शापित पहाड़ी
कहानी
शापित पहाड़ी
वह अपनी मस्ती में घूमते-घूमते पहाड़ों में बहुत दूर निकल आया था।
ऐसे वह कोई पर्वतारोही तो था नहीं लेकिन एडवेंचर का उसे बहुत शौक था। उसी के चलते जगह-जगह जँगल, पर्वत, नदी, झीलें आदि जैसे उसे हमेशा अपने पास बुलाते रहते थे। ऐसे भी उसे पत्रकारिता और मीडिया के लिए एडवेंचर के फोटो और वीडियो बनाने का शौक था।
इस समय वह उत्तराखंड की सुदूर दुर्गम पहाड़ियों पर फोटोग्राफी करते हुए घना जंगल पार करके काफी दूर निकल आया था।
ये स्थान अन्य पहाड़ी स्थलों से काफी अलग था जिसमें एक बहुत बड़ा और घना मैदानी जँगल था उसके बाद एक छोटी हरीभरी पहाड़ी, उसके बाद एक बहुत गहरी नदी जिसकी चौड़ाई अपेक्षाकृत कम थी,उसके बाद फिर एक घास का मैदान और उसके पीछे गगनचुंबी पर्वतश्रंखला।
वह अपनी धुन में चलता इस सुरम्य दृश्य में ऐसा खोया की उसे ध्यान ही नहीं रहा कि सूर्य कब रँग बदल कर लाल हो गया था। और अब अंधेरा घिरने लगा था।
अभी वह अपनी धुन में जँगल पार करके उस छोटी पहाड़ी को देख ही रहा था कि अचानक उसे ऐसा लगा जैसे कोई छोटा बच्चा कोमल हँसी बिल्कुल उसके पीछे हँस रहा है। उसे उस हँसी में एक खनक के साथ ही उदासी का पुट भी सुनाई दिया। वह अब सपनी तन्द्रा से बाहर आ चुका था। उसने इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं, वह उस हँसी के सोर्स को तलाश कर रहा था।
अब वह उस हँसी की आवाज का पीछा करते हुए एक ओर बढ़ने लगा।
अब फिर उसका सारा ध्यान उस आवाज पर ही था। उसे अब अपने आस-पास कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। उसका मस्तिष्क अब उस आवाज को सुनकर केवल उसकी दिशा तय करने में व्यस्त था।
अपनी इस धुन में वह ये भी नहीं देख पाया कि जिस मोड़ से अभी-अभी वह बाएं मुड़ा है, उस पर 'हॉन्टेड एरिया' का पुराना बोर्ड लगा हुआ है।
अब वह पहाड़ी के बिल्कुल नज़दीक पहुँच चुका था। उसने सामने देखा, 'एक छोटी बच्ची जो कोई सात इस आठ साल की होगी। हाथ से सिला मोटे कपड़े का काला फ्रॉक पहने हुए थोड़ा झुकी हुई पहाड़ी पर चढ़ने की कोशिश कर रही थी। इसने उसे आवाज लगाई, "अरे बेटा आप कौन हो? और इतनी रात में अकेले यहाँ क्या कर रहे हो?"
बदले में इसे उस बच्ची की हँसी के अलावा कुछ सुनाई नहीं दिया। वह तेज़ी से पहाड़ी पर ऊपर चढ़ाई कर रही थी।
अब इसे घबराहट हुई कि शायद यह बच्ची परिवार से दूर गलती से निकल आयी है।
"अरे बेटा!! रुको। सुनो मेरी बात, ऐसे अकेले मत दौड़ो। मैं तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ देता हूँ। इसने तेज़ आवाज में कहा।
बदले में इसे बच्ची की हँसी की आवाज में घुली हुई एक गम्भीर और कुछ अलग आवाज सुनाई दी, "आ जाओ फिर!!"
"ठीक है आता हूँ लेकिन तुम ठहतो तो।" इसने उसकी बदली हुई आवाज़ पर ध्यान दिए बिना ही कहा और तेज़-तेज़ कदमों से पहाड़ी चढ़ने लगा।
यह अपनी तरफ से लगभग दौड़ ही रहा था लेकिन वह बच्ची सामान्य चाल से चलने के बावजूद इसकी पहुँच से दूर थी। बच्ची को बचाने की धुन में वह उसकी बदली हुई आवाज व उसकी चाल किसी भी चीज़ को नोटिस नहीं कर रहा था। वह बस उसकी तरफ बढ़ा चला जा रहा था।
अचानक उसे लगा कि सामने पहाड़ी खत्म हो रही है और नीचे खाई है, "बच्ची खाई में गिर जाएगी।" उसके दिमाग ने संकेत किया।
इसने घबराहट में आवाज लगाई, "रुक जाओ बिटिया, आगे खाई है, तुम गिर जाओगी।
इसकी आवाज पर बच्ची पल भर के लिए ठिठकी लेकिन जैसे ही ये उसके पास पहुँचा, उसने फिर एक जम्प लगा दी। ये उसे पकड़ने की झोंक में अपना संतुलन खो बैठा और फिसलकर नीचे खाई में गिरने लगा।
अचानक इसने देखा कि वह बच्ची उड़ते हुए ऊपर जा रही है। अब उसके हँसने की आवाज बहुत कर्कश और डरावनी थी।
वह बहुत जोर-जोर से हँस रही थी। अब उसका हुलिया भी एकदम बदल गया था। उसके शरीर से मांस गायब हो चुका था और उसका चेहरा बहुत डरावना हो गया था।
वह पहाड़ी की चोटी पर जाकर बैठ गयी और तेज़-तेज़ हँसते हुए बोली, "साले! सारे मर्द एक जैसे होते हैं; ठरकी सब के सब।" और फिर जोर से हँसने लगी।
नीचे गिरते ही इसने अपनी कमर में लगा कोई बटन दबा दिया था जिससे इसकी सुरक्षा जैकेट में लगा बैटरी चलित ब्लोवर चल गया और इसकी जैकेट में मात्र बीस सेकेंड में ही पर्याप्त हवा भर चुकी थी।
कुछ ही पल में ये नीचे जमीन पर गिरा किन्तु अपनी उस जैकेट की वजह से इसको बहुत मामूली सी चोट लगी। यह कुछ ही पल में उठकर खड़ा हो गया और धूल झाड़ने लगा।
इसे इसकी जैकेट ने बचा लिया था नहीं तो इतनी ऊंचाई से गिरने के बाद तो इसकी हड्डियों का चूर्ण बनना तय था।।
ये किसी तरह सँभलकर उठा लेकिन इसे उस स्थान पर बहुत तीव्र दुर्गन्ध का अहसास हो रहा था।
इसने अपनी आँखों का अँधेरे के साथ सामंजस्य बिठाकर देखा, ये जिस जगह पर था वहाँ बहुत से नरकंकाल पड़े हुए थे। ऊपर से ये उन्हीं कंकालों के बीच में गिरा था। इन कंकालों पर लगे गले-सड़े माँस से ही ये दमघोंटू दुर्गंध उठ रही थी।
दुर्गंध इतनी तीव्र थी कि कुछ ही पलों में इसका दिमाग फटने लगा। उसे उल्टी होने को हो रही थी लेकिन किसी तरह उसने खुद को संभाल लिया।
बहुत ध्यान से देखने पर इसने पाया कि जहाँ यह गिरा है वह एक पत्थर की बहुत बड़ी चट्टान है और उसके नीचे से नदी में पानी बहने की तेज़ आवाज आ रही है। पत्थर की वह चट्टान बहुत ऊँची और सीधी थी उसपर एक अजीब तरह की फिसलन हो रही थी। जिसने बड़ी मुश्किल से खुद को फिसलकर नीचे गिरने से बचाया और उसके इस प्रयास में कई कंकाल अवश्य नीचे गिरे जो हवा के सम्पर्क में आकर चमकने लगे थे और जिंदा भूत जैसे दिखाई दे रहे थे। इसने खुद को संभालकर ऊपर देखा, वह चुड़ैल अपने शिकार को इस तरह बचा देखकर बहुत गुस्से में थी। उसकी आँखें अंगार बनी हुई थीं जैसे अभी इसे जलाकर भस्म कर देगी। इसने एक पल के लिए उससे आँखें मिलायीं, इसकी आँखों में अभी भी उसके लिए दया का भाव था।
अब इसका रुख नदी की ओर था। इसके दिमाग में दो चीजें थीं, एक तो ये की ऊपर पहाड़ी पर वह लड़की चुड़ैल बनी बैठी है जो इसको फिर मारने की कोशिश करेगी और दूसरा इस नदी के किनारे अवश्य ही कहीं ना कहीं कोई गाँव होगा।
किन्तु उस सपाट पत्थर की सिला पर से उतरने का कोई रास्ता इसे समझ नहीं आ रहा था तभी वह चुड़ैल बहुत जोर से गुस्से भरी आवाज निकालते हुए आँखें लाल अंगार किये अपने दोनों हाथ आगे बढ़ाए तेज़ी से इसकी ओर झपटी। उसकी लंबी बिना मांस की उँगलियाँ और लंबे-लंबे नाखून इसे साफ दिखाई दे रहे थे जो किसी छुरी की तरह इसकी गर्दन की ओर बढ़ रहे थे।
इतनी देर में पहली बार इसके मुंह से घबराहट भरी चीख निकल पड़ी, "नहीं!!...!, अरे बिटिया मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है जो तू मेरे जीवन के पीछे पड़ गयी है? मैं तो तुझे बचाने के लिए इधर आया था और तू मेरे ही पीछे पड़ गयी।" अभी ये कह ही रहा था कि तब तक उसके हड्डियों बाले हाथ इसकी गर्दन पर आकर लिपट गए। उसकी ख़ंजर जैसी उँगलियाँ इसकी गर्दन पर कस गयीं। अब इसकी गिग्गी बंध रही थी, इसे लगने लगा था कि आज उसकी जिंदगी का आखिरी दिन है। अब ये चुड़ैल उसे जिंदा नहीं छोड़ेगी। अब उसे लोगों द्वारा सुनाई वे कहानियां याद आ रहीं थीं जिनमें बच्चा भूत और चुड़ैल की भयावहता होती थी। कहानियां बताती हैं कि ये बच्चा भूत बहुत जिद्दी होते हैं। अब वह गिड़गिड़ाने लगा था, अभी तक जिसे वह बच्ची समझ रहा था अब वही उसे एक खूँखार चुड़ैल नज़र आ रही थी फिर भी वह ,"बिटिया मुझे छोड़ दे…! बिटिया मुझे जाने दे की गुहार लगा रहा था। लेकिन इसकी आवाज अब गूँ.. गाँ के अलावा कुछ भी नहीं आ रही थी।
अभी यह खुद को बचाने की जद्दोजहद कर ही रहा था कि इसे उसकी उंगलियों की पकड़ कुछ हल्की होती महसूस हुई। इसे लगा कि शायद अब उसकी पुकार चुड़ैल ने सुन ली है और वो उसे छोड़ देगी लेकिन उसका ये अनुमान एक वहम साबित हुआ और अब चुड़ैल उसे उठाकर ऊपर की ओर उड़ चली।
ऊपर पहाड़ी की चोटी पर जाकर चुड़ैल नें एक बार फिर बहुत डरावनी आवाज निकाली और इसे पूरी ताकत से नीचे उछाल दिया। वह इसके इस तरह जिंदा बचने से बहुत ज्यादा गुस्से में थी।
अबकी बार चुड़ैल के धक्के की बजह से ये उस चट्टान पर ना गिर कर चट्टान से दूर नदी की रेत में गिरा, अपनी जैकेट की वजह से उसे चोट तो नहीं आयी थी फिर भी ये कुछ देर मरे मुर्दे के समान औंधा होकर कुछ देर ऐसे ही पड़ा रहा और तिरछी आँख से ऊपर देखने लगा।
वह चुड़ैल कुछ देर तक इसे ऐसे पड़ा देखती रही और फिर शायद उसकी मौत से सन्तुष्ट होकर उसका रूप सौम्य होने लगा और वह गायब हो गयी।
ये देखकर इसे कुछ चैन आया फिर भी करीब पंद्रह-बीस मिनट और ये ऐसे ही पड़ा रहा और जब उसे यक़ीन हो गया कि चुड़ैल जा चुकी है तो ये उठकर एक और चलने लगा।
अब वह नदी के बहाव के साथ-साथ नदी किनारे चल रहा था।
रात गहरी होती जा रही थी, अँधेरा पूरी तरह घिर आया था। इसने अब एक पेड़ से बड़ी लकड़ी तोड़ कर उसे छड़ी बनाया हुआ था और उसी के सहारे अंधेरे में खुद को नदी के पत्थरों से ठोकर लगने से बचाता हुआ चल रहा था।
करीब दो घण्टे सतत चलने के बाद इसे नदी के दूसरे किनारे पर उम्मीद की रोशनी के रूप में एक टिमटिमाता दिया नज़र आया जो इस बात का संकेत था कि वहाँ अवश्य ही कोई घर है।
थोड़ा आगे बढ़ने पर इसे दूर-दूर छितराये हुए कुछ अन्य प्रकाश बिंदु भी दिखाईदेने लगे।
अब इसकी गति में तेज़ी आ गयी थी। यह लगभग दौड़ता हुआ उस बस्ती की और जा रहा था कुछ ही दूर और जाने पर इसे नदी के दोनों किनारों को मिलाता नदी पर किसी पुल के रूप में रखा एक शहतीर नज़र आया। ये ईश्वर को याद करता हुआ उस पुल से होकर नदी पार कर गया और फिर तेज़ी से दौड़ता हुआ उस बस्ती में पहुँचा।
बस्ती में इसके पहुँचने के कुछ ही देर बाद लोग जाग गए और इसके आस-पास इकट्ठे हो गए। उस समय तक रात के कोई ग्यारह बजे थे।
इसने लोगों के कहने पर पहले अपने कपड़े उतार कर स्नान किया क्योंकि इसमें से भी वही दुर्गंध आ रही थी जो इसने चट्टान पर पड़े कंकालों में महसूस की थी, मानव मांस के सड़ने की बदबू।
खूब अच्छे से स्नान करने के बाद इसने गाँव वालों का दिया एक कुर्ता और धोती पहन ली। तब तक इसके भोजन और विश्राम का प्रबंध हो चुका था।
लोगों ने इसे सब कुछ भूलकर रात में आराम करने की सलाह दी।
सुबह हो गयी थी, दिन की लाली फैलते ही गाँव वाले उसके साथ घटी घटना को विस्तार से जानने के लिए इसके आस-पास इकट्ठे हो गए थे।
इसने गम्भीर होकर सबको अपने साथ घटी वह घटना बतायी, और ये भी कहा जो चुड़ैल बनकर सारे मर्दो के बारे में उसने कहा था।
"बेटा ये कोई पचास साल पुरानी बात है, तब हमारे गाँव उस पहाड़ी के पीछे ही हुआ करता था। हमारे गाँव का जमीदार लाखन सिंह बहुत दुष्ट और नीच प्रवृत्ति का इंसान था। वह हमेशा नशे में डूबा रहता था। गाँव की सभी बहु बेटियों पर उसकी बुरी नज़र रहती थी।
एक बार वह जंगल में शिकार के लिए गया था। वहीं पड़ोसी गाँव की एक आठ साल की बच्ची अपनी बकरियों के लिए पत्ते तोड़ रही थी।
पता नहीं नशे की अधिकता या उसके नीच चरित्र ने उसे वासना में अंधा बना दिया और वह बुरी नियत से उस लड़की की ओर झपटा।
वह बच्ची उससे बचने के लिए पहाड़ी की और दौड़ी ये ज़ालिम भी उसके पीछे दौड़ा।
वह बच्ची इसकी बुरी नज़र से इसकी नियत भाँप गयी और उसने अपने सम्मान की रक्षा में उस पहाड़ी से नीचे छलांग लगा दी।
जमीदार उस हादसे के बाद चुपचाप अपने घर आ गया। उस बच्ची के परिवार ने उसे बहुत ढूंढा लेकिन उसकी हड्डी भी किसी को नहीं मिली तो लोगों ने मान लिया कि या तो उसे कोई जंगली जानवर खा गया है या फिर वह नदी में वह गयी।
उस घटना के कुछ ही समय बाद जमीदार भी एक दिन पहाड़ी से ठीक उसी जगह से नीचे गिर गया जहाँ से वह बच्ची कूदी थी।
उसके बाद पहाड़ी पर एक सिलसिला शुरू हो गया, जो भी मर्द शाम या शाम के बाद उस पहाड़ी की ओर जाता वह गायब हो जाता। तब सारे गाँव वालों ने अंग्रेज सरकार में इसबातकी शिकायत की और उन्होंने वहाँ एक बोर्ड लगा दिया कि ये जगह भूतिया है और इधर आना मना है।
हमारे बड़े बुजुर्गों ने भी उसे 'शापित पहाड़ी' मानकर वह जगह खाली करके अपना गाँव यहाँ बसा लिया।" गाँव के एक बुजुर्ग ने उसे सारी कहानी बताई।
"क्या उस बच्ची की मुक्ति का कोई उपाय नहीं हो सकता?" उसने प्रश्न किया।
"अब ये तो कोई पुजारी या तांत्रिक ही बता सकता है", गाँव के मुखिया ने जवाब दिया।
शाम हो चली थी ये फिर उसी पहाड़ी के नीचे था और अपनी कल वाली ही दिशा में आगे बढ़ रहा था। कुछ ही देर में इसे वह लड़की नज़र आने लगी।
"रुको!! मेरी बात सुनो", इसने आवाज लगाई।
"आओ पकड़ो मुझे", उस बच्ची ने खिलखिलाते हुए कहा और कल की ही तरह पहाड़ी पर चढ़ने लगी।
"रुक जाओ!, मैं यहाँ तुम्हे पकड़ने या कुछ गलत करने नहीं आया हूँ। मुझे बस इतना बता दो की मैं तुम्हारी मुक्ति के लिए क्या कर सकता हूँ।
"मुक्ति!!!... मेरी मुक्ति..., कुछ नहीं कर सकता तू।
मैं अब अकेली नहीं हूँ। मेरे साथ सैकड़ों अतृप्त आत्माएँ हैं इस पहाड़ी पर। ये वही हैं जिन्हें मैंने मार डाला। ये सब मुझे औरत बनाना चाहते थे मैंने भूत बना दिया सबको। हाहाहाहा..., कुछ नहीं कर सकता तू। चल पकड़ मुझे, अब मुझे इस खेल में मज़ा आता है। मुझे नहीं चाहिए कोई मुक्ति।", वह लड़की डरावना चेहरा बनाये बिल्कुल इसके कान के पास आकर बोली और अगले ही पल भयानक हँसी हँसती हुई आसमान में उड़ने लगी। फिर अचानक इसे लगा कि वह तेज़ी से सिर के बल नीचे गिर रही है।
"अरे!! संभालो खुद को, तुम्हें चोट लग जायेगी", इसने डरते हुए कहा।
"सबकी मुक्ति के लिए महायज्ञ करना होगा", वह गिरते हुए बिल्कुल इसके कान के पास रुकी और ये बोलकर पलक झपकते ही अपने पैरों पर खड़ी हो गयी।
"श्राध्द की मावस को", ये कहकर वह तेजी से मुड़ी और फिर उड़ती हुई उस पहाड़ी की चोटी पर जाकर बैठ गयी।
अब ये वापस गाँव लौट आया और गाँव वालों को बुलाकर सारी बात बताई तथा किसी योग्य पण्डित अथवा तांत्रिक के बारे में पूछा तब गाँव वालों ने उसे मांत्रिक 'कापालिक' जी का नाम सुझाया जो दूर पर्वत की चोटी पर साधना करते थे।
अगले दिन सुबह ही ये बाबा कापालिक से मिलने पर्वत की चोटी पर चल दिया, इसके साथ गांव के दो नौजवान और भी थे। गाँववाले अब इसे अपना मेहमान और शुभचिंतक मान कर इसका बहुत ध्यान रख रहे थे। उन्हें विश्वास था कि ये उन्हें इस शापित पहाड़ी की आत्माओं से मुक्ति अवश्य दिलाएगा।
ये लोग दोपहर ढलने से पहले ही पर्वत की उस दुर्गम चोटी पर पहुँच गए जहाँ बाबा कापालिक महाराज की कुटी बनी हुई थी। बाबा जी एक बड़े शाल वृक्ष के नीचे आसान लगाए ध्यान मग्न थे।
इसने कापालिक महाराज के चरणों के पास जाकर बिना उन्हें हाथ लगाए दण्डवत प्रणाम किया। और उनके कुछ बोलने तक ऐसे ही पड़ा रहा।
"उठो भक्त, कहो क्या समस्या है?" बाबाजी ने आँखे खोलकर उसे देखते हुए कहा।
बाबा जी की आवाज़ सुनकर यह उठकर बैठ गया और उन्हें शुर से आखिर तक उस पहाड़ी पर घटने वाली सारी घटना और बच्ची की आत्मा का बताया हुए उपाय उन्हें बताया।
"हुँह!!!" मुँह से एक हुंकार निकालकर बाबा जी ने अपनी आँखें बंद कर लीं और दो मिनट ध्यान के बाद आँख खोलकर बोले, "आसान नहीं है ये कार्य, वहाँ कोई एक आत्मा नहीं है। और उनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो उस जगह को छोड़कर जाना ही नहीं चाहते, बिल्कुल उस कीड़े की तरह जिसे चाहे जितनी बार बाहर निकालो फिर भी वह जाएगा नाली में ही। वे लोग अवश्य इस मुक्ति यज्ञ में विघ्न करेंगे।
अभी श्राध्द की अमावस्या को आने में पूरे चालीस दिन हैं। इन्ही दिनों में हमें अपनी तैयारी करनी है। मैं कुछ सामान बता रहा हूँ उसे लिख लो और कल मेरे पास लेकर आओ। यज्ञस्थल पर जाने वाले लोगों को मांत्रिक सुरक्षा कवच धारण करने होंगे और जो लोग दूर से इस यज्ञ को देखेंगे उन्हें भी सुरक्षा घेरे में रहना होगा।
यज्ञ के लिए सोलह लोगों की जरूरत होगी जो निडर और साहसी हों। कुछ भी घटित होता रहे वे लोग विचलित नहीं होने चाहिए। आप लोग जाकर सारी तैयारी करो और उन सोलह लोगों का चुनाव करो। कल सारा सामान लेकर यहाँ आ जाना।" बाबाजी ने कहा और ये लोग वापस आ गए।
उस घटना को चालीस दिन हो गए थे, श्राध्द पक्ष की अमावस्या आ गयी थी। आज गाँव वालों के सहयोग और इसके प्रयासों से पहाड़ी पर सभी ज्ञात-अज्ञात आत्मओं के लिए महायज्ञ हो रहा था।
बाबा जी ने यज्ञस्थल के चारों ओर लाल रंग के चूर्ण से दो घेरे एक के अंदर एक बनाये हुए थे। गांव के सारे लोग जो इस पूजा को देखने आए थे वे इन दोनों घेरे के बीच में खड़े थे। उन्हें किसी भी परिस्थिति में घेरे से बाहर ना आने का निर्देश दिया गया था।
इसके अलावा चौदह नौजवान सुरक्षा कवच पहने हुए यज्ञवेदी के चारों ओर बैठे हुए थे इनके बीच में बाबा कापालिक महाराज कुश के आसन पर विराजमान थे। कुल मिलाकर ये सोलह लोग यज्ञ में आहुति देने के लिए तैयार थे।
बाबाजी ने पहले नवग्रह पूजन आदि करके सभी के ऊपर पवित्र जल छिड़का और फिर कोई मन्त्र पढ़कर हवनकुण्ड में आहुति डाली। उनकी आहुति के साथ ही हवनकुण्ड में अग्नि प्रज्वलित हो गयी और बाबा जी ने सभी को स्वाहा पर एक साथ आहुति डालने को कहकर मन्त्र पढ़ना शुरू किया-
“ॐ हृीं क्लीं सर्व आत्मा स्थापयामि फट् स्वाहा।"
और जैसे ही आहुति यज्ञकुंड में पड़ी अचानक मौसम बदल गया। अभी तक जो आसमान साफ नजर आ रहा था वहाँ एकदम काला धुआँ फैल गया और चारों ओर अँधेरा छा गया। हवा सनसनाते हुए अचानक इतनी तेज हो गयी कि बड़े-बड़े पेड़ों की भी जड़ें हिलने लगीं। हवा की आवाज इतनी तेज थी कि सांय-सांय से कानों के पर्दे फटने लगे। बाबा जी ने गोले में खड़े सभी लोगों को एक दूसरे का हाथ पकड़कर नीचे बैठ जाने के लिए कहा और फिर से मन्त्र पढ़ने लगे।
इस बार की आहुति पड़ते ही जैसे कोई भूकम्प ही आ गया हो… आसपास सबकुछ थरथराने लगा पत्थरों के टकराने की आवाजें आने लगीं और कुछ पत्थर हवा में तैरने लगे। बाबा जी ने इशारे से इन लोगों को उधर ध्यान ना देने को कहा और मन्त्र पढ़ने लगे।
अब यहाँ का माहौल इतना डरावना था कि कोई भी डरकर बेहोश हो जाये। पत्थर हवा में तैरते हुए आपस में टकरा रहे थे, तरह-तरह की आवाजें आ रहीं थीं जिनका शोर कान फाडे दे रहा था। बाबाजी ने फिर कोई मन्त्र पढ़ा और आहुति हाथ में लेकर जोर से बोले, "आप सभी आत्माएं ध्यान से मेरी बात सुनों, हम ये जो भी आयोजन किया है वह आप लोगों की मुक्ति के लिए है, हम आप लोगों को इस घिनोनी यातना दायक प्रेत योनि से मुक्ति दिलाकर आपका ही भला कर रहे हैं।"
"हुनण्ठह...हहह… हउन्ह..!!! निन्ह:.. चाहिए यहाँ किसी को मुक्ति! भाग जाओ यहाँ से नहीं तो सब मारे जाओगे। हमें मत छेड़ो नहीं तो सबको जलाकर भस्म कर देंगे।" एक भयानक आवाज जैसे लाखों भँवरे एक साथ गुँजार उठे हों वातावरण को चीरती हुई गूँज उठी।
"भस्म तो मैं तुम सभी पापी आत्माओं को कर दूंगा अगर तुमने अभी के अभी अपना ये तांडव नहीं समेटा तो।" बाबा जी ने गुस्से से भरकर कहा और कुछ मन्त्र पढ़कर हाथ में लिया हवन सामग्री फट की आवाज के साथ यज्ञकुंड में छोड़ दिया।
यज्ञ में आहुति पड़ते ही हवनकुण्ड से आग की एक बड़ी लपट उठी और आसमान में फैल गयी। उसके फैलते ही धुआँ छँटने लगा, हवा शांत हो गयी और अब डरावनी आवाज की जगह दर्द और वेदना भरी चीख गूँज रही थी, "बचाओ हमें…! अरे रे हम जल रहे हैं, रोको इस आग को महाराज जी हम कुछ नहीं करेंगे।"
"फिर चुपचाप उस घेरे में खड़े हो जाओ सारे, जो भी इस घेरे से बाहर होगा ये आग उसे भस्म कर देगी।" बाबा जी ने लाल और काली रेखाओं से बने कुछ यंत्र रूपी घेरे की ओर इशारा करते हुए कहा और फिर मन्त्र पढ़ने लगे। सभी सोलह लोग एक साथ आहुति डाल रहे थे और उन सभी अतृप्त आत्माओं को सोलह श्राद्ध का फल एक साथ पहुँच रहा था। जैसे-जैसे आत्माओं की तृप्ति होती है रही थी वह धुआँ बनकर आकाश में विलीन होती जा रही थीं।
यज्ञ के बीच में इसे ऐसा लगा कि वह खुद इसकी गोद में बैठकर यज्ञ में आहुतियाँ दे रही है। अब वह बहुत मासूम और भोली दिख रही थी।
अचानक उसके चेहरे और भोली मुस्कान खिली और वह इसका गाल चूमकर उठ खड़ी हुई।
कुछ ही देर में वह धुआँ बनकर सदा के लिए अनन्त आकाश में विलीन हो चुकी थी।
इसके चेहरे पर एक अच्छे काम की संतुष्टि भरी मुस्कान थी।
समाप्त
©नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद