के भी हैं; कर देते हैं दोनों की शादी।"


किन्तु श्री के दोनों भाइयों को ये कतई मंज़ूर नहीं था कि उनकी बहन प्रेम विवाह करे।


उस दिन शाम को दोनों भाई कंधे पर लाठी लिए आये थे इर सोमनाथ को धमका कर बोले थे,"खबरदार जो आगे से श्री के आसपास भी नज़र आये तो हाथ पांव तोड़ देंगे, तुम्हारी भलाई इसी में है की ये शहर हमेशा के लिए छोड़कर चले जाओ, ये भूल जाना की तुम कभी श्री से मिले थे।"


सोमनाथ बाबू करते भी तो क्या उनके रिश्तेदारों ने भी उन्हें अपने यहां रखने को मना कर दिया ।


सोमनाथ बाबू उदास परेशान अधूरे से गांव लौट आये एवं मन लगाने के लिए गांव में एक छोटा सा स्कूल खोल लिया।


उनके आने के दो महीने बाद ही उन्हें पता लगा कि श्री के भाइयों ने इसका विवाह तय कर दिया है।


उन्हें पता था कि वह लड़का शराबी है और श्री के लिए ठीक नहीं है उसने किसी परिचित से श्री की माता जी पर खबर भी भिजवाई, किन्तु श्री के भाई अपनी जिद पर अड़े रहे।


और श्री की शादी कर दी।


किन्तु सोमनाथ बाबू ने घरवालों के लाख समझाने पर भी शादी नहीं की, वे ज्यादातर समय स्कूल में ही रहते थे कभी-कभी तो खाना खाने भी नहीं आते और स्कूल में ही सो जाते।


सोमनाथ बाबू शहर से चले तो आये थे किंतु कुछ अधूरे से उनकी आत्मा जैसे राजश्री के पास ही राह गयी थी।


जीवन जीने की अभिलाषा उनमें शेष न थी बस किसी तरह यादों के सहारे समय व्यतीत कर रहे थे।


"हे ईश्वर मेरी पगली आज सचमुच की पगली हो गयी है


क्या अब भी मुझे नहीं जाना चाहिए??" सोमनाथ बाबू फिर खुद से सवाल करने लगे।


"जीवन की कोई अभिलाषा तो अब है नहीं, जीवन के डर से तो मैं तब भी नहीं लौटा था, मुझे तो तब चिंता थी 'श्री' के सम्मान की ओर उसके उज्जवल भविष्य की मुझे डर था कि आवेश में श्री के भाई कहीं श्री को नुकसान..! किन्तु अब परिस्थितियां भिन्न हैं अब श्री को कोई क्या नुकसान पहुंचाएगा उसकी तो चेतना ही लुप्त हो चुकी है; मुझे जाना ही होगा", सोमनाथ ने जैसे कोई निर्णय सा किया।


"किन्तु यदि उसने हमें नहीं पहचाना तब?" उनका मस्तिष्क तो सारी यादें भुला चुका है, वह तो अपनी मां, अपने भाइयों तक को नहीं पहचानती।" सोमनाथ जी के मस्तिष्क ने फिर से सवाल किया।


"जरूर पहचानेगी वह उस स्पर्श को, उन आंखों के मिलन को, इस दिल की धड़कनों को सुनकर अवश्य जागेगी मेरी श्री की सोई चेतना। हमारा सम्बन्ध तो आत्माओं का है, हम तो जन्मजन्मांतर के साथी हैं, ऐसे कब तक नियति हमें अलग करती रहेगी।


बस बहुत हुआ अब उन्हें मेरी आत्मा की आवाज सुननी ही होगी", उनके हृदय ने जैसे कोई निश्चय किया और वे उठ खड़े हुए।


सोमनाथ जी को आज पल-पल सदियों से लंबा लग रहा था वे उड़ कर श्री के पास पहुँचना चाहते थे। उनका दिल किसी अनहोनी की आशंका से बार-बार डर रहा था बैठ रहा था।


जैसे ही सोमनाथ बाबू ने राजश्री के घर में प्रवेश किया उन्हें एक झटका सा लगा; घर में बहुत भीड़ थी कुछ सफेद कोट धारी नर्स एवं अस्पताल के अन्य कर्मचारी भी थे।


यूँ तो उन्होंने घर के बाहर ही अस्पताल की गाड़ी भी देख ली थी,। उनकी धड़कने तो तभी बढ़ गईं थी, किन्तु अब उनकी धड़कने मानो बन्द होने लगीं थी ।


"कहीं मेरी श्री को कुछ", उनके मन की आवाज आई।


"क्या हुआ हटिए आप लोग", सोमनाथ जी ने जोर से कहा तो सारे लोग एक तरफ हट गए।


सामने का दृश्य देखकर सोमनाथ जी जम से गये उनके हृदय ने धड़कना लगभग बन्द ही कर दिया।


सामने राजश्री जंजीरों में जकड़ी खड़ी थी उसके हाथों, पांव एवं गले में भी जंजीरें डाली गयीं थी।


उसके बाल बिखरे हुए थे, उनमें धूल भरी हुई थी, श्री के कपड़े फटे हुए थे और उसके बदन पर असंख्य चोटों के निशान थे, कुछ निशान तो इतने गहरे थे कि उनमें से खून बह रहा था। राजश्री बार-बार अपने सर को झटके देते हुए दांत किटकिटा रही थी। उसकी आंखें पथराई हुई एक जगह जैसे जम सी गयीं थीं और उसकी पलकें मानों झपकना ही भूल चुकी थी।


सोमनाथ से राजश्री की ये हालत देखी नहीं गयी, उनकी आंखें आंसू बहाने लगीं; वे बिना किसी की परवाह किये राजश्री की और बढ़ने लगे।


"ऐ क्या करता है देखता नहीं ये पगली है, काट खाएगी उसके पास मत जा ऐ मेन", एक नर्स जोर से चीखी लेकिन सोमनाथजी पर जैसे उसकी चीख का कोई असर ही नही हुआ, या कहो कि उन्हें तो इस समय राजश्री के अलावा कोई नज़र ही नहीं आ रहा था।


"श्री,, !! ये क्या हाल बना लिया तुमने मेरे तनिक दूर जाते ही" सोमनाथ जी ने जोर से कहा।


आश्चर्य!! जो श्री किसी आवाज को नहीं सुनती थी वह इस आवाज पर पलट कर देखने लगी, उसकी आंखें सीधी होने लगीं।


सोमनाथ जी ने उसके बन्धन खोलने का इशारा किया, और उसकी आँखों में देखने लगे, राजश्री भी उनकी आँखों से नज़र मिलने लगी।


जब तक सोमनाथ जी श्री के पास पहुंचते उसके सारे बन्धन खोल दिए गए थे।


सोमनाथ जी ने बिना उसकी आँखों से आँखे हटाये उसका हाथ पकड़ लिया।


"क्या श्री हम तनिक छुपन छुपाई में क्या छिपे की तुमने तो खुद को ही भुला दिया", कहते हुए सोमनाथ जी ने राजश्री का हाथ दबा दिया।


लोगों ने देखा कि राजश्री की पथराई हुई आंखों की धुन्ध उसके आंसुओं के साथ बह रही है राजश्री रो रही है।


"क्या हुआ श्री? भूल गयी क्या हमें?", सोमनाथ जी ने धीरे से पूछा।


अबकी राजश्री की पलक हल्के से झपकी जिससे उसकी आँखों से आंसुओं की कुछ मोटी-मोटी बूंदे छलक पड़ीं।


"कहाँ चले गए थे आप??" श्री ने सुबकते हुए कहा और सोमनाथ के गले लग कर हिलकी भर कर रोने लगी।


"कहीं नही गया मैं श्री, मैं तो सदा तुम्हारे हृदय में था, लेकिन तुम ही पता नही क्यों हम सब से दूर जा रही थी, लेकिन अब नहीं। अब हम कभी अलग नहीं होंगे,आओ अपने घर चलें हमेशा के लिए।" सोमनाथ जी ने राजश्री का हाथ पकड़े पकड़े कहा।


"चलिए, और अब कभी मत छोड़कर जाना हमें , राजश्री की आंखे निरन्तर बरस रही थीं मानो उनमें जमी बरसों की बर्फ प्यार की गर्मी पाकर पिघल उठी हो।


दोनों हाथ पकड़े घर से बाहर निकलने लगे तब राजश्री की मां ने उसे अपनी चादर उढ़ा दी, आज राजश्री के दोनों भाई भी इन्हें जाते देख रहें है किन्तु उनकी आंखों में गुस्सा नहीं बल्कि पश्चताप एवं प्रसन्नता के आंसू हैं।


समाप्त


©नृपेंद्र शर्मा "सागर"



Friday, September 18, 2020

आजादी

15 अगस्त को 11 साल की शाइस्ता स्कूल से घर आयी उसके हाथ में लड्डू की थैली है, घर आते ही चहकते हुए अम्मी (कौसरजहां) से बोली "अम्मी अम्मी देखो हमें कितने लड्डू मिले ओहो अम्मी कहाँ हैं आप देखिए ना।"
"अरे मेरा बच्चा अम्मी के लिए भी लड्डू लाया", कहते हुए अम्मी ने शाइस्ता को गोद में उठा लिया।

"अच्छा अम्मी ये आज़ादी क्या होती है, स्कूल में मेम बता रही थीं कि आज के दिन हमें आज़ादी मिली थी इसी लिए आज के दिन हम खुशिया मनाते हैं मिठाइयां बांटते हैं।"शाइस्ता ने सवाल किया।।

"बेटा आज़ादी का मतलब होता है अपने मन मुताबिक जीने के लिए छूट होना।

बरसों पहले हमारा हिंदुस्तान अंग्रेजों का गुलाम था, तब हम लोग कोई काम भी अपनी मर्जी का नहीं कर पाते थे।
हमें हर काम में उनका हुक्म मानना होता था नहीं तो वे लोग जुल्म करते थे मारते थे जेल में बंद कर देते थे।
तब हमारे देश के नेताओ ने, युवाओं ने आंदोलन छेड़ दिया बहुत से लोग धरने पर बैठ गए , कुछ युवा उनके खिलाफ युद्ध करने लगे तब बहुत कोशिशों के बाद हमारा देश अंग्रेजों की जुल्म की हुकूमत से आज़ाद हुआ।"अम्मी ने शाइस्ता को समझाया।

"लेकिन अम्मी जब उस दिन अब्बू ने कहा था कि 'जाओ बेगम मैं तुम्हे अपने मुताल्लिक हर फ़र्ज़ से आज़ाद करता हूँ, मैं तुम्हे तलाक देता हूँ,' तब तो आप बहुत रोई थीं तब तो आपने कोई खुशी नहीं मनाई थी?", मासूम शाइस्ता कुछ सोचते हुए बोली।

कौसर जहाँ का चेहरा उदासी से फक्क पड़ गया उसकी आँखों की कोरें गीली हो गयी, अभी वह कुछ कह पाती तब तक शाइस्ता फिर बोलने लगी,"अम्मी अम्मी, क्या अंग्रेज भी हिंदुस्तान को तलाक देकर गए थे अम्मी जैसे अब्बू ने आप को आजाद कर दिया अंग्रेजो ने भी कहा होगा, जाओ हिंदुस्तान आज से तुम आजाद हो हम तुम्हे तलाक देते हैं।"

"चुप कर तू, कुछ भी अनाप शनाप बकती है", अम्मी दुख एवं गुस्से से बोली।

"क्यों अम्मी क्या हुआ, बताइये ना आप उस दिन इतना दुखी इतना उदास क्यों थी अपने दो दिन तक खाना भी नहीं खाया था बस आप लगातार रोती ही रही और हमसे भी ठीक से बात नहीं की, बोलो ना अम्मी क्या आज़ादी बुरी बात होती है अम्मी।
अम्मी अब्बू क्यों नहीं आते वे अब कहाँ चले गए", शाइस्ता मासूमियत से कहते कहते खुद भी उदास हो गई।।

"बेटा आज़ादी बुरी बात नहीं होती लेकिन तलाक अच्छी बात नहीं है तलाक का मतलब होता है सारे रिश्ते तोड़ कर अजनबी बन जाना।
तलाक का लफ्ज़ भी जुबान पर लाना नापाक है इसे तो अल्लाह ने भी बुरा ही कहा है।
अब आप ही सोचो अगर हम आपसे कहें कि आज से हम आपकी अम्मी नहीं रहे तो आपको कैसा लगेगा।"कौसर ने रोते हुए कहा।

नहीं!!!, ऐसा नही हो सकता अम्मी हम तो मर ही जायेंगे आप ऐसा सोचना भी मत।

लेकिन उस दिन आपके अब्बू ने यही किया था मेरे बच्चे उस दिन उन्होंने कहा था कि वे अब हमारे शौहर नहीं रहे अब से वे आपके अब्बू नहीं रहे ,उन्होंने हमें आज़ादी नहीं दी थी बल्कि वे खुद अपनी ज़िम्मेदारियों से आज़ाद हुए थे।
हम दोनों उन्हें बोझ लग रही थी तो उन्होंने इंसानियत का गला घोंट कर हमें इन्सान ना मानते हुए खुद को हमारी जिम्मेदारी से आज़ाद कर लिया था"। कौसर अब जोर जोर से रो रही थी।

"अम्मी अम्मी आप रोईए मत, हम हैं ना आपके साथ हम कभी आपसे दूर नहीं जाएंगे , शाइस्ता अम्मी के गले लग कर उनके आंसू पोंछने लगी।

शाइस्ता स्कूल से लौट रही थी, उसे किसी से पता लगा की उसके अब्बू एक दूकान पर काम करते हैं वह जान बूझ कर उस तरफ आ गयी, उसने दूर से देखा कि उसके अब्बू (शमशाद) एक गाड़ी को खोले उसके अंदर देख रहे हैं।
शाइस्ता एक दम उनके पास पहुंच कर लहरा कर गिरी ओर जोर से चीखी, आहह!! अम्मी,

उसकी चीख से शमशाद का ध्यान इधर गया और वह दौड़ कर उधर आया उसने शाइस्ता को गोद में उठा लिया और उसके कपड़े झाड़ने लगा।

अरे शाइस्ता आप, आप इधर कैसे बच्चे? शमशाद उसे देखकर हैरान होकर बोला।
आप हमें जानते है?? शाइस्ता बड़े भोले पन से बोली।
अरे हम आपके अब्बू हैं शाइस्ता केसी बात कर रही हो आप हम भला आपको क्यों नहीं जानेंगे आप हमारी अपनी बच्ची हो जान हो हमारी।

अच्छा!! जान हैं हम ??, फिर आप हमें तलाक देकर क्यों आ गए? शाइस्ता गुस्से से बिफरी।

"क्या कहा आपने? तलाक आपको? आपसे किसने कहा ये नामुराद लफ्ज? कहाँ से सीखा आपने? शमशाद एकदम गुस्सा हो गया।
"

"क्यों अब्बू आप ही ने तो उस दिन अम्मी से कहा था जब आप घर छोड़कर आये थे कि", जाओ कौसर मैं तुम्हे आज़ाद करता हूँ तलाक देता हूँ मैं तुम्हे और आप तब से घर बापस नहीं आये।"शाइस्ता कुछ याद करते हुए बोली।

"लेकिन वह तो मैं तुम्हारी अम्मी की रोज रोज की चिक चिक से तंग आकर उसे... "शमशाद धीरे से बोला।

"लेकिन अब्बू आप तो अम्मी को भी जान कहते थे ना और अम्मी आपको? अब अगर किसी की जान उसे तलाक दे दे, उसे छोड़ दे तो भला वह जिंदा कैसे रह सकता है?
और फिर आप अम्मी से नाराज़ थे! लेकिन मेरा क्या कसूर था? जो बिना खता मुझे मेरे ही अब्बू से तलाक मिल गया, मैं क्यों अब्बू की मोहब्बत उनके लाड़-प्यार और सरपरस्ती से महरूम हूँ, मेरी क्या गलती है??", शाइस्ता रोने लगी- "और बेचारी अम्मी!!, आपको पता है, अम्मी लगातार दो दिन तक दीवार में सर मारती रही और रोती रही उन्होंने खाना भी नहीं पकाया, मैं दो दिन घर में रखे बिस्कुट खाती रही और आपको याद करती रही कि अब्बू अभी आएंगे और हम फिर से मिठाइयां खाएंगे....
लेकिन अब्बू इतने दिन हो गए आप आये ही नहीं", शाइस्ता की आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे।

"मेरे बच्चे अब सब ठीक हो जाएगा, मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया है। आप घर जाओ और अपनी अम्मी का ख्याल रखना वे थोड़ी बुध्दू हैं", शमशाद ने शाइस्ता के माथे पर बोसा दिया और एक रिक्शा बुलाकर उसे घर का पता समझकर शाइस्ता को घर छोड़ने को कहा।
"और हाँ शाइस्ता अपनी अम्मी को मत बताना की आप हमसे मिले थे", शमशाद ने शाइस्ता को एक बार ओर गले लगाया और रिक्शा में बैठा दिया।

शाइस्ता आज बहुत खुश थी, कौसर ने कई बार पूछा किन्तु उसने कुछ नही बताया।
शाम को बेल बजी तो दरवाजा शाइस्ता ने खोला देखा सामने अब्बू .. तब तक कौसर भी आ गयी वह शमशाद को देखकर चौंक गई।

"अरे शाइस्ता ये लो मिठाइयां", शमशाद ने डिब्बा शाईस्ता को पकड़ाया- "और ये आप दोनों के लिए कुछ कपड़े.... मुझे माफ़ कर दो कौसर मैं गुस्से में भूल कर बैठा था। अब मुझे समझ आ गया है कि पति पत्नी की असली आज़ादी एक दूसरे का ख्याल रखने में है, एक दूसरे को समझने में है।
वो तो शुक्र है खुदा का जो उस दिन मेने बस एक ही तलाक बोला था बरना हमारी जिंदगी...", शमशाद की आवाज भर्रा रही थी।

"कुछ मत बोलिये आप, अब आप लौट आये हमे ओर कुछ नहीं चाहिए" कौसर ने शमशाद के होंटो पर हाथ रख दिया और शमशाद ने कौसर को गले लगा लिया।
"अरे भई हम भी आप दोनों की ही जान हैं", कहते हुए शाईस्ता बीच में घुस गई और दोनों हँसने लगे।

©नृपेंद्र शर्मा "सागर"

Sunday, August 23, 2020

एक हादसा

(एक कहानी यूँही)      
            #डर#

आधी रात बीत चुकी थी, देवेंद्र अपनी रेंजर से बहुत तेजी से पैडल मरते हुए घर लौट रहा था उसे आज अपनी प्रेमिका की बातों में समय का ध्यान ही नहीं रहा।
उसने पहले अपनी प्रेमिका को उसके घर छोड़ा और फिर अपने घर की ओर चल दिया।

आज की रात और दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही अँधेरी थी ऊपर से  हवा की तेरी सूखे पत्तों को सहलाकर हँसा रही थी जिनकी हँसी की 
खर्र..! खर्र.. चकककक चरर्त्तत...!! 
की कर्कश ध्वनि वातावरण में अलग ही भय उतपन्न कर रही थी।

माहौल इतना डरावना था कि गर्मी में भी देवेंद्र के जिस्म का हर रोंया खड़ा था जैसे किसी डर को देखकर शेर की गर्दन के बाल खड़े ही जाते हैं साही के कांटे खड़े हो जाते हैं।

अभी देवेंद्र काली नदी के पुल के बीच में ही पहुँचा था कि उसे सामने किसी के होने का अहसास हुआ उसे डर तो पहले से ही लग रहा था लेकिन अब तो उसकी साँसे राजधानी  की रफ्तार से चलने लगीं।
देवेंद्र ने अपनी रेंजर की गति को बढ़ाने में अपने फेफड़ों की पूरी ताकत लगा दी तभी वह साया उसे ठीक सामने खड़ा नज़र आया, उसके हाथ ब्रेक लीवर पर केस गए, रेंजर चिर्रर.... र्रर!! की आवाज करती हुई उस साये से एक फुट की दूरी पर रुक गयी।

देवेंद्र समने खड़े अजनबी को देखने लगा उसकी बड़ी बड़ी आंखे थी सर पर टोपी पहने हुए था।
लेकिन उसके चेहरे का कोई भी हिस्सा नज़र नहीं आ रहा था वहां बिल्कुल स्याह अँधेरा था।
देवेंद्र उसे देखकर बहुत डर गया उसके मुंह से अचानक तेज चीख निकली, 
भ...उ...त...!

तभी उस साये ने कहा, कहाँ घूम रहे हो इतनी रात को? तुम्हे पता नही देश मे कोरोना के चलते इमरजेंसी के हालात हैं , पूरे देश में कर्फ्यू लगा हुआ है और तुम सायकल पर आधी रात को हवा खोरी कर रहे हो इस बार तो चेतावनी देकर छोड़ रहा हूँ।अगली बार दिखे तो 144 में अंदर कर दूंगा।

तब देवेंद्र ने ठीक से देखा वह साया एक काला मास्क पहने हुए पुलिस वाला था।

देवेंद्र भाई चुपचाप लौट आये क्योंकि वह जानते हैं कि भूतों को तो फिर भी समझाया जा सकता है किंतु पुलिस......😢😢😢
नृपेंद्र शर्मा "सागर"

Wednesday, August 19, 2020

शहीद

#लघुकथा
शीर्षक:-शहीद

"ये जवान जो बॉर्डर पर लड़ते हुए शहीद हुआ है, ये हमारे गाँव का गौरव है। हम इसके नाम पर गाँव के विकास के लिए योजनाएं लाएँगे।" एक नेता जी ने तिरंगे में लिपटे फौजी के शव की ओर इशारा करके कहा।

"ये  फौजी हमारी कौम का था, हमारी कौम का नाम रौशन किया है इसने। हम इसके नाम से बड़ा स्मारक बनवाएंगे।" तभी दूसरे नेताजी खड़े होकर बोले।

"अरे मंत्री जी आ गए...", तभी एक शोर उठा।

"ये जवान जो पड़ोसी मुल्क से की जा रही गोलाबारी का सामना बहादुरी से करते हुए शहीद हुआ है, ये हमारे क्षेत्र का है। जिसने हमारे क्षेत्र का मान बढ़ाया है।
मैं सरकार में मन्त्री होने के नाते ये घोषणा करता हूँ इनके घर की तरफ आने वाली सड़क को चौड़ा करके मुख्य मार्ग से जोड़ा जाएगा और इस रोड का नाम इस शहीद के नाम पर होगा।
और जैसा कि हमारे साथी विपक्षी नेता जी ने अभी कहा था तो मैं इनके घर को स्मारक बनाने के लिए फंड दिलाने का आश्वासन देता हूँ।" 

नेता जी की जय, मंत्रीजी जिंदाबाद के नारों के बीच बेटे के कफ़न-दफन का इंतज़ाम करता उसका बाप अब मन ही मन अपने रहने के इंतज़ार के बारे में भी सोच रहा था।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

Wednesday, July 15, 2020

पिया मिलन

#पिया मिलन

सावन की झम झम झड़ी लगी, मैं पिया मिलन को जाय रही।
बैरन बिजुरी तड़ तड़ तड़ कर, पग पग पर मोहे डराय रही।
मोहे लगी लगन पिया साँवरे की, मैं पिया से प्रीत निभाय रही।
कोई और नहीं सुध रही मुझे, निज तन मन सभी भुलाये रही।
सावन मनभावन मास सखी, मुझे पिय की याद सताय रही।
बाहर की बिजली की क्या कहूँ, मेरे भीतर तड़ित समाय रही।
कोई बाधा राह ना रोक सके, मैं अविनाशी की बाँह गही।
मेरे प्रीतम जग के स्वामी हैं, मैं अंश जीव कहलाये रही।
ये जन्म मरण सब मिथ्या है, मैं मोक्ष परम पद पाय रही।
मुझे लोक लाज की कहाँ पड़ी, मैं तो निज धाम को जाय रही।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद