भेडियन
1.
तारा अपनी सहेलियों के साथ जानवरों के लिए घास और पत्ते लेने के लिए जंगल में काफी अंदर चली आयी थी। हालांकि ये पहली बार नहीं था कि ये लोग ऐसे जंगल में इतनी अंदर आये हों।
ये लोग अक्सर बातें करते हुए जंगल में निकल आते थे और बाद में घास पत्ते लेकर घर चले जाते थे।
ऐसे भी पहाड़ पर रहने वाले लोग जंगल और जंगली जानवरों से ज्यादा नहीं डरते हैं।
तारा अपने ख्यालों में खोई हुई थी, उसे सखियों की बातें जैसे सुनाई ही नहीं दे रहीं थीं। तभी उनके बिल्कुल पास ही किसी भेड़िये के गुराने की डरावनी आवाज आयी, जिसे सुनकर इसकी चारों सहेलियां डर कर पीछे भाग गयीं। लेकिन ध्यानमग्न होने के कारण तारा को कुछ पता ही नहीं लगा।
अब जब उसने चौंक कर सामने देखा तब तक वह विशालकाय भेड़िया उसके ठीक सामने आकर खड़ा हो गया था और धीरे-धीरे गुर्रा रहा था।
तारा उसे देखकर बहुत घबरा गई और उल्टे पांव वापस लौटने की कोशिश में वह पीछे गिर गयी।
उसके गिरते ही भेड़िये ने उस पर छलाँग लगा दी और उसके ऊपर आ गया। तारा घबराहट में चीख रही थी, उसकी आँखें बंद हो गयीं थीं। अचानक तारा ने अपने वक्ष स्थल पर भेड़िये के पंजों का भार महसूस किया। अब तारा ने आँखे खोलकर देखा, भेड़िया उसके ऊपर अपने अगले पांव रखे खड़ा था। वह लाल लाल आँखों से उसे घर रहा था और गुर्र! गुर्र!! की धीमी आवाज निकाल रहा था। भेड़िये का बड़ा सा मुँह खुला हुआ था और उसके लाल जीभ लपलपा रही थी
तारा की आँखे भेड़िये की आँखों से मिलीं तो अचानक उसकी गुर्राहट शांत पड़ने लगी।
वह ध्यान से तारा के चेहरे को देख रहा था।
अचानक ना जाने उसे क्या हुआ, उसने जीभ से तारा के गले को चाटा और झटके से उसके ऊपर से उतरकर खड़ा हो गया।
भेड़िये ने तारा के हाथ को चाटना शुरू कर दिया। अब उसकी लाल आँखों का रंग और उसके चेहरे की भयावहता भी बदल गयी थी।
अब तारा को उसकी आँखों में अपनापन नज़र आ रहा था।
अचानक भेड़िया तारा का हाथ पकड़कर उसे उठाने लगा। तारा उसका सहारा लेते हुए उठकर बैठ गयी।
भेड़िया अब उसका दुपट्टा पकड़कर खींच रहा था जैसे उसे कहीं चलने के लिए कह रहा हो।
अब तारा को उस विशाल और डरावने हिंसक जानवर से बिल्कुल भी डर नहीं लग रहा था।
ना जाने क्यों तारा उस भेड़िये के सम्मोहन में बंधती जा रही थी।
तारा उसकी पीठ पर हाथ रखकर सहारा लेते हुए उठ खड़ी हुई और धीरे से बोली, "चलो कहाँ चलना है?"
भेड़िया जैसे उसकी भाषा समझता था। वह उसका दुपट्टा दाँतो में पकड़े एक ओर चलने लगा।
तारा भी उसके साथ-साथ चलती रही।
कुछ ही देर में ये लोग पर्वत की एक गुफा में पहुँच गए जिसका द्वार छोटा था लेकिन अंदर काफी जगह थी।
गुफा में पहुँच कर भेड़िया अपने अगले पैर उठाकर तारा के गले लग गया और उसका सिर, माथा और गला चाटने लगा जैसे वह अपना प्रेम प्रदर्शित कर रहा हो।
तारा को ना जाने क्यों उसका यह स्पर्श बहुत अपना, बहुत सुखद लग रहा था।
वह देर तक उस भेड़िये से लिपटी उसके मुलायम बालों में अपने उंगलियां घुमाती रही।
कुछ देर बाद भेड़िया तारा से अलग हुआ और उसे एक पत्थर पर बैठने का इशारा किया।
तारा पत्थर पर बैठकर उस भेड़िये को देखने लगी।
ना जाने क्यों तारा को ऐसा लगा जैसे उस भेड़िये की आँखों में आँसू भरे हुए हैं।
तारा उठकर उसके पास गयी और उसे गले लगाकर अपने हाथों से उसके आँसू पोंछने लगी।
"आप रो रहे हैं? आप कौन हैं और मुझे खाने की जगह मेरे साथ ऐसे प्रेम से…? और अब आपकी आँखों में ये आँसू…? आखिर ये सब क्या है? और मेरा दिल…, मेरे दिल की धड़कनों का स्वर भी आपको गले लगाकर बदला हुआ है। क्या हम पहले से एक दूसरे को जानते हैं? काश हम एक दूसरे की भाषा समझ पाते…", तारा उदासी में बोलती चली गयी।
बदले में वह भेड़िया तारा के हाथ चूमता रहा।
बहुत देर तक ऐसे ही तारा उस भेड़िये के साथ लिपटी उसके बालों को सहलाती रही और वह उसके शरीर को चूमता रहा।
शाम होने को आयी थी लेकिन तारा का मन वापस जाने का नहीं हो रहा था फिर उसे अपने बाबा के गुस्से की याद आयी और वह झटके से उठ खड़ी हुई।
"अच्छा तो अब मैं चलती हूँ, नहीं तो बाबा गुस्सा करेंगे", तारा ने कहा और गुफा से बाहर आ गयी।
भेड़िया जैसे उसकी बात समझ गया था तो वह भी उसके साथ-साथ चलने लगा।
भेड़िया तारा के साथ-साथ जंगल की सीमा तक आया जहाँ तारा सुरक्षित थी।
तारा ने जल्दी-जल्दी पेड़ों के पत्ते तोड़े और उन्हें लेकर घर की ओर चल दी।
वह भेड़िया उसे तब तक देखता रहा जब तक कि वह जंगल की सीमा से बाहर ना निकल गयी।
२.
तारा घर तो आ गयी लेकिन वह बहुत परेशान थी, वह बार-बार उस भेड़िये के बारे में ही सोच रही थी जो उसे खाने के लिए झपटा था लेकिन आँख मिलते ही वह हिंसक जानवर एकदम से उसका प्रेमी कैसे बन गया। उसे उस भेड़िये की एक-एक हरकत याद आ रही थी कि कैसे वह उसे चूम रहा था उसकी फ़िक़्र कर रहा था और अपने नुकीले खतरनाक दाँत और पंजे उससे दूर रख रहा था।
तारा को याद आ रहा था उसका वह संभालकर उठाना और उसे अपनी गुफा में ले जाकर प्रेम जताना।
"लेकिन ऐसे तो चंदन..!!!", तारा को अचानक अपने प्रेमी चंदन की याद आ गयी।
"हाँ वह भेड़िया बिल्कुल चंदन की तरह ही तो पेश आ रहा था मेरे साथ। वही अपनापन वही फ़िक़्र वही छुअन। लेकिन चंदन तो…, तो क्या चंदन ने मरकर भेड़िये का जन्म लिया है? है ईश्वर ये क्या माया है?", वह खुद से बात करते-करते भगवान से सवाल पूछने लगी।
चंदन नीचे के गांव का एक सुंदर गठीला मज़बूत युवक था। तारा ने उसे पहली बार देवता के मंदिर पर लगे मेले में देखा था जहाँ वह कुश्ती लड़ रहा था।
तारा ना चाहते हुए भी चंदन को देखकर दंगल देखने रुक गयी थी।
वह एकटक बस उसे ही देख रही थी लेकिन चंदन से नज़र मिलते ही वह शरमा कर भाग आयी थी। तब तक चंदन तीन पहलवानों को चित कर चुका था।
चंदन का रूप उसका बल उसकी मुस्कान तारा के मन मे बसते जा रहे थे।
उस दिन के बाद चंदन हर रात तारा के सपनों में आने लगा था। तारा मन ही मन चंदन को चाहने लगी थी। उसदिन के बाद से तार रोज कुलदेवता के मंदिर जाने लगी थी जो उसके ऊपरी गांव और निचले गांव के लगभग बीच में स्थित था।
तारा कुलदेवता से प्रार्थना करती कि उसे चंदन ही जीवनसाथी के रूप में मिले।
कई दिन की प्रार्थना के बाद एक दिन चंदन उसे दिख ही गया, वह भी मंदिर आया था प्रसाद चढ़ाने।
"आज किस बात के लिए भगवान को खुश कर रहे हो पहलवान जी? हम तो रोज मंदिर आते हैं लेकिन आपको तो पहले कभी इधर नहीं देखा", तारा चंदन के पीछे आकर बोली।
उसकी आवाज पर चंदन घूमा तो दोनों की नजरें अनायास ही आपस में मिल गयीं।
चंदन का चेहरा भी उसे देखकर किसी अनजानी खुशी से खिल उठा था।
"जी मेरा नाम चंदन है पहलवान नहीं और मैं नीचे के गाँव में रहता हूँ", चंदन उसकी आँखों ने देखते हुए मुस्कुरा कर बोला।
"जी मैं तारा, ऊपरी गाँव की। उस दिन आपको मेले में देखा था तब आप पहलवानी कर रहे थे तो…, ऐसे भी मुझे आपका नाम कहाँ पता था", तारा ने नज़रें चुराते हुए मुस्कुराकर जवाब दिया। और दोनों हँसने लगे।
"अच्छा आज अचानक पहलवान जी पुजारी जी कैसे बन गए?",तारा ने मजाक के अंदाज़ में सवाल किया।
"दो दिन बाद शाही दंगल है, मैं चाहता हूँ कि यह दंगल मैं जीत जाऊँ", चंदन ने भगवान की ओर हाथ जोड़ते हुए कहा।
"आप अवश्य जीतेंगे चंदन जी, चंदन सदा माथे की शोभा होता है भगवान जी आपके मान को धूल नहीं होने देंगे", तारा ने भी भगवान की ओर हाथ जोड़ते हुए कहा और फिर आँखे बंद करके देर तक चंदन की विजय के लिए प्रार्थना करती रही।
चंदन चार दिन बाद उसी समय मंदिर में आने की बात कहकर चला गया। तारा देर तक उसे जाते देखती रही।
चार दिन बाद तारा सुबह से ही मंदिर पहुँच गयी और भगवान से चंदन द्वारा अच्छी खबर की प्रार्थना करने लगी।
कोई एक घण्टे बाद चंदन मंदिर आया हाथ में मिठाई का डिब्बा लिए।
उसे देखते ही तारा झपट पड़ी, "आ गए आप! मैं कब से प्रतीक्षा कर रही थी। क्या रहा आपकी कुश्ती का? मुझे पता है आप अवश्य ही विजयी हुए होंगे, है ना जी?"
"अरे बाबा साँस तो ले लो, आओ भगवान को भोग लगा दें पहले फिर बात करेंगे", चंदन ने कहा और दोनों एक साथ भगवान के सामने जाकर बैठ गए।
चंदन ने एक लड्डू का भोग भगवान को अर्पित किया और एक लड्डू तारा के मुँह से लगा दिया।
"अरे!!! ये क्या कर रहे हो? भगवान का भोग जूठा कर दिया।", तारा मुँह हटाते हुए बोली।
"मेरे लिए तो तुम ही देवी हो तारा। उस दिन जब पहली बार तुम्हे देखा था तो मैं अपनी सारी कुश्ती जीता था और अब तुमसे मिलकर गया तो शाही दंगल जीत आया", चंदन बड़े प्रेम से तारा को देखते हुए बोला।
"ऐसा नहीं बोलते पहलवान जी देवता नाराज़ हो जाते हैं, हम इंसान हैं तो हमे इंसान ही रहने दो।
चलो बाहर चलकर बातें करते हैं", तारा उसे ऐसे प्रेम से देखते और उसकी मीठी बातों में खोते हुए बोली।
"आओ चलते हैं", चंदन ने कहा और दोनों मंदिर के पीछे पहाड़ी उतर कर एक बड़े पत्थर पर आकर बैठ गए।
"तो पहलवान जी आपको ऐसा लगता है कि हम आपके लिए शुभ हैं। हमारी बजह से आपकी जीत होती है। तब तो हमें भी पुरस्कार मिलना चाहिए", तारा मुस्कुराते हुए बोली।
"अरे तारा जी आपको कहा था ना कि मेरा नाम चंदन है, पहलवान जी नहीं। ऐसे ही क्या मैं भी फिर आपको देवी जी बुलाऊँ? वैसे देवी तो आप हो ही…, मेरे मन की देवी। मेरा सब कुछ आपका है देवी जी जो चाहे पुरुस्कार स्वरूप ले लीजिए", चंदन हाथ जोड़कर सिर झुकाते हुए बड़ी अदा से बोला।
"अच्छा बताऊँ अभी आपको…, बड़े आये देवी बनाने वाले", तारा झूठ मूठ के गुस्से के साथ चंदन को घूंसा दिखाते हुए बोली।
चंदन उसकी इस हरकत पर जोर से हँसने लगा और फिर तारा भी उसके साथ हँसी में शामिल हो गयी।
3.
उस दिन के बाद से तारा और चंदन अक्सर मंदिर के पीछे या घने जंगल में मिलने लगे, दोनों को एक दूसरे की बातें बहुत अच्छी लगती थीं। दोनों हर समय साथ रहना चाहते थे। हालांकि दोनों जानते थे कि ऊँचे गाँव और निचले गाँव में जात-पात और ऊंच-नीच का गहरा भेदभाव है और यह समाज उनके रिश्ते को कभी मान्यता नहीं देगा लेकिन फिर भी दोनों दिल के हाथों मजबूर थे।
एक दिन चंदन और तारा जब मंदिर में मिले तो चंदन ने उसे बताया कि वह कुछ दिन के लिए दूर हिमालय में जड़ी-बूटियों की खोज में जा रहा है। इस काम में उसे एक-दो महीने भी लग सकते हैं अतः तारा उसके लिए परेशान ना हो।
उसके बाद चंदन इतना बलिष्ठ हो जाएगा कि उसे कभी कोई कुश्ती में नहीं हरा पायेगा। और पुरस्कार जीत कर उसके पास बहुत पैसा भी आ जाएगा। फिर वह शहर में घर लेगा और तारा से विवाह करके दोनों वहीं शहर में चलकर रहेंगे।
तारा उसकी बात सुनकर बहुत उदास हो गयी
"क्या आपका ऐसे जड़ी बूटियों की खोज में जाना बहुत आवश्यक है चंदन जी? आप जैसे हो ऐसे ही बहुत बलिष्ट हो। और रही बात पैसे की तो मुझे नहीं चाहिए बहुत सा धन। मुझे आपके दूरी मंजूर नहीं बस। आप मत जाइए ना। आप इन जड़ी-बूटियों को बाजार से क्यों नहीं ले लेते?", तारा ने दुखी स्वर में कहा।
"ये बहुत खास जड़ी बूटियां हैं तारा, ये बाजार में नहीं मिलतीं। गुरु जी ने मुझसे खुश होकर केवल मुझे उनकी पहचान बताकर कहा है कि पूर्णिमा की चाँदनी रात में मैं उन्हें लेकर आऊँ उसके बाद गुरुजी अपने सामने नुस्खा तैयार कराएंगे जिससे मुझे अपार बल मिलेगा। इसलिए मुझे जाना ही होगा, और फिर तुम्हे मेरी शक्ति मेरी क्षमताओं पर विश्वास नहीं है जो इतना घबरा रही हो। अरे पगली मुझे खुद तुमसे दूर जाना अच्छा नहीं लगता लेकिन हमारे हमेशा के लिए एक होने के लिए मुझे कुछ दिन तुमसे दूर जाना ही पड़ेगा। एक बात मैं भी जनता हूँ और तुम भी की ऐसे आसानी से हम दोनों के गांव वाले हमें एक होने नहीं देंगे लेकिन जब मैं शहर में बस जाऊंगा तब शायद उन्हें हमारे रिश्ते से कोई परेशानी ना हो", चंदन प्रेम से तारा को समझाते हुए बोला।
तारा ने बड़े बेमन से उदास होकर चंदन को जाने को कह दिया और वापस लौट आयी।
चंदन चला तो गया लेकिन फिर कभी वापस नहीं आया। दो साल हो गए चंदन को गए, लोग उसके बारे में तरह-तरह की बातें करते कि चंदन हिमालय से गिरकर मर गया होगा। कोई कहता विरोधी पहलवानों ने उसे मरवा दिया होगा तो चंदन के गाँव वाले उसके गायब होने में ऊँचे गाँव के लोगों का हाथ बताते।
लेकिन तारा का दिल ये मानने को कभी तैयार नहीं होता था कि चंदन अब नहीं रहा।
किंतु उस दिन भेड़िये से मिलकर लौटने के बाद ना जाने से बार-बार ऐसा क्यों लग रहा था कि वह भेड़िया ही चंदन है। और ऐसा तो तभी सम्भव है जब चंदन ने मरकर भेड़िये के रूप में दूसरा जन्म ले लिया हो।
"तो क्या मेरे चंदन ने भेड़िये के रूप में भी मुझे पहचान लिया। क्या उसे अब भी मुझसे प्रेम…? लेकिन एक भेड़िये को लड़की से प्रेम…, क्या यह सम्भव है? और यदि हुआ भी तो इसका परिणाम क्या होगा? पहले तो केवल जात-पात और ऊँच-नीच का ही भेद था लेकिन अब…! अब तो इंसान और जानवर का भेद हो गया जिसे संसार तो क्या पूरी सृष्टि में कोई स्वीकार नहीं करेगा। किंतु मैं ऐसे क्यों सोच रही हूँ? क्या उस भेड़िये ने मुझे सम्मोहित किया है। लोग कहते हैं कि भेड़िया आँख मिलाकर जिसे देखले वह सम्मोहित हो जाता है और भेड़िये के पीछे-पीछे चला जाता है। तो क्या मैं भी? किंतु मुझे तो उसकी आँखों में प्रेम के अतिरिक्त कोई अन्य भाव दिखाई ही नहीं दिए। और ना ही उसके व्यवहार में किसी तरह की कोई गलत भावना। यदि उसे मुझे किसी तरह का नुकसान ही पहुँचाना होता तो उसे मुझे सम्मोहित करने की क्या आवश्यकता थी। मैं तो खुद ही उसके साथ थी वह जो चाहे कर सकता था? लेकिन उसकी ऑंखों में तो मेरे लिए केवल फ़िक़्र थी। उसे मेरी चिंता थी तभी तो मुझे जंगल पार करवाने मेरे साथ आया था और कितनी देर तक मुझपर दृष्टि रखे रहा था। उसे मुझसे प्रेम है, वह मेरा चंदन हो या ना हो लेकिन वह मेरा सच्चा प्रेमी है। मैं कल फिर उससे मिलने जाऊँगी।", रात भर तारा खुद से ही सवाल-जवाब करती रही।
***4.
सुबह जल्दी उठकर नहा धोकर वह सबसे पहले मंदिर गयी। वहाँ उसने देवता से अपने प्रेम की सलामती की प्रार्थना की। फिर भेड़िये की असलियत जानने की प्रार्थना करके वह घर आ गयी।
तारा को घर में चैन नहीं पड़ रहा था, उसे बार-बार वह भेड़िया याद आ रहा था।
तारा ने कपड़े बदले और बढ़िया खाना बनाकर तैयार होकर चल पड़ी जँगल की ओर… अकेली।
तारा को खुद पर लज्जा आ रही थी जब वह सज-संवर रही थी।
"एक भेड़िये के लिए ऐसे तैयार होने की क्या तुक है?" उसने खुद से पूछा लेकिन बस मुस्कुरा कर रह गयी और अच्छी तरह खुद को बना-सँवार कर अब वह जँगल में थी।
अभी वह भेड़िये की गुफा से बहुत दूर थी तभी उसे दूर से वह भेड़िया अपनी ओर आता दिखाई दिया।
उसे देखकर तारा की धड़कने और कदम दोनों ही की गति तेज हो गयी।
उधर भेड़िया उसके पास पहुँचते ही अपने पिछले दो पैरों पर खड़ा हो गया और अगले पैर तारा के स्वागत में खोल दिये मानों कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए बाहें फैलाये खड़ा हो।
इधर तारा ने भी दौड़ लगा दी और उसकी खुली बाहों में समा गई।
तारा को ये फौलादी पकड़ बिल्कुल चंदन की पहलवानी पकड़ जैसी ही महसूस हो रही थी। उसने भी अपनी बाहें भेड़िये के गले में डालकर उसे अपने और करीब खींच लिया।
"तुम मेरे चंदन हो ना? मुझे पता है तुम चंदन ही हो क्योंकि ऐसी पकड़ तो बस मेरे चंदन की ही हो सकती है", तारा ना जाने किन सोचों में गुम होकर कह गयी। उसकी इस बात पर भेड़िये ने भी अपनी कसावट उसके जिस्म पर बढ़ा दी और अपनी जीभ से उसकी गर्दन चाटने लगा।
ये दोनों कुछ देर सबकुछ भूलकर ऐसे ही खड़े रहे फिर भेड़िये ने उसे छोड़ा और उसे पकड़ कर गुफा की ओर ले चला।
गुफा में पहुँचकर तारा ने खाने की पोटली खोली और बोली, "लो खाना खाओ, मैंने अपने हाथों से तुम्हारे लिए बनाया है।
उसकी बात सुनकर भेड़िया सीधा होकर बैठ गया उसकी आँखों की चमक बता रही थी कि वह बहुत खुश है।
तारा ने अपने हाथों से भेड़िये को खाना खिलाया और फिर उसकी आँखों में देखने लगी।
कुछ देर ऐसे ही बैठे रहने के बाद भेड़िया अधलेटा सा हो गया और उसने तारा को अपने पास लेटने का इशारा किया। तारा उसकी गोद में सिर रख कर लेट गयी और वह बहुत प्रेम से उसके बालों को सहलाता रहा। शाम होने से पहले तारा अपने घर वापस लौट आयी।
अब तारा का ये रोज का क्रम बन गया था, वह तरह-तरह का खाना बनाती खुद को अच्छे से तैयार करती और जँगल में चली जाती। वह भेड़िया भी उसका इंतजार करता था। दोनों देर तक प्रेमालाप करते एक दूसरे को सहलाते, चूमते और गले लग कर लेट जाते। तारा ने उस पत्थर की गुफा में घास का बढ़िया बिस्तर भी लगा दिया था जिससे अब ये दोनों आराम से बैठ पाते थे।
भेड़िया रोज शाम को तारा को छोड़ने उसके साथ जँगल की सीमा तक भी आता था।
ऐसे ही कोई सात-आठ दिन हो गए थे तारा और भेड़िये को मिलते हुए।
उस दिन भेड़िया तारा की गोद में सिर रखे लेटा हुआ था। तारा उसके बालों में उँगलियाँ घुमाते हुए उसका बदन सहला रही थी।
अचानक तारा का हाथ उसकी गर्दन पर दाएं कंधे के ठीक ऊपर रुक गया। वहाँ कोई कठोर चीज भेड़िये के कँधे में धँसी हुई थी।
तारा ने भेड़िये के बालों को हटाकर ध्यान से देखा, वह किसी हड्डी का टुकड़ा जैसा दिखाई दे रहा था।
"अरे ये क्या है? तुम्हारे कंधे में ये हड्डी कैसे घुसी…, और इससे तुम्हें दर्द नहीं होता? चलो सीधे लेटो मैं निकालती हूँ इसे", तारा ने कहा और भेड़िये का सिर अपने गोद से हटाकर नीचे रख दिया।
भेड़िये ने एक बार उसकी आँखों में देखा और फिर अपनी आँखें बंद कर लीं।
तारा पहले गुफा के बाहर आयी और जल्दी ही कोई घास लेकर मसलती हुई अंदर आ गयी।
"यह घमरा घास है, हड्डी निकालने पर तुम्हारा जो खून बहेगा यह उसे रोकने में मदद करेगी। अब तुम सीधे लेटो और अच्छे बच्चों की तरह अपनी ऑंखें बन्द कर लो", तारा ने भेड़िये की पीठ सहलाते हुए कहा और वह आँख बंद करके लेट गया।
तारा ने उसके बालों को हटाकर मजबूती से वह हड्डी पकड़ी और पूरी ताकत से खींच दी। उसके निकलते ही भेड़िया जोर से कराहते हुए चीखा जिससे तारा का ध्यान भटका और वह नुकीली हड्डी उसकी पिंडली में चुभ गयी जो उसके नीचे बैठते समय लहँगा ऊपर सिमटने के कारण नग्न हो गयी थी।
लेकिन तारा ने इसपर ध्यान नहीं दिया और जल्दी से घास लेकर भेड़िये के घाव पर लेप करने लगी।
अभी कुछ ही देर गुजरी थी कि वह भेड़िया कराहते हुए पैर मसलने लगा, उसकी कमर सीधी होने लगी थी और चेहरे और शरीर के बाल गायब होने लगे थे।
तारा उसके बदलते रूप को देखकर बहुत आश्चर्यचकित थी। वह बहुत गौर से उसे देख रही थी।
***5.
भेडियन :-5
देखते ही देखते भेड़िया इंसानी रूप लेता जा रहा था और अब तारा को भेड़िये की जगह उसका चंदन नज़र आ रहा था। निर्वस्त्र कमज़ोर सा चंदन।
"चंदन आप??? ये भेड़िया!! आप ही भेड़िया बनकर घूम रहे थे और मैं पागलों की तरह आपको ना जाने कहाँ-कहाँ ढूंढ रही थी।
क्या हुआ था आपको? कैसे हुआ ये सब बताओ मुझे? चंदन ओ मेरे चंदन!!", तारा खुशी में चंदन से लिपट गयी। और कितनी ही देर उसे पागलों की तरह चूमती रही।
कुछ देर बाद चंदन उठकर बैठ गया और उसने तारा का दुपट्टा उठाकर अपनी कमर में लपेट लिया।
अब तारा को उसकी नग्नता का अहसास हुआ और वह लाज से लाल हो गयी। लेकिन कुछ ही पल में उसने सँभलते हुए फिर अपना सवाल दोहराया, "बताओ ना चंदन क्या था ये सब और कैसे हुआ?"
"तारा तुम्हें याद है जब मैं जड़ी-बूटियां लेने हिमालय पर गया था? उस दिन पूर्णिमा की रात थी। मैं जिस जड़ी की खोज में गया था उसकी सुरक्षा पूर्णिमा की रात में भेड़िया मानव करते हैं मुझे किसी ने यह नहीं बताया था। मैं जैसे ही उस जड़ी के पास पहुँचा मुझे अनेक भेड़ियों की गुर्राहट सुनाई दी लेकिन मैं उसे सामान्य भेड़ियों की आवाज सुनकर अनसुना कर गया और उस जड़ी की ओर बढ़ने लगा।" चन्दन ने अपनी कहानी सुनानी शुरू की-
चन्दन को किसी साधु ने बताया था कि यदि तुम महाशक्तिशाली बनना चाहते हो तो तुम्हें हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों के बीच से एक दिव्य जड़ी लानी होगी। वह जड़ी केवल हिमालय की बर्फ में ही उगती है। और उसकी विशेष पहचान यह है कि पूर्णिमा की रात चंद्रमा के प्रकाश में वह जड़ी सोने की भांति चमकती है।
चन्दन तारा से सारी बात बताकर निकल गया हिमालय की ओर अकेला, कुछ अपनी शक्ति के अतिविश्वास ने और कुछ महाशक्तिशाली बनने की लालसा ने उसमें अति साहस जगा दिया था।
चन्दन दस-बारह दिन की अनवरत कठिन यात्रा के बाद पर्वत के उस शिखर के नीचे खड़ा था जिसपर दूध सी सफेद बर्फ जमी हुई थी। सूर्य का प्रकाश पड़ने से वह सारा पर्वत स्वर्ण की आभा दे रहा था।
यह देखकर चन्दन रक पल के लिए सोच में पड़ गया, "गुरुजी ने तो कहा था कि केवल वह जड़ी ही सोने की तरह चमक रही होगी; लेकिन ये तो पूरा पर्वत ही सोने का बना हुआ लगता है।
अब इतने सारे सोने में से मैं उस एक जड़ी को कैसे खोज पाउँगा?"
कुछ देर उदास होकर चन्दन वहीं पर्वत के नीचे एक सिला पर बैठकर सोचता रहा।
अचानक उसे याद आया, "अरे!! गुरुजी ने तो कहा था कि मुझे वह जड़ी रात में लेनी है। और रात में तो सूर्य का प्रकाश होगा ही नहीं। मैं भी निरा ही बुद्धू हूँ। सही कहती है 'तारा' पहलवानी कर-कर के मैंने सच में अपने दिमाग को अपनी तरह मोटा बना लिया।
और वह कुछ देर के लिए तारा की याद में खो गया, "कितना चाहती है तारा उसे!! उसके यहाँ आने की बात पर कितना उदास हो गयी थी। लेकिन जब मैं महाशक्तिशाली बनकर लौटूंगा तब उसे भी तो अपने प्रेम पर गर्व होगा। मैं तारा को कभी खुद से दूर नहीं होने दूँगा चाहे उसके लिए मुझे सारी दुनिया से ही क्यों ना लड़ना पड़े। लेकिन ये समाज का ऊँच-नीच जाती उपजाति का भेदभाव?? क्या ये कभी खत्म होगा। शायद नहीं?" चन्दन के मुख पर खुशी और उदासी के भाव आ-जा रहे थे और वह उसी सिला पर अधलेटा सा हो गया था।
कुछ देर बाद चन्दन ने पर्वत पर चढ़ना शुरू कर दिया।
शाम का झुकमुक़ा होने से पहले ही चन्दन पर्वत पर चढ़कर बर्फ तक पहुँच चुका था। दूर-दूर तक सफेद बर्फ के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता था। हवा के साथ भी बर्फ रुई की तरह उड़ रही थी जिसके चलते मौसम बहुत ठंडा हो रहा था।
चन्दन ने खुद को अपनी चादर में कस कर लपेटा और बर्फ में जड़ी खोजने लगा।
"यहाँ तो बर्फ के अलावा कुछ भी नज़र नहीं आ रहा। लगता नहीं इस बर्फ में कभी कोई घास उगी भी होगी। और इस ठंड में इस बर्फीले पर्वत पर रात गुजारना तो जैसे असम्भव ही है। कहीं गुरुजी ने मुझसे व्यर्थ का श्रम ही तो नहीं करा दिया?" चन्दन मन ही मन खुद से बातें कर रहा था। रात गहराने लगी थी तभी चन्दन को आसमान में पूरा चाँद नज़र आया और उसकी एक किरण का पीछा करते हुए चन्दन की आँखे नीचे बर्फ पर पड़ी जहाँ दूर एक सोने के फूल जैसी कोई दिव्य जड़ी साफ दिखाई दे रही थी।
चन्दन उसे देखकर खुशी से उछल पड़ा और उसने जड़ी की ओर दौड़ लगा दी।
जैसे-जैसे चन्दन उस जड़ी की ओर बढ़ रहा था उसे अहसास हो रहा था कि वह इस पर्वत पर अकेला नहीं है। उसे दूर से बहुत से भारी कदमों की आहट के साथ ही अनेकों भेड़ियों के गुर्राने की आवाजें भी आ रहीं थीं।
चन्दन इसे अपने मन का वहम समझकर अपनी मंजिल की ओर तेज़ी से बढ़ता जा रहा था किंतु
जैसे-जैसे 'चन्दन' उस जड़ी की ओर बढ़ रहा था वह आवाज तेज होती जा रही थी, जैसे वे भेड़िये उसे उस जड़ी के पास ना जाने की चेतावनी दे रहे हों किंतु अपनी धुन में चन्दन रुका नहीं उसे अपनी शक्ति बढ़ाने के अलावा कुछ और दिखाई नहीं दे रहा था और उसका साधन वह शक्ति जड़ी उसके ठीक सामने ही थी। वह अपनी धुन में यह भी नहीं देख पाया कि वह चारों तरफ से भेड़ियों और मानव भेड़ियों से घिर चुका है। उस पर तो जैसे उस दिव्य जड़ी का सम्मोहन सा हो गया था, वह सब कुछ भूलकर बस उसे जल्द से जल्द पाना चाहता था।
वह उन मानव भेड़ियों की चेतावनी को बिल्कुल भी नहीं सुन रहा था और ना ही देख पा रहा था उनकी गुस्से से लाल होती आँखें और लपलपाती जीभ को जो भूख से लार टपका रही थी।
जैसे ही चन्दन ने उस दिव्य जड़ी को उखाड़ने के लिए हाथ बढ़ाया एक मानव भेड़िये ने उसके ऊपर छलाँग लगा दी। वह भेड़िया बहुत विशालकाय था और दो पैरों पर किसी इंसान की भाँति चल रहा था। उसने चन्दन की गर्दन में अपने दाँत गढ़ा दिए। और जब उसने अपनी पूरी शक्ति से उस आधे भेड़िये को जोर से धक्का दिया तो उसका एक दाँत टूटकर चन्दन के कंधे में ही धंसा रह गया।
उसके कुछ देर बाद ही चन्दन का रूप बदल गया और वह भेड़िया बन गया।
आब तक उसके चारों ओर अनेकों भेड़िये इकट्ठा हो गए थे और उस पर गुर्राने लगे थे। चन्दन को अब उनकी बात समझ में आ रही थी। वे सब चन्दन से बहुत नाराज़ थे क्योंकि उसने उनके चेतावनी देने के बाद भी उस दिव्य जड़ी को छुआ था?
"वह जड़ी चन्द्र देवता के अधीन है और बिना उनकी अनुमति कोई उसे नहीं छू सकता। जो भी उसे शक्ति के लोभ में बिना अनुमति हाथ लगाता है, वे लोग उसे काट कर भेड़िया बना देते हैं जो हर पूर्णिमा को भेड़िया बनकर उनके झुंड में सम्मिलित होकर उस जड़ी की सुरक्षा करता है।
बाकी दिनों में वह अपने वास्तविक रूप में ही रहता है।" एक भेड़िये ने उसे बताया।
चन्दन रात भर वहाँ रहा उन्ही के साथ, सुबह होते ही उनमें से कुछ भेड़िये मनुष्य बनकर चले गए कुछ वहीं पर भेड़िये बने उसके चारों ओर घूम रहे थे।
चन्दन ने उनसे पूछा, "बाकी सब मानव भेड़िये अपने असली रूप में आ गए फिर मैं क्यों नहीं आया?"
तो उनमें से एक बोला कि, "कई लोगों को अलग-अलग दिनों में भी काटा जाता है ताकि पूर्णिमा के अलावा भी इस स्थान की सुरक्षा के लिए कोई ना कोई रहे। किंतु पूर्णिमा की रात इन सभी में भेड़िया बनने की इच्छा बहुत तेज़ हो जाती है।
क्योंकि हम सभी भेड़िया मानव चंद्र देव के सेवक हैं, इसलिए उनके पूर्ण रूप के दर्शन हमारे लिए बहुत शुभ माने जाते हैं। इसलिए जिन्हें अन्य दिनों में भेड़िया बनाया जाता है उन्हें भी पूर्णिमा के दिन भेड़िया अवश्य बनाया जाता है।"
"किंतु मुझे तो आप लोगों ने पूर्णिमा के दिन ही भेड़िया बनाया है फिर मैं सुबह वापस अपने रूप में क्यों नहीं आया?" चन्दन ने फिर सवाल किया।
लेकिन उसकी इस बात का जवाब उनमें से किसी के भी पास नहीं था।
"मैं काफी समय उन लोगों के साथ रहा इस उम्मीद में कई शायद ये लोग मुझे वापस मेरा असली रूप लौटा दें लेकिन मुझे निराशा ही हाथ लगी।" चन्दन तारा को अपनी कहानी सुनाते हुए आगे बताने लगा-
"भेड़िया बने रहने के कारण धीरे-धीरे मैं तन से ही नहीं मन से भी भेड़िया बन गया था और भेड़ियों की तरह हिंसक होकर शिकार करने लगा था।
भूख मिटाने के लिए शिकार तो मुझे वैसे भी करना ही पड़ता था", चंदन अपनी आप बीती सुनाते हुए बहुत उदास हो रहा था उसकी ऑंखों से आँसू बह रहे थे।
तारा ने उसे पकड़कर उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और उसके आँसू पोंछकर उसके वालों में उँगलियाँ घूमने लगी।
"फिर क्या हुआ चंदन?" तारा ने धीरे से पूछा।
"फिर एक दिन मैं परेशान और निराश होकर मौका पाकर उस जड़ी में मुँह मारकर उस जगह से चला आया। मैं उस जड़ी को बिना खाये वहाँ से खुद भी आना नहीं चाहता था जिसके कारण मुझे ये पशु योनि मिली, नहीं तो ऐसे तो मैं कब का वहाँ से भाग निकलता।
मुझे जँगल के अंदर रास्ता पता नहीं था, बस दिशा का अनुमान लगाकर चल रहा था। अपनी इस यात्रा में मेरा सामना कई बार असली भेड़ियों और शेर-चीतों से भी हुआ लेकिन मैं हर बार सब पर भारी पड़ गया। तब मुझे एहसास हुआ कि मुझे बहुत अधिक शारिरिक बल प्राप्त हो चुका है, लेकिन इस भेड़िया शरीर में…? यह शक्ति अब मेरे किस काम की थी तारा?" चंदन ने अफसोस करते हुए तारा से प्रश्न किया। बदले में तारा बस आँखों से आँसू बहाती रही।
6.
अचानक चंदन को अपने कान के पास कुछ गीला सा लगा तो वह चौंककर झटके से उठ बैठा। उसने देखा कि तारा की पिंडली से खून बह रहा था।
"तुम्हे ये चोट कब और कैसे लगी तारा?" चंदन ने परेशान होते हुए पूछा।
"चोट…! कहाँ?" तारा ने अपने पैर की ओर देखते हुए पूछा।
"अरे! कमाल है तुम्हारे पैर से इतना खून बह रहा है और तुम्हे याद तक नहीं कि यह घाव कैसे लगा", चंदन नाराज होता हुआ बोला लेकिन उसकी नाराजगी में भी तारा के लिए फ़िक़्र थी।
"ओह्ह!! याद आया जब मैंने वह दाँत आपके कंधे से खींच कर निकाला था तब तुम दर्द से कराहे थे बस उसी से मैं हड़बड़ा गयी थी और उसी हड़बड़ी में वह दाँत मेरे पैर में चुभ गया था। लेकिन आप फ़िक़्र ना करो छोटा सा ही घाव है। मैं अभी इसपर घमरा का रस लगा देती हूँ, जल्दी ही खून रुक जाएगा और एक-दो दिन में घाव भी भर जाएगा", तारा कुछ याद करते हुए बोली।
"क्या कहा!! दाँत चुभ गया था? कितनी लापरवाह हो तारा तुम! उफ्फ!!! तुम्हें पता है तुम्हारी लापरवाही और नासमझी ने कितनी बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी है? अरे पागल अब तक तो उस दाँत पर लगा खून तुम्हारे सारे खून में मिल गया होगा।
हे ईश्वर अब क्या होगा? काश तुमने उसी समय मुझे बता दिया होता तो हम तुम्हारे खून बहाकर इस भेड़िये के खून को तुम्हारे खून में मिलने से रोक सकते थे। लेकिन अब…! अब मुछ नहीं हो सकता।
आज अमावस्या की रात है और आज की रात तुम भी भेड़िया बनोगी", चंदन ने नाराज़गी और उदासी भरे स्वर में कहा।
"क. क.. क… क्या कहा आपने? मैं और भेड़िया", घबराहट में तारा की चीख निकल पड़ी।
"हाँ तारा अब हम कुछ नहीं कर सकते, अब तुम्हें मानव भेड़िया बनने से कोई नहीं बचा सकता। उसी समय शायद कुछ हो सकता था", चंदन निराश के भाव लिए धीरे से बोला।
तारा कुछ देर सिर पर हाथ रखे चुपचाप बैठी रही फिर अचानक सामान्य होकर बोली, ",अच्छा है ना पहलवान जी, अब हम दोनों एक जैसे हो गए। नियति को हमारे मिलन के लिए शायद यही मंज़ूर हो। मुझे आपको पाने के लिए जो भी बनना पड़े मैं तैयार हूँ। आप दुखी ना हों चंदन जी।"
"तुम्हें नहीं पता तारा कि यह कितना दर्दनाक होता है एक मनुष्य होकर खुद को एक जानवर के रूप में देखना", चंदन दुख भरी आवाज में कहने लगा।
"कोई बात नहीं चंदन जी इसी बहाने मुझे आपके दर्द को महसूस करने का अवसर मिलेगा और फिर एक भेड़िये को संभालने के लिए भेड़िया होना ऐसे भी बहुत ज़रूरी है। बाप रे आपको पता है मैं कितना डर गई थी उस दिन जब हम पहली बार मिले थे और आपने मुझ पर छलांग लगा दी थी।
मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा था कि आप चाहते क्या थे, मुझे खाना या फिर…? और आपकी वे लाल-लाल आँखें…, उफ!!! एक पल को तो मेरी जान ही निकल गयी थी", तारा उस दिन को याद करते हुए पूछने लगी।
"तब मैं हिंसक भेड़िया बन चुका था और शिकार के लिए ही तुम्हारे ऊपर झपटा था लेकिन जैसे ही मैंने तुम्हारी आँखे देखीं मुझे मेरे मैं याद आ गया जिसमें तुम समायी हुई थीं, और बस मेरे अंदर का जानवर मुझे छोड़कर चला गया। तारा उस दिन मैं बहुत खुश था। मैं तुमसे कितनी बातें करना चाहता था लेकिन तुम्हें मेरी भाषा समझमें ही कहाँ आती। लेकिन मैं तुम्हारी हर बात समझता था। मैं जब हिमालय से वापस लौटा तो मुझे यहाँ इस जंगल तक पहुँचने में बहुत दिन लग गए। या शायद कई महीने। इस बीच मुझे बस शिकार ही याद रहा। लेकिन मेरे मन में कहीं ना कहीं यहाँ आकर तुम्हे देखने की इच्छा अवश्य थी। लेकिन फिर भी पहली नज़र में मैंने तुम्हें नहीं पहचाना और तुम पर हिंसक जानवर की तरह हमला कर दिया उसके लिए मुझे माफ़ कर दो। और अब मेरी वजह से तुम्हे भी ये भेड़िया मानव की योनि मिल गयी उसके लिए भी", चंदन हाथ जोड़ते हुए तारा से माफी माँगने लगा।
7.
"अर्रे!! क्या करते हो आप? मुझपर पाप चढ़ा रहे हो ऐसे मुझसे क्षमा माँगकर!! मुझे सच में बहुत खुशी है कि हम दोनों एक जैसे हो गए हैं। अब हमें एक होने से कोई रोक तो नहीं पायेगा।
और फिर कितना आनंद आएगा जब मैं लड़की होकर एक भेड़िये से प्रेम करूंगी, आप लड़का होकर एक मादा भेड़िये से मोहब्बत करोगे या फिर हम दोनों भेड़िया बनकर आपस में…., वैसे मुझे बहुत अच्छा लगता था जब एक हिंसक भेड़िया मेरे सामने दुम हिलाते हुए मुझे प्यार करता था", तारा ने अर्थपूर्ण स्वर में कहा और फिर शरमा कर खुद ही अपना चेहरा छिपा लिया।
चंदन बस उसे चुपचाप देख रहा था।
"अच्छा सुनो आज रात तुम्हें यहीं रहना होगा मेरे पास", चंदन ने कुछ सोचते हुए कहा।
"क्यों! क्या हुआ? आज मन नहीं भर रहा बातें करके?", तारा ने हँसते हुए पूछा।
"अरे बुद्धू! भूल गयी आज की रात तुम्हें भेड़िया बनना है। तो क्या रात में गाँव में भेड़िया बनकर आतंक मचओगी? और फिर सबको पता लग जायेगा सो अलग की तुम भेड़िया हो। फिर क्या होगा पता है…? लोग अगले पिछले सारे भेड़ियों के शिकार तुम्हारे सिर पर डालकर तुम्हारा शिकार कर देंगे। मार डालेंगे गाँव वाले तुम्हें पगली", चन्दन उदास होकर कहने लगा।
"ओह!! ये तो मैंने सोचा ही नहीं। फिर तो मुझे सच में यहीं रहना होगा आज की रात। लेकिन घर में सब? उन्हें क्या कहूँगी?" तारा परेशान होते हुए बोली।
"तुम ऐसा करो अभी घर चली जाओ और शाम होने से पहले कोई बहाना बनाकर यहाँ आ जाना और मेरे लिए कुछ कपड़े भी ले आना। कल फिर हम दोनों एक साथ गाँव चलेंगे और जल्दी ही मंदिर में विवाह कर लेंगे", चंदन ने उसे समझाते हुए कहा।
"अच्छा ठीक है जाती हूँ लेकिन आप गुफा से बाहर मत निकलना कहीं भूल जाओ की आप अब भेड़िया नहीं रहे और लग जाओ किसी गीदड़ी के पीछे", तारा ने जोर से हँसते हुए कहा और दुपट्टा खींच कर जल्दी से गुफा के बाहर निकल गयी।
घर जाकर तारा ने सबको बताया कि उसने मन्दिर में मन्नत मांगी थी कि वह अमावस्या के दिन अकेले रतजगा करेगी तो वह वहाँ जा रही है। कोई उसकी फ़िक़्र ना करे, वह सुबह तक वापस लौट आएगी।
उसके बाद तारा ने पकवान बनाये और अपने पिताजी के नए कपड़े लेकर शाम होने से पहले ही पहुँच गयी गुफा में।
तारा ने बाहर से ही आवाज लगाई, "पहलवान जी अंदर ही हो या शिकार पर निकल गए?"
"अंदर ही हूँ तारा", अंदर से चंदन ने जवाब दिया।
"तो लो ये कपड़े पहन लो तभी मैं अंदर आऊँ", तारा ने कपड़े अंदर फेंकते हुए कहा।
"आ जाओ अंदर",चंदन ने कुछ देर बाद आवाज लगायी।
तारा गुफा के अंदर आ गयी और खाने की पोटली खोलते हुए बोली, "लो जी पहले खाना खा लो फिर रात को इस भेड़ियन को संभालने में पता नहीं आपके साथ क्या हो? और फिर रात को आपको बहुत ताकत की जरूरत पड़ेगी और ताकत तो खाने से ही आएगी।"
"ऐसा कुछ नहीं है तारा तुम्हे बस मेरी आँखों में देखते रहना है। उसके बाद तुम्हे पता ही नहीं लगेगा कि तुम भेड़िया बनी भी थी या नहीं। एक बात का और ध्यान रखना भूलकर भी गुफा से बाहर मत निकलना नहीं तो शायद मैं भी तुम्हे संभाल नहीं पाऊँगा। क्योंकि ये तुम्हारा पहली बार होगा और अभी तुम्हें खुद को संभालने में समय लगेगा। धीरे-धीरे जब तुम्हें इसकी आदत हो जाएगी तब तुम खुद पर काबू करना सीख जाओगी", चंदन तारा को समझाते हुए बोला।
"ठीक है मालिक ऐसा ही होगा। अब चलें खाना खाएं? बेकार में ठंडा हो रहा है", तारा ने कहा और पोटली खोलने लगी।
तारा ना जाने क्यों बिल्कुल भी भयभीत नहीं थी अपने भेड़िया बनने की बात से, उल्टा उसकी बातों से लगता था कि वह इसके लिए तैयार है और बहुत उत्साहित भी।
लेकिन चंदन को बहुत चिंता हो रही थी कि "ना जाने तारा भेड़िया बनकर कैसा व्यवहार करें। कहीं वह ज्यादा हिंसक हो गयी तो वह उसे कैसे संभालेगा?"
कुछ देर बाद तारा चंदन की गोद में सिर रखकर लेट गयी और उसकी आँखों में देखने लगी।
"क्या हुआ ऐसे क्या देख रही हो?" चंदन ने उसके वालों में उँगलियाँ घुमाते हुए बड़े प्यार से पूछा।
"अभ्यास कर रही हूँ पहलवान जी, आज सारी रात मुझे ऐसे ही तो देखना है। वैसे अगर आपको डर लग रहा हो कि मैं भेड़ियन बनकर आपको शिकार ना बना लूँ तो आप मुझे बाँध क्यों नहीं देते इससे आप ?" तारा ने चंदन की ऑंखों में डर की झलक देखते हुए कहा।
"पागल हो तुम पूरी, ऐसे बाँधने से क्या होगा? अरे बुद्धू हमें खुद को संभालने का अभ्यास करना है जो ऐसे बाँधने से संभव नहीं है। ऐसे तो तुम्हारे और हिंसक हो जाने का खतरा हो सकता है। क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम खुद को संभाल नहीं पाओगी तारा?" चंदन ने मुस्कुराते हुए लेकिन चिंतित स्वर में पूछा।
"मुझे तो आपकी आँखों के अलावा और कुछ देखना अच्छा ही नहीं लग रहा जी। आप परेशान ना हों आपकी आँखे मुझे संभाल लेंगी", तारा ने भी मुस्कुराते हुए कहा और कस कर चंदन के गले लग गयी।
ऐसे ही बातें करते-करते सूरज ने अपनी आखिरी किरण भी समेट ली और अमावस्या की रात वह भी घने जंगल में हो होने के कारण वहाँ कुछ जल्दी ही गहरा अँधेरा पसर गया। इनके पास गुफा को रौशन करने का कोई और साधन भी नहीं था तो दोनों अपने घास के बिछौने पर एक दूसरे की बाहों में समाए लेट गए।
8.
लगभग आधी रात के समय अचानक तारा के मुँह से गुर्राहट की आवाज निकलने लगी।
चंदन जो कि सोया नहीं था उस आवाज को सुनकर उठकर बैठ गया और तारा को देखने लगा।
तारा के पैर धीरे-धीरे मुड़ रहे थे।
उसके नाखून बढ़ने लगे थे और उसका शरीर बालों से भर रहा था।
"तारा…! ओ तारा…!" चंदन ने तारा को पुकारा। तारा के मुँह से निकलने वाली गुर्राहट तेज़ हो गयी और वह झटके से उठ गयी। लेकिन बिल्कुल किसी चौपाये जानवर की तरह।
तारा अब पूरी तरह से भेड़िया बन चुकी थी। वह आँखे लाल किये चंदन पर झपट पड़ी लेकिन चंदन ने उसे थाम लिया और अपने हाथों में उसे मज़बूती से पकड़े-पकड़े उसकी आँखों में अपनी आँखें डाल दीं।
"तारा संभालो खुद को…! इधर देखो ये मैं हूँ, तुम्हारा चंदन", चंदन उसकी आँखों में देखते हुए तेज़ आवाज में कह रहा था।
तारा ने पहले तो कुछ देर कसमसाकर चंदन की पकड़ से छूटने की कोशिश की लेकिन चंदन की शक्ति के आगे वह बेबस हो गयी। फिर चंदन की आवाज पर वह उसकी आँखों में देखने लगी और उसकी लाल होती आँखों का रंग बदलने लगा।
धीरे-धीरे वह सामान्य होने लगी, अब उसने छूटने के प्रयास करना बंद कर दिया था। अब तारा के मुँह से गुर्राहट भी नहीं निकल रही थी और उसकी आँखे भी सामान्य हो गयीं थीं।
चंदन समझ गया कि तारा अब उसकी बात सुन और समझ रही है।
चंदन ने तारा को अब कसकर खुद से चिपका लिया और तारा ने भी चंदन को अपने पंजों में कस कर उसे अपनी जीभ से चाटना शुरूकर दिया।
"अब छोड़ो भी तारा या मुझे दबाकर मार ही डालोगी", चंदन ने मुस्कुराकर कहा।
अचानक तारा के मुँह से तेज गुर्राहट निकली और उसने चंदन को घास के उस बिछौने पर पटक दिया और उसके ऊपर छलांग लगाकर फिर उसकी आँखों में देखने लगी।
"बदला ले रही हो?" चंदन उसकी इस हरकत पर मुस्कुरा उठा और उसे पकड़कर अपने पास लिटा लिया।
"आराम कर लो तारा ऐसे जोश दिखाओगी तो कल पूरा शरीर दुखेगा तुम्हारा", चंदन उसकी गर्दन सहलाते हुए बोला।
बदले में तारा ने उसके गले पर अपनी जीभ रगड़ दी मानों कह रही हो कि उसे यह अच्छा लग रहा है।
सारी रात तारा चंदन को छेड़ती रही और प्यार जताती रही। बदले में चंदन भी उसके ऊपर उँगलियाँ चलाता रहा।
सुबह सूरज की लाली फैलने के साथ ही तारा जमीन पर गिर गयी। उसका शरीर सीधा होने लगा और उसके बाल और नाखून गायब होने लगे। कुछ ही देर में तारा अपने सामान्य रूप में बिछौने पर पड़ी थी। उसके कपड़े नीचे जमीन पर पड़े हुए थे।
"उठो तारा कपड़े पहन लो, मैं बाहर जा रहा हूँ", चंदन ने उसके ऊपर दुपट्टा डालकर कहा और हँसता हुआ बाहर निकल गया।
तारा चंदन की बात सुनकर शर्मिंदा हो गयी और चुपचाप दुपट्टे में सिमट गयी।
कुछ देर बात उसने चंदन को पुकारा, "आ जाओ अंदर, कहाँ हो आप।
चंदन उसकी आवाज सुनकर अंदर आया तो तारा घुटनों में सिर छिपाए बैठी हुई थी।
"क्या हुआ तारा ऐसे क्यों बैठी हो? वापस तारा बनकर अच्छा नहीं लग रहा क्या भेड़ियन को?"
तारा बिना कुछ कहे झटके से उठी और चंदन के गले से लिपट कर खुद को उसके सीने में छिपाने लगी।
"अरे पागल! शर्माती क्या है? हम प्रेमी हैं और बहुत जल्दी ही पति-पत्नी बन जायेंगे। तब भी क्या ऐसे ही शर्माओगी? वैसे सच कहूँ तो मैंने तारा का कुछ नहीं देखा हाँ भेड़ियन बहुत खूबसूरत थी और भूखी भी", चंदन ने कहा और हँसने लगा।
"अच्छा बताऊँ अभी आपको…।" तारा झूठे गुस्से में चंदन के सीने पर घूँसे बरसाने लगी और फिर उससे लता की भाँति लिपट गयी।
"अच्छा चलो अब गाँव चलते हैं, बहुत दिन हो गए परिवार और गाँव वालों से मिले और फिर तुम्हारे परिवार से मिलकर हमारे विवाह की बात भी तो...", चंदन ने तारा को अलग करते हुए कहा।
तारा ने कुछ नहीं कहा बस हाँ में सिर हिला दिया।
चंदन और तारा एक दूसरे का हाथ पकड़े सबसे पहले कुलदेवता के मंदिर गए जहाँ उन्होंने एक साथ पूजा करके उनका धन्यवाद किया।
उसके बाद वे दोनों चंदन के गांव पहुँचे जहाँ चंदन के परिवार वाले चंदन को जीवित देखकर बहुत खुश हुये और जब चंदन ने कहा कि तारा के कारण ही वह वापस लौट सका और अब वह तारा से विवाह करना चाहता है तो खुशी-खुशी उनके विवाह के लिए मान गए।
उसके बाद ये दोनों पहुँचे तारा के गाँव में जहाँ सभी गाँव वाले चंदन को जिंदा देखकर बहुत आश्चर्य में पड़ गए क्योंकि सभी लोग चंदन को मरा हुआ मान चुके थे।
तारा ने अपने घर जाकर परिवार से कहा कि, "रात कुलदेवता ने मुझे कहा की मेरा होने वाला पति दूर जँगल में जिंदगी और मौत के बीच अटका तेरी प्रतीक्षा कर रहा है। यदि मैं जाकर उसे कुलदेवता का प्रसाद खिला दूँ तो उसका जीवन बच जाएगा और फिर उसके साथ विवाह करके मैं सुखी जीवन व्यतीत करूँगी। जब में कुलदेवता के आदेशानुसार जँगल में पहुँची तो मुझे वर्षों पहले गायब हुए चंदन जी बेहोशी की हालत में मिले जैसे किसी ने इन्हें ऊपर से पटका हो। इनके कंधे से बहुत खून भी बह रहा था। तब मैंने कुलदेवता के कहे अनुसार इनके मुँह में पूजा का जल डाला जिससे इनकी बेहोशी दूर हो गयी और फिर इन्होंने कुलदेवता का प्रसाद खाया। अब कुलदेवता की आज्ञानुसार हमें एक दूसरे से विवाह करना है नहीं तो देवता कुपित होकर गाँव को श्राप दे देंगे।"
तारा के परिजनों के साथ ही सारे ग्रामवासी भी देवता के डर से सहर्ष इनके विवाह के लिए मान गए और पाँच दिन बाद ही चंदन और तारा का विवाह कुलदेवता के मंदिर में दोनों गाँव के लोगों की उपस्थिति में हो गया।
उस रात चंदन तारा को लेकर उसी जँगल वाली गुफा में चला आया और दोनों ने अपना प्रथम प्रेम मिलन उसी गुफा में घास के बिछौने पर किया।
कुछ ही दिन बाद चंदन ने फिर से दंगल खेलना शुरू कर दिया। अब चंदन को कोई भी पहलवान पछाड़ नहीं पता था। सच में उसके अंदर असीमित बल आ गया था।
प्रत्येक माह की पूर्णिमा को चंदन भेड़िया बनता और अमावस्या को तारा। दोनों ही इन दिनों में गुफा में आकर बन्द हो जाते और एक दूसरे से खूब प्रेम करते।
एक दिन तारा ने चंदन से कहा, "सुनों जी जब भी पूर्णिमा आती है मुझे बहुत बैचेनी होती है जैसे मेरे अंदर कुछ फट रहा है। मुझे उस दिन भेड़िया बनने की बहुत इच्छा होती है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि पूर्णिमा को मैं भी आपके साथ भेड़ियन बनूँ और अमावस्या को आप मेरे साथ भेड़िया बनें।
ऐसे भी हमने हर तरह से प्रेम का आनंद लिया है अब मुझे लगता है कि हमें भेड़िया और भेड़ियन के प्रेम का आनंद भी लेना चाहिए "
चंदन उसकी बात सुनकर हँसने लगा और बोला, "ठीक है अबकी अमावस्या पर तुम मुझे काटकर भेड़िया बना देना और पूर्णिमा पर मैं तुम्हे काटकर भेड़ियन बना दूँगा। फिर हर पूर्णिमा और अमावस्या पर हम दोनों ही भेड़िये बनेंगे और जंगल में मंगल करेंगे।"
चंदन की बात सुनकर तारा खुश हो गयी और दौड़कर उसके गले लग गयी।
9.
चन्दन मन्दिर से लौटा था, उसने देखा कि तारा के मुख पर प्रसन्नता मिश्रित उदासी के भाव छाए हुए थे।
"क्या हुआ तारा ऐसे चेहरे का खिला कमल मुरझाया हुआ सा क्यों हो रहा है? ऐसा लगता है जैसे तुमने इसे खिलने से रोका हुआ है। क्या बात है मुझे बताओ?" चन्दन ने तारा के चेहरे को अपने हाथों में लेते हुए पूछा।
"क… कुछ नहीं हुआ जी।" तारा ने संक्षिप्त उत्तर दिया।
"कुछ तो जरूर हुआ है तारा मैं क्या तुम्हें जानता नहीं हूँ, ऐसे सोचती रहोगी तो क्या कोई हल निकलेगा? मुझे बताओ बात क्या है फिर हम दोनों मिलकर कोई ना कोई हल निकाल लेंगे।" चन्दन ने तारा की आँखों में झाँकते हुए कहा।
"सुनो!!! मैं नहीं चाहती कि हमारा होने वाला बच्चा भी हमारी तरह दरिंदा बनकर पैदा हो।" तारा ने कठोर स्वर में कहा और झटके से खुद को छुड़ाकर पाटी पर बैठ गयी।
"क… क्या कहा तुमने…? बच्चा! हमारा बच्चा?? लेकिन दरिंदा क्यों बनेगा हमारा बच्चा? और उस बात का क्या अर्थ है तारा? आज अचानक ये बच्चे का ख्याल कैसे? कहीं…! क्या ये सच है तारा? क्या तुम गर्भवती…? ओ मेरी प्रिय… ये तो बहुत शुभ सूचना है तारा जो तुम मुझे ऐसे उदास होकर दे रही हो।" चन्दन ने दौड़कर तारा को बाहों में उठा लिया और उसके चेहरे को पागलों की तरह चूमते हुए उसे ले जाकर पलँग पर लिटा दिया।
"ज्यादा प्रसन्न होने की जरूरत नहीं है चन्दन जी, जरा सोचिए कि ये बच्चा हमारे किस मिलन का परिणाम है? जब हम तारा और चन्दन थे या जब हम भेड़िये थे? या फिर जब हम…?? चन्दन जी मुझे सच में बहुत डर लग रहा है कि हमारा ये बच्चा क्या बनकर पैदा होगा। मैं नहीं चाहती कि ये भी आधा मानव और आधा भेड़िया बने। आप कुछ कीजिये, कोई तो मार्ग होगा हमें इस श्राप से मुक्ति दिलाने का। कोई तो होगा जो हमें इस भेड़िये की योनि से मुक्त कर सके। चन्दन जी मैं अपने बच्चे को सामान्य इंसान बनकर ही पैदा करना चाहती हूँ इसके लिए चाहे मुझे अपने प्राण ही क्यों ना देने पड़ें।
आप मन्दिर के पुजारी जी से जानने की कोशिश करना शायद वे किसी ऐसे सिद्ध पुरुष को जनते हों जो हमें इस शाप से मुक्ति का रास्ता बता सके।" तारा ने उदासी के स्वर में कहा। उसकी ऑंखों में आँसू भरे थे।
"ठीक है तारा मैं हर सम्भव प्रयास करूँगा, मैं खुद भी नहीं चाहता कि हमारा बच्चा किसी भी तरह से असमान्य हो। तुम ये चिंता छोड़ दो, हम कोई ना कोई राह अवश्य ही खोज लेंगे।" चन्दन ने दृढ़ विश्वास से कहा और तारा के माथे को चूमकर बाहर निकल गया।
तारा की चिंता ने चन्दन को सोच में डाल दिया था, और कहीं ना कहीं चन्दन खुद भी तारा की बात से सहमत था कि बच्चे को उसकी गलती की सज़ा क्यों मिले?
"मुझे कुछ तो करना होगा। पर्वतों की इन कन्दराओं में एक से बढ़कर एक सिद्ध तपस्या करते हैं, कोई तो हमारी इस समस्या का हल जानता होगा?" चन्दन खुद से ही सवाल-जवाब कर रहा था।
10***
"क्या हुआ जी, कुछ हल मिला? देखिए जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं मेरी चिंता बढ़ती ही जा रही है। और फिर हमारे पास समय भी तो निश्चित ही है। हमें जल्दी ही कुछ उपाय खोजना होगा।" तारा ने चन्दन की आँखों में देखते हुए पूछा।
"कल मुझे एक महात्मा जी मिले थे, उन्होंने बताया कि ज्योतिष मठ में एक शिवभक्त महात्मा जी तपस्या कर रहे हैं। वे भूत-भविष्य के ज्ञाता हैं और परम् सिद्ध हैं। कई परेशानियाँ तो उनके आशीर्वाद से ही ठीक हो जाती हैं। मैं कल सुबह ही उनसे मिलने के लिए निकलूँगा। मुझे ये विश्वास है कि अवश्य ही वे कोई उपाय जानते होंगे।" चन्दन ने तारा को खुद में समेटते हुए कहा।
"मैं भी साथ चलूँगी जी, शायद मुझे देखकर उन्हें मेरी हालत पर तरस आ जाये और वे हमें इस श्राप से मुक्त होने का मार्ग बता दें।" तारा ने धीरे से कहा।
"लेकिन तारा ऐसी हालत में तुम्हारा यात्रा करना क्या ठीक होगा? मैं नहीं चाहता कि तुम्हें और हमारे होने वाले बच्चे को यात्रा के कारण कोई समस्या हो।" चन्दन ने तारा का सिर सहलाते हुए प्रेम से कहा।
"पता नहीं चन्दन जी हमें अपने इस श्राप मुक्ति के लिए कितनी ही यात्राएँ करनी पड़ें, तो हमें यात्रा से भय नहीं खाना है। मैं अवश्य कल आपके साथ ज्योतिष मठ की ओर चलूँगी। मुझे पूरा विश्वास है कि ईश्वर हमें कोई ना कोई राह अवश्य सुझाएँगे।" तारा ने कहा और यात्रा की तैयारियों में जुट गयी।
पूरे दो दिन की यात्रा और काफी खोजबीन के बाद चन्दन और तारा को आखिर सन्त शिवदास जी मिल ही गए। पर्वत के ऊपर एक निर्जन गुफा में साधना में लीन। तारा शिवदास जी के सामने हाथ जोड़े बैठ गयी और चन्दन तारा के पीछे। दोनों ने हाथ जोड़े हुए थे और सिर झुकाकर बहुत धीमी आवाज में सन्त जी से प्रार्थना कर रहे थे।
पूरे दो रात और एक दिन भूखे-प्यासे जागते प्रार्थना करते तारा और चन्दन सन्त जी के सामने डटे रहे।
तब शिव-शिव कहते हुए शिवदास जी ने आँखें खोल दीं।
"क्या कष्ट है मेरे बच्चों जो ऐसे कठिन प्रार्थना करने लगे। मैं तुम्हारी कुछ सहायता कर सका तो पुण्य प्राप्त करूँगा मुझे अपनी सारी समस्या बताओ?" शिवदास जी ने बहुत मधुर वाणी में पूछा।
"महाराज मैं तारा हूँ और ये हैं मेरे पति चन्दन जी। कुछ साल पहले मेरे पति शक्ति प्राप्त करने के लिए हिमालय पर एक जड़ी की खोज में गए थे और……!!!", तारा ने चन्दन और खुद के भेड़िये बनने की सारी कहानी सन्त जी को कह सुनाई और फिर रोते हुए बोली- "सन्त जी अब मैं गर्भवती हूँ और मैं नहीं चाहती कि हमारा बच्चा भी ये श्राप लेकर पैदा हो और लोग उसे दरिंदा कहें। इस लिए हम आपकी शरण में आये हैं। हमें विश्वास है कि आप हमारे इस श्राप से मुक्त होने का कोई ना कोई उपाय अवश्य ही जानते होंगे। स्वामी जी कृपया हमें इस भेड़िया योनि से मुक्त होने का उपाय बताएं, हम बहुत आस लेकर आपके पास आये हैं।" तारा और चन्दन दोनों एक साथ कहते हुए सन्त जी के चरणों में सिर रखकर रोने लगे।
"देखो बच्चों जैसा कि तुमने बताया, ये श्राप तुम्हें चन्द्रदेव के कोप से लगा है क्योंकि तुमने उनकी जड़ी बिना अनुमति छूकर उनका अपमान किया था। और जब श्राप चंद्रदेव का है तो उसकी मुक्ति भी वही करेंगे।" सन्त जी ने कुछ सोचते हुए कहा।
"किन्तु कैसे महाराज?" चन्दन और तारा ने एक साथ पूछा।
"अश्विन माह की पूर्णिमा अर्थात शरद पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा सर्वाधिक प्रसन्न होते हैं। और पृथ्वी पर अमृत वर्षा करते हैं। चन्द्रदेव के आराध्य हैं महादेव शंकर। शरद पूर्णिमा की रात्रि में चन्द्रदेव महादेव शिव से मिलने कैलाश पर्वत पर आते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं।
उस दिन बहुत से लोग रात्रि में खीर बनाकर रख देते हैं इस विश्वास के साथ कि रात्रि में चन्द्रदेव इसमें अमृत डाल देंगे।
ऐसे ही कैलाश पर्वत के पास ही स्थित है राजा मान्धाता का पर्वत जिसपर गन्धर्व कन्याएँ शरदपूर्णिमा की रात्रि में पायस बनाकर चाँदी की कटोरियों में रख देती हैं और सुबह उसे खाती हैं।
तुम्हें शरदपूर्णिमा की रात्रि से पहले कैलाश पहुँचना होगा मेरे बच्चों और वहाँ मानसरोवर में स्नान करके भगवान शिव की पूजा करनी होगी जिन्होंने मस्तक पर चन्द्र को धारण किया हुआ है। उसके बाद सुबह तुम मान्धाता के पर्वत पर जाना और वहाँ जो खीर बिखरी मिले उसे प्रसाद रूप में ग्रहण करके वापस आ जाना। मेरा विश्वास है कि तुम दोनों अपने बच्चे सहित इस श्राप से मुक्त हो जाओगे।
किन्तु शरद ऋतु में कैलाश पर्वत पर पहुँचना लगभग असंभव है। चारों तरफ पर्वतों पर बर्फ जम कर कठोर हो जाती है। और फिर तुम लोगों को दूसरे देश में जाते समय वहाँ की सुरक्षा प्रणाली से भी बचना होगा। तो बहुत सोच-समझकर कदम उठाना मेरे बच्चों।" बाबा शिवदास जी ने कहा और फिर आँखें बंद करके समाधि लगा ली।
11***
"मेरी बात समझो तारा! केवल मार्ग ही नहीं बल्कि गंतव्य भी दुर्गम है। पहले तो हमें गोरखा क्षेत्र को पार करना होगा जो दुर्गम तो है किन्तु खतरनाक नहीं है लेकिन उसके बाद जब हम तिब्बत के क्षेत्र में प्रवेश करेंगे तब हम चीन की सीमा में होंगे जो कि दुर्गम होने के साथ ही साथ हमारे लिए बहुत अधिक खतरनाक भी होगा क्योंकि चीन के क्षेत्र में बिना अनुमति प्रवेश वर्जित है। और रही बात अनुमति की तो ये भी हमारे लिए असंभव ही है।" चन्दन तारा को समझा रहा था।
"मैंने सब सोच लिया है, अभी हमारे पास पूरे तीन महीने हैं हमारी तैयारी करने के लिए। और खुद को श्राप से मुक्त करने के लिए। मैंने तुमसे कहा था ना कि मैं अपने प्राण देकर भी अपने बच्चे को दरिंदे के रूप में पैदा होने से बचाऊँगी। अब बस हमें बाकी सब भूलकर तैयारी करनी है। और रही बात दूसरे देशों की सीमा की तो हमें शरदपूर्णिमा के दिन कैलाश तक पहुँचने के बीच तीन अमावस्या और तीन ही पूर्णिमा पड़ेंगी जिस दिन हम पूरी तरह से भेड़िया होते हैं, और इस दिन हमें कोई भी किसी भी देश की सीमा पार करने से नहीं रोक सकता। और फिर भेड़िया बनकर हम लोग आसानी से एक रात में दस बारह कोस दौड़ सकते हैं। उसके बाद पर्वतों की बर्फ में हमें किसी से कोई खतरा नहीं होगा। तो तय रहा कि हम अमावस्या को ही सीमा पार करने और उस अंधेरी रात में ही अधिक से अधिक दूरी दौड़ने पर ध्यान देंगे बाकी यदि हम सामान्य गति से भी चलते रहे तब भी तीन महीने में बहुत आराम से कैलाश पर्वत पर पहुँच जाएंगे।" तारा ने अपनी योजना बतायी और चन्दन तारा का मुख देखता रहा।
"ऐसे क्या देख रहे हो, बोलो कुछ क्या समझ आया?" तारा ने गुस्से से चन्दन को घूरते हुए कहा।
"सब समझ आ गया मेरी 'भेडियन' अब बस तैयारी शुरू कर दो। खाने के लिए सूखे फल और मेवे, स्वाद बदलने के लिए बहुत थोड़ा सा अनाज जो बिना बर्तन भुना जा सके। पानी के लिए छागल। गर्म कपड़े कुछ भेड़िये की फर युक्त खाल और हम दोनों। लो हो गयी तैयारी, किन्तु तीन माह नहीं बल्कि एक ही माह, हम लोग अश्विन माह के पहले ही दिन से अपनी यात्रा आरम्भ करेंगे और अश्विनी अमावस्या के दिन चीन की सीमा भेड़िये के रूप में पर कर जाएंगे। उसके बाद भी हमारे पास पूरे पन्द्रह दिन होंगे शरद पूर्णिमा तक कैलास पहुँचने के लिए।" चन्दन ने तारा की आँखों में देखते हुए कहा और तारा शरमाकर नज़रे झुकाते हुए दौड़कर चन्दन के गले लग गयी।
12 ***
उसी दिन से चन्दन और तारा सभी प्रमुख शिव मंदिरों में दर्शन और प्रार्थना करने लगे। एक महीने में इन्होंने पंच केदार की यात्रा पूरी कर ली। अब हर समय ये दोनों शिव के पंचाक्षरी मन्त्र 'ॐ नमः शिवाय' का मानसिक जाप करते रहते थे।
एक सप्ताह में पूरी तैयारी करके अश्विन माह के पहले दिन तारा और चन्दन निकल पड़े अपनी यात्रा पर।
यात्रा के आरम्भ में तारा और चन्दन सबसे पहले बागेश्वर धाम पहुँचे जहाँ इन्होंने रात्रि विश्राम किया और भगवान शिव के पंचाक्षरी मन्त्र का निरंतर मानसिक जाप करते रहे। उसके बाद अगले दिन इनका विश्राम जागेश्वर धाम में हुआ जहाँ भगवान शिव निसंतानों को सन्तान देने के लिए जाने जाते हैं वहाँ इन्होंने रात्रि जागरण करके अपने होने वाले बच्चे की सुरक्षा के लिए प्रार्थना की। अगला पड़ाव इन्होंने पातालभुवनेश्वर में किया, इस सारी यात्रा के दौरान दोनों ही शिव के पंचाक्षरी मन्त्र का निरंतर मानसिक जप कर रहे थे।
दोपहर का समय था और ये दोनों अस्कोट के अंगलेख चोटी पर स्थित मल्लिकार्जुन शिव के मंदिर में ठहरे थे और मन ही मन भोलेनाथ से अपनी यात्रा की सफलता की प्रार्थना कर रहे थे।
अश्विन माह की हल्की धूप से हो रही गर्मी में दोपहर बाद इन दोनों ने एक बार फिर अपनी यात्रा की तैयारी की। मार्ग में लिए चारों छागल पानी से भर लिए। कुछ भोजन करके भोलेनाथ को याद करते हुए ये दोनों कालापानी के रास्ते पर आगे बढ़ गए जहाँ से कई दिन की ऐसी ही यात्रा करते हुए दोनों ने एक दिन धारचूला पहुँचकर दोनों ने ओम पर्वत जिसे आदि कैलास भी कहते हैं के नीचे मन्दिर में रात्रि विश्राम और भोजन का प्रबंध किया।
उसके बाद लिपुलेख, कालापानी आदि पार करते हुए ये दोनों तिब्बत की सीमा पर पहुँच गए जहाँ से इन्हें चीन देश की सीमा में प्रवेश करना था। अमावस्या आने में तीन दिन का समय था तो ये लोग भारतीय सीमा में स्थित अंतिम पड़ाव लीपुपास में ही ठहरे रहे। क्योंकि आगे इन्हें चीन देश के नियंत्रण वाले क्षेत्र में जाना था और ये नहीं चाहते थे कि इन्हें किसी तरह की कोई मुश्किल हो।
आगे तकलाकोट पार करते ही इन्हें कैलास के बर्फीले रास्ते पर चले जाना था। इनका विचार था कि भेड़िया बनते ही इन्हें अपनी पूरी शक्ति लगा देनी है और फिर जंगल और पर्वत के रास्ते छिपकर अधिक से अधिक मार्ग रात नें ही तय कर लेना है।
"तकलाकोट पार करने के बाद केवल पच्चीस मील की दूरी पर ही मान्धाता का पर्वत है तारा, और उसके कुछ ही दूरी पर तीर्थपुरी नाम का स्थान है जहाँ ओर भस्मासुर ने तपस्या करके भगवान शिव से आशीर्वाद प्राप्त किया था। वहाँ पर गर्म पानी के झरने हैं। हम अपना डेरा मान्धाता पर्वत या फिर गर्म पानी के आसपास ही लगाएँगे और क्योंकि इस मौसम में कैलाश की यात्रा पर अन्य कोई यात्री नहीं आता तो वहाँ पर केवल हम दोनों ही होंगे। सुना है इस समय कई महायोगी और देवता, यक्ष और गन्धर्व भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कैलास और अन्य सोलह पर्वतों पर जोकि कैलाश के चारों ओर षोडशदल कमल बनाते हैं पर घोर तप करते हैं और शिव कृपा प्राप्त करते हैं।", चन्दन ने तारा को बताया।
"चन्दन जी हमारे पास भी दस से अधिक दिन होंगे वहाँ पर तप करने के लिए और शिव कृपा प्राप्त करने के लिए। हम भी भगवान शिव को प्रसन्न करके ही लौटेंगे और श्राप से मुक्त हो जायेंगे " तारा ने हाथ जोड़कर आँख बंद करके कहा।
"जरूर हो जाएंगे तारा, भगवान शिव किसी को निराश नहीं करते। बस आज का दिन निकल जाए फिर रात होते ही हम निकल पड़ेंगे कैलास की ओर। और प्रयास करेंगे कि ये पच्चीस मील रात ही रात में पार करके सुबह होने से पहले हम कैलास क्षेत्र में पहुँच जाएँ।" चन्दन ने भी हाथ जोड़कर भगवान को याद करते हुए कहा।
"अवश्य पहुँच जाएंगे जी, भेड़ियों की गति और हमारा दृढ़ संकल्प हमें अवश्य रात ही रात में कैलास पहुँचा देगा।" तारा ने जवाब दिया।
"तो चलो आज भरपूर भोजन और विश्राम कर लिया जाए, क्योंकि कल से हमारी कठिन परीक्षा आरम्भ होगी।" चन्दन ने कहा और तारा मुस्कुरा दी।
अमावस्या का दिन तारा और चन्दन ने भोजन और आराम में ही बिताया। शाम से से दोनों एक ऊँची पर्वत की चोटी पर जाकर बैठ गए जहाँ से दूर तक बर्फीले ढलान वाला रास्ता साफ दिखाई दे रहा था।
"अँधेरा हो गया चन्दन जी लेकिन अभी तक मैं भेडियन नहीं बन पा रही हूँ, और ना ही आप भेड़िया जाने क्यों आज इतनी देर लग रही है?" आज पहली बार तारा भेड़ियन बनने के लिए इतनी बेचैन हो रही थी।
"बन जाएंगे तारा परेशान मत हो अभी चन्द्रमा को पूरी तरह पाताल लोक तो पहुँचने दो। आज इतनी जल्दी क्यों है तुम्हें भेड़ियन बनने की?" चन्दन ने तारा की स्थिति समझते हुए भी चुहल की।
"मैं उड़कर भोले की नगरी पहुँचना चाहती हूँ आज, ये मेरी सन्तान के भविष्य का प्रश्न है जी, आप नहीं समझोगे।" तारा ने गंभीरता से जवाब दिया।
"प्रश्न तो मेरी सन्तान का भी है तारा, किन्तु ऐसे परेशान होने से कुछ नहीं होगा। जब समय हो जाएगा हम खुद भेड़िये बन जाएँगे, अभी बस खुद को संयमित करते हुए लक्ष्य पर दृष्टि रखो। भेड़िये बनते ही हमें एक साथ उधर दौड़ना है।" चन्दन ने सामने संकेत करते हुए कहा।
"हाँ पता है मुझे, बस अब जल्दी से हमारा रूप बदले और हम दौड़ लगाएँ। आज आप देखना मेरी तेज़ी आज आप मुझे पकड़ नहीं पाएँगे चन्दन जी।" तारा ने हँसते हुए कहा।
कुछ ही देर बाद दोनों झुकने लगे और उनका रूप बदलने लगा।
"तैयार हो?" चन्दन ने पूछा।
"हाँ, पूरी तरह।" तारा ने जवाब दिया।
"दौड़ो" दोनों ने एक साथ कहा।
अँधेरी रात में सफेद बर्फ पर दो भेड़िये बहुत तेज़ी से दौड़े चले जा रहे थे, जैसे मानों आपस में दौड़ लगा रहे हों। ये दोनों तारा और चन्दन थे जो भेड़िये के रूप में रास्ता काटते हुए कैलास की ओर बढ़ रहे थे।
रात ही रात में चन्दन और तारा पूरी पच्चीस मील दौड़ गए और सुबह की लाली फैलने से पहले ही मान्धाता के पर्वत के नीचे पहुँचकर बर्फ पर ही थक कर लेट गए और अपनी साँसे सामान्य करने लगे।
कुछ देर बाद जब दोनों उठे तो इनके सामान के साथ ही इनके वस्त्र भी गायब थे।
"हमारा सारा सामान कहाँ गिर गया चन्दन जी?" तारा ने आस-पास देखते हुए पूछा।
"केवल समान ही नहीं तारा, हमारे शरीर के सारे कपड़े भी गायब हैं।" चन्दन ने तारा को देखते हुए कहा तो तारा शरमाकर खुद को छिपाने लगी और उसकी दृष्टि चन्दन पर पड़ी जोकि निर्वस्त्र बर्फ पर बैठा हुआ जोर से हँस रहा था।
"क्या हुआ भेडियन? तुम भूल गयीं की जब हम भेड़िये बनते हैं तो हमारे कपड़े हमसे दूर हो जाते हैं फिर सामान के साथ आने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।" चन्दन ने जवाब दिया।
"फिर अब!!! अब क्या होगा? हम बिना कपड़ों के इस बर्फ में कैसे रहेंगे और हमारे भोजन का प्रबंध कैसे होगा?" तारा बहुत चिंतित होकर बोली।
"परेशान मत हो तारा मैं कुछ सोचता हूँ। पहले हमें इस पर्वत में कोई गुफा खोजनी होगी। उसके बाद हम वस्त्रों और भोजन के बारे में सोचेंगे। पहले थकान उतार कर कुछ सोचने की अवस्था तक तो पहुँचे।" चन्दन ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा।
"ठीक है आप उस तरफ देखो और मैं इधर खोजती हूँ। शायद कोई कन्दरा मिल जाये।" तारा ने कहा और दोनों विपरीत दिशाओं में मान्धाता पर्वत में किसी गुफा की तलाश में निकल पड़े।
तारा लगातार मन ही मन 'ॐ नमः शिवाय' मन्त्र का जाप करती हुई शिव से शरण के लिए प्रार्थना कर रही थी। अभी वह बीस पच्चीस कदम ही चली होगी कि हवा के झोंके के साथ एक लाल चुनरी उसके ऊपर आ गिरी। ये देखकर तारा के मन में भक्ति और दृढ़ हो गयी। उसे भगवान शिव और माता पार्वती पर पूरी आस्था हो गयी। उसे ऐसा लगा जैसे खुद माता पार्वती ने उसे ये चुनरी आशीर्वाद रूप में दी है।
तारा ने चुनरी को साड़ी की तरह लपेटा और कुछ सोचकर घूँघट ओढ़े हुए वापस लौटने लगी। इधर चन्दन को पर्वत में पत्थरों के बीच छोटी सी कन्दरा मिल गयी थी, तो वह भी तारा की बुलाने के लिए लौट रहा था। अचानक चन्दन ने लाल वस्त्र लपेटे घूँघट लिए तारा को देखा तो उसे पहचान नहीं पाया और दण्डवत करते हुए बोला- "आप अप्सरा हैं या गन्धर्व कन्या? आप जो भी हैं देवी मैं बहुत बड़ी समस्या में हूँ। यहाँ मेरे और मेरी पत्नी के पास पहनने के लिए ना तो वस्त्र हैं और ना ही भोजन के लिए कुछ। आप निश्चित ही कोई अलौकिक सुंदरी हैं और आप हमारी सहायता कर सकती हैं।"
चन्दन की बात सुनकर तारा जोर से हँसने लगी, चन्दन तारा की आवाज पहचानकर उठ खड़ा हुआ और पूछने लगा- "तारा!!! ये तुम हो? तुम्हें ये वस्त्र कहाँ से मिला?"
"आशीर्वाद है माता पार्वती का, उन्होंने दी है मुझे ये लाल चुनरी। सीधे उनके आशीर्वाद स्वरूप मेरे सिर पर आ गिरी थी ये।" तारा ने घूंघट खोलते हुए कहा।
"ये तो बहुत अच्छी बात है तारा, मुझे भी एक कन्दरा मिल गयी है। जल्दी ही मैं भी तन ढकने का कोई उपाय कर लूंगा। आओ चलें पहले उस कन्दरा में चलकर कुछ आराम कर लें फिर गर्म पानी के झरने खोजकर स्नान आदि करेंगे।" चन्दन ने कहा और तारा उसके साथ कन्दरा की ओर बढ़ गयी।
सूरज की किरणें लाल से सफेद होने लगी थीं, चन्दन और तारा दोनों तीर्थपुरी नामक स्थान पर गर्म पानी में स्नान का आनंद ले रहे थे।
चन्दन ने जल में डुबकी लगायी और जब वह बाहर आया तो उसके सिर पर एक पुराना सफेद रंग का अंगोछा ढका हुआ था, जो अवश्य ही कोई तीर्थयात्री छोड़ गया था।
"देखो तारा मुझे भी शिव का आशीर्वाद मिल गया… ये देखो वस्त्र। अब मुझे भी निर्वस्त्र नहीं भटकना पड़ेगा। अब बस हमारे भोजन का प्रबंध और करना है हमें।" चन्दन ने अंगोछा कमर में लपेटते हुए कहा।
"हाँ ये शिवजी का आशीर्वाद ही है चन्दन जी। अब मुझे दृढ़ विश्वास हो गया है कि हम यहाँ से निराश नहीं लौटेंगे। और रही बात भोजन प्रबन्ध की तो क्यों ना हम भी तपस्या में बैठ जायें, और केवल इस गर्म जल का सेवन करें?" तारा ने आस्था में डूबते हुए कहा।
"बात तो ठीक है तारा किन्तु ऐसी अवस्था में ये कठिन तप क्या तुम्हारे लिए ठीक होगा?" चन्दन के स्वर में चिंता थी।
"हम शिव के स्थान पर हैं चन्दन जी, तो हमारे अच्छे-बुरे की चिंता हम इनपर ही छोड़ देते हैं और पूर्णिमा तक के बचे हुए दिन हम तप करके ही बिताएंगे। आप सन्त जी के बताए अनुसार एक शिवलिंग बनाओ जिस पर शिव ने चन्द्र धारण किया हो।" तारा ने याद करते हुए कहा।
"हाँ ये सही रहेगा, चलो मिलकर बनाते हैं।" चन्दन ने कहा और दोनों ने मिलकर बर्फ से एक सुंदर शिवलिंग का निर्माण किया जो चन्द्र युक्त था।
अब दोनों ने पुनः स्नान किया और बैठ गए तपस्या में।
13
*** शरद पूर्णिमा आ चुकी थी। तारा और चन्दन तप करते हुए पूरे बर्फ से ढक गए थे लेकिन ना तो उनकी आस्था कम हुई थी और ना ही उनके तप का तेज।
शरद पूर्णिमा की रात जब चन्द्रमा ने कैलाश को छुआ तब चारों ओर जैसे स्वर्ण ही बिखर गया।
तारा और चन्दन दोनों एक पैर पर खड़े होकर तप कर रहे थे। वे दोनों बर्फ से ढके एकदम सफेद हो रहे थे। रात जैसे-जैसे बढ़ रही थी वैसे-वैसे उनकी चिंता बढ़ रही थी कि कहीं दोनों भेड़िया…! किन्तु उनकी इच्छा शक्ति उन्हें भेड़िये बनने से रोक रही थी।
अब इन दोनों ने जोर-जोर से 'ॐ नमः शिवाय' का जाप शुरू कर दिया था। अचानक उनके सामने बहुत तेज़ प्रकाश पुंज प्रकट हुआ और उनके शरीर पर जमी बर्फ गायब हो गयी।
उन दोनों ने एक दिव्य ध्वनि स्पष्ट सुनी- "आपका तप सफल हुआ, अब आप दोनों श्राप मुक्त हैं।" और उसके बाद उन्होंने चन्द्रदेव की जाते हुए स्पष्ट देखा।
कुछ ही देर में सुबह हो गयी। तारा और चन्दन ने मानसरोवर में स्नान करके कैलाश की परिक्रमा की और फिर वापस मान्धाता पर्वत पर आ गए। वहाँ उन्हें कई पत्तो-दोनों में खीर बिखरी मिली, और वहीं पर इन्हें बिल्कुल नए कपड़ों की जोड़ी भी रखी मिली। जिसे उन्होंने प्रसाद रूप में ग्रहण किया और सकुशल वापस लौट आये।
समय पूरा होने पर तारा ने एक सुंदर और स्वस्थ पुत्र को जन्म दिया और उसके बाद वह कभी भेड़िये नहीं बने।
किन्तु चन्दन कभी-कभी मज़ाक में तारा को अभी भी भेडियन कह देता है।
समाप्त
©नृपेंद्र शर्मा "सागर"
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