कुछ लोग कहते थे कि उन खंडहरों में उस समय के राजा का बड़ा भारी खज़ाना छिपा हुआ है तो कुछ लोगों का मत था कि उसमें ख़ज़ाने का नक्शा छिपा है और वह खज़ाना सामने की पहाड़ी की किसी गुफा में छिपाया गया है।
भुतहा, डरावने, मायावी या मौत के खण्डहर के नाम से विख्यात इस सुमेरूगढ़ का आकर्षण इसके नाम की भयावहता के बाबजूद भी कई लोगों को अपने साहस और बल की परीक्षा के लिए अपनी ओर खींचता रहता था। कई युवा जाने अनजाने इन खण्डहरों का रुख कर जाया करते थे किंतु कभी भी किसी ने सकुशल वापस आकर कभी भी इस खण्डहर हो चुके 'महल का रहस्यमय' किसी को नहीं बताया था। इसलिए इसका रहस्य बस किंवदंती ही बना हुआ था।
तेजप्रताप अभी सोलह वर्ष का ही हुआ था, वह गुरु के आश्रम में शिक्षा ग्रहण कर रहा था। अपनी किशोरावस्था में भी तेजप्रताप नाम के अनुरूप ही सुदर्शन एवं बलिष्ठ था। उसके दमकते चेहरे पर राजकुमारों वाला गौरवमयी तेज़ था। ऊँचा लम्बा कद बलिष्ठ भुजाएं चौडा सीना और मजबूत भुजाएं पहली नज़र में ही उसके व्यक्तित्व का परिचय करा देती थीं।
तेज अपने घोड़े पर सवार होकर यूँही घोड़े को घुमाने निकल पड़ा था। यह यांत्रिक घोड़ा उसे गुरु आश्रम के पास ही एक जमीनी सुरँग के अंदर बने भवन में रखा मिला था। तेजप्रताप कौतूहलवश उसे वहाँ से बाहर ले आया और उसे ठीक से जमकर उसके ऊपर सवार हो गया।
तेज प्रताप को तब बहुत आश्चर्य हुआ जब उसने सवार होकर घोड़े की रास हिलाई और घोड़ा कदमताल करने लगा। तेजप्रताप अब घोड़े पर सवार होकर उसकी रास को खींचकर उसे दौड़ा रहा था।
वह यांत्रिक घोड़ा भी जैसे रास के साथ तेजप्रताप के मन की बात को समझ रहा था और बहुत अच्छी गति से दौड़ रहा था।
तेजप्रताप सात वर्ष की आयु में ही गुरु के आश्रम में विद्यार्थी बनकर आ गया था और तभी से वह आश्रम में ब्रह्मचारी बनकर रह रहा था।
तेजप्रताप को आश्रम के बाहर की दुनियाँ का कुछ भी पता नहीं था अतः उसे जो मार्ग अच्छा लग रहा था वह उसी पर अपना घोड़ा मोड़ देता था।
उसे इस यांत्रिक घोड़े के विषय में भी ज्यादा पता नहीं था। अब वह अपनी इस घुड़सवारी के दौरान आश्रम से कितनी दूर निकल आया था और किन मार्गों से आता था उसे तो इस बात की भी सुध नहीं थी। वह तो बस अपने आनन्द में इस कलपुर्जों वाले धातु के बने यांत्रिक अश्व को दौड़ाता ही जा रहा था और पल-पल बढ़ती इसकी गति देखकर मन ही मन खुश हो रहा था। घोड़ा अबतक किसी भी घोड़े की संभावित गति से दोगुनी रफ्तार पार कर चुका था लेकिन तेजप्रताप का युवा मन जैसे इस गति से भी सन्तुष्ट नहीं था। और इसी असन्तोष के चलते उसने वह कर दिया जो उसने अभी तक नहीं किया था और जिसके परिणाम की भयावहता उसकी सोच से भी परे थी।
तेजप्रताप ने बिना सोचे समझे पहले से ही हवा से शर्त लगाते अश्व को जोर से चाबुक मार दिया।
और ये क्या! चाबुक लगते ही घोड़ा जैसे गुस्से में भर गया... अभी तक वह अपने जिस सवार के इशारे पर दौड़ रहा था अब वही सवार उसे शत्रु नज़र आने लगा। घोड़े ने मुँह ऊपर करके बहुत भयानक शब्द उच्चारित किया और लगाम मुँह से बाहर उगल दी।
अब तेजप्रताप के हाथ में जो रास थी उसका नियंत्रण घोड़े पर से हट चुका था। अभी तेजप्रताप कुछ समझ पाता या घोड़े पर से कूद कर उतर पाता तबतक घोड़ा अपने पँख फैलाकर घोड़े से ड्रेगन बन चुका था और अभी तक जो घोड़ा हवा से बातें कर रहा था अब वह खुद आँधी बन चुका था। तेज़ को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था अतः उसने झुक कर घोड़े की गर्दन को कसकर पकड़ लिया था। अश्व की गर्दन के धातु के रोम तेज़ प्रताप के शरीर में छिद्र कर रहे थे और उनसे खून निकलने लगा था लेकिन अश्व की गति इतनी तीव्र थी कि तेजप्रताप चाहकर भी उसे छोड़ नहीं सकता था और गहन पीड़ा के बाबजूद उसने अपनी आंखें बंद करके घोड़े की गर्दन पकड़ी हुई थी।
घोड़ा अपनी उसी गति से उड़ता हुआ सुमेरू की उस पहाड़ी के ऊपर से गुजरा जिसपर वह रहस्यमयी महल बना था और उसने पलटकर तेजप्रताप को उस पहाड़ी पर पटक दिया। तेजप्रताप बहुत तेज़ी से पहाड़ी पर गिरा और अपनी पीड़ा में वह ये भी नहीं देख पाया कि उसका वह मायावी घोड़ा कहाँ गया।
कुछ देर निढाल पड़ा रहने के बाद तेज़ की तेज चलती साँसे कुछ सामान्य हुईं तब वह उठकर बैठ गया। उसके शरीर में बहुत सारे घाव थे हालांकि कोई भी घाव गम्भीर नहीं था फिर भी उनमें से उसका बहुत सारा खून बह रहा था। तेजप्रताप ने अपने अंगवस्त्र को कन्धों के ऊपर से डालकर पीठ से घुमाते हुए बगलों से निकलकर सीने पर कसकर बांध लिया जिससे उसके घाव काफी हद तक ढक गए। किन्तु अभी भी उसे बहुत तेज़ पीड़ा हो रही थी।
काफी देर इस यात्रा की मेहनत और डर से जूझने और चोटिल होने के कारण उसे बहुत अधिक थकान का अहसास हो रहा था। प्यास से उसका गला सूखने लगा था। तेजप्रताप ने खुद को संयमित किया और उठकर इधर-उधर देखने लगा। वह अब किसी सुरक्षित शरणस्थली और पीने के लिए जल के स्रोत की खोज में था। उसने देखा कि ऊपर पहाड़ी पर कुछ पुराने भवन बने हुए हैं।
"वहाँ पर भवन हैं, अर्थात अवश्य ही वहाँ कुछ लोग भी रहते होने। और यदि वहाँ कोई होगा तो अवश्य ही उसके पास जल और भोजन की भी व्यवस्था होगी", तेजप्रताप खुद ही में बुदबुदाया और उसके कदम पहाड़ी पर बने खण्डहर की ओर बढ़ चले।
2-
राजकुमार तेजप्रताप सिंह पहाड़ी पर चढ़ते हुए ऊपर महल की ओर बढ़ रहा था। पहाड़ी की वह पगडण्डी बहुत सँकरी और टेढ़ी थी, ऊपर से इतनी ऊबड़खाबड़ की जरा ध्यान चुके और यात्री धड़ाम से नीचे आ गिरे।
तेजप्रताप बहुत ध्यान से एक-एक कदम बढ़ाता है खुद को कंटीली झाड़ियां जो उस पूरे रास्ते पर भारी संख्या में उगी थीं उनमें उलझने और उनके काँटों से बचाता हुआ चढ़ता चला जा रहा था।
प्यास के मारे उसके तालु में जैसे काँटे उग आए थे और उसके अंदर का शेष कुछ बूंद जल स्वेद बनकर बाहर बहता जा रहा था। हालांकि यह पसीना इस भीषण गर्मी में उसके चेहरे को ठंडक देकर सूर्यनारायण के तेज़ से उसे बचा रहा था।
लेकिन पानी की पल-पल उसके शरीर में होती कमी उसके कदमों को बोझिल बना रही थी।
अब वह टूटा-फूटा खण्डहर हो चुका महल तेजप्रताप को अपने बिल्कुल सामने नज़र आ रहा था। तेजप्रताप को ऐसा लग रहा था जैसे यह स्थान उसका पूर्वपरिचित है और वहाँ कोई उसे बुला रहा है।
अब तेज़ अपनी थकान, प्यास और शारिरिक कमज़ोरी के बाबजूद बहुत तेज़ कदम बढ़ा रहा था।
तेजप्रताप ने उस खण्डहर हो चुके किले का सिंहद्वार पार किया तो उसे ऐसा लगा जैसे कोई परिचित हवा उसे छूकर गुजरी हो और उसमें बसी सुगन्ध को वह जन्मों से जनता हो। उसे लगा जैसे किसी ने उसके कान में एक मधुर स्वर फूँका हो।
अब आगे एक बड़ा सा सपाट मैदान था और उसके बाद एक बहुत विशाल महल के अवशेष और कुछ बची हुई इमारतें।
तेजप्रताप एक ओर तेज़ी से बढ़ा चला जा रहा था जैसे कोई उसे हाथ पकड़कर उधर ले जा रहा हो।
किन्तु यह मार्ग उस महल की ओर ना जाकर उसी पहाड़ी के पश्चिमी छोर पर जा रहा था जो उस सारे महल से बहुत अधिक ऊँची चोटी प्रतीत हो रही थी।
तेजप्रताप बिना अपनी थकान की परवाह किये तेज़ी से उस ओर बढ़ रहा था। उसके चेहरे पर विशेष मुस्कान खिली हुई थी। वह तेज़ी से चलते हुए ऊपर पहुँच चुका था। ऊपर नीचे की अपेक्षा एक बहुत छोटी समतल जगह थी जहां एक पुराना बरगद का पेड़ अपनी जटाओं को विस्तारित किये जैसे बाहें फैलाये किसी की प्रतीक्षा कर रहा था। तेज़ प्रताप तेज़ी से आगे बढ़कर उस वट वृक्ष के नीचे पहुँच गया और बैठकर अपनी चढ़ती हुई साँस को ठीक करने की कोशिश करने लगा। उसने अपने सूखे हुए गले में उगे काँटों से राहत पाने के लिए मुँह को लार को गटकने का प्रयास किया किन्तु यह उसके सूखकर चिपचिपे हो चुके गले को तर करने के लिए अपर्याप्त था।
अब एक बार फिर उसकी आँखें सम्भावित जल के स्रोत को तलाश करने लगीं।
तेजप्रताप को ऐसा लगा जैसे सामने पहाड़ी के कोने पर कोई सुंदर युवती ध्यानमग्न बैठी सामने दूसरी पहाड़ी चोटी को देख रही है। उसकी पीठ इस ओर दिखाई दे रही थी। तेज़ को ना जाने क्यों ऐसा लगा जैसे वह कन्या इसे पुकार रही है।
तेज़ प्रताप ने अपना अंगवस्त्र खोला और उसे झटक कर सीधा किया। अंगवस्त्र पर लगा उसके घावों का रक्त अब सूख चुका था तथा अब उसके घावों पर भी खून सूखकर जम चुका था।
तेजप्रताप ने अंग वस्त्र को कन्धों पर डाला और मूर्ति की ओर बढ़ने लगा। जैस-जैसे वह आगे बढ़ रहा था वही चिरपरिचित सुगन्ध उसे चारों ओर महसूस हो रही थी। तेजप्रताप अब उस मूर्ति के ठीक पीछे खड़ा हुआ था। वह सुंदर मूर्ति एक बलुआ पत्थर को तराश कर बनाई गई थी। पीछे से देखने से ही मूर्ति एक अप्सरा जैसी सुंदर युवती की लग रही थी। तेज़ घूमकर उसके सामने की ओर बढ़ा।
मूर्ति में जो लड़की थी वह एक बड़े चबूतरे पर जैसे ध्यानमग्न बैठी हुई थी। मूर्तिकार ने इस मूर्ति को इतनी बारीकी से तराशा था कि उसका एक-एक अंग सजीव मालूम पड़ता था। उसके अंग अंग को सजीव उभार और कटाव दिए गए थे। तेजप्रताप की नजरें उसके पेट से होती हुई उसकी अकल्पनीय सुंदरता को देखती हुई ऊपर की ओर उठ रही रहीं। युवती के उन्नत सुडौल वक्ष पर एक पल उसकी दृष्टि ठहरी और फिर उसकी सुराहीदार लंबी सुंत्वा पतली लंबी गर्दन से ऊपर उठकर उसकी थोड़ी, होंठ और नाक की सुघड़ता को पल भर निहार कर उसकी आँखों की ओर चली गयीं।
उस मूर्ति की आँखों को देखकर तेजप्रताप को निराशापूर्ण झटका लगा और अभी तक मूर्ति को देखते हुए जिस मूर्तिकार के सम्मान में उसका सिर झुका जा रहा था अब उसी की अकुशलता पर उसका मन खीज गया।
"लगता है वह मूर्तिकार इस कन्या की आँखे बनाना भूल गया, या फिर इस अनिंद्य सुंदरी के लिए वह उपयुक्त आँखों का चयन नहीं कर पाया। किन्तु जो भी हो यहाँ पर उस मूर्तिकार की अकुशलता स्पस्ट दिखाई देती है। अरे इतनी सुंदर युवती की आँखों की जगह बस दो गड्ढे?? यह भला क्या बात हुई? इसमें तो मृग समान बड़ी और कटीली आँखें ही शोभायमान होतीं।", तेजप्रताप निराश औऱ क्रोध में बड़बड़ाया।
अब एक बार फिर वह उस मूर्ति के चारों ओर घूमकर उसका सूक्ष्मता से अवलोकन कर रहा था। मूर्ति बिल्कुल सही बनी थी बस उसके चेहरे में ही पता नहीं क्यों मूर्तिकार ने इतनी कमियाँ छोड़ रखी थीं। मूर्ति के सिर का पिछला हिस्सा भी बिल्कुल सपाट बना हुआ था और आँखों के गड्ढे पीछे से भी साफ दिखाई दे रहे थे। तेज़ प्रताप ना जाने क्या सोचकर चबूतरे पर चढ़ गया और उन गढ्डों पर अपनी आँखें रखते हुए बोला, "काश इस समय यहाँ कोई होता जो सामने से देखे बता पाता कि अब मेरी आँखों के साथ यह मूर्ति कैसी लग रही है।"
तेजप्रताप ने अपनी आँखें खोलीं तो उसे सामने एक ऊँची पर्वत की चोटी नज़र आई जो नीचे से ऊपर बिल्कुल सीधी खड़ी हुई थी मानों कोई दीवार हो। उस चोटी और इस चोटी के बीच में एक चौड़ी नदी बह रही थी। नदी को देखते ही तेजप्रताप के चेहरे पर आशा की मुस्कान खिल उठी और वह मूर्ति से हटकर नीचे उतर आया।
"ये नदी यहाँ से तो नज़र नहीं आ रही फिर मूर्ति की आँखों से?? कहीं तो कुछ रहस्य अवश्य है इस अधूरी मूर्ति का।" तेजप्रताप ने अपनी आँखों को इधर-उधर नदी की तलाश में घुमाते हुए कहा और फिर चबूतरे पर चढ़कर मूर्ति के पीछे जाने लगा।
क्रमशः.....
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