Saturday, April 25, 2020

रश्मि "एक बालिका बधू"

संकोच करते हुए, धड़कते दिल के साथ रमेश ने कमरे में कदम रखा।
कमरे में एक लालटेन की धीमी-पीली रौशनी अंधेरे से लड़ रही थी। कमरे की कच्ची मिट्टी की दीवारों को गोबर से लीपा गया था। लकड़ी की फट्टियों वाली छत मिट्टी तेल के धुएं से पूरी काली पड़ी हुई थी जैसे सालों से किसी ने उसकी सफाई नहीं की हो।
एक कोने में लकड़ी की एक टिगड़ी पर मिट्टी का पुराना घड़ा रखा हुआ था।

एक कोने में बाँस की खटिया पर सहमी सिकुड़ी गुड़मुडी बनी घूंघट को घुटनों तक किये दुल्हन बैठी हुई थी।

रमेश ने अंदर आकर टूटा फूटा लकड़ी का दरवाजा बंद किया तो उसने पुराने भूतिया फिल्मों के दरवाजों की तरह, "चु..ऊ..ऊनन!! चूँ....!"
की तेज आवाज की जिसने खटिया पर बैठी दुल्हन का ध्यान खींचा, या ये कहो कि उसकी नींद उचका दी।
वह झट से खटिया से उठी और पास आते रमेश के पाँवों में झुक गयी।

"अरे!..रे!! ये क्या करती हो रश्मि, बैठी रहो पैर छूने की क्या जरूरत है?", रमेश ने उसे कंधों से पकड़ कर उठाते हुए कहा।

"ब...बो.. अम्मा ने कहा था कि आपके पैर छू लूँ", दुल्हन ने घूंघट के अंदर से धीरे से कहा। उसके सर का पल्ला उसके पेट तक आ रहा था और साड़ी ऐसे लग रही थी जैसे किसी लकड़ी को लपेटी गयी हो।

"अच्छा ठीक है बैठ जाओ, और बताओ कैसा लगा हमारा घर?" रमेश ने हंसते हुए कहा।

"ठीक है", उसने धीरे से जवाब दिया।

"अच्छा ये घूँघट तो हटा लो, गर्मी लग रही होगी", रमेश ने उसे चारपाई पर बिठाते हुए कहा।

"नहीं...! भाभी ने कहा था कि घूँघट पति ही उठाते हैं", वह सकुचाते हुए बोली।

"अरे वाह, तुम तो सब सीख कर आयी हो।
अच्छा और क्या कहा था तुम्हारी अम्मा और भाभी ने?" रमेश उसी तरह हँसते हुए बोला।

"यही की पति की हर बात मानना, जो कहें, जो करें किसी बात को मना मत करना। और पति-पत्नी के बीच की बात किसी को कभी मत बताना। सासु माँ  की सेवा करना और उन्हें कभी सामने से जवाब मत देना", वह एक साँस में कहती चली गयी।

रमेश उसके भोलेपन पर मुस्कुरा रहा था।

"अच्छा हटाओ ये घूँघट, बहुत गर्मी है", कहकर  रमेश ने उसका घूँघट उठा दिया।

रश्मि मुश्किल से अभी तेरह साल की भी नहीं थी उसके पिता की किसी बीमारी से मौत हो गयी थी।
उसकी माँ, बड़ा भाई और भाभी सभी ईंट भट्ठे पर मज़दूरी करते थे।

वहीं भट्ठे से ही कुछ दूरी पर इन्होंने एक झोंपड़ी डाल रखी थी। इनके पास ना तो खेती की जमीन थी और ना ही कोई अच्छा काम।

रश्मि की माँ को हमेशा रश्मि की चिंता लगी रहती थी। एक दो बार उसने देखा था कि मुंशी और कुछ उसके मुँह लगे कामचोर शराबी मजदूर रश्मि को भूखी नज़रो से देख रहे हैं।
ये देखकर उसका दिल कांप  उठा था।

"क्या करूँ मैं अपनी जवान होती बेटी का मेरी गरीबी और लाचारी क्या इसे इन भेड़ियों से बचा पाएगी?", वह जानती थी कि गरीब की बेटी समय से पहले ही जवान हो जाती है।

उसने घर जाकर रश्मि को बिना बात पीट दिया और कहा, "आज के बाद घर से बाहर मत निकलना और अगर भट्ठे पर दिखी तो वहीं आग में फेंक दूँगी। रामदयी ने जैसे उन वहशियों का गुस्सा रश्मि पर निकाला था।
रश्मि बेचारी को तो समझ में भी नहीं आया था कि उसकी गलती क्या है।

"रामदयी, देख लड़का बीस-बाईस साल का है, अपनी ही बिरादरी का है और अगले ही गांव में है। चार भाई हैं कोई दो-ढाई बीघा जमीन भी है।
लड़का पढ़ा लिखा भी है। और एक स्कूल में पढ़ाता भी है। सौ-डेढ़ सौ तो मिल ही जाते होंगे महीने के, कुछ बड़े लोगों के घर बच्चों को पढ़कर कमा लेता होगा।
लेकिन गरीब परिवार होने से शादी के रिश्ते नहीं आ रहे।
सबसे बड़े भाई की शादी हुई है, बाकी बीच वाले दोनों भी कुँवारे ही हैं लेकिन वे दोनों यहां नहीं रहते। मज़दूरी ढूंढने बड़े शहर गये थे दो साल से लौटे ही नहीं।
लड़के की माँ शादी को तैयार है, लड़का भी मना नहीं कर रहा, अब तुम लोग देख लो।
घर परिवार बहुत अच्छा है सभी तारीफ करते हैं। तुम्हारी बिटिया खूब खुश रहेगी रामदयी",

एक पड़ोसन ने रामदयी को बताया, रामदयी ने अपनी लड़की को उन लोगों की नज़रों से बचाने का ये रास्ता निकाला था कि उसका विवाह कर दिया जाए।

सब कुछ जल्दी-जल्दी तय करके रमेश और रश्मि की शादी कर दी गयी।
और तेरह साल की रश्मि बालिका बधू बनकर रमेश के घर आ गयी।

रश्मि की माँ ने अपनी बेटी का बाल विवाह करके अपने कुल की इज़्ज़त बचाई थी, लेकिन वह भूल गयी थी कि विवाह दो शरीरों का भी होता है। उसने बस अपना फर्ज पूरा कर लिया था।

रमेश बाबू पढ़े लिखे समझदार और बहुत गुणी व्यक्ति थे।
कस्बे के छोटे से मांटेसरी स्कूल में पढ़ाने के साथ ही वे खुद भी आगे पढ़ रहे थे। इस बार उनका ग्रेजुएशन का दूसरा साल था। वे कस्बे में ही कुछ बच्चों को टयूशन भी पढ़ाते थे।

जब उनकी माँ ने उनसे रिश्ते की बात की तो पहले तो वे बहुत नाराज हुए, उन्होंने कहा,
"माँ क्या सोचकर तुम एक तेरह साल की बच्ची के साथ मेरे वियाह की बात सोच रही हो? अरे ये उस बेचारी के पढ़ने लिखने के दिन हैं और तुम उससे उसका बचपन छीन लेना चाहती हो।"

"बेटा उसके हालात इस लायक नहीं हैं कि वह पढ़ लिख सके, और हमारे हालात इस लायक नहीं हैं कि कोई रिश्ता आ सके।
चार भाइयों में एक का वियाह भी बड़े जतन के बाद हुआ है।
और अब जब देवी मैया खुद किरपा कर रही हैं तो हम मना क्यों करें।
अरे चल मान लिया अभी लड़की छोटी है लेकिन साल दो साल में बड़ी तो होगी ही। और फिर उम्र में सात-आठ साल का अंतर कौन बड़ी बात है।
तू मान लियो की तेरा वियाह दो साल बाद होगा बस।
और तब तक तू लड़की को पढ़ा लिखा भी दियो।
सुखिया कह रही थी कि लड़की पांचवी तक स्कूल गयी है।
अरे बेटा हमारे घर में रहेगी तो चार अच्छी बातें सीखेगी और सबसे बड़ी बात लोगों की गन्दी नज़र से बचेगी। तू ही सोच बेटा भट्ठे पर मजूरी करने वालों की बच्चियां भला कब तक बच्ची रहती हैं।
उसकी माँ झोली फैला कर यही कह रही थी बेटा की उसकी बच्ची की इज़्ज़त और जिंदगी उसकी शादी से ही बच सकती है", रमेश की माँ ने उसे रश्मि के परिवार की हालत और उसकी हकीकत समझायी।
रमेश ने  शादी के लिए हाँ तो कर दी लेकिन कहीं ना कहीं ये उसे ठीक नहीं लग रहा था।

और अब रश्मि के भोलेपन पर उसे हँसी आ रही थी।

"अच्छा आराम से बैठो, इतना सहम क्यों रही हो, किसी ने ये नहीं बताया कि पति कोई हौआ नहीं होता जो तुम्हे खा जाएगा", रमेश ने उसकी खामोशी या ये कहो कि डर को भांपते हुए कहा।

"नहीं... बताया था, भाभी ने कहा था कि अगर मैं  अपने पति के साथ अच्छे से रही तो वे मुझे बहुत प्यार करेंगे। मैं बहुत अच्छे से रहूंगी, आपकी हर बात मानूँगी, कभी कोई जिद भी नहीं करूँगी। सासु माँ की भी खूब सेवा करूँगी, उन्हें कभी सामने से जबाब भी नहीं दूँगी। आप करोगे ना मुझे प्यार?", रश्मि भोलेपन से कहती चली गयी।

"हाँ.. हाँ रश्मि हम सब तुम्हे खूब प्यार करेंगे, ये अब तुम्हारा अपना घर है। तुम बिल्कुल मत डरो यहाँ सब तुम्हारे अपने हैं।
और मैं भी तुम्हे खूब प्यार करूँगा और मेरी हर बात मानोगी तब सबसे ज्यादा प्यार करूँगा",  रमेश ने उसका चेहरा ऊपर उठाते हुए कहा।

"सच, पापा से भी ज्यादा? मेरे पापा मुझे बहुत प्यार करते थे। वे कहते थे कि मैं उनकी परी हूँ", रश्मि ने चहक कर कहा और अगले ही पर वह अपने पिता को याद करके उदास हो गयी।

"हाँ.. हाँ रश्मि उनसे भी ज्यादा", रमेश ने कहा और फिर वह कुछ सोचने लगा।

तब तक रश्मि झपट कर उसके गले लग गयी बिल्कुल किसी नन्ही बच्ची की तरह।

रमेश ने उसके माथे को चूमा और उसका सर सहला दिया।

"अच्छा जी, मेरे पापा हमेशा कहते थे कि वे मेरी शादी किसी राजकुमार से करेंगे। लेकिन मेरी शादी तो आपके साथ हो गयी है, तो क्या आप ही वो राजकुमार हो", रश्मि ने मासूमियत से सवाल किया।

"पता नहीं", रमेश ने उसकी पीठ सहलाते हुए कहा।

"अच्छा रश्मि तुम आराम से सो जाओ मैं नीचे दरी बिछा कर सो जाऊँगा", रमेश ने एक फ़टी-पुरानी सी दरी उठाते हुए कहा।

"नहीं आप ऊपर सो जाओ ये दरी मुझे दो, मैं नीचे सो जाऊंगी", रश्मि कुछ उदास होकर बोली।

"अच्छा लालटेन बुझा दो", रमेश ने लेटते हुए कहा।

"नहीं....!!!, मुझे अंधेरे में अकेले डर लगेगा", रश्मि चीख कर बोली और रमेश से चिपक गयी।

"अरे क्या हुआ,ऐसे डर के चीख पड़ी पागल, मैं यहीं तो हूँ", कहकर रमेश ने उसे खुद से अलग करते हुए कहा।

"अच्छा क्या मैं यहाँ आपके पास नहीं सो सकती, पापा तो हमेशा मुझे अपने पास सोने देते थे", रश्मि सुबकती हुई बोली।

"अच्छा बाबा ठीक है सो जाओ, मैं लालटेन धीमी तो कर दूं खाली में तेल जलेगा", पागल रमेश ने धीरे से कहा और उठ कर लालटेन की बत्ती नीचे कर दी।

रश्मि बैठी हुई उसका इंतजार कर रही थी, रमेश के लेटते ही वह उसके सीने पर सर रखकर लेट गयी।

"आप सच में बहुत अच्छे हैं, ये कल्लो बेकार में मुझे डरा रही थी। आप पापा से भी ज्यादा प्यार करते हो मुझे। आप सच्ची के राजकुमार हो। रश्मि ने धीरे से फुसफुसाया और आँखें बंद कर लीं।

"ये कल्लो कौन है, और क्या डरा रही थी?" रमेश ने उसकी पीठ सहलाते हुए पूछा।

"कल्लो हमारे पड़ोसी की लड़की है, मुझसे तीन साल बड़ी। पिछले साल उसकी भी शादी हुई थी एक पहलवान  जैसे काले कलूटे से, अच्छा ही है कल्लो को कालिया मिल गया", रश्मि हँसने लगी, "लेकिन शादी के अगले ही दिन कल्लो हस्पताल पहुँच गयी थी।
सब कह रहे थे उसको अंदर चोट लगी है और बहुत खून बह गया है। उसके पति ने पता नहीं क्यों पहली ही रात में मारा होगा?
हो सकता है उसने अपने पति की बात ना मानी हो इसलिए... मैं तो आपकी हर बात मानूँगी... आप तो नहीं मरेंगे ना मुझे", रश्मि रमेश से और ज्यादा कस कर चिपटते हुए बोली।
"पागल है कल्लो, कह रही थी सदी की पहली रात सभी पति ऐसे ही करते हैं, बताओ ये भला कोई बात हुई, अरे जब हर बात मानोगे तो क्यों नाराज़ होंगे भला", मासूम रश्मि ने ज्ञान झाड़ा।

रमेश उसके भोलेपन पर मुग्ध हो गया उसके मन में रश्मि के लिए प्यार का सागर उमड़ आया लेकिन उसमें वासना का अंश मात्र भी नहीं था। उस प्रेम में पवित्र स्नेह था जिसकी छाया में रश्मि खुद को पूरी तरह महफूज़ महसूस कर रही थी।

रात भर वह उसके सीने से लिपटी जी भर कर सोई, जैसे शायद कभी अपने घर में भी नहीं सोई थी।

सुबह जब रमेश की आँख खुली तो उसने देखा कि रश्मि उदास बैठी है,  उसकी आंखें गीली थीं।

"क्या हुआ रश्मि रो क्यों रही है, मैंने तुझे नींद में पीट दिया या मम्मी की याद आ रही है", रमेश ने उसकी हालत देखकर हँसते हुए पूछा।

"नहीं कुछ नहीं, आप तो बहुत अच्छे हैं और मां की भी याद नहीं आ रही", वह उसी तरह सुबकते हुए बोली।

"फिर क्या हुआ पगली, ऐसे रो क्यों रही है?" रमेश ने गम्भीर होकर पूछा।

"ये साड़ी.. उसने अपनी फैली हुई साड़ी को समेटते हुए धीरे से कहा।
"क्या हुआ इसे?" रमेश को जैसे उसकी बात समझ में नहीं आयी।

"माँ ने कहा था की सुबह बिखरे कपड़ों में सास के सामने मत जाना अच्छे से तैयार होकर ही कमरे से बाहर  निकलना। लेकिन मुझे तो साड़ी बांधनी ही नहीं आती और ना ही बाल संवारने आते हैं", रश्मि उदास होकर बोली।

"बस इतनी सी बात?" रमेश जोर से हँसा।

"आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे आपको ये सारा काम आता है", रश्मि रमेश को ऐसे हँसते देखकर तुनक कर बोली।

"हाँ!  हाँ आता है, लाओ मैं करता हूँ", रमेश ने शांत होकर कहा।

रश्मि ने अपनी पूरी साड़ी खोली और रमेश के सामने जाकर खड़ी हो गयी।

रमेश ने एक नज़र उसे देखा, लंबी, पतली, सांवली सी रश्मि इतनी भी कमजोर नहीं थी जो बिल्कुल बच्ची लगे बल्कि उसकी शारीरिक बनाबट उसे सुदृढ और बहुत सुंदर बना रही थी।
लेकिन अगले ही पल रमेश ने अपने सर को झटका और उसकी साड़ी बाँधने लग।

साड़ी बान्धकर उसने उसके बाल ठीक करके एक चोटी बना दी।
इस दौरान रश्मि बस उसे देखती ही रही।

बाहर आकर रश्मि ने सर पर पल्ला लिया और आगे बढ़कर सास के पैर छुए।
उसके बाद उसने रमेश की भाभी की पैर छुए।

"अरे सदा सुहागन रहो रश्मि बहु, और बताओ देवर जी ने ज्यादा सताया तो नहीं रात में?" जेठानी ने उसे एक तरफ ले जाते हुये हँस कर  पूछा।

"नहीं जिज्जी, ये तो बहुत अच्छे हैं बहुत प्यार करते हैं हमें इन्होंने तो हमारी चोटी...!" रश्मि कुछ कहते-कहते रुक गयी और अपनी जीभ दाँतो में दबा ली। उसे माँ की बात याद आ गयी थी कि पति-पत्नी के बीच की बात किसी को भी नहीं बताते चाहे कुछ भी हो जाये।
अगर बहुत जरूरी लगे तो बस अपनी माँ को बता सकते हैं।

"क्या चोटी...?" तब तक उसकी जेठानी ने सवाल किया?

"अरे कुछ नहीं जिज्जी, हमारी चोटी उन्हें बहुत अच्छी लगी", रश्मि ने बात बदली और दोनों हँसने लगीं।

"अरे रश्मि ये क्या कर रही हो?" रमेश ने रश्मि को देखकर कहा जो उसके पैरों पर पेन से कुछ लिख रही थी।

"वो जिज्जी ने बताया कि पति के तन-मन पर केवल उसकी पत्नी का अधिकार होता है।
उस पर अपने निशान छोड़कर अपना हक जमाये रखना नहीं तो कोई और औरत... ये मर्द लोग बहुत रसिया होते हैं किसी भी औरत की मीठी बातों में फँस जाते हैं। इसीलिए आपके अंगों पर अपना नाम लिख रही हूँ", रश्मि ने बहुत भोलेपन से जवाब दिया।
"अच्छा मासाब पति का भी तो उतना ही हक होता होगा पत्नी के तन-मन पर...? तो लो आप भी लिखो आपका नाम मेरे अंगों पर।
हाँ याद आया मेरी भाभी ने मेहंदी से आपका नाम लिखा था मेरे हाथों में लेकिन अब मिट गया", वह  अफसोस करके बोली।
"लो लिखो ना", उसने पैन रमेश के हाथ में रखकर कहा।
रमेश आश्चर्य से उसके भोलेपन को देखता रह गया।
"अरे पागल भाभी मज़ाक कर रही थी तुम्हारे साथ", उसे अपनी भाभी की सोच पर गुस्सा आ रहा था कि इतनी छोटी बच्ची को क्या सिखा रही हैं।

"अच्छा रश्मि तुम्हे लिखना आता है?" रमेश ने प्यार से पूछा।

"हाँ मास्साब मैं पांचवी तक पढ़ी हूँ", रश्मि अब रमेश को मास्साब कहती थी।

"तो आगे क्यों नहीं पढ़ी?", रमेश ने पूछा।

पापा के मरने के बाद अम्मा ने स्कूल नहीं  जाने दिया", रश्मि उदास होकर बोली।

"तुम्हे पढ़ना अच्छा लगता है रश्मि? आगे पढ़ोगी?", रमेश ने उसका हाथ पकड़कर प्यार से पूछा।

"हाँ, पढूंगी लेकिन सासु माँ नाराज़ नहीं होंगी?" रश्मि ने खुशी के साथ ही सवाल भी किया।

"कोई नाराज नहीं होगा, कल से मैं  तुम्हे पढ़ाऊँगा। मैं तुम्हारे लिए किताब, कॉपी, पेन सब लेकर दूँगा और स्कूल में भी बात कर लूंगा तुम्हारे इंतिहान की।
तुम सीधे आठवी की परीक्षा देना और फिर दो साल बाद हाई स्कूल की बोर्ड की।
बोलो कर लोगी इतनी मेहनत?" रमेश ने बड़े प्यार से पूछा।

"हाँ जी सर जी कर लेंगे हमने वादा किया था ना कि आपकी हर बात मानेंगे", रश्मि खुशी से चहकते हुए बोली।

अगले ही दिन से रश्मि की पढ़ाई शुरू हो गयी।
रश्मि पढ़ाई में होशियार भी थी और मेहनती भी। साथ ही उसने घर के कामों को भी पूरी लगन से सीख लिया, उसकी सास और जिठानी को कभी उससे कोई शिकायत नहीं हुई।
अब वह खुद साड़ी भी बांधने लगी और चोटी तो पूरे मोहल्ले की लड़कियां उससे सीखती थीं। साथ ही वह उन लड़कियों को पढ़ना भी सिखाती थी।

आज रश्मि की शादी को पूरे तीन साल हो चुके थे। उसने हाईस्कूल की परीक्षा दी थी और आज ही उसका परिणाम भी आया था।
रश्मि प्रथम श्रेणी में पास हुई थी।  रमेश और उसकी माँ बहुत खुश थे। उसकी माँ ने तो मोहल्ले में मिठाई भी बांटी थी।

"अरे रमेश की माँ बाकी सब तो ठीक है, तेरी बहु सुंदर भी है और गुणी भी लेकिन एक बात तो बता, तीन साल हो गए व्याह को और अभी तक कोई खुशखबरी ना सुनाई तेरी बहु ने। मेरी मान तो किसी बैध या ओझा से बात कर", रश्मि के कान में किसी महिला की आवाज आई जो उसकी सास से बात कर रही थी।

"अरे बहन हो जाएगा अभी जल्दी भी क्या है, अभी बच्चे ही तो हैं दोनो कर लेंगे बच्चे भी",
उसने अपनी सास का जवाब भी सुना।

वह औरत चली गयी लेकिन जाते-जाते  वह अपने साथ कि औरतों से इसी बारे में बात करती जाती थी।
रश्मि के कानों में पहली बार किसी की बातें चुभी थीं।
अब रश्मि इतनी बड़ी तो हो ही गयी थी कि उसे इन बातों का मतलब पूरी तरह समझ में आ रहा था।
"बच्चा...", वह सोचकर अंदर तक शरमा गयी, आज उसे न जाने क्यों अपने औरत होने का अहसास हो रहा था। आज उसे समझ आ रहा  था कि वह बच्ची नहीं है।
"लेकिन बच्चे के लिए बैद्य के पास..?" उसने खुद से सवाल किया, "बच्चे तो पति-पत्नी के मिलन..."  सोच कर वह अंदर तक लजा उठी, लाज की लाली उसके पूरे चेहरे पर फैल गयी।
लेकिन हमारे बीच तो कभी वैसे सम्बन्ध..." उसने मन ही मन सोचा। आज पढ़ी लिखी रश्मि को अच्छे से पता था कि बच्चा होने के लिए उसे बैद्य नहीं अपने पति के ही सहयोग की जरूरत होगी।
"बस बहुत हो गया, कोई मेरी बजह से माँ जी को ताने मारे ये मुझे बर्दास्त नहीं होगा", उसने जैसे मन ही मन कोई फैसला कर लिया था।

रात को ट्यूशन पढ़ाकर लौटे रमेश ने साइकिल खड़ी की, आजकल ज्यादा ट्यूशन होने के चलते अक्सर उसे रात हो जाती थी और रश्मि या तो पढ़ रही होती थी या फिर सो जाती थी।
रमेश की माँ ने उसे खाना दिया और खाना ख़ाकर वह कमरे में चला गया।
कमरे में  जाकर उसे बाहर आश्चर्य हुआ।
रश्मि दुल्हन का जोड़ा पहने घूँघट ओढ़े चारपाई पर बैठी हुई थी।
सामने मेज पर थाली में एक दिया जल रहा था और उसमें सिंदूर की डिब्बी भी रखी थी।

"क्या हुआ रश्मि, ये सब क्या है? रमेश ने पूछा।

"आज हमारी शादी को पूरे तीन साल हो गए हैं जी, भूल गए आप? आज हमारी एनिवर्सरी है" रश्मि ने घूँघट के अंदर से  जवाब दिया।

"हाँ-हाँ याद है लेकिन ये सब क्या है", रमेश ने चकित होकर पूछा।

"आज मुझे अपना राजकुमार चाहिए, आपने एक पिता की भूमिका बहुत अच्छी तरह निभाई है, अब वक्त आ गया है मेरे सपनों का राजकुमार बनकर एक अच्छे पति की भूमिका निभाने का।
मैं एक बेटी बनकर बहुत जी ली अब मुझे एक पत्नी, एक माँ का अधिकर चाहिए",  रश्मि ने कहा।

"पगल हुई हो या फिर किसी ने तुम्हारे कान भर दिए कि पति के शरीर पर पत्नी का हक होता है नही तो दूसरी औरत..." रमेश ने गम्भीर होकर पूछा।

"आप पहले घूँघट उठाकर मेरी माँग में सिंदूर तो भरो फिर बताती हूँ", रश्मि ने कहा।

रमेश ने उसका घूँघट उठाया तो देखता ही रह गया, दिए के प्रकाश में रश्मि बिल्कुल सूरज की पहली किरण ही लग रही थी।
उसने आज जी भरकर खुद को सजाया था उसकी आंखें झुकी हुई थीं।
रमेश ने उसकी मांग में सिंदूर भरा और उसका चेहरा ऊपर उठाया।

"हाँ तो अब बताओ क्या बात है?" रमेश ने पूछा।
"अरे किसी ने मेरे कान नहीं भरे जी, और कोई भर भी नहीं सकता। मैं तीन साल से हर पल आपके साथ थी आपने मुझे हर अवस्था में देखा लेकिन आपके मन में कभी कोई गलत बात नहीं आयी। जबकि आपका मुझपर पूरा हक भी है । तो  किसी दूसरी औरत से आपके सम्बन्ध तो आप खुद भी कहोगे तो मैं नहीं मान सकती", रश्मि ने मुस्कुराते हुए कहा।

"फिर ये सब?" रमेश ने पूछा।

"मुझे अपने पति से प्यार हो गया है और मैं अपने प्यार से आज फिर से शादी करके पत्नी होने का अहसास मांगती हूँ", रश्मि ने शरमाते हुए मुस्कुराकर कहा।

"लेकिन रश्मि मैं तुम्हारे साथ..., मुझसे नहीं होगा", रमेश ने धीरे से कहा।

"मैं जानती हूँ, आप मुझे हमेशा बच्ची ही समझते हो और इसीलिए ... लेकिन आज हम जब शादी की रस्म कर लेंगे तो आपके अंदर खुद पति का रूप जन्म ले लेगा, आओ ना फेरे लेते हैं, कहकर रश्मि ने खुद ही रमेश का हाथ पकड़ा और दिए के  चक्कर लगाने लगी।

सच में हर फेरे के साथ रश्मि रमेश की नज़रों में बड़ी होती जा रही थी।

फेरे खत्म करके रश्मि फिर घूँघट ओढ़ कर चारपाई पर जाकर बैठ गयी और बोली,
"अब सुहागरात आप मना लोगे या वह भी मैं ही..."

उसकी बात सुनकर रमेश जोर से हँसा और उसका घूँघट उलट दिया।
रश्मि कसकर रमेश के सीने से चिपक गयी और रमेश के  होंठ उसके होंठो की तरफ बढ़ने लगे.....
समाप्त

©नृपेंद्र शर्मा "सागर"
9045548008




  

तीस साल बाद

यूँ तो वह घर से शाम को अँधेरा होने से पहले ही निकला था लेकिन फिर भी घर से चार किलोमीटर का जंगल और पहाड़ चढ़ने में उसे कोई तीन घण्टे का समय लग गया।

और जब वह ऊपर रोड तक पहुंचा तब तक अँधेरा पूरी तरह घिर आया था।
उसने अपना मोबाइल निकाल कर समय देखा, "अरे साढ़े नौ बजे गए?!! अब तो मुझे कोई वाहन भी नहीं मिलेगा।
उसने अफसोस किया और एक पत्थर पर बैठ गया।

हुआ कुछ ऐसा था कि हरीश को उसके भाई का फ़ोन आया कि कल सुबह तक वह कुछ भी करके दिल्ली पहुंचे क्योंकि कल उसके पिताजी का ऑपरेशन होना है और उन्हें खून की जरूरत भी पड़ेगी।
उसके पिताजी काफी समय से बीमार चल रहे थे और उसका बड़ा भाई उन्हें लेकर इलाज के लिए दिल्ली गया हुआ था।
घर में हरीश उसकी भाभी और बूढ़ी माँ ही थे।

हरीश ने फोन अपनी भाभी को दिया और दोनों ने बात करने के बाद आपस में सलाह की।
"भाभी अब शाम होने वाली है और दिल्ली बहुत दूर है।
फिर भी मै अभी निकल जाता हूँ, आप रास्ते के लिए कुछ खाने का बना दो। और मां को मत बताना नहीं तो चिंता करेगी", हरीश ने कहा।

"ठीक है तुम हरिद्वार हाइवे तक पहुँच जाओगे तो तुम्हे ट्रक या दूसरी कोई गाड़ी मिल जाएगी।
आजकल चार धाम की यात्रा चल रही है रात में भी कई गाड़ियां आती-जाती रहती हैं", उसकी भाभी ने कहा और उसके लिए पराँठे बनाने लगी।

मई के आखिरी दिन चल रहे थे, शाम को सात बजे तक ठीक-ठाक उजाला रहता था।
हरीश ने अपना छोटा सा बैग उठाया और निकल पड़ा जँगल के रास्ते।
उनका गाँव रुद्रप्रयाग जिले में मेन रोड से कोई  चार-पांच किलोमीटर नीचे था।
रोड तक आने के लिए कच्ची पगड़न्ड़ी थी जो चीड़ के घने जंगल से होकर आती थी।
हरीश के पिता जी  'रुद्रनाथजी' के बहुत बड़े भक्त थे, और उनके साथ ही हरीश और उसका भाई भी मन्दिर में सेवा  करते थे। हरीश ने घर में रखे रुद्रनाथ जी के विग्रह के सामने दिया जलाया और अपनी तथा अपने पिताजी की सलामती के लिए प्रार्थना की।
जैसे ही हरीश जँगल में पहुंचा अचानक बहुत तेज़ हवा चलने लगी और घना अँधेरा छा गया। चीड़ की पत्तियां उस तेज हवा में उड़ने लगीं और कुछ ही देर में पगड़न्ड़ी दिखाई देनी बन्द हो गयी।
हरीश की उम्र अभी सोलह-सत्रह साल की ही थी वह इस मंजर से घबरा तो रहा था लेकिन लड़कपन के जोश में उसने चलना जारी रखा।
एक बार फिर हरीश ने सच्चे मन से हाथ जोड़कर रुद्रनाथ जी को याद किया और आगे बढ़ गया।
कुछ दूर चलने पर हरीश को जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई उसे रास्ता दिखा रहा है।
उसे नहीं पता था कि वह किस ओर जा रहा है, लेकिन वह तेजी से चल जा रहा था।
और अब वह उस सड़क पर एक पत्थर पर बैठा हुआ था।
उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसे यहाँ तक पहुंचने में ढाई-तीन घण्टे कैसे लगे जबकि उसका घर से रोड तक आने का समय ज्यादा से ज्यादा एक-डेढ़ घटा था।

हरीश को वह रोड भी जानी पहचानी नहीं लग रही थी ये कोई बहुत चौड़ी रोड थी और बहुत ऊँचाई पर थी।
इस रोड के एक ओर ऊँचा पहाड़ था और दूसरी ओर बहुत गहरी खाई।

हरीश को आये कोई दस-पन्द्रह मिनट ही हुए होंगे, अभी वह कुछ सोच ही रहा था कि सामने मोड़ से एक बस के हॉर्न की आवाज आई।
हरीश उठकर खड़ा हो गया और लिफ्ट मांगने के लिए हाथ हिलाने लगा।

उसे सामने से दो लाइट्स दिखयी दे रही थीं, उसने जोर जोर से हाथ हिलाना शुरू कर दिया।
चरर्रर्रर!!!
बस उसके पास आकर  चरर्रर्रर की तेज आवाज करती हुई रुक गयी।
वह दौड़ कर बस  के पास आया बस बहुत पुरानी लग रही थी उसका पेंट मिट चुका था और उसपर लगा लाल-लाल जंग इस अंधेरे में भी नजर आ रहा था।
हरीश तेजी से खिड़की की तरफ लपका, बस की खिड़की भी टूटी हई थी।
उसके अंदर एक बहुत हल्की लाइट जल रही थी, हरीश जल्दी से अंदर चढ़ा और उसके चढ़ते ही बस चल पड़ी।

बस लगभग खाली थी कंडक्टर और ड्राइवर के अलावा कुछ दस-बारह लोग ही बस में थे और ज्यादातर सीटें खाली थीं।

हरीश एक पूरी खाली सीट पर खिड़की के पास बैठ गया।

बस के सभी यात्री और कंडक्टर की आँखे खुली हुईं थीं, लेकिन उनमें से किसी ने भी इसे देखकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी।
उसने बहुत ध्यान से उन सबको देखा वे सब ऐसे लग रहे थे जैसे आंखें खोल कर सो रहे हों।
हरीश को बहुत अजीब लगा कि कैसे लोग हैं जो आंखें खोल कर सो रहे हैं।

कुछ देर बाद वह उठकर कंडक्टर के पास आया उसने उसे आवाज लगाई, "दाज्यू टिकिट बना दीजिये", लेकिन कंडक्टर आंखें खोले शून्य में ही देखता रहा उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
"अरे ये सब पुतले हैं क्या?", हरीश ने अपने मन में सोचा।
अब वह घूमकर ड्राइवर के पास गया।
ड्राइवर की स्थिति भी बिल्कुल बैसी ही थी। उसकी आंखें भी शून्य में टिकी हुई थीं, उसके हाथों के अलावा बाकी कोई अंग हरकत नहीं कर रहा था।

गाड़ी की रफ्तार भी बहुत तेज़ थी लेकिन वह न तो ब्रेक लगा रहा था और ना ही गियर बदल रहा था।

अब हरीश को पहली बार डर लगा, उसके रोंगटे खड़े हो गए।
उसे लगा कि कुछ तो विचित्र घट रहा है उसके साथ।
उसने खिड़की के बाहर झांक कर देखा, वह गाड़ी जैसे हवा में उड़ रही थी।

"रोको!!!@...", हरीश की डर के मारे चीख निकल गयी।
तभी उसे भिनभिनाती हुई ऐसे आवाज आई जैसे हज़ारों मधुमक्खी एक साथ भिनभिना रही हों।

उसने ध्यान से देखा, बस में बैठा हर आदमी हँस रहा था और उनके मुँह से हँसने की बहुत धीमी आवाज आ रही थी।
उनकी आंखें अभी भी शून्य में ही देख रही थीं और उनके चेहरे के भाव भी नहीं बदले थे।

हरीश अब डरकर जोर से चिल्ला रहा था, "बस रोको.. उतारो मुझे..
वह बस से कूदना चाहता था लेकिन इतनी तेज भागती बस से कूदना भी उसके लिए आत्महत्या करने जैसा ही था।

वह बस में आगे पीछे भाग रहा था और उनके हँसने की आवाज अब तेज़ होती जा रही थी।

काफी देर ऐसे ही भागने के बाद अचानक फिर, "चिरर्रर!!!" की तेज आवाज के साथ वह बस रुकी।
हरीश जल्दी से अपना बैग लेकर नीचे उतर गया।

"उधर चले जाओ...! " तभी उसने एक आवाज सुनी, उसने पलट कर देखा, कंडक्टर उसे एक तरफ को इशारा करके बता रहा था।

हरीश को कुछ समझ नहीं आया कि उसके साथ क्या हो रहा है लेकिन फिर भी वह उसकी बतायी दिशा में चल दिया।
कोई आधा घण्टा उस पहाड़ से नीचे उतरने पर उसे बहुत सारी लाइट्स नजर आने लगीं जैसे कि बहुत बड़ा शहर हो।

उसने अपनी गति और बढ़ा दी और जब वह नीचे उतर कर शहर में पहुँचा तो उसे पता चला कि ये ऋषिकेश है।

उसने पूछताछ की तो उसे रात दो बजे दिल्ली के लिए ट्रेन होने की जानकारी मिली जो स्पेशल ट्रेन थी और चारधाम यात्रा के लिए चलाई गई थी।

उसने अपना मोबाइल निकाल कर समय देखा रात का एक बजकर बीस मिनट हो गए थे अर्थात उसके पास स्टेशन पहुँचकर गाड़ी पकड़ने के लिए पर्याप्त समय था।

हरीश टिकिट लेकर गाड़ी में बैठ गया, वह पूरे रास्ते उस बस के बारे में ही सोच रहा था।
अगले दिन वह समय से दिल्ली पहुंच गया जहाँ उसके पिताजी का सफल ऑपरेशन हुआ।
इन दोनों ही भाइयों को दो-दो यूनिट खून देना पड़ा था।

शाम को होटल में चाय पीते समय हरीश की नज़र सामने पड़े अखबार पर पड़ी उसमे मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था,

"तीस साल पहले" खाई में गिरी बस कल रात रुद्रप्रयाग ऋषिकेश मार्ग पर दिखी।

उसे पढ़कर हरीश के हाथ से चाय का गिलास छूट गया और वह अपने होश खोकर जमीन पर गिर गया।

दो दिन बाद नार्मल होने पर हरीश सोच रहा था कि "ये सब उसके साथ क्यों हुआ? ये जरूर भगवान रुद्रनाथ जी की माया थी जो उन्होंने इनके पिताजी को बचाने के लिए की थी।

तबसे हरीश हर साल चारधाम यात्रा में भगवान रुद्रनाथ जी के नाम से भंडार लगाता है।

©नृपेंद्र शर्मा "सागर"
९०४५५४८००८

अहिल्या का स्वयंवर

परमपिता ब्रह्मा की आज्ञा और निर्देशों में, महृषि गौतम के आश्रम में 'देवी अहिल्या' के स्वयंवर का आयोजन हो रहा था।

देवी अहिल्या खुद परमपिता ब्रह्मा की ही मानस पुत्री थीं, जिन्हें उन्होंने बचपन में ही उचित पालन-पोषण और शिक्षा के लिए 'ऋषि गौतम' के आश्रम में छोड़ दिया था।
ऋषि गौतम की गिनती सप्त महाऋषियों में होती है; उनके ज्ञान-विज्ञान और योग साधना की किसी से कोई तुलना नहीं थी।
वे उस समय के महान शस्त्र निर्माता थे और केवल आर्य या देवता ही नहीं बल्कि असुर और दैत्य भी उनसे शस्त्र ज्ञान लेने आते थे।

देवी अहिल्या उस समय की सर्वश्रेष्ठ सुंदरी थी, उनका जन्म ब्रह्मलोक में हुआ था इसलिए उनमें देवत्व का अलौकिक तेज़ था और उनका पालन-पोषण आर्य ऋषि गौतम के यहां हुआ था, इसलिए उनमें आर्यों के योग-साधना के गुणों के साथ ही अद्भुत ज्ञान भी था।

देवी अहिल्या की सुंदरता एवं गुणों की चर्चा उस समय देवलोक से लेकर पाताल लोक तक फैली हुई थी।

इसीलिए जब ब्रह्मा जी ने उनके स्वयंवर का आयोजन किया, तो उसमें बड़े-बड़े आर्य राजाओं के साथ ही कई महा दैत्य, राक्षस, और यक्षों-गंधर्वों के साथ ही  कई देवता भी सम्मिलित हुए थे।

महृषि गौतम ने उस समय के कई सर्वश्रेष्ठ ऋषियों को भी निमंत्रण दिया था, इसलिए आश्रम में आस-पास के ही नहीं पूरे आर्यवर्त के ऋषि-महृषि भी वहां उपस्थित थे।

सोलह वर्ष की अहिल्या, फूलों से श्रृंगार किये रेशमी वस्त्र और अलंकार से सुसज्जित होकर जब स्वयंवर सभा में आईं तो उनके तेज़ से स्वम् सूर्यदेव की आंखें भी चुंधिया गयीं;
उनके  सौम्य, शीतल उजले मुख को देखकर स्वम् चन्द्रमा को भी ईर्ष्या होने लगी।
उनके रूप-लावण्य को देखकर कितने ही असुर और आर्य राजा गश खाकर गिरने लगे।

उनके रूप के तेज से कई ब्रह्मचारी ऋषियों का तेज भी काम में परिवर्तित होकर बहने लगा और वे शर्मिन्दा होकर आश्रम छोडकर चले गए।

सभा में उपस्थित आर्यों को जहाँ अपने पराक्रम पर घमंड था, वहीं असुरों को अपनी शारीरिक शक्ति पर।

लेकिन देवताओं को पूरा विश्वास था कि उनके रूप और ऐश्वर्य के चलते अहिल्या उन्ही में से किसी को पति के रूप में वरण करेगी।
देवराज इंद्र और चन्द्रदेव तो पहले ही अहिल्या के रूप-सौंदर्य पर मोहित थे।
और चाहते थे कि अहिल्या उनमें से ही किसी का चुनाव करके स्वर्ग में आये।

निश्चित समय पर स्वयंवर शुरू हुआ; देवी अहिल्या हाथों में लाल पुष्पों की माला लिए, अपनी कुछ सखियों के साथ आगे बढ़ी।
आश्रम परिसर में पत्थर की शिलाओं पर पहली पंक्ति में सभी देवगण और यक्ष गन्धर्वादी बैठे हुए थे।
ये सब जैसे पूर्ण आश्वस्त थे कि देवी अहिल्या का चुनाव और ये स्वयंवर दोनों ही इसी पंक्ति में समाप्त हो जाएगा, किन्तु ये क्या!? देवी अहिल्या इन्हें कुछ पल रुक कर देखने के उपरांत आगे बढ़ गयी। देवता बस आह भरकर रह गए।

उसके बाद कि पंक्ति में आर्यवर्त के महान पराक्रमी राजा बैठे हुए थे जिनमें कई तो इतने सामर्थ्यवान थे कि खुद देवराज इंद्र उनसे असुरों के विरुद्ध उनके युद्धों में सहायता लेते थे।
देवी अहिल्या ने उन सब को भी देखा और कुछ पल रुक कर फिर आगे बढ़ गयीं, ये सभी आर्य राजा भी बस ठंडी साँस छोड़कर रह गए।

उसकी अगली पंक्ति थी दैत्यों और महाअसुरों की, ऐसे-ऐसे परम् शक्तिशाली असुर जिनसे खुद देवताओं के राजा इंद्र भी भयभीत रहते थे।
देवों और आर्यों को ना चुनने पर अब ये असुर लोग पूर्ण निश्चिंत थे की अब अहिल्या से विवाह का सौभाग्य उन्ही में से किसी को मिलेगा।

अहिल्या ने पल भर को असुरों की तरफ देखा और चेहरे पर घृणा के भाव लिए फिर आगे बढ़ गयी।

उसके इस प्रकार असुरों के तिरस्कार से, जहां असुरों के चेहरे क्रोध से तमतमा उठे थे वहीं देवों में फिर एक बार आशा की किरण जाग गयी थी कि हो सकता है अब देवी अहिल्या उनमें से ही किसी का चुनाव करेंगी।

लेकिन अहिल्या अब, अपने पिता ब्रह्मा जी और महृषि गौतम के साथ बैठे अन्य ऋषियों की ओर बढ़ गयीं।

पिता ब्रह्मा और गौतम के साथ ही अन्य ऋषि भी आश्चर्य से अहिल्या को देख रहे थे।

अहिल्या ऋषि पंक्ति के सामने आकर कुछ पल रुकी और फिर  उसने कुछ निर्णय करके, वरमाला महृषि गौतम के गले में डाल दी।

उनके ऐसा करते ही सारा जनसमूह आश्चर्य चकित रह गया, उनमें से किसी को भी ऐसी आशा नहीं थी।
किसी अन्य को क्या, स्वम् परमपिता ब्रह्मा और ऋषि गौतम ने भी नहीं सोचा था कि अहिल्या ऐसा कुछ करेगी।

अचानक सारे उम्मीदवार एक स्वर में चीखने लगे, "धोखा है ये तो, जब अहिल्या को अपने पालक को ही पति के रूप में चुनना था तो फिर ये सब आडम्बर क्यों?
क्या इस आश्रम में खण्डित होती सम्बन्धों की परिभाषाओं को दिखाने के लिए हमें यहाँ बुलाया गया था?
क्या ऋषि गौतम, देवी अहिल्या के पालक होने के नाते उसके पिता समान नहीं हैं?
ये पाप है, हम इसे स्वीकार नहीं करेंगे, ये दुष्कृत्य हम नहीं होने देंगे", परस्पर  विरोधी, देव और दानव भी एक स्वर में विरोध प्रदर्शन कर रहे थे और आर्य राजा अपने अस्त्र उठाकर बलप्रयोग के पक्ष में आ गए थे।

तभी कुछ ऋषि उठकर बोले, "परमपिता ब्रह्माजी ये सब आखिर हो क्या रहा है? जब अहिल्या को ऋषि गौतम ही पसन्द थे और वे उनके साथ एक आश्रम में पहले से ही रह रहीं थी, तो फिर स्वयंवर के इस आयोजन का प्रयोजन ही क्या था?
हम समझते हैं की ऐसी रूपवान स्त्री के पास में होने पर, जिसे पाने के लिए ये देव और दानव तक परस्पर शत्रुता भुलाते हुये एक मत हो गए; ऋषि गौतम का आसक्त हो जाना स्वभाविक ही था और वह भी तब, जब वे उन्हें सहज सुलभ थी।
किंतु जब उनके बीच ऐसे प्रेम सम्बन्ध थे, तो वे दोनों आपको बताकर भी तो विवाह कर सकते थे।
फिर ये पिता पुत्री जैसे पवित्र  सम्बन्धो, (जो इनके बीच कई द्रष्टि से बनते हैं, जैसे पालक और गुरु-शिष्या ) को ऐसे सबके सामने खण्डित करते हुए अन्य कृत्य करने की क्या आवश्यकता थी।"

"किन्तु हमें नहीं लगता कि इनके बीच कोई पूर्व प्रेम सम्बन्ध थे", ब्रह्मा जी कुछ सोचते हए बोले।

"सम्बन्ध नहीं थे तो फिर आपकी कन्या ने हम सबका परिहास करते हुए, ऋषि गौतम को ही पति के रूप में क्यों चुना पितामह? आप पुत्री के मोह में उसके पक्षधर हो रहे हैं ब्रह्मदेव, इसलिए वास्तविकता को समझने का प्रयत्न ही नहीं कर रहे हैं", कई ऋषियों ने एक साथ कहा। ये ऋषि  भी अब उपस्थित प्रतिभागियों का प्रतिनिधित्व करने लगे थे।

"हमारे बीच कभी कोई अमान्य सम्बन्ध नहीं रहे हैं , और ना ही हमने कभी देवी अहिल्या को उस दृष्टि से देखा है; बाकी आज जो भी हुआ वह हमारे लिए भी अप्रत्याशित ही है।
हम खुद आश्चर्य में हैं कि देवी अहिल्या ने ऐसा क्यों किया? हम तो स्वयं उनके सुखी और स्मृद्ध भविष्य की कामना कर रहे थे और उसी को दृष्टि में रखते हुए आप लोगों को चुनकर यहाँ स्वयंवर के लिए आमंत्रित किया था", अचानक गौतम ऋषि उठकर अपने गले से माला उतारते हुए बोले।

फिर सारे जनसमूह की दृष्टि अहिल्या की तरफ उठ गई देवी अहिल्या के मुख पर उनके निर्णय की अडिगता और अपने चुनाव की प्रसन्नता स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी वे मन्द-मन्द मुस्कुरा रही थीं।

"हम अहिल्या से बात करते हैं की उनके इस निर्णय के पीछे क्या कारण है; बेटी अहिल्या जरा  हमारे साथ कुटिया में आना", ब्रह्मा जी कुटिया की ओर बढ़ते हुए बोले।

कुटिया में आकर ब्रह्मा जी ने अहिल्या से प्रश्न किया,
" बेटी जब तुम्हे ऋषि गौतम ही पति रूप में स्वीकार थे, तब तुमने हमें पहले ही क्यों नहीं बताया? क्या तुम्हें लगा कि हम तुम्हारे प्रेम को अस्वीकार कर देंगे?"

"नहीं पिताजी ऐसी तो कोई बात ही नहीं थी, हमें किसी से प्रेम नहीं हुआ है, और न ही ऋषिवर और मेरे बीच कभी कोई गलत सम्बन्ध ही बने हैं; ये तो मैंने सबको देख-परख कर ही निर्णय लिया है पिता जी", अहिल्या ने उत्तर दिया।

"लेकिन पुत्री एक ऋषि की पत्नी बनकर तुम्हे क्या मिलेगा, तुम देवताओं को चुनकर स्वर्ग के सुखों का भोग कर सकती थीं,  किसी प्रतापी आर्य राजा को चुनकर बसुधा के रसों का भोग कर सकती थी, या फिर किसी महादानव को चुनकर महाशक्तिशाली पुरुष की पत्नी होने का गौरव प्राप्त कर सकती थी; फिर बेटी तुमने एक अभावग्रस्त, वनवासी ऋषि को ही क्यों चुना?" ब्रह्मा जी ने अहिल्या से पूछा।

"पिता जी एक स्त्री का सच्चा गौरव होता है इसके पति का सर्वस्य समर्पण और उसके प्रति सच्चा पत्नीव्रत; एक स्त्री अभाव में प्रसन्नता से जीवन व्यतीत कर सकती है किंतु अपने पति को किसी अन्य स्त्री के साथ साझा करना उसे मृत्यु से भी अधिक कष्ट देता है। अभाव धन-सम्पत्ति या ऐश्वर्य का अधिक महत्व नहीं रखता पिताजी किन्तु यदि उसका पति उसके प्रति सच्चा समर्पित नहीं  तो उससे बड़ी अभागी और अभवग्रस्त स्त्री संसार में कोई हो ही नहीं सकती।
किन्तु पिताजी ऋषि गौतम के अतिरिक्त किसी भी अन्य का चुनाव मुझे ये गौरव नहीं दे सकता था।
पिताजी देवराज इंद्र के पास पहले से ही उनकी पत्नी इंद्राणी और अनेकों अप्सराएं हैं, फिर भी उन्हें मुझसे विवाह करना है; इसका अर्थ है उन्हें पत्नी  नहीं एक सुंदर शरीर चाहिए भोगने के लिए। और पिताजी अन्य देवताओं की स्थिति भी भिन्न नहीं है; चन्द्र देव भी पहले से ही सत्ताईस नक्षत्र कन्याओं के पति हैं, इसका अर्थ भी वही है कि ये पत्नी नहीं भोग्या के लिए यहां उपस्थित हैं।
ऐसे ही पिताजी आर्य राजाओं की स्थिति है , ये लोग तो युद्ध के विजय में भी स्त्रियां प्राप्त कर लेते हैं और कई बार तो स्त्रियों के लिए ही युद्ध भी करते हैं ये भी स्त्री को बस्तु के अतिरिक्त कुछ नहीं समझते नहीं तो आप ही बताइए पिता जी युद्ध की विजय के बाद लूट में स्त्रियों का क्या काम?
और अनेक पत्नियों एवं उप-पत्नियों को आर्य राजाओं की समृद्धि की निशानी माना जाता है, तो पिताजी आप ही बताइए वहाँ क्या मुझे वह गौरव वह सम्मान मिल सकता था?

और दैत्य ..असुर.. इनके तो मनोरंजन ही मदिरा और मद अर्थात स्त्रियों के भोग से होते हैं, तो ये भला किसी स्त्री का सम्मान क्या करेंगे।

अब आप ही बताइए पिता जी मैंने ऋषि गौतम को चुनकर क्या गलत किया? वे ऋषि जिन पर आपने भी पूर्ण विश्वास करके मेरे लालन-पालन का भार सौंप दिया था, वे ऋषि गौतम जिनको मैंने आश्रम में किसी भी स्त्री को माता या पुत्री के अलावा कोई और सम्बोधन करते नहीं देखा।
वे ऋषि गौतम जिन्हें मैं लाख  चेष्टाओं के बाद भी प्रेम पथ पर ना ले जा सकी, उन्होंने इतने पास रहकर भी मेरी ओर कभी कुदृष्टि से नहीं देखा जबकि मैंने कई बार उन्हें इसका गुप्त निमंत्रण देने की धृष्टता की।
बल्कि जब भी मैं ऐसी कोई चेष्टा करती वे सदा मुस्कुरा कर यही कहते, "ये शतारतें भली कन्याओं को शोभा नहीं देती अहिल्ये" उनका चरित्र ही मेरे सुख और गौरव की  निश्चिंतता है पिता जी",अहिल्या गर्व से बोली।

"लेकिन उनकी आयु पुत्री? ऋषि गौतम चालीस वर्ष से अधिक ही आयु के होंगे और तुम अभी अल्पवय..." ब्रह्मा ने कहा।
"आयु का क्या है पिता जी, ऋषि गौतम महायोगी हैं, सत्चरित्र हैं, और सत-आहारी हैं इसलिए आयुकाल का उनपर कभी कोई प्रभाव नहीं होता।
ऐसे भी इंद्र आदि देवगण क्या उम्र में मेरे समकक्ष हैं क्या यहाँ उपस्थित कोई भी आर्य, देव अथवा दैत्य आयु में मेरे अनुरूप हैं?
और रही बात सुख ऐश्वर्य की, तो पिताजी ऋषि गौतम अस्त्र-शस्त्र विशेषज्ञ हैं, परम् साधक हैं, बड़े-बड़े देव, दानव, आर्य और असुर उनसे अस्त्र सन्धान सीखने आते हैं; उनमें इतनी सामर्थ्य तो है पिताजी की वे जब चाहें ये स्वर्ग, ये पाताल या इस पृथ्वी का कोई भी राज्य अपने पुरुषार्थ से जीतकर मेरे चरणों में डाल दें", अहिल्या ने पूरे गर्व से कहा।

"ठीक है पुत्री हमें भी अब तुम्हारे चुनाव पर गर्व है", पिता ब्रह्मा ने अहिल्या के सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते हुए कहा।

"अहिल्या ने बिल्कुल सही  चुनाव किया है हम उनके तर्कों से पूर्ण सन्तुष्ट हैं और हम अहिल्या के साथ महृषि गौतम के विवाह को स्वीकार करते हैं। आप लोगों को जो कष्ट हुआ है हम उसके लिए क्षमा मांगते हुए अब आप लोगों से विदा माँगते हैं", ब्रह्मा जी ने उपस्थित लोगों से कहा।

ये सभी लोग ऋषि गौतम के सामर्थ्य को भली-भांति जनते थे इसलिए चुपचाप आश्रम से चले गए।

आश्रम से बाहर देवराज इंद्र और चन्द्रदेव आपस में बातें कर रहे थे, "देवराज ये तो आपका सरासर अपमान है जो अहिल्या ने आप जैसे देवाधिपति, रूपवान और पराक्रमी पुरुष के स्थान पर  उस बूढ़े ऋषि गौतम का चुनाव किया।" चन्द्रदेव ने इंद्र को उकसाया।

"सही कहते हो चन्द्र देव भला आपके समान सौंदर्य और गुण किसी अन्य पुरुष में हो सकते हैं? लेकिन फिर भी इस अहिल्या ने..." इंद्र भी गुस्से से दाँत चबाते हुए बोला।

"क्या करें देवेंद्र? ऐसा अपमान तो कभी नहीं हुआ", चन्द्र देव ने कहा।

"इस अपमान का प्रतिशोध हम अहिल्या से अवश्य लेंगे, हम भी देखेंगे कि वह हमें ठुकराकर कैसे उस गौतम के साथ सुखी  रह पाएगी;  हम ऐसा प्रतिशोध लेंगे की युगों तक लोग उसे याद करेंगे। आपको भी इसमें हमारा साथ देना होगा चन्द्र देव", इंद्र ने कोई योजना बनाते हुए कहा।

"अवश्य देवराज, अपमान तो हमारा भी हुआ है, अब हम इन दोनों को ऐसे ही नहीं छोड़ेंगे", चन्द ने कहा और ये दोनों किसी गुप्त योजना पर मन्त्रणा करते हुए स्वर्ग लौट गए।

इधर स्वम् ब्रह्मा जी ने बाकी सप्तऋषियों के साथ मिलकर, देवी अहिल्या और महृषि गौतम का विवाह वैदिक विधि-विधान से  सम्पन्न करा दिया।
"इति"

©नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
उत्तरप्रदेश 244601
9045548008

Saturday, April 11, 2020

जेबकतरी

अप्रैल के महीना था,
शाम हो चली थी लेकिन अभी पर्याप्त प्रकाश था।
सुदूर ग्रामीण इलाके के उस छोटे से रेलवे स्टेशन पर बस इक्का दुक्का ही लोग नज़र आ रहे थे।

सुरेश ने अपनी पेंट की पिछली जेब से अपना पर्स  निकालकर उसमें से एक पचास रुपए का नोट निकाला और पर्स बापस जेब में रखकर टिकिट खिड़की की तरफ बढ़ गया।

"बीस रुपये और दीजिये", टिकिट बाबू ने उसके बताये स्टेशन को कम्प्यूटर में फीड करते हुए कहा।

"अच्छा सर अभी देता हूँ", कहते हुए सुरेश ने अपनी जेब में हाथ डाला लेकिन ये क्या उसकी जेब में तो उसका पर्स था ही नहीं!!!
सुरेश ने जल्दी-जल्दी अपनी सारी जेबें टटोल लीं लेकिन उसका पर्स कहीं नहीं था।

"अभी तो मैने पैसे निकाल कर पर्स मेरी जेब में...?",  याद करते हुए सुरेश ने फिर अपनी पेंट की पिछली जेब को झाड़ा।

"जल्दी कीजिये भाई", तब तक खिड़की से फिर टिकिट बाबू की आवाज आयी।

"ज..जी..जी सर अभी लाता हूँ", कहकर सुरेश परेशान होता हुआ उस जगह आकर खड़ा हो गया जहां उसने पर्स निकाला था और वह इधर-उधर देखने लगा कि शायद कहीं गिर गया हो जेब में रखते वक्त, लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी।

"कहाँ गया मेरा पर्स??!!?", वह आँखें बंद करके कुछ सोचता हुए बुदबुदाया।

"ओह्ह!!" तभी अचानक उसे कुछ याद आया और वह एक तरफ दौड़ गया।

जल्दी उसने दौड़कर एक भिखारन जैसी दिखने वाली लड़की को पकड़ा और उसे हाथ पकड़कर खींचता हुआ स्टेशन पर ले आया जो पटरी के सहारे अँधेरे में लगभग भागी हुई चली जा रही थी।
अब तक स्टेशन पर लाइट्स जल चुकी थीं और वहां अच्छा- खासा उजाला हो रहा था।

"ऐ लड़की कहाँ है मेरा पर्स? जो तूने मेरी जेब से निकाला था जब मैं टिकिट लेने के लिए बढ़ रहा था", सुरेश चिल्लाकर उस लड़की से बोला।

"कोनसा पर्स साहब? मैंने तो कोई पर्स नहीं लिया", वह लड़की डरते हुए बोली।

"अच्छा झूट बोलती है...! उस समय तू मेरे पास नहीं खड़ी थी",  सुरेश के तेवर और कड़े हो गए।

"मैं कब खड़ी थी साहिब मैं.. मैं तो.." उस लड़की की आवाज में अब सिसकियां सुनाई पड़ी, सुरेश उस लड़की को ध्यान से देखने लगा।

वह चेहरे से बहुत मासूम सी कोई तेरह-चौदह साल की लग रही थी, सांवला रँग, बड़ी आँखें, लंबे खुले बाल; उसने एक गन्दा सा फ्रॉक पहन रखा था,जो घुटनों के बस थोड़ा ही नीचे पहुंच रहा था। उसके पैरों में दो मेल की पुरानी चप्पल थीं।

किन्तु चेहरे से बच्ची लगने वाली ये लड़की जिस्म से किसी अठारह-बीस साल की महिला जैसी लग रही थी।
जी हाँ महिला क्योंकि उसके शरीर के कटाव समय से पहले ही उभर आये थे और उसका पेट... उसका पेट तो कुछ अलग ही संकेत दे रहा था।
सुरेश उसे देखकर चौंका की इतनी कम उम्र में ये...।

किन्तु अगले ही पल फिर सुरेश के मन मे पर्स का ख्याल आया और उसने फिर कड़क कर पूछा, बताती है या बुलाऊँ पुलिस को।

"बुला लो साहब जब हमने कुछ किया ही नहीं तो डरें क्यों", वह लड़की अब तन कर बोली और झपट्टा मार कर भागने लगी।
उसे सुबकते सुनकर उसे देखने के चक्कर में सुरेश की पकड़ उसके हाथ पर ढीली हो गयी थी और उसी का फायदा उठाकर वह भागने लगी।

"नहीं लिया तो फिर भागती क्यों है सा.. जेबकतरी", सुरेश ग़ुस्से गली देता हुआ उसके पीछे झपटा और कुछ ही कदम पर उसे पकड़ लिया।
इस बार सुरेश ने जब उस पर झपट्टा मारा तो उसका हाथ उस लड़की की छाती पर पड़ा और उसके हाथ में उसके फ्रॉक के साथ ही कुछ और भी चीज या गयी।

ये छोटी सी चीज बिल्कुल सुरेश के पर्स जैसी ही थी।
सुरेश का पर्स हमेशा कुछ पेपरों की वजह से बहुत मोटा हुआ रहता था और अब उसे अपना वही मोटा पर्स उसकी फ्रॉक के अंदर छिपा हुआ महसूस हो रहा था।

"तूने नहीं चुराया तो तेरे पास मेरा पर्स क्या कर रहा है? चोट्टी कहीं की, चल निकाल मेरा पर्स", सुरेश फिर से उसे झिड़कते हुए बोला, लेकिन इस बार उनसे इस 'जेबकतरी' को मजबूती से पकड़ा हुआ था।
इस सुनसान स्टेशन पर अभी तक इन दोनों के बीच अभी तक कोई नहीं आया था।

"मैंने कहा ना कि मैंने नहीं चुराया तुम्हारा पर्स साहब, ये तो मेरे पास मेरा कुछ समान है", इस बार वह लड़की कुछ तेज़ चीखकर बोली।
इतना तेज जैसे वह किसी दूर के व्यक्ति से बात कर रही हो या दूर खड़े किसी को सुनाना चाह रही हो।

"तेरे पास ही है मेरा पर्स, मैं अपना पर्स खूब पहचानता हूं; चल निकाल इसे", सुरेश फिर उस पर चिल्लाया।

"देखो साहब आपने मुझे गलत जगह पकड़ा हुआ है, आप छोड़ो मुझे नहीं तो..", अब वह लड़की सुरेश से डरने के स्थान पर लड़ने पर उतर आई थी।

"नहीं तो क्या? क्या करेगी तू... ", सुरेश उसकी बात सुनकर अपने हाथ को देखते हुए बोला, लेकिन उसने पर्स को नहीं छोड़ा।

अभी ये उलझ ही रहे थे तब तक एक पुलिस वाला सीटी बजाता इधर आता दिखाई पड़ा, उसके साथ ही एक व्यक्ति और था जो रेलवे का ही कोई कर्मचारी लग रहा था।
उन्हें आता देखकर लड़की की आंखों में खुशी की चमक आ गयी थी जिसे सुरेश नहीं देख पाया।



"क्या हुआ साहब, आपने इस भिखारन को ऐसे क्यों पकड़ रखा है?" पुलिस वाले ने आकर सुरेश से पूछा।

"हाँ- हाँ बताओ क्या बात है और किसी लड़की को ऐसे, इस तरह पकड़ना क्या आपको अच्छा लगता है? आप तो देखने में बहुत शरीफ लग रहे हैं तो फिर किसी लड़की के साथ ऐसे अंधेरे में छेड़छाड़...", वह दूसरा आदमी भी बोल पड़ा।

"इसने मेरा पर्स चुराया है हवलदार साहब, ये मेरे हाथ में मेरा पर्स है जो इसने अपने कपड़ों में..", सुरेश भी पुलिस के आने से सुरक्षित ही महसूस कर रहा था।
उसे पूरा विश्वास था कि पर्स बरामद होने पर पुलिस वाला उसकी बात जरूर समझेगा।

"अच्छा आप छोड़िए हम देखते हैं", पुलिस वाले ने उस लड़की का हाथ पकड़ते हुए कहा।

सुरेश ने उसका गिरेबान छोड़ दिया।

"क्यों बे साली मेरे इलाके में जेब काटती है??, चल निकाल क्या है तेरे पास", सिपाही उस लड़की को डाँटते हुए बोला।

"नहीं साहब, मैंने नहीं लिया कुछ भी; मेरे पास बस मेरा ही सामान है", वह लड़की अब पूरे आत्मविश्वास से बोल रही थी।
"अच्छा साली झूठ भी बोलती है, मैं खूब जनता हूँ तुम जेसियों को, अभी चार डण्डे पड़ेंगे तो सब कुछ निकाल देगी",  सिपाही फिर उसे हड़काने लगा।
"चल तलाशी दे, अभी पता लग जाएगा क्या है-क्या नहीं तेरे पास", कहकर सिपाही ने उसे अपनी तरफ घुमाया जिससे सुरेश की तरफ उसकी पीठ हो गयी।
और सिपाही घुटनों पर बैठकर उसकी तलाशी लेने लगा।

"वैसे कितने रुपये होंगे आपके पर्स में और क्या-क्या सामान होगा?रंग क्या है आपके पर्स का? वो क्या है ना पता रहेगा तभी तो मिलान हो पायेगा की वह आपका पर्स है या इसका", तभी वह दूसरा आदमी सुरेश से बोला।

"कोई आठ सौ रुपए और कुछ कागज, मेरा कार्ड और एटीएम हैं मेरे काले पर्स में", सुरेश ने उसकी ओर देखकर जबाब दिया।

"मिल गया, तब तक पुलिस वाला हाथ में पर्स लेकर खड़ा हुआ। लेकिन ये तो लाल पर्स है साहब और इसमें तो कोई बीस-तीस रुपये पड़े हैं और खूब सारे कागज जिनकी वजह से ये मोटा हो रहा है; और तो इसमें कुछ नहीं है साहब।" पुलिस वाला उस लाल पर्स को पलटकर समान निकालते हुए बोला।

"लेकिन आपका पर्स तो काला था, और उसमें आठ सौ.." दूसरा आदमी याद करने का नाटक करते हुए बोला।

"हम समझते हैं आपकी परेशानी, आपका पर्स कहीं और गिर गया होगा। आप ऐसा करिए अपने पर्स का व्योरा और अपना ऐड्रेस लिखकर दे दीजिए हम कल दिन में ढूंढकर देखेंगे और लोगों से पूछताछ करेंगे, अगर मिल गया तो आपके घर भिजवा देंगे", पुलिस वाला सहानुभुति दिखाते हुए बोला।

"वैसे आप कहीं जा रहे हैं या आ रहे हैं", दूसरे व्यक्ति ने पूछा। 
"मैं जा रहा हूँ इसी गाड़ी से", सुरेश पता बताते हुए बोला।

"अरे  तब तो गाड़ी जाने वाली है, टिकिट तो होगी आपके पास? अरे कहाँ से होगी आपका तो पर्स ही खो गया आप ये लीजिये ये सौ रुपये रखिये और जाइये, हम आपका समान मिलते ही पोस्ट कर देंगे", पुलिस वाले ने अपनी जेब से सौ रुपये निकाल कर उसे देते हुए कहा।

गाड़ी जाने वाली थी इसलिए सुतेश भी कुछ ना कह सका और सौ रुपये पकड़कर धन्यवाद बोलते हुए टिकिट खिड़की की तरफ बढ़ गया।

"पर्स तो उसके पास ही था मेरा, मेरे हाथ अपने पर्स को खूब पहचानते हैं, लेकिन वह बदल कैसे गया और फिर उस लड़की ने कोई भी मर्दाना पर्स अपने सीने पर क्यों छिपाया हुआ था।
और ये पुलिस.. पुलिस वाले ने मुझे अपने पास से सौ रुपए दिए....
वह लड़की भी उसके आने पर ज्यादा ही अकड़ने लगी थी... कहीं ये सब मिले हुए??", सुरेश भागती हुई ट्रेन में विचार दौड़ा रहा था।
इधर ये दोनों लोग, तीन सौ रुपये लड़की को देकर दो-दो सौ अपनी जेब में रख चुके थे और अब बेशर्मी से लड़की के जिस्म को आपस में बांट रहे थे।
लड़की के चेहरे पर मजबूरी और बेबसी का दर्द साफ झलक रहा था।
"इति"

नृपेंद्र शर्मा "सागर"
९०४५५४८००८