Friday, March 17, 2023

सहारा

        सहारा

रुद्रदत्त शहर के जाने माने प्रतिष्ठित व्यापारी थे। उन्होंने अपने दोनों बेटों को खूब पढ़ाया, वे नहीं चाहते थे कि उनके बेटे भी उन्ही की तरह दुकान की गद्दी पर बैठकर सुबह से रात तक खुद को घिसते रहें। उनके बेटे बड़े अफसर बनें, लोग उन्हें सम्मान दें, दूर-दूर तक उनका नाम हो उनका बस यही सपना था। उनके दोनों बेटे उच्च शिक्षित होकर बड़े आदमी बन भी गए। उनका बड़ा बेटा डॉक्टर बनकर स्पेशलाइजेशन करने ऑस्ट्रेलिया गया तो वह वहीं का होकर रह गया। उसने वहीं एक लड़की से शादी भी कर ली, अब वह वापस आना नहीं चाहता था। उसके गम में रुद्रदत्त जी की पत्नी अंदर ही अंदर टूट गयीं और धीरे-धीरे बीमार रहकर उनकी मृत्यु हो गयी, किसी भी डॉक्टर को उनकी बीमारी समझ नहीं आयी थी। रुद्रदत्त जी ने क्यों बार बेटे को फोन पर उसकी माँ के बारे में बताया लेकिन वह बस बहाने बनाता रहा और ना बीमारी पर और ना ही मरने पर अपनी माँ को देखने आया।

  एक वर्ष बाद उनका दूसरा बेटा भी कम्प्यूटर साइंस से बीटेक करने के बाद मास्टर डिग्री के नाम पर अमेरिका चला गया और फिर उसने भी वहीं एक लड़की पसन्द करके शादी कर ली।

रुद्रदत्त जी ने उसे भी कई बार कॉल करके वापस आने को कहा लेकिन उसने साफ जवाब दे दिया, "डैड! मुझे यहाँ एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है। यदि आप चाहें तो हमारे साथ आकर रह सकते हैं। ऐसे भी हमारे पास किसी चीज़ की कमी नहीं है, आप इंडिया से सब बेचकर हमारे पास आ जाइये या फिर भाई के पास चले जाइये। ऐसे भी अकेले आप वहाँ क्या करेंगे?"

रुद्रदत्त जी ने अपनी मिट्टी छोड़ने को ये कहकर मना कर दिया कि, "मेरे पुरखों की मिट्टी जिस मिट्टी में मिली है मैं उसे छोड़कर नहीं आ सकता, मैं चाहता हूँ  कि मेरी मिट्टी भी मेरे मरने के बाद इसी पवित्र भूमि में मिले।"

उसके बाद रुद्रदत्त जी ने कभी अपने बेटों से सम्पर्क नहीं किया था।

रुद्रदत्त जी अभी भी अपनी दुकान चलाते थे, वे हर सुबह जल्दी जाग जाते थे और सुबह पाँच बजे तक पार्क का एक चक्कर लगाकर दो किलोमीटर दौड़ चुके होते थे। इसीलिए वे सत्तावन साल की आयु में भी चालीस से अधिक नहीं लगते थे। ऊँचे कद और गठीले बदन के मालिक गोरे रँग पर जब नीली या काली शर्ट पहनकर निकलते थे तो सैकड़ों की भीड़ में भी दूर से दिख जाते थे।

उस दिन भी दो चक्कर दौड़ने के बाद रुद्रदत्त जी पार्क में बड़े पेड़ों के नीचे बनी सीमेंट की बेंच पर बैठे हुए थे। आज उन्होंने ब्लैक कलर की हाफ टीशर्ट और ग्रे कलर का लोअर पहना हुआ था। दौड़ने के बाद आयीं पसीने की कुछ बूंदें उनके माथे पर आ गयीं थीं जो सूरज की पहली किरण पड़ने पर उनके गौर माथे पर सिंदूरी सोने जैसी चमक रही थीं।

अभी रुद्रदत्त जी ने अपनी बोतल से दो घूँट पानी पीकर उसे नीचे रखा ही था और बोतल रखकर जैसे ही उन्होंने सिर उठाया, एक महिला ट्रेक सूट पहने सामने खड़ी थी। उसकी साँसे तेज़-तेज़ चल रही थीं मानों बहुत दूर से दौड़ती चली आ रही थी। रुद्रदत्त जी ने गौर से उसे देखा, उसकी उम्र कोई चालीस साल के आसपास थी, गौरा रँग, पाँच फीट चार इंच के लगभग हाइट, कसा हुआ चुस्त जिस्म और अकर्षक शारिरिक कटाव उसे बहुत आकर्षक बना रहे थे। उसकी पर्सनेलिटी ऐसी थी कि कोई भी उसे देखे तो कुछ देर उसे बस देखता ही रहे।

"क्या मैं यहाँ बैठ सकती हूँ मिस्टर...?" अभी रुद्रदत्त जी उसके भूगोल को देख ही रहे थे कि उनके कानों में उसका मधुर स्वर पड़ा।

"ज...जी...जी बिल्कुल", रुद्रदत्त जी हड़बड़ाते हुए बोले और खिसककर बेंच के एक कोने पर हो गए।

"अरे! यहाँ तो ऐसे ही बहुत जगह थी, आपको और जगह बनाने की कोई ज़रूरत नहीं थी।" वह महिला रुद्रदत्त जी की हालत देखकर मुस्कुराते हुए बोली और फिर उनके पास ही बैठ गयी। अब रुद्रदत्त जी को उससे झेंप हो रही थी और वे उसकी ओर आँखे नहीं उठा रहे थे।

"मेरा नाम गिरिजा है, गिरिजा गोस्वामी! और आप...?" कुछ देर ऐसे ही बैठकर रुद्रदत्त जी की ओर देखने के बाद उस महिला ने मुस्कुराते हुए कहा और रुद्रदत्त जी की ओर अपना हाथ बढ़ा दिया।

"ज...जी मैं रुद्र... रुद्रदत्त बंसल, मैं एक व्यापारी हूँ। मेन मार्केट में मेरी किराने और ड्राईफ्रूट्स की छोटी सी दुकान है।" महिला के पहल करने पर रुद्रदत्त जी ने अपना पूरा परिचय उसे दे दिया।

"जी मैं शिक्षिका हूँ, इंटर कॉलेज में बायोलॉजी पढ़ाती हूँ। अभी कुछ दिन पहले ही यहाँ ट्रांसफर हुआ है, अभी ये शहर मेरे लिए अजनबी है।" गिरिजा ने भी अपना परिचय देते हुए कहा। 

अब इन दोनों के बीच सामान्य बातें होने लगीं और कोई आधा घण्टे बाद दोनों वहाँ से चले गए।

अब ये नित्य नियम बन गया था रुद्रदत्त जी और गिरिजा पार्क में मिलते और साथ-साथ दौड़ते उसके बाद आधा-एक घण्टे बैंच पर बैठकर बातें करते। ये दोनों अब एक दूसरे के बारे में सब कुछ जान चुके थे। गिरिजा गोस्वामी उत्तराखंड के चमोली जिले से आती थीं। शहर के कॉलेज में शिक्षिका थीं। गिरिजा को उनके प्रेमी ने धोखा दिया था तबसे उसने कभी शादी ना करने और मर्दो से दूर रहने की कसम खयी थी। गिरिजा की उम्र अब अड़तालीस वर्ष की थी लेकिन रोज एक्सरसाइज करने और फिटनेस पर ध्यान देने के चलते वह चालीस से अधिक की नहीं लगती थी। पिछले कुछ समय से गिरिजा रोज सुबह इस पार्क में दौड़ने आती थी और दूर से रुद्रदत्त जी को कसरत करते हुए देखती थी। उस दिन उससे रहा नहीं गया और गिरिजा ने रुद्रदत्त जी से परिचय बढ़ा लिया था।

"अभी आप कहाँ रहती हैं टीचर जी?" रुद्रदत्त जी ने प्रश्न किया और विशेष भाव से मुस्कुरा दिए।

"अरे सर! हमारा नाम है, आप हमें टीचर जी की जगह गिरिजा कहेंगे तो हमें ज्यादा अच्छा लगेगा। आपको नहीं लगता ये टीचर जी ये लाला जी बहुत पराये से लगते हैं। वैसे अभी तो मैं एक होटल में ही रहती हूँ , कोई अच्छा सा रूम मिल जाये तो वहाँ शिफ्ट होकर सेटल हो जाऊँ। आपकी नजर में है कोई अच्छा कमरा?" गिरिजा ने रुद्रदत्त जी की आँखों में देखते हुए प्रश्न किया। इस समय गिरिजा के चेहरे पर बहुत भोली मुस्कान थी।

  "आप ठीक समझो तो मेरे घर..., इतना बड़ा घर है और रहने वाला मैं अकेला। आप कोई किराया भी मत देना बस भोजन..., आपको रहने का सहारा हो जाएगा और मुझे भोजन का।" रुद्रदत्त जी ने धीरे से कहा।

"सहारा..., ठीक है तो मैं कल ही अपना सामान लेकर आ जाती हूँ, कल सन्डे है आराम से रूम सेट हो जाएगा।" गिरिजा ने कुछ सोचकर कहा और दोनों मुस्कुराते हुए चले गए।

गिरिजा अब रुद्रदत्त जी के बड़े से घर में आ गयी थीं। रविवार का दिन था तो आराम से वह अपना सामान जमा सकती थीं। ऐसे भी गिरिजा जी के पास ज्यादा सामान नहीं था। बस कुछ कपड़े थोड़े से बर्तन और कुछ किताबें।

"आप ये ना समझना कि बस ये एक कमरा ही आपका है, मेरी ओर से ये पूरा घर आपका है आप जहाँ चाहें रह सकती हैं जहाँ चाहें जो चाहे कर सकती हैं।" रुद्रदत्त जी ने गिरिजा की किताबें जमाते हुए कहा। आज रुद्रदत्त जी भी दुकान नहीं गए थे। पत्नी के जाने के बाद ये पहली बार था जब उन्होंने दुकान समय पर नहीं खोली थी। हालाँकि पहले तो ये अक्सर हुआ करता था। खासकर उनकी शादी के प्रारम्भिक दिनों में। आज ना जाने क्यों रुद्रदत्त जी को वे दिन बहुत याद आ रहे थे।

"आपका कमरा कौन सा है 'रुद्र' चलो मुझे दिखाओ।" अचानक किताब रखकर गिरिजा रुद्रदत्त जी की  ओर घूमी और उनकी आँखों में देखते हुए गम्भीर होकर बोली।

"वो... उधर वहाँ है मेरा कमरा।" रुद्रदत्त जी ने हकलाते हुए उंगली से इशारा करके बताया।

"अच्छा! चलो मुझे देखना है।" गिरिजा ने कहा और उस रूम की ओर बढ़ गयी।

रुद्रदत्त जी भी उसके पीछे आने लगे।

कमरे में आकर कुछ देर इधर-उधर देखने के बाद गिरिजा की नजर एक तस्वीर पर जाकर अटक गई। कमरे में दीवार पर एक बड़े से फ्रेम में किसी महिला की तस्वीर लगी थी जिसपर फूलमाला चढ़ी हुई थी।

"ये मेरी पत्नी गंगा की तस्वीर है। लोग कहते हैं कि गङ्गा मोक्ष तक साथ रहती है लेकिन मेरी गङ्गा तो मुझे बीच राह में मुझे छोड़कर चली गई।" रुद्रदत्त जी गिरिजा की आँखों का मतलब समझकर उसे बताते हुए बोले।

"अच्छा! फिर आपने इनकी तस्वीर यहाँ क्यों लगा रखी है। क्या आप नहीं चाहते कि इन्हें मोक्ष मिले। अरे यदि आप ऐसे इन्हें तस्वीर में कैद करके रखोगे तो कैसे जा पायेंगी ये परलोक, आप इन्हें अपनी यादों से आज़ाद कीजिये पहले।" गिरिजा ने गम्भीर होकर कहा और रुद्रदत्त की आँखों में देखने लगी।

रुद्रदत्त जी ने कुछ नहीं कहा और बस गिरिजा की आँखों में देखने लगे। अचानक गिरिजा ने उनका हाथ पकड़ लिया। ये स्पर्श रुद्रदत्त जी को डूबते को तिनके का सहारा सा लगा और उनका ध्यान टूट गया।

"अच्छा अब आप दुकान पर जाइये यहाँ मैं सब ठीक कर दूँगी।" गिरिजा ने कहा और रुद्रदत्त जी बिना कुछ कहे दुकान के लिए निकल गए।

 शाम को गिरिजा ने भोजन में कई तरह के पकवान बनाये थे, पत्नी के देहांत के बाद रुद्रदत्त जी ने पहली बार मन और पेट दोनों की तृप्ति की थी। 

 "वाह क्या स्वाद है, जादू है आपके हाथों में गिरिजा जी। आपको बायोलॉजी का नहीं कुकिंग का टीचर होना चाहिए था।" भोजन के बाद रुद्रदत्त जी ने गिरिजा की तारीफ करते हुए कहा।

 "अच्छा जी! चलो कोई बात नहीं यहाँ मैं आपको कुकिंग सिखाने को जॉब कर लेती हूँ लेकिन केवल आपको ही सिखाऊंगी।" गिरिजा ने मुस्कुराते हुए कहा।

 "केवल मुझे ही क्यों?" रुद्रदत्त जी ने गिरिजा की आँखों में देखते हुए पूछा।

 "सहारे के लिए लाला जी, अब कभी अगर मैं बीमार पड़ी तो मुझे भी तो दो रोटी का सहारा चाहिए होगा ना, तब आप मेरे लिए खाना बनाना।" गिरिजा ने हँसते हुए कहा लेकिन तभी रुद्रदत्त जी ने गिरिजा के मुँह पर हाथ रख दिया और धीरे से बोले, "बीमार पड़ें आपके दुश्मन।"

 तभी गिरिजा ने रुद्रदत्त जी के हाथ को चूम लिया और मुस्कुराते हुए उनकी आँखों में देखने लगी।

 "क्या देख रही हो ऐसे?" रुद्रदत्त जी ने उससे नज़रें चुराकर अपने हाथ को देखते हुए कहा।

 "क...कुछ नहीं! बस ऐसे ही।" गिरिजा ने कहा और बर्तन समेटने लगी।

 "अरे गिरिजा जी! ये हमारे कमरे का हुलिया किसने बदल दिया? और गंगा की तस्वीर कहाँ है?"कुछ ही देर बाद कमरे से रुद्रदत्त जी की आवाज आयी।

 "हमने किया है, और गंगा जी को हमने उनकी तस्वीर की कैद से मुक्त कर दिया अब आप भी उन्हें अपनी यादों से मुक्त कर दो ताकि वे अपने मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ सकें और इस कार्य के लिए जो सहारा चाहिए आपको मैं देने के लिए तैयार हूँ।" गिरिजा ने अर्थपूर्ण स्वर में कहा और मुस्कुराते हुए वापस जाने लगी।

 "कैसा सही गिरिजा?" रुद्रदत्त जी ने उसकी आँखों की चमक देखते हुए पूछा।

 "आती हूँ अभी थोड़ी प्रतीक्षा कीजिये।" गिरिजा ने हँसकर कहा और रसोई की ओर बढ़ गयी। 

 रुद्रदत्त जी सोच रहे थे कि गिरिजा आज ना जाने क्या करने वाली है।


 कुछ देर बाद जब गिरिजा उनके सामने आई तो वे छक्के-बक्के से उसे देखते रह गए।

 गिरिजा ने बहुत सुंदर लहँगा और चोली पहनी हुई थी। उसने एक जड़ाऊ चुनरी से अपने सिर को भी ढका हुआ था। वह आगे आयी और रुद्रदत्त जी के सामने आकर खड़ी हो गई। रुद्रदत्त जी तो समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या करें। इन कपड़ों में गिरिजा बिल्कुल अप्सरा लग रही थी। उसका रूप उसका यौवन किसी नवविवाहित नवयौवना को भी फेल कर रहा था। रुद्रदत्त जी तो पलकें तक झपकाना भूल गए थे।

 "ऐसे क्या देख रहे हैं रुद्र क्या मैं अच्छी नहीं लग रही?" गिरिजा ने धीरे से मुस्कुराते हुए पूछा।

 "बहुत अच्छी लग रही हो गिरिजा किन्तु ये सब...?" रुद्रदत्त जी ने फिर उसकी ओर देखते हुए पूछा।

 "ये सब आपको सहारा देने के लिए ताकि आप गंगा जी को भुला सको और भुला सको उन कुपुत्रों को जिन्हें अपने सुख के आगे अपने पिता के रोज सूखते आँसू कभी दिखाई नहीं दिए।" गिरिजा ने कहा और रुद्रदत्त जी के पास बिस्तर पर बैठ गयी। 

 गिरिजा की सुंदरता रुद्रदत्त जी को।मोहित कर रही थी। उसके शरीर की मादक गंध उन्हें मदहोश कर रही थी।

 वे सोच नहीं पा रहे थे कि क्या करें तभी गिरिजा ने उनका हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोली, "जब इस दुनिया में सभी अपने हिसाब से जीना चाहते हैं, सभी को बस अपने आप से मतलब है तो हम इस मतलबी दुनिया की परवाह क्यों करें। क्यों ना आज से हम एक दूसरे का भावनात्मक सहारा बनें? क्यों ना हम एक दूसरे की कमी पूरी करें? क्यों ना हम सबकुछ भूलकर बस अपने सुख के लिए जियें।" गिरिजा रुद्रदत्त जी के हाथ को दबा रही थी।

 आज वर्षों बाद किसी स्त्री का ये स्पर्श उन्हें अंदर से गुदगुदा रहा था। उनकी नसों में खून का संचार तेज होने लगा था। उनके भीतर का पुरुष जाग रहा था।

 उन्होंने गिरिजा को अपनी ओर करते हुए उसका घुँघट उठा दिया और बोले, "तुम ठीक कहती हो गिरिजा, हमें भी अपने लिए जीना चाहिए, जब किसी को हमारी परवाह नहीं जब समय पर कोई हमारा सहारा नहीं बनना चाहता तो क्यों ना हम अपना सहारा खुद ही खोज लें और अपने सहारे का सच्चा सहारा बनें।" कहते हुए रुद्रदत्त जी ने गिरिजा का माथा चूम लिया। गिरिजा भी अब उनकी बाहों में सिमट गई थी। रुद्रदत्त जी के होंठ गिरिजा के माथे से आँखों पर फिसलते हुए उसके होंठों पर पहुँच गए थे और उनके हाथ उसके गले से फिसलकर उसकी पर्वत चोटियों की बर्फ हटाने लगे थे। उनके हाथ का गर्म स्पर्श पाकर गिरिजा पिघल उठी और रुद्रदत्त जी उसकी पर्वत चोटियों का अमृतरस पीने लगे। गिरिजा को ये सब बहुत अच्छा लग रहा था और वो चाहती थी कि रुद्र उसमें समा जाएँ और ये रात कभी खत्म ही ना हो।  वह रुद्रदत्त से लिपटी जा रही थी और उन्होंने उसे किसी लता की भाँति मज़बूत वृक्ष बनकर सहारा दे रखा था।

 उनके चुम्बन की गति और दबाब दोनो बढ़ चुके थे। उनके बीच के सारे पर्दे हट चुके थे। रुद्रदत्त जी के हाथ अब बिना रुकावट गिरिजा के संगमरमरी जिस्म पर फिसल रहे थे। इन दोनों की ही साँसें बहक चुकी थीं तूफान अपने चरम पर था तभी रुद्रदत्त जी गिरिजा से लिपटकर वह पा गए जिसे पाने के लिए ये सारा तूफान उठाया जा रहा था। वे उसके अंदर समाते चले गए जिसे गिरिजा ने भी पूरे मन से स्वीकार किया और जब ये तूफान थमा तो दोनों के चेहरे सन्तुष्टि से चमक रहे थे। थोड़ी देर ऐसे ही पड़े रहकर साँसे ठीक करने के बाद दोनों को होश आया कि कुछ देर पहले उनके बीच से क्या तूफान गुजरा है जिसने एक ज्वालामुखी को पिघला दिया था। गिरिजा के यौवन पर वर्षों से जमी बर्फ पिघल चुकी थी। रुद्रदत्त जी भी काफी सालों बाद अपने पुरुष होने पर गर्व कर रहे थे। इस उम्र में भी उनकी शक्ति क्षीण नहीं हुई थी। गिरिजा उनसे पूरी तरह खुश थी।

 "क्या हम विवाह कर लें गिरिजा?" गिरिजा के बालों में उंगलियाँ घुमाते हुए रुद्रदत्त जी ने धीरे से पूछा।

 "नहीं! उसकी कोई ज़रूरत नहीं है।" गिरिजा ने उनके सीने पर से अपना सिर उठाते हुए कहा।

 "लेकिन क्यों? अब जब हमारे बीच ये सम्बन्ध बन ही गया है तो तुम्हें नहीं लगता हमें इसके लिए सामाजिक मान्यताओं को मानते हुए हमारे रिश्ते की औपचारिक घोषणा कर देनी चाहिए?" रुद्रदत्त जी ने प्रश्न किया।

 "नहीं मुझे नहीं लगता। हमें एक दूसरे का सहारा चाहिए सो हमें मिल गया, इसके लिए हमें हमारे रिश्ते को कोई नाम देने की कोई ज़रूरत नहीं है, और फिर जब हमें भावनात्मक स्पोर्ट चाहिए था तब तो यही ज़माना हमारा मज़ाक उड़ा रहा था ना तो अब हम इसकी परवाह क्यों करें।

 ऐसे भी आप विवाह करके, परिवार बना कर देख चुके हो, कौन है आज आपके पास? मैने भी प्रयास किया था लेकिन मेरा प्रेमी विवाह के मंडप तक भी नहीं आता। तब जब मुझे लोगों से मोरल स्पोर्ट की आशा थी लोग उल्टे मेरा ही मज़ाक उड़ा रहे थे कि शायद उसे मेरी किसी बात का पता चल गया होगा इसलिए वह मुझसे विवाह करने नहीं आया। जिस लड़के के लिए मैं दुनिया से लड़ी, अपने पेरेंट्स को छोड़ दिया वह उस समय भाग गया जब मुझे सहारा चाहिए था। उसने मुझे धोखा दिया तो मुझे नफरत हो गयी विवाह के नाम से ही।" गिरिजा ने गम्भीर आवाज में कहा।

 रुद्रदत्त जी अवाक उसका मुँह ताकते रहे और फिर उसे अपनी बाहों में कसते हुए बोले, "हम हमेशा एक दूसरे का सहारा रहेंगे गिरिजा।" 

 गिरिजा ने भी उन्हें कस लिया और दोनों सो गए। 

 ये दोनों एक दूसरे का सहारा बनकर बहुत खुश थे, 

 दोनों के हृदय की धड़कन मानों गा रही थीं, "तुम जो मिल गए हो..."

  समाप्त



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