Saturday, May 14, 2022

शापित पहाड़ी

शापित पहाड़ी


कहानी

शापित पहाड़ी



वह अपनी मस्ती में घूमते-घूमते पहाड़ों में बहुत दूर निकल आया था।

ऐसे वह कोई पर्वतारोही तो था नहीं लेकिन एडवेंचर का उसे बहुत शौक था। उसी के चलते जगह-जगह जँगल, पर्वत, नदी, झीलें आदि जैसे उसे हमेशा अपने पास बुलाते रहते थे। ऐसे भी उसे पत्रकारिता और मीडिया के लिए एडवेंचर के फोटो और वीडियो बनाने का शौक था।

इस समय वह उत्तराखंड की सुदूर दुर्गम पहाड़ियों पर फोटोग्राफी करते हुए घना जंगल पार करके काफी दूर निकल आया था।

ये स्थान अन्य पहाड़ी स्थलों से काफी अलग था जिसमें एक बहुत बड़ा और घना मैदानी जँगल था उसके बाद एक छोटी हरीभरी पहाड़ी, उसके बाद एक बहुत गहरी नदी जिसकी चौड़ाई अपेक्षाकृत कम थी,उसके बाद फिर एक घास का मैदान और उसके पीछे गगनचुंबी पर्वतश्रंखला।

वह अपनी धुन में चलता इस सुरम्य दृश्य में ऐसा खोया की उसे ध्यान ही नहीं रहा कि सूर्य कब रँग बदल कर लाल हो गया था। और अब अंधेरा घिरने लगा था।

अभी वह अपनी धुन में जँगल पार करके उस छोटी पहाड़ी को देख ही रहा था कि अचानक उसे ऐसा लगा जैसे कोई छोटा बच्चा कोमल हँसी बिल्कुल उसके पीछे हँस रहा है। उसे उस हँसी में एक खनक के साथ ही उदासी का पुट भी सुनाई दिया। वह अब सपनी तन्द्रा से बाहर आ चुका था। उसने इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं, वह उस हँसी के सोर्स को तलाश कर रहा था।

अब वह उस हँसी की आवाज का पीछा करते हुए एक ओर बढ़ने लगा।

अब फिर उसका सारा ध्यान उस आवाज पर ही था। उसे अब अपने आस-पास कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। उसका मस्तिष्क अब उस आवाज को सुनकर केवल उसकी दिशा तय करने में व्यस्त था।

अपनी इस धुन में वह ये भी नहीं देख पाया कि जिस मोड़ से अभी-अभी वह बाएं मुड़ा है, उस पर 'हॉन्टेड एरिया' का पुराना बोर्ड लगा हुआ है।


अब वह पहाड़ी के बिल्कुल नज़दीक पहुँच चुका था। उसने सामने देखा, 'एक छोटी बच्ची जो कोई सात इस आठ साल की होगी। हाथ से सिला मोटे कपड़े का काला फ्रॉक पहने हुए थोड़ा झुकी हुई पहाड़ी पर चढ़ने की कोशिश कर रही थी। इसने उसे आवाज लगाई, "अरे बेटा आप कौन हो? और इतनी रात में अकेले यहाँ क्या कर रहे हो?"

बदले में इसे उस बच्ची की हँसी के अलावा कुछ सुनाई नहीं दिया। वह तेज़ी से पहाड़ी पर ऊपर चढ़ाई कर रही थी।

अब इसे घबराहट हुई कि शायद यह बच्ची परिवार से दूर गलती से निकल आयी है। 

"अरे बेटा!! रुको। सुनो मेरी बात, ऐसे अकेले मत दौड़ो। मैं तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ देता हूँ। इसने तेज़ आवाज में कहा।

बदले में इसे बच्ची की हँसी की आवाज में घुली हुई एक गम्भीर और कुछ अलग आवाज सुनाई दी, "आ जाओ फिर!!" 

"ठीक है आता हूँ लेकिन तुम ठहतो तो।" इसने उसकी बदली हुई आवाज़ पर ध्यान दिए बिना ही कहा और तेज़-तेज़ कदमों से पहाड़ी चढ़ने लगा।

यह अपनी तरफ से लगभग दौड़ ही रहा था लेकिन वह बच्ची सामान्य चाल से चलने के बावजूद इसकी पहुँच से दूर थी। बच्ची को बचाने की धुन में वह उसकी बदली हुई आवाज व उसकी चाल किसी भी चीज़ को नोटिस नहीं कर रहा था। वह बस उसकी तरफ बढ़ा चला जा रहा था।

अचानक उसे लगा कि सामने पहाड़ी खत्म हो रही है और नीचे खाई है, "बच्ची खाई में गिर जाएगी।" उसके दिमाग ने संकेत किया।

इसने घबराहट में आवाज लगाई, "रुक जाओ बिटिया, आगे खाई है, तुम गिर जाओगी।

इसकी आवाज पर बच्ची पल भर के लिए ठिठकी लेकिन जैसे ही ये उसके पास पहुँचा, उसने फिर एक जम्प लगा दी। ये उसे पकड़ने की झोंक में अपना संतुलन खो बैठा और फिसलकर नीचे खाई में गिरने लगा।

अचानक इसने देखा कि वह बच्ची उड़ते हुए ऊपर जा रही है। अब उसके हँसने की आवाज बहुत कर्कश और डरावनी थी।

वह बहुत जोर-जोर से हँस रही थी। अब उसका हुलिया भी एकदम बदल गया था। उसके शरीर से मांस गायब हो चुका था और उसका चेहरा बहुत डरावना हो गया था।

वह पहाड़ी की चोटी पर जाकर बैठ गयी और तेज़-तेज़ हँसते हुए बोली, "साले! सारे मर्द एक जैसे होते हैं; ठरकी सब के सब।" और फिर जोर से हँसने लगी।


नीचे गिरते ही इसने अपनी कमर में लगा कोई बटन दबा दिया था जिससे इसकी सुरक्षा जैकेट में लगा बैटरी चलित ब्लोवर चल गया और इसकी जैकेट में मात्र बीस सेकेंड में ही पर्याप्त हवा भर चुकी थी।

कुछ ही पल में ये नीचे जमीन पर गिरा किन्तु अपनी उस जैकेट की वजह से इसको बहुत मामूली सी चोट लगी। यह कुछ ही पल में उठकर खड़ा हो गया और धूल झाड़ने लगा।

इसे इसकी जैकेट ने बचा लिया था नहीं तो इतनी ऊंचाई से गिरने के बाद तो इसकी हड्डियों का चूर्ण बनना तय था।।

ये किसी तरह सँभलकर उठा लेकिन इसे उस स्थान पर बहुत तीव्र दुर्गन्ध का अहसास  हो रहा था।

इसने अपनी आँखों का अँधेरे के साथ सामंजस्य बिठाकर देखा, ये जिस जगह पर था वहाँ बहुत से नरकंकाल पड़े हुए थे। ऊपर से ये उन्हीं कंकालों के बीच में गिरा था। इन कंकालों पर लगे गले-सड़े माँस से ही ये दमघोंटू दुर्गंध उठ रही थी।

दुर्गंध इतनी तीव्र थी कि कुछ ही पलों में इसका दिमाग फटने लगा। उसे उल्टी होने को हो रही थी लेकिन किसी तरह उसने खुद को संभाल लिया।

बहुत ध्यान से देखने पर इसने पाया कि जहाँ यह गिरा है वह एक पत्थर की बहुत बड़ी चट्टान है और उसके नीचे से नदी में पानी बहने की तेज़ आवाज आ रही है। पत्थर की वह चट्टान बहुत ऊँची और सीधी थी उसपर एक अजीब तरह की फिसलन हो रही थी। जिसने बड़ी मुश्किल से खुद को फिसलकर नीचे गिरने से बचाया और उसके इस प्रयास में कई कंकाल अवश्य नीचे गिरे जो हवा के सम्पर्क में आकर चमकने लगे थे और जिंदा भूत जैसे दिखाई दे रहे थे। इसने खुद को संभालकर ऊपर देखा, वह चुड़ैल अपने शिकार को इस तरह बचा देखकर बहुत गुस्से में थी। उसकी आँखें अंगार बनी हुई थीं जैसे अभी इसे जलाकर भस्म कर देगी। इसने एक पल के लिए उससे आँखें मिलायीं, इसकी आँखों में अभी भी उसके लिए दया का भाव था।

अब इसका रुख नदी की ओर था। इसके दिमाग में दो चीजें थीं, एक तो ये की ऊपर पहाड़ी पर वह लड़की चुड़ैल बनी बैठी है जो इसको फिर मारने की कोशिश करेगी और दूसरा इस नदी के किनारे अवश्य ही कहीं ना कहीं कोई गाँव होगा।

किन्तु उस सपाट पत्थर की सिला पर से उतरने का कोई रास्ता इसे समझ नहीं आ रहा था तभी वह चुड़ैल बहुत जोर से गुस्से भरी आवाज निकालते हुए आँखें लाल अंगार किये अपने दोनों हाथ आगे बढ़ाए तेज़ी से इसकी ओर झपटी। उसकी लंबी बिना मांस की उँगलियाँ और लंबे-लंबे नाखून इसे साफ दिखाई दे रहे थे जो किसी छुरी की तरह इसकी गर्दन की ओर बढ़ रहे थे।

  इतनी देर में पहली बार इसके मुंह से घबराहट भरी चीख निकल पड़ी, "नहीं!!...!, अरे बिटिया मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है जो तू मेरे जीवन के पीछे पड़ गयी है? मैं तो तुझे बचाने के लिए इधर आया था और तू मेरे ही पीछे पड़ गयी।" अभी ये कह ही रहा था कि तब तक उसके हड्डियों बाले हाथ इसकी गर्दन पर आकर लिपट गए। उसकी ख़ंजर जैसी उँगलियाँ इसकी गर्दन पर कस गयीं। अब इसकी गिग्गी बंध रही थी, इसे लगने लगा था कि आज उसकी जिंदगी का आखिरी दिन है। अब ये चुड़ैल उसे जिंदा नहीं छोड़ेगी। अब उसे लोगों द्वारा सुनाई वे कहानियां याद आ रहीं थीं जिनमें बच्चा भूत और चुड़ैल की भयावहता होती थी। कहानियां बताती हैं कि ये बच्चा भूत बहुत जिद्दी होते हैं। अब वह गिड़गिड़ाने लगा था, अभी तक जिसे वह बच्ची समझ रहा था अब वही उसे एक खूँखार चुड़ैल नज़र आ रही थी फिर भी वह ,"बिटिया मुझे छोड़ दे…! बिटिया मुझे जाने दे की गुहार लगा रहा था। लेकिन इसकी आवाज अब गूँ.. गाँ के अलावा कुछ भी नहीं आ रही थी।

 अभी यह खुद को बचाने की जद्दोजहद कर ही रहा था कि इसे उसकी उंगलियों की पकड़ कुछ हल्की होती महसूस हुई। इसे लगा कि शायद अब उसकी पुकार चुड़ैल ने सुन ली है और वो उसे छोड़ देगी लेकिन उसका ये अनुमान एक वहम साबित हुआ और अब चुड़ैल उसे उठाकर ऊपर की ओर उड़ चली।

ऊपर पहाड़ी की चोटी पर जाकर चुड़ैल नें एक बार फिर बहुत डरावनी आवाज निकाली और इसे पूरी ताकत से नीचे उछाल दिया। वह इसके इस तरह जिंदा बचने से बहुत ज्यादा गुस्से में थी।

 अबकी बार चुड़ैल के धक्के की बजह से ये उस चट्टान पर ना गिर कर चट्टान से दूर नदी की रेत में गिरा, अपनी जैकेट की वजह से उसे चोट तो नहीं आयी थी फिर भी ये कुछ देर मरे मुर्दे के समान औंधा होकर कुछ देर ऐसे ही पड़ा रहा और तिरछी आँख से ऊपर देखने लगा।

  वह चुड़ैल कुछ देर तक इसे ऐसे पड़ा देखती रही और फिर शायद उसकी मौत से सन्तुष्ट होकर उसका रूप सौम्य होने लगा और वह गायब हो गयी।

 ये देखकर इसे कुछ चैन आया फिर भी करीब पंद्रह-बीस मिनट और ये ऐसे ही पड़ा रहा और जब उसे यक़ीन हो गया कि चुड़ैल जा चुकी है तो ये उठकर एक और चलने लगा।

  अब वह नदी के बहाव के साथ-साथ नदी किनारे चल रहा था।

रात गहरी होती जा रही थी, अँधेरा पूरी तरह घिर आया था। इसने अब एक पेड़ से बड़ी लकड़ी तोड़ कर उसे छड़ी बनाया हुआ था और उसी के सहारे अंधेरे में खुद को नदी के पत्थरों से ठोकर लगने से बचाता हुआ चल रहा था।

करीब दो घण्टे सतत चलने के बाद इसे नदी के दूसरे किनारे पर उम्मीद की रोशनी के रूप में एक टिमटिमाता दिया नज़र आया जो इस बात का संकेत था कि वहाँ अवश्य ही कोई घर है।

थोड़ा आगे बढ़ने पर इसे दूर-दूर छितराये हुए कुछ अन्य प्रकाश बिंदु भी दिखाईदेने लगे।

अब इसकी गति में तेज़ी आ गयी थी। यह लगभग दौड़ता हुआ उस बस्ती की और जा रहा था  कुछ ही दूर और जाने पर इसे नदी के दोनों किनारों को मिलाता  नदी पर किसी पुल के रूप में रखा एक शहतीर नज़र आया। ये ईश्वर को  याद करता हुआ उस पुल से होकर नदी पार कर गया और फिर तेज़ी से दौड़ता हुआ उस बस्ती में पहुँचा।

बस्ती में इसके पहुँचने के कुछ ही देर बाद लोग जाग गए और इसके आस-पास इकट्ठे हो गए। उस समय तक रात के कोई ग्यारह बजे थे।

इसने लोगों के कहने पर पहले अपने कपड़े उतार कर स्नान किया क्योंकि इसमें से भी वही दुर्गंध आ रही थी जो इसने चट्टान पर पड़े कंकालों में महसूस की थी, मानव मांस के सड़ने की बदबू।

खूब अच्छे से स्नान करने के बाद इसने गाँव वालों का दिया एक कुर्ता और धोती पहन ली। तब तक इसके भोजन और विश्राम का प्रबंध हो चुका था।

लोगों ने इसे सब कुछ भूलकर रात में आराम करने की सलाह दी।


सुबह हो गयी थी, दिन की लाली फैलते ही गाँव वाले उसके साथ घटी घटना को विस्तार से जानने के लिए इसके आस-पास इकट्ठे हो गए थे।

इसने गम्भीर होकर सबको अपने साथ घटी वह घटना बतायी, और ये भी कहा जो चुड़ैल बनकर सारे मर्दो के बारे में उसने कहा था।


"बेटा ये कोई पचास साल पुरानी बात है, तब हमारे गाँव उस पहाड़ी के पीछे ही हुआ करता था। हमारे गाँव का जमीदार लाखन सिंह बहुत दुष्ट और नीच प्रवृत्ति का इंसान था। वह हमेशा नशे में डूबा रहता था। गाँव की सभी बहु बेटियों पर उसकी बुरी नज़र रहती थी।

एक बार वह जंगल में शिकार के लिए गया था। वहीं पड़ोसी गाँव की एक आठ साल की बच्ची अपनी बकरियों के लिए पत्ते तोड़ रही थी।

पता नहीं नशे की अधिकता या उसके नीच चरित्र ने उसे वासना में अंधा बना दिया और वह बुरी नियत से उस लड़की की ओर झपटा।

वह बच्ची उससे बचने के लिए पहाड़ी की और दौड़ी ये  ज़ालिम भी उसके पीछे दौड़ा।

वह बच्ची इसकी बुरी नज़र से इसकी नियत भाँप गयी और उसने अपने सम्मान की रक्षा में उस पहाड़ी से नीचे छलांग लगा दी।

जमीदार उस हादसे के बाद चुपचाप अपने घर आ गया।  उस बच्ची के परिवार ने उसे बहुत ढूंढा लेकिन उसकी हड्डी भी किसी को नहीं मिली तो लोगों ने मान लिया कि या तो उसे कोई जंगली जानवर खा गया है या फिर वह नदी में वह गयी।

उस घटना के कुछ ही समय बाद जमीदार भी एक दिन पहाड़ी से ठीक उसी जगह से नीचे गिर गया जहाँ से वह बच्ची कूदी थी।

उसके बाद पहाड़ी पर एक सिलसिला शुरू हो गया, जो भी मर्द शाम या शाम के बाद उस पहाड़ी की ओर जाता वह गायब हो जाता। तब सारे गाँव वालों ने अंग्रेज सरकार में इसबातकी शिकायत की और उन्होंने वहाँ एक बोर्ड लगा दिया कि ये जगह भूतिया है और इधर आना मना है।

हमारे बड़े बुजुर्गों ने भी उसे 'शापित पहाड़ी' मानकर वह जगह खाली करके अपना गाँव यहाँ बसा लिया।" गाँव के एक  बुजुर्ग ने उसे सारी कहानी बताई।


"क्या उस बच्ची की मुक्ति का कोई उपाय नहीं हो सकता?" उसने प्रश्न किया।

"अब ये तो कोई पुजारी या तांत्रिक ही बता सकता है",  गाँव के मुखिया ने जवाब दिया।


शाम हो चली थी ये फिर उसी पहाड़ी के नीचे था और अपनी कल वाली ही दिशा में आगे बढ़ रहा था। कुछ ही देर में इसे वह लड़की नज़र आने लगी।

"रुको!! मेरी बात सुनो", इसने आवाज लगाई।

"आओ पकड़ो मुझे", उस बच्ची ने खिलखिलाते हुए कहा और कल की ही तरह पहाड़ी पर चढ़ने लगी।

"रुक जाओ!, मैं यहाँ तुम्हे पकड़ने या कुछ गलत करने नहीं आया हूँ। मुझे बस इतना बता दो की मैं तुम्हारी मुक्ति के लिए क्या कर सकता हूँ।

"मुक्ति!!!... मेरी मुक्ति..., कुछ नहीं कर सकता तू।

मैं अब अकेली नहीं हूँ। मेरे साथ सैकड़ों अतृप्त आत्माएँ हैं इस पहाड़ी पर। ये वही हैं जिन्हें मैंने मार डाला। ये सब मुझे औरत बनाना चाहते थे मैंने भूत बना  दिया सबको। हाहाहाहा..., कुछ नहीं कर सकता तू। चल पकड़ मुझे, अब मुझे इस खेल में मज़ा आता है। मुझे नहीं चाहिए कोई मुक्ति।", वह लड़की डरावना चेहरा बनाये बिल्कुल इसके कान के पास आकर बोली और अगले ही पल भयानक हँसी हँसती हुई आसमान में उड़ने लगी। फिर अचानक इसे लगा कि वह तेज़ी से सिर के बल नीचे गिर रही है।

"अरे!! संभालो खुद को, तुम्हें चोट लग जायेगी", इसने डरते हुए कहा।


"सबकी मुक्ति के लिए महायज्ञ करना होगा", वह गिरते हुए बिल्कुल इसके कान के पास रुकी और ये बोलकर पलक झपकते ही अपने पैरों पर खड़ी हो गयी।

"श्राध्द की मावस को", ये कहकर वह तेजी से मुड़ी और फिर उड़ती हुई उस पहाड़ी की चोटी पर जाकर बैठ गयी।


अब ये वापस गाँव लौट आया और गाँव वालों को बुलाकर सारी बात बताई तथा किसी योग्य पण्डित अथवा तांत्रिक के बारे में पूछा तब गाँव वालों ने उसे मांत्रिक 'कापालिक' जी का नाम सुझाया जो दूर पर्वत की चोटी पर साधना करते थे।

 अगले दिन सुबह ही ये बाबा कापालिक से मिलने पर्वत की चोटी पर चल दिया, इसके साथ गांव के दो नौजवान और भी थे। गाँववाले अब इसे अपना मेहमान और शुभचिंतक मान कर इसका बहुत ध्यान रख रहे थे। उन्हें विश्वास था कि ये उन्हें इस शापित पहाड़ी की आत्माओं से मुक्ति अवश्य दिलाएगा।

 ये लोग दोपहर ढलने से पहले ही पर्वत की उस दुर्गम चोटी पर पहुँच गए जहाँ बाबा कापालिक महाराज की कुटी बनी हुई थी। बाबा जी एक बड़े शाल वृक्ष के नीचे आसान लगाए ध्यान मग्न थे।

 इसने कापालिक महाराज के चरणों के पास जाकर बिना उन्हें हाथ लगाए दण्डवत प्रणाम किया। और उनके कुछ बोलने तक ऐसे ही पड़ा रहा।

 "उठो भक्त, कहो क्या समस्या है?" बाबाजी ने आँखे खोलकर उसे देखते हुए कहा।

 बाबा जी की आवाज़ सुनकर यह उठकर बैठ गया और उन्हें शुर से आखिर तक उस पहाड़ी पर घटने वाली सारी घटना और बच्ची की आत्मा का बताया हुए उपाय उन्हें बताया।

 "हुँह!!!" मुँह से एक हुंकार निकालकर बाबा जी ने अपनी आँखें बंद कर लीं और दो मिनट ध्यान के बाद आँख खोलकर बोले, "आसान नहीं है ये कार्य, वहाँ कोई एक आत्मा नहीं है। और उनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो उस जगह को छोड़कर जाना ही नहीं चाहते, बिल्कुल उस कीड़े की तरह जिसे चाहे जितनी बार बाहर निकालो फिर भी वह जाएगा नाली में ही। वे लोग अवश्य इस मुक्ति यज्ञ में विघ्न करेंगे।

 अभी श्राध्द की अमावस्या को आने में पूरे चालीस दिन हैं। इन्ही दिनों में हमें अपनी तैयारी करनी है। मैं कुछ सामान बता रहा हूँ उसे लिख लो और कल मेरे पास लेकर आओ। यज्ञस्थल पर जाने वाले लोगों को मांत्रिक सुरक्षा कवच धारण करने होंगे और जो लोग दूर से इस यज्ञ को देखेंगे उन्हें भी सुरक्षा घेरे में रहना होगा।

 यज्ञ के लिए सोलह लोगों की जरूरत होगी जो निडर और साहसी हों। कुछ भी घटित होता रहे वे लोग विचलित नहीं होने चाहिए। आप लोग जाकर सारी तैयारी करो और उन सोलह लोगों का चुनाव करो। कल सारा सामान लेकर यहाँ आ जाना।" बाबाजी ने कहा और ये लोग वापस आ गए।


उस घटना को चालीस दिन हो गए थे, श्राध्द पक्ष की अमावस्या आ गयी थी। आज गाँव वालों के सहयोग और इसके प्रयासों से पहाड़ी पर सभी ज्ञात-अज्ञात आत्मओं के लिए महायज्ञ हो रहा था।

 बाबा जी ने यज्ञस्थल के चारों ओर लाल रंग के चूर्ण से दो घेरे एक के अंदर एक बनाये हुए थे। गांव के सारे लोग जो इस पूजा को देखने आए थे वे इन दोनों घेरे के बीच में खड़े थे। उन्हें किसी भी परिस्थिति में घेरे से बाहर ना आने का निर्देश दिया गया था।

 इसके अलावा चौदह नौजवान सुरक्षा कवच पहने हुए यज्ञवेदी के चारों ओर बैठे हुए थे इनके बीच में बाबा कापालिक महाराज कुश के आसन पर विराजमान थे। कुल मिलाकर ये सोलह लोग यज्ञ में आहुति देने के लिए तैयार थे।

  बाबाजी ने पहले नवग्रह पूजन आदि करके सभी के ऊपर पवित्र जल छिड़का और फिर कोई मन्त्र पढ़कर हवनकुण्ड में आहुति डाली। उनकी आहुति के साथ ही हवनकुण्ड में अग्नि प्रज्वलित हो गयी और बाबा जी ने सभी को स्वाहा पर एक साथ आहुति डालने को कहकर मन्त्र पढ़ना शुरू किया-

 “ॐ हृीं क्लीं सर्व आत्मा स्थापयामि फट् स्वाहा।"

और जैसे ही आहुति यज्ञकुंड में पड़ी अचानक मौसम बदल गया। अभी तक जो आसमान साफ नजर आ रहा था वहाँ एकदम काला धुआँ फैल गया और चारों ओर अँधेरा छा गया। हवा सनसनाते हुए अचानक इतनी तेज हो गयी कि बड़े-बड़े पेड़ों की भी जड़ें हिलने लगीं। हवा की आवाज इतनी तेज थी कि सांय-सांय से कानों के पर्दे फटने लगे। बाबा जी ने गोले में खड़े सभी लोगों को एक दूसरे का हाथ पकड़कर नीचे बैठ जाने के लिए कहा और फिर से मन्त्र पढ़ने लगे।

 इस बार की आहुति पड़ते ही जैसे कोई भूकम्प ही आ गया हो… आसपास  सबकुछ थरथराने लगा पत्थरों के टकराने की आवाजें आने लगीं और कुछ पत्थर हवा में तैरने लगे। बाबा जी ने इशारे से इन लोगों को उधर ध्यान ना देने  को कहा और मन्त्र पढ़ने लगे।

 अब यहाँ का माहौल इतना डरावना था कि कोई भी डरकर बेहोश हो जाये। पत्थर हवा में तैरते हुए आपस में टकरा रहे थे, तरह-तरह की आवाजें आ रहीं थीं जिनका शोर कान फाडे दे रहा था। बाबाजी ने फिर कोई मन्त्र पढ़ा और आहुति हाथ में लेकर जोर से बोले, "आप सभी आत्माएं ध्यान से मेरी बात सुनों, हम ये जो भी आयोजन किया है वह आप लोगों की मुक्ति के लिए है, हम आप लोगों को इस घिनोनी यातना दायक प्रेत योनि से मुक्ति दिलाकर आपका ही भला कर रहे हैं।"

  "हुनण्ठह...हहह… हउन्ह..!!! निन्ह:.. चाहिए यहाँ किसी को मुक्ति! भाग जाओ यहाँ से नहीं तो सब मारे जाओगे। हमें मत छेड़ो नहीं तो सबको जलाकर भस्म कर देंगे।" एक भयानक आवाज जैसे लाखों भँवरे एक साथ गुँजार उठे हों वातावरण को चीरती हुई गूँज उठी।


"भस्म तो मैं तुम सभी पापी आत्माओं को कर दूंगा अगर तुमने अभी के अभी अपना ये तांडव नहीं समेटा तो।" बाबा जी ने गुस्से से भरकर कहा और कुछ मन्त्र पढ़कर हाथ में लिया हवन सामग्री फट की आवाज के साथ यज्ञकुंड में छोड़ दिया।

 यज्ञ में आहुति पड़ते ही हवनकुण्ड से आग की एक बड़ी लपट उठी और आसमान में फैल गयी। उसके फैलते ही धुआँ छँटने लगा, हवा शांत हो गयी और अब डरावनी आवाज की जगह दर्द और वेदना भरी चीख गूँज रही थी, "बचाओ हमें…! अरे रे हम जल रहे हैं, रोको इस आग को महाराज जी हम कुछ नहीं करेंगे।" 

 "फिर चुपचाप उस घेरे में खड़े हो जाओ सारे, जो भी इस घेरे से बाहर होगा ये आग उसे भस्म कर देगी।" बाबा जी ने लाल और काली रेखाओं से बने कुछ यंत्र रूपी घेरे की ओर इशारा करते हुए कहा और फिर मन्त्र पढ़ने लगे। सभी सोलह लोग एक साथ आहुति डाल रहे थे और उन सभी अतृप्त आत्माओं को सोलह श्राद्ध का फल एक साथ पहुँच रहा था। जैसे-जैसे आत्माओं की तृप्ति होती है रही थी वह धुआँ बनकर आकाश में विलीन होती जा रही थीं।


यज्ञ के बीच में इसे ऐसा लगा कि वह खुद इसकी गोद में बैठकर यज्ञ में आहुतियाँ दे रही है। अब वह बहुत मासूम और भोली दिख रही थी।

अचानक उसके चेहरे और भोली मुस्कान खिली और वह इसका गाल चूमकर उठ खड़ी हुई।

कुछ ही देर में वह धुआँ बनकर सदा के लिए अनन्त आकाश में विलीन हो चुकी थी।

इसके चेहरे पर एक अच्छे काम की संतुष्टि भरी मुस्कान थी।

समाप्त


©नृपेंद्र शर्मा "सागर"

ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

Sunday, May 8, 2022

अधूरी मूर्ति

1-सुमेरूगढ़ के विशाल खण्डहर वर्षो से लोगों के बीच कौतूहल का केंद्र बने हुए थे। कुछ लोग उन्हें मायावी कहते तो कुछ की नज़र में वे भुतहा खण्डहर थे जहाँ जाना आत्महत्या करने जैसा था। बात कुछ भी हो लेकिन उस समय कोई  भी अकेला उन खण्डहरों की ओर जाना नहीं चाहता था।

  कुछ लोग कहते थे कि उन खंडहरों में उस समय के राजा का बड़ा भारी खज़ाना छिपा हुआ है तो कुछ लोगों का मत था कि उसमें ख़ज़ाने का नक्शा छिपा है और वह खज़ाना सामने की पहाड़ी की किसी गुफा में छिपाया गया है।
  भुतहा, डरावने, मायावी या मौत के खण्डहर के नाम से विख्यात इस सुमेरूगढ़ का आकर्षण इसके नाम की भयावहता के बाबजूद भी कई लोगों को अपने साहस और बल की परीक्षा के लिए अपनी ओर खींचता रहता था। कई युवा जाने अनजाने इन खण्डहरों का रुख कर जाया करते थे किंतु कभी भी किसी ने सकुशल वापस आकर कभी भी इस खण्डहर हो चुके 'महल का रहस्यमय' किसी को नहीं बताया था। इसलिए इसका रहस्य बस किंवदंती ही बना हुआ था।
   तेजप्रताप अभी सोलह वर्ष का ही हुआ था, वह गुरु के आश्रम में शिक्षा ग्रहण कर रहा था। अपनी किशोरावस्था में भी तेजप्रताप नाम के अनुरूप ही सुदर्शन एवं बलिष्ठ था। उसके दमकते चेहरे पर राजकुमारों वाला गौरवमयी तेज़ था। ऊँचा लम्बा कद बलिष्ठ भुजाएं चौडा सीना और मजबूत भुजाएं पहली नज़र में ही उसके व्यक्तित्व का परिचय करा देती थीं।
तेज अपने घोड़े पर सवार होकर यूँही घोड़े को घुमाने निकल पड़ा था। यह यांत्रिक घोड़ा उसे गुरु आश्रम के पास ही एक जमीनी सुरँग के अंदर बने भवन में रखा मिला था। तेजप्रताप कौतूहलवश उसे वहाँ से बाहर ले आया और उसे ठीक से जमकर उसके ऊपर सवार हो गया।
तेज प्रताप को तब बहुत आश्चर्य हुआ जब उसने सवार होकर घोड़े की रास हिलाई और घोड़ा कदमताल करने लगा। तेजप्रताप अब घोड़े पर सवार होकर उसकी रास को खींचकर उसे दौड़ा रहा था।
वह यांत्रिक घोड़ा भी जैसे रास के साथ तेजप्रताप के मन की बात को समझ रहा था और बहुत अच्छी गति से दौड़ रहा था।
  तेजप्रताप सात वर्ष की आयु में ही गुरु के आश्रम में विद्यार्थी बनकर आ गया था और तभी से वह आश्रम में  ब्रह्मचारी बनकर रह रहा था।
  तेजप्रताप को आश्रम के बाहर की दुनियाँ का कुछ भी पता नहीं था अतः उसे जो मार्ग अच्छा लग रहा था वह उसी पर अपना घोड़ा मोड़ देता था।
  उसे इस यांत्रिक घोड़े के विषय में भी ज्यादा पता नहीं था। अब वह अपनी इस घुड़सवारी के दौरान आश्रम से कितनी दूर निकल आया था और किन मार्गों से आता था उसे तो इस बात की भी सुध नहीं थी। वह तो बस अपने आनन्द में इस कलपुर्जों वाले धातु के बने यांत्रिक अश्व को दौड़ाता ही जा रहा था और पल-पल बढ़ती इसकी गति देखकर मन ही मन खुश हो रहा था।  घोड़ा अबतक किसी भी घोड़े की संभावित गति से दोगुनी रफ्तार पार कर चुका था लेकिन तेजप्रताप का युवा मन जैसे इस गति से भी सन्तुष्ट नहीं था। और इसी असन्तोष के चलते उसने वह कर दिया जो उसने अभी तक नहीं किया था और जिसके परिणाम की भयावहता उसकी सोच से भी परे थी।
   तेजप्रताप ने बिना सोचे समझे पहले से ही हवा से शर्त लगाते अश्व को जोर से चाबुक मार दिया।
और ये क्या! चाबुक लगते ही घोड़ा जैसे गुस्से में भर गया... अभी तक वह अपने जिस सवार के इशारे पर दौड़ रहा था अब वही सवार उसे शत्रु नज़र आने लगा। घोड़े ने मुँह ऊपर करके बहुत भयानक शब्द उच्चारित किया और लगाम मुँह से बाहर उगल दी।
अब तेजप्रताप के हाथ में जो रास थी उसका नियंत्रण घोड़े पर से हट चुका था। अभी तेजप्रताप कुछ समझ पाता या घोड़े पर से कूद कर उतर पाता तबतक घोड़ा अपने पँख फैलाकर घोड़े से ड्रेगन बन चुका था और अभी तक जो घोड़ा हवा से बातें कर रहा था अब वह खुद आँधी बन चुका था। तेज़ को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था अतः उसने झुक कर घोड़े की गर्दन को कसकर पकड़ लिया था। अश्व की गर्दन के धातु के रोम तेज़ प्रताप के शरीर में छिद्र कर रहे थे और उनसे खून निकलने लगा था लेकिन अश्व की गति इतनी तीव्र थी कि तेजप्रताप चाहकर भी उसे छोड़ नहीं सकता था और गहन पीड़ा के बाबजूद उसने अपनी आंखें बंद करके घोड़े की गर्दन पकड़ी हुई थी।
  घोड़ा अपनी उसी गति से उड़ता हुआ सुमेरू की उस पहाड़ी के ऊपर से गुजरा जिसपर वह रहस्यमयी महल बना था और उसने पलटकर तेजप्रताप को उस पहाड़ी पर पटक दिया। तेजप्रताप बहुत तेज़ी से पहाड़ी पर गिरा और अपनी पीड़ा में वह ये भी नहीं देख पाया कि उसका वह मायावी घोड़ा कहाँ गया।

  कुछ देर निढाल पड़ा रहने के बाद तेज़ की तेज चलती साँसे कुछ सामान्य हुईं तब वह उठकर बैठ गया। उसके शरीर में बहुत सारे घाव थे हालांकि कोई भी घाव गम्भीर नहीं था फिर भी उनमें से उसका बहुत सारा खून बह रहा था। तेजप्रताप ने अपने अंगवस्त्र को कन्धों के ऊपर से डालकर पीठ से घुमाते हुए बगलों से निकलकर सीने पर कसकर बांध लिया जिससे उसके घाव काफी हद तक ढक गए। किन्तु अभी भी उसे बहुत तेज़ पीड़ा हो रही थी।
  काफी देर इस यात्रा की मेहनत और डर से जूझने और चोटिल होने के कारण उसे बहुत अधिक थकान का अहसास हो रहा था।  प्यास से उसका गला सूखने लगा था। तेजप्रताप ने खुद को संयमित किया और उठकर इधर-उधर देखने लगा।  वह अब किसी सुरक्षित शरणस्थली और पीने के लिए जल के स्रोत की खोज में था। उसने देखा कि ऊपर पहाड़ी पर कुछ पुराने भवन बने हुए हैं।
  "वहाँ पर भवन हैं, अर्थात अवश्य ही वहाँ कुछ लोग भी रहते होने। और यदि वहाँ कोई होगा तो अवश्य ही उसके पास जल और भोजन की भी व्यवस्था होगी", तेजप्रताप खुद ही में बुदबुदाया और उसके कदम पहाड़ी पर बने खण्डहर की ओर बढ़ चले।

2-

राजकुमार तेजप्रताप सिंह पहाड़ी पर चढ़ते हुए ऊपर महल की ओर बढ़ रहा था। पहाड़ी की वह पगडण्डी बहुत सँकरी और टेढ़ी थी, ऊपर से इतनी ऊबड़खाबड़ की जरा ध्यान चुके और यात्री धड़ाम से नीचे आ गिरे।
तेजप्रताप बहुत ध्यान से एक-एक कदम बढ़ाता है खुद को कंटीली झाड़ियां जो उस पूरे रास्ते पर भारी संख्या में उगी थीं उनमें उलझने और उनके काँटों से बचाता हुआ चढ़ता चला जा रहा था।
  प्यास के मारे उसके तालु में जैसे काँटे उग आए थे और उसके अंदर का शेष कुछ बूंद जल स्वेद बनकर बाहर बहता जा रहा था। हालांकि यह पसीना इस भीषण गर्मी में उसके चेहरे को ठंडक देकर सूर्यनारायण के तेज़ से उसे बचा रहा था।
लेकिन पानी की पल-पल उसके शरीर में होती कमी उसके कदमों को बोझिल बना रही थी।
  अब वह टूटा-फूटा खण्डहर हो चुका महल तेजप्रताप को अपने बिल्कुल सामने नज़र आ रहा था। तेजप्रताप को ऐसा लग रहा था जैसे यह स्थान उसका पूर्वपरिचित है और वहाँ कोई उसे बुला रहा है।
अब तेज़ अपनी थकान, प्यास और शारिरिक कमज़ोरी के बाबजूद बहुत तेज़ कदम बढ़ा रहा था।

तेजप्रताप ने उस खण्डहर हो चुके किले का सिंहद्वार पार किया तो उसे ऐसा लगा जैसे कोई परिचित हवा उसे छूकर गुजरी हो और उसमें बसी सुगन्ध को वह जन्मों से जनता हो। उसे लगा जैसे किसी ने उसके कान में एक मधुर स्वर फूँका हो।
अब आगे एक बड़ा सा सपाट मैदान था और उसके बाद एक बहुत विशाल महल के अवशेष और कुछ बची हुई इमारतें।
तेजप्रताप एक ओर तेज़ी से बढ़ा चला जा रहा था जैसे कोई उसे हाथ पकड़कर उधर ले जा रहा हो।
किन्तु यह मार्ग उस महल की ओर ना जाकर उसी पहाड़ी के पश्चिमी छोर पर जा रहा था जो उस सारे महल से बहुत अधिक ऊँची चोटी प्रतीत हो रही थी।
तेजप्रताप बिना अपनी थकान की परवाह किये तेज़ी से उस ओर बढ़ रहा था। उसके चेहरे पर विशेष मुस्कान खिली हुई थी। वह तेज़ी से चलते हुए ऊपर पहुँच चुका था। ऊपर नीचे की अपेक्षा एक बहुत छोटी समतल जगह थी जहां एक पुराना बरगद का पेड़ अपनी जटाओं को विस्तारित किये जैसे बाहें फैलाये किसी की प्रतीक्षा कर रहा था। तेज़ प्रताप तेज़ी से आगे बढ़कर उस वट वृक्ष के नीचे पहुँच गया और बैठकर अपनी चढ़ती हुई साँस को ठीक करने की कोशिश करने लगा। उसने अपने सूखे हुए गले में उगे काँटों से राहत पाने के लिए मुँह को लार को गटकने का प्रयास किया किन्तु यह उसके सूखकर चिपचिपे हो चुके गले को तर करने के लिए अपर्याप्त था।
अब एक बार फिर उसकी आँखें सम्भावित जल के स्रोत को तलाश करने लगीं।
तेजप्रताप को ऐसा लगा जैसे सामने पहाड़ी के कोने पर कोई सुंदर युवती ध्यानमग्न बैठी सामने दूसरी पहाड़ी चोटी को देख रही है। उसकी पीठ इस ओर दिखाई दे रही थी। तेज़ को ना जाने क्यों ऐसा लगा जैसे वह कन्या इसे पुकार रही है।
तेज़ प्रताप ने अपना अंगवस्त्र खोला और उसे झटक कर सीधा किया। अंगवस्त्र पर लगा उसके घावों का रक्त अब सूख चुका था तथा अब उसके घावों पर भी खून सूखकर जम चुका था।
तेजप्रताप ने अंग वस्त्र को कन्धों पर डाला और मूर्ति की ओर बढ़ने लगा। जैस-जैसे वह आगे बढ़ रहा था वही चिरपरिचित सुगन्ध उसे चारों ओर महसूस हो रही थी। तेजप्रताप अब उस मूर्ति के ठीक पीछे खड़ा हुआ था। वह सुंदर मूर्ति एक बलुआ पत्थर को तराश कर बनाई गई थी। पीछे से देखने से ही मूर्ति एक अप्सरा जैसी सुंदर युवती की लग रही थी। तेज़  घूमकर उसके सामने की ओर बढ़ा।
  मूर्ति में जो लड़की थी वह एक बड़े चबूतरे पर जैसे ध्यानमग्न बैठी हुई थी। मूर्तिकार ने इस मूर्ति को इतनी बारीकी से तराशा था कि उसका एक-एक अंग सजीव मालूम पड़ता था। उसके अंग अंग को सजीव उभार और कटाव दिए गए थे। तेजप्रताप की नजरें उसके पेट से होती हुई उसकी अकल्पनीय सुंदरता को देखती हुई ऊपर की ओर उठ रही रहीं। युवती के उन्नत सुडौल वक्ष पर एक पल उसकी दृष्टि ठहरी और फिर उसकी सुराहीदार लंबी सुंत्वा पतली लंबी गर्दन से ऊपर उठकर उसकी थोड़ी, होंठ और नाक की सुघड़ता को पल भर निहार कर उसकी आँखों की ओर चली गयीं।
  उस मूर्ति की आँखों को देखकर तेजप्रताप को निराशापूर्ण झटका लगा और अभी तक मूर्ति को देखते हुए जिस मूर्तिकार के सम्मान में उसका सिर झुका जा रहा था अब उसी की अकुशलता पर उसका मन खीज गया।
"लगता है वह मूर्तिकार इस कन्या की आँखे बनाना भूल गया, या फिर इस अनिंद्य सुंदरी के लिए वह उपयुक्त आँखों का चयन नहीं कर पाया। किन्तु जो भी हो यहाँ पर उस मूर्तिकार की अकुशलता स्पस्ट दिखाई देती है। अरे इतनी सुंदर युवती की आँखों की जगह बस  दो गड्ढे?? यह भला क्या बात हुई? इसमें तो मृग समान बड़ी और कटीली आँखें ही शोभायमान होतीं।", तेजप्रताप निराश औऱ क्रोध में बड़बड़ाया।
अब एक बार फिर वह उस मूर्ति के चारों ओर घूमकर उसका सूक्ष्मता से अवलोकन कर रहा था। मूर्ति बिल्कुल सही बनी थी बस उसके चेहरे में ही पता नहीं क्यों मूर्तिकार ने इतनी कमियाँ छोड़ रखी थीं। मूर्ति के सिर का पिछला हिस्सा भी बिल्कुल सपाट बना हुआ था और आँखों के गड्ढे पीछे से भी साफ दिखाई दे रहे थे। तेज़ प्रताप ना जाने क्या सोचकर चबूतरे पर चढ़ गया और उन गढ्डों पर अपनी आँखें रखते हुए बोला, "काश इस समय यहाँ कोई होता जो सामने से देखे बता पाता कि अब मेरी आँखों के साथ यह मूर्ति कैसी लग रही है।"
  तेजप्रताप ने अपनी आँखें खोलीं तो उसे सामने एक ऊँची पर्वत की चोटी नज़र आई जो नीचे से ऊपर बिल्कुल सीधी खड़ी हुई थी मानों कोई दीवार हो। उस चोटी और इस चोटी के बीच में एक चौड़ी नदी बह रही थी। नदी को देखते ही तेजप्रताप के चेहरे पर आशा की मुस्कान खिल उठी और वह मूर्ति से हटकर नीचे उतर आया।
  "ये नदी यहाँ से तो नज़र नहीं आ रही फिर मूर्ति की आँखों से?? कहीं तो कुछ रहस्य अवश्य है इस अधूरी मूर्ति का।" तेजप्रताप ने अपनी आँखों को इधर-उधर नदी की तलाश में घुमाते हुए कहा और फिर चबूतरे पर चढ़कर मूर्ति के पीछे जाने लगा।
क्रमशः.....



Friday, April 29, 2022

डूबा हुआ खज़ाना

डूबा हुआ खज़ाना


(ये कहानी एक परिकल्पना मात्र है, जिसे मनोरंजन के उद्देश्य से लिखा गया है।)





साल 2075, दुनिया में बहुत बदलाब हो चुके थे, जलप्रलय के बाद पृथ्वी रहने लायक नहीं रह गयी थी। दुनिया के विज्ञान के ज्ञान की सहायता से कुछ लोगों ने प्रलय का पहले ही पता लगा लिया था और कुछ लोग चन्द्रमा एवं मंगल ग्रह पर शिफ्ट कर गए थे। कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके पास दूसरे ग्रहों पर जमीन लेने और अंतरिक्ष यात्रा पर खर्चा करने के लिए पैसे भी नहीं थे।

ऐसे में उन लोगों ने योग का सहारा लिया और खुद को पानी में साँस लेने और जल में रहने के अनुकूल बनाने के लिए कठिन अभ्यास किया।


अब दुनिया की स्थिति ये थी कि पृथ्वी बिल्कुल निर्जन एवं बंजर हो चुकी थी। पेड़ पौधे तो दूर की बात है जमीन पर घास का तिनका भी नज़र नहीं आता था। जीवन का कोई भी संकेत पृथ्वी के किसी भी भाग में सम्भव नहीं लगता था। जल प्रलय से पहले ही सारे धनी लोग दूसरे ग्रहों पर चले गए थे। बाकी योगी लोगों ने प्रलय का भी दिल खोलकर स्वागत किया था और पानी बढ़ते ही समुद्र की तलहटी में चले गए थे। उन्होंने समुद्र की तलहटी में पत्थरों से अपने लिए अच्छे भवन भी बना लिए थे और कुछ जलीय जीवों से मित्रता भी स्थापित कर ली थी।

समुद्र की गहराई में जल के भीतर मानव बस्तियां इतनी सहजता से नहीं बन गयी थीं बल्कि उसकी नीव में बहुत से जलीय जीवों की अस्थियां दफन हुई थीं।जिन्होंने मनुष्यों का समुद्र तल में बसना सहज स्वीकार नहीं किया था और उनके इसी विरोध के प्रतिरोध में हुए खूनी संघर्ष में कितने ही जीवों की जान चली गयी थी।

इसके अलावा कुछ जीव जो सुंदर एवं छोटे थे उनकी नृशंस हत्या मानवों ने अपने घर सजाने के लिए कर दी थी।


अब स्थिति ये थी कि समुद्र की तलहटी में मानवों की छोटी-छोटी बहुत सारी बस्तियां बसी हुई थीं। इनमें ज्यादातर एक दूसरे के विरोधी थे। मानव की महत्वाकांक्षा ने अभी भी मानव का पीछा नहीं छोड़ा था  और वह अभी भी निरंतर अमानवीय व्यवहार कर रहा था।

ज्यादातर बस्तियों में आपस में संघर्ष होता रहता था जो अधिकतर समुद्र में पहले से डूबे जहाजों से मिलने वाले समान और ख़ज़ाने को लेकर होता था।

  अभी भी मनुष्य की सोना इकट्ठा करने की भूख मिटी नहीं थी। जबकि समुद्र के नीचे मानव जीवन के लिए किसी धन की आवश्यकता ही नहीं थी। जल में ना तो वस्त्र थे और ना ही कोई ऐसा भोजन जिसके लिए मूल्य  चुकाना पड़े लेकिन फिर भी मनुष्य खज़ाना इकट्ठा कर रहे थे, ये सोचकर कि कभी ना कभी तो हम लोग पृथ्वी पर वापस जाएँगे और वहाँ फिर से सोना, चाँदी, हीरे, जवाहरात का राज होगा।

जल में भोजन के लिए मानव जलीय जीवों पर निर्भर था और वस्त्रों के लिए बड़े जलीय जीवों की खाल पर।

ज्यादातर लोग मछली, सीप, घोंघे, सरिसृप एवं अन्य जलीय जीवों को कच्चा ही खा रहा था लेकिन धीरे-धीरे कुछ लोगों ने अपना भोजन पकाने की तकनीक भी निकाल ली थी। ऐसे ही धीरे-धीरे कुछ लोग जल के अंदर पृथ्वी जैसे अन्य सुख सुविधाओं के संसाधनों का अनुसंधान भी कर रहे थे।


अब हम चलते हैं अपनी कल्पनाओं में कहानी को जीने।


समुद्र तल के अंदर बहुत सारी बस्तियां थी और उनके अलग-अलग मुखिया भी खड़े हो गए थे। इनमें तीन मुख्य गुट थे। एक था गोरे लोगों का ग्रुप जिसमें थे अमरीकन, ब्रिटिश, पोलिश, आयरिश, आस्ट्रेलिया जर्मनी एवं दूसरे गोरे मुल्कों के लोग जिनका मुखिया था एंडरसन।

दूसरा ग्रुप था काले लोगों का अर्थात अफ्रीकन, कैरोवियन, नाइजीरिया एवं अन्य काले लोग। इनका मुखिया था वेराडो नामक व्यक्ति जो अफ्रीकी था।

और तीसरा ग्रुप जिसमें थे सारे एशियन,अरबी एवं भारतीय महादीप के लोग। इनका मुखिया था एक भरतीय जिसका नाम था शमशेर।

समुद्र के नीचे इन लोगों ने कई खरतनाक जीवों को भी पाल रखा था। हर मुखिया के पास व्हेल, शार्क, ऑक्टोपस और बड़े मगरमच्छ पल रहे थे जो इनकी सवारी भी थे और लड़ाके भी।


एंडरसन को कहीं से पता लगा कि पेसिफिक सागर में दूर कहीं गहराई में किसी बड़े जहाज के होने के संकेत मिले हैं। लेकिन पेसेफिक पर तो शमशेर का कब्जा है फिर कैसे खज़ाना हासिल किया जा सकता है। इससे पहके भी कई बार शमशेर और एंडरसन के बीच ऐसे हक खजानों को लेकर खूनी संघर्ष हो चुके थे। एंडरसन   को डर था कि कहीं उससे पहले शमशेर उस जहाज को  ढूंढ निकाले और खज़ाना प्राप्त कर ले। वह ये नहीं चाहता था कि खज़ाना शमशेर या वेराडो को मिले।

एंडरसन ने अपने कुछ खास लोग जो ऐसी खोज के विशेषज्ञ थे उन्हें गुप्त रूप से जहाज़ की पूरी जानकारी जुटाने के लिए भेजा।

इधर शमशेर के कुछ खोजी लोग भी उसी के आसपास कुछ छानबीन कर रहे थे। हालांकि उन्हें पता नहीं था कि उधर कोई पुराना जहाज डूबा हुआ है। 

वे तो बस सामान्य दिनों की तरह ही अपना खोज अभियान चला रहे थे।

इन तीनों ही दलों ने तीनों मुख्य समुद्रों को आपस में बांट रखा था। और अपने-अपने समुद्री सीमा में इनके खोज अभियान चलते रहते थे। 

लेकिन इतनी महामारी इतने विनाशकारी तूफान और अब महाप्रलय के बाद भी मानव सुधरा नहीं था। अभी भी उसकी सर्वशक्तिमान बनने की इच्छाएं मरी नहीं थी। अभी भी वह धन सम्पदा का मोह छोड़ नहीं पा रहा था। 


इसी क्रम में समुद्री ख़ज़ाने को लेकर ये तीनों बड़े गुट अक्सर आमने-सामने आते रहते थे और इनके भीषण युद्ध में कई लोग मारे जाते थे। और लोगों से अधिक मरते थे इनके पाले हुए समुद्री जीव जो अब इनकी संगत में रहकर खुद को परम शक्तिशाली सिद्ध करने में लगे हुए थे।


इन बड़े कबीलों के अलावा कई अन्य गुटनिरपेक्ष समुदाय भी थे जो समुद्री तलहटी में बस गए थे और ये लोग समुद्र के नीचे जीवन को सामान्य और सुरक्षित बनाने की नही विद्याएँ खोजने के लिए अभी भी योग कर रहे थे। इनमें भी काफी सारे भारतीय, चीनी, रशियन और जर्मनी के लोग शामिल थे। ये लोग ऐसे तो बहुत शक्तिशाली थे लेकिन ये लोग कभी भी ख़ज़ाने के लालच में किसी से नहीं लड़ते थे। इनका कहना था कि समुद्र के नीचे हमें किसी ख़ज़ाने की नहीं बल्कि आत्मबल और योग की शक्तियों की आवश्यकता है जिससे हम अपने जीवन को पृथ्वी के जीवन जितना ही सरल बना सकें। ये लोग इन तीनों कबीलों को भी शान्ति का संदेश सुनाते रहते थे। और यही योगी लोग इन कबीलों की लड़ाइयाँ शान्त करवाकर इनके बीच सामंजस्य स्थापित करने का कार्य भी करते थे।


ऐसे तो योगी लोग कभी युद्ध नहीं करते थे किंतु इनके योग की शक्ति को सभी जानते थे और इनसे डरते थे। इसी लिए इनका पूरे जल क्षेत्र में सम्मान होता था।


एंडरसन के खोजी दस्ते ने अपनी खोज पूरी करके बताया कि, "प्रशांत महासागर में दक्षिण पूर्व के मध्य क्षेत्र में एक बहुत बड़ा जहाज डूबा हुआ है। जहाज बनाबट के हिसाब से उन्नीसवीं शताब्दी का लगता है और वह कोई मालवाहक व्यापारिक जहाज़ है।

एंडरसन ये सुनकर खुश हो गया उसने अपने कुछ चुनिंदा लड़ाके इकठ्ठे किये और चुपचाप इस अभियान पर जाने के लिए निकल पड़ा।

इस अभियान के लिए इन्होंने दो नीली व्हेल के मुर्दा शरीरों को अपनी पनडुब्बी बनाया हुआ था। इनके आगे दस घड़ियाल और चार शार्क इनको रास्ता दिखाते हुए सामने से आने वाले हर खतरे से निपटने को तैयार पूरी मुस्तेदी से आगे बढ़ रहे थे।

इनके इन पनडुब्बी व्हेलों को खेने का काम कुछ व्हेल और कुछ बड़े ऑक्टोपस कर रहे थे जो इनके बिल्कुल नीचे नीली व्हेल से चिपके हुए खुद को छिपाकर आगे बढ़ रहे थे।

लेकिन इन्हें इस बात का बिल्कुल भी अंदेशा नहीं था कि वेराडो को भी इस खजाने की भनक है और वह भी अपनी चार व्हेल भरकर सैनिक इधर भेज चुका है...


एंडरसन की सेना तेज़ी से किन्तु पूरी शान्ति के साथ खुद को छिपाती हुई आगे बढ़ रही थी। उधर वेराडो को भी पता लग गया था कि कोई जहाज पेसिफिक सागर में उसकी और शमशेर की सीमाओं के बीचोंबीच देखा गया है और उसने भी अपनी सेना चार पनडुब्बियों में भरकर उस ओर भेज दी थी।

इधर शमशेर के खेमें में कुछ और ही खिचड़ी पक रही थी।

  "शमशेर भाई क्या हम लोग इस जहाज का माल पाने के लिए कुछ नहीं करेंगे?" शमशेर का एक खास साथी उससे पूछ रहा था।

"झामयू! हमें पता है कि उस जहाज का पता वेराडो और एंडरसन दोनों को ही लग चुका है, और दोनों ही किसी झपटमारों की तरह उधर लपक चुके हैं।

लेकिन अभी हमें कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है। इन्हें आपस में लड़ने भिड़ने दो, उसके बाद इनकी शक्ति खुद ही कम हो जाएगी और इनमें से जो भी जीतेगा उसके खिलाफ हारने वाले को हम अपने साथ मिलाकर जीतने वाले दल पर हल्ला बोल देंगे और फिर सारा माल...! हाहाहाहा!!!" शमशेर कुटिल अंदाज़ में हँसते हुए बोला।

"लेकिन सरदार वह जहाज तो हमारी सीमा में है। और उसका कोई पाँच परसेंट हिस्सा वेराडो की सीमा में!" तभी शमशेर का एक अन्य साथी बोल पड़ा।

"अरे पटेल, हर समय व्यापारी की तरह मत सोचा कर! अरे हमें भी पता है जहाज हमारी सीमा में है। और बाद में हम इसी बात को बेस बनाकर जीतने वाले कि पूंछ पकड़ेंगे की उसने हमारी सीमा में आकर अपने सैनिक लड़ाये, मतलब हम पर हमला  किया। तुम्हें नहीं पता पटेल और झामयू कि हमारे अलावा एक और महाशक्ति समुद्र में रहती है। और वे हैं शांतिदूत योगी लोग। यदि हमने ऐसे सीधे किसी पर हमला

किया तो वे लोग हमारे खिलाफ हो जाएंगे और हम नहीं चाहते कि हम लोग एक महाशक्ति से पंगा लें।

लेकिन जब वेराडो और एंडरसन हमारी सीमा में आकर अपनी मच्छी लड़ायेंगे तो हम शान्ति स्थापित करने के नाम पर जिसे चाहे उसे पीट लेंगे। इस तरह हम माल भी पा जाएँगे और योगी लोगों की सहानुभूति भी।" शमशेर ने समझाया।

शमशेर की बात सुनकर झामयू और पटेल अपने सरदार की चालाकी पर खुद ही खुशी से फूल कर गुब्बारे बन गए।

"अच्छा सुनों! ऐसा नहीं है कि हम उधर से बिल्कुल लापरवाह रहेंगे। तुम दोनों अपनी दो-चार छोटी मच्छी उधर की सारी गतिविधियों पर निगरानी करने के लिए तैनात रखना। और तुम दोनों खुद बारी-बारी से उधर मौजूद रहना।" शमशेर ने कुछ सोचकर उन्हें आदेश सा दिया।

"जी सरदार, समझ गए।" दोनों ने मुस्कुराते हुए एक साथ कहा।


पेसेफिक की तलहटी में एक बहुत बड़ा जहाज पड़ा हुआ था। इसका आगे का हिस्सा बुरी तरह टूट चुका था जैसे ये किसी बड़े पर्वत से टकराया हो। जहाज की रंगत पानी की काई से बिगड़ चुकी थी। इसमें कई जंगली पेड़-पौधे कवक और शैवाल उग आए थे। 

जहाज के चारों ओर इकट्ठे हुए पत्थर, बालू एवं सीप-घोंघों के मृत कवचों का ढेर देखकर लग रहा था की जहाज को डूबे बहुत समय गुजर चुका होगा। 

एंडरसन की फौज जहाज से कोई दो सौ मीटर उत्तर-पश्चिम में स्थिर होकर उसपर नज़र रखे हुए थे कि कहीं ऐसा तो नहीं कोई पहले ही जहाज पर कब्जा करके बैठा हुआ हो।

  "हम कब तक ऐसे दूर से बस इस सामने पड़े जहाज को देखते रहेंगे सेड्रिक?" एक व्यक्ति ने अपने मुखिया से पूछा। 

"सामने देखो पहले, वेराडो की सेना हमसे पहले इधर पहुँच गयी है, जाओ जाकर सरदार को ये बात बताओ और फिर जो उनका आदेश हो आकर हमें बताओ।" सेड्रिक ने उस व्यक्ति को वापस जाने को कहा।

सेड्रिक एंडरसन की इस सैनिक टुकड़ी का मुखिया था और उसके साथ अलग-अलग व्हेलों में कोई सौ से अधिक मानव सैनिक मौजूद थे। इसके साथ ही छोटे-बड़े सब मिलाकर करीब सौ ही जलीय जीव भी इनकी सेना में सैनिक की भूमिका निभा रहे थे।


उधर वेराडो की सेना की कमान कैलिस के हाथ में थी जो कि एक काला कैरेबियन था। वह शरीरिक रूप से किसी दैत्य जितना बड़ा था और ताकतवर इतना कि एक ही मुक्के से शार्क को भी तारे दिखा देता था।

उसके साथ भी कोई सत्तर-अस्सी मनुष्य और  सौ से अधिक खूँखार जलीय जीव थे।


वेराडो की सेना जहाज के दक्षिण पूर्व में कोई सौ मीटर पर डेरा जमाए बैठी हुई थी। ये लोग एंडरसन की सेना से पहले यहाँ पहुँचे थे और सामने से एंडरसन की सेना को आते हुए देखकर रुक गए थे वरना ये तो उस जहाज को बाप का माल समझकर ही उसे उठाने चले थे।

"कैलिस सर! ये तो एंडरसन की मछलियां हैं! इसका मतलब उसे भी जहाज की खबर लग गयी है। ये लोग तो संख्या में हमसे ज्यादा भी लग रहे हैं। अब हम क्या करेंगे?" कैलिस के एक साथी ने डरते हुए पूछा।

"तुम जाकर सारी बात सरदार को बताओ और फिर जो वे कहेंगे हम वही करेंगे।" कैलिस ने भी अपने साथी को वापस भेज दिया।

"क्या वहाँ शमशेर सिंह की ओर से कोई भी गतिविधि नहीं हो रही?" सारी बात सुनकर एंडरसन ने सन्देशवाहक से सवाल किया।

बिल्कुल यही प्रश्न वेराडो ने भी अपने सन्देशवाहक से पूछा और उनके मना करने पर दोनों ही सरदार गहरे आश्चर्य से भर गए।

  "ऐसा कैसे हो सकता है कि शमशेर के क्षेत्र में कोई जहाज खोजा गया हो और शमशेर सिंह आराम से सो रहा हो। इसके पीछे अवश्य ही उसकी कोई गहरी चाल है। हमें सावधानी से पहले शमशेर की गतिविधियों की जानकारी लेनी होगी उसके बाद ही हम कोई भी ऐक्शन लेंगे। हम वेराडो से तो फिर भी निपट लेंगे लेकिन ये शमशेर सिंह...! हमें कोई ऐसा काम नहीं करना जिससे हम सीधे शमशेर गैंग के दुश्मन हो जाएँ।" वेराडो ने अपने आदमी को कहकर वापस भेज दिया।

उधर एंडरसन ने भी शमशेर की गतिविधियों की जानकारी लेने के लिए अपने सिखाये हुए चार मेंढक और दो पातर उधर भेज दिए।



एंडरसन और वेराडो दोनों ही जहाज के आस-पास एक दूसरे की उपस्थिति से परेशान हो गए थे। अभी तक जो दोनों उस जहाज को हलवा समझ कर हड़प कर जाना चाहते थे अब वही जहाज इन दोनों को लोहे के चने बनता दिखाई दे रहा था। दोनों को ही इस बात की भी हैरानी थी कि अभी तक शमशेर की ओर से कोई भी हरकत क्यों नहीं हुई। क्या उसे इस 'डूबे हुए ख़ज़ाने' में कोई दिलचस्पी नहीं है?? बड़ी विचित्र बात थी कि लूट में हमेशा आगे रहने वाला शमशेर इस इतने बड़े जहाज के उसके खुद के इलाके में होने पर भी बिल्कुल शांत बैठा हुआ था।

और इसी बात को पता करने के लिए एंडरसन और वेराडो दोनों ही अपने छोटे जासूस शमशेर की तरफ भेज चुके थे।


शमशेर भी बिना तैयारी के नहीं बैठा था, उसके जासूस हमेशा एंडरसन और वेराडो कि जासूसी में तैनात रहते थे। आज भी उसके जासूसों ने उसे खबर कर दी कि उनकी गतिविधियों पर निगरानी करने एंडरसन और वेराडो कि मेंढकी और पातर निकल पड़ी हैं।

  शमशेर का दरबार सजा हुआ था उसके लोग उसके सिंहासन के नीचे जमा थे। शमशेर एक बड़े से कछवे की पीठ पर बैठा हुआ था। वह कछुआ इतना बड़ा था जैसे कोई बड़ी चट्टान ही वहाँ पड़ी हुई हो। शमशेर एक डाल्फिर का सहारा लिए अधलेटा सा हो रहा था। उसने मगरमच्छ की खाल से बने कपड़े पहने हुए थे। उसके सिर पर कछुए के कवच का ही मजबूत मुकुट था और हाथ में वालरस मछली का बहुत बड़ा दाँत हथियार के रूप में शोभित था। उस दाँत के निचले भाग को सोने और मोतियों से सजाया गया था। शमशेर का ये दरबार किसी महाराजा के दरबार से कम नहीं था।

"महाराज जहाज के बारे में क्या सोचा आपने जो पैसिफिक में पाया गया है?" किसी दरबारी में खड़े होकर पूछा।

"शम्भू, हमें उस जहाज में कोई दिलचस्पी नहीं है। तुम्ही बताओ एक सदी पुराने उस जहाज से हमें क्या मिल सकता है। और फिर धरती के जीवनकाल की कोई भी वस्तु और धन यहाँ हमारे किस काम की? उस जहाज से कुछ भी खोजना केवल समय और श्रम की बर्बादी मात्र है।" शमशेर सिंह ने बहुत बेपरवाही से कहा।

"लेकिन महाराज जहाज तो हमारी सीमा में है तो वह तो हमारा ही हुआ ना?" किसी अन्य दरबारी ने धीरे से खड़े होकर पूछा।

"अरे कुछ नहीं यदि कोई हमारी सीमा से उस कबाड़ को हटाता है तो वह तो हमारी सहायता ही करता है। बिना शुल्क हमारी सीमा की सफाई में।" शमशेर जोर से हँसते हुए बोला।

काफी देर शमशेर के दरबार में जहाज की चर्चा रही जिसका उद्देश्य केवल सारे जासूसों को ये दिखाना था कि शमशेर को जहाज और उसके माल से कोई मतलब नहीं है।

सारे जासूस सन्तुष्ट होकर चले गए और शमशेर का दरबार बर्खास्त हो गया।


"सरदार शमशेर को जहाज के किसी  माल में कोई इन्टरेस्ट नहीं है। वह तो जहाज को वहाँ से हटने पर खुश है। वह कोई विरोध नहीं करेगा इस मामले में।" वेराडो का एक जासूस शमशेर के दरबार से लौटकर बता रहा था।

"हमें इस बात पर विश्वास तो नहीं है लेकिन तुम इस हिसाब से बता रहे हो हम तुम्हारी बात से इनकार भी नहीं कर सकते। हो सकता है शमशेर कोई और योजना  बना रहा हो। फिर भी एंडरसन से सामने से लड़ते समय भी हमें पीछे से शमशेर से सावधान रहना होगा।" वेराडो ने अपने जासूस से कहा और खुद जहाज की ओर चलने की तैयारी करने लगा।


उधर एंडरसन का जासूस उसे शमशेर के दरबार की सारी कार्यवाही बता रहा था। और एंडरसन उसकी बातों को सुनकर शमशेर के बारे में विचार कर रहा था।

"जैकी, ये जो सारी बातें तुम बता रहे हो ये सब उस शमशेर के चरित्र से बिल्कुल उलट है।" एंडरसन कुछ सोचकर बोला।

"लेकिन बॉस हमने कई दिन से उसपर जासूसी की थी और सच में शमशेर की उस डूबे हुए जहाज में मोई रुचि नहीं है।" जैकी नाम का वह जसूस पूरे विश्वास से बोला।

  "ठीक है हम सेड्रिक के पास जाते हैं और तुम अपने साथियों के साथ शमशेर पर नज़र रखो और उसकी जरा सी भी हरकत की सूचना तुरन्त हमें दो। और एक दो आदमी योगियों पर नज़र रखने के लिए भी भेज दो। शमशेर से तो एक बार को हम लड़ भी लेंगे, लेकिन योगियों से समुद्र में कोई भी प्राणी मुकाबला नहीं कर सकता इसलिए उनका विरोध इस मामले में जरा भी होता दिखे तो तुरंत हम अपनी गतिविधियों को रोक देंगे।" एंडरसन ने जैकी को समझाया और जैकी हाँ में सिर हिलाकर निकल गया।

उसके जाने के बाद एंडरसन भी अपने चुनिंदा लोगों के साथ हथियार बाँधे निकल पड़ा पेसिफिक की ओर।


पैसिफिक की अनन्त गहराइयों में एक विशाल जहाज पड़ा हुआ था एक लंबे समय से बिना किसी हलचल के। दूसरी ओर उसकी दो दिशाओं में बड़ी-बड़ी सेनाओं के जमघट लगा हुआ था।

उसके पीछे था वेराडो का सैन्य बल जो जहाज से कोई  दो सौ मीटर दूर था और एंडरसन की सेना की गतिविधियों पर दृष्टि जमाये हुए था। 

उधर एंडरसन की सेना भी जहाज के बिल्कुल नज़दीक पहुँच रही थी।

  लगभग चार दिन से यही स्थिति बनी हुई थी। दोनों सेनाएं तिल-तिल करके आगे बढ़ रही थीं और इन दोनों के जसूस शमशेर पर नज़र रखे हुए थे।

पाँचवे दिन दोनों ही सेनाओं के सब्र टूट गया और दोनों सेनाएं एक साथ आगे बढ़ीं...!

"इस जहाज को सबसे पहले हमने देखा है इसलिए इसपर हमारा एकाधिकार है।" एक मूंगे की चट्टान का भोंपू पकड़े सेड्रिक जोर से चिल्लाकर बोला। भौंपू से उसकी आवाज और भारी होकर बिल्कुल किसी भैंसे जैसी निकल रही थी।

  "लेकिन हम कैसे मान लें? जब हम यहाँ पहुंचे तब यहाँ हमारे अलावा अन्य कोई भी नहीं था।"कैलिस ने भी मुँह के आगे सीप का भौंपू लगाकर जवाब दिया।

"किसी के होने या ना होने से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। ये जहाज हमारा है और हम किसी को इसकी एक कील भी नहीं ले जाने देंगे। तो समझ लो जो भी हमारे और उस जहाज के बीच आएगा उसका टिकट हम गॉड के घर का काट देंगे।" एंडरसन ने भौंपू सेड्रिक से छीनते हुए गुस्से से भरकर कहा।

"कौन कितने पानी में है उसका फैसला भी हो ही जायेगा। लेकिन जहाँ तक सवाल जहाज और उसके माल का है तो वेराडो किसी को अपना कटा हुआ नाखून ना दे, फिर ये तो पूरा जहाज है और वेराडो इस तक सबसे पहले पहुँचा है। तो अब ये सब वेराडो का है। और तुम्हारे लिए फ्री की सलाह यही है कि लौट जाओ अपने-अपने घर जिंदा रहोगे नहीं तो फिर मत कहना कि बताया नहीं था और सीधे टपका दिया। ऐसे भी मेरे घड़ियाल बहुत समय से आदमी का मांस नहीं चखे हैं। और मेरे एक इशारे के बाद उन्हें रोक पाना खुद मेरे बस में भी नहीं होगा।" वेराडो ने भौंपू अपने हाथ में लेकर बहुत मजाकिया लहजे में ये बातें कहीं। लेकिन वेराडो को जानने वाले जानते थे कि वह बातें जितनी कॉमिक करता है उतना ही वह क्रूर भी है। किसी की लाश से खाल उतार कर उसकी शेरवानी बना लेना उसके लिए बच्चों का खेला है।

"कोई यहाँ ये ना समझे कि हम उसकी बातों से डर गए। बातें करना बहुत आसान होता है, लेकिन जब कान पर तलवार खनकती है तो अच्छी-अच्छी पतलून भीग जाती हैं। जहाज का माल हमारा है और हम इसे अपने साथ लेकर ही जाएंगे। बाकी किसी को अपनी और अपने साथियों की लाशें हमें सीढ़ी बनाने के लिए देनी हैं तो उनकी मर्जी। हमारे हथियार भी अपनी धार परखने को बेचैन हैं।" एंडरसन ने भी वेराडो के ही अंदाज़ में जवाब दिया।

"ठीक है फिर आ जाओ देख ही लेते हैं किसमें कितना है दम। आओ मेरे साथियों जीत लें ये जंग हम।" वेराडो ने शायराना अंदाज़ में कहा और दोनों सेनाएं धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगीं…


वेराडो ने कैलिस की इशारा किया और वह अपनी सेना के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। वेराडो की सेना अब पनडुब्बियों से बाहर आ गयी थी और उनके पास विचित्र हथियार दूर से ही चमक बिखेर रहे थे।

इस दल के आगे चार बहुत बड़ी शार्क थीं, उनके पीछे दस घड़ियाल थे और दोनों साइड में बहुत बड़े बड़े केकड़ों की कतारें थीं जो अपने दोनों बाजू आपस में टकरा चिंगारियां निकाल रहे थे। उस घेरे के बीच में कोई दो ढाई सौ हथियार बन्द सैनिक थे जिनके कवच घड़ियाल की मजबूत पीठ से बने थे और सिर पर कछुए की खोपड़ी से बने सुरक्षा कवच अर्थत टोपियां थीं। कैलिस एक बडी पातर पर सवार था। कैलिस के हाथ में किसी धातु की बनी बहुत बड़ी तलवार थी और दूसरे हाथ में ढाल के रूप में कछुए की खोपड़ी पकड़े हुए था। कैलिस एक बहुत बड़े डील-डौल वाला काला केरेबियन था। वह उस चट्टान जैसे बड़े पातर पर बैठा हुआ किसी खूँखार भैंसे जैसा ही लग रहा था।

कैलिस के पीछे चार कतार आत्मघाती सैनिकों की थीं जो वेराडो के सुरक्षा भित्ति के कमांडो थे जो ना मरने से डरते थे और ना ही मारने से। उनमें से हर एक इतना शक्तिशाली था कि मगरमच्छ को जबड़ों से पकड़कर चीर सकता था।

उसके पीछे खुद वेराडो एक दरियाई घोड़े को लगाम लगाए पालतू बनाकर अपनी सेना का हौसला बढ़ा रहा था। वेराडो खुद भी बहुत बड़े शरीर वाला काला अफ्रीकी मानस था। उसकी ताकत इतनी अधिक थी कि वह एक ही घूँसे में बड़े-बड़े कछुओं को भी फोड़ डालता था। वेराडो बहुत रंगीन तबियत का मालिक था और वह हमेशा एंडरसन की गोरी प्रेमिकाओं के सपने देखता रहता था। सुंदर और गोरी लड़कियां उसकी जितनी बड़ी कमजोरी थीं उतनी ही बड़ी ताकत था उसका गुस्सा। वह बातें जितनी मजाकिया करता था गुस्से में टक्करें भी उतनी ही खूँखार तरीके से मारता था। उसके घूँसे और सिर की टक्कर से कितनी ही व्हेल, मगर और सार्क धराशायी हो चुकी थीं। वेराडो के ये सुरक्षा मित्र भी उसकी ही जितनी ताकत रखते थे। वह इन सब के साथ हमेशा मल्ल युद्ध का अभ्यास करता था। वह स्त्रियों के मामले में जितना दिलफेंक था उससे अधिक बदकिस्मत भी। कोई भी सुंदर लड़की अभी तक उसे नहीं मिली थी। उसकी दोनों प्रेमिकाएं अफ्रीकी मूल की ही थीं। जिनमें एक थी सेलिना जो केन्याई लड़की थी। वह रँग में काली अवश्य थी लेकिन उसका चेहरा इतना आकर्षक था कि किसी की भी नज़र उसपर ठहरे बिना आगे नहीं बढ़ सकती थी। और दूसरी थी युगान्डा मूल की लैटिना कैरिटोस। लैटिना भी बहुत सुडौल और आकर्षक थी। लेकिन वेराडो का सपना था गोरा रँग। वह इस मामले में कई बार एंडरसन एवं उसके समूह की लड़कियों के हाथों अपमानित हो चुका था और वह इस बात का भी बदला एंडरसन एवं उसके समूह की लड़कियों से लेना चाहता था।


उधर एंडरसन की फौज थी, गोरे यूरोपियन समूह के लोग जो अभी भी खुद को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। ये और बात थी कि पृथ्वी पर जीवन की तबाही के सबसे बड़े गुनहगार यही गोरे लालची लोग थे।

इन्ही की सर्वशक्तिमान बनने की लालसा ने विनाशक आविष्कार किये थे जो आगे चलकर धरती से जीवन समाप्त होने का कारण बने थे।

एंडरसन एक बहुत लम्बे कद का पतला किन्तु सुडौल, लगभग सफेद दिखने वाला अमेरिकी व्यक्ति था। वह दिखने में इतना आकर्षक था कि जो उसे देखता बस देखता ही रह जाता। उसके व्यक्तित्व के आकर्षण में ही उसकी प्रेमिकाओं की लिस्ट बहुत लंबी थी। उसकी इसी विशेषता के कारण वेराडो उससे जलता था। उसकी फौज का नेतृत्व सेड्रिक के हाथों में था। सेड्रिक खुद को शैतानों का मुखिया समझता था और क्रूर तरीकों से लोगों की हत्याएं करके खुश होता था। उसका प्रमुख हथियार था पिरहना मछली के तीखे दाँतों से बना बघनखा। उसके सिर से लेकर गर्दन और कंधों पर मगरमच्छ की पीठ का कवच था और सिर पर  मजबूर घोंघे का बना मुकुटनुमा टोपा। सेड्रिक एक बहुत बड़े केकड़े पर बैठा हुआ था जिसके पंजे बिल्कुल किसी जे सी बी के हाथ की तरह थे।

उसके आगे उसकी सेना की सुरक्षा घेरे में थे विशाल मगरमच्छ और ऑक्टोपस। उनके पीछे सेड्रिक के साथ कुछ दो सौ हथियार बन्द सैनिक। उनके पीछे अपने सुरक्षा कमांडोज से घिरा एंडरसन जो एक एनाकोंडा के  सिर पर सवार था और दो अन्य एनाकोंडा उनसे दोनों ओर से सुरक्षा घेरा बना रहे थे। एंडरसन के दाएं हाथ में किसी मगरमच्छ की खाल से बना हुआ एक हंटर नुमा हथियार था और दूसरे में एक तेज धार की तलवार जो शायद सोने से बनी हुई थी। एंडरसन के आदेश एवं

सेड्रिक के निर्देश में ये खूंखार सेना भी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी।

उधर वेराडो ने भी कैलिस को अपना दल आगे बढ़ाने का संकेत कर दिया था और उसके सैनिक जोश में भरे सदे हुए कदमों से आगे बढ़ रहे थे। 

सेड्रिक ने अपने मगरमच्छों को हमले का संकेत किया और उसके सारे मगर मुँह खोले तेजी से दुश्मन पर लपके।

उधर कैलिस के निर्देश पर खूँखार भूखी शार्कों ने अपने जबड़े खोल दिये और सारे घड़ियाल भी गुस्से से भरे पानी में पूँछ फटकारने लगे।


सेड्रिक और कैलिस आमने सामने थे। उनकी सेनाएं युद्ध के लिए मचल रही थीं। बहुत समय से इन समुद्री कबीलों ने कोई लड़ाई नहीं लड़ी थी। दोनों सेनाओं के जांबाज पूरे जोश से भरे हुए थे और मुस्तेदी से सामने नज़र रहे हुए आगे बढ़ रहे थे।

तभी कैलिस के संकेत पर दो घड़ियाल पानी के अंदर मिट्टी में समा गए। ये इनकी एक घातक चाल थी। अचानक ये घड़ियाल सेड्रिक के बिल्कुल सामने उसकी घेराबंदी के बीचोबीच जमीन से बाहर निकले और एक साथ सेड्रिक पर झपट पड़े। सेड्रिक जो कि एक विशाल केकड़े पर सवार था उसने अपने पैर के इशारे से अपने केकड़े को ऊपर ना कर लिया होता तो वह निश्चित ही इन घड़ियालों के घातक जबड़ों में फँस कर पिस चुका होता। लेकिन सेड्रिक बहुत चालाक और खूंखार लड़ाका था उसने झट से झुककर अपनी तेज़ तलवार चलाई और कैलिस के एक घड़ियाल की गर्दन भेद दी। सेड्रिक के घातक बार से वह घड़ियाल एक जोर की हिचकी लेकर गिर गया। लेकिन जब तक सेड्रिक पलटता तब तक वह दूसरा घड़ियाल जमीन में गायब हो चुका था।

सेड्रिक अफसोसजनक चेहरा बनाकर अभी कैलिस की सेना की तरफ पलटा ही था कि अचानक उसे बहुत जोर का धक्का लगा जैसे किसी ने उसके केकड़े के पेट पर जोरदार बार किया हो। यह वही दूसरा घड़ियाल था जो मिट्टी में चला गया था और अब अपनी पूरी शक्ति लगाकर नीचे से सेड्रिक के केकड़े पर अपना घातक बार कर चुका था। ये टक्कर इतनी तेज थी कि सेड्रिक गिरते-गिरते बचा। लेकिन जल्दी ही सेड्रिक का केकड़ा सँभल गया और घूमकर फिर उस घड़ियाल के सामने आ गया। अबतक सेड्रिक को बहुत तेज़ गुस्सा आ गया था तो वह एक झटके से सरककर केकड़े के पंजे पर आ गया और उसने अपने दोनों हाथों से उस घड़ियाल के जबड़े पकड़ लिए। घड़ियाल ने छूटने के लिए काफी पूँछ पटकी लेकिन सेड्रिक के घातक बघबख की पकड़ में जो एक बार आ जाये उसका बच निकलने का कोई भी प्रयास सफल होना लगभग असंभव ही था। सेड्रिक घड़ियाल के जबड़े पकड़ कर अपना पूरा जोर लगाने लगा। घड़ियाल का मुँह खुलने लगा, उसके जबड़े फैलने लगे और वह दर्द से अपनी पूँछ पानी में पटखने लगा।

कुछ ही पलों में सेड्रिक उस घड़ियाल को बीच से चीर कर फेंक चुका था। ये देखकर एक बार तो कैलिस के आगे बढ़ते जांबाज ठिठक गए लेकिन फिर कैलिस के जोश दिलाने पर फिर से सेना हमले के लिए आगे बढ़ने लगी।

उधर सेड्रिक की सेना सेड्रिक की इस विजय पर उत्साहित होती हुई हो...! हो...! करके शोर मचाती हुई आगे बढ़ने लगी। सेड्रिक ने जोर से चीख कर कुछ कहा जिसके फलस्वरूप सेड्रिक की सेना के विशालकाय मगरमच्छ मुँह खोलकर तेजी से कैलिस के दल पर झपट पड़े उनके साथ ही सारे ऑक्टोपस भी अपनी खून चूसने वाली भुजाओं को फैलाये शिकार की तलाश में तेज़ी से झपटे।

इन्हें आता देखकर कैलिस ने अपनी शार्क सेना को सतर्क कर दिया और उन्होंने अपने जबड़े कुछ और बड़े कर लिए लेकिन ये मगरमच्छ इन भूखी शार्क मछलियों के मुँह तक पहुँचने से पहले ही जमीन की ओर मुड़ गए और तेजी से शार्कों के नीचे से निकलते हुए सेना के बीच पहुँचने लगे। जल्दी ही इन शार्कों और उनके पीछे की घड़ियाली सेना को ये बात समझ आ गयी और अब शार्कों ने अपने जबड़ों का एंगल बदल लिया। इस बार शार्क कामयाब रहीं और देखते ही देखते आठ-दस मगरमच्छ इन भूखी शार्कों के निवाले बन गए। उधर कैलिस के घड़ियाल सेड्रिक के मगरमच्छों को ऐसे शार्कों से बचकर सेना के बीच में आते देखकर जमीन में पूँछ धँसाये एक के ऊपर एक खड़े होकर सुरक्षा दीवार बनाकर खड़े हो गए और कैलिस के मगरमच्छ बहुत तेज़ी से इन घड़ियालों से टकराये।

अब समुद्र की गहराई में एक अलग ही नजारा था। दो सौतेले भाई मगर और घड़ियाल दो अलग-अलग मनुष्यों के लिए आपस में मल्लयुद्ध कर रहे थे। घड़ियालों और मगरमच्छों की ये कुश्ती अनोखी थी जो शायद ही पहले कभी किसी ने देखी होगी। मगरमच्छ अपने तेज़ पंजों से घड़ियालों के पेट की कोमल चमड़ी फाड़ डालना चाहते थे तो घड़ियाल अपने घातक जबड़ों से पीसकर मगरमच्छ का चूरा कर देने को उद्धत थे। इस घमासान में इनकी पूँछ पटकने से उछली  बालू और मिट्टी से समुद्र के इस हिस्से का पानी गदला हो चुका था और अब ये अविस्मरणीय अकल्पनीय दृश्य धुँधला हो गया था।

उधर चार मगरमच्छ जो इस सब बवाल से बचकर कैलिस के सामने पहुँचने में कामयाब रहे थे अब कैलिस की पातर (एक बहुत बड़े आकार का कछुआ की प्रजाति का ही प्राणी जिसकी पीठ किसी परात जैसी बड़ी और चिकनी होती है। इसपर आराम से बैठकर सवारी की जा सकती है।) पर टक्कर मार रहे थे। ये मगरमच्छ उस पातर को उल्टा कर देना चाहते थे ताकि केलिश नीचे गिर जाए और ये भूखे दरिंदे उसको अपना भोजन बना सकें।

ये देखकर कैलिस ने अपनी पातर को ठोकर मारी और वह उसका इशारा समझ कर पानी की गहराई में नीचे हो गयी। तभी दो मगरमच्छ बहुत जोश से भरे कैलिस पर  झपटे ठीक उसी समय कैलिस ने अपने दोनों घूँसों का भरपूर बार उनपर किया और दोनों ही मगरमच्छों की कमर टूट गयी। अब वे दोनों अधमरे होकर पानी की तलहटी में गिरते जा रहे थे। ये देखकर बाकी दोनों मगरमच्छ वापस भागने के लिए पलटे लेकिन कैलिस के इशारे पर उसकी चतुर पातर ने एकदम से पैंतरा बदला और कैलिस ने झपटकर उनमें से एक मगरमच्छ की पूँछ पकड़ ली।

कैलिस ने अपने दोनों हाथों से उस मगरमच्छ को इतने  जोर से दबाया की दर्द से उसकी जीभ बाहर निकल आयी। बस यही उस बेचारे की सबसे बड़ी भूल साबित हुई। कैलिस ने उस मगरमच्छ की जीभ पकड़कर पूरी शक्ति से खींची और अब वह मगरमच्छ अपनी जीभ से मुँह धो बैठा। कैलिस मगरमच्छ की जीभ हाथ में पकड़े उसे घुमाते हुए  बहुत बीभत्स हँसी हँस रहा था और उसके इस रूप को देखकर सेड्रिक की आगे बढ़ती सेना के पाँव जैसे जाम हो गए थे।



सेड्रिक और कैलिस की शक्ति देखकर उनके साथी बहुत खुश हो रहे थे और दूसरी तरफ दोनों के ही विपक्षी सैनिक डरे हुए थे कि कहीं उनकी गर्दन इन शैतानों के पंजे में ना फँस जाए।

अब सेड्रिक के मगर और कैलिस के घड़ियाल भी सीधे इनके सामने आने से बच रहे थे।

अब सेड्रिक ने सीधे कैलिस को ललकारा,"इन जानवरों को मारकर खुद को अगर बहुत बहादुर समझ रहा है कैलिस तो ये तेरी भूल है। इस आत्ममुग्धता को छोड़ और वीरों की तरह सीधे-सीधे मेरा मुकाबला कर।"

    "मुकाबला!! हाहाहाहा!!, तू करेगा मेरा मुकाबला सेड्रिक? अरे कायर तू खुद अपने मगरमच्छ की फौज के पीछे ही सुरक्षित है। जा अपने मालिक एंडरसन को भेज, तेरे नाज़ुक बदन से मेरे वार नहीं झिलेंगे!", कैलिस ने जोर से हँसते हुए कहा।

  "सेड्रिक हूँ मैं...! मेरे जीवित रहते मेरे बॉस को तुझ जैसे कायर के सामने आना पड़े तो लानत है मुझपर। आ चल आज तुझे अहसास करा ही देता हूँ कि असली वीर क्या होता है।" सेड्रिक गरजा और उसने अपना केकड़ा कैलिस की ओर बढ़ा दिया।

सेड्रिक को बढ़ता देखकर उसके साथी भी उत्साह से भरे नारे लगाते हुए उसके पीछे हो लिए। उधर सेड्रिक को आता देखकर कैलिस के साथी और घड़ियाल घबराकर कर एक ओर हटते हुए सेड्रिक को रास्ता देने लगे।

"ले संभाल मेरा वार", सेड्रिक ने एक लम्बी चेन में बंधा हुआ काँटों वाला गोला हवा में घुमाकर कैलिस की ओर उछालते हुए कहा।

  कैलिस ने उसे देखकर बिना विचलित हुए अपनी जेब से चाँदी जैसी चमकदार एक चकरी निकाली और उसे घुमाकर एक विशेष कोण पर फेंक दिया। आश्चर्य की उस चकरी ने सेड्रिक की चेन और गोले को अलग-अलग कर दिया।

  अभी वह गोला छिटकता हुआ कैलिस की तरफ आ ही रहा था कि कैलिस के इशारे पर उसकी पातर नीचे जाकर झटके से ऊपर आयी और सेड्रिक की ओर बढ़ी। इसी फुर्ती के बीच कैलिस गोले से बचते हुए उसकी चेन पकड़ चुका था।

कैलिस ने उस चेन को इतनी शक्ति से झटका की उस से सेड्रिक अपना संतुलन खो बैठा और अपने केकड़े की पीठ से आगे की ओर गिरा गया। लेकिन गिरते-गिरते भी उसने केकड़े की एक भुजा पकड़ ली और अपने हाथ में लिपटी चेन छोड़ दी। इससे वह खुद को तो संभाल ही लिया साथ ही चेन के झटके से कैलिस भी चोट खा गया।

इस बात से चिढ़कर कैलिस ने अपनी पातर आगे बढ़ा दी। और अब भयंकर युद्ध शुरू हो गया। घड़ियाल और  मगर आपस में उलझ गए। केकड़े और ऑक्टोपस आपस में भिड़ गए। ऐसे ही बाकी सारे सैनिक और जानवर भी अपने-अपने जोड़ के योद्धाओं से लड़ने लगे। 

सेड्रिक और कैलिस भी अब आमने-सामने की लड़ाई लड़ रहे थे और अपने अस्त्र-शस्त्र ज्ञान का भरपूर प्रदर्शन कर रहे थे। दोनों ही योद्धा युद्धकला और बल में एक से बढ़कर एक साबित हो रहे थे। दोनों ही एक दूसरे के वारों को काट रहे थे और घातक वार अपने विपक्षी पर कर रहे थे। इधर युद्ध की भयावहता देखकर वेराडो और एंडरसन भी युद्व क्षेत्र की ओर बढ़ने लगे।

अभी कैलिस ने सेड्रिक के केकड़े के दोनों बाजू पकड़कर एक जोर का झटका मारा था जिससे उस केकड़े को बहुत चोट आई थी और सेड्रिक नीचे गिर गया था। सेड्रिक के गिरते ही कैलिस ने भी अपनी पातर पर से जम्प लगा दी और सेड्रिक का गला पकड़कर झूल गया।

सेड्रिक इस अप्रत्याशित हमले के लिए तैयार नहीं था फिर भी उसने अपने बचाव में अपने बघबख कैलिस की बाजू में गढ़ा दिए और उसके हाथों से अपना गला छुड़ाने का प्रयास करने लगा। सेड्रिक को पता था कि कैलिस की बाजूओं की शक्ति किसी चट्टान को भी मसल सकती है अतः उसने शीघ्र ही खुद को छुड़ाने के लिए कुछ नहीं किया तो ये युद्ध उसके जीवन का अंतिम युद्ध बन जायेगा।

सेड्रिक के बघबख कैलिस के हाथों में धँसकर उसका खून बहा रहे थे लेकिन इससे कैलिस की पकड़ पर कोई असर नहीं हो रहा था। वह आज अपनी पूरी शक्ति लगाकर सेड्रिक को खत्म कर देना चाहता था।

अभी ये जोर आजमाइश चल ही रही थी कि एंडरसन की इशारे पर उसके एनाकोंडा ने अपनी पूँछ बढ़कर कैलिस को लपेट लिया और उसे दबाकर खींचने लगा। ये देखकर वेराडो को बहुत गुस्सा आया और वह चीखकर बोला, "एंडरसन!! जब दो योद्धा आपस में मल्ल युद्ध लड़ रहे हों और दोनों जिंदा हों तो किसी तीसरे को उनके बीच नहीं आना चाहिए अन्यथा अंजाम अच्छा नहीं होता।",

और ये कहकर वेराडो ने अपना दतियाई घोड़ा उधर बढ़ाते हुए एक कछुए को उठाकर पूरी ताकत लगाकर इस एनाकोंडा के सर पर दे मारा। इस मार से बेचारे एनाकोंडा को पानी में आसमान के दर्शन हो गए और उसके आगे सितारे झिलमिलाने लगे।

लेकिन उसकी पूँछ के दबाब और सेड्रिक के बघबख के घाव से कैलिस की पकड़ पलभर को कमज़ोर पड़ी और इसी जस लाभ उठाकर कैलिस के हाथों को झटकते हुए सेड्रिक उसकी पकड़ से छूटकर एक मगरमच्छ की पीठ पर सवार हो गया और खुद को संभालने लगा।

कैलिस के बाजू भी बुरी तरह जख्मी हो गए थे तो वह भी कछुए की पीठ पर बैठकर अपनी सेना के बीच पहुँच गया और उसके साथी उसके घावों पर पट्टी बांधने लगे।

  इस घटना से वेराडो बहुत गुस्सा हो गया था और अब वेराडो और उसका दरियाई घोड़ा मौत बनकर एंडरसन की सेना पर टूट पड़े। 

वेराडो की तबाही देखकर एंडरसन भी अपने तीनों एनाकोंडा बढ़ाते हुए वेराडो की ओर लपका।

इधर कैलिस फिर से अपनी पातर पर बैठकर तलवार घुमाते हुए अपनी सेना के साथ एंडरसन की ओर बढ़ने लगा। 

सेड्रिक की गर्दन कैलिस की पकड़ से बुरी तरह जख्मी हो गयी थी और वह अभी भी संभल नहीं पा रहा था तो उसे उसके साथी सुरक्षित स्थान पर ले गए।

वेराडो और कैलिस दोनों ओर से एंडरसन की तरफ बढ़ रहे थे। एंडरसन के विशालकाय साँप फुफकारते हुए इनपर हमले के लिए घात लगा रहे थे।


7. 


वेराडो दायीं ओर से और कैलिस बायीं ओर से घात लगाए एंडरसन की ओर बहुत सावधानी से आगे बढ़ रहे थे। वेराडो के हाव-भाव देखकर लगता था मानों आज वह एंडरसन को मारकर उसके साम्राज्य का अधिपति बन ही जायेगा इधर कैलिस भी अपनी बहादुरी और स्वामिभक्ति दिखाने के लिए पूरी तरह समर्पित था।

 इधर एंडरसन के विशालकाय समुद्री साँप अपना चट्टान जैसा बड़ा सिर इधर उधर घुमाते हुए फूं-फूं करके अपना गुस्सा ज़ाहिर कर रहे थे।

  एंडरसन बीच में जिस एनाकोंडा के गर्दन पर बैठा हुआ था वह कुछ सावधान और ज्यादा ही चतुर मालूम होता था। वह बाकी दोनों राइट एवं लेफ्ट की तरह अपने सर को तेजी से इधर-उधर नहीं लहरा रहा था बल्कि अपने सर को स्थिर रखकर अपनी आंखों की तेजी से इधर उधर घुमाते हुए दोनों ओर बराबर नज़र रखता हुआ आगे बढ़ रहा था। उसने अपनी पूँछ को हथियार बनाया हुआ था और जितना सावधानी से उसने अपने सर को साध रखा था उतनी ही लापरवाही से वह अपनी पूँछ को पटक रहा था।

 उधर वेराडो ने अपने दरियाई घोड़े को कुछ इशारा किया और पलभर के लिए उसकी नज़र कैलिस की नज़रों से मिलीं बस इसी पल में इन दोनों की आंखों में कुछ सांकेतिक बात हुई और कैलिस ने भी कुछ कहते हुए अपने कछुए की पीठ थपथपा दी।

 

    अभी एंडरसन इन्हें देखकर कुछ समझने का प्रयास कर ही रहा था तभी ये दोनों अचानक एंडरसन के राइट लेफ्ट के सामने आकर तेज़ी से पीछे मुड़ गए। एंडरसन के दोनों एनाकोंडा इन्हें आसान चारा समझकर इनके पीछे लपके लेकिन तभी इन दोनों ने तेज़ी से दिशा परिवर्तन किया और फिर एक दूसरे की ओर तेज़ी से बढ़े। एंडरसन के दोनों समुद्री साँप अपने मुँह को गुफा बनाते हुए इनके पीछे लपके और जैसे ही ये दोनों एकदम पास आये इन्होंने अपनी गति बढ़ा दी और उसी तेजी से नीचे बैठ गए।

 बस उसी रफ्तार के जाल में एंडरसन के दोनों साँप फँस गए और जो मुँह उन्होंने वेराडो और कैलिस को निगलने के लिए फाडे थे वे आपस में ही एक दूसरे में उलझकर बुरी तरह घायल हो गए।

 ये टक्कर इतनी जोरदार थी कि तेज़ 'धड़ाम' की आवाज दूर तक सुनाई दी और जब वे दोनों अलग हुए तो दोनों के मुँह खून से धुले हुए थे और दोनों ही अपने सामने के दाँतों से हाथ धो बैठे थे।

 इस टक्कर के बाद उन दोनों का लड़ना तो दूर अब वे दोनों ठीक से उठ भी नहीं पा रहे थे तो एंडरसन के संकेत पर उसके घोडा बने एनाकोंडा ने अपनी पूँछ से उन दोनों को पीछे धकेल दिया। अब इस लड़ाई में सारी जिम्मेदारी उस बेचारे पर ही आ गयी थी। ऐसा वह समझ रहा था कि अब इस लड़ाई और एंडरसन इन दोनों का बोझ उसके कंधों पर है।

 और उसी बोझ के तले दबा वह बेचारा अपना दिमागी संतुलन खो बैठा और एंडरसन के संकेत को अनदेखा करता हुए वेराडो पर झपट पड़ा।

 वेराडो उसे आता देखकर सावधान हो गया और उसने पैंतरा बदल कर तेजी से अपनी चकरी उसकी तरफ उछाल दी। वेराडो कि तेज़ चकरी के वार से उस बेचारे एनाकोंडा की गर्दन लगभग आधी कट गई और उसका सिर एक ओर झूल गया।

 अब एंडरसन बिना सवारी का हो गया। और नीचे गिरने लगा। एंडरसन की उसी हालत का फायदा उठाते हुए कैलिस ने आगे बढ़कर अपनी तलवार का भरपूर बार एंडरसन की पूँछ पर किया और उसकी पूँछ चिंगारियां निकलती हुई एंडरसन से अलग हो गयी। उसी के साथ ही एंडरसन को साँस लेने में तकलीफ होने लगी और वह मुँह से बुलबुले निकलने लगा। एंडरसन ने अपने सीने पर बंधा हुआ उस पूँछ से जुड़ा एक गुब्बारेनुमा जैकेट उतार फैंका और बार-बार अपनी छाती की ठोकने लगा जैसे उसका दम घुट रहा हो। 

 अभी एंडरसन तड़फकर नीचे गिरा ही था तभी अचानक बहुत तेज़ शोर होने लगा। उस आवाज़ को सुनकर दोनों सेनाएं विश्राम की अवस्था में आ गयीं और सारे योद्धा सम्मान में झुककर खड़े हो गए। वेराडो और कैलिस के चेहरे अचानक ऐसे लटक गई जैसे किसी बच्चे से किसी ने उसकी चिज्जी छीन ली हो।

 "क्या हुआ यहाँ? क्या यही युद्ध के नियम हैं कि किसी का श्वशनतन्त्र की निष्क्रिय कर दिया जाए।

 योगी श्रीनन्द आप शीघ्र एंडरसन को दूसरा श्वशनतन्त्र लगाइए और इस लड़ाई के लिए जिम्मेदार सभी लोगों और जल में निवास करने वाले सभी समूहों के मुखियाओं की एक सभा बुलाइये। हम उस तरह नियम तोड़ने और अकारण युद्ध करके समुद्री जीवों के जीवन से खिलवाड़ करने वालों को कभी क्षमा नहीं करेंगे। अति शीघ्र ये सारा कचरा साफ करवाइए और सभा में सभी के उपस्थित होते ही हमें सूचना दीजिए", एक मजबूत कदकाठी का बलिष्ठ साधु वेशधारी अधेड़ गरजकर कह रहा था और सभी लोग उसकी आवाज से ही थर थर कांप रहे थे।

  "सब ही जायेगा गुरुदेव, आप निश्चिंत रहें", योगी श्रीनन्द ने आगे आकर हाथ जोड़कर झुकते हुए जवाब दिया।

 "इन लोगों को किसने बुलाया, हम आज ये लड़ाई जीतने ही वाले थे। उसके बाद जो कुछ भी एंडरसन का है वह सब मेरा होता, और तुम्हारा भी" वेराडो ने दबी जुबान में कैलिस से पूछा।

 "मुझे लगता है ये काम जरूर शनशेर और उसके आदमियों का है। वे कभी नहीं चाहते कि कोई भी ताकत उनसे ज्यादा आगे बढ़े।" कैलिस ने जवाब दिया।

तब तक योगी श्रीनन्द ने एंडरसन को नई जैकेट पहनकर उसकी पूँछ फिर से एंडरसन को लगाकर कुछ बटन दबा दिए। कुछ ही पलों में अपनी गर्दन को सहलाता हुआ एंडरसन उठ खड़ा हुआ।


 "जैसा कि आप सभी ने स्वामी जी की बात सुनी, मैं फिर वही बात दोहरा रहा हूँ कि आज यहाँ जो भी हुआ वह मनुष्यों के समुद्र में बसने से लेकर आज तक कभी भी नहीं हुए। आज उस नियम को तोड़ा गया है जो बहुत पहले आपसी सहमति से बनाया गया था कि किसी भी लड़ाई में कोई भी पक्ष किसी कर साँस लेने के यंत्र को नुकसान नहीं पहुंचायेगा। आप लोगों को क्या लगता है कि हम योगी लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। हमें पता नहीं चलता कि यहाँ कौन क्या खिचड़ी पका रहा है। अरे हम लोग मनुष्यों के जीवन को बचाये रखने के लिए नित कितने अनुसंधान कर रहे हैं और तुम लोग अपने स्वार्थ के चलते मनुष्य जीवन को ही मिटा रहे हो।

 क्या सोचा था एंडरसन और वेराडो? क्या समुद्र में डूबे इस जहाज का हमें नहीं पता था? लेकिन हम सोचते थे कि तुम लोग आपस में सुलह कर लोगे और ये सारा सामान जो भी इस जहाज में है उसे मानव जीवन के कल्याण नें लगाओगे। लेकिन नहीं!! तुम लोग तो एक दूसरे को ही मिटाने पर जुटे हो।

 अब जैसा कि गुरुजी ने कहा है यहाँ जो भी नुकसान हुआ है तुम लोग उसकी भरपाई करो और तुम्हारी लड़ाई में जो ये कचरा फैला है उसे साफ करो। बाकी लोग ध्यान से सुनें, जितने भी समूह समुद्र में हैं उन सभी के मुखिया अब से ठीक आठ घण्टे बाद हमारे आश्रम के सभाभवन में उपस्थित हों। सभी को ये संदेश पहुँच जाना चाहिए ", योगी श्रीनन्द ने तेज़ आवाज में कहा और फिर वह अपने साथियों के साथ वापस लौट गए।


8-


सभा जुड़ चुकी थी, योगी गुरु 'अखण्ड' एक ऊँचे पत्थर पर बैठे हुए थे। योगी अखण्ड के पीछे एक कतार में उनके साथी योगी लोग खड़े हुए थे। महाराज अखण्ड के चेहरे पर अद्भुत तेज़ था और उनकी आंखों की चमक सम्मोहित से करती प्रतीत होती थी। 


 योगी श्रीनन्द उनके ठीक दायीं ओर खड़े हुए थे और उनके पीछे दो अति बलिष्ठ विशलकाय पहलवान जैसे व्यक्ति खड़े हुए थे। उन दोनों की आँखे कैमरे के समान सामने की स्थिति पर जमी हुई थीं। उन दोनों के चेहरे भावविहीन थे किन्तु फिर भी एक सजग प्रहरी के भाव उनके चेहरे पर ना सही हावभाव में अवश्य झलक रहे थे।


 सामने शमशेर अपने चारों विश्वासपात्र साथियों के साथ बैठा हुआ था। उसके दायीं ओर वेराडो एवं कैलिस थे। तथा दायीं ओर एंडरसन एवं सेड्रिक को सहारा दिए हुए चार अमेरिकी ब्रिटिश मूल के योद्धा थे। उनके पीछे अन्य समूहों के लोग और उनके सहयोगी भी थे।


 ये सभाभवन समुद्र के अंदर होने पर भी बिल्कुल किसी मंदिर के प्रांगण जैसा दिखाई देता थ। पानी इसके अंदर लेशमात्र भी नहीं था। बिल्कुल ऐसा लग रहा था मानो जमीन पर बना कोई आलीशान भवन हो। प्रकाश के लिए पुराने समय के केरोसिन के लेम्प की तरह की काँच की बन्द चिमनियाँ लगी हुई थीं जिनके अंदर आग जलती दिखाई देती थी लेकिन धुआँ कहीं नहीं दिख रहा था। इन चिमनियों के अंदर साइड अर्धगोलाकार में जैसे चाँदी का लेप किया गया था। उस व्यवस्था से ये चिमनियाँ बहुत तेज़ प्रकाश उत्सर्जित कर रही थीं।


 शमशेर के मुख पर अनजानी खुशी की झलक थी जबकि वेराडो और एंडरसन की पार्टी के मुँह लटके हुए थे।


 महात्मा अखण्ड बहुत क्रोध में नज़र आ रहे थे और उनके पीछे की कतार के योगी लोग भी बहुत नाखुश ही दिखाई दे रहे थे। उनकी आँखों में ये नाराज़गी देखकर एंडरसन और वेराडो को और भय लग रहा था। सबसे अधिक डरा हुआ था कैलिस जिसने प्रत्यक्ष रूप में नियम को तोड़ा था।


  "हम सभी यहाँ क्यों उपस्थित हुए हैं आप में से बहुत सारे लोगों को पहले से पता है, और बाकी भी बहुत लोगों को अनुमान अवश्य है किंतु फिर भी हो सकता है कि कुछ लोगों को ना पता हो। तो आप लोगों को बता दें कि पेसिफिक समुद्र में हलचल होने के बाद एक पुराने डूबे हुए जहाज़ का पता लगा जो शमशेर और वेराडो की सीमा में है। तो नियमानुसार उस जहाज के माल पर पहला हक़ उन दोनों का हुआ और बाकी जहाज अपने कलपुर्जों सहित समाजकल्याण विभाग के अधिकार में दिया जाना चाहिए था। समाजकल्याण विभाग के वैज्ञानिक उसमें से अनेक काम के पुर्जे निकालकर श्वशनतन्त्र प्रणाली के यंत्र, हमारे शक्तियन्त्रों के लिए आवश्यक उपकरण और अन्य भी जो उनके काम की बस्तुएँ होती उसे लेने के बाद बाकी बची धातु आपलोगों को अपने उपयोग के यंत्र बनाने के लिए दे देते। किन्तु ऐसा हुआ नहीं और हमेशा की तरह एंडरसन और वेराडो के लालच ने इस बंटबारे को खूनी संघर्ष का रूप दे दिया। इस खूनी संघर्ष में इस बार एक और असमान्य बात हुई और वो ये की हनारे समुद्र वास के इतिहास में पहली बार किसी ने युद्ध के नियमों का उलंघन करके श्वशनतन्त्र को निष्क्रिय कर प्रतिद्वंद्वी को मारने जा कायरतापूर्ण प्रयास किया। आप लोगों को क्या लगता है कि क्या ये कृत्य क्षमायोग्य है?" योगी श्रीनन्द ने सबको सम्बोधित करते हुए कहा।


 "अक्षम्य है! सक्षम है!", पीछे से एक तेज़ शोर उठा।


 "आप लोगों को क्या लगता है, समुद्र का जीवन इतना सरल था जितना आप लोग जी रहे हो? समान्य मनुष्य पानी में दो मिनट से ज्यादा बिना साँस के जीवित नहीं रह सकता था। ये तो हमारे योगी लोग थे जिन्होंने अपने योगबल से पानी में तीस-चालीस मिनट तक साँस रोकने का अभ्यास किया और अपने उन्नत विज्ञान से इन छोटे श्वशनतन्त्र यंत्रो का निर्माण किया। आप जिन पूंछो को सामान्य समझकर मस्ती से इधर-उधर लहराते हुए जलविहार करते रहते हो, आप लोगों को पता है इसके अंदर कितने उच्च कोटि के विज्ञान और आधारित संयन्त्र लगे हुए हैं? पहले ये यंत्र इस समुद्र के खारे पानी से नमक अर्थात सोडियम क्लोराइड निकालता है जिससे पानी हल्का हो जाता है जो पीने के पानी की पूर्ति करता है और आगे प्रोसेसिंग में काम आता है।  आगे उस सोडियम से अन्य उत्प्रेरक बनाकर फिर उसके अगले खण्ड में  इलेक्ट्रोड्स की मदद से इस पानी से ऑक्सीजन निकालकर श्वशनतन्त्र के माध्यम से आपको प्राणवायु मिलती है। और सबसे महत्वपूर्ण है हाड्रोजन जो आपके इस संयन्त्र में लगे ईंजन को चलाने में ईंधन का काम करती है। बची हुई हाइड्रोजन आप लोगों की पीठ पर लगे सिलेंडरों में इकट्ठी होती है जिसे बाद में आप लोग बड़े संयन्त्र पर जमा कराते हो। इसी से आपने घर और भोजन का ईंधन मिलता है। सभी को ये बात पता है फिर भी इस जीवनचक्र को चलाये रखने के लिए साधन जुटाने के  स्थान पर लुटेरों की भाँति टूट पड़ते हो समुद्र में मिले किसी भी माल पर।


 आपको पता है इन संयंत्रों को बनाने में कितने इलेक्ट्रॉनिक पुर्जे लगते हैं। और इसके अलावा ये जलीय जीव? अरे मूर्खों अगर पहली बार इन विद्युत मछलियों ने संयन्त्र चलाने के लिए अपनी पॉवर ना दी होती तो तुम्हारा अंश भी जीवित ना होता। तुम लोग अपने स्वार्थ में इन मासूम जीवों की भी बलि चढ़ा देते हो। शर्म आनी चाहिए तुम लोगों को", इस बार महात्मा अखण्ड ने ये बात कही उनकी आवाज में क्रोध के साथ ही दुःख का भी प्रभाव था।


 समाने सभी लोग बिल्कुल शान्त बैठे हुए थे जैसे सभी ने जघन्य पाप किया हो। और किया भी था क्योंकि जैसा कि बताया गया समुद्र में उनका अस्तित्व केवल उनकी पूँछ अर्थात श्वशनतन्त्र से था और उन्होंने उसी को खिलौना बनाकर रख दिया था।


 "खामोश क्यों हो मूर्खो अब कुछ कहने के लिए नहीं बचा?", श्रीनन्द की तेज आवाज गूँजी।


 "कहना क्या है श्रीमंत, इन दोनों से पाप हुआ है किंतु मैं इन दोनों की ओर से क्षमा मांग रहा हूँ और वचन देता हूँ कि आप लोग इस जहाज को जैसे बाँटेंगे हम सभी अपने हिस्से में आये माल से पूर्ण सन्तुष्ट रहेंगे। आप लोग जैसे चाहें उस जहाज और उसके माल को बाँटें और उपयोग करें", शमशेर ने खड़े होकर धीरे से कहा।


 "हमें पता है शमशेर की तुम्हारी योजना क्या थी। यही ना कि इन दो बिल्लियों की लड़ाई में जो जीतेगा तुम उसपर हमला करोगे हारे हुए को अपने साथ मिलकर और फिर जीते हुए को खत्म करके हारे हुए को मिटाना तुम्हारे लिए कोई मुश्किल नहीं होगा। इस तरह तुम समुद्र में बादशाही के ख्वाब देख रहे थे। किंतु अब तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। अब उस जहाज का माल समाजकल्याण विभाग के पास जमा होगा और सभी के काम आएगा।", बाबा अखण्ड ने गर्जकर कहा और सभी ने सहमति नें सिर हिला दिया।



9-


डूबे हुए जहाज के चारों ओर बहुत सारे लोग जमा थे। इनमें योगी समूह, वेराडो के लोग, एंडरसन के लोग एवं शमशेर की सेना भी थी। सभी समूहों में से दो-दो लोग चुनकर योगियों की निगरानी में जहाज को खोलकर उसके अंदर के समान की जाँच करने पर सहमति बनी थी। योगियों के आगे ऐसे भी किसी की कुछ चलने वाली नहीं थी।  

 कोई आठ-दस लोगों का एक दल जहाज के अंदर प्रवेश कर गया और उसके अंदर के सामान की जांच करके सूची  बननने लगे। जहाज के अंदर बहुत सारे कीमती सामान और भोजन सामग्री के पैकेट भरे हुए थे। ये उन्नीसवीं शताब्दी का पुराना जहाज था जिसकी टेक्नोलॉजी भी ज्यादा उन्नत नहीं थी। जहाज के कलपुर्जे बहुत भारी थे। जहाज़ में भारी मात्रा में धातु उपलब्ध थी। लेकिन एक बात  जो सबसे अलग थी वह ये की एक पूरा कन्टेनर कुछज पैकेट्स से भरा हुआ था जिनपर अलग-अलग वनस्पतियों के चित्र बने हुए थे। इन लोगों ने बाहर आकर सभी को उन पैकेट के बारे में बताया।

 योगी गुरु अखण्ड महाराज जी ने उन लोगों से पैकेट बाहर लाने के लिए कहा।

  कुछ ही देर में लोग पैकेट लेकर आ गए, "इन पैकेट्स में अनाज, सब्जियों और अन्य बनस्पतियों के बीज हैं। ये किसी सीड्स पैकिंग कम्पनी का माल है। इसका मिलना हमारे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है।" अखण्ड बाबा ने एक पैकेट लेकर उसका अवलोकन करने के बाद कहा। उनके चेहरे पर बहुत खिली हुई मुस्कान थी।

 "लेकिन इन बीजों का हम क्या करेंगे? कुछ भोजन, वस्त्र या अन्य मूल्यवान धातुयें मिलती तब तो कोई बात थी।" शमशेर के एक साथी ने कहा।

  "हम लोग बिना कारण इस जहाज में ख़ज़ाना मिलेगा मनकर आपस में लड़े, इन बीजों के लिए?", कैलिस ने भी अफसोस में सिर हिलाते हुए कहा।

 एंडरसन और उसके साथी चूपचाप खड़े बस सबको देख रहे थे।

 

 "कितने बीज होंगे इस जहाज में?" अखण्ड जी ने प्रश्न किया।

  "बहुत हैं स्वामी जी, भाँति भाँति के बीज हैं कुछ उर्वरक और अन्य रसायन भी हैं। लगता है ये सारा सामान किसी कृषि और बागवानी से सम्बंधित फार्म या एग्रीकल्चर कॉलेज के लिए जा रहा था। इसमें इतने बीज हैं जिनसे कई हज़ार हैक्टेयर जमीन पर खेती की जा सकती है।", योगी श्रीनन्द ने उत्तर दिया।


 "क्या कह रहे थे आप लोग की इस जहाज पर कोई खज़ाना नहीं है?", स्वामी जी ने हँसते हुए व्यंग भरी आवाज में सभी उपस्थित लोगों से प्रश्न किया।

 बदले में ज्यादातर लोगों ने नज़रें झुका लीं।

 "आप लोग शायद ये नहीं जानते कि आज जो भी खज़ाना हमें मिला है ये केवल डूबा हुआ खज़ाना ही नहीं है बल्कि ये हम वर्षों से डूबे हुए मानव वंशियों के लिए फिर से जमीन पर स्थापित होने की कुंजी है।

 आपलोगों को शायद नहीं पता है कि जलप्रलय के बाद कितने ही वर्षों तक पृथ्वी पूरी तरह से जलमग्न ही थी। किन्तु पीछे कई वर्षों से कुछ ठोस जमीन और चट्टाने पानी से बाहर भी निकल गयी हैं। अर्थात पृथ्वी पर फिर से भूमि बनने लगी है। किंतु जल के बाहर अभी तापमान इतना अधिक है कि भूमि पर कुछ भी जीवन असम्भव है। अभी सारी भूमि चट्टानों के रूप में है जिसपर जीवन का कोई अंश भी नहीं है। ऊपर से बाहर इतनी अधिक गर्मी है कि यदि हमने जल से बाहर उस सूखी जमीन पर जाने का प्रयास किया यो हम  जलकर राख हो जाएंगे। पहले हमारे पास इस स्थिति का सामना करने का कोई मार्ग नहीं था।

  किन्तु अब इन बीजों के भंडार का मिलना हमारे लिए ये संकेत है कि हम मानवों को अपने असली निवास अर्थात पृथ्वी को फिर से उसके पुराने स्वरूप में लाने के लिए प्रयास शुरू कर देने चाहियें। हम जानते हैं कि ये कोई आसान कार्य नहीं है। किंतु समुद्र में अथाह जल के नीचे छोटी-छोटी कृत्रिम पूँछो के सहारे जीवन के बारे में सोचने जितना असम्भव भी तो नहीं है। जरा सोचो अभी मनुष्यों के बच्चे पैदा होते हैं समाजकल्याण के शिशु-बाल ग्रह में जहाँ उन बच्चों को चौदह-पन्द्रह वर्ष एक ही स्थान पर रहना होता है। उसके बाद भी उसका बाहर निकलना कृत्रिम श्वशनतन्त्र की उपलब्धता पर निर्भर करता है। और यदि अधिक श्वशनतन्त्र बनाने के लिए हम लोग सामग्री ना जुटा सके तो वह भी सम्भावना नहीं होती। फिर इस बाल ग्रह की प्राणवायु की भी एक निश्चित सीमा है। उससे अधिक मात्रा में ऑक्सीजन का निर्माण हम नहीं कर सकते। और फिर कार्बनडाई ऑक्साइड का निरंतर उत्सर्जन और उसके निराकरण के लिए लगाए संयन्त्र भी एक सीमा तक ही काम कर सकते हैं। और फिर जल में लगातार कार्बन डाइऑक्साइड घुलने से पानी में कार्बोनिक एसिड की मात्रा भी लगातार बढ़ती जा रही है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो हमारे द्वारा निकाली गई इस अशुद्धि से जल इतना अधिक अम्लीय हो जाएगा कि हम लोग एक दिन उस अम्ल के प्रभाव से जल में घुलकर विलय हो जाएंगे और मानव जाति का इतिहास भी बताने वाला कोई नहीं रहेगा।

 अब जबकि हमें पृथ्वी पर जीवन लौटने का एक संकेत मिला है तो क्यों ना हमें सामूहिक रूप से एक बार ये प्रयास करना चाहिए और मानवकल्याण के इस महायज्ञ में मिलकर अपने श्रम की आहुति देने के लिए एकजुट हो जाना चाहिए। क्या अब तुम सभी लोग पुराने आपसी मतभेद भुलाकर मानव बनने के लिए तैयार हो?" स्वामी अखण्ड जी ने सभी को समझाते हुए बहुत सधे शब्दों में अपनी बात कही।

 पीछे सभी लोगों में आपस में कुछ खुसर-फुसर हो रही थी। ज्यादातर लोगों को समझ में ही नहीं आ रहा था कि स्वामी अखण्डजी क्या कहना चाहते हैं।

 "हम तैयार हैं गुरुजी, आप जैसा कहेंगे हम करने के लिए तैयार हैं।" शमशेर ने आगे आकर हाथ जोड़ते हुए कहा। उसके साथ झामयू और पटेल भी थे।

 "हम भी तैयार हैं योगी जी, आप ऑर्डर दीजिए कि क्या करना है", वेराडो ने भी आगे आकर कहा और शमशेर के पास आकर खड़ा हो गया।

 "ठीक है हम वैज्ञानिकों और अन्य योगियों से बातचीत करके फिर कोई योजना बनाकर सभी लोगों को सूचित करते हैं। तबतक आप लोग इस जहाज की समाजकल्याण विभाग के साथ मिलकर उचित भंडारण की व्यवस्था करें और ध्यान रहें इन बीजों को किसी प्रकार की हानि ना पहुँचने पाए।" कहकर योगी अखण्ड महाराज उठ खड़े हुए। इसी के साथ वह सभा समाप्त हो गयी।


10-


   योगियों की सभा जुड़ी हुई थी, इस सभा में सभी ज्ञानी-विज्ञानी लोग एकत्र थे। अखण्ड महाराज ने सभी से एक प्रश्न किया था कि, "क्या हम मानव लोग कभी वापस पृथ्वी पर पूर्व की भाँति निवास कर पाएँगे?"

 सभी लोग इस प्रश्न पर मंथन कर रहे थे।

 "पृथ्वी पर अब प्राणवायु बिल्कुल भी शेष नहीं है। ऊपर से तापमान इतना अधिक की कोई भी झुलसकर मर जाये। ऐसी परिस्थिति में हमारा पृथ्वी पर रखा गया कदम हमें मृत्यु की ओर ले जाने के लिए काफी होगा।" एक वैज्ञानिक ने कहा।

 "यदि अभी परिस्थितियाँ विपरीत हैं तो क्या हम ऐसे हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें? क्या हमें पृथ्वी पर जीवन वापस लाने के लिए कोई भी उपाय नहीं करने चाहियें? अभी तक हमारे सामने मुख्य समस्याएं थीं- प्रतिकूल वातावरण एवं जीवन के लिए आवश्यक पेड़ पौधे उगाने के लिए उनके बीज। किन्तु अब हमारे पास बीजों का पर्याप्त भंडार है। हमें अब ये देखना है कि डूबे हुए जहाज से मिला बीजों का यह खज़ाना क्या हमारे पृथ्वीवास की कड़ी बन सकता है।" अखण्ड महाराज ने बहुत गम्भीरता से कहा।

 "स्वामी जी बीजों के भंडार से हमें एक दिशा तो मिली है लेकिन जैसा कि बताया गया कि पृथ्वी पर तापमान इतना अधिक है ऊपर से ऑक्सीजन भी बिल्कुल नहीं है। तो ऐसी परिस्थिति में हम बीजों को अंकुरित कैसे कर सकते हैं? और यदि कर भी लें तो क्या वे अंकुरण बृद्धि कर पाएँगे। दूसरी बात ये की अभी केवल समुद्री जल ही उपलब्ध है जिसमें कोई भी पौधा जीवित नहीं रह पाएगा जो पृथ्वी का अर्थात जमीन का होगा। और यदि हम यंत्रों से जल को शुद्ध करके पेड़ पौधों के लिए दें तो हमारे पास इसके लिए ना तो पर्याप्त यंत्र हैं और ना ही पर्याप्त ऊर्जा। तो अब आप ही बताइए कि हमें क्या करना चाहिए?", एक वैज्ञानिक ने खड़े होकर बहुत नकारात्मक स्वर में कहा।

 "क्या करना चाहिए का उत्तर तो आपके इस वक्तव्य में ही छिपा हुआ है। अभी आपने कहा कि पृथ्वी के पौधे समुद्र के जल में जीवित नहीं रह सकते। किन्तु जब ये पौधे पृथ्वी पर रहते थे 

 


Saturday, February 26, 2022

मरने के बाद

मरने के बाद (उपन्यास)



1-

रमेश ने अपने कंधे पर एक बहुत ठंडा हाथ महसूस किया, रमेश ने कुर्ता और सदरी पहनी थी फिर भी ना जाने क्यों उसे उस हाथ की सुन्न, सख्त, एवं खुदरी उंगलियों की ठंडक सीधे अपनी हड्डियों तक महसूस की।

"क.. क.. को. कौन!!", रमेश चौंकते हुए पलटा।

"क्या देख रहे हो दोस्त? ये सब जो रो रहे हैं ये तुम्हारे परिजन हैं, जो तुम्हारे मरने पर बहुत दुखी हैं?

आएँ!! हा.. हाँ, देखो सब रो रहे हैं; लेकिन मैं अपने सभी दर्दो से मुक्ति पा गया दोस्त, मैं कई महीनों से बहुत बीमार था, मेरे पूरे परिवार ने मेरी बहुत देखभाल की लेकिन, अब मैं उस पीड़ा से मुक्त हूँ।" रमेश अपनी भीगी हुई आवाज में अपने आँसू पोंछने का उपक्रम करते हुए बोला।

किन्तु ये क्या इतना जार जार रोने के बाद भी उसकी आंखें बिल्कुल सूखी थीं।


"हा.. हा. हा. हा..!! क्या ढूंढ रहे हो, आँसू?

क्या यार अभी तो तुमने कहा कि हर दर्द से मुक्त हो गए हो; लेकिन आँसू अभी भी ढूंढ रहे हो।", वैसे मेरा नाम अजीत है; तीन साल पहले मेरी भी "बिल्कुल तुम्हारे जैसी हालत थी तब मुझे भी लगा था कि मैं दर्दों से मुक्त हो गया हूँ, किन्तु सच्चाई बाद में धीरे धीरे मेरे सामने आती गई, खैर तुम्हे भी आदत हो जाएगी रमेश भाई।" अजीत ने फिर मुस्कुरा कर उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

"क्या कहा तुमने?!!, तीन साल पहले तुम्हारी मौत...तो क्या तुम भूत हो??" तभी तुम्हारे हाथ बर्फ जैसे ठंडे हैं।

रमेश घिघियाते हुए बोला।


"हा ..हा!! हा. हा!! अजीत जोर से हँसने लगा.. भूत.. हाँ रमेश भाई अब लोग हमें इसी नाम से जानते हैं, भूत, अब से यही हमारी पहचान है।

अभी जो लोग तुम्हरे लिए आँसू बहा रहे हैं, कल के बाद उनमे से किसी के सामने प्रकट हो जाओगे तो वह आपको इसी नाम से पुकारेगा.. ओह माफ करना भाई पुकारेगा नहीं डर से चीखेगा।

कहेगा," बचाओ!! भूत,, औऱ तुम लाख कहते रहोगे की तुम रमेश हो लेकिन कोई भी तुम्हारी आवाज नहीं सुन पायेगा।"

अजीत की आवाज में भी बहुत दर्द था।

"लेकिन अजीत भाई आपको मेरा नाम..?" रमेश कुछ सोचते हुए बोला।


"अरे यार ये इतने लोग चीख चीख कर कह रहे हैं कि रमेश का देहांत हो गया, भाई हम तो सबको सुन ही सकते हैं भले ही हमें सुनने के लिए लोगों के पास अच्छे कान ना हों। 

तो आओ अब चलें तुम्हे अभी बहुत सारे काम यहाँ की भूतिया दुनिया में करने होंगे और मैं तुम्हे सच्चाई बता दूं की ये दुनिया तुम्हारी इस दुनिया से भी खतरनाक है यहाँ राह पाना उतना आसान नहीं है बाकी आगे खुद तुम्हे सब कुछ पता लग ही जायेगा।" अजीत अर्थपूर्ण मुस्कान लाते हुए कह रहा था।


"एक मिनट, अभी तुमने कहा कि हम दोनों एक जैसे है याने की भूत, फिर मुझे तुम्हारा हाथ एक दम ठंडा क्यों लग रहा है, या फिर मैं अभी भी जिंदा..?" रमेश अपने को छू कर देखने लगा।


"तुम अभी अभी मरे हो और मुझे तीन साल हो गए, धीरे धीरे तुम भी ठंडे हो जाओगे दोस्त", अजीत फिर से मुस्कुरा दिया।

"आओ अब चलें कई काम होते हैं यहाँ आने के बाद", अजीत उसका हाथ पकड़कर खींचने लगा।


"अजीत भाई कुछ देर देखने दीजिये देखिए कैसे मेरा परिवार मेरे लिए बिलख रहा है, औऱ मैं जिंदगी भर सोचता रहा कि ये लोग कितने बुरे हैं", रमेश अभी भी बहुत उदास था।


"रमेश भाई, ज्यादा मोह मत करो ये सब बस लोगों को दिखाने के लिए हो रहा है बस परम्परा निभाने के लिए की लोग क्या कहेंगे जबकि असलियत कुछ और ही होती है।"  अजीत बराबर मुस्कुरा रहा था।

"मैं नहीं मानता अजीत भाई, देखिए ना इनके रोने को क्या तुम्हें इसमें भी बनाबट दिखाई देती है, अरे मेरी पत्नी और बेटा तो बेचारे कितनी बार रो रो कर बेहोश ही हो गए", रमेश भरपूर उदासी से बोला।


"अरे!, हां कहाँ गए तुम्हारी पत्नी और बेटा?, अजीत इधर उधर देखते हुए बनाबटी आश्चर्य से बोला।


"वे लोग बेहोश हो गए थे ना अजीत भाई लोग उन्हें अंदर ले गए",रमेश अपनी ही रौ में बोला।

"अंदर? अरे हां उन्हें तो अंदर ले जाया गया है, रमेश भाई आप बहुत बेमुरव्वत हो यार तुम्हारे जिंदा बेटे और पत्नी तुम्हारे गम में बेजार हो रहे हैं तुम्हारे लिए रो रो कर हलकान हो रहे हैं और तुम हो कि बस यहीं खड़े अपनी लाश को घूरे जा रहे हो जैसे कि अभी तुम्हारी लाश उठकर बैठ जाएगी और तुम्हे उसमें घुसने के लिए कोई दरवाजा मिल जाएगा।

जबकि सच्चाई ये है कि अब तुम्हे इस शरीर में घुसने के लिए दरवाज़ा तो दूर तुम एक खिड़की तक नहीं पा सकोगे और तो और अब तुम इस शरीर को छू तक नहीं पाओगे।

मेरी बात मानो मोह छोड़ो और चलो मेरे साथ अभी तुम्हे इस आत्मा लोक में जगह भी बनानी है और जैसा कि मैने तुम्हे बताया ये धरती की दुनिया से बहुत ज्यादा मुश्किल है।", अजीत ने रमेश का हाथ पकड़े पकड़े कहा।


"अजीत भाई ये क्या तुम मुझे बार बार यहाँ की दुनिया के नाम से डरा रहे हो आखिर ऐसा क्या है इस भूत नगरी में जो मुझे जगह बनाने में मुश्किल आएगी, आखिर हमें चाहिए ही क्या केवल हवा। औऱ रही बात मेरे परिवार की तो मैं अब दावे के साथ कह सकता हूँ कि वे लोग मुझे बहुत चाहते हैं और उनका ये विलाप दिखावा नहीं है", रमेश अब कुछ नाराज़ हो रहा था।

"अच्छा चलो एक बार तुम्हारे बेटे और पत्नी को देख आया जाए,कहीं ऐसा ना हो कि तुम्हारे वियोग में उनके प्राण.." अजीत अब रमेश का हाथ पकड़कर अंदर कमरे में ले गया जहां इसकी पत्नी और बेटा बैठ कर धीरे धीरे बातें कर रहे थे।

"आओ थोड़ा और नज़दीक चलते हैं जहां से हम इन्हें सुन सकें", अजीत उसका हाथ पकड़े उनके और नजदीक ले आया।

"अरे माँ पैसे हैं ही नहीं मेरे पास, सारे पैसे तो उनकी बीमारी पर खर्च हो गये अब ये अंतिम संस्कार के लिए बीस तीस हजार मैं कहाँ से लाऊं?" रमेश का बेटा गुस्से से कह रहा था।


"अरे, कल ही तो मेरी एफडी के दो लाख आये थे जो मैंने इसे दिए थे और इसने सामने अलमारी में.. अरे सुमित्रा इसने दो लाख अलमारी में रखे हैं", रमेश जोर से चिल्लाकर बोला किन्तु उसकी आवाज़ किसी का ध्यान नहीं खींच सकी।

"अरे सुमित्रा खोलो ये अलमारी, देखो इसमें", कहकर रमेश अलमारी पकड़कर हिलाने लगा किन्तु ये क्या रमेश तो अब हवा तक नहीं हिला पा रहा था।

वह उदासी से अजीत को देखने लगा जो सिर्फ इसकी हालत पर मुस्कुरा रहा था।

"अरे बेटा अंतिम संस्कार तो करना ही होगा वर्ना समाज क्या कहेगा लेकिन जितने कम में हो सके उतने में काम चलाओ, जरूरी नहीं कि लकड़ी पूरे तीन क्वेंटल ही आये अरे इनका शरीर है ही कितना जो तीन कुंतल लकड़ी में सिकेंगे।

और चंदन की सात समिधा की जगह एक ही.. उसी के छोटे छोटे सात टुकड़े ,अरे मरने वाले के साथ कुछ जाता है क्या, और घी भी एक किलो बहुत होगा अरे जिंदा पर हमने इन्हें इतना घी में नहलाया लकेकिन क्या कोई फायदा हुआ जो अब लाश के साथ पांच किलो घी जलाकर हो जाएगा।

ये तो जाते जाते भी हमें कंगाल कर गए, अब खुद तो मुक्ति पा गए और छोड गये हमे भुगतने को।

बेटा जा कर सामान जुटा जल्दी, देर हो रही है, मिट्टी जितनी जल्दी हो ठिकाने लग जानी चाहिए", रमेश की पत्नी सुमित्रा अपने बेटे को समझा रही थी।

"अरे!! दुष्टों मैं जिंदगी भर रात दिन तुम लोगों के सुख के लिए लड़ता रहा और तुम्हे मेरा शरीर मिट्टी..",रमेश झपटकर अपनी पत्नी को मारने की कोशिश करने लगा लेकिन पूरा जोर लगाने के बाद भी वह सुमित्रा के बाल तक ना हिला सका।

हा हा हा हा हा हा!!!!अजीत उसकी हालत देखकर हँस हँस कर लोटपोट हो रहा था।

"मेरी पत्नी,  मेरा बेटा,, अरे रमेश भाई ये किस मिट्टी की बात हो रही थी"? अजीत बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी रोकते हुए बोला।

" कुछ नहीं अजीत भाई, चलो यहाँ से अब मुझे एक पल भी नहीं रहना इस नरक में।" रमेश गुस्से ओर घृणा से बोला और बाहर आ गया।

"क्या हुआ रमेश भाई इतना गुस्सा?" अरे ये तो तुम्हारा परिवार है भाई ये लोग तुमसे मोहब्बत करते हैं देखो तुम्हारे लिए कितना रो रहे थे इन्हें सच में बहुत फिक्र है लेकिन तुम्हारी नहीं मेरे दोस्त बल्कि तुम्हारी मिट्टी की, उन्हें उसे जल्द से जल्द ठिकाने जो लगाना है।

और उसके बाद इन्हें एक और फिक्र लगेगी तुम्हारी जायदाद अपने नाम लिखाने की", अजीत अभी भी चुटकी ले रहा था।


"चलो अजीत भाई अब मैं और कुछ नहीं देख पाऊंगा,मैं आत्महत्या कर लूंगा इन लोगों ऐसे व्यभार से ले चलो मुझे इस नरक से दूर", रमेश फिर से अपनी आंखें पोंछने लगा।


"अच्छा उदास मत हो रमेश यार, अभी  असली नरक तो यहाँ अभी तुम्हे देखना है, आओ चलो सबसे पहले जन्म रजिस्टर में तुम्हरा नाम लिखा कर तुम्हारा भूत नम्बर लेना होगा उसके बाद मैं तुम्हे इस दुनिया की बाकी बातें भी बता दूंगा और तुम्हे सारा भूत लोक जो हमारे सीमा क्षेत्र में है, दिखा भी दूंगा।" अजीत उसके साथ चलते हुए बोला।


"क्या कहा रजिस्ट्रेशन??"रमेश को तो जैसे विश्वास ही नहीं हुआ।

"हां भाई नामांकन यहाँ की सबसे पहली प्रकिर्या है जो हर नए आने वाले भूत के लिए बहुत जरूरी है।

इस नामांकन के साथ ही नए भूतों को यहाँ मौजूद भूत गैंग्स का सदस्य बना दिया जाता है इसके बाद उन्हें अपने गैंग के हिसाब से आगे मरना होता है, किंतु यदि हम चाहें तो अपने मनचाहा गैंग चुन सकते हैं जैसे कि अब मैं तुम्हे अपने गैंग में जुडवा दूंगा ताकि हम आराम से साथ रह सकें", अजीत ने रमेश का हाथ कसकर पकड़ा और दोनों उड़ने लगे।


अभी ये लोग भूत लैंड में लैंडिंग कर ही रहे थे कि सामने ही एक बड़े बड़े दांतो वाली माँस रहित डरावनी मूर्ति प्रकट हो गई।

"क्या रे अजीत फिर कोई नया बकरा लाया अपने गैंग के लिए, अरे कभी किसी को अपुन के गैंग में भी आने दे देख ना सारी बदसूरत जली हुई सुन्दरियों से भरा है पूरा गैंग बस तेरे ओर इसके जैसे चिकने छोरों की कमी रहती है", वह बड़े दांतों वाली डरावनी शक्ल जोर जोर से हँसने लगी जिससे इसका चेहरा ओर डरावना लगने लगा जिससे घबराकर रमेश अजीत के पीछे छिप गया।

"क्या रे लाडली क्यों हमेशा लोगों को डराती रहती है, अब देख न अभी अभी तो हम आये हैं और तुमने मेरे नए दोस्त को डरा दिया। ये भी कोई तरीका है परिचय करने का", अजीत थोड़ा गुस्से से बोला।

"क्या करें अजीत, काश हमारे जिंदा रहते लोग हमसे डर जाते तो हमें यूँ आग में जिंदा तो ना जलाते", अब लाडली बहुत उदास होकर बोली।


"अरे लाडली दुखी क्यों होती हो आखिर हम यहाँ दोस्त हैं ना, अच्छा मिलता हूँ रमेश भाई का नामकरण करवा कर", और अजीत रमेश का हाथ पकड़े आगे चल दिया,,,

2-

"आओ रमेश भाई चलो जल्दी नामांकन करवा लिया जाए, कहीं ऐसा न हो कि कोई प्रेत, जिन्न या ब्रह्म बाबा हमें देख लें, और हम किसी मुश्किल में पड़ जाएं",

अजीत ने रमेश का हाथ पकड़ कर उसे खींचते हुए कहा।


"अच्छा अजित भाई! मरने के बाद जैसा की सब जानते हैं कि सबको भूत बनना होता है।

फिर आप मुझे बार-बार ये प्रेत, जिन्न और ब्रह्म बाबा जैसे नामों से क्यों डरा रहे हो?" रमेश ने कुछ आश्चर्य से पूछा।


"सब बता दूंगा रमेश भाई! बस आप थोड़ा जल्दी चलो, कहीं ऐसा ना हो कि बहुत देर हो जाये", अजीत ने ये बात बहुत घबराते कुछ विशेष अर्थ में कही।


अब रमेश जैसे कुछ समझ गया हो इसलिए वह चुपचाप चलने लगा।


कुछ दूर चलने पर उन्हें हड्डियों की बनी एक ऊँची इमारत नज़र आने लगी, जिसका बड़े-बड़े दांतो वाला प्रवेश द्वार दूर से ही चमक रहा था।

उसे देखकर अजीत की आँखों में प्रसन्नता की चमक आ गयी।

"लो पहुंच गए रमेश भाई, अब हमें कोई डर नहीं है। इस सीमा में आकर कोई भी मनमानी नहीं कर सकता; और नामांकन के बाद फिर कोई किसी को परेशान नहीं करता, क्योंकि यहाँ के नियम बहुत कड़े हैं। 

कोई भी यहाँ के नियमों का उलंघन नहीं कर सकता।" अजीत के स्वर में प्रसन्नता थी।


अब रमेश भी प्रसन्न था वैसे तो उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था, लेकिन अजीत की बातें उसे ना जाने क्यों अपने लिए भले की लग रही थीं।

अतः वह भी जल्दी जल्दी कदम बढ़ाने लगा।

जैसे ही इन्होंने उस इमारत में प्रवेश किया अंदर का दृश्य देखकर रमेश बहुत डर गया।

सामने हड्डियों की बनी एक बड़ी सी मेज थी जिस पर एक मज्जा, त्वचा रहित,अस्थिशेष मानव खोपड़ी रखी थी जिसकी पलकविहीन बड़ी बड़ी आंखें बहुत तेज़ चमक रही थी।

सामने दीवार पर बड़ी-बड़ी डरावनी इंसानी आंखें लगी हुईं थीं।


और अंदर पूरी छत पर भी इंसानी आंखें लगी हुई थी।

ये दृश्य देखकर रमेश को अचनक डर लगने लगा, लेकिन तभी उसे याद आया कि वह तो मर चुका है और अब खुद एक भूत है तो फिर अब वह किससे डर रहा है।


तभी अचानक दीवार में से एक बिना सर का कंकाल प्रकट हुआ और उसने जल्दी से हाथ बढ़ा कर वह खोपड़ी अपनी गर्दन में पहन ली।


"हि..हि..हि.ही क्षमा करना मैं जरा अंदर व्योरा भेजने चला गया था और अपनी उपस्थिति दर्शाने के लिए इसे यहीं छोड़ गया था।

मैंने जैसे ही आपको आते देख तुरंत आ गया।" वह अपने बड़े बड़े गले सड़े दांत दिखाकर हँसते हुए बोला।


"नमस्ते, 'लिपिक महोदय' ये मेरा मित्र है रमेश आज ही यहाँ आया है।

आप इसका नाम हमारे समूह के साथ लिख दीजिये।" अजीत ने सामने खड़े भूत को प्रणाम करते हुए कहा।


"क्या तुमने इसे यहाँ के बारे में सब कुछ समझा दिया है, 'अजीत' क्या तुमने बता दिया है कि तुम्हारा समूह सबसे कमजोर भूत समूह है।

क्या तुमने इसे अन्य समूहों के विषय में बताया, जैसे कि पिशाच, ब्रह्मराक्षस, प्रेत और शक्तिशाली जिन्न समुदाय?

कहीं ऐसा न हो कि बाद में आकर ये कहे कि मुझे तो पिशाच या प्रेत बनना था।" लिपिक ने रमेश को घूरते हुए कहा।

"मुझे अजीत भाई ने सब समझा दिया है, और मैं साधारण भूत ही रहना चाहता हूँ मुझे नहीं चाहिये भूत-प्रेत लोक की काली शक्तियां।" रमेश ने ना जाने क्या सोचते हुए, लिपिक को प्रणाम करते हुए कहा।

"ठीक है आप अपने बारे में इस प्रारूप में बताइये, 

मृत्यु लोक में नाम-

पिता का नाम-

दादा का नाम

माँ का नाम- 

वंश या गोत्र का नाम-

जन्म स्थान-

जन्म तिथि (यदि याद हो)-

मृत्य तिथि-

मृत्यु समय-

मृत्यु का कारण-

वो इच्छाएं जो अधूरी रह गयी हो या जिन्हें आप दूसरा जन्म लेकर पूरी करना चाहें-"। आप क्रम से इसके उत्तर बताइये मैं आपकी आगे की गति के विषय में बता दूंगा।" लिपिक ने उसे सवालों की एक सूची देते हुए कहा।


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मेरी कोई इच्छा अतृप्त नहीं है बस एक दुख है कि मैं जिनके मोह में सही गलत झूट सच करता रहा वे सब तो मतलबी निकले।" रमेश ने सारे प्रश्नों के उत्तर देते हुए उदास होकर कहा।

अब वह कंकाल (लिपिक) कुछ देर मेज पर लगे दर्पणों में उलझा रहा और फिर बोला, "जैसा कि अपने विवरण दिया, आपकी मृत्यु असमय नहीं हुई है।

अर्थात आपकी मृत्यु पूर्ण आयु भोग के बाद कि स्वाभाविक मृत्यु है।

किन्तु जैसा कि इस चराचर सृष्टि का नियम है, हर मरने वाले को मरते ही चार तत्व की सरल सौम्य भूत योनि मिलती है।

जिसमें रहकर उसे अपने जीवन के सभी अच्छे बुरे कर्मो को याद करना होता है; ताकि आगे यमलोक के मार्ग में ले जाते समय उसे याद रहे कि किस बुरे या भले कर्म के परिणाम स्वरूप उक्त रास्ता उसके लिए चुना गया है।

और इसलिए भी रखा जाता है ताकि वह अपने परिजनों के द्वारा दिये गए पिंडदान एवं यज्ञ से कुछ शक्ति प्राप्त कर ले ताकि आगे चलते समय उसे आसानी रहे।

बाकी यहाँ कुछ शक्तियां भी मिलती हैं, जिनके बारे में तुम अजीत से अन्य जानकारी ले सकते हो।

और यदि तुम्हे लगता है कि तुम्हें शक्तियां लेकर अन्य समूह में सम्मिलित होना है तो तुम चालीस दिन बाद यहाँ आकर बता सकते हो।" लिपिक ने अपने दांत दिखाते हुए कहा।


"किन्तु मुझे कब तक इस भूत योनि में भटकना होगा?" रमेश ने डरते डरते पूछा।


"ये बात भी मैं तुम्हे चालीस दिन के बाद ही बताऊंगा। देखो ये भूत योनि कमसे कम चालीस दिन लगभग सभी को मिलती है क्योंकि उसके पहले कोई भी मृतात्मा यम मार्ग पर नहीं चल सकती इसी लिए हर समुदाय में मृतक के तर्पण के लिए चालीस दिन तक के विधान बताए गए हैं।

जैसे सवा महीने का पत्ता या चालीसवाँ।

उसके बाद वह आत्मा आगे गति करती है, जहाँ मार्ग में बाइस प्रकार के महा नर्क एवं तीस प्रकार के समान्य अथवा अति सरल नरक हैं। जिन मार्गों पर यमलोक जाते समय जीवात्मा गति करती है।

बाकी उसके कर्मो पर ही निर्भर करता है की वह कितना शीघ्र धर्मराज के समक्ष प्रस्तुत होता है और कर्मफल के अनुसार दूसरा जन्म अथवा स्वर्ग या अन्य उच्च स्थान पर जाता है।" लिपिक ने उसे रहस्य बताया। तब तक दो और लोग आते दिखाई पड़े जिनमें एक भयंकर मोटा, काला, बड़े-बड़े बाहर निकले दांतों वाला, कुरूप, डरावना, राक्षस जैसा जीव था वहीं दूसरा, पतला मरियल सा जीव था, जो भय से थर थर कांप रहा था और घिसट-घिसट कर चल रहा था, या कहो की जबर्दस्ती चलाया जा रहा था।

रमेश ने थोड़ा ध्यान से देखा तो पाया कि वह कुरूप जीव दूसरे को कान से पकड़ कर खींच रहा है और उसका कान आधा उखड़ कर लटका हुआ है।

अभी वह पूरी तरह से अंदर आये भी नहीं थे कि लिपिक ने ऊंची आवाज में कहा, "कुम्भीपाक"। 

और वह यमदूत उस जीव को कान से पकड़े-पकड़े उल्टे पांव लौट गया।

रमेश अभी भी उस दृश्य से भयभीत था तभी लिपिक ने एक नम्बर उसकी ओर बढ़ाया जो लाखों में था, "लो इसे अपने पास रखो ये है तुम्हारा पंजीकरण अंक, अब तक तुम्हारे बताए पते से इतने रमेश यहाँ आ चुके हैं, इसे याद कर लेना। लिपिक ने कहा।

अजीत ने रमेश का हाथ पकड़ कर खींचते हुए कहा," चलो बाकी बातें मैं समझा दूँगा।",

और रमेश उसके साथ चल दिया।


"अरे यार अजीत ये कौन था? इतना डरावना जीव और उस बेचारे कमज़ोर से प्राणी को कैसे कान पकड़ कर घसीट रहा था। बेचारे का कान ही उखाड़ फिये निर्दयी ने क्या यही जिन्न अथवा पिशाच है।" रमेश अभी भी घबराते हुए धीरे से बोला। हालांकि उसके स्वर में क्रोध का भी हल्का पुट था।


"यमदूत था वह; और वह केवल अपना कार्य कर रहा था रमेश भाई ।

उसको उस प्राणी के कर्मो अनुसार नरक दण्ड देने का कार्य मिला होगा तो वह बस वही कर रहा था। अजीत धीरे से बोला।


"लेकिन ये 'कुम्भीपाक' क्या है  और इसे सुनते ही वह जीव इतना क्यों घबरा गया था।" रमेश ने फिर पूछा।


"कुम्भीपाक एक महा कष्टकारी महा नरक है।

इसमें मार्ग के दोनों ओर पिघली हुई धातु से भरे कुम्भ(घड़े) रखे होते हैं जो मार्ग पर उलटते रहते हैं।

उस धातु की तपन से जीव को बहुत कष्ट होता है।

अब उस जीवात्मा को उसी कुम्भीपाक के मार्ग से ले जाया जाएगा।" अजीत भी अफसोस के साथ बोला।


"लेकिन भाई उसे इतने दुर्गम मार्ग से क्यों ले जाया जा रहा है? और फिर ले जाने वाला यमदूत भी तो साथ ही होगा तो क्या वह पिघली धातु की अग्नि उसको नहीं जलायेगी।" रमेश को अब भय के साथ कौतुहल भी हुआ।


"कुम्भीपाक उसको अपने जीवन में चोरी, बेईमानी, धोखा देने अथवा ऐसे ही किसी दुष्कर्म के परिणाम स्वरूप मिला होगा।

और रही बार यमदूत की तो अब वह उसकी नाक में सांकल डालकर कर उसमें जँजीर बाँध कर ऊपर उड़ता हुआ जाएगा; इसलिए उसपर इस भीषण तपिश का प्रभाव नहीं होगा।

ऐसे भी यमदूतों के पास असीमित शक्तियां होती हैं, तो उनपर नरक की किसी भी क्रिया का प्रभाव नहीं पड़ता।

ये तो इनका सामान्य कार्य है।" अजीत ने समझाते हुए कहा।


"फिर भी यमदूतों का कार्य बहुत कठिन है भाई, चाहे प्रभाव हो या ना हो किन्तु नरक तो इन्हें सारे घूमने पड़ते हैं।" रमेश कुछ सहज होकर बोला।


"रमेश भाई ये यमदूत भी हम जेसी जीव आत्मा ही होते हैं। 

जो स्वेच्छा से इस कार्य को चुनते हैं जिसके बदले में इन्हें कुछ शक्तियां और नर्क के प्रभाव से मुक्ति मिल जाती है किंतु इन्हें उस नरक में अपनी सजा से तीन गुना अधिक समय गुजारना होता है।"अजीत ने रमेश की शंका का समाधन किया।

अभी ये लोग बातें करते हुए जा ही रहे थे कि तभी, लाडली फिर इनके सामने आकर खड़ी हो गयी।


"करा आये नामांकन, पता लगा तुमसे पहले कितने रमेश मर कर यहाँ आ चुके हैं?

क्या रे अजीत रस्ते में कोई खड़ूस प्रेत या जिन्न तो नहीं मिला?" लाडली मुस्कुराते हुए पूछने लगी।


"अरे नहीं रे लाडली सब आराम से हो गया,लेकिन ये खोपड़ी हमेशा अपनी खोपड़ी क्यों उतारे घूमता रहता है? आज तक समझ नहीं आया।

बेचारे रमेश भाई कितना डर गए थे उस बिना मुंडी के भूत को देखकर।" अजीत ने भी हँसते हुए उत्तर दिया।


"अरे तेरे कु तो मालूम ही है वो एक साथ कई काम करता है।

तुमने उसे बिना मुंडी का देखा और डर गया।

अरे ऐसे डरने का नई, अपुन ने तो कितनी बार उसे बिना मुंडी और बिना हाथ का बी देखा है", अब लाडली जोर से हँसी, जिससे उसके जले हुए चेहरे पर भयानक रंगत पनप गयी। लेकिन अब रमेश को उससे डर नहीं लग रहा था।


"अच्छा लाडली ये तुम्हारा जला हुआ शरीर? क्या तुम्हारी मृत्यु जलने से हुई थी?," रमेश ने लाडली को गौर से देखते हुए पूछा।


"सही पहचाना तूने रमेश! मुझे चार लड़कों ने बलात्कार करके जला कर मार डाला था।

मैं कितना गिड़गिड़ाई उनके आगे की भाई मुझे छोड़ दो मैने तुम लोग का क्या बिगाड़ा है, लेकिन उन एडा लोग ने मेरी एक भी बात नहीं सुनी।

वे मेरे को मारते रहे मेरे कपड़े फाड़ते रहे, मैं रोती रही मदद के वास्ते चिल्लाती रही; लेकिन किसी ने भी अपुन की आवाज नहीं सुनी।

अरे मैने तो उनसे हाथ जोड़कर यहाँ तक कहा की कोई एक जन प्यार से….

लेकिन उन दरिंदों ने बार-बार मेरे साथ नीच काम किया।

और इतने पर भी उनका दिल नहीं भरा तो बेहोशी की हालत में मेरे ऊपर पेट्रोल की पूरी बैरल ही लोट दी और फिर उनमें से एक ने अपने मुँह की सिगरेट... आह!! अभी तक उस तेज़ जलन को अपनी अंतरात्मा तक महसूस करती हूँ मैं रमेश बाबू!", लाडली की आवाज दर्द से भीग गयी किन्तु उसकी आँखें बिल्कुल सूखी थीं।


"उनमें से एक कमीना वही था रमेश भाई जो अभी  कुम्भीपाक में भेजा गया और जिसके लिए तुम सहानुभूति दिखा रहे थे", अजीत ने मुस्कुराते हुए बताया।


"बिल्कुल सही सजा मिल रही है फिर तो। मैं तो उसकी मासूमियत को देख कर...मुझे माफ़ कर दो अजीत भाई। लाडली जी मुझे पता नहीं था, आशा करता हूँ आप भी मुझे माफ़ कर दोगी। क्या हम दोस्त बन सकते हैं?"  कहकर रमेश ने अपना हाथ आगे बढ़ाय।

जिस पर अजीत और लाडली ने अपने हाथ रखे और तीनों मुस्कुरा दिए।


"आओ रमेश भाई आपको भूतलैंड की थोड़ी सैर  करा दी जाए बाकी की बाते हम घूमते हुए कर लेंगे; क्यों लाडली?" अजीत ने लाडली की ओर देखते हुए कहा और लाडली ने मुस्कुरा कर हाँ में सर हिला दिया।

अब ये तीनों चल पड़े भूतलैंड घूमने

तो आइए इनके पीछे हम भी चलते हैं 

किन्तु एक ब्रेक के बाद,,,