Saturday, May 14, 2022

शापित पहाड़ी

शापित पहाड़ी


कहानी

शापित पहाड़ी



वह अपनी मस्ती में घूमते-घूमते पहाड़ों में बहुत दूर निकल आया था।

ऐसे वह कोई पर्वतारोही तो था नहीं लेकिन एडवेंचर का उसे बहुत शौक था। उसी के चलते जगह-जगह जँगल, पर्वत, नदी, झीलें आदि जैसे उसे हमेशा अपने पास बुलाते रहते थे। ऐसे भी उसे पत्रकारिता और मीडिया के लिए एडवेंचर के फोटो और वीडियो बनाने का शौक था।

इस समय वह उत्तराखंड की सुदूर दुर्गम पहाड़ियों पर फोटोग्राफी करते हुए घना जंगल पार करके काफी दूर निकल आया था।

ये स्थान अन्य पहाड़ी स्थलों से काफी अलग था जिसमें एक बहुत बड़ा और घना मैदानी जँगल था उसके बाद एक छोटी हरीभरी पहाड़ी, उसके बाद एक बहुत गहरी नदी जिसकी चौड़ाई अपेक्षाकृत कम थी,उसके बाद फिर एक घास का मैदान और उसके पीछे गगनचुंबी पर्वतश्रंखला।

वह अपनी धुन में चलता इस सुरम्य दृश्य में ऐसा खोया की उसे ध्यान ही नहीं रहा कि सूर्य कब रँग बदल कर लाल हो गया था। और अब अंधेरा घिरने लगा था।

अभी वह अपनी धुन में जँगल पार करके उस छोटी पहाड़ी को देख ही रहा था कि अचानक उसे ऐसा लगा जैसे कोई छोटा बच्चा कोमल हँसी बिल्कुल उसके पीछे हँस रहा है। उसे उस हँसी में एक खनक के साथ ही उदासी का पुट भी सुनाई दिया। वह अब सपनी तन्द्रा से बाहर आ चुका था। उसने इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं, वह उस हँसी के सोर्स को तलाश कर रहा था।

अब वह उस हँसी की आवाज का पीछा करते हुए एक ओर बढ़ने लगा।

अब फिर उसका सारा ध्यान उस आवाज पर ही था। उसे अब अपने आस-पास कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। उसका मस्तिष्क अब उस आवाज को सुनकर केवल उसकी दिशा तय करने में व्यस्त था।

अपनी इस धुन में वह ये भी नहीं देख पाया कि जिस मोड़ से अभी-अभी वह बाएं मुड़ा है, उस पर 'हॉन्टेड एरिया' का पुराना बोर्ड लगा हुआ है।


अब वह पहाड़ी के बिल्कुल नज़दीक पहुँच चुका था। उसने सामने देखा, 'एक छोटी बच्ची जो कोई सात इस आठ साल की होगी। हाथ से सिला मोटे कपड़े का काला फ्रॉक पहने हुए थोड़ा झुकी हुई पहाड़ी पर चढ़ने की कोशिश कर रही थी। इसने उसे आवाज लगाई, "अरे बेटा आप कौन हो? और इतनी रात में अकेले यहाँ क्या कर रहे हो?"

बदले में इसे उस बच्ची की हँसी के अलावा कुछ सुनाई नहीं दिया। वह तेज़ी से पहाड़ी पर ऊपर चढ़ाई कर रही थी।

अब इसे घबराहट हुई कि शायद यह बच्ची परिवार से दूर गलती से निकल आयी है। 

"अरे बेटा!! रुको। सुनो मेरी बात, ऐसे अकेले मत दौड़ो। मैं तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ देता हूँ। इसने तेज़ आवाज में कहा।

बदले में इसे बच्ची की हँसी की आवाज में घुली हुई एक गम्भीर और कुछ अलग आवाज सुनाई दी, "आ जाओ फिर!!" 

"ठीक है आता हूँ लेकिन तुम ठहतो तो।" इसने उसकी बदली हुई आवाज़ पर ध्यान दिए बिना ही कहा और तेज़-तेज़ कदमों से पहाड़ी चढ़ने लगा।

यह अपनी तरफ से लगभग दौड़ ही रहा था लेकिन वह बच्ची सामान्य चाल से चलने के बावजूद इसकी पहुँच से दूर थी। बच्ची को बचाने की धुन में वह उसकी बदली हुई आवाज व उसकी चाल किसी भी चीज़ को नोटिस नहीं कर रहा था। वह बस उसकी तरफ बढ़ा चला जा रहा था।

अचानक उसे लगा कि सामने पहाड़ी खत्म हो रही है और नीचे खाई है, "बच्ची खाई में गिर जाएगी।" उसके दिमाग ने संकेत किया।

इसने घबराहट में आवाज लगाई, "रुक जाओ बिटिया, आगे खाई है, तुम गिर जाओगी।

इसकी आवाज पर बच्ची पल भर के लिए ठिठकी लेकिन जैसे ही ये उसके पास पहुँचा, उसने फिर एक जम्प लगा दी। ये उसे पकड़ने की झोंक में अपना संतुलन खो बैठा और फिसलकर नीचे खाई में गिरने लगा।

अचानक इसने देखा कि वह बच्ची उड़ते हुए ऊपर जा रही है। अब उसके हँसने की आवाज बहुत कर्कश और डरावनी थी।

वह बहुत जोर-जोर से हँस रही थी। अब उसका हुलिया भी एकदम बदल गया था। उसके शरीर से मांस गायब हो चुका था और उसका चेहरा बहुत डरावना हो गया था।

वह पहाड़ी की चोटी पर जाकर बैठ गयी और तेज़-तेज़ हँसते हुए बोली, "साले! सारे मर्द एक जैसे होते हैं; ठरकी सब के सब।" और फिर जोर से हँसने लगी।


नीचे गिरते ही इसने अपनी कमर में लगा कोई बटन दबा दिया था जिससे इसकी सुरक्षा जैकेट में लगा बैटरी चलित ब्लोवर चल गया और इसकी जैकेट में मात्र बीस सेकेंड में ही पर्याप्त हवा भर चुकी थी।

कुछ ही पल में ये नीचे जमीन पर गिरा किन्तु अपनी उस जैकेट की वजह से इसको बहुत मामूली सी चोट लगी। यह कुछ ही पल में उठकर खड़ा हो गया और धूल झाड़ने लगा।

इसे इसकी जैकेट ने बचा लिया था नहीं तो इतनी ऊंचाई से गिरने के बाद तो इसकी हड्डियों का चूर्ण बनना तय था।।

ये किसी तरह सँभलकर उठा लेकिन इसे उस स्थान पर बहुत तीव्र दुर्गन्ध का अहसास  हो रहा था।

इसने अपनी आँखों का अँधेरे के साथ सामंजस्य बिठाकर देखा, ये जिस जगह पर था वहाँ बहुत से नरकंकाल पड़े हुए थे। ऊपर से ये उन्हीं कंकालों के बीच में गिरा था। इन कंकालों पर लगे गले-सड़े माँस से ही ये दमघोंटू दुर्गंध उठ रही थी।

दुर्गंध इतनी तीव्र थी कि कुछ ही पलों में इसका दिमाग फटने लगा। उसे उल्टी होने को हो रही थी लेकिन किसी तरह उसने खुद को संभाल लिया।

बहुत ध्यान से देखने पर इसने पाया कि जहाँ यह गिरा है वह एक पत्थर की बहुत बड़ी चट्टान है और उसके नीचे से नदी में पानी बहने की तेज़ आवाज आ रही है। पत्थर की वह चट्टान बहुत ऊँची और सीधी थी उसपर एक अजीब तरह की फिसलन हो रही थी। जिसने बड़ी मुश्किल से खुद को फिसलकर नीचे गिरने से बचाया और उसके इस प्रयास में कई कंकाल अवश्य नीचे गिरे जो हवा के सम्पर्क में आकर चमकने लगे थे और जिंदा भूत जैसे दिखाई दे रहे थे। इसने खुद को संभालकर ऊपर देखा, वह चुड़ैल अपने शिकार को इस तरह बचा देखकर बहुत गुस्से में थी। उसकी आँखें अंगार बनी हुई थीं जैसे अभी इसे जलाकर भस्म कर देगी। इसने एक पल के लिए उससे आँखें मिलायीं, इसकी आँखों में अभी भी उसके लिए दया का भाव था।

अब इसका रुख नदी की ओर था। इसके दिमाग में दो चीजें थीं, एक तो ये की ऊपर पहाड़ी पर वह लड़की चुड़ैल बनी बैठी है जो इसको फिर मारने की कोशिश करेगी और दूसरा इस नदी के किनारे अवश्य ही कहीं ना कहीं कोई गाँव होगा।

किन्तु उस सपाट पत्थर की सिला पर से उतरने का कोई रास्ता इसे समझ नहीं आ रहा था तभी वह चुड़ैल बहुत जोर से गुस्से भरी आवाज निकालते हुए आँखें लाल अंगार किये अपने दोनों हाथ आगे बढ़ाए तेज़ी से इसकी ओर झपटी। उसकी लंबी बिना मांस की उँगलियाँ और लंबे-लंबे नाखून इसे साफ दिखाई दे रहे थे जो किसी छुरी की तरह इसकी गर्दन की ओर बढ़ रहे थे।

  इतनी देर में पहली बार इसके मुंह से घबराहट भरी चीख निकल पड़ी, "नहीं!!...!, अरे बिटिया मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है जो तू मेरे जीवन के पीछे पड़ गयी है? मैं तो तुझे बचाने के लिए इधर आया था और तू मेरे ही पीछे पड़ गयी।" अभी ये कह ही रहा था कि तब तक उसके हड्डियों बाले हाथ इसकी गर्दन पर आकर लिपट गए। उसकी ख़ंजर जैसी उँगलियाँ इसकी गर्दन पर कस गयीं। अब इसकी गिग्गी बंध रही थी, इसे लगने लगा था कि आज उसकी जिंदगी का आखिरी दिन है। अब ये चुड़ैल उसे जिंदा नहीं छोड़ेगी। अब उसे लोगों द्वारा सुनाई वे कहानियां याद आ रहीं थीं जिनमें बच्चा भूत और चुड़ैल की भयावहता होती थी। कहानियां बताती हैं कि ये बच्चा भूत बहुत जिद्दी होते हैं। अब वह गिड़गिड़ाने लगा था, अभी तक जिसे वह बच्ची समझ रहा था अब वही उसे एक खूँखार चुड़ैल नज़र आ रही थी फिर भी वह ,"बिटिया मुझे छोड़ दे…! बिटिया मुझे जाने दे की गुहार लगा रहा था। लेकिन इसकी आवाज अब गूँ.. गाँ के अलावा कुछ भी नहीं आ रही थी।

 अभी यह खुद को बचाने की जद्दोजहद कर ही रहा था कि इसे उसकी उंगलियों की पकड़ कुछ हल्की होती महसूस हुई। इसे लगा कि शायद अब उसकी पुकार चुड़ैल ने सुन ली है और वो उसे छोड़ देगी लेकिन उसका ये अनुमान एक वहम साबित हुआ और अब चुड़ैल उसे उठाकर ऊपर की ओर उड़ चली।

ऊपर पहाड़ी की चोटी पर जाकर चुड़ैल नें एक बार फिर बहुत डरावनी आवाज निकाली और इसे पूरी ताकत से नीचे उछाल दिया। वह इसके इस तरह जिंदा बचने से बहुत ज्यादा गुस्से में थी।

 अबकी बार चुड़ैल के धक्के की बजह से ये उस चट्टान पर ना गिर कर चट्टान से दूर नदी की रेत में गिरा, अपनी जैकेट की वजह से उसे चोट तो नहीं आयी थी फिर भी ये कुछ देर मरे मुर्दे के समान औंधा होकर कुछ देर ऐसे ही पड़ा रहा और तिरछी आँख से ऊपर देखने लगा।

  वह चुड़ैल कुछ देर तक इसे ऐसे पड़ा देखती रही और फिर शायद उसकी मौत से सन्तुष्ट होकर उसका रूप सौम्य होने लगा और वह गायब हो गयी।

 ये देखकर इसे कुछ चैन आया फिर भी करीब पंद्रह-बीस मिनट और ये ऐसे ही पड़ा रहा और जब उसे यक़ीन हो गया कि चुड़ैल जा चुकी है तो ये उठकर एक और चलने लगा।

  अब वह नदी के बहाव के साथ-साथ नदी किनारे चल रहा था।

रात गहरी होती जा रही थी, अँधेरा पूरी तरह घिर आया था। इसने अब एक पेड़ से बड़ी लकड़ी तोड़ कर उसे छड़ी बनाया हुआ था और उसी के सहारे अंधेरे में खुद को नदी के पत्थरों से ठोकर लगने से बचाता हुआ चल रहा था।

करीब दो घण्टे सतत चलने के बाद इसे नदी के दूसरे किनारे पर उम्मीद की रोशनी के रूप में एक टिमटिमाता दिया नज़र आया जो इस बात का संकेत था कि वहाँ अवश्य ही कोई घर है।

थोड़ा आगे बढ़ने पर इसे दूर-दूर छितराये हुए कुछ अन्य प्रकाश बिंदु भी दिखाईदेने लगे।

अब इसकी गति में तेज़ी आ गयी थी। यह लगभग दौड़ता हुआ उस बस्ती की और जा रहा था  कुछ ही दूर और जाने पर इसे नदी के दोनों किनारों को मिलाता  नदी पर किसी पुल के रूप में रखा एक शहतीर नज़र आया। ये ईश्वर को  याद करता हुआ उस पुल से होकर नदी पार कर गया और फिर तेज़ी से दौड़ता हुआ उस बस्ती में पहुँचा।

बस्ती में इसके पहुँचने के कुछ ही देर बाद लोग जाग गए और इसके आस-पास इकट्ठे हो गए। उस समय तक रात के कोई ग्यारह बजे थे।

इसने लोगों के कहने पर पहले अपने कपड़े उतार कर स्नान किया क्योंकि इसमें से भी वही दुर्गंध आ रही थी जो इसने चट्टान पर पड़े कंकालों में महसूस की थी, मानव मांस के सड़ने की बदबू।

खूब अच्छे से स्नान करने के बाद इसने गाँव वालों का दिया एक कुर्ता और धोती पहन ली। तब तक इसके भोजन और विश्राम का प्रबंध हो चुका था।

लोगों ने इसे सब कुछ भूलकर रात में आराम करने की सलाह दी।


सुबह हो गयी थी, दिन की लाली फैलते ही गाँव वाले उसके साथ घटी घटना को विस्तार से जानने के लिए इसके आस-पास इकट्ठे हो गए थे।

इसने गम्भीर होकर सबको अपने साथ घटी वह घटना बतायी, और ये भी कहा जो चुड़ैल बनकर सारे मर्दो के बारे में उसने कहा था।


"बेटा ये कोई पचास साल पुरानी बात है, तब हमारे गाँव उस पहाड़ी के पीछे ही हुआ करता था। हमारे गाँव का जमीदार लाखन सिंह बहुत दुष्ट और नीच प्रवृत्ति का इंसान था। वह हमेशा नशे में डूबा रहता था। गाँव की सभी बहु बेटियों पर उसकी बुरी नज़र रहती थी।

एक बार वह जंगल में शिकार के लिए गया था। वहीं पड़ोसी गाँव की एक आठ साल की बच्ची अपनी बकरियों के लिए पत्ते तोड़ रही थी।

पता नहीं नशे की अधिकता या उसके नीच चरित्र ने उसे वासना में अंधा बना दिया और वह बुरी नियत से उस लड़की की ओर झपटा।

वह बच्ची उससे बचने के लिए पहाड़ी की और दौड़ी ये  ज़ालिम भी उसके पीछे दौड़ा।

वह बच्ची इसकी बुरी नज़र से इसकी नियत भाँप गयी और उसने अपने सम्मान की रक्षा में उस पहाड़ी से नीचे छलांग लगा दी।

जमीदार उस हादसे के बाद चुपचाप अपने घर आ गया।  उस बच्ची के परिवार ने उसे बहुत ढूंढा लेकिन उसकी हड्डी भी किसी को नहीं मिली तो लोगों ने मान लिया कि या तो उसे कोई जंगली जानवर खा गया है या फिर वह नदी में वह गयी।

उस घटना के कुछ ही समय बाद जमीदार भी एक दिन पहाड़ी से ठीक उसी जगह से नीचे गिर गया जहाँ से वह बच्ची कूदी थी।

उसके बाद पहाड़ी पर एक सिलसिला शुरू हो गया, जो भी मर्द शाम या शाम के बाद उस पहाड़ी की ओर जाता वह गायब हो जाता। तब सारे गाँव वालों ने अंग्रेज सरकार में इसबातकी शिकायत की और उन्होंने वहाँ एक बोर्ड लगा दिया कि ये जगह भूतिया है और इधर आना मना है।

हमारे बड़े बुजुर्गों ने भी उसे 'शापित पहाड़ी' मानकर वह जगह खाली करके अपना गाँव यहाँ बसा लिया।" गाँव के एक  बुजुर्ग ने उसे सारी कहानी बताई।


"क्या उस बच्ची की मुक्ति का कोई उपाय नहीं हो सकता?" उसने प्रश्न किया।

"अब ये तो कोई पुजारी या तांत्रिक ही बता सकता है",  गाँव के मुखिया ने जवाब दिया।


शाम हो चली थी ये फिर उसी पहाड़ी के नीचे था और अपनी कल वाली ही दिशा में आगे बढ़ रहा था। कुछ ही देर में इसे वह लड़की नज़र आने लगी।

"रुको!! मेरी बात सुनो", इसने आवाज लगाई।

"आओ पकड़ो मुझे", उस बच्ची ने खिलखिलाते हुए कहा और कल की ही तरह पहाड़ी पर चढ़ने लगी।

"रुक जाओ!, मैं यहाँ तुम्हे पकड़ने या कुछ गलत करने नहीं आया हूँ। मुझे बस इतना बता दो की मैं तुम्हारी मुक्ति के लिए क्या कर सकता हूँ।

"मुक्ति!!!... मेरी मुक्ति..., कुछ नहीं कर सकता तू।

मैं अब अकेली नहीं हूँ। मेरे साथ सैकड़ों अतृप्त आत्माएँ हैं इस पहाड़ी पर। ये वही हैं जिन्हें मैंने मार डाला। ये सब मुझे औरत बनाना चाहते थे मैंने भूत बना  दिया सबको। हाहाहाहा..., कुछ नहीं कर सकता तू। चल पकड़ मुझे, अब मुझे इस खेल में मज़ा आता है। मुझे नहीं चाहिए कोई मुक्ति।", वह लड़की डरावना चेहरा बनाये बिल्कुल इसके कान के पास आकर बोली और अगले ही पल भयानक हँसी हँसती हुई आसमान में उड़ने लगी। फिर अचानक इसे लगा कि वह तेज़ी से सिर के बल नीचे गिर रही है।

"अरे!! संभालो खुद को, तुम्हें चोट लग जायेगी", इसने डरते हुए कहा।


"सबकी मुक्ति के लिए महायज्ञ करना होगा", वह गिरते हुए बिल्कुल इसके कान के पास रुकी और ये बोलकर पलक झपकते ही अपने पैरों पर खड़ी हो गयी।

"श्राध्द की मावस को", ये कहकर वह तेजी से मुड़ी और फिर उड़ती हुई उस पहाड़ी की चोटी पर जाकर बैठ गयी।


अब ये वापस गाँव लौट आया और गाँव वालों को बुलाकर सारी बात बताई तथा किसी योग्य पण्डित अथवा तांत्रिक के बारे में पूछा तब गाँव वालों ने उसे मांत्रिक 'कापालिक' जी का नाम सुझाया जो दूर पर्वत की चोटी पर साधना करते थे।

 अगले दिन सुबह ही ये बाबा कापालिक से मिलने पर्वत की चोटी पर चल दिया, इसके साथ गांव के दो नौजवान और भी थे। गाँववाले अब इसे अपना मेहमान और शुभचिंतक मान कर इसका बहुत ध्यान रख रहे थे। उन्हें विश्वास था कि ये उन्हें इस शापित पहाड़ी की आत्माओं से मुक्ति अवश्य दिलाएगा।

 ये लोग दोपहर ढलने से पहले ही पर्वत की उस दुर्गम चोटी पर पहुँच गए जहाँ बाबा कापालिक महाराज की कुटी बनी हुई थी। बाबा जी एक बड़े शाल वृक्ष के नीचे आसान लगाए ध्यान मग्न थे।

 इसने कापालिक महाराज के चरणों के पास जाकर बिना उन्हें हाथ लगाए दण्डवत प्रणाम किया। और उनके कुछ बोलने तक ऐसे ही पड़ा रहा।

 "उठो भक्त, कहो क्या समस्या है?" बाबाजी ने आँखे खोलकर उसे देखते हुए कहा।

 बाबा जी की आवाज़ सुनकर यह उठकर बैठ गया और उन्हें शुर से आखिर तक उस पहाड़ी पर घटने वाली सारी घटना और बच्ची की आत्मा का बताया हुए उपाय उन्हें बताया।

 "हुँह!!!" मुँह से एक हुंकार निकालकर बाबा जी ने अपनी आँखें बंद कर लीं और दो मिनट ध्यान के बाद आँख खोलकर बोले, "आसान नहीं है ये कार्य, वहाँ कोई एक आत्मा नहीं है। और उनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो उस जगह को छोड़कर जाना ही नहीं चाहते, बिल्कुल उस कीड़े की तरह जिसे चाहे जितनी बार बाहर निकालो फिर भी वह जाएगा नाली में ही। वे लोग अवश्य इस मुक्ति यज्ञ में विघ्न करेंगे।

 अभी श्राध्द की अमावस्या को आने में पूरे चालीस दिन हैं। इन्ही दिनों में हमें अपनी तैयारी करनी है। मैं कुछ सामान बता रहा हूँ उसे लिख लो और कल मेरे पास लेकर आओ। यज्ञस्थल पर जाने वाले लोगों को मांत्रिक सुरक्षा कवच धारण करने होंगे और जो लोग दूर से इस यज्ञ को देखेंगे उन्हें भी सुरक्षा घेरे में रहना होगा।

 यज्ञ के लिए सोलह लोगों की जरूरत होगी जो निडर और साहसी हों। कुछ भी घटित होता रहे वे लोग विचलित नहीं होने चाहिए। आप लोग जाकर सारी तैयारी करो और उन सोलह लोगों का चुनाव करो। कल सारा सामान लेकर यहाँ आ जाना।" बाबाजी ने कहा और ये लोग वापस आ गए।


उस घटना को चालीस दिन हो गए थे, श्राध्द पक्ष की अमावस्या आ गयी थी। आज गाँव वालों के सहयोग और इसके प्रयासों से पहाड़ी पर सभी ज्ञात-अज्ञात आत्मओं के लिए महायज्ञ हो रहा था।

 बाबा जी ने यज्ञस्थल के चारों ओर लाल रंग के चूर्ण से दो घेरे एक के अंदर एक बनाये हुए थे। गांव के सारे लोग जो इस पूजा को देखने आए थे वे इन दोनों घेरे के बीच में खड़े थे। उन्हें किसी भी परिस्थिति में घेरे से बाहर ना आने का निर्देश दिया गया था।

 इसके अलावा चौदह नौजवान सुरक्षा कवच पहने हुए यज्ञवेदी के चारों ओर बैठे हुए थे इनके बीच में बाबा कापालिक महाराज कुश के आसन पर विराजमान थे। कुल मिलाकर ये सोलह लोग यज्ञ में आहुति देने के लिए तैयार थे।

  बाबाजी ने पहले नवग्रह पूजन आदि करके सभी के ऊपर पवित्र जल छिड़का और फिर कोई मन्त्र पढ़कर हवनकुण्ड में आहुति डाली। उनकी आहुति के साथ ही हवनकुण्ड में अग्नि प्रज्वलित हो गयी और बाबा जी ने सभी को स्वाहा पर एक साथ आहुति डालने को कहकर मन्त्र पढ़ना शुरू किया-

 “ॐ हृीं क्लीं सर्व आत्मा स्थापयामि फट् स्वाहा।"

और जैसे ही आहुति यज्ञकुंड में पड़ी अचानक मौसम बदल गया। अभी तक जो आसमान साफ नजर आ रहा था वहाँ एकदम काला धुआँ फैल गया और चारों ओर अँधेरा छा गया। हवा सनसनाते हुए अचानक इतनी तेज हो गयी कि बड़े-बड़े पेड़ों की भी जड़ें हिलने लगीं। हवा की आवाज इतनी तेज थी कि सांय-सांय से कानों के पर्दे फटने लगे। बाबा जी ने गोले में खड़े सभी लोगों को एक दूसरे का हाथ पकड़कर नीचे बैठ जाने के लिए कहा और फिर से मन्त्र पढ़ने लगे।

 इस बार की आहुति पड़ते ही जैसे कोई भूकम्प ही आ गया हो… आसपास  सबकुछ थरथराने लगा पत्थरों के टकराने की आवाजें आने लगीं और कुछ पत्थर हवा में तैरने लगे। बाबा जी ने इशारे से इन लोगों को उधर ध्यान ना देने  को कहा और मन्त्र पढ़ने लगे।

 अब यहाँ का माहौल इतना डरावना था कि कोई भी डरकर बेहोश हो जाये। पत्थर हवा में तैरते हुए आपस में टकरा रहे थे, तरह-तरह की आवाजें आ रहीं थीं जिनका शोर कान फाडे दे रहा था। बाबाजी ने फिर कोई मन्त्र पढ़ा और आहुति हाथ में लेकर जोर से बोले, "आप सभी आत्माएं ध्यान से मेरी बात सुनों, हम ये जो भी आयोजन किया है वह आप लोगों की मुक्ति के लिए है, हम आप लोगों को इस घिनोनी यातना दायक प्रेत योनि से मुक्ति दिलाकर आपका ही भला कर रहे हैं।"

  "हुनण्ठह...हहह… हउन्ह..!!! निन्ह:.. चाहिए यहाँ किसी को मुक्ति! भाग जाओ यहाँ से नहीं तो सब मारे जाओगे। हमें मत छेड़ो नहीं तो सबको जलाकर भस्म कर देंगे।" एक भयानक आवाज जैसे लाखों भँवरे एक साथ गुँजार उठे हों वातावरण को चीरती हुई गूँज उठी।


"भस्म तो मैं तुम सभी पापी आत्माओं को कर दूंगा अगर तुमने अभी के अभी अपना ये तांडव नहीं समेटा तो।" बाबा जी ने गुस्से से भरकर कहा और कुछ मन्त्र पढ़कर हाथ में लिया हवन सामग्री फट की आवाज के साथ यज्ञकुंड में छोड़ दिया।

 यज्ञ में आहुति पड़ते ही हवनकुण्ड से आग की एक बड़ी लपट उठी और आसमान में फैल गयी। उसके फैलते ही धुआँ छँटने लगा, हवा शांत हो गयी और अब डरावनी आवाज की जगह दर्द और वेदना भरी चीख गूँज रही थी, "बचाओ हमें…! अरे रे हम जल रहे हैं, रोको इस आग को महाराज जी हम कुछ नहीं करेंगे।" 

 "फिर चुपचाप उस घेरे में खड़े हो जाओ सारे, जो भी इस घेरे से बाहर होगा ये आग उसे भस्म कर देगी।" बाबा जी ने लाल और काली रेखाओं से बने कुछ यंत्र रूपी घेरे की ओर इशारा करते हुए कहा और फिर मन्त्र पढ़ने लगे। सभी सोलह लोग एक साथ आहुति डाल रहे थे और उन सभी अतृप्त आत्माओं को सोलह श्राद्ध का फल एक साथ पहुँच रहा था। जैसे-जैसे आत्माओं की तृप्ति होती है रही थी वह धुआँ बनकर आकाश में विलीन होती जा रही थीं।


यज्ञ के बीच में इसे ऐसा लगा कि वह खुद इसकी गोद में बैठकर यज्ञ में आहुतियाँ दे रही है। अब वह बहुत मासूम और भोली दिख रही थी।

अचानक उसके चेहरे और भोली मुस्कान खिली और वह इसका गाल चूमकर उठ खड़ी हुई।

कुछ ही देर में वह धुआँ बनकर सदा के लिए अनन्त आकाश में विलीन हो चुकी थी।

इसके चेहरे पर एक अच्छे काम की संतुष्टि भरी मुस्कान थी।

समाप्त


©नृपेंद्र शर्मा "सागर"

ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

Sunday, May 8, 2022

अधूरी मूर्ति

1-सुमेरूगढ़ के विशाल खण्डहर वर्षो से लोगों के बीच कौतूहल का केंद्र बने हुए थे। कुछ लोग उन्हें मायावी कहते तो कुछ की नज़र में वे भुतहा खण्डहर थे जहाँ जाना आत्महत्या करने जैसा था। बात कुछ भी हो लेकिन उस समय कोई  भी अकेला उन खण्डहरों की ओर जाना नहीं चाहता था।

  कुछ लोग कहते थे कि उन खंडहरों में उस समय के राजा का बड़ा भारी खज़ाना छिपा हुआ है तो कुछ लोगों का मत था कि उसमें ख़ज़ाने का नक्शा छिपा है और वह खज़ाना सामने की पहाड़ी की किसी गुफा में छिपाया गया है।
  भुतहा, डरावने, मायावी या मौत के खण्डहर के नाम से विख्यात इस सुमेरूगढ़ का आकर्षण इसके नाम की भयावहता के बाबजूद भी कई लोगों को अपने साहस और बल की परीक्षा के लिए अपनी ओर खींचता रहता था। कई युवा जाने अनजाने इन खण्डहरों का रुख कर जाया करते थे किंतु कभी भी किसी ने सकुशल वापस आकर कभी भी इस खण्डहर हो चुके 'महल का रहस्यमय' किसी को नहीं बताया था। इसलिए इसका रहस्य बस किंवदंती ही बना हुआ था।
   तेजप्रताप अभी सोलह वर्ष का ही हुआ था, वह गुरु के आश्रम में शिक्षा ग्रहण कर रहा था। अपनी किशोरावस्था में भी तेजप्रताप नाम के अनुरूप ही सुदर्शन एवं बलिष्ठ था। उसके दमकते चेहरे पर राजकुमारों वाला गौरवमयी तेज़ था। ऊँचा लम्बा कद बलिष्ठ भुजाएं चौडा सीना और मजबूत भुजाएं पहली नज़र में ही उसके व्यक्तित्व का परिचय करा देती थीं।
तेज अपने घोड़े पर सवार होकर यूँही घोड़े को घुमाने निकल पड़ा था। यह यांत्रिक घोड़ा उसे गुरु आश्रम के पास ही एक जमीनी सुरँग के अंदर बने भवन में रखा मिला था। तेजप्रताप कौतूहलवश उसे वहाँ से बाहर ले आया और उसे ठीक से जमकर उसके ऊपर सवार हो गया।
तेज प्रताप को तब बहुत आश्चर्य हुआ जब उसने सवार होकर घोड़े की रास हिलाई और घोड़ा कदमताल करने लगा। तेजप्रताप अब घोड़े पर सवार होकर उसकी रास को खींचकर उसे दौड़ा रहा था।
वह यांत्रिक घोड़ा भी जैसे रास के साथ तेजप्रताप के मन की बात को समझ रहा था और बहुत अच्छी गति से दौड़ रहा था।
  तेजप्रताप सात वर्ष की आयु में ही गुरु के आश्रम में विद्यार्थी बनकर आ गया था और तभी से वह आश्रम में  ब्रह्मचारी बनकर रह रहा था।
  तेजप्रताप को आश्रम के बाहर की दुनियाँ का कुछ भी पता नहीं था अतः उसे जो मार्ग अच्छा लग रहा था वह उसी पर अपना घोड़ा मोड़ देता था।
  उसे इस यांत्रिक घोड़े के विषय में भी ज्यादा पता नहीं था। अब वह अपनी इस घुड़सवारी के दौरान आश्रम से कितनी दूर निकल आया था और किन मार्गों से आता था उसे तो इस बात की भी सुध नहीं थी। वह तो बस अपने आनन्द में इस कलपुर्जों वाले धातु के बने यांत्रिक अश्व को दौड़ाता ही जा रहा था और पल-पल बढ़ती इसकी गति देखकर मन ही मन खुश हो रहा था।  घोड़ा अबतक किसी भी घोड़े की संभावित गति से दोगुनी रफ्तार पार कर चुका था लेकिन तेजप्रताप का युवा मन जैसे इस गति से भी सन्तुष्ट नहीं था। और इसी असन्तोष के चलते उसने वह कर दिया जो उसने अभी तक नहीं किया था और जिसके परिणाम की भयावहता उसकी सोच से भी परे थी।
   तेजप्रताप ने बिना सोचे समझे पहले से ही हवा से शर्त लगाते अश्व को जोर से चाबुक मार दिया।
और ये क्या! चाबुक लगते ही घोड़ा जैसे गुस्से में भर गया... अभी तक वह अपने जिस सवार के इशारे पर दौड़ रहा था अब वही सवार उसे शत्रु नज़र आने लगा। घोड़े ने मुँह ऊपर करके बहुत भयानक शब्द उच्चारित किया और लगाम मुँह से बाहर उगल दी।
अब तेजप्रताप के हाथ में जो रास थी उसका नियंत्रण घोड़े पर से हट चुका था। अभी तेजप्रताप कुछ समझ पाता या घोड़े पर से कूद कर उतर पाता तबतक घोड़ा अपने पँख फैलाकर घोड़े से ड्रेगन बन चुका था और अभी तक जो घोड़ा हवा से बातें कर रहा था अब वह खुद आँधी बन चुका था। तेज़ को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था अतः उसने झुक कर घोड़े की गर्दन को कसकर पकड़ लिया था। अश्व की गर्दन के धातु के रोम तेज़ प्रताप के शरीर में छिद्र कर रहे थे और उनसे खून निकलने लगा था लेकिन अश्व की गति इतनी तीव्र थी कि तेजप्रताप चाहकर भी उसे छोड़ नहीं सकता था और गहन पीड़ा के बाबजूद उसने अपनी आंखें बंद करके घोड़े की गर्दन पकड़ी हुई थी।
  घोड़ा अपनी उसी गति से उड़ता हुआ सुमेरू की उस पहाड़ी के ऊपर से गुजरा जिसपर वह रहस्यमयी महल बना था और उसने पलटकर तेजप्रताप को उस पहाड़ी पर पटक दिया। तेजप्रताप बहुत तेज़ी से पहाड़ी पर गिरा और अपनी पीड़ा में वह ये भी नहीं देख पाया कि उसका वह मायावी घोड़ा कहाँ गया।

  कुछ देर निढाल पड़ा रहने के बाद तेज़ की तेज चलती साँसे कुछ सामान्य हुईं तब वह उठकर बैठ गया। उसके शरीर में बहुत सारे घाव थे हालांकि कोई भी घाव गम्भीर नहीं था फिर भी उनमें से उसका बहुत सारा खून बह रहा था। तेजप्रताप ने अपने अंगवस्त्र को कन्धों के ऊपर से डालकर पीठ से घुमाते हुए बगलों से निकलकर सीने पर कसकर बांध लिया जिससे उसके घाव काफी हद तक ढक गए। किन्तु अभी भी उसे बहुत तेज़ पीड़ा हो रही थी।
  काफी देर इस यात्रा की मेहनत और डर से जूझने और चोटिल होने के कारण उसे बहुत अधिक थकान का अहसास हो रहा था।  प्यास से उसका गला सूखने लगा था। तेजप्रताप ने खुद को संयमित किया और उठकर इधर-उधर देखने लगा।  वह अब किसी सुरक्षित शरणस्थली और पीने के लिए जल के स्रोत की खोज में था। उसने देखा कि ऊपर पहाड़ी पर कुछ पुराने भवन बने हुए हैं।
  "वहाँ पर भवन हैं, अर्थात अवश्य ही वहाँ कुछ लोग भी रहते होने। और यदि वहाँ कोई होगा तो अवश्य ही उसके पास जल और भोजन की भी व्यवस्था होगी", तेजप्रताप खुद ही में बुदबुदाया और उसके कदम पहाड़ी पर बने खण्डहर की ओर बढ़ चले।

2-

राजकुमार तेजप्रताप सिंह पहाड़ी पर चढ़ते हुए ऊपर महल की ओर बढ़ रहा था। पहाड़ी की वह पगडण्डी बहुत सँकरी और टेढ़ी थी, ऊपर से इतनी ऊबड़खाबड़ की जरा ध्यान चुके और यात्री धड़ाम से नीचे आ गिरे।
तेजप्रताप बहुत ध्यान से एक-एक कदम बढ़ाता है खुद को कंटीली झाड़ियां जो उस पूरे रास्ते पर भारी संख्या में उगी थीं उनमें उलझने और उनके काँटों से बचाता हुआ चढ़ता चला जा रहा था।
  प्यास के मारे उसके तालु में जैसे काँटे उग आए थे और उसके अंदर का शेष कुछ बूंद जल स्वेद बनकर बाहर बहता जा रहा था। हालांकि यह पसीना इस भीषण गर्मी में उसके चेहरे को ठंडक देकर सूर्यनारायण के तेज़ से उसे बचा रहा था।
लेकिन पानी की पल-पल उसके शरीर में होती कमी उसके कदमों को बोझिल बना रही थी।
  अब वह टूटा-फूटा खण्डहर हो चुका महल तेजप्रताप को अपने बिल्कुल सामने नज़र आ रहा था। तेजप्रताप को ऐसा लग रहा था जैसे यह स्थान उसका पूर्वपरिचित है और वहाँ कोई उसे बुला रहा है।
अब तेज़ अपनी थकान, प्यास और शारिरिक कमज़ोरी के बाबजूद बहुत तेज़ कदम बढ़ा रहा था।

तेजप्रताप ने उस खण्डहर हो चुके किले का सिंहद्वार पार किया तो उसे ऐसा लगा जैसे कोई परिचित हवा उसे छूकर गुजरी हो और उसमें बसी सुगन्ध को वह जन्मों से जनता हो। उसे लगा जैसे किसी ने उसके कान में एक मधुर स्वर फूँका हो।
अब आगे एक बड़ा सा सपाट मैदान था और उसके बाद एक बहुत विशाल महल के अवशेष और कुछ बची हुई इमारतें।
तेजप्रताप एक ओर तेज़ी से बढ़ा चला जा रहा था जैसे कोई उसे हाथ पकड़कर उधर ले जा रहा हो।
किन्तु यह मार्ग उस महल की ओर ना जाकर उसी पहाड़ी के पश्चिमी छोर पर जा रहा था जो उस सारे महल से बहुत अधिक ऊँची चोटी प्रतीत हो रही थी।
तेजप्रताप बिना अपनी थकान की परवाह किये तेज़ी से उस ओर बढ़ रहा था। उसके चेहरे पर विशेष मुस्कान खिली हुई थी। वह तेज़ी से चलते हुए ऊपर पहुँच चुका था। ऊपर नीचे की अपेक्षा एक बहुत छोटी समतल जगह थी जहां एक पुराना बरगद का पेड़ अपनी जटाओं को विस्तारित किये जैसे बाहें फैलाये किसी की प्रतीक्षा कर रहा था। तेज़ प्रताप तेज़ी से आगे बढ़कर उस वट वृक्ष के नीचे पहुँच गया और बैठकर अपनी चढ़ती हुई साँस को ठीक करने की कोशिश करने लगा। उसने अपने सूखे हुए गले में उगे काँटों से राहत पाने के लिए मुँह को लार को गटकने का प्रयास किया किन्तु यह उसके सूखकर चिपचिपे हो चुके गले को तर करने के लिए अपर्याप्त था।
अब एक बार फिर उसकी आँखें सम्भावित जल के स्रोत को तलाश करने लगीं।
तेजप्रताप को ऐसा लगा जैसे सामने पहाड़ी के कोने पर कोई सुंदर युवती ध्यानमग्न बैठी सामने दूसरी पहाड़ी चोटी को देख रही है। उसकी पीठ इस ओर दिखाई दे रही थी। तेज़ को ना जाने क्यों ऐसा लगा जैसे वह कन्या इसे पुकार रही है।
तेज़ प्रताप ने अपना अंगवस्त्र खोला और उसे झटक कर सीधा किया। अंगवस्त्र पर लगा उसके घावों का रक्त अब सूख चुका था तथा अब उसके घावों पर भी खून सूखकर जम चुका था।
तेजप्रताप ने अंग वस्त्र को कन्धों पर डाला और मूर्ति की ओर बढ़ने लगा। जैस-जैसे वह आगे बढ़ रहा था वही चिरपरिचित सुगन्ध उसे चारों ओर महसूस हो रही थी। तेजप्रताप अब उस मूर्ति के ठीक पीछे खड़ा हुआ था। वह सुंदर मूर्ति एक बलुआ पत्थर को तराश कर बनाई गई थी। पीछे से देखने से ही मूर्ति एक अप्सरा जैसी सुंदर युवती की लग रही थी। तेज़  घूमकर उसके सामने की ओर बढ़ा।
  मूर्ति में जो लड़की थी वह एक बड़े चबूतरे पर जैसे ध्यानमग्न बैठी हुई थी। मूर्तिकार ने इस मूर्ति को इतनी बारीकी से तराशा था कि उसका एक-एक अंग सजीव मालूम पड़ता था। उसके अंग अंग को सजीव उभार और कटाव दिए गए थे। तेजप्रताप की नजरें उसके पेट से होती हुई उसकी अकल्पनीय सुंदरता को देखती हुई ऊपर की ओर उठ रही रहीं। युवती के उन्नत सुडौल वक्ष पर एक पल उसकी दृष्टि ठहरी और फिर उसकी सुराहीदार लंबी सुंत्वा पतली लंबी गर्दन से ऊपर उठकर उसकी थोड़ी, होंठ और नाक की सुघड़ता को पल भर निहार कर उसकी आँखों की ओर चली गयीं।
  उस मूर्ति की आँखों को देखकर तेजप्रताप को निराशापूर्ण झटका लगा और अभी तक मूर्ति को देखते हुए जिस मूर्तिकार के सम्मान में उसका सिर झुका जा रहा था अब उसी की अकुशलता पर उसका मन खीज गया।
"लगता है वह मूर्तिकार इस कन्या की आँखे बनाना भूल गया, या फिर इस अनिंद्य सुंदरी के लिए वह उपयुक्त आँखों का चयन नहीं कर पाया। किन्तु जो भी हो यहाँ पर उस मूर्तिकार की अकुशलता स्पस्ट दिखाई देती है। अरे इतनी सुंदर युवती की आँखों की जगह बस  दो गड्ढे?? यह भला क्या बात हुई? इसमें तो मृग समान बड़ी और कटीली आँखें ही शोभायमान होतीं।", तेजप्रताप निराश औऱ क्रोध में बड़बड़ाया।
अब एक बार फिर वह उस मूर्ति के चारों ओर घूमकर उसका सूक्ष्मता से अवलोकन कर रहा था। मूर्ति बिल्कुल सही बनी थी बस उसके चेहरे में ही पता नहीं क्यों मूर्तिकार ने इतनी कमियाँ छोड़ रखी थीं। मूर्ति के सिर का पिछला हिस्सा भी बिल्कुल सपाट बना हुआ था और आँखों के गड्ढे पीछे से भी साफ दिखाई दे रहे थे। तेज़ प्रताप ना जाने क्या सोचकर चबूतरे पर चढ़ गया और उन गढ्डों पर अपनी आँखें रखते हुए बोला, "काश इस समय यहाँ कोई होता जो सामने से देखे बता पाता कि अब मेरी आँखों के साथ यह मूर्ति कैसी लग रही है।"
  तेजप्रताप ने अपनी आँखें खोलीं तो उसे सामने एक ऊँची पर्वत की चोटी नज़र आई जो नीचे से ऊपर बिल्कुल सीधी खड़ी हुई थी मानों कोई दीवार हो। उस चोटी और इस चोटी के बीच में एक चौड़ी नदी बह रही थी। नदी को देखते ही तेजप्रताप के चेहरे पर आशा की मुस्कान खिल उठी और वह मूर्ति से हटकर नीचे उतर आया।
  "ये नदी यहाँ से तो नज़र नहीं आ रही फिर मूर्ति की आँखों से?? कहीं तो कुछ रहस्य अवश्य है इस अधूरी मूर्ति का।" तेजप्रताप ने अपनी आँखों को इधर-उधर नदी की तलाश में घुमाते हुए कहा और फिर चबूतरे पर चढ़कर मूर्ति के पीछे जाने लगा।
क्रमशः.....