Wednesday, March 13, 2024

मतलब की माँ

        मतलब की माँ



  “अजी सुनो ना, मैं क्या कहती हूँ क्यों ना हम माँजी को अपने साथ ही रख लें, ऐसे अकेले रहती हैं सारे गांव वाले ताने मारते हैं कि दो जवान बेटों के होते हुए भी बूढ़ी मां अकेले रहती है और खुद बनाकर खाती है।” रात को बड़ी मीठी आवाज में रुचि ने अपने पति सचिन से कहा।

  “लेकिन आज अचानक तुम्हें मां पर इतना प्यार कैसे आ गया? तुम तो सीधे मुँह कभी मां से बात भी नहीं करती हो? और फिर ऐसे अचानक मां भला हमारे साथ रहने की बात क्यों मानेगी? तुम भूल गयीं कैसे हमने लड़कर मां को अलग कर दिया था?” सचिन ने कुछ याद करते हुए धीरे से कहा।

 “मुझे याद है जी, ऐसे तो मां बेटों में कहा-सुनी हो ही जाती है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि मां बेटों के दिल जुदा हो जाते हैं? मुझे यकीन है अगर तुम मां से एक बार कहोगे तो वे मना नहीं करेंगी।” रुचि ने मधुर आवाज में कहा और सचिन के बालों में उंगलियां घुमाने लगी।

 “तुम खुद क्यों नहीं बात करती हो मां से? एक बार तुम कह कर देख लो शायद तुम्हारे कहने से मां मान जाए।” सचिन ने धीरे से कहा लेकिन इस समय उसका चेहरा बता रहा था कि वह किसी गहरी सोच में डूबा हुआ था।

 “मैं…? मैं कैसे बात करूँ? मुझे तो माँजी कभी अच्छी नज़र से नहीं देखती हैं, उन्हें जैसे ये लगता है कि मैं उनकी दुश्मन हूँ और शायद घर के झगड़े का कारण भी वे मुझे ही मानती हैं।” रुचि ने धीरे से कहा।

 “मां गलत भी तो नहीं सोचती रुचि, हमारी शादी से पहले सब कितना अच्छा चल रहा था, मां मैं और भैया भाभी सब एक साथ ही तो रहते थे, सभी मां का बनाया खाना खाते थे और अपना-अपना काम करते थे।” सचिन ने कहा।

 “अच्छा जी! तो आप भी यही कहना चाहते हो कि घर में झगड़े का कारण मैं हूँ? अरे तुम लोग तो हमारी शादी से बहुत पहले ही अलग हो गए थे। मुझे सब पता है कि कैसे पापा जी के मरने के बाद उनकी तेरहवीं के दिन ही, तुम दोनों भाई उनके इलाज पर हुए खर्च और कर्ज को लेकर लड़ने लगे थे। तुम दोनों भाइयों ने तो सारी जमीन के भी तभी तीन हिस्से कर ये थे, एक-एक आप भाइयों का और एक माँजी का।” सचिन की बात पर रुचि तुनककर बोली, उसकी आवाज में गुस्सा साफ झलक रहा था।

 “कुछ भी हो रुचि, लेकिन हमारे विवाह तक रहते तो हम साथ ही थे ना? वह तो तुम्हारे आने के बाद भाभी और तुम्हारा रोज झगड़ा शुरू हो गया और तुम दोनों देवरानी-जिठानी लड़ने के बाद रोज मां को गाली देने लगीं, तब माँ ने अपना चूल्हा अलग कर लिया और जाकर बैठक में रहने लगी।” सचिन ने जैसे रुचि को याद दिलाया।

 “हाँ तो मैं घर की नौकरानी बनी रहती और तुम खेत के दिहाड़ी मजदूर? तुम भूल गए कि क्या चल रहा था घर में मेरे आने के बाद? अरे घर का सारा खाना, कपड़े, चौका-वासन मैं करती थी। गाय भैंस का चारा-पानी माँ जी करती थीं और तुम सारा दिन बैल बने बैलों के पीछे खेत में घूमते रहते थे, और उसका फल हमें क्या मिलता था? रोज खाने में सैकड़ों कमियां गिनाई जाती थीं और दूध सारा भाभी बेच देती थीं। पीने के लिए तो छोड़ो हम जब कभी चाय के लिए भी दूध मांगते तो भाभी यही जवाब देतीं कि दूध तो मुन्ने के लिए भी नहीं बचा तुम्हें चाय के लिए कहाँ से दूँ? तुम्हें क्या लगता है मैं अपने लिए लड़ती हूँ? अरे दिन भर खेत में खटने के बाद तुम दोनों मां बेटों को एक-एक कप दूध भी ना मिले तो क्या फायदा इतने ढोर पालने का? बस उस दिन मैंने यही बात तो कह दी थी, तो आपके भाई और भाभी ने सारा घर सिर पर उठा लिया और माँजी ने भी मुझसे ही गुस्सा होकर हमारे गाय-बच्छी बांट दिए और बस हो गए घर में तीन चूल्हे। लेकिन छोड़ो उसे, उस बात को याद करके क्या फायदा। अब मैं चाहती हूँ कि मां सारी बात भूलकर हमें माफ कर दें और हमारे साथ ही रहें।” रुचि ने शब्दों को नरम करते हुए कहा।

 “तुम भूल गयीं रुचि कि पापा को गले का कैंसर हुआ था और उनके इलाज में बहुत खर्च हो गया था, उसके लिए भैया ने इधर-उधर से कर्ज भी लिया था। जब पिताजी का देहांत हुआ तब सारे रिश्तेदारों ने मिलकर हम लोगों की जमीन बांट दी थी, जिससे बाद में हमारे बीच कोई झगड़ा ना हो लेकिन साथ ही यह भी तय हुआ था कि जब तक सारा कर्ज नहीं चुक जाएगा हम दोनों भाई साथ में मिलकर ही काम करेंगे। तुम जिस दूध को बेचने की बात करती हो वह भी भाभी बेचकर घर की जरूरतों पर ही खर्च करती थीं और तुम्हें लगता था कि भाभी उन पैसों से अपना घर भर रही हैं। रुचि एक गिलास दूध अगर उस दो साल के मुन्ने के लिए भाभी ने रख भी लिया था तो तुम्हें ऐसे हंगामा नहीं करना चाहिए था।” सचिन ने मन की बात कह दी।

 “अरे छोड़ो ना उन सब गयी बीती बातों को, अब क्यों गढ़े मुर्दे उखाड़ रहे हो? देखो मैं पेट से हूँ और अब हमें किसी अनुभवी महिला के साथ की बहुत जरूरत है। इसीलिए मैं चाहती हूँ कि माँजी हमारे साथ रहें, ऐसे भी मूल से प्यारा ब्याज होता है मैं जानती हूँ कि जब माँजी को पता लगेगा कि वे दादी बनने वाली हैं तो वे सबकुछ भूलकर हमारे साथ रहने आ जायेंगीं।” अब रुचि ने असली बात कही।

 “अच्छा तो यह बात है? लेकिन इसके लिये तुम अपनी माँ से क्यों बात नहीं करतीं? अरे अनुभव तो उन्हें भी बहुत है, तुम उन्हें ही बुला लो मैं तो मां से बात नहीं करूँगा। उस दिन कितना सुना दिया था मैंने मां को, अब मेरी हिम्मत नहीं है रुचि कि मैं मां से बात करूं। मैं किस मुँह से उनसे कहूँगा की मां मुझे माफ़ करके हमारे साथ रहने आ जाओ, क्या मैं इतना बड़ा हो गया हूँ रुचि कि जिस मां ने मुझे जन्म देकर इतना बड़ा किया उसे अपने साथ रख सकूँ? नहीं रुचि मैं बात नहीं करूँगा, अरे जिन बच्चों को मां-बाप के साथ रहना चाहिए वे ऐसा कैसे सोच लेते हैं कि वे मां-पापा को अपने साथ रख सकते हैं।” सचिन ने कहा और मुँह घुमाकर लेट गया।

 “हुँह! तुमसे कुछ नहीं हो सकता, तुम सो जाओ चैन से सुबह मैं खुद ही माँजी से बात कर लूँगी।” रुचि ने तुनककर कहा और कुछ सोचने लगी।


  “अरे माँजी लाइये ये बाल्टी मैं रख देती हूँ, आप क्यों ये पानी की बाल्टी उठाती हो? मुझे कह दिया करो मैं रख दिया करूँगी आपके नहाने की बाल्टी, और सादा पानी क्यों? आप मुझे कहो तो मैं पानी गर्म करके दे दिया करूँगी आपको नहाने के लिए।

 माँजी हम आपके बच्चे हैं और बच्चे तो गलती करते ही हैं, इसका मतलब ये तो नहीं हो जाता कि मां-बाप उनसे नाराज़ होकर बात ही करना बंद कर दें। मैं तो उसी दिन से इनसे कह रही हूँ कि मुझे अच्छा नहीं लगता, माँजी इस उम्र में इतना काम करें, लेकिन ये तो डरते हैं कि आप इन्हें कहीं छड़ी से पीट ही ना दो; लेकिन अब मुझसे और नहीं देखा जाता माँ! अब से आप हमारे साथ ही रहोगी बस और आपके सारे काम मैं खुद करूँगी। आप तो बस मुझे बता दिया करो कि क्या और कैसे करना है।” रुचि ने नहाने का पानी भरकर ले जाती सास के पाँव छूकर उनके हाथ से पानी की बाल्टी लेते हुए कहा। यह सब करते समय रुचि ने इस बात का विशेष ध्यान रखा था कि उसकी जेठानी उस समय घर में नहीं थी।

 

 “अरे! आज ये सूरज दक्खन से कैसे निकल पड़ा बहुरिया? छोड़ मेरी बाल्टी, कहीं मेरी बाल्टी उठाने में तेरे नाजुक हाथों में छाले ना पड़ जाएं।” रुचि की सास ने रुचि के इस व्यवहार पर चौंकते हुए कहा।

  “आपने मुझे माफ़ नहीं किया ना मां? तभी ऐसा कह रही हो। मैं दिल से अपनी भूल पर शर्मिंदा हूँ माँ और आज मैं आपके पैर तब तक नहीं छोडूंगी जब तक आप मुझे माफ़ नहीं कर देती हो।” रुचि ने बाल्टी को मजबूती से पकड़ते हुए कहा।

 “मैं माफ करने वाली कौन होती हूँ बहुरिया? मैं तो डायन हूँ तेरी और तेरे खसम की दुश्मन हूँ मैं तो।” रुचि की सास ने रुचि के ताने याद करते हुए कहा और फिर अपनी बाल्टी उठाकर जाने लगीं, अबकी बार बाल्टी खींचने में रुचि को झटका लगा और वह थोड़ा पीछे हो गयी।

 “आह!! मां…जी…!” रुचि के मुँह से हल्की कराह निकली और वह चक्कर खाते हुए जमीन पर फैल गयी।

 “हे भगवान! ये इसे क्या हो गया? कहीं मेरे झटकने से इसे चोट तो नहीं लग गयी? अरे सचिन?? बड़की बहु? अरे कोई है?” माँजी घबराकर आवाज लगाने लगीं लेकिन घर में तो इस समय कोई था ही नहीं।

 “हे भगवान! लगता है सारे लोग बाहर गए हैं। कहीं इसे कुछ हो गया तो सारे लोग यही कहेंगे कि सास ने बहु को कुछ कर दिया होगा। क्या करूँ मैं? मुझे कुछ तो करना पड़ेगा।” माँजी ने एक पल के लिए सोचा और फिर रुचि को उठाकर पास पड़ी चारपाई पर लिटा दिया। उसके बाद वे दौड़ गयीं पड़ोस से डॉक्टर को बुलाने।


  “मुबारक हो माँजी, आप दादी बनने वाली हो। बहु को कुछ नहीं हुआ है वह तो बस पेट से होने के कारण इसे चक्कर आ गया होगा। तुम्हारी बहु कमज़ोर है माँजी, इसे आराम और पोषण की बहुत जरूरत है। मैं कुछ टॉनिक लिख रहा हूँ इन्हें मंगा लीजिए और हो सके तो शुरू के तीन महीने बहु को पूरा आराम कराईये। उसके बाद भी इसे भारी कामों और वजन उठाने को मना करियेगा।” डॉक्टर ने कहा और एक पर्चा लिखकर माँजी के हाथ में देकर चला गया।

 “रुचि! अरे कहाँ गयी?” सचिन आवाज लगाता हुआ घर में घुसा तो उसे मां रुचि के कमरे में बैठी दिखाई दी, जो रुचि को पँखा झल रही थी। सचिन की आवाज सुनकर माँ झटपट बाहर आयी और कड़ी आवाज में बोली, “खबरदार जो शोर किया या बहु को तंग किया तो। जा दौड़कर बाजार जा और ये सामान लेकर आ। बाप बनने वाला है और बचपना अभी गया नहीं, बीबी के पल्लू में घुसे बिना काम नहीं चलता तुम्हारा जो हर समय बस रुचि-रुचि। अरे कभी खुद के काम खुद से भी कर लिया करो। रुचि पेट से है, डॉक्टर ने उसे भारी काम करने को मना किया है और ये दवाइयां लिखकर गया है जा ये लेकर आ तब तक मैं खाना बनाती हूँ।” माँ ने पेपर सचिन के हाथ पर रखते हुए उसे अधिकार से डाँटते हुए कहा और फिर कमरे के अंदर चली गयी। रुचि ऑंख खोले यह सब देख रही थी और सुन भी रही थी।

 “तू जाग गयी बहु! देख अबसे तेरा भारी काम करना बंद, तुझे पूरा आराम करना है और अपना ध्यान रखना है। डॉक्टर कह कर गया है कि तू कमज़ोर है, तो तुझे पोषण की जरूरत है, सचिन गया है दवाई और सामान लाने। अब से खाना मैं बनाउंगी और तेरे लिए छोंका भी, तेरी गैया दूध कम दे रही है तो मैं भी अपना दूध बेचना आज से बन्द कर रही हूँ, पहले अपना पेट है बाकी सब उसके बाद। तू आराम कर बहु मैं बस अभी आयी।” कहकर मां कमरे से बाहर निकल गयी। 

 रुचि बिस्तर पर पड़ी-पड़ी मां के बारे में सोच रही थी और अपनी योजना की सफलता पर हँस रही थी।


 “देखो जी उस रुचि की चाल, अब जब खुद पेट से है तो उसने कैसे माँजी को अपने भोलेपन के जाल में फंसा लिया। अरे जो माँ हमारे घर दूध ना होने पर मुन्ने के लिए एक कटोरी दूध के लिए भी मना कर दे आज उसने सारा दूध छुड़ा दिया और बहू की ऐसे सेवा कर रही है जैसे वह इनकी सास है।” बड़ी बहू ने रात में अपने पति को सुनाते हुए कहा।

 “अरे तो क्या हो गया यार! भूल गयी जब तुम पेट से थी तब माँ ने तुम्हें भी एक तिनका नहीं तोड़ने दिया था और गाय-भैंसों के सारा दूध बेचना बन्द कर दिया था। रोज मां मुट्ठीभर मेवे पीसकर घी में भूनकर तुम्हें दूध में घोलकर पिलाती थीं। अब रुचि पेट से है तो माँ उसके लिए कर रही है। भाई मां है वह और अब दादी बनने की खुशी में वह एक बार फिर वही सब कर रही है तो तुम्हें बुरा क्यों लग रहा है?” बड़े बेटे ने अपनी पत्नी को समझाते हुए कहा।

 “दादी तो वे हमारे मुन्ने की भी हैं जी! या फिर ये रुचि उन्हें अनोखा दादी बना रही है? हमारे मुन्ने को भी तो दो बूंद दूध दे सकती हैं वे, या बस हम ही पराए हैं बाकी सब उनके खास।” बड़ी बहू ने उसी आवाज में कहा।

 “बेकार की बात मत करो, एक बार तुमने कभी मुन्ने से पूछा कि दादी ने उसे दूध दिया या नहीं? मैं जानता हूँ माँ रोज अपने दूध में से एक कटोरी रबड़ी बनाती है और तुम्हारी नज़र बचाकर मुन्ने को खिला देती है। माँ इस बात से डरती है शायद कि कहीं मुन्ने को उनके पास देखकर तुम नाराज़ ना हो जाओ।” बड़े बेटे ने गम्भीर आवाज में कहा।

 “अच्छा जी तो अब तुम्हारी माँ मेरे बेटे को ही मेरे खिलाफ भड़का रही है औऱ उसे झूठ भी बोलना सिखा रही है। मैं भी कहूँ मुन्ना शाम को खाना कम क्यों खाता है और उसके पेट में गांठें कैसे हो जाती हैं। तो यह तुम्हारी माँ की रबड़ी की देन है, अरे जिस मुन्ने को डॉक्टर ने गाय के दूध में भी पानी मिलाकर पिलाने को कहा है उसे चोरी-चोरी रबड़ी खिलाकर तुम्हारी मां उसका पेट खराब कर रही है। बस इसी लिए मैं मुन्ने को तुम्हारी माँ के पास जाने को मना करती हूँ, बुढ़िया रबड़ी की रिश्वत देकर मेरे मुन्ने को मुझसे ही झूठ बोलना सिखा रही है; डायन कहीं की।” बड़ी बहू ने तुनककर कहा और मुँह घुमाकर सो गयी।


 रुचि ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया माँजी बहुत खुश थीं वह बच्चे को गोद में लेकर गर्व से कहतीं, “देख रे सचिन, बिल्कुल अपने बाबा पर गया है हमारा चुन्ना।” और उनकी इस बात पर रुचि मन ही मन कुढ़ जाती।

 एक दिन जब उससे रहा नहीं गया तो उसने पूछ ही लिया, “माँजी आप हमारे बेटे को चुन्ना क्यों कहती हो, मुझे यह नाम बिल्कुल पसंद नहीं?”

 “अरे बहु मैंने बड़े के बेटे को मुन्ना कहा तब उन्होंने तो मुझसे सवाल नहीं किया, ख़ैर तू पूछ रही है तो बता देती हूँ। देख एक मेरा मुन्ना और दूसरा चुन्ना दोनों मेरी आँख के तारे हैं मुझे मेरे दोनों पोते प्यारे हैं।”और ऐसा कहकर माँजी हँसने लगीं।

 “हुँह! दोनों पोते प्यारे हैं, बिल्कुल पागल बुढ़िया है ये। चुन्ना-मुन्ना ओह गॉड! भला आजकल भी कोई बच्चों को ऐसे बुलाता है। वह तो मुझे तुझसे अपना काम कराना था बुढ़िया, नहीं तो मैं तेरी ये बातें कभी बर्दाश्त नहीं करती।” रुचि गुस्से से मुँह बनाये अपने कमरे में बड़बड़ा रही थी तभी माँजी पीछे से आ गयीं।

 “क्या कहा बहु तूने? मतलब?? तो मैं मां नहीं मतलब हूँ ‘मतलब की माँ’ ?” और मैं समझती थी तुम सुधर गयी हो और सच में अपनी गलती सुधारने के लिए मुझे अपने घर लायी हो।” माँजी ने रुचि की बात सुन ली थी जिसका उन्हें बहुत दुःख हुआ था। 

 उसी समय माँजी ने अपना सामान उठाया और फिर आ गयीं अपने पुराने ठिकाने पर, घर से बाहर बनी छोटी सी बैठक जो एक बरामद था जिसे खाद के पुराने कट्टे सिलकर पर्दा लगाकर उन्होंने कमरा जैसा बना लिया था।

 शाम को जब सचिन घर लौटा तो उसने देखा कि माँ वही चार ईंटे रखे उनमें लकड़ी सुलगाये फूँक मारकर आग ठीक कर रही है लेकिन उसने एक शब्द भी नहीं कहा और चुपचाप अपने कमरे की ओर बढ़ गया।

  माँजी ने उसे जाता देख लिया था लेकिन उन्होंने भी उसे आवाज नहीं लगायी क्योंकि वे जानती थीं कि आवाज देने पर बेटा शायद रुक भी जाये लेकिन रुचि का पति वहाँ नहीं रुकेगा और अगर रुका तो उसका जीना मुश्किल हो जाएगा।


 चार दिन बाद बड़ा बेटा मां के पास आया और बैठकर बोला, “देख लिया मां छोटे से मोह करने का नतीजा? मैंने तुझे कितनी बार समझाया था कि ये लोग कितने मतलबी हैं लेकिन तुझे तो कभी कुछ समझ में आता ही नहीं है। अब छोड़ ये चौका चूल्हा और चल मेरे साथ अपने पोते के साथ रहने, वह रोज बस एक ही बात पूछता है कि क्या दादी बस चुन्ना की ही दादी है? तो फिर मेरी दादी कहाँ है। चल मां अब से तू हमारे साथ ही रहेगी बस।”

 “ना बेटा ना अब मैं किसी के साथ नहीं रहूँगी, मैं यहीं खुश हूँ अपने इस घर में। यह कम से कम मेरा अपना तो है, यहाँ मैं किसी और के साथ नहीं रहती बल्कि अपने खुद के साथ रहती हूँ। अपने पति की यादों के साथ रहती हूँ, अपनी मर्जी से जीती हूँ, अपनी पसंद का खाती हूँ और रही बात पोतों की तो वे तो बच्चे हैं वे अगर मेरे पास आएँगे तो मैं उन्हें दादी का प्यार क्यों नहीं दूँगी? लेकिन मैं जानती हूँ कि तुम्हारी पत्नियां कभी नहीं चाहतीं कि उनके बेटे उनकी जगह दादी को प्यार करें।” माँजी ने रूखेपन से जवाब दिया और अपने कपड़े तह करने लगीं।

 “अरे माँ क्या बस घर का यही हिस्सा तेरा घर है? क्या मेरा घर तेरा घर नहीं है? और फिर ये जगह रहने लायक है भी तो नहीं, यहाँ तो ना दरवाजा है और ना ही खिड़की। अच्छा ऐसा करते हैं कि इस बरामदे में सामने एक दीवार लगाकर उसमें एक दरवाजा और खिड़की लगवा देते हैं। जब तक ये जगह ठीक होती है तब तक तू हमारे साथ रह ले माँ, मुझसे तुझे ऐसे सर्दी में बोरे के पर्दे की आड़ में ठिठुरते नहीं देखा जाता। अच्छा देख मैं पाँच हज़ार रुपये लगा दूँगा बाकी तेरे पास कुछ…?और किसी को बताना मत की मैंने इस काम के लिए पैसे दिए हैं।” बड़े बेटे ने बहुत धीरे से कहा।

 “चल ठीक है बेटा ले ये छः हज़ार मेरे पास रखे हैं, करवा दे काम।” माँजी ने बक्सा खोलकर पैसे बड़े के हाथ पर रखते हुए कहा।

 “अच्छा मां एक बात और, वो क्या है ना कि तू एक बार फिर दादी बनने वाली है। मां तेरी बड़ी बहू पेट से है और डॉक्टर ने उसे पूरा आराम करने को कहा है।” बड़े बेटे ने बड़े धीरे से कहा और पैसे गिनते हुए चला गया।

 “वाह रे दुनिया! मां भी अब मतलब की हो गयी है।” बुढ़िया बुदबुदाई और अपना सामान लेकर धीरे-धीरे बड़े बेटे के घर की ओर चल दी।



  नृपेंद्र शर्मा

ठाकुरद्वारा मुरादाबाद