Wednesday, May 10, 2023

जहरीला गुलाब

सूखा गुलाब

आज बहुत दिन बाद अलमारी साफ करते समय रश्मि को अपनी पुरानी डायरी मिली।
रश्मि को शादी से पहले डायरी लिखने का शौक था, यह उसकी वही पुरानी डायरी थी।
रश्मि ने जैसे ही वह डायरी खोली तो उसमें से एक सूखा हुआ गुलाब नीचे गिर गया।
रश्मि ने गुलाब उठाया और उसे देखने लगी, उस गुलाब की सूखी महक के साथ उसे उससे जुड़ी पुरानी यादें भी आने लगीं।
"हमारी शादी ऐसे नहीं हो सकती रश्मि, पिताजी का कहना है कि दहेज में पच्चीस लाख रुपये लाओ चाहे जिससे शादी करो। ऐसा नहीं है तो हमारी पसन्द से शादी करो, वह लोग तीस लाख देने को तैयार हैं। हम तो तुम्हारे प्यार की खातिर पाँच लाख का नुकसान सह लेंगे लेकिन उससे अधिक नहीं। अब तुम ही बताओ क्या तुम्हारे पिताजी पच्चीस लाख दे पाएंगे।" ललित ने रश्मि का हाथ पकड़कर बनावटी उदासी के साथ कहा था।
"पच्चीस लाख!! क्या कह रहे हो ललित? ये हमारे प्रेम के बीच दहेज कहाँ से आ गया?" रश्मि ने चौंकते हुए कहा।
"मैं मजबूर हूँ रश्मि, यदि मैंने पिताजी की बात नहीं मानी तो वे मुझे बेदखल कर देंगे।" ललित ने कहा और उठकर चला गया।
रश्मि को अब यह गुलाब जहरीला लग रहा था, उसकी खुश्बू उसे असहनीय हो रही थी। कल ही तो ललित ने रश्मि को प्रेम से यह गुलाब दिया था और उसे 'बेपर्दा' कर दिया था। रश्मि को लगा कि ये गुलाब ही शापित था जिसे लेने के बाद उसका सब कुुुछ लुट गया और उसका दो साल पुराना रिश्ता भी खत्म हो गया।
"ललित!" रश्मि का चेहरा गुस्से से तन गया और उसकी पकड़ से वह जहरीला गुलाब चूरा-चूरा होकर मिट्टी में मिल गया।

  नृपेंद्र शर्मा "सागर"
  ठाकुरद्वारा मुरादाबाद


Wednesday, April 19, 2023

बूढ़ा घोड़ा

बूढ़ा घोड़ा

एक जमीदार के चार बेटे थे और एक शानदार नस्ली घोड़ा।
 समय के साथ जमीदार और घोड़ा दोनों बूढ़े हो गए।
 एक दिन जमीदार का एक बेटा पिस्तौल ले आया और जमीदार को दिखाते हुए बोला, "देखो बापू 'घोड़ा' जर्मनी का है एक बार में सात राउण्ड चल सकता है।"
 दूर खड़ा घोड़ा यह सुन रहा था और सोच रहा था 'घोड़ा!! तो फिर वह कौन है?"

 कुछ दिन बाद जमीदार का दूसरा बेटा एक बुलेट मोटरसाइकिल खरीद लाया और जमीदार को दिखाते हुए बोला, "देखो बापू 'घोड़ा' इसपर चढ़कर जिधर निकलो अपनी धाक जम जाती है, रफ्तार और ताकत ऐसी की कहीं भी दौड़ा दो कभी थकता नहीं कभी रुकता नहीं।
 जमीदार बहुत खुश था मोटरसाइकिल को देखकर।
 उधर घोड़ा फिर वही सोच रहा था कि यह घोड़ा है तो मैं कौन हूँ?
 कुछ दिन बाद जमीदार का तीसरा बेटा एक थार कार ले आया और जमीदार को दिखाते हुए बोला, "देखो बापू 'असली घोड़ा' 4×4, इसे जहाँ चाहे चढ़ा दो कीचड़ में रेत में चाहे पहाड़ पर। इसकी ताकत के आगे कोई घोड़ा कुछ  नहीं।
 जमीदार गर्व से हँस रहा था और घोड़ा फिर वही बात दोहरा रहा था, "असली 'घोड़ा' तो हम क्या नकली हैं।

 कुछ दिन बाद जमीदार का चौथा बेटा एक लड़की के साथ आया, इनके साथ एक रोबदाब वाला अधेड़ व्यक्ति भी था। वह जमीदार से बोला, "देखो बापू मेरी प्रेमिका, हम जल्दी शादी करेंगे और ये हैं हमारे बापू, अब हम इनके साथ रहेंगे।
 "बापू!!, तो फिर हम कौन हैं? जमीदार को जैसे झटका लगा और इस बार घोड़ा हँस रहा था...?

 नृपेंद्र शर्मा "सागर"
 ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

Friday, March 17, 2023

सहारा

        सहारा

रुद्रदत्त शहर के जाने माने प्रतिष्ठित व्यापारी थे। उन्होंने अपने दोनों बेटों को खूब पढ़ाया, वे नहीं चाहते थे कि उनके बेटे भी उन्ही की तरह दुकान की गद्दी पर बैठकर सुबह से रात तक खुद को घिसते रहें। उनके बेटे बड़े अफसर बनें, लोग उन्हें सम्मान दें, दूर-दूर तक उनका नाम हो उनका बस यही सपना था। उनके दोनों बेटे उच्च शिक्षित होकर बड़े आदमी बन भी गए। उनका बड़ा बेटा डॉक्टर बनकर स्पेशलाइजेशन करने ऑस्ट्रेलिया गया तो वह वहीं का होकर रह गया। उसने वहीं एक लड़की से शादी भी कर ली, अब वह वापस आना नहीं चाहता था। उसके गम में रुद्रदत्त जी की पत्नी अंदर ही अंदर टूट गयीं और धीरे-धीरे बीमार रहकर उनकी मृत्यु हो गयी, किसी भी डॉक्टर को उनकी बीमारी समझ नहीं आयी थी। रुद्रदत्त जी ने क्यों बार बेटे को फोन पर उसकी माँ के बारे में बताया लेकिन वह बस बहाने बनाता रहा और ना बीमारी पर और ना ही मरने पर अपनी माँ को देखने आया।

  एक वर्ष बाद उनका दूसरा बेटा भी कम्प्यूटर साइंस से बीटेक करने के बाद मास्टर डिग्री के नाम पर अमेरिका चला गया और फिर उसने भी वहीं एक लड़की पसन्द करके शादी कर ली।

रुद्रदत्त जी ने उसे भी कई बार कॉल करके वापस आने को कहा लेकिन उसने साफ जवाब दे दिया, "डैड! मुझे यहाँ एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है। यदि आप चाहें तो हमारे साथ आकर रह सकते हैं। ऐसे भी हमारे पास किसी चीज़ की कमी नहीं है, आप इंडिया से सब बेचकर हमारे पास आ जाइये या फिर भाई के पास चले जाइये। ऐसे भी अकेले आप वहाँ क्या करेंगे?"

रुद्रदत्त जी ने अपनी मिट्टी छोड़ने को ये कहकर मना कर दिया कि, "मेरे पुरखों की मिट्टी जिस मिट्टी में मिली है मैं उसे छोड़कर नहीं आ सकता, मैं चाहता हूँ  कि मेरी मिट्टी भी मेरे मरने के बाद इसी पवित्र भूमि में मिले।"

उसके बाद रुद्रदत्त जी ने कभी अपने बेटों से सम्पर्क नहीं किया था।

रुद्रदत्त जी अभी भी अपनी दुकान चलाते थे, वे हर सुबह जल्दी जाग जाते थे और सुबह पाँच बजे तक पार्क का एक चक्कर लगाकर दो किलोमीटर दौड़ चुके होते थे। इसीलिए वे सत्तावन साल की आयु में भी चालीस से अधिक नहीं लगते थे। ऊँचे कद और गठीले बदन के मालिक गोरे रँग पर जब नीली या काली शर्ट पहनकर निकलते थे तो सैकड़ों की भीड़ में भी दूर से दिख जाते थे।

उस दिन भी दो चक्कर दौड़ने के बाद रुद्रदत्त जी पार्क में बड़े पेड़ों के नीचे बनी सीमेंट की बेंच पर बैठे हुए थे। आज उन्होंने ब्लैक कलर की हाफ टीशर्ट और ग्रे कलर का लोअर पहना हुआ था। दौड़ने के बाद आयीं पसीने की कुछ बूंदें उनके माथे पर आ गयीं थीं जो सूरज की पहली किरण पड़ने पर उनके गौर माथे पर सिंदूरी सोने जैसी चमक रही थीं।

अभी रुद्रदत्त जी ने अपनी बोतल से दो घूँट पानी पीकर उसे नीचे रखा ही था और बोतल रखकर जैसे ही उन्होंने सिर उठाया, एक महिला ट्रेक सूट पहने सामने खड़ी थी। उसकी साँसे तेज़-तेज़ चल रही थीं मानों बहुत दूर से दौड़ती चली आ रही थी। रुद्रदत्त जी ने गौर से उसे देखा, उसकी उम्र कोई चालीस साल के आसपास थी, गौरा रँग, पाँच फीट चार इंच के लगभग हाइट, कसा हुआ चुस्त जिस्म और अकर्षक शारिरिक कटाव उसे बहुत आकर्षक बना रहे थे। उसकी पर्सनेलिटी ऐसी थी कि कोई भी उसे देखे तो कुछ देर उसे बस देखता ही रहे।

"क्या मैं यहाँ बैठ सकती हूँ मिस्टर...?" अभी रुद्रदत्त जी उसके भूगोल को देख ही रहे थे कि उनके कानों में उसका मधुर स्वर पड़ा।

"ज...जी...जी बिल्कुल", रुद्रदत्त जी हड़बड़ाते हुए बोले और खिसककर बेंच के एक कोने पर हो गए।

"अरे! यहाँ तो ऐसे ही बहुत जगह थी, आपको और जगह बनाने की कोई ज़रूरत नहीं थी।" वह महिला रुद्रदत्त जी की हालत देखकर मुस्कुराते हुए बोली और फिर उनके पास ही बैठ गयी। अब रुद्रदत्त जी को उससे झेंप हो रही थी और वे उसकी ओर आँखे नहीं उठा रहे थे।

"मेरा नाम गिरिजा है, गिरिजा गोस्वामी! और आप...?" कुछ देर ऐसे ही बैठकर रुद्रदत्त जी की ओर देखने के बाद उस महिला ने मुस्कुराते हुए कहा और रुद्रदत्त जी की ओर अपना हाथ बढ़ा दिया।

"ज...जी मैं रुद्र... रुद्रदत्त बंसल, मैं एक व्यापारी हूँ। मेन मार्केट में मेरी किराने और ड्राईफ्रूट्स की छोटी सी दुकान है।" महिला के पहल करने पर रुद्रदत्त जी ने अपना पूरा परिचय उसे दे दिया।

"जी मैं शिक्षिका हूँ, इंटर कॉलेज में बायोलॉजी पढ़ाती हूँ। अभी कुछ दिन पहले ही यहाँ ट्रांसफर हुआ है, अभी ये शहर मेरे लिए अजनबी है।" गिरिजा ने भी अपना परिचय देते हुए कहा। 

अब इन दोनों के बीच सामान्य बातें होने लगीं और कोई आधा घण्टे बाद दोनों वहाँ से चले गए।

अब ये नित्य नियम बन गया था रुद्रदत्त जी और गिरिजा पार्क में मिलते और साथ-साथ दौड़ते उसके बाद आधा-एक घण्टे बैंच पर बैठकर बातें करते। ये दोनों अब एक दूसरे के बारे में सब कुछ जान चुके थे। गिरिजा गोस्वामी उत्तराखंड के चमोली जिले से आती थीं। शहर के कॉलेज में शिक्षिका थीं। गिरिजा को उनके प्रेमी ने धोखा दिया था तबसे उसने कभी शादी ना करने और मर्दो से दूर रहने की कसम खयी थी। गिरिजा की उम्र अब अड़तालीस वर्ष की थी लेकिन रोज एक्सरसाइज करने और फिटनेस पर ध्यान देने के चलते वह चालीस से अधिक की नहीं लगती थी। पिछले कुछ समय से गिरिजा रोज सुबह इस पार्क में दौड़ने आती थी और दूर से रुद्रदत्त जी को कसरत करते हुए देखती थी। उस दिन उससे रहा नहीं गया और गिरिजा ने रुद्रदत्त जी से परिचय बढ़ा लिया था।

"अभी आप कहाँ रहती हैं टीचर जी?" रुद्रदत्त जी ने प्रश्न किया और विशेष भाव से मुस्कुरा दिए।

"अरे सर! हमारा नाम है, आप हमें टीचर जी की जगह गिरिजा कहेंगे तो हमें ज्यादा अच्छा लगेगा। आपको नहीं लगता ये टीचर जी ये लाला जी बहुत पराये से लगते हैं। वैसे अभी तो मैं एक होटल में ही रहती हूँ , कोई अच्छा सा रूम मिल जाये तो वहाँ शिफ्ट होकर सेटल हो जाऊँ। आपकी नजर में है कोई अच्छा कमरा?" गिरिजा ने रुद्रदत्त जी की आँखों में देखते हुए प्रश्न किया। इस समय गिरिजा के चेहरे पर बहुत भोली मुस्कान थी।

  "आप ठीक समझो तो मेरे घर..., इतना बड़ा घर है और रहने वाला मैं अकेला। आप कोई किराया भी मत देना बस भोजन..., आपको रहने का सहारा हो जाएगा और मुझे भोजन का।" रुद्रदत्त जी ने धीरे से कहा।

"सहारा..., ठीक है तो मैं कल ही अपना सामान लेकर आ जाती हूँ, कल सन्डे है आराम से रूम सेट हो जाएगा।" गिरिजा ने कुछ सोचकर कहा और दोनों मुस्कुराते हुए चले गए।

गिरिजा अब रुद्रदत्त जी के बड़े से घर में आ गयी थीं। रविवार का दिन था तो आराम से वह अपना सामान जमा सकती थीं। ऐसे भी गिरिजा जी के पास ज्यादा सामान नहीं था। बस कुछ कपड़े थोड़े से बर्तन और कुछ किताबें।

"आप ये ना समझना कि बस ये एक कमरा ही आपका है, मेरी ओर से ये पूरा घर आपका है आप जहाँ चाहें रह सकती हैं जहाँ चाहें जो चाहे कर सकती हैं।" रुद्रदत्त जी ने गिरिजा की किताबें जमाते हुए कहा। आज रुद्रदत्त जी भी दुकान नहीं गए थे। पत्नी के जाने के बाद ये पहली बार था जब उन्होंने दुकान समय पर नहीं खोली थी। हालाँकि पहले तो ये अक्सर हुआ करता था। खासकर उनकी शादी के प्रारम्भिक दिनों में। आज ना जाने क्यों रुद्रदत्त जी को वे दिन बहुत याद आ रहे थे।

"आपका कमरा कौन सा है 'रुद्र' चलो मुझे दिखाओ।" अचानक किताब रखकर गिरिजा रुद्रदत्त जी की  ओर घूमी और उनकी आँखों में देखते हुए गम्भीर होकर बोली।

"वो... उधर वहाँ है मेरा कमरा।" रुद्रदत्त जी ने हकलाते हुए उंगली से इशारा करके बताया।

"अच्छा! चलो मुझे देखना है।" गिरिजा ने कहा और उस रूम की ओर बढ़ गयी।

रुद्रदत्त जी भी उसके पीछे आने लगे।

कमरे में आकर कुछ देर इधर-उधर देखने के बाद गिरिजा की नजर एक तस्वीर पर जाकर अटक गई। कमरे में दीवार पर एक बड़े से फ्रेम में किसी महिला की तस्वीर लगी थी जिसपर फूलमाला चढ़ी हुई थी।

"ये मेरी पत्नी गंगा की तस्वीर है। लोग कहते हैं कि गङ्गा मोक्ष तक साथ रहती है लेकिन मेरी गङ्गा तो मुझे बीच राह में मुझे छोड़कर चली गई।" रुद्रदत्त जी गिरिजा की आँखों का मतलब समझकर उसे बताते हुए बोले।

"अच्छा! फिर आपने इनकी तस्वीर यहाँ क्यों लगा रखी है। क्या आप नहीं चाहते कि इन्हें मोक्ष मिले। अरे यदि आप ऐसे इन्हें तस्वीर में कैद करके रखोगे तो कैसे जा पायेंगी ये परलोक, आप इन्हें अपनी यादों से आज़ाद कीजिये पहले।" गिरिजा ने गम्भीर होकर कहा और रुद्रदत्त की आँखों में देखने लगी।

रुद्रदत्त जी ने कुछ नहीं कहा और बस गिरिजा की आँखों में देखने लगे। अचानक गिरिजा ने उनका हाथ पकड़ लिया। ये स्पर्श रुद्रदत्त जी को डूबते को तिनके का सहारा सा लगा और उनका ध्यान टूट गया।

"अच्छा अब आप दुकान पर जाइये यहाँ मैं सब ठीक कर दूँगी।" गिरिजा ने कहा और रुद्रदत्त जी बिना कुछ कहे दुकान के लिए निकल गए।

 शाम को गिरिजा ने भोजन में कई तरह के पकवान बनाये थे, पत्नी के देहांत के बाद रुद्रदत्त जी ने पहली बार मन और पेट दोनों की तृप्ति की थी। 

 "वाह क्या स्वाद है, जादू है आपके हाथों में गिरिजा जी। आपको बायोलॉजी का नहीं कुकिंग का टीचर होना चाहिए था।" भोजन के बाद रुद्रदत्त जी ने गिरिजा की तारीफ करते हुए कहा।

 "अच्छा जी! चलो कोई बात नहीं यहाँ मैं आपको कुकिंग सिखाने को जॉब कर लेती हूँ लेकिन केवल आपको ही सिखाऊंगी।" गिरिजा ने मुस्कुराते हुए कहा।

 "केवल मुझे ही क्यों?" रुद्रदत्त जी ने गिरिजा की आँखों में देखते हुए पूछा।

 "सहारे के लिए लाला जी, अब कभी अगर मैं बीमार पड़ी तो मुझे भी तो दो रोटी का सहारा चाहिए होगा ना, तब आप मेरे लिए खाना बनाना।" गिरिजा ने हँसते हुए कहा लेकिन तभी रुद्रदत्त जी ने गिरिजा के मुँह पर हाथ रख दिया और धीरे से बोले, "बीमार पड़ें आपके दुश्मन।"

 तभी गिरिजा ने रुद्रदत्त जी के हाथ को चूम लिया और मुस्कुराते हुए उनकी आँखों में देखने लगी।

 "क्या देख रही हो ऐसे?" रुद्रदत्त जी ने उससे नज़रें चुराकर अपने हाथ को देखते हुए कहा।

 "क...कुछ नहीं! बस ऐसे ही।" गिरिजा ने कहा और बर्तन समेटने लगी।

 "अरे गिरिजा जी! ये हमारे कमरे का हुलिया किसने बदल दिया? और गंगा की तस्वीर कहाँ है?"कुछ ही देर बाद कमरे से रुद्रदत्त जी की आवाज आयी।

 "हमने किया है, और गंगा जी को हमने उनकी तस्वीर की कैद से मुक्त कर दिया अब आप भी उन्हें अपनी यादों से मुक्त कर दो ताकि वे अपने मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ सकें और इस कार्य के लिए जो सहारा चाहिए आपको मैं देने के लिए तैयार हूँ।" गिरिजा ने अर्थपूर्ण स्वर में कहा और मुस्कुराते हुए वापस जाने लगी।

 "कैसा सही गिरिजा?" रुद्रदत्त जी ने उसकी आँखों की चमक देखते हुए पूछा।

 "आती हूँ अभी थोड़ी प्रतीक्षा कीजिये।" गिरिजा ने हँसकर कहा और रसोई की ओर बढ़ गयी। 

 रुद्रदत्त जी सोच रहे थे कि गिरिजा आज ना जाने क्या करने वाली है।


 कुछ देर बाद जब गिरिजा उनके सामने आई तो वे छक्के-बक्के से उसे देखते रह गए।

 गिरिजा ने बहुत सुंदर लहँगा और चोली पहनी हुई थी। उसने एक जड़ाऊ चुनरी से अपने सिर को भी ढका हुआ था। वह आगे आयी और रुद्रदत्त जी के सामने आकर खड़ी हो गई। रुद्रदत्त जी तो समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या करें। इन कपड़ों में गिरिजा बिल्कुल अप्सरा लग रही थी। उसका रूप उसका यौवन किसी नवविवाहित नवयौवना को भी फेल कर रहा था। रुद्रदत्त जी तो पलकें तक झपकाना भूल गए थे।

 "ऐसे क्या देख रहे हैं रुद्र क्या मैं अच्छी नहीं लग रही?" गिरिजा ने धीरे से मुस्कुराते हुए पूछा।

 "बहुत अच्छी लग रही हो गिरिजा किन्तु ये सब...?" रुद्रदत्त जी ने फिर उसकी ओर देखते हुए पूछा।

 "ये सब आपको सहारा देने के लिए ताकि आप गंगा जी को भुला सको और भुला सको उन कुपुत्रों को जिन्हें अपने सुख के आगे अपने पिता के रोज सूखते आँसू कभी दिखाई नहीं दिए।" गिरिजा ने कहा और रुद्रदत्त जी के पास बिस्तर पर बैठ गयी। 

 गिरिजा की सुंदरता रुद्रदत्त जी को।मोहित कर रही थी। उसके शरीर की मादक गंध उन्हें मदहोश कर रही थी।

 वे सोच नहीं पा रहे थे कि क्या करें तभी गिरिजा ने उनका हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोली, "जब इस दुनिया में सभी अपने हिसाब से जीना चाहते हैं, सभी को बस अपने आप से मतलब है तो हम इस मतलबी दुनिया की परवाह क्यों करें। क्यों ना आज से हम एक दूसरे का भावनात्मक सहारा बनें? क्यों ना हम एक दूसरे की कमी पूरी करें? क्यों ना हम सबकुछ भूलकर बस अपने सुख के लिए जियें।" गिरिजा रुद्रदत्त जी के हाथ को दबा रही थी।

 आज वर्षों बाद किसी स्त्री का ये स्पर्श उन्हें अंदर से गुदगुदा रहा था। उनकी नसों में खून का संचार तेज होने लगा था। उनके भीतर का पुरुष जाग रहा था।

 उन्होंने गिरिजा को अपनी ओर करते हुए उसका घुँघट उठा दिया और बोले, "तुम ठीक कहती हो गिरिजा, हमें भी अपने लिए जीना चाहिए, जब किसी को हमारी परवाह नहीं जब समय पर कोई हमारा सहारा नहीं बनना चाहता तो क्यों ना हम अपना सहारा खुद ही खोज लें और अपने सहारे का सच्चा सहारा बनें।" कहते हुए रुद्रदत्त जी ने गिरिजा का माथा चूम लिया। गिरिजा भी अब उनकी बाहों में सिमट गई थी। रुद्रदत्त जी के होंठ गिरिजा के माथे से आँखों पर फिसलते हुए उसके होंठों पर पहुँच गए थे और उनके हाथ उसके गले से फिसलकर उसकी पर्वत चोटियों की बर्फ हटाने लगे थे। उनके हाथ का गर्म स्पर्श पाकर गिरिजा पिघल उठी और रुद्रदत्त जी उसकी पर्वत चोटियों का अमृतरस पीने लगे। गिरिजा को ये सब बहुत अच्छा लग रहा था और वो चाहती थी कि रुद्र उसमें समा जाएँ और ये रात कभी खत्म ही ना हो।  वह रुद्रदत्त से लिपटी जा रही थी और उन्होंने उसे किसी लता की भाँति मज़बूत वृक्ष बनकर सहारा दे रखा था।

 उनके चुम्बन की गति और दबाब दोनो बढ़ चुके थे। उनके बीच के सारे पर्दे हट चुके थे। रुद्रदत्त जी के हाथ अब बिना रुकावट गिरिजा के संगमरमरी जिस्म पर फिसल रहे थे। इन दोनों की ही साँसें बहक चुकी थीं तूफान अपने चरम पर था तभी रुद्रदत्त जी गिरिजा से लिपटकर वह पा गए जिसे पाने के लिए ये सारा तूफान उठाया जा रहा था। वे उसके अंदर समाते चले गए जिसे गिरिजा ने भी पूरे मन से स्वीकार किया और जब ये तूफान थमा तो दोनों के चेहरे सन्तुष्टि से चमक रहे थे। थोड़ी देर ऐसे ही पड़े रहकर साँसे ठीक करने के बाद दोनों को होश आया कि कुछ देर पहले उनके बीच से क्या तूफान गुजरा है जिसने एक ज्वालामुखी को पिघला दिया था। गिरिजा के यौवन पर वर्षों से जमी बर्फ पिघल चुकी थी। रुद्रदत्त जी भी काफी सालों बाद अपने पुरुष होने पर गर्व कर रहे थे। इस उम्र में भी उनकी शक्ति क्षीण नहीं हुई थी। गिरिजा उनसे पूरी तरह खुश थी।

 "क्या हम विवाह कर लें गिरिजा?" गिरिजा के बालों में उंगलियाँ घुमाते हुए रुद्रदत्त जी ने धीरे से पूछा।

 "नहीं! उसकी कोई ज़रूरत नहीं है।" गिरिजा ने उनके सीने पर से अपना सिर उठाते हुए कहा।

 "लेकिन क्यों? अब जब हमारे बीच ये सम्बन्ध बन ही गया है तो तुम्हें नहीं लगता हमें इसके लिए सामाजिक मान्यताओं को मानते हुए हमारे रिश्ते की औपचारिक घोषणा कर देनी चाहिए?" रुद्रदत्त जी ने प्रश्न किया।

 "नहीं मुझे नहीं लगता। हमें एक दूसरे का सहारा चाहिए सो हमें मिल गया, इसके लिए हमें हमारे रिश्ते को कोई नाम देने की कोई ज़रूरत नहीं है, और फिर जब हमें भावनात्मक स्पोर्ट चाहिए था तब तो यही ज़माना हमारा मज़ाक उड़ा रहा था ना तो अब हम इसकी परवाह क्यों करें।

 ऐसे भी आप विवाह करके, परिवार बना कर देख चुके हो, कौन है आज आपके पास? मैने भी प्रयास किया था लेकिन मेरा प्रेमी विवाह के मंडप तक भी नहीं आता। तब जब मुझे लोगों से मोरल स्पोर्ट की आशा थी लोग उल्टे मेरा ही मज़ाक उड़ा रहे थे कि शायद उसे मेरी किसी बात का पता चल गया होगा इसलिए वह मुझसे विवाह करने नहीं आया। जिस लड़के के लिए मैं दुनिया से लड़ी, अपने पेरेंट्स को छोड़ दिया वह उस समय भाग गया जब मुझे सहारा चाहिए था। उसने मुझे धोखा दिया तो मुझे नफरत हो गयी विवाह के नाम से ही।" गिरिजा ने गम्भीर आवाज में कहा।

 रुद्रदत्त जी अवाक उसका मुँह ताकते रहे और फिर उसे अपनी बाहों में कसते हुए बोले, "हम हमेशा एक दूसरे का सहारा रहेंगे गिरिजा।" 

 गिरिजा ने भी उन्हें कस लिया और दोनों सो गए। 

 ये दोनों एक दूसरे का सहारा बनकर बहुत खुश थे, 

 दोनों के हृदय की धड़कन मानों गा रही थीं, "तुम जो मिल गए हो..."

  समाप्त



Wednesday, March 15, 2023

नर्तकी





         नर्तकी



  भाग-1

"राजकुमार 'रविकांत' को आज राज्य का युवराज घोषित करते हुए महाराज 'सूर्यकांत' जी ने उनके उत्तराधिकारी पद की आधिकारिक घोषणा की है। आज उनको विधि विधान से युवराज बनाया जाएगा, उसके बाद हमारे नवनियुक्त युवराज नगर भ्रमण करके जनदर्शन हेतु निकलेंगे।

सुना है हमारे युवराज ऐसे सुदर्शन हैं कि स्वयं चंद्रमा भी उनके रूप को देखकर लज्जित होता है। उनकी कांति उनके नाम के अनुरूप ही 'सूर्यदेव' के तेज की आभा देती है। अबसे बस कुछ ही समय बाद शुभ मुहूर्त में उनके युवराज्जाभिषेक के बाद उनकी नगर-यात्रा आरम्भ होगी। जल्दी चलो और अपने स्थान ग्रहण करो नहीं तो पीछे खड़ा होना पड़ेगा और हम ठीक से अपने युवराज को नहीं देख पाएंगीं।" कपिला सबको दौड़-दौड़ कर यह बात बता रही थी। राजनर्तकी कमलकांति की पुत्री

'सुदर्शना' के कानों में जब यह बात पड़ी तो उसके हृदय की गति अनायास ही तेज़ हो गयी।

वह मन ही मन राजकुमार रविकांत की वह मनमोहक छवि बनाने लगी जिसका वर्णन अभी कपिला ने बढ़-चढ़कर किया था। उसके मन में राजकुमार 'रविकांत' लालसा प्रबल होने लगी थी। वह जल्दी से अपनी माता कमलकांति के पास आई और सकुचाते हुए बोली, "माँ! आज नगर में  राजकुमार जी के युवराज्याभिषेक के बाद शोभायात्रा निकाली जा रही है, क्या मैं भी उसे देखने जाऊँ?"

  सुदर्शना की आवाज सुनकर कमलकांति ने सिर उठाकर देखा सामने सहमी सिमटी सी चौदह-पन्द्रह वर्षीया, छरहरी, गौरवर्ण, अपने रूप से स्वर्गकी अप्सराओं को भी लज्जित करती नवयौवना सुदर्शना सिर झुकाए खड़ी थी।

कमलकांति 'सूर्यनगर' सम्राज्य की राजनर्तकी थी, उसके रूप और गुणों की ख्याति केवल 'सूर्यनगर' ही नहीं अपितु दूर-दूर के साम्राज्यों तक फैली हुई थी। लोग कहते थे कि महाराज रविकांत जी की रंगशाला किसी स्वर्ग जैसी ही सजती है और वहाँ का नृत्य एवं गायन इतना शास्त्रसम्मत होता है कि पशु-पक्षियों तक को मन्त्रमुग्ध कर देता है। कई राज्य के राजा-महाराजा इस बात से ईर्ष्या रखते थे कि कमलकांति जैसी नर्तकी उनके राज्य की शोभा क्यों नहीं है। कई साम्राज्यों ने तो महाराज सूर्यकांत जी से कमलकांति की मांग तक कर दी थी कि वे किसी भी मूल्य पर कमलकांति को पाने के लिए तैयार हैं। किंतु महाराज सूर्यकांत जी ने हर बार यही कहा था कि कमलकांति सूर्यनगर सम्राज्य की आन हैं और उन्हें किसी भी मूल्य पर किसी को दिया नहीं जा सकता। ऐसे भी कमलकांति कोई वस्तु नहीं हैं। महाराज सूर्यकांत जी स्वयं कमलकांति का बहुत सम्मान करते थे।

  'सुदर्शना' रूप और गुणों में अपनी माता की प्रतिमूर्ति ही थी। वह न केवल अपनी माता जैसे गुण रखती थी अपितु रूप में कमलकांति से भी कहीं बढ़कर थी। यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही उसके रूप की छटाएं भी अपने आकर्षण का परिचय देने लगीं थीं।

उसके इसी गुण के कारण कमलकांति ने सुदर्शना के कहीं भी बाहर जाने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था। वह नहीं चाहती थी कि सुदर्शना के रूप की ख्याति अन्य राज्यों में पहुंचे और कोई दूसरा राज्य सुदर्शना को पाने के लिए कोई षड्यंत्र करे या सुदर्शना का अपहरण कर ले।

किन्तु आज जब सुदर्शना ने मनुहार करते हुए अपनी माता से युवराज की नगर यात्रा देखने जाने की अनुमति माँगी तो वह उसे मना नहीं कर पाई किन्तु उसने सुदर्शना को उसकी सखियों कपिला, चपला और विमला को साथ ले जाने की शर्त रख दी। इनमें कपिला और चपला तो सुदर्शना की हम उम्र ही थीं किंतु विमला कोई बीस वर्षीया अनुभवी नर्तकी थी। उसे बाहर के समाज की अच्छी समझ थी।

कमलकांति ने विमला को अच्छे से समझा दिया था कि ये सभी साधारण नागरिकों के वस्त्रों में ही वहाँ जाएंगी और ध्यान रखेंगी की सुदर्शना का चेहरा हर समय ढका रहे ताकि किसी को भी उसकी वास्तविक पहचान ना होने पाए। विमला ने कमलकांति को इस बात का पूरा आश्वासन भी दे दिया था।

'सुदर्शना अपनी तीनों सखियों के साथ साधारण वस्त्रों में ठोड़ी तक घूँघट डाले नगर में राजकुमार के शोभायात्रा मार्ग पर आकर खड़ी हो गयीं। सारे मार्ग पर बहुत भीड़ थी, बड़ी मुश्किल से इन्हें आगे थोड़ी सी जगह मिली जहाँ खड़ी होकर ये चारों बाकी प्रजा के साथ युवराज के आगमन की प्रतीक्षा करने लगीं।

कोई घड़ीभर की प्रतीक्षा के बाद एक तेज़ कोलाहल सुनाई दिया, "सावधान हो जाओ सब, युवराज की सवारी आ रही है। 

यह आवाज सुनते ही सभी लोग गर्दन घुमाकर इस ओर देखने लगे जिधर से युवराज 'रविकांत' का रथ आ रहा था।

सुदर्शना भी बाकी लोगों के साथ उस दिशा में देखने लगी, सामने से रँग गुलाल उड़ाते दो घोड़ों वाले खुले रथ में खड़े होकर युवराज 'रविकांत' लोगों का अभिवादन करते चले आ रहे थे। सुदर्शना दूर से युवराज को  देखने का प्रयास कर रही थी किन्तु भीड़ अधिक होने के कारण वह युवराज की एक झलक तक पाने में असमर्थ थी। जैसे-जैसे राजकुमार की सवारी इस ओर बढ़ती जा रही थी उसी के साथ बढ़ रही थीं सुदर्शना के हृदय की गति भी।


नर्तकी भाग-2


जनसमुदाय की उमड़ी भीड़ के बीच सुदर्शना ने जब सुना कि युवराज की सवारी इधर आने ही वाली है तो उसके दिल की धड़कनें अनायास ही बढ़ गई ।

सुदर्शना थोड़ी तक घुँघट में अपना चेहरा छिपाए अपनी सखियों, चपला, कपिला और विमला के साथ मार्ग के दाहिने किनारे पर एक भवन की सीढ़ियों पर खड़ी हुई थी। दूर से इन्हें युवराज का दो सफेद घोड़ों वाला रथ आता दिखाई दिया जिसमें राजकुमार रविकांत खड़े होकर प्रजा का अभिवादन करते हुए रँग, गुलाल एवं फूल बरसाते हुए चले आ रहे थे। जनसमूह 'युवराज' की जय के नारे लगा रहा था।

जैसे-जैसे राजकुमार की सवारी निकट आ रही थी सुदर्शना पर्दे के पीछे से उनके सुदर्शन रूप को एक टक देख रही थी। वह राजकुमार के मनमोहक स्वरूप में ऐसी खोयी की अपनी पलकें तक झपकना भूल गयी थी।

जैसे ही राजकुमार का रथ सुदर्शना के सामने आकर रुका, पवनदेव ने शरारत कर दी और हवा के उस झोंके के साथ ही सुदर्शना का चीर उसके सिर से उतर गया। घुँघट हटते ही ऐसा लगा मानों पूर्णिमा के चाँद पर से बादल हट गया हो। ठीक उसी क्षण राजकुमार की नजरें सुदर्शना कि आँखों से टकरायीं और राजकुमार ने लाल रँग सुदर्शना की ओर उछाल दिया।

वह रँग सीधे सुदर्शना की मांग में आकर गिरा और उसी पल सुदर्शना ने अपना घुँघट सही कर लिया। राजकुमार की सवारी आगे बढ़ गई किन्तु सुदर्शना की हृदय गति अब सामान्य ना हो सकी। सुदर्शना बिना अपनी सखियों से कुछ कहे अपने निवास की ओर दौड़ पड़ी। पीछे से कपिला, चपला उसे पुकारती रह गयीं किन्तु उसे तो जैसे किसी बात का भान ही नहीं रहा था।

सुदर्शना दौड़ते हुए अपने कक्ष में आयी और किबाड़ बन्द कर लिए।

"क्या हुआ चपला, कपिला? ये ऐसे बदहवास होकर क्यों भागी चली आ रही है?  कुछ अनुचित घटा क्या शोभायात्रा में?" कमलकांति ने सुदर्शना के इस तरह दौड़ने और कक्ष में खुद को बन्द करते हुए देखकर चिंतित स्वर में प्रश्न किया।

"अप्रिय तो कुछ नहीं घटा कमलकांति जी, बस कुमारी ने युवराज जी की एक झलक देखी और ना जाने से क्या सूझी कि घर की ओर दौड़ लगा दी। उसने हमारी आवाज तक नहीं सुनी, हम तो बस उसे रोकते-रोकते यहाँ तक आ गए और अब उसने खुद को कक्ष में बंद कर लिया।" विमला ने दौड़ने के कारण अपनी भागती हुई साँसों को रोकने का प्रयास करते हुए उत्तर दिया।

"ठीक है उसे कुछ देर आराम  करने दो। हो सकता है बाहर की धूप और लोगों की भीड़ के कारण उसका मन खराब हो गया हो।" कमलकांति ने धीरे से कहा।

"सही कहती हो कमलकांति, आप उसे बाहर कहीं निकलने भी तो नहीं देती हो। तो हो सकता है बाहर का माहौल उसे रास ना आया हो, भीड़ भी तो कितनी थी माई रे! ऐसा लगता था मानों इंसानों का समंदर ही उमड़ पड़ा हो। कंधे तक छिले जाते थे भीड़ में टकराने से। वह तो हमने कुमारी हो एक भवन की ऊँची सीढ़ियों पर खड़ा कर दिया था अन्यथा भीड़ में युवराज जी के दर्शन तो क्या ही होते, बस भीड़ में चोट-पीट लगती सो अलग।" विमला ने कहा।

"अच्छा-अच्छा चलो और उसे अभी आराम करने दो। कपिला तुम इधर ही ध्यान रखना यदि उसे कुछ चाहिए होगा तो लाकर दे देना और उसके उठते ही मुझे सूचना देना।" कमलकांति ने कहा और अपने कक्ष की ओर चली गयी।


  कक्ष में आते ही सुदर्शना दर्पण के सामने आकर बैठ गयी। उसने अपनी ओढ़नी उतार फेंकी और अपनी माँग में भरे उस लाल रँग को बहुत देर तक एक टक देखती रही। इस समय उसकी आँखें लाज से झुकी जा रही थीं, उसके होंठो पर मुस्कान खिली हुई थी और उसके हृदय की तेज गति के कारण उसके यौवन पुष्पों की हलचल दूर से नज़र आ रही थी।

कुछ देर बाद सुदर्शना ने अपनी श्रंगार  पेटी से चाँदी की एक खाली डिब्बी निलाली और अपनी माँग के बाहर इधर-उधर फैले रँग को झाड़कर उस डिब्बी में इकट्ठा करने लगी। जब माँग भर में रँग भरा रह गया तो उसने एक बार खुद को ध्यान से देखा और अगले ही पल मुस्कुराते हुए अपना चेहरा अपनी हथेलियों के बीच छिपा लिया।

अब उसने उस डिब्बी को उठाया और  उसे अपने हृदय के पास लगाकर सीने  में दबा लिया।

सुदर्शना की हालत एकदम दीवानी सी हो रही थी, वह कभी लजाती, कभी खुद को दर्पण में निहारकर मुस्काती, कभी उस रँग भरी डिब्बी का आलिंगन करती तो कभी अपनी माँग में भरे उस सिंदूरी रँग को गौर से देखकर गम्भीर मुद्रा बना लेती।

ना जाने कितनी देर तक सुदर्शना ऐसे ही करती रही और फिर दर्पण की ओर मुख करके पेट के बल शैय्या पर लेटकर ना जाने किन ख्यालों में डूबी हुई स्वप्नों में खो गयी, उसकी आँख लग गयी थी और वह राजकुमार के स्वप्न देख रही थी।


शाम को जब उसकी आँखें खुलीं तो उसने उठकर स्नान किया और श्रंगार के बाद चुपके से उस चाँदी की डिब्बी में से निकाल कर थोड़ा सा रँग अपनी माँग में सजा लिया और उसे सफाई से अपने बालों से छिपा लिया।

उसके बाद सुदर्शना मन्दिर गयी और देर तक राधा कृष्ण जी के चरणों में बैठकर उनसे बातें करती रही।

सुदर्शना बहुत देर तक अनमनी सी अपने आप में ही खोयी श्री कृष्ण जी की प्रतिमा से प्रश्न करती स्वयं ही उत्तर देती मंदिर में बैठी रही तभी उसकी सखी चपला उसे खोजते हुए मंदिर में पहुँच गयी और उसे पुकारते हुए बोली, "सुदर्शना...,ओ सखी सुदर्शना जल्दी चलो आपकी माँ आपको बुला रही हैं, आपके नृत्य के अभ्यास का समय हो गया है।

जल्दी चलो सखी अन्यथा माताजी रुष्ट हो जाएंगी।"

दो-तीन बार पुकारने पर सुदर्शना ने पलटकर चपला को देखा तब तक चपला उसके निकट पहुँचकर उसके कंधे को हिला चुकी थी।

"अंय...! क्या कहा तुमने चपला?" सुदर्शना ने अपनी तन्द्रा से बाहर आते हुए प्रश्न किया।

"कहाँ खोयी हो आज आप सुदर्शना जी! जबसे शोभायात्रा देखकर लौटी हो आपकी खुद की शोभा ही खो गयी है। आते ही खुद को कक्ष में बंद कर लिया और अब स्नानादि करके जब नृत्य अभ्यास का समय आया तब मन्दिर में बैठकर ना जाने किन स्वप्नों में खोयी हुई हो। आपको पता भी है सन्ध्या भी बीतने ही वाली है। राजनर्तकी जी कब से साज सजाए अभ्यास के लिए आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं। जब अधिक देर हुई तो उन्होंने सभी सखियों को आपको खोजने के लिए भेजा है और आप हो कि इस सब से लापरवाह होकर यहाँ बैठी हुई हो।" चपला एक साँस में कहती चली गई।

"ओह्ह!! आज तो सच में देरी हो गयी। जल्दी चलो चपला अन्यथा सच में माँ क्रोध करेंगी।" सुदर्शना ने कहा और जल्दी से चपला का हाथ पकड़े एक ओर चल दी।


नर्तकी भाग-3



सुदर्शना जब अभ्यास कक्ष में पहुंची तो उसकी माता की भौंहे टेढ़ी हो रही थीं, उनके मुख पर अप्रसन्नता के भाव दूर से दिखाई दे रहे थे। सुदर्शना माता से आँखें चुराते हुए सीधे नटराज जी की बड़ी मूर्ति के पास जाकर उनके चरणों पर पुष्प चढ़कर प्रणाम करने लगी। उसके बाद उसने हाथ जोड़कर, सिर झुकाते हुए वहाँ उपस्थित सभी का अभिवादन किया और साज पर बैठे लोगों को सुर सजाने के संकेत करके नृत्य की मुद्रा बना ली।

सुदर्शना जो कि अब किसी नर्तकी की पारम्परिक भेष-भूषा में थी, उसने एक बहुत सुंदर घाघरा और चोली पहनी हुई थी। ओढ़नी को उसने अपने  जूड़े में फँसाया हुआ था। इस परिधान में सुदर्शना का सुंदर रूप सच में सुदर्शन लग रहा था। सुदर्शना के पतले गुलाबी होंठ, सिंदूरी दूध सा गौरा रँग, सुंदर सी छोटी गोल नाक, और साँचे में ढला अंडाकार चेहरा किसी को भी एक झलक में आकर्षित कर सकता था उसपर उसके चेहरे पर ऐसा भोलापन था जो उसे और आकर्षक बनाता था।

सुदर्शना ने हाथ उठाते हुए अपने पैर चलाये तो उसके घुँघरू मधुर स्वर में चहक उठे, उसी समय सितार और तबले ने एक साथ 'त्रिक ता धा धा त्रिक त्रिक धिन ता धिन' की तान बजायी और सुदर्शना ने नृत्य आरम्भ कर दिया।

उसी के साथ उसने गाना शुरू किया:- श्याम सलोने जादूगर क्या रँग प्यार का बिखराया।

मैं तन-मन रँग गयी तेरे रँग क्या रूप सलौना दिखलाया।।

मेरे मन मन्दिर में मूरत बन अब सदा सदा बस तुम रहना।

तुमको भी प्रेम हमीं से है एक बार प्रेम से बस कहना।

मन मोहन प्राण आधार मेरे बस मेरी पुकार पर आ जाना।

तुम सुनते हो सच्चे मन की सबने बस यही तो सिखलाया।


ऐसे गाते-गाते सुदर्शना बहुत लय-ताल के साथ नृत्य करने लगी।

जो भी आज उसका नृत्य देख रहे थे और उसके स्वर सुन रहे थे मंत्रमुग्ध होकर बैठे हुए थे। सुदर्शना इतने मीठे स्वर में गा रही थी और नृत्य तो मानों स्वयं नटराज जी के साथ ताल मिला रही थी।

सुदर्शना आगे गाने लगी

एक अनजाना सम्बन्ध जुड़ा बस उसका मान निभा देना।

मैं तन-मन से अब तुम्हारी हुई तुम भी मुझको अपना लेना।

मैं प्रेम दीवानी कबसे थी मूरत इस मन में तुम्हारी थी।

दर्शन दे दिए श्याम मुझको मैं हृदय तुम्हीं पर हारी थी।

अब रँग भरी जो माँग मेरी इस रँग का  वचन निभा देना।।

वह पूरे मन से नृत्य करते हुए ओढ़नी लहराती हुई आगे गाने लगी:-

हे प्राण प्रिय है मनमोहन मैं अब तुम पर बलिहारी हूँ।

मुझको इस जग से क्या लेना मैं तो बस तुम्हारी प्यारी हूँ।

ये बन्धन है सबसे बढ़कर सब कहते हैं सब सुनते हैं।

इसको मत मिथ्या कर देना जो सन्तों ने है बतलाया।।

मेरे मोहन... मेरे श्याम...

  मेरे प्राणों के आधार...


गाते-गाते सुदर्शना सीधे नटराज जी के चरणों में जाकर रुकी और आँखों में आँसू भरे मन ही मन ना जाने क्या प्रार्थना करने लगी।

इधर सारे उपस्थित लोग बस वाह वाह ही करते रहे गए। 

सुदर्शना की माता अपनी पुत्री की कला से पूर्ण सन्तुष्ट नज़र आ रही थीं। 

अचानक सुदर्शना ने अपने  कंधे पर एक हाथ महसूस किया और वह अपनी तन्द्रा से बाहर आ गयी।

उसने जब देखा कि विमला का हाथ उसके कंधे पर है और उसके पीछे कपिला-चपला खड़ी हैं तो वह जल्दी से उठी और अपनी ओढ़नी से अपना चेहरा ढकते हुए अपने आँसू छिपकर जल्दी से वहाँ से उठकर भाग गई और फिर अपने कक्ष में जाकर बन्द हो गयी।

"ये सुदर्शना को हुआ क्या है विमल बहन! जबसे ये शोभायात्रा देखकर आयी है लगता है लौटी ही नहीं है। पता नहीं ऐसा इसने क्या देख लिया जो खुद को ही भुला बैठी है। एक ही दिन में हमारी हँसती खेलती सखी दीवानी सी हो गयी है।" चपला ने सुदर्शना को ऐसा करते हुए देखकर प्रश्न किया।

  "पता नहीं बहन, मुझे तो लगता है राजकुमार जी की एक झलक देखते ही हमारी सुदर्शना अपना हृदय हार बैठी है। कहीं ये युवराज के प्रेम में तो...?" कपिला ने अपनी बात कही।

"नहीं...! यदि ऐसा है भी तो हमें इसे रोकना होगा। एक युवराज के साथ नर्तकी का प्रेम ना तो कभी समाज ने स्वीकार किया है और ना ही करेगा। पता करो तुम दोनों की असली बात क्या है। और यदि कुमारी के मन में ऐसा कुछ चल रहा है तो उसे समझाओ नहीं तो मुझे इनकी माता जी को सारी बात बतानी होगी। जाओ पता करो।" विमला ने चिंतित स्वर में कहा और चपला-कपिला सुदर्शना के कक्ष की ओर बढ़ गयीं।

कक्ष का द्वार अंदर से बन्द था तो ये दोनों बाहर से सुदर्शना को पुकारने लगीं किन्तु सुदर्शना तो अपने वस्त्र बदले चोली और छोटा घाघरा पहने पलँग पर उल्टी लेटकर वह रँग वाली डिब्बी हाथ में पकड़े कृष्ण जी के चित्र से बातें कर रही थी और कभी मुस्कुराती कभी उदास होती उस डिब्बी को चूमकर सीने से लगा रही थी। बाहर की कोई भी आवाज तो जैसे उसके कानों में पड़ ही नहीं रही थी।

"आओ उस खिड़की से देखते हैं, शायद सुदर्शना को हमारी आवाज पहुँच जाए और वह किबाड़ खोल दे।" चपला ने कपिला का हाथ पकड़कर कक्ष की अधखुली खिड़की की ओर संकेत करते हुए कहा और दोनों सखी उस खिड़की की ओर बढ़ गयीं।


नर्तकी भाग-4


चपला और कपिला सुदर्शना के कक्ष की अधखुली खिड़की की ओर बढ़ गईं और वहां से अंदर झाँकने का प्रयास करने लगीं।

अंदर सुदर्शना अपने पलंग पर उल्टी लेटी हुई खुद को दर्पण में देखकर ना जाने किससे बातें कर रही थी।

चपला और कपिला ने कुछ देर तक तो सुदर्शना को देखा और फिर कुछ समझ ना आने पर, दोनों एक साथ सुदर्शना को पुकारने लगीं, "सुदर्शना!! सखी सुदर्शना! किबाड़ खोलो चलो उठो आज भोजन नहीं करोगी क्या। अरे उठो! किसके साथ बातें कर रही हो? चलो सब लोग भोजन कक्ष में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।"

कपिला और चपला के इस प्रकार पुकारने पर कुछ देर में सुदर्शना का ध्यान टूटा और वह उठकर खड़ी हो गयी। जैसे ही उसने खुद को दर्पण में देखा उसे अपने वस्त्रों का ज्ञान हुआ वह इस समय केवल चोली और छोटे घाघरे में थी। ओढ़नी उसकी दूर पलंग से नीचे पड़ी हुई थी। खुद को ऐसे देखकर वह शर्मा गयी और उठकर तुरन्त ही अपने वस्त्र ठीक करते हुए दुपट्टा ओढ़कर कक्ष का द्वार खोल दिया।

"आओ अंदर आ जाओ, वहाँ खड़ी क्यों शोर मचा रही हो?" सुदर्शना ने उन चिढ़ते हुए उन दोनों से कहा।

"अरे! ये आपको हुआ क्या है सुदर्शना! आपतो ऐसे बात कर रही हो जैसे आज पहली बार हम आपको ऐसे बुलाने आयी हैं। भोजन का समय हो गया है और बाकी सभी लोग भोजन कक्ष में पहुँच चुके हैं तो आपकी माता जी ने हमें आपको बुलाने भेजा है। अच्छा ये छोड़ो और हमें बताओ आप अभी किससे बातें कर रही थीं। हमें बाहर आवाज सुनाई देर ही थी।" चपला ने उलाहना देते हुए पूछा।

"क...किसी से भी तो नहीं। कौन है यहाँ आप दोनों के अतिरिक्त! आप दोनों स्वम देख लो।" सुदर्शना ने हड़बड़ाते हुए कहा मानों किसी चोर को चोरी करते पकड़ लिया हो।

"अरे कोई नहीं है, किन्तु आप बातें तो कर रही थीं ना अकेले। देखो सखी जबसे आप शोभायात्रा से लौटी हो आपके व्यवहार में बहुत परिवर्तन हो गया है ऐसा क्या हुआ है हमें बताओ। क्या आप किसी से प्रेम...? देखो हम आपकी सखियाँ हैं तो किसी भी विषय में कोई भी सहायता चाहिए तो आप साधिकार हमसे कह सकती हो। हमें आपका ऐसे खुद में खोए रहना अच्छा नहीं लग रहा सुदर्शना।" चपला ने भोली सूरत बनाकर कहा।

"धत्त!! ऐसा कुछ नहीं है चपला-कपिला आप दोनों पता नहीं क्यों ऐसा सोच रही हो। यदि हमें ऐसे किसी से प्रेम होगा तो हम सबसे पहले आपको ही बतायेंगे। आपके अलावा हमारी अन्य कोई सखी है भी तो नहीं तो हम आप को नहीं बताएंगे तो किसको बताएंगे। अच्छा चलो अब, भोजन के लिए देर हो रही है ना" सुदर्शना ने बात टालते हुए कहा।

  भोजन के बाद रात को देर तक सुदर्शना करवटें बदलती रही। उसे नींद नहीं आ रही थी। फिर उसे ना जाने क्या याद आया वह धीरे से उठी और अभ्यास कक्ष के साथ ही बने श्रृंगार कक्ष से सिंदूर की डिब्बी उठाकर ले आयी। उसने उस सिंदूर को उस चाँदी की डिब्बी के रँग में मिलाकर दोबारा उस डिब्बी में भर लिया और फिर उस डिब्बी को सीने से लगाये लेट गयी।

"हे मोहन, आप तो मेरे मन की गति जानते हो। मैं बचपन से ही राजकुमार जी के बारे में सुन-सुनकर उनसे प्रेम करने लगी थी। और अब जब अपने उनके हाथों मेरी मांग भरवाकर मेरा उनसे सम्बंध जोड़ दिया है तो अब मेरे जीवन के विषय में भी आपको ही सोचना है। उनके मन में मेरे लिए क्या भाव हैं मैं ये कैसे पता करूँ मेरे ईश्वर? क्या मेरे स्वामी को यह पता भी है कि उन्होंने मेरी माँग भरकर मुझसे सदा-सदा के लिए नाता जोड़ लिया है। हे परमपिता हे अंतर्यामी हे श्रीकृष्ण अब मेरे जीवन की डोर आपके और युवराज के हाथों में है। मैं तो बस अब आपसे और कुछ नहीं माँगती। बस मैं अब सदा-सदा के लिए अपने स्वामी की ही होकर रहना चाहती हूँ।" सुदर्शना ना जाने कितनी देर तक श्रीकृष्ण से यही मांगती रही और ना जाने कब उसे नींद आयी उसे पता भी नहीं चला।

सुबह चिडियों के चहचहाने के साथ ही उसकी आँख खुली। सुदर्शना ने नित्यकर्म के बाद स्नान करके पूजा की और डिब्बी से सिंदूर निकालकर अपनी माँग में सजनकर उसे बालों से छिपा लिया। अब ये उसका रोज का नियम बन गया था, वह रोज सुबह स्नान के बाद उस डिब्बी के सिंदूर से अपनी माँग भरती थी। 

यदि कहीं भी राजकुमार की बात होती तो सुदर्शना उसे बहुत ध्यान से सुनती थी। उसका बहुत मन होता था कि वह राजकुमार से जाकर मिले किन्तु उसका बाहर जाना मना था।


नर्तकी-5


सुबह से ही नगर में चहलपहल हो रही थी। सारा नृत्यमण्डल ना जाने किस उत्सव की तैयारी कर रहा था। सुदर्शना जब सुबह उठकर नहाने के बाद पूजा करके बाहर आई तो उसने सारी सखियों को ना जाने किस आयोजन के लिए भागदौड़ करते देखा।

"अरे चपला! सखी सुनो जरा, आज क्या कोई उत्सव है जो सभी ऐसे तन्मय होकर तैयारी में जुटी हुई हो?" सुदर्शना ने चपला को रोकते हुए पूछा।

"आपको नहीं पता सखी!? आज ज्येष्ठ मास की अमावस्या है अर्थात वट सावित्री व्रत है आज। सारी सुहागिनें आज सारा दिन निर्जल उपवास रखकर वट वृक्ष की पूजा करेंगीं। नगर में उत्सव होगा खूब पकवान बनेंगे।" चपला ने सुर्दशना कि अनभिज्ञता पर आश्चर्य करते हुए कहा।

"अरे रुको तो! तुमने भी व्रत रखा है क्या जो ऐसे भाग रही हो? तनिक भीतर तो आओ। मुझे विस्तार से बताओ इस व्रत के विषय में।" सुदर्शना ने चपला का हाथ पकड़कर कक्ष में खींचते हुए कहा।

"अरे रे! क्या करती हो सखी मुझे बहुत से कार्य करने हैं जो आपकी माता जी ने करने के लिए कहे हैं। आज राजमहल में महा उत्सव मनाया जाएगा जिसमें नृत्य के लिए राजनर्तकी जी के साथ मुझे भी कपिला और विमला के साथ जाना है। छोड़ो मुझे और यदि अधिक जानना चाहती हो तो विमला के पास जाओ।" चपला हाथ छुड़ाकर हँसते हुए भाग गयी।

सुदर्शना ने दो पल कुछ सोचा और फिर उठकर विमला के कक्ष में आ गयी।

विमला अपने वस्त्र सही कर रही थी। सुदर्शना ने पीछे से विमला को आलिंगन करते हुए मधुर स्वर में कहा, "विमला मौसी क्या कर रही हो आप? कहीं जाने की तैयारी में हो क्या?" 

"हें!!, ये सूरज आज किधर से निकला है मेरी लाड़ो। आप हमें मौसी कब से कहने लगीं?" विमला ने चौंकते हुए पूछा।

"देखो आप मेरी माता के बाद आयु में सबसे बड़ी हो और अनुभव में भी। मेरी माता को आप दीदी कहते हो और मेरी माताजी आपको विमला बहन कहती हैं तो अबसे हमने निर्णय किया है कि आप सम्बंध के आधार पर हमारी मौसी हुईं अर्थात माँ जैसी। अब सखी तो आप हमारी हैं ही और हमारा ध्यान भी बिल्कुल माँ के जैसे ही रखती हो तो अबसे हम आपको मौसी ही कहेंगे। और केवल कहेंगे ही नहीं आपको माँ जैसा ही सम्मान भी देंगे।" सुदर्शना ने बहुत भोलेपन से कहा।

"ओ! मेरी लाड़ो। अब तुम सच में बड़ी हो गयी हो।" कहकर विमला ने सुदर्शना को कसकर गले लगा लिया।

"अच्छा मौसी आज कोई विशेष दिन है क्या जो सारे लोग किसी तैयारी में जुटे हुए हैं?" कुछ देर ऐसे ही रहने के बाद सुदर्शना ने अपने मन की बात पूछी।

"आज वट सावित्री व्रत है लाड़ो, तुम्हें नहीं पता?" विमला ने बैठते हुए कहा और सुदर्शना को भी अपने पास बिठा लिया। सुदर्शना कक बातों से विमला के मन की ममता उमड़ पड़ी थी। वह अब खुद को सुदर्शना की माँ ही मान रही थी।

"नहीं तो मौसी! मुझे बताओ ना आप की ये क्या होता है कैसे होता है और कौन लोग ये व्रत करते हैं?" सुदर्शना ने उत्सुकता से पूछा।

"बहुत समय पहले सावित्री नाम की एक राजकुमारी थी उसने सत्यवान नामक राजकुमार को विवाह के लिए पसन्द किया था। जब नारद जी ने उसके पिता को बताया कि विवाह के एक वर्ष बाद ही उसके पति की मृत्यु हो जाएगी तो सावित्री के पिता ने उसे बहुत समझाया कि वह सत्यवान से विवाह ना करे किन्तु सावित्री अपनी जिद पर अड़ गयी और उसने सत्यवान से ही विवाह किया। सत्यवान के माता-पिता अंधे थे और अपना राज्य शत्रुओं के हाथों हार गए थे। सत्यवान अपने माता-पिता के साथ वन में रहते थे और लकड़ी काटकर बेचते थे उसी से उनका गुजारा होता था। सावित्री भी उनके साथ वन में रहने लगी और उनकी सेवा करने लगी।

जब एक वर्ष का अंतिम दिन आया तो सावित्री ने तीन दिन पहले से ही अन्न जल छोड़कर उपवास शुरू कर दिया और नारद मुनि के बताए अनुसार पितरों आदि की पूजा करने लगी। अंतिम दिन सावित्री भी पति के साथ वन में गयी थी। जब सत्यवान लकड़ी काटने के लिए वृक्ष पर चढ़े तो उनके सिर में पीड़ा होने लगी और वह पेड़ से उतरकर वटवृक्ष की छाया में आकर लेट गए। सावित्री ने उनका सिर अपनी गोद में लिया हुआ था। यमराज स्वयं सत्यवान के प्राण लेने आये थे। जैसे ही यमराज ने सत्यवान के प्राण लिए और जाने लगे तो सावित्री भी उनके पीछे चल दी। यमराज ने उसे बहुत समझाया कयी वरदान भी दिए किंतु सावित्री ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। अंत में जब यमराज ने सावित्री को पुत्रवती होने का वरदान दिया तब सावित्री ने कहा कि ये यम जब आप मेरे पति को ले जायेंगे तो मेरे पुत्र किस विधि से होंगे? उसकी इस बात से यमराज निरुत्तर हो गए और सत्यवान के प्राण छोड़ दिये।

सावित्री लौटकर उसी वट वृक्ष ने निकट आयी और सत्यवान जीवित हो गए।

बस उसी समय से सुहागिन स्त्रियां वट सावित्री व्रत करके अपने पति की लंबी आयु के साथ अखण्ड सौभाग्य की प्रार्थना करती हैं और सारा दिन निराहार, निर्जला रहकर यह व्रत करती हैं। आज सारे नगर में यही उत्सव मनाया जा रहा है। महाराज नद एक बहुत बड़े समारोह का आयोजन किया है जिसमें नृत्य आदि का भी कार्यक्रम है तो हम लोगों को भी शाम को वहाँ जाना है।" विमला ने विस्तार से सारा विधान बताकर वट-सावित्री व्रत की कथा और महत्तम बताया।

"तो क्या आप और माँ भी ये व्रत करती हैं?" सुदर्शना ने प्रश्न किया।

उसकी इस बात पर विमला चुप हो गयी।

"बताओ ना मौसी! क्या माँ भी ये व्रत करती हैं। उनके पति कौन हैं मौसी बताओ ना कौन हैं मेरे पिता?" अब सुदर्शना हठ कर रही थी।

"मुझे इस विषय में कुछ नहीं पता लाड़ो! और हमें ऐसा कुछ राजनर्तकी से पूछने का साहस भी नहीं हुआ। ऐसे भी हम नर्तकियों के पति नहीं होते बस प्रेमी होते हैं और हमें अपने प्रेम सम्बन्ध भी सबसे छिपकर रखने होते हैं। बाकी ज्यादा जानने के लिए तुम्हें अपनी माता से ही पूछना पड़ेगा।" विमला ने पीछा छुड़ाने की गर्ज से धीरे से कहा।

"ठीक है हम माँ के पास जाते हैं।" सुदर्शना ने कहा और माता के कक्ष की ओर चल दी।

"माँ! माँ! मेरी प्यारी माँ, मेरी अच्छी माँ।" कहते हुए सुदर्शना अपनी माँ कमलकांति के गले में झूल गयी।

"क्या बात है सुदर्शना आज ये आपको अचानक क्या हो गया है? आज से पहले तो माता पर कभी इतना स्नेह नहीं आया।" कमलकांति ने सुदर्शना को स्वयं से अलग करते हुए कहा।

"कुछ नहीं माँ बस ऐसे ही।" सुदर्शना ने मुस्कुराते हुए कहा।

"क्या बात है सुदर्शना सीधे बताओ हम बहुत दिनों से देख रहे हैं कि आपका स्वभाव परिवर्तित होता जा रहा है। कोई विशेष बात है जो आप किसी को बता नहीं रही हो और खुद में ही खोयी रहती हो।" कमलकांति ने गम्भीर होकर सुदर्शना की आँखों में देखते हुए प्रश्न किया।

"क... कुछ नहीं माँ, हम बस ये पूछने आये हैं कि क्या आज हम भी चलें आपके साथ उत्सव में नृत्य के लिए?" सुदर्शना ने उल्टे प्रश्न कर दिया।

"नहीं!!, बिल्कुल नहीं। आप उत्सव में नृत्य करने के लिए नहीं बनी हो। आपको बस यहीं घर पर ही रहना है।" कमलकांति एक बार को तो सुदर्शना के प्रश्न से घबरा गयी लेकिन अगले ही पल उसने खुद को संयत करते हुए सुर्दशना को स्पष्ट इनकार कर दिया।

"क्यों माँ? आखिर मैं क्यों नहीं जा सकती नगर में उत्सव देखने? आखिर ऐसी क्या बात है जो आप सदा हमें सबसे छिपाकर रखना चाहती हो? अच्छा हमारा एक प्रश्न और है- क्या आपने भी आज व्रत रखा है? यदि हाँ तो कहाँ हैं आपके पति और मेरे पिता। हमने कभी उन्हें देखा क्यों नहीं?" सुदर्शना ने प्रश्न किया।

सुदर्शना के प्रश्न से कमलकांति का कमल सा चेहरा एक पल के लिये बुझ सा गया। वह उसके इस प्रश्न से हड़बड़ा गयी थी।

"देखो पुत्री, आप अपनी हद से बाहर का प्रश्न कर रही हो। आपको पहले भी बताया है कि हम लोग नर्तकी हैं, हमारा विवाह ईश्वर के साथ होता है और सारा जीवन हमें ईश्वर की भक्ति और लोगों के मनोरंजन के लिए नृत्य आदि के साथ ही बिताना होता है।" कमलकांति ने झुंझलाते हुए कहा।

"क्या अनुचित प्रश्न माँ?  हर बच्चे का कोई पिता होता है तो मेफी पिता भी अवश्य ही होंगे। अब अपने पिता के विषय में पूछना कैसे अनुचित और सीमा पार करने वाला प्रश्न ही गया।

बताओ ना माँ कौन हैं मेरे पिता? मुझे अपने विषय में सबकुछ जानने का पूरा अधिकार है।" सुदर्शना जैसे जिद पर अड़ गयी।

"अभी नहीं, समय आने पर हम स्वयं आपको सब कुछ बता देंगे।" कमलकांति ने सुदर्शना को टालने के लिए कह दिया।

 "ठीक है माँ किन्तु नगर में उत्सव देखने जाने में क्या समस्या है ये तो बताओ। हमारा भी बहुत मन होता है कि हम भी नृत्य करें, उत्सव देखें लोग हमारी भी प्रसंशा करें।" सुदर्शना ने फिर वही हठ की।

 सुदर्शना की बात से कमलकांति किसी सोच में डूब गई और सुदर्शना उसे देखने लगी,।


नर्तकी भाग-6


"क्या हुआ माँ! आप किस सोच में डूब गयीं? बताओ ना माँ क्या हम भी उत्सव में चलें? आप सदा हमें टाल देते हो। आप हमें ये नृत्य, ये गायन सिखा ही क्यों रही हो माँ, जब हमें कभी इसके प्रदर्शन का अवसर ही नहीं मिलता?" सुदर्शना ने विचारमग्न कमलकांति को हिलाते हुए कहा।

"पुत्री! ऐसा नहीं है कि हम आपको कला का प्रदर्शन करते हुए और लोगों को आपकी प्रसंशा करते हुए देखना नहीं चाहती हैं किंतु कुछ कारण हैं जो हम अभी आपको बाहर जाने की अनुमति नहीं देते हैं। 

और रहा प्रश्न आपके पिता का तो वे हैं और सही समय पर हम आपको उनके विषय में अवश्य बताएंगे। बस अभी आप हमसे इस विषय में कुछ नहीं पूछेंगी।" कमलकांति ने अपने विचारों से बाहर आते हुए कहा।

"ठीक है माँ नहीं पूछेंगे, हमें पता है आपने भी वट-सावित्री व्रत रखा है। आज सुबह से आपने एक बूंद जल तक भी ग्रहण नहीं किया है। किंतु माँ हमारा नगर उत्सव देखने का बहुत मन है, आप कृपया हमें भी अपने साथ उत्सव में चलने की अनुमति दे दें।" सुदर्शना ने फिर कहा किन्तु इस बार उसके स्वर में हठ नहीं थी।

"ठीक है चलिए, किन्तु नर्तकी के रूप में नहीं। आपको अपना रूप बदलकर एक युवक के भेष में चलना होगा। और इस विषय में आप कोई प्रश्न नहीं करेंगी। अब जाओ और विमला से कहना कि हमने आपको युवक के रूप में उत्सव में चलने की अनुमति दी है। बाकी विमला सब तैयारी कर देगी।" कमलकांति ने जैसे हार मानते हुए सुदर्शना को अनुमति दी।

  "ठीक है माँ हमें स्वीकार है, और हम अब आपसे कोई प्रश्न भी नहीं करेंगे।" सुदर्शना ने प्रसन्न होते हुए कहा और विमला के कक्ष की ओर दौड़ गयी।

"मौसी! विमला मौसी! माता ने हमें आज उत्सव में चलने की अनुमति दे दी है। किंतु ना जाने क्यों उन्होंने हमें युवक के रूप में जाने की शर्त भी रखी है और कहा है कि आप हमें तैयार कर दें।" सुदर्शना ने चहकते हुए विमला के गले में बाहें डालकर उसके गले में झूलते हुए कहा।

"ठीक है, मैं तुम्हें तैयार कर दूँगी लाड़ो। अब तुम जाओ और आराम करो, मुझे बहुत सारे कार्य खत्म करने हैं।" विमला ने मुस्कुराते हुए सुदर्शना को खुद से अलग करके कहा।

"ठीक है मौसी हम जाते हैं, हमें भी कई कार्य करने हैं।" सुदर्शना ने हँसकर कहा और विमला का गाल चूमकर शर्माते हुए भाग गयी।

"ये लड़की भी ना, एकदम पागल है।" विमला ने खुद से ही कहा और हँसने लगी।

कक्ष में आकर सुदर्शना फिर श्रीकृष्ण जी की प्रतिमा के सन्मुख आकर बैठ गयी और हाथ जोड़कर कहने लगी, "है ईश्वर! हे मुरलीधर! हमने आपके बाद यदि किसी से प्रेम किया है तो वे हमारे राजकुमार हैं। आज जब माता ने हमें उत्सव में जाने की अनुमति दी है तो हम अपने स्वामी के दर्शन के लिए और अधिक उत्सुक हैं। हे मेरे माधव आपसे बस इतनी सी विनती है कि मुझे मेरे स्वामी के दर्शन ठीक से करा देना और उनके हृदय में भी मेरे लिए थोड़ा सा स्थान बना देना। है माधव आज मैं भी अपने स्वामी के लंबे और सुखी जीवन के लिए वट-सावित्री व्रत को कर रही हूँ तो कुछ ऐसा करना कि मेरा व्रत मेरे प्राणाधार मेरे पति परमेश्वर के हाथों स्व खुले, वे स्वयं मुझे कुछ खिलाकर मेरा व्रत खोलें।"

उसके बाद सुदर्शना ने उठकर स्वयं को सजाना सँवारना शुरू किया। सोलह श्रृंगार करके उसने स्वयं को दर्पण में देखा तो वह स्वयं ही स्वयं के प्रति सम्मोहित हो गयी। उसका रूप ऐसा खिला हुआ था कि संसार तो छोड़ो स्वर्ग की कोई अप्सरा भी उसके रूप के बराबर नहीं थी।

सुदर्शना इसी रूप में राजकुमार के पास जाना चाहती थी किन्तु तभी उसे अपनी माता की शर्त याद आयी और एक पल के लिए उसका चेहरा उदास हो गया। 

सुदर्शना ने जल्दी से ईश्वर की पूजा की और मन ही मन राजकुमार रविकांत का चित्र अपनी आँखों में बनने लगी।

सन्ध्या समय कमलकांति के साथ उनकी सारी सखियाँ और अन्य नृत्यमण्डल था। वाद्य बजाने वालों की पूरी टोली थी। और उसी टोली में थे दो नवयुवक कमर में कटार बांधे योद्धाओं की भाँति सजे हुए।

ये दोनों सुदर्शना और चपला थीं किन्तु इन्हें इस तरह से सजाया गया था की कोई भी इनके युवक ना होने का संदेह नहीं कर सकता था।

 ये आयोजन एक बहुत विशाल कक्ष में किया गया था। नृत्यमंच के सामने महाराज, महाराज का परिवार और उनके अतिथियों के आसन लगे हुए थे उनके पीछे राज्य के अधिकारीगण और अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों के बैठने का स्थान था। उसके पीछे गोलाई में पत्थर की सीढ़ीनुमा रचना नीचे से ऊपर होते हुए बनी थी जहाँ पर प्रजा और आम लोग बैठे हुए थे। ठीक समय पर महाराज, महारानी एवं राजकुमार रविकांत जी का आगमन हुआ। उनके साथ ही उनके अतिथि और अभिन्न मित्र वीरभूमि के महाराज वीरभद्र जी, उनकी महारानी एवं उनके पीछे एक नवयुवक भी थे। उस नवयुवक ने योद्धाओं वाले परिधान पहने हुए थे और कमर में तलवार लटका रखी थी।

 जब इन सभी ने अपना साथ ग्रहण कर लिया तो महाराज के संकेत पर कमलकांति ने अपने नृत्यमण्डल के साथ सुर मिलाते हुए नृत्य आरम्भ कर दिया।


नर्तकी भाग:-7


कमलकांति ने सुंदर भजन गाते हुए नृत्य करना प्रारंभ किया तो सारे दर्शक मंत्रमुग्ध होकर बस नृत्य देखने लगे।

कमलकांति ने गाना प्रारम्भ किया, "मेरे श्याम सलौने प्राण पिया, क्यों दृष्टि इधर ना फेरीं।

युगों युगों से राह निहारें, प्यासी अँखियाँ मेरीं।

क्यों बिसराई याद हमारी, कौन हुआ अपराध।

वाट देखती निषदिन स्वामी, विरह में व्याकुल दासी तुम्हारी।

उसके बाद घूम-घूम कर नाचते हुए कमलकांति महाराज वीरभद्र जी पास गई और नाचते-नाचते उनके पैरों में झुक गयी। उसके बाद उसी मुद्रा में महाराज के चरण छूकर तेज़ी से नाचती हुई आगे निकल गयी।

यह सब इतनी तेज गति से हुआ कि कोई भी इसे समझ नहीं सका किन्तु सुदर्शना ने अपनी माता को महाराज वीरभद्र के चरण छूते और उन्हें मुस्कुराकर कमलकांति के सिर पर हाथ रखते देख लिया था। ये देखकर उसके माथे पर विचारों के बल पड़ गए थे तब तक विमला और अन्य सखियों ने नाचते हुए कमलकांति का साथ देना प्रारम्भ कर दिया और कमलकांति आगे गाने लगी, 

"अंश तुम्हारा प्राण से प्यारा जीने का आधार बना है।

जब से तुम बिछड़े मेरे स्वामी वही आस विश्वास बना।

तुमसा ही स्पर्श रूप भी उसने तुमसा ही पाया है।

ईश्वर की है दया जो दे दी है मुझको परछाईं तुम्हारी।

और सारी सखियाँ बहुत सुंदर नृत्य करने लगीं।

कमलकांति का गीत सुनकर जैसे महाराज वीरभद्र जी उसका कुछ अर्थ समझ गए थे और आँखों से संकेत करके कमलकांति से कुछ पूछना चाहते थे किंतु कमलकांति ने बिना कुछ कहे दूसरी दिशा में मुँह घुमा लिया और नाचने लगी।

विरह में खूब जलाया हमको बनकर एक निर्मोही।

प्रेम में जोगन बनकर मैंने वाट बहुत दिन जोही।

अब कुछ दिन तो आप भी स्वामी विरह अग्नि का ताप सहो।

अंश आपका साथ हमारे आप भी उससे दूर रहो।

रहे सुरक्षित सदा अभी वह चाहत यही हमारी।

समय सही आने पर होगी निष्चित भेंट तुम्हारी।

और कमलकांति मुस्कुराकर नृत्य करते-करते नृत्यमंच के पार्श्व भाग में चली गयी। उसके साथ ही बाकी सखियाँ भी चली गईं और नृत्य समाप्त हो गया। सारे दर्शक खड़े होकर वाह-वाह करते हुए तालियाँ बजाते रह गए।

"वाह बहुत सुंदर नृत्य किया राजनर्तकी कमलकांति ने। अब हम युवराज को उत्सव आगे बढ़ाने का आदेश देते हैं वे आगे आएं और रंगमंच को सजाएँ।" महाराज सूर्यकांत जी ने खड़े होकर कहा।

"जी पिताजी महाराज जो आज्ञा।" कहकर युवराज रविकांत आगे आ गए और सबसे पहले उन्होंने सभी मंत्रिमंडल, सभासदों, महाराज वीरभद्र जी एवं उपस्थित प्रजाजनों का अभिवादन किया। 

"जैसा कि आप लोग आज यहाँ वट सावित्री व्रत के उत्सव के लिए उपस्थित हुए हैं तो हम अब सबसे पहले कुछ रँगारंग कार्यक्रम का आयोजन करते हैं उसके बाद सभी लोग महावट वृक्ष की पूजा करके व्रत खोलकर भोज का आनन्द लेंगे जिसकी व्यवस्था राज्य की ओर से की गई है। जैसा कि आप सभी लोग जानते हैं कि महाराज ने हमें युवराज बनाने की आधिकारिक घोषणा कर दी है किंतु हम चाहते हैं कि आज आप सभी से आशीर्वाद लेकर हम ये पद ग्रहण करें। इससे पहले हम आप लोगों को महाराज की आज्ञा से यह वचन देते हैं कि हम अपनी प्रजा के हितों और उनके सम्मान की सदा रक्षा करेंगे। आप में से जो भी चाहें वे यहाँ आकर अपनी युद्धकला का प्रदर्शन कर सकते हैं। हम प्रतिभागियों में से ही अपनी सेना के लिए कुछ नए लोग चुनेंगे और आप लोग स्वयं हमारी युद्धकला की परीक्षा भी कर सकते हैं। तो आ जाइये जो भी इस प्रतियोगिता में भाग लेना चाहें।" राजकुमार रविकांत ने समस्त उपस्थित लोगों को सम्बोधित करके कहा।

  कुछ आठ-दस लोग सामने आ गए जिन्हें उनकी पसन्द के हथियार देकर प्रतिस्पर्धा शुरू करा दी गयी।

उस प्रतिस्पर्धा में दो गुट बनाये गए थे। दोनों गुटों के विजेताओं की एक आपसी प्रतिस्पर्धा रखी गयी। दोनों योद्धा युद्धकला में पारंगत थे किंतु सदा की तरह विजय तो किसी एक कि ही होनी थी तो उनमें से एक ने हार मान ली और दूसरा योद्धा तलवार लहराता हुआ उपस्थित लोगों को ललकारने लगा।

"है कोई जो अब आगे मेरे साथ प्रतिस्पर्धा करे?" वह युवक गर्व से भरा तलवार लहराते हुए ललकारने लगा।

"है कोई हमारे राज्य में जो इस योद्धा को चुनौती दे सके? मैं ये पान का बीड़ा उसे उठाने के लिए कहता हूँ। जिसे अपने बल पर विश्वास हो जो अपनी युद्धकला पर गर्व करता हो वह आगे आये और इस योद्धा से द्वंद युद्ध करके अपनी वीरता का प्रदर्शन करे।" युवराज रविकांत मंच पर खड़े होकर सभी लोगों को ललकारते हुए बोले।

ठीक उसी समय सुदर्शना नृत्यमंच के पर्दे के पीछे से निकलकर रंगमंच के कार्यक्रम को देखने के लिए बाहर आयी और ठीक उसी समय युवराज की दृष्टि उधर घूमी।

"आओ युवक आगे आओ, आप करो इस विजयी योद्धा से स्पर्धा। आप अपनी रुचि के अस्त्र-शस्त्र चुनने के लिए स्वतन्त्र हैं। आइये ये पान का बीड़ा उठाइये और प्रदर्शन करिए अपनी कला का।" राजकुमार ने सुदर्शना को आगे आते देखकर प्रसन्न होते हुए कहा।

"हे ईश्वर! ये क्या लीला है आपकी। स्वामी ने आदेश भी दिया तो युद्धकला का। अब एक नर्तकी भला युद्ध करना क्या जाने। वह तो केवल नृत्य और भृकुटी के वाणों से ही लोगों को घायल कर सकती है। किंतु स्वामी के आदेश की अवहेलना कैसे करूँ। और मेरा व्रत! अहा! मेरा व्रत खोलने के लिए मेरे स्वामी मुझे अपने हाथों से पान का बीड़ा खिलायेंगे। अनोखी लीला है ईश्वर आपकी। अब सावित्री की ही भाँति मेरे प्राणों और मेरे स्वामी की आज्ञा पालन की रक्षा का भार भी आपके ही ऊपर है। स्वामी की आज्ञा का पालन करने मैं जा रही हूँ मेरे आराध्य, मेरे चक्रधारी मेरी रक्षा करना।" आँख बंद करके मन ही मन प्रार्थना करके सुदर्शना आगे बढ़ गयी। पीछे से विमला ने उसे रोकना चाहा किन्तु तब तक सुदर्शना आगे बढ़कर युवराज के सामने जाकर खड़ी हो चुकी थी।

"आपका नाम क्या है युवक? अपना परिचय दीजिये।" युवराज ने सुदर्शना से कहा।

"सु...दर्शन...!"

सुदर्शना के मुँह से निकला।

"वाह! सुदर्शन, बहुत सुंदर। जैसा सुंदर रूप वैसा ही नाम। आइये और हमारे हाथों से ये ताम्बूल ग्रहण कीजिये।" राजकुमार ने प्रसन्न होते हुए कहा।

सुदर्शना ने कुछ नहीं कहा बस हाथ फैला दिए और राजकुमार ने पान उसके हाथ पर रख दिया जिसे सुदर्शना ने श्रीकृष्ण जी का ध्यान करते हुए अपने मुँह में रख लिया और राजकुमार के पैरों पर झुक गयी।

जैसे ही सुदर्शना के हाथों ने राजकुमार के पैरों का स्पर्श किया राजकुमार को बहुत अच्छी अनुभूति हुई, उनका हृदय अनायस ही तेज़ होकर धड़कने लगा। ना जाने क्यों राजकुमार को इस स्पर्श में जन्मजन्मांतर का परिचित स्पर्श महसूस हुआ।

"क्या आप प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार हैं सुदर्शन?" राजकुमार ने जल्दी से सुदर्शना के सिर पर हाथ रखकर उसे उठाते हुए कहा। राजकुमार को ना जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि यह उनका ही कोई अंश है जो सामने खड़ा है। उनका हृदय एक संगीत सा बजा रहा था।

"जी हम तैयार हैं स्वामी", सुदर्शना ने धीरे से कहा। अब तक कमलकांति और सारी सखियाँ भी पर्दे से बाहर आ गयीं थीं, उनके उतरे हुए चेहरे बता रहे थे की वे सब सुर्दशना को रोकना चाहती हैं किंतु अब वे सब विवश थीं।

सुदर्शना आगे बढ़ चुकी थी और बीड़ा उठाया चुकी थी तो उन सबके हाथ ईश्वर की प्रार्थना में जुड़ गए और उनके सिर पूजा में झुक गए।

सुदर्शना ने आगे बढ़कर तलवार और ढाल उठायी और एक वार तलवार को तेजी से हवा में चलाया।

"साँय!!", की तेज आवाज के साथ उसकी तलवार हवा में बिजली की तेजी से घूमी और हवा में उड़ता एक पतंगा अपना एक पँख खोकर जमीन पर गिरकर फड़फड़ने लगा।

  उसके सामने खड़े विजेता योद्धा पर इस बात का प्रभाव पड़ा और वह मन ही मन सुदर्शना की तलवार की तेजी और पतंगे के पँख कटने के चित्र बनाने लगा।

उसके मन में कहीं ना कहीं ये बात आ गयी थी कि सुदर्शन बहुत पारंगत तलवारबाज है। वह मन ही मन सामने खड़े सुदर्शन नामक योद्धा से अपनी तुलना करने लगा था और सुदर्शना अनजाने में एक पतंगे का पँख काटकर उसकी नज़र में योद्धा बन चुकी थी।

  सुदर्शना ने नृत्य की मुष्टि मुद्रा बनाकर एक हाथ में अपनी तलवार को पकड़ा और उसके बाद उसने ढाल उठाने के लिए शिखर मुद्रा को बनाकर बाएं हाथ में ढाल को उठा लिया। और भेरुन्दा मुद्रा में अपने दोनों हाथों को एक साथ मिलकर अपने पैरों पर बहुत तेज़ी से घूमना शुरू कर दिया। इस अवस्था में सुदर्शना की ढाल और तलवार उसके शरीर के साथ लगकर बिल्कुल किसी चक्र की भाँति घूम रही थीं और सुदर्शना स्वयं में कोई शस्त्र दिखाई दे रही थी। उस विजेता युवक ने कई बार प्रयास किया किन्तु वह चाहकर भी अपनी तलवार सुदर्शना पर नहीं चला पाया। सभी उपस्थित जन सुदर्शना की इस अदभुत कला से प्रभावित होकर उसकी प्रशंसा में वाहवाही कर रहे थे।

सुदर्शना ने जब देखा कि वह युवक सम्मोहित हो चुका है तो उसने एक दम से मुद्रा बदलकर ताण्डव की मुद्रा बनाकर उस युवक के गले पर अपनी तलवार लगाकर अपनी ढाल अपने घुटने पर टिकाकर उस युवक की छाती पर जोरदार प्रहार कर दिया जिससे वह युवक लड़खड़ाकर नीचे गिर गया और सुदर्शना की तलवार की नोक उसके गले में बहुत बुरी तरह गढ़ने लगी। युवक को बहुत पीड़ा हो रही थी। ऐसा युद्ध उसने अपने जीवन में पहली बार देखा था जबकि सुदर्शना सबकुछ भूलकर केवल नटराज जी को प्रेरणा मानकर नृत्य कर रही थी।

वह युवक हाथ पटककर अपनी हार स्वीकार करने लगा और सुदर्शना उसे छोड़कर वज्रासन में बैठकर अपनी साँसे ठीक करने लगी।

इस प्रतियोगिता की विजेता अब सुदर्शना थी और नियमानुसार आगे चुनौती देने वाले का सामना सुदर्शना को करना था। सुदर्शना मन ही मन ईश्वर से इस प्रतियोगिता को यहीं समाप्त करने की प्रार्थना कर रही थी किन्तु राजकुमार रविकांत आगे बढ़कर उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए सुदर्शना की ओर से चुनौती प्रस्तुत कर रहे।


नर्तकी भाग:-8


सुदर्शना बहुत घबरा रही थी, वह राजकुमार को रोकना चाहती थी किन्तु अब बात उसके साथ से निकल गयी थी।

महाराज वीरभद्र जी के साथ आया युवक आगे बढ़कर मंच पर पहुँच रहा था। वह राजसी भेष-भूषा से सज़ा युवक जैसे ही मंच पर आया राजकुमार रविकांत चकित होकर उसे देखने लगे। उनके चेहरे पर कई प्रश्न भाव बनकर उभर आये थे।

"ये हैं हमारे वीरभूमि राज्य की आन-वान 'वीर' महाराज वीरभद्र जी ने अपने स्थान से खड़े होकर मुस्कुराते हुए कहा।

सुदर्शना ने उनकी बात सुनकर चौंकते हुए ध्यान से सामने सजे-धजे युवक को देखा तो उसे ऐसा लगा मानों वह दर्पण में स्वयं को ही देख रही थी। उन दोनों में यदि कोई असमानता थी तो वह थे उनके वस्त्र।

उसे चुनौती देने आया वह युवक 'वीर' भी उसे बहुत ध्यान से देख रहा था और शायद वह भी उतना ही चकित था जितनी कि सुदर्शना थी। उन दोनों के चेहरे और कद-काठी में बहुत खोजने पर ही शायद कोई अंतर मिल सकता था। ऐसा लगता था मानो दो जुड़वां भाई आमने सामने खड़े थे।

"क्या आप दोनों प्रतिस्पर्धा के लिए  तैयार हैं?" राजकुमार रविकांत ने उन दोनों को आमने सामने देखते हुए पूछा।

"जी हम तैयार हैं। क्या अपने राज्य के ये विजेता योद्धा हमसे प्रतिस्पर्धा करने के लिए तैयार हैं?" वीरभूमि से आये उस योद्धा ने अपनी आवाज को भारी बनाने का प्रयत्न करते हुए कहा किन्तु उसकी आवाज की कोमल खनक राजकुमार रविकांत के हृदय को छू गयी थी। इस आवाज को सुनकर एक बार को सुदर्शना भी चौंक गए थी तभी राजकुमार ने कहना प्रारम्भ किया, "क्या आप तैयार हो 'सुदर्शन' देखो ये हमारे राज्य के सम्मान का प्रश्न है इसलिए अपनी युद्धकला का पूरा प्रयोग करना और हमारे राज्य का मान रखना।"

राजकुमार की बात सुनकर सुदर्शना सिर झुकाकर आगे बढ़ गयी और तलवार-ढाल उठाकर वीर के सामने जाकर खड़ी हो गयी।

"प्रतिस्पर्धा आरम्भ की जाए", महाराज सूर्यकांत जी ने संकेत किया उसी के साथ ही वीर तथा सुदर्शना दोनों तलवार लेकर आमने-सामने आ गए।

सुदर्शना केवल ध्यान से वीर को देख रही थी और स्वयं से उसकी तुलना कर रही थी। अचानक उसे नृत्य करते-करते अपनी माता का वीर के पिता के चरण छूना और फिर उनकी आँखों में हुए संकेत याद आने लगे।

  सुदर्शना के दिल की धड़कने तेज़ होने लगीं। ना जाने क्यों उसे सामने खड़ा वह युवक स्वयं का ही कोई अंश नज़र आ रहा था।

अभी सुदर्शना कुछ सोच ही रही थी तभी,

  "टन्न!!", की आवाज के साथ वीर की तलवार उसकी ढाल पर टकराई।

सुदर्शना उस आवाज के साथ ही चौंक गयी और तलवार सम्भालकर मुकाबले के लिए तैयार हो गयी। उसकी ढाल पर तलवार टकराने से उसे वीर की शक्ति और युद्ध कौशल का अनुमान हो गया था।

अब सुदर्शना को तो युद्ध का पहला पाठ भी नहीं आता था तो उसने फिर वही नृत्य की मुद्रा बनाई किन्तु जैसे ही उसने अपनी तलवार और ढाल को एक साथ लगाया वीर की तलवार बहुत तेजी से उसकी ढाल से टकराई जिससे सुदर्शना के हाथ झन्ना उठे। वह समझ गयी थी कि सामने कोई साधारण योद्धा नहीं है बल्कि उसका मुकाबला युद्धकला में दक्ष व्यक्ति से है।

सुदर्शना इस युद्ध को छोड़ना चाहती थी किन्तु फिर उसे याद आया कि राजकुमार ने उसे अपने राज्य के सम्मान का वास्ता दिया था। वह अपने स्वामी की आज्ञापालन से पीछे भी नहीं हट सकती थी और वह वीर से लड़ना भी नहीं चाहती थी इसलिए उसने अपना बचाव करने का निर्णय लिया और तलवार ऊँची करके दूसरे हाथ में ढाल पकड़कर वह तांडव नृत्य की मुद्रा में एक पैर और गोल घूमने लगी। वीर बार-बार उसपर तलवार चलाने का प्रयास कर रहा था लेकिन उसकी तलवार सुदर्शना को छू भी नहीं पा रही थी तभी सुदर्शना की तलवार वीर की तलवार में उलझकर उसके हाथ से छूट गयी और सुदर्शना नृत्य बन्द करके रुककर अपनी तलवार उठाने लगी। जैसे ही सुदर्शना ने तलवार उठायी वीर ने फिर उसकी ढाल पर तलवार चला दी। इस बार सुदर्शना की ढाल गिर गयी थी। सुदर्शना चाहकर भी वीर पर तलवार नहीं चला पा रही थी तभी वीर ने आगे बढ़कर अपनी तलवार सुदर्शना के गले पर लगा दी और सुदर्शना ने हाथ ऊपर करके अपनी हार मान ली।

  सभी लोग इन दोनों के सम्मान में तालियाँ बजाने लगे।

"क्या अब आप हमारी चुनौती स्वीकार करते हैं युवराज?" वीर ने तलवार उठाकर राजकुमार की ओर बढ़ाते हुए कहा।

  "अवश्य, आइये।" कहते हुए राजकुमार रविकांत ने भी उसके हाथ से तलवार ले ली और मुकाबले के लिए तैयार हो गया।

  इन दोनों के बीच मुकाबला शुरू हो चुका था। दोनों ही तलवारबाजी में निपुण थे। लोग इनके तलवारबाजी के पैंतरे देखकर दाँतों तले उंगलियां दबा रहे थे। इनमें से एक वार करता तो दूसरा बड़ी सफाई से पैंतरा बदलकर उस वार को चुका देता था। जब दूसरा तलवार चलाता तो वह झुककर बचते हुए अपनी तलवार आगे अड़ा देता था।

  सारे लोग बस मन्त्रमुग्ध होकर वाह वाह ही कर रहे थे।

  ऐसे की बहुत देर लड़ते-लड़ते एक बार राजकुमार रविकांत की तलवार वीर की पगड़ी में उलझी और उसकी पगड़ी खुलकर नीचे गिर गयी। पगड़ी के अंदर से वीर के लंबे बाल खुलकर लहराने लगे। अब वहाँ वीर नहीं बल्कि एक रूपवती कन्या खड़ी थी। पगड़ी हटते ही उसका चेहरा खिलकर दमक उठा था।

 "हें कन्या!!? 

लोगों के मुख से अनायास ही निकल गया।

 अब राजकुमार रविकांत तलवार रखकर एकटक बस उस युवती को देख रहे थे जो कुछ पल पहले ही वीर बनी उसके साथ युद्धकला में प्रतिस्पर्धा कर रही थी।

 "ये हैं हमारी पुत्री 'वीरमणि' महाराज वीरभद्र जी ने खड़े होकर गर्व से कहा।

 "क्या!!? वीरमणि? ये आप हो 'मणि' कितनी बड़ी हो गयी हो और युद्धकला में पारंगत भी। अद्भुत!" युवराज रविकांत एकटक बस वीरमणि को ही देखे जा रहे थे। सुदर्शना दूर खड़ी ये सब देख रही थी। वीरमणि को देखकर प्रसन्नता से चमक रहीं राजकुमार की आंखें देखकर उसका दिल उदासी के मार्ग पर बढ़ रहा था। वह अब आगे बढ़कर उन दोनों के थोड़ा निकट आ गयी थी।

 "आप इतने दिन बाद मिले हो युवराज, आप भी तो कितने बड़े हो गए हो और योद्धा भी।" वीरमणि ने धीरे से कहा और मुस्कुरा कर रविकांत की आँखों में देखने लगी।

 "अच्छा जी! किन्तु भेंट करने का ये कौनसा तरीका था जो आप योद्धा बनकर हमारे साथ मुकाबला करने ही चली आयीं?" राजकुमार ने प्रश्न किया।

 "ये तो हम आपकी परीक्षा ले रहे थे। हम जानना चाहते थे कि क्या सूर्यनगर के युवराज युद्ध करना जानते हैं। क्या वे हमें संभाल सकते हैं।" वीरमणि ने कहा और शरमाते हुए चेहरा घुमा लिया।

 "अच्छा!? और आपने क्या पाया? क्या हम आपको संभाल सकते हैं युवरानी जी?" रविकांत ने हँसते हुए पूछा और राजकुमारी वीरमणि

 "धत्त!!" कहते हुए भाग गई।

 हमें लगता है आज की प्रतिस्पर्धा के विजेता का पुरस्कार हमें 'सुदर्शन' को देना चाहिए क्योंकि युवराज तो अपना पुरुस्कार शायद पहले ही ले चुके हैं और सम्भवतः राजकुमारी वीरमणि को भी उनका मनचाहा पुरुष्कार मिल चुका है।" महाराज सूर्यकांत जी ने अपने स्थान से खड़े होकर कहा। उनकी इस बात से सुदर्शना बुरी तरह चौंक गयी। वह मन ही मन राजकुमार रविकांत और राजकुमारी वीरमणि के सम्बंध के बारे में जान चुकी थी। वह उनके इस सम्बंध से प्रसन्न नहीं थी उसका दिल बैठा जा रहा था। उसे इस  बात से बहुत दुख हो रहा था तभी राजकुमार रविकांत उसके पास आये और कहने लगे, "आपकी वीरता से हम सभी बहुत प्रसन्न हैं सुदर्शन आइये अपना पुरुस्कार ग्रहण कीजिये।"

 सुदर्शना राजकुमार की बात सुनकर बहुत उदास मन से आगे बढ़ी, उसे वीरमणि से जलन हो रही थी। उसे लग रहा था कि वीरमणि उससे राजकुमार को छीन रही है। वह मन ही मन सोच रही थी कि काश! वह वीरमणि से ना हारी होती तो उसे राजकुमार को अपनी वीरता दिखाने का अवसर ही नहीं मिलता। राजकुमार पहले सुदर्शना से कितने प्रसन्न थे किंतु वीरमणि के आने के बाद उन्हें जैसे वीरमणि के अलावा कोई और वहाँ दिखाई ही नहीं दे रहा था।

 "आइये सुदर्शन, क्या विचार करने लगे आप। देखिए महाराज आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।" तभी उसके कानों में युवराज की आवाज पड़ी।

 सुदर्शना ने देखा सामने दोनों महाराज एक रेशमी थाल में एक सुंदर सी तलवार और एक स्वर्णमुद्राओं की थैली लिए खड़े थे।

 सुदर्शना ने आगे बढ़कर पहले महाराज सूर्यकांत जी के चरण स्पर्श किये और फिर महाराज वीरभद्र जी के सामने जाकर खड़ी हो गयी।

 जब वह महाराज वीरभद्र जी के चरण छूने के लिए झुकी तो उन्होंने उसे बीच में ही रोक लिया और कहने लगे, "वीरों का स्थान चरणों में नहीं सुर्दशन, उनका स्थान तो हमारे हृदय में है। आओ और अपना पुरुष्कार ग्रहण करो।"

 उनकी बात सुनकर सुदर्शना अपने घुटनों पर बैठ गयी और अपने दोनों हाथ सामने पसार दिए।

 महाराज के संकेत पर युवराज ने अपने दोनों हाथों से वह तलवार उठाकर सुदर्शना के हाथों पर रख दी।

 सुदर्शना ने उस तलवार को अपने दोनों हाथों में पकड़कर अपने माथे से लगाया और अपनी कमर में बंधे पटके में उसे खोंस लिया। फिर वीरमणि ने वह स्वर्णमुद्राओं की थैली उठाकर सुदर्शना को दी जिसे उसने उसी प्रकार सिर-माथे लगाकर उसी पटके में बांध लिया और युवराज के पैर छूने के लिए झुक गयी।

 युवराज ने जैसे ही उसे उठाने के लिए  हाथ बढ़ाया उसी समय सुदर्शना ने सिर ऊपर किया और युवराज का हाथ उसकी पगड़ी में उलझ गया। युवराज जो सुदर्शना को उठाना चाहते थे उनके हाथ में जब पगड़ी आयी तभी उन्होंने अपने हाथ ऊपर कर दिए  और सुदर्शना की भी पगड़ी उसके सिर से हट गयी। उसी के साथ हट गया वह पर्दा जो सुदर्शना को सुदर्शन बना रहा था।

 "ये भी युवती है!!?" उपस्थित जनसमूह का स्वर एक बार फिर गुंजा और सुदर्शना ये सुनकर चौंकते हुए खड़ी हो गयी।

 "अरे! आप कौन हो कन्या? कृपया अपना परिचय दीजिये?" महाराज सूर्यकांत जी ने आगे बढ़कर सुदर्शना से प्रश्न किया।

 "ज...जी...महाराज हम सुदर्शना हैं, राजनर्तकी कमलकांति की पुत्री।" ना चाहते हुए भी सुदर्शना को अपना परिचय देना पड़ा।

  "क्या कहा!! कमलकांति कि पुत्री?" उसकी बात सुनकर महाराज वीरभद्र जी बुरी तरह चौंक गए और गौर से सुदर्शना को देखने लगे।

 "जी महाराज वही मेरी माता हैं।" सुदर्शना ने धीरे से कहा। 

 "वाह! बहुत सुंदर। हम आपके नृत्य और युद्ध के कौशल से बहुत प्रभावित हुए पुत्री। आपकी प्रतिभा विलक्षण है।" महाराज वीरमणि ने प्रसन्न होते हुए कहा और सुदर्शना के सिर पर हाथ रख दिया।

 सुदर्शना को वह हाथ ना जाने क्यों बहुत अच्छा लग रहा था। उसे महाराज वीरभद्र जी की आँखों में अपने प्रति ममता के भाव दिखाई दे रहे थे।

 "क्या मैं अब भी वीर योद्धा हूँ महाराज? क्या अभी भी मेरा स्थान एक योद्धा की भाँति आपके हॄदय में है?" सुदर्शना ने ना जाने क्या सोचते हुए ये प्रश्न किया।

 जवाब में महाराज वीरमणि ने अपनी बाहें फैला दीं और सुदर्शना उनके गले से लग गयी। उसे ना जाने क्यों ये आलिंगन बिल्कुल अपनी माता जैसी सुखद अनुभूति दे रहा था।

 "पुत्री भविष्य में यदि कभी भी तुम्हें कोई सहायता चाहिए तो निसंकोच हमारे पास चली आना। हम सदैव के लिए आपको अपने हृदय में स्थान देते हैं। कहते हुए महाराज वीरभद्र जी ने अपनी राजमुद्रा सुदर्शना की ओर बढ़ा दी जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया।

 उसके बाद पूजा शुरू हुई और सभी सुहागनें वट वृक्ष के चारों ओर सूत लपेटने लगीं। पूजा के बाद भोज की भी व्यवस्था थी। सभी लोगों ने भोजन का आनन्द लिया और उत्सव समाप्त हो गया।



  नर्तकी भाग :-9


"माँ! सुनो ना माता!" सुदर्शना अपने कक्ष में अकेली बैठी कमलकांति के पास आकर बहुत मीठे स्वर में बोली।

"क्या हुआ सुदर्शना? आज माता की याद कैसे आ गयी आपको?" कमलकांति ने मुस्कुराते हुए उसे धयान से देखते हुए पूछा।

"माता हमें युद्धकला सीखनी है।" सुदर्शना ने धीरे से कहा।

"क्या कहा आपने?, युद्धकला!!

ये अचानक आपको युद्धकला सीखने की क्या सूझी कुमारी?" कमलकांति ने चकित होते हुए पूछा।

"माँ ये अचानक नहीं है। हमने बहुत सोच समझकर ये निर्णय लिया है। क्या आपको नहीं लगता कि युद्ध हमारे रक्त में है। यदि ऐसा नहीं होता हो कल उत्सव में कैसे हम उस विजेता योद्धा को परास्त कर पाते? कैसे भला हम राजकुमारी वीरमणि के सामने खड़े हो पाते? माता जब हम बिना युद्धकला सीखे इतना अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं तो तनिक सोचिए कि यदि हमें समुचित शिक्षा मिल जाये तब हम कितने अच्छे योद्धा बन सकते हैं।" सुदर्शना ने प्रार्थना की मुद्रा में कहा।

  "किन्तु पुत्री एक 'नर्तकी' और युद्ध! ऐसा भला कैसे हो सकता है। आप एक नर्तकी की पुत्री हैं सुदर्शना। आपको आगे हमारी कला को ही अपनाना होगा। हम लोग नृत्य और संगीत की साधना के लिए ही जन्में हैं पुत्री। यदि आपने युद्धकला के विषय में सोचा तो ये सारा समाज हमारे विरुद्ध खड़ा हो जाएगा पुत्री, इसलिए ऐसा विचार भी अपने मन में दोबारा मत लाना।" कमलकांति ने डरते हुए उसे समझाने का प्रयास किया।

"हम नर्तकी नहीं हैं माता! यदि हम सच में नर्तकी ही होते तो आप अभी तक हमारे बाहर जाने और नृत्यकला का प्रदर्शन करने पर प्रतिबंध नहीं लगातीं। सच तो ये है माँ कि हमारी नशों में एक योद्धा का रक्त है। हम किसी साधारण पिता की नहीं बल्कि एक महाराज की संतान हैं। अब हम शायद अपने पिता को पहचानते हैं माता! और सम्भवतः वे भी अब हमें पहचान गए हैं। हमें तो लगता है कि उन्हीं के डर या कहो सम्मान के कारण आपने हमें कभी नर्तकी नहीं बनने दिया क्योंकि यदि आप ऐसा करतीं तो उन्हें दुःख होता और यदि किसी को पता लग जाता कि एक राजा की पुत्री एक नर्तकी है तो उनके सम्मान को ठेस पहुँचती। किन्तु माता अब हमें अपने जीवन का उद्देश्य समझ आ गया है। हमें नर्तकी नहीं अपने पिता और उनके वंश की परम्परा के अनुरूप ही एक योद्धा बनना है।" सुदर्शना ने अपने मन की सारी बातें कह दीं।

"पुत्री!!!, ये कैसे बात कर रही हैं आप? और किसने कहा कि आपके पिता कोई राजा हैं?" कमलकांति ने घबराते हुए सुदर्शना से प्रश्न किया।

"आपने स्वयं माता! जब आपने महाराज के चरण छुए थे और स्वयं हमारे पिताजी महाराज ने जब उन्होंने हमारे सिर पर हाथ रखा था और ये पता चलने पर कि हम आपकी पुत्री हैं उन्होंने हमें वात्सल्यता से अपने हृदय से लगाकर हमें अपनी ये राजमुद्रा दी थी। उन्होंने हमसे ये भी कहा कि यदि हमें कभी भी कोई सहायता चाहिए तो हम निसंकोच उनके पास जा सकती हैं। अब आप हमसे ये बात नहीं छिपा सकतीं माता कि महाराज वीरभद्र जी हमारे पिता हैं। ये बात अब हम अच्छे से समझ चुके हैं।

आपतो अब बस ये बताएं कि क्या आप हमारे युद्धकला सीखने का प्रबंधन कर सकती हैं अथवा हमें इस कार्य के लिए 'वीरभूमि' जाना होगा, अपने पिताजी के पास?"सुदर्शना ने बहुत गम्भीरता से कहा।

"पुत्री! ये आप कैसी बातें कर रही हो, कोई पुत्री अपनी माता के साथ कभी ऐसे बात करती है क्या। और फिर आपने सोच भी कैसे लिया कि हम अपनी इकलौती पुत्री को युद्धकला सिखाकर स्वयं से दूर कर देंगे? आपके बाहर जाने और नृत्यकला के प्रदर्शन ना करने देने के पीछे केवल एक ही कारण है और वह है हनारा आपके प्रति प्रेम। हमारा हृदय एक पल को भी आपसे दूर रहना स्वीकार नहीं करता। पुत्री आप ही कहो कि आपके बिना कौन है हमारा सहारा। हम नहीं चाहते कि आप किसी भी कारण से कभी भी हमसे दूर जाओ। बस यही कारण है पुत्री और कुछ नहीं।" कमलकांति ने उदास होते हुए कहा।

"अच्छा माँ एक बात बताओ फिर, कौन हैं हमारे पिता? यदि महाराज वीरभद्र जी हमारे पिता और आपके पति नहीं हैं तो आप नृत्य के बहाने उस प्रकार उनके चरण छूने क्यों गयी थीं? और उन्होंने भी जब आपके सिर पर हाथ रखा था तब उनके चेहरे और आँखों में आपके लिए प्रेम साफ दिखाई देता था। माता अब आप और ना छिपाओ बस हमें हमारे पिताजी और अपने बारे में सबकुछ बताओ। माता हम अब युवा हो गए हैं और जब कोई हमसे हमारे पिता के विषय में पूछता है तो हमें बहुत लज्जा आती है कि हमें तो अपने पिता का पता ही नहीं है। बताओ ना माता! कौन हैं हमारे पिताजी यदि महाराज नहीं हैं तो? और हाँ एक विशेष बात ये भी कि हमारे और राजकुमारी वीरमणि के बीच इतनी समानता क्यों? माता जब वीरमणि हमारे सामने मुकाबला करने आयीं थीं तब एक पल को तो हम चौंक ही गए थे कि शायद हमारी प्रतिछाया ही हमारे सामने आयी है। बताओ ना माँ! हम दोनों एक दूसरे की प्रतिमूर्ति क्यों हैं? हमें सन्देह नहीं माँ बल्कि पूर्ण विश्वास है कि हमारे और राजकुमारी 'वीरमणि' के  पिता एक ही हैं।" सुदर्शना ने दृढ़ स्वर में कहा तभी विमला कहीं से उनके कक्ष में आ गयी। वह ना जाने कबसे बाहर खड़ी इन दोनों की बातें सुन रही थी।

"कुमारी आओ हमारे साथ चलो, ऐसे कैसे अपनी माता को दुखी कर रही हो। देखती नहीं इनकी आँखों में आँसू भरे हैं। और ये कैसे सवाल पूछ रही हो आप अपनी माता से?" विमला ने सुदर्शना का हाथ पकड़ते हुए कहा।

"नहीं मौसी! आज हम ऐसे नहीं जाएँगे। इन्हें आज बताना ही होगा कि हमारे पिता का सच क्या है।" सुदर्शना ने थोड़ी तेज़ आवाज में कहा।

"हमने कहा ना कि चलो हमारे साथ, ऐसे हठ नहीं करते बिटिया हमारी बात सुनो और चलो हमारे साथ।" विमला ने फिर सुदर्शना का हाथ खींचते हुए कहा।

"मौसी! क्या हमें कभी हमारे पिताजी के विषय ने पता नहीं चलेगा? क्या आप कुछ जानती हैं इस विषय में? चलिए हम आपके कक्ष में चलते हैं।" ना जाने क्या सोचकर सुदर्शना की आँखों में चमक आ गयी और वह विमला का हाथ खींचने लगी।

विमला ने एक पल रुककर डरी हुई आंखों से कमलकांति की ओर देखा और उन दोनों के बीच आँखों में ही कोई संकेत प्रसारित हुआ, विमला सुदर्शना का हाथ पकड़े अपने कक्ष की ओर बढ़ गयी।



नर्तकी भाग:- 10


"इधर आओ आप, अपनी माता के साथ कोई भला ऐसे बात करता है क्या? कैसे प्रश्न पूछ रही थीं आप अपनी माता से?" विमला ने तनिक क्रोध भरे स्वर में सुदर्शना से कहा जो अब कक्ष में आकर विमला के सामने बैठी थी।

"आप ही बताओ विमला मौसी फिर कि कैसे प्रश्न पूछने चाहिए हमें अपनी माता से? अरे अब हम कोई बच्ची नहीं हैं जो हमें सही गलत का भेद पता ना हो। आपको क्या लगता है! कौन होंगे हमारे पिता मौसी? लगना क्या है मौसी...आपको तो पता ही होगा इस विषय में। आप तो माता की सबसे प्रिय सखी हैं। आप ही बता दीजिए कि कौन हैं हमारे पिता मौसी! अब हम बिना अपनी पहचान जाने सामान्य जीवन नहीं जी सकते। आपको क्या लगता है मौसी...क्या हमें हमारे पिता के विषय में जानने का कोई अधिकार नहीं है?" सुदर्शना ने उदासी के भाव में विमला की ओर देखते हुए कहा।

"अधिकार क्यों नहीं है पुत्री, किन्तु तुम्हें क्या लगता है क्यों आपकी माता तुम्हें ये सब बताना नहीं चाहती हैं? आपको समझना चाहिए सुदर्शना कि हो सकता है आपकी माता की कोई विवशता हो। उन्होंने कहा तो आपसे कि सही समय आने पर वे आपको सारा सच बता देंगीं।" विमला ने सुदर्शना को समझाने का प्रयास करते हुए कहा।

"मौसी अब सच शायद हमें पता है। आप बस ये बताइए कि क्या  वीरभूमि के महाराज हमारे पिता हैं?" सुदर्शना ने गम्भीर स्वर में स्पष्ट प्रश्न पूछा।

एक बार को तो सुदर्शना के स्वर की गम्भीरता से विमला घबरा उठी लेकिन अगले ही पल स्वयं को संभालकर वह  बोली, "आपको ऐसा क्यों लगता है पुत्री? क्या किसी ने आपसे ऐसा कहा? क्या महाराज वीरभद्र जी ने आपसे कहा कि वह आपके पिता हैं?" विमला ने सुदर्शना को टालने की नीयत से पूछा 

"नहीं! हमें किसी ने नहीं कहा लेकिन वहाँ घटी कुछ घटनाएं हमें ये मानने पर विवश कर रही हैं कि महाराज ही हमारे पिता हैं।" सुदर्शना ने विमला की आँखों में देखते हुए कहा।

विमला घबरा रही थी कि सुदर्शना को क्या उत्तर दे। फिर कुछ देर सोचकर उसने कहा, "कौन सी घटनाएं सुदर्शना? ऐसा क्या देखा आपने जो आपकी यह निराधार सन्देह हो गया कि आपके पिता महाराज वीरभद्र जी हैं "

"बहुत सारी घटनाएं मौसी! जैसे माता का इतने लोगों के बीच नृत्य के बहाने महाराज के पाँव छूना और आशीर्वाद की मुद्रा में माता के सिर पर हाथ रखते समय महाराज की वह प्रेम भरी मुस्कान। महाराज की पुत्री वीरमणि का मेरे समरूप होना। माता का नाम पता चलने के बाद महाराज की आँखों में हमारे लिए उमड़ा वह वात्सल्य और माता के गीत के बोल, सभी यही सिद्ध करते हैं कि महाराज ही हमारे पिता हैं। 

आपको क्या लगता है मौसी, क्या वह  विजेता योद्धा हमसे ऐसे ही 

हार गया। 

 अरे नहीं! हमें तो लगता है कि वह तो हमारे अंदर बहते राजवंश के रक्त से हारा है, हमें तो युद्धकाल का प्रथम पाठ भी नहीं आता मौसी फिर भला हम एक कन्या होकर भी एक विजेता योद्धा का सामने करने भला कैसे पहुँच गए? क्या आपको आश्चर्य नहीं हुए मौसी कि कैसे एक सुकुमारी एक योद्धा का सामने करने पहुंच गई?" सुदर्शना ने एक-एक पंक्ति बहुत गम्भीर स्वर में कही, इस समय उसकी आँखे विमला की आँखों में ही देख रही थीं।

 "ये सब तो ठीक है पुत्री किन्तु इस सबसे ये कहाँ सिद्ध हुआ कि महाराज वीरभद्र आपके पिता हैं? और रही बात युद्ध की तो वह आप अपनी युद्धकला से नहीं बल्कि नृत्यकला से जीत गयीं थीं। वह युवक तो ये समझ ही नहीं पाया था की आप कौनसा युद्ध लड़ रही हो।" विमला ने उसे समझाने का प्रयास करते हुए कहा।

 "चलो मान लो कि मैं अपने नृत्य के कारण उस युवक से जीत गयी किन्तु 'वीर'... वीरमणि तो युद्ध में पारंगत थी फिर मैं उसका सामना किस नृत्य अभ्यास के बल पर कर रही थी? ये मेरा नृत्य अभ्यास नहीं था मौसी बल्कि ये सब मेरे साहस से संभव हो पाया जो मिला मुझे मेरे राजवंश के रक्त से। मेरे वीर पिता के अंश से। आपकी सोचो मौसी की हीरे में उसके गुण जन्मजात होते हैं किंतु फिर भी बिना तराशे उसके गुण निखरकर स्प्ष्ट नहीं हो पाते हैं। ठीक वैसे ही वीरता और युद्ध हमारे जन्मजात गुण हैं किंतु समुचित युद्धाभ्यास और समर्थ शिक्षक का शिक्षण हमें कितना अच्छा योद्धा बना सकता है।" उसने बात बदली, सुदर्शना अभी भी उसी गम्भीरता से बात कर रही थी।

 "चलो मान ली आपकी बातें की आप में बहुत साहस है। वीरता आपमें जन्मसे भरी हुई है किंतु ये योद्धा बनने की हठ अभी क्यों? और फिर आपसे किसने कहा कि कन्याएँ योद्धा बनती हैं? अरे पुत्री कन्याओं को युद्ध नहीं प्रेमकलायें सीखनी चाहियें जिससे वे विवाह के उपरांत अपनी कलाओं से रिझाकर अपने स्वामी को प्रसन्न रख सकें। आओकी आयु अब योद्धा बनने की नहीं है पुत्री अपितु प्रेमिका बनने की है।" विमला ने हँसते हुए सुदर्शना की आँखों में देखते हुए कहा और एक पल के लिए सुदर्शना लजा गयी किन्तु अगले ही पल उसने कुछ याद करते हुए कहा, "वीरमणि भी तो कन्या है मौसी! फिर उसे युद्धकला की शिक्षा कैसे मिली? और आपने शायद देखा नहीं कि अपनी उसी युद्धकला के प्रदर्शन से उसने युवराज जी के हृदय में अपनी छवि बना ली। राजकुमार उसकी वीरता से कितने प्रभावित थे मौसी अपने देखा नहीं था। हमें कुछ नहीं सुनना है बस आप हमारे युद्धकला के अभ्यास का प्रबंधन कीजिये, हम अगले उत्सव में सबको परास्त करके सच्चा पुरुस्कार प्राप्त करना चाहते हैं।" सुदर्शना अब और अधिक गम्भीर हो गयी थी।

 "किन्तु पुरुस्कार तो आपको मिल गया है ना पुत्री।" विमला ने धीरे से कहा।

 "ये पुरुस्कार हमें वीरता पर नहीं मिला था मौसी, ये तो हमें शायद दयावश दे दिया गया था। या फिर शायद ये सोचकर कि प्रजा यह ना कहे कि महाराज ने पुरुस्कार भी अपने बच्चों को दे दिया अन्यथा विजेता तो वीरमणि ही थी ना।

 बताओ ना मौसी ये वीरमणि बिल्कुल हमारी प्रतिमूर्ति कैसे है? क्या रहस्य है हमारे जन्म का?" सुदर्शना घूमकर फिर उन्हीं सवालों पर आ गयी।

 विमला विचारों में उलझी हुई चुपचाप उसे देख रही थी तभी कमलकांति उधर आती दिखाई देने लगी।






अब तक आपने पढ़ा कि सुदर्शना की मांग राजकुमार ने रँग उड़ाकर भरM


नर्तकी भाग- 11


जब विमला ने कमलकांति को अपने कक्ष में आते देखा तो वह उठकर खड़ी हो गयी। कमलकांति ने इशारे से विमला से कुछ पूछा जिसके उत्तर में विमला ने भी संकेत में कुछ कह जिसके बाद कमलकांति का चेहरा उदास और चिंतित हो गया।


"ये कैसी जिद है पुत्री! क्या आपका युद्धाभ्यास आपकी माता की चिंता से बढ़कर है। कभी विचार किया है कि जिस माता ने कभी एक पल के लिए भी आपको अपनी आँखों के सामने से हटने नहीं दिया हो वह आपके गुरु आश्रम जाने के बाद कैसे अकेले रहेगी। पुत्री आप ये युद्ध वाली हठ त्याग दो। हमें तो आपको यदि कभी कोई मच्छर भी काट ले तो कष्ट से नींद नहीं आती है फिर हम आपको इन अस्त्र-शस्त्र के बीच कैसे भेज सकते हैं। हमारा मन नहीं मानता पुत्री हमें आपको युद्ध में जाने देने के विचार से ही भय लगने लगता है।" कमलकांति ने आगे बढ़कर प्रेम से सुदर्शना को समझाने का प्रयास करते हुए कहा।


  "माँ! आपको डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमें पता है आप हमसे प्रेम करती हैं किंतु माँ हमें लगता है कि हमें थोड़ा बहुत तो युद्ध का ज्ञान होना ही चाहिए। आप ही सोचिए एक नर्तकी के पीछे कई बार कितने ही रसिक पुरुष पड़ जाते हैं और कई बार तो नृत्यांगना खतरे में भी पड़ जाती हैं ऐसे में यदि युद्धकला का ज्ञान हो तो वह ना केवल अपने प्राण बचा सकती है अपितु अपने सम्मान की भी रक्षा कर सकती है। और यदि कभी उत्सव जैसी स्थिति आ जाये तो युद्धकला जानने वाली नर्तकी प्रतियोगिता भी जीत सकती है।" सुदर्शना ने अपनी बात समझाते हुए कहा।


"आपको क्या लगता है पुत्री! कि आप महाराज वीरभद्र जी की पुत्री हैं इसलिये आपको नर्तकी के स्थान पर वीरांगना बनना चाहिए या ये कि यदि आप वीरांगना होतीं तो राजकुमार रविकांत राजकुमारी वीरमणि के स्थान पर आपसे विवाह कर लेते?" विमला ने अचानक विषय बदलते हुए कहा।


"ये आप कैसी बात कर रही हो मौसी? हमें युवराज जी और वीरमणि से क्या मतलब?" सुदर्शना ने विमला के मुँह से राजकुमार का जिक्र सुनकर धीरे से कहा किन्तु ना जाने क्यों इस समय उसका चेहरा लाल हो रहा था।


"यदि ऐसा नहीं है तो कैसा है पुत्री?" कमलकांति ने गम्भीरता से प्रश्न किया।


"कैसा भी नहीं माता, बस हमें उस समय वीरमणि के हाथों परास्त होना अच्छा नहीं लग रहा। वह तो उसके रूप को देखकर हम ये मान बैठे थे कि हो ना हो वीरमणि हमारी बहन है, इसलिए हमने उसके ऊपर प्रहार नहीं किया अन्यथा वह..., माता कृपया हमें हमारी पहचान बता दीजिए। हमें बता दीजिये की हम किसकी सन्तान हैं? हमारे पिता कौन हैं माता?" सुदर्शना ने फिर जिद करते हुए कहा।


"अच्छा ठीक है हम आपको आपके जन्म से जुड़ी सारी कहानी बता देंगे तो क्या आप अपनी युद्धाभ्यास वाली हाथ त्याग दोगी?" कमलकांति ने सुदर्शना से प्रश्न किया।


"माता! आप हमें हमारे जन्म की कहानी बताएं फिर हम निर्णय करेंगे कि हम नर्तकी बनें या फिर वीरांगना। किन्तु हम आपको यह वचन देते हैं कि हम केवल युद्ध के नियम और अस्त्र-शस्त्रों का सन्धान सीखकर आपके पास सकुशल वापस आ जाएंगे और उसके बाद जो आप कहेंगी भी हम करेंगे।" सुदर्शना ने हाथ उठाकर कहा।


"ठीक है शाम को भोजन के बाद मेरे कक्ष में आ जाना हम आपको हमारे और आपके पिता के विषय में सबकुछ बता देंगे।" कमलकांति ने कहा और उठकर चली गयी।


"अब तो माता सारी बात बताने को तैयार हो गयी हैं मौसी! अब तो बता दो कि क्या सच में हमारे पिता महाराज वीरभद्र जी ही हैं या...?" सुदर्शना ने विमला के गले में बाहें डालते हुए प्रसन्नता से कहा।
" अब संध्या तक प्रतीक्षा कर लो पुत्री, ऐसे उतावली ठीक नहीं है। जब कमलकांति ने कहा दिया तो अब वे आपको सारी बातें स्वयं ही बता देंगीं।" विमला ने सुदर्शना से छूटते हुए  कहा और सुदर्शना को देखने लगी।
"मौसी! आप भी माता की तरह ही हो गयी हो। किन्तु ये मत भूलो की आप मौसी से पहले हमारी सखी हो और सखियाँ बातें नहीं छिपाती हैं। बताओ ना मौसी क्या सच में वीरमणि हमारी बहन है?" सुदर्शना ने फिर घुमाकर वही प्रश्न किया।
   "हमें नहीं पता कुमारी, अब जब आपकी माताजी कहानी सुनायेंगीं तब हम भी सुनेंगे और आपके पिता के विषय में जानेंगे।" विमला ने उसे टालते हुए कहा।
विमला की बात सुनकर सुदर्शना एक पल के लिए उदास हो गयी लेकिन अगले ही पल वह धीरे से मुस्कुराते हुए उठकर खड़ी हो गयी और बिना कुछ कहे अपने कक्ष की ओर बढ़ गयी।
कक्ष में जाते ही सुदर्शना ने किबाड़ बन्द कर लिए और आलमारी से एक चित्र उठाकर वक्ष से लगा लिया। कुछ देर ऐसे ही लगाए रखने के बाद उसने वह चित्र आगे किया और मुस्कुराते हुए देखने लगी। यह चित्र राजकुमार रविकांत का था।
"आपको वीरांगना पसन्द हैं ना स्वामी! हम भी अब युद्धकला सीखकर वीरांगना बनेंगे। अब वीरमणि हमें परास्त नहीं कर पायेगी युवराज। यदि आपको वीरमणि भी पसन्द है तो हम हमारे साथ उसे भी स्वीकार कर लेंगें। हम आपकी प्रसन्न और प्रेम पाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।" सुदर्शना ने चित्र से कहा और उसे फिर अपने हृदय से लगा लिया।



नर्तकी भाग -12


सुदर्शना देर तक राजकुमार के चित्र से बातें करती रही

"क्या आपको तनिक भी पता नहीं स्वामी कि आपने मेरी माँग भरकर मुझे अपनी पत्नी बना लिया है। क्या आपको वीरमणि पसन्द है युवराज? किन्तु आपने सम्भवतः हमें अभी ठीक से देखा ही नहीं है। वीरमणि तो बस हमारी परछाई है। जो भी हो स्वामी हमें बस आपके साथ रहना है, हमें आपसे कोई भी किसी भी मूल्य पर अलग नहीं कर सकता। सुन रहे हैं ना आप स्वामी, हम आपकी पत्नी हैं और इस अधिकार से आप बस हमारे हैं। वीरमणि तो राजकुमारी हैं उन्हें तो एक से बढ़कर एक राजकुमार मिल जायेंगे। आप बस हमारे हो, श्रीकृष्ण जी की सौगंध यदि किसी ने भी हमें आपसे दूर करने का प्रयास किया तो हम भूल जाएंगे सबकुछ और फिर जो परिणाम होगा उसका दोष आप हमारे सिर मत लगाना।" ऐसे ही सुदर्शना देर तक राजकुमार के चित्र से बातें करती रही। फिर उसने वह चित्र कपड़ों के साथ छिपाकर रख दिया। ये चित्र सुदर्शना ने स्वयं ही बनाया था दो रात जागकर। वह अब इसे सबसे छिपाकर रखती थी और रात को हृदय से लगाकर सोती थी।

शाम का भोजन हो चुका था। भोजन के बाद सुदर्शना विमला के साथ कमलकांति के कक्ष में आ गयी। उसे अपना परिचय जानने की बहुत उत्सुकता थी। कमलकांति ने इन दोनों को बैठने का संकेत किया और कुछ देर बाद वह आकर इनके सामने बैठ गयी।

"देखो सुदर्शना अब मैं जो भी आपको बताने जा रही हूँ उसे बहुत ध्यान से सुनना और उसके बाद निर्णय करना कि नर्तकियों का समाज में क्या स्थान होता है। राजपुरुष और समाज के उच्चवर्गीय पुरुष नर्तकियों को भोगना तो चाहते हैं किंतु सामाजिक बन्धनों और अपने कुल का दबाब होने के कारण कभी भी किसी नर्तकी को पत्नी का मान नहीं मिलता। नर्तकी प्रेमिका बनती है, माँ बनती है किंतु समाज में उसे कभी भी किसी की पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता। मेरी कहानी शायद यहाँ की सभी लड़कियों के लिए एक मार्गदर्शन बन जाये इसलिए बाकियों को भी बुला लो, अब मैं किसी से भी अपने जीवन का कोई भी रहस्य गुप्त नहीं रखना चाहती हूँ।" कमलकांति ने विमला की ओर संकेत किया और वह दौड़कर कमला और चपला के साथ बाकी लड़कियों को भी बुला लायी।

  "बताओ ना माता अब हम सब आपके जीवन को जानना चाहते हैं। मैं अपने पिता के बारे में जानने के लिए बहुत उत्सुक हूँ।" सभी के आने जे बाद सुदर्शना ने कहा जो विमला के साथ कमलकांति के बिल्कुल पास ही बैठी हुई थी।

"सभी लोग अब ध्यान से सारी बात सुनें और समझें। लेकिन मैं पहले आप सभी से एक वचन चाहती हूँ कि आप सभी मेरे चरित्र को गलत ना समझें बस मेरे जीवन से कोई प्रेरणा ले सकते हैं तो अवश्य लें क्योंकि युवा होती लडक़ी को प्रेम के अलावा कुछ सूझता नहीं है, प्रेम में उसे अपना भला-बुरा भी समझ नहीं आता है। उसे बस कभी किसी युवक की कोई बात अच्छी लग जाती है, या फिर कभी किसी के प्रेम के दो मीठे बोल उसे भा जाते हैं और वह उसके प्रेम में पड़ जाती है। प्रेम में पड़ी कन्या को ना तो किसी अन्य की कोई बात समझ आती है और ना ही आगे भविष्य की कोई चिंता होती है किंतु सत्यता इससे बहुत विपरीत होती है। कई बार प्रेम में जीने मरने की सौगंध खाने वाला युवक उसे बीच राह में छोड़ देता है। कभी वह उसे समाज-परिवार में गुप्त सम्बन्ध बनाकर उसका भरण-पोषण तो करता है किंतु समाज में उनका रिश्ता हमेशा असमाजिक ही होता है और उनके पैदा होने वाले बच्चे सदैव अवैध ही कहलाते हैं। हम नर्तकियां लोगों के मनोरंजक का साधन मानी जाती हैं इसलिए हमारे साथ बने पवित्र से पवित्र सम्बन्ध को भी लोग अवैध सम्बंध ही कहते हैं और हमें कोई मान नहीं मिलता। इसीलिए हमने भी आज तक मेरे और सुदर्शना के पिता के सम्बंध को कभी किसी को नहीं बताया।" कमलकांति ने सबको समझाते हुए कहा। वह शायद खुद को आगे की बात बताने के लिए तैयार कर रही थी।

"क्या हुआ था आपके साथ?" सुदर्शना ने सहानुभूति भरी आवाज में पूछा।

"सब बताती हूँ, सभी लोग ध्यान से सुनो, ये कोई सत्रह वर्ष पुरानी बात है। उस दिन भी वट सावित्री व्रत का उत्सव मनाया जा रहा था। महाराज शशिकांत उसी वर्ष युवराज से महाराज बनाये गए थे और बड़े महाराज सन्यास लेकर तीर्थो के लिए चले गए थे। महाराज की माताजी के देहांत के बाद बड़े महाराज बहुत उदास हो गए थे। राजकाज में उनका मन बिल्कुल भी नहीं लग रहा था तो उन्होंने महाराज शशिकांत जी को राजा बनाकर अपने सन्यास की घोषणा कर दी थी। महारानी का विवाह के बाद ये तीसरा वटसावित्री व्रत था। राजकुमार रविकांत भी एक वर्ष के हो चुके थे। महाराज अपने परिवार के साथ बहुत प्रसन्न थे। इस उत्सव में महाराज के अभिन्न मित्र और सहपाठी वीरभूमि के युवराज वीरभद्र जी भी पधारे थे। युवराज वीरभद्र उस समय अविवाहित थे। उनके रूप और वीरता के चर्चे सर्वत्र थे।

उसी उत्सव में नृत्य करते हुए मैंने प्रथम बार राजकुमार वीरभद्र जी के दर्शन किये थे और उन्हें देखते ही प्रथम दृष्टि में हमें उनसे प्रेम हो गया था। हमने अपनी समस्त नृत्यकला का प्रदर्शन उनके सामने कर दिया। सारे समय हमारी आंखें बस उन्हें ही देख रही थीं।

महाराज वीरभद्र जी भी एकटक बस हमें ही देख रहे थे।

नृत्य के बाद जैसे ही हम घर आने की तैयारी कर रहे थे तभी हमें एक पत्र मिला जो राजकुमार वीरभद्र जी ने हमारे लिए भेजा था। उस पत्र को हाथ में लेते ही हमारे हृदय की गति अनायास ही बहुत तेज़ हो गयी थी। मैंने काँपते हाथों से वह पत्र खोला और उसे पढ़ने लगी।" कमलकांति ने उस समय की यादों ने खोते हुए बताया और चुप हो गयी।

"क्या लिखा था उस पत्र में माता?" कमलकांति को बहुत देर चुप देखकर सुदर्शना ने प्रश्न किया। सुदर्शना ने प्रश्न से कमलकांति की तन्द्रा टूटी और वह आगे बताने लगी,

"जब हमने वह पत्र खोला तो उसमें से गुलाबों की भीनी-भीनी सुगन्ध आ रही थी मानों स्याही के स्थान पर गुलाबों का रस निकालकर दवात में भरा गया हो और उस गुलाबी रंग से वह पत्र लिखा गया हो। उसमें लिखा था 'नर्तकी कमलकांति को युवराज वीरभद्र का प्रणाम स्वीकार हो। सस्नेह निवेदन इस प्रकार से है कि जब से आपका नृत्य देखा है हमारे वक्ष में कोई हलचल ही नहीं है, मानों हनारा हृदय आप अपने साथ के गयी हो। अब बिना हृदय हम कैसे जिएंगे इसका उपाय हमें बता दीजिए या फिर हमारे हृदय के बदले आप हमें अपना हृदय दे दीजिए अन्यथा हमारा जीवन असम्भव हो जाएगा। अब निर्णय आप के हाथ में है, हम सन्ध्या समय के बाद राजकीय उद्यान के पास आपकी प्रतीक्षा करेंगे। आप अवश्य आइयेगा, आपका निर्णय चाहे जो भी हो। यदि आप नहीं आयीं तो शायद धड़कन के साथ ही हमारी साँसे भी ना बन्द हो जाएं। हम नहीं चाहते कि हमारी मृत्यु का दोष आपके माथे आये। आइयेगा अवश्य हमारी प्रतीक्षा का मान रख लीजिएगा।

   आपका 

दर्शनाभिलाषी

वीरभद्र।' जब हमने इसे पढ़ा तो हमारा तो सारा शरीर ही कम्पन करने लगा। हमारे पैरों ने हमारे शरीर का भार संभालने से इनकार कर दिया और हम धम्म! से नीचे बैठ गए। उसके बाद बहुत मुश्किल से हम किसी तरह सखियों की सहायता से घर पहुँच पाए।" कहते-कहते फिर कमलकांति किन्हीं विचारों में डूब गयी और ये सभी उसके चेहरे के भाव देखने लगीं।


  "फिर क्या हुआ कमलकांति जी, क्या आप सन्ध्या में उनसे मिलने गयीं?" विमला ने कमलकांति को विचारमग्न देखकर फिर उसका ध्यान तोड़ा।

"ऐं!! अन...हाँ! हमने बहुत देर सोचा और उनसे मिलने जाने का निश्चय किया। ऐसे भी पहली ही दृष्टि में राजकुमार वीरभद्र जी हमारे मन को भा गए थे। हमने किसी को भी उस पत्र के विषय में कुछ नहीं बताया और सन्ध्या के बाद जैसे ही आकाश में तारों ने दर्शन दिए हम एक चादर में खुद को छिपाकर निकल गए राजकुमार वीरभद्र जी से भेंट करने।" कमलकांति ने अपने विचारों से बाहर आकर चौंकते हुए कहा।

  "आगे क्या हुआ राजनर्तकी जी?" कमला और चपला ने एक साथ प्रश्न किया।

"जब हम सबसे छिपते-छिपाते राज उद्यान पहुँचे तो हमने दूर से ही एक साये को एक पेड़ के पास पत्थर पर बैठे हुए देखा। वह अंधेरी रात थी और  उनकी पीठ हमारी ओर थी तो हम उन्हें पहचान नहीं पा रहे थे, हमें बहुत घबराहट भी हो रही थी कि यदि ये कोई अन्य व्यक्ति हुए तब।

हम तेज़ धड़कते हृदय के साथ उनकी ओर बढ़ गए। जैसे ही हम थोड़ा निकट पहुँचे  उन्होंने बिना हमारी ओर मुड़े कहा, 'आ गयीं आप कमल?' उनकी आवाज सुनकर हमारी धड़कने और तेज़ हो गयीं। हमारे कदम ठिठक गए और हम अपने स्थान पर ही रुक गए।" कमलकांति ने धीरे से कहा।


 नर्तकी भाग -13


"जैसे ही हम उनके पीछे पहुँचे उन्होंने बिना मुड़े ही हमारी पदचाप सुनकर हमें हमारे नाम से पुकारा तो हमें बहुत आश्चर्य हुआ। हम घूमकर उनके सामने जा पहुँचे। वीर बहुत देर से हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। हमें देखकर उन्होंने कहा, "आओ उधर चलकर बैठते हैं।"

 मैं चुपचाप उनके पीछे चल दी।

 कुछ देर बाद हम दोनों उस वाटिका में बने मन्दिर के पास पहुँच गए।

 "आओ बैठकर बातें करते हैं।" उन्होंने कहा और हम दोनों मन्दिर के सामने सीढ़ियों पर बैठ गए।

 "आपने हमें पत्र भेजा था राजकुमार जी? कुछ कहना चाहते हैं आप हमसे?" हमने शर्म से सिर झुकाए धीरे से पूछा।

 "हमें आपको देखते ही आपसे प्रेम हो गया है कमलकांति हमारा हृदय अब मानों हमारा रह ही नहीं गया है। हमारी नींदे भी आपके स्वप्नों के नाम हो चुकी हैं। क्या आप हमारे प्रेम निवेदन स्वीकार करती हो कमल?" उन्हेंने हमारा चेहरा उठाकर हमारी आँखों में देखने का प्रयास करते हुए पूछा।"

 "कुमार!! आप क्या हमारे साथ परिहार कर रहे हैं? क्या सामाजिक मान्यताओं को भुलाकर आप एक नर्तकी से प्रेम सम्बंध बनाना चाहते हो? और मान लो हम आपका ये प्रणय निवेदन स्वीकार कर भी लें तो इसका परिणाम क्या होगा? क्या आप हमें अपनी पत्नी का मान दिला पाएंगे? आप हमारे साथ आग की नदी पार करने का प्रयास कर रहे हैं कुमार जो नितांत असम्भव है। हमारे सम्बंन्ध को ना तो ये समाज स्वीकार करेगा और ना ही आपका राजवंश।"हमने उनकी बात सुनकर उन्हें समझाने का प्रयास करते हुए कहा। ऐसा नहीं था कि वे हमें पसन्द नहीं थे, हमारा मन तो उनके प्रेम की बात से ही प्रफुल्लित हो उठा था। एक नर्तकी के लिए इससे बड़ा सम्मान और क्या हो सकता था कि कोई राजकुमार उससे प्रेम करे। किन्तु हमें इस प्रेम का परिणाम भी सम्भवतः ज्ञात था। हम जानते थे कि ये प्रेम कभी भी किसी मंजिल तक नहीं पहुँच सकता। उल्टे हमारे साथ-साथ राजकुमार वीरभद्र की परेशानी भी बढ़ जाएगी।

 "हम युवराज हैं 'कमल' और अपने देश के होने वाले राजा भी। आखिर कौन सा समाज हमारे सम्बंध पर प्रश्नचिन्ह लगाएगा। हम आपसे प्रेम करते हैं और हम ये बात सारे समाज के सामने स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। आप कहो तो हम अभी आपके साथ विवाह करने को भी तैयार हैं। उसके बाद हम अपने राज्य में चलेंगे। जब आप हमारी पत्नी बनकर हमारे साथ चलोगी तब हम देखेंगे कि कौन हमारे रिश्ते का विरोध करता है।" कहते हुए वीरभद्र जी ने हमारा हाथ पकड़ लिया। हमें उनका स्पर्श बहुत सुखद लग रहा था, हम चाहते हुए भी उनसे अपना हाथ छुड़ाना नहीं चाहते थे।

 "किन्तु कुमार क्या ऐसे छिपकर विवाह करना उचित होगा? हम नहीं चाहते कि हम गन्धर्व विवाह करें। हमें तो समाज के समक्ष वेदमंत्रों के साथ वैदिक विवाह करना है वह भी सभी परिजनों के आशीर्वाद के साथ। आप राज्य जाकर अपने परिवार को हमारे विवाह के लिए मना लीजिये। हमें आपका प्रेम स्वीकार है किंतु विवाह हम समाज की रीति से ही करना चाहते हैं। क्या आप हमारी ये इच्छा पूरी कर सकेंगे?" हमने उनके सामने अपनी शर्त रखते हुए कहा।

 "हमें स्वीकार है 'कमल' उन्होंने हमारी आँखों में देखते हुए कहा और अपनी बहन फैला दीं। हमें उनकी आँखों में सच्चाई दिखाई दे रही थी। हम ना चाहते हुए भी उनकी बाहों में चले गए और उनके गले से लग गए।

 "अब हमें चलना चाहिए कुमार, बहुत रात हो गयी है और अँधेरा भी। हमारे लोग हमारे लिए परेशान हो रहे होंगे। कहीं ऐसा ना हो कि लोग हमें खोजने निकल पड़ें और यहाँ हमें एक साथ देख लें।" कुछ देर बाद हमने उनसे अलग होते हुए कहा।

 वे मान गए और हमें छोड़ने हमारे निवास के पास तक आये। उस दिन हम लौट तो आये थे लेकिन हमें लग रहा था कि हम बहुत अधूरे हैं। हमें ऐसा लग रहा था मानों हनारा कोई एक हिस्सा हम कहीं छोड़ आये हैं।

 उस दिन के बाद हम रोज उनसे वहीं उद्यान में मिलने जाते रहे। एक दिन बहुत तेज़ बरसात हो रही थी, हम उस तूफानी मौसम में उनसे मिलने ना जा सके। हमारा मन बार-बार उनसे मिलने का हो रहा था। हम व्याकुल होकर इधर-उधर घूम रहे थे। हम वरुण देवता से बार-बार मेह को रोकने की प्रार्थना कर रहे थे तभी दरवाजे पर किसी के आने की आहट हुई। पहले तो हमें लगा कि शायद तेज़ हवा से किबाड़ टकराये होंगे किन्तु जब बार-बार किबाड़ खटखटाने की आवाज होने लगी तो हमने उठकर द्वार खोल दिया। रात काफी हो चुकी थी और यहाँ सभी लोग सो चुके थे किंतु दरवाजे की आहट से विमला भी उठकर द्वार पर आ गयी थी। जैसे ही हमने किबाड़ खोले तो देखा कि सामने वीरभद्र जी खड़े थे बारिश में भीगे हुए, हवा से काँपते हुए।

 उन्हें देखक हम एक बार को तो बुरी तरह चौंक गए फिर हम जल्दी से उन्हें अंदर लाये और उन्हें बदलने के लिए वस्त्र दिए। उनको देखकर लग रहा था मानों वे बहुत देर से बरसात में भीग रहे थे। उस रात बारिश के साथ हवा भी बहुत तेज़ चल रही थी तो उन्हें ठंड लगने लगी थी वे कांप रहे थे।

 हमने विमला को काढा बनाने के लिए भेज दिया और उनको लेकर पलँग पर बैठ गए। हमने उन्हें ओढ़ने के लिए कम्बल दे दिया था लेकिन उन्हें अभी भी सर्दी लग रही थी। लगता था मानों उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं हो।

 "आप ऐसे मौसम में यहाँ क्यों आ गए कुमार? देखो ना आप कितना भीग गए हो और आपको सर्दी लग गयी है।" हमने उनसे प्रश्न किया।

"क्या करता कमलकांति! आप जो हमसे मिलने नहीं आयीं तो हम ही आ गए। क्या आप हमें यहाँ देखकर प्रसन्न नहीं हो?" उन्होंने उल्टा हमसे ही प्रश्न कर दिया।

 "कैसी बात करते हैं आप? प्रसन्न क्यों नहीं हैं किंतु आपकी हालत देखकर हमें दुख हो रहा है। हम तो इस तूफानी मौसम के कारण आपसे मिलने नहीं आ सके किन्तु आपने हमसे मिलने के लिए खुद को अस्वस्थ कर लिया " हमने थोड़ा उदास होते हुए कहा, हमें उनकी चिंता हो रही थी।

 "अरे! ऐसे घबराने की आवश्यकता नहीं है 'कमल' ये तो बस भीगने के बाद थोड़ी हवा लग गयी है। वो क्या हुआ ना कि हम तूफान आने से पहले ही वाटिका पहुँच गए थे। अब तूफान आने के बाद जब हम भीग ही गए तो हमने विचार किया कि हम चाहे अतिथि गृह वापस जाएँ चाहे आपके निवास भीगना तो दोनों ही अवस्था में है और फिर अतिथिगृह में रात्रि के इस  समय कौन हमारी देखभाल कर सकता है तो हम इधर ही चले आये।" वीरभद्र जी ने मुस्कुराते हुए कहा।

 अभी हम बातें कर ही रहे थे तभी विमला काढा लेकर आ गयी। विमला हमारी सबसे अच्छी सखी रही है तो उसे हमारे विषय में सारी बात पता थी। हमने विमला को काढा रखकर जाने का संकेत किया और ये चली गयी।

 काढ़ा पिलाकर फिर हमने उन्हें लिटाकर कम्बल में ढक दिया किन्तु उनकी सर्दी कम ही नहीं हो रही थी। ठंड से उनके दाँत बज रहे थे। ये देखकर हमें बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था तो हम भी उनके साथ कम्बल में ये सोचकर लेट गए कि इससे शायद उनकी सर्दी कम हो जाएगी।

 हुआ भी यही किन्तु जैसे-जैसे सर्दी कम हुई हमारे बीच के वस्त्र भी कम होते गए। उनका स्पर्श हमें इतना सुखद लग रहा था कि हम चाहकर भी उनका विरोध नहीं कर पा रहे थे। अब हमारे शरीर प्रेमाग्नि में जलने लगे थे। हमारी साँसे उखड़ रही थीं और फिर हमारे बीच वह हो गया जो हम करना नहीं चाहते थे। सुबह उन्होंने हमसे कहा कि, "आप चिंता ना करना 'कमल' अबसे आप हमारी पत्नी हो। हम शीघ्र ही अपने परिवार से बात करके सम्मान सहित आपको लेने आयेंगे।"

 और वे चले गए, वे उसी दिन अपने राज्य लौट गए थे। हम उनकी प्रतीक्षा करते रहे किन्तु वे नहीं लौटे। फिर दो महीने बाद हमें पता चला कि उस दिन हमने जो प्रेम का बीज बोया था उसकी फसल में अंकुर फूट चुका है। सुदर्शना हमारे गर्भ में आ चुकी थी। हमने कुछ दिन बाद एक पत्र उनके पास भिजवाया ताकि उन्हें ये सूचना दी जाए किन्तु हरकारे ने लौटकर बताया कि उसे वीरभद्र जी से मिलने ही नहीं दिया गया। उन्हें शायद उनके परिवार ने हमारे सम्बंध को तोड़ने के  लिए कहा था। उन्हें विवश किया गया था। उसके कुछ ही दिन बाद सूचना मिली कि उनका विवाह किसी राजकुमारी के साथ हो रहा है। उस समय हमें बहुत दुःख हुआ, हम तीन दिन तक अपने कक्ष में बंद होकर रोते रहे। हमतो खुद को खत्म कर देना चाहते थे, फिर विमला ने हमें समझाया कि हमे केवल अपने जीवन का फैसला करने का अधिकार है, हमारे अंदर पल रही दूसरी आत्मा का फैसला हम नहीं कर सकते। बस तभी से हमने तय कर लिया था कि हम अपनी सन्तान के विषय में वीरभद्र जी को कुछ नहीं बतायेंगे। हमें पहले से ही पता था कि राजकुमारी वीरमणि और सुदर्शना समरूप हैं, हम नहीं चाहते थे कि इनका कभी आमना-सामना हो। बस इसीलिए हम सुदर्शना को कभी भी कहीं जाने की अनुमति देते हुए डरते थे किंतु नियति के आगे किसकी चली है। अब जब तुम्हें सब सच पता चल गया है तो तुम जो चाहो फैसला ले सकती हो सुदर्शना! हम आपको रोकेंगे नहीं किन्तु इतना अवश्य चाहेंगे कि जो भूल हमसे हुई है उसे आप ना करें और जो भी फैसला लें अपने और हमारे भले को सोचकर लें।" 

 कहकर कमलकांति चुप हो गयी और सभी लोग सुदर्शना को देखने लगे।

 "माता!, सच में आपने बहुत कष्ट सहे हैं, किन्तु हम फिर कहते हैं कि हमें नर्तकी नहीं बल्कि वीरांगना बनना है और अब हमारा युद्धकला सीखने का निर्णय और पक्का हो गया है।" सुदर्शना ने गम्भीरता से उत्तर दिया और उठकर अपने कक्ष की ओर जाने लगी पीछे से कमलकांति ने उसे पुकारकर रोक लिया,


नर्तकी भाग - 14


"सुदर्शना! पुत्री ये कैसी हठ है। हमारे पास आपके अलावा और कोई नहीं है यदि आप भी हमसे दूर जाने की बात करोगी तो जो दुःख हमने महाराज से विछोह के बाद अपने मन में दबा लिया था वह फूट पड़ेगा। हम नहीं रह पाएँगे पुत्री आपके बिना।" सुदर्शना की बात सुनकर कमलकांति उदास होकर कहने लगी।

 "माँ! हम आपसे दूर नहीं जा रहे हैं, अपितु हम तो आपका खोया सम्मान और अपनी वास्तविक पहचान पाने के लिए युद्ध कला सीखना चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि कोई राजकुमार फिर कभी ऐसे किसी नर्तकी के हृदय से खिलवाड़ करे और प्रेम का स्वांग करके उसके शरीर से खेलकर उसे भूल जाये। हमें अब अपने निश्चय से कोई नहीं डिगा सकता माता।" सुदर्शना ने बहुत गम्भीरता से कहा। इस समय उसकी आँखें आत्मविश्वास से चमक रही थीं उसके मुख पर अद्भुत तेज़ था वहाँ उपस्थित सभी लोग उसके आत्मविश्वास से भरे चेहरे को देख रहे थे, किसी ने भी पहले कभी उसका यह रूप नहीं देखा था।

 "पुत्री! क्या आप युद्व कला सीखकर अपने ही पिता से युद्ध करने के विषय में सोच रही हो?" कमलकांति उसका यह रूप देखकर घबरा उठी थी।

 "नहीं माता, हम इस संसार को केवल यह दिखाना चाहते हैं कि स्त्री केवल स्त्री होती है। ना तो वह नर्तकी होती है और ना ही योद्धा। उसे जो भूमिका मिल जाये वह उसे पुरुषों से कहीं अच्छी तरह निभा सकती है। मैं महाराज से युद्ध लड़ना नहीं चाहती माँ, किन्तु मैं फिर कभी किसी वीरमणि से परास्त होना भी नहीं चाहती। मैं नहीं चाहती कि मुझे वीरता का पुरस्कार केवल इस लिए दिया जाए कि मैं एक नृत्यांगना हूँ और फिर भी युद्ध लड़ सकती हूँ। मुझे सच्चा पुरुस्कार चाहिए माता! मैं चाहती हूँ कि मेरा पराक्रम संसार को यह प्रश्न पूछने पर विवश करे कि इस वीरांगना के माता पिता कौन हैं। लोग मुझे किसी कुल के नाम से नहीं अपितु मेरे कुल को मेरे नाम से याद रखें। महराज स्वयं संसार को यह बताएँ की सुदर्शना उनकी पुत्री है। माँ मुझे मेरी यह पहचान पाने के लिए जाने दो। मैं फिर कभी आपसे कुछ नहीं माँगूंगी। मुझे जाने दो माता, मैं आपको वचन देती हूँ कि मैं अपना पूरा ध्यान रखूँगी और आपको भी मुझपर गर्व होगा।" सुदर्शना उसी गम्भीरता से कहती चली गयी। उसकी बात सुनते हुए सब बस उसके चेहरे पर ही देख रहे थे ऐसा आत्मविश्वास उन्होंने पहले कभी किसी चेहरे और नहीं देखा था।

 "अच्छा ठीक है, हम कल इस विषय पर और विचार करेंगे और देखेंगे कि क्या कहीं ऐसा गुरुकुल है जो आपको सुरक्षित तरीके से आपकी मनचाही शिक्षा दे सके।" कमलकांति ने उसके आत्मविश्वास के आगे हारते हुए कहा। उसे अभी भी सुदर्शना की हठ पर परसन्नता नहीं हो रही थी।

 कमलकांति के यह कहने पर सभी उनके कक्ष से बाहर निकल आये।

 "विमला! आप हमारे साथ रुको।" तभी कमलकांति ने पुकारा और विमला उनके कक्ष में ही ठहर गयी। बाकी सभी अपने-अपने कक्ष में चले गए।

 "विमला, आप इस विषय में क्या सोचती हो? क्या हमें सुदर्शना की हठ मान लेनी चाहिए। अब जब सुदर्शना को अपने पिता के विषय में सच पता चल गया है तो कहीं वह उनसे रुष्ट तो नहीं है? और जब महाराज को भी सुदर्शना के विषय में पता चल गया है तो क्या सुदर्शना के बारे में सारे निर्णय हमें अब अकेले करने चाहियें? यदि सुदर्शना को कुछ हो गया और हमराज हमसे उनकी पुत्री के विषय में प्रश्न करने आये तो हम उन्हें क्या उत्तर देंगें विमला?" कमलकांति ने धीरे से पूछा। उसकी आवाज ऐसे आ रही थी मानों शब्द उसके मनोभावों का साथ नहीं दे रहे थे। वह अभी भी केवल सुदर्शना के लिए ही चिंतित थी।

 "मुझे लगता है आपको सुदर्शना का निर्माण स्वीकार कर लेना चाहिए। सुदर्शना के विषय में निर्णय लेने से पहले आपको किसी की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। सुदर्शना केवल आपकी पुत्री हैं, और किसी का  उनपर कोई अधिकार नहीं है। रही बात महाराज की तो वे कहाँ थे जब अपने अकेले सुदर्शना को जन्म दिया था? कहाँ थे जब आप अकेले सुदर्शना का पालनपोषण कर रही थीं।   चलो मान लें उस समय उन्हें विवश किया गया था किंतु क्या बाद में फिर कभी उन्हें आपका स्मरण नहीं हुआ? फिर कभी वे आपकी सुध लेने क्यों नहीं आये। मेरे विचार से अब उन्हें आपसे कोई भी प्रश्न करने का कोई अधिकार नहीं है कमलकांति जी।" विमला ने उसे समझाते हुए कहा।

 "चलो मान लो ये सभी प्रश्न हम छोड़ देते हैं फिर भी एक बड़ा प्रश्न यह है कि आखिर सुदर्शना को युद्ध सिखायेगा कौन? क्या आपकी दृष्टि में कोई ऐसा शिक्षक है जो हमारी सुदर्शना को शिक्षा दे सके? यहाँ जितने भी आश्रम हैं वे केवल राजपरिवार और क्षत्रियों के बच्चों को ही युद्व की शिक्षा देते हैं। क्या आपको लगता है कि कोई भी गुरु एक नर्तकी को युद्धकला सिखायेगा?" कमलकांति ने फिर उदास होते हुए प्रश्न किया।

 "आचार्य बल्देवप्रसाद", विमला ने धीरे से कहा।

 "क्या?? आ...चा...र्य... बल...देव??" विमला की बात सुनकर कमलकांति के मुँह से आश्चर्य भरा स्वर निकला और उसके चेहरे पर निराशा झलक आयी।

 "क्यों! क्या हुआ? क्या इस समय पूरे आर्यवर्त में आचार्य बल्देव से बढ़कर कोई अन्य गुरु हैं जो किसी को महायोद्धा बना सकें? मेरे विचार से तो हमें आचार्य से ही सुदर्शना की शिक्षा के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। वहाँ वह उचित शिक्षा भी पा जाएंगी और सुरक्षित भी रहेंगी।" विमला ने फिर अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा।

 "ये तो ठीक है कि उनसे बढ़कर कोई अन्य युद्धकला का ज्ञाता इस समय नहीं है किंतु जैसा कि हमने सुना है, वे तो राजपुत्रों तक कि शिक्षा देने के लिए मना कर देते हैं ऐसे में क्या वह एक नर्तकी की पुत्री को युद्धकला सिखाएंगे?" कमलकांति ने अविश्वास भरे स्वर में पूछा।

 "अवश्य सिखाएंगे कमलकांति जी, आचार्य किसी राजकुल के बंधन में बंधकर रहना नहीं चाहते हैं इसी लिए वे किसी राजकुल के बच्चों का गुरु बनना स्वीकार नहीं करते हैं किंतु हमने सुना है कि यदि कोई विद्यार्थी अपनी लगन से उन्हें प्रसन्न कर ले तो वे राजपुत्र या सामान्य जन में कोई भेदभाव नहीं करते। कई कन्याओं को भी उन्होंने शिक्षा दी है जो अब अपने गुरुकुल चला रही हैं। आचार्य ना तो कुल पूछते हैं और ना ही वर्ण, वह तो केवल विद्यार्थियों की लगन और आत्मविश्वास की परीक्षा लेते हैं और जो उनकी परीक्षा उत्तीर्ण कर लेता है उसे वह सहर्ष अपना शिष्य स्वीकार कर लेते हैं।" विमला ने अपनी जानकारी के आधार पर बताया।

 "ये तो ठीक है विमला किन्तु हमने सुना है उनके आश्रम का सही पता किसी को भी नहीं है ऐसे में हम उन्हें खोजेंगे कहाँ? जब हम उनसे भेंट ही नहीं कर पाएँगे तो तब सुदर्शना की शिक्षा की बात किससे करेंगे?" कमलकांति ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा।

 "यह आप मुझपर छोड़ दो कमलकांति जी। मैं कल सुबह से ही कुछ विश्वसनीय लोगों को उनका पता लगाने के काम पर लगा देती हूँ। हम शीघ्र ही उन्हें खोज लेंगे कमलकांति जी आप निश्चिंत रहें।" विमला ने आत्मविश्वास जताते हुए कहा।

 "चलो ठीक है अब आप जाकर सो जाओ, कल हम सुदर्शना से भी इस विषय में बात कर लेंगे।" कमलकांति ने कहा।

 "जी अवश्य", कहकर विमला कमलकांति के कक्ष से बाहर निकल आयी। कमलकांति आँख बंद करके शैय्या पर लेट गयी किन्तु बहुत प्रयास करने पर भी उसे नींद नहीं आ रही थी।

 उधर सुदर्शना भी जागी हुई थी और राजकुमार रविकांत के चित्र से बातें कर रही थी।



 "आपको पता है 'कुमार' हमारी माता हमारे युद्ध कला सीखने की बात को मान गयी हैं। अब शीघ्र ही हम हमारी पहचान एक नर्तकी के स्थान पर एक वीरांगना की बना लेंगे। फिर आपको हमारे पिता की तरह एक नर्तकी से विवाह करके समाज में होने वाले अपयश का भय नहीं होगा बल्कि आपको एक वीरांगना का पति होने पर गर्व होगा। तब आपका परिवार भी आपको पिताजी की तरह नर्तकी से विवाह ना करने के लिए विवश नहीं कर पायेगा। ऐसे भी हमारा विवाह तो हो चुका है तो ऐसे में हमें भी आपके कुल की मान-प्रतिष्ठा के अनुरूप स्वयं को ढालने का प्रयास तो करना ही होगा ना। हम जब युद्ध कला में प्रवीण होकर आपके समक्ष आएँगे और आपको बताएंगे कि कैसे अनजाने में उस दिन आपने हमारी माँग भरकर हमें आपकी पत्नी बना लिया था तो आपको इसपर कोई खेद नहीं होगा बल्कि आपको तो प्रसन्नता होगी कि आपने अपने लिए एक वीरांगना को चुना है। हमसे अब आपका दूर रहना सहन नहीं होता है युवराज जी, किन्तु क्या करें अभी तक हम बस एक नर्तकी हैं और हम नहीं चाहते कि हमारा प्रेम भी हमारी माता के प्रेम की भांति गुमनाम रह जाये। हमें तो सारे समाज के समक्ष सबकी स्वीकृति के साथ आपकी पत्नी के रूप में आपके साथ रहना है। अब बस थोड़ी प्रतीक्षा और, उसके बाद हम आपको बतायेंगे की हम आपकी पत्नी हैं और यह भी बताएँगे की कैसे हमारा विवाह हुआ है।" ऐसे ही बातें करते-करते सुदर्शना ने युवराज रविकांत के चित्र को कसकर गले लगा लिया और ऑंखें बन्द करके स्वप्न बुनने लगी।