संकोच करते हुए, धड़कते दिल के साथ रमेश ने कमरे में कदम रखा।
कमरे में एक लालटेन की धीमी-पीली रौशनी अंधेरे से लड़ रही थी। कमरे की कच्ची मिट्टी की दीवारों को गोबर से लीपा गया था। लकड़ी की फट्टियों वाली छत मिट्टी तेल के धुएं से पूरी काली पड़ी हुई थी जैसे सालों से किसी ने उसकी सफाई नहीं की हो।
एक कोने में लकड़ी की एक टिगड़ी पर मिट्टी का पुराना घड़ा रखा हुआ था।
एक कोने में बाँस की खटिया पर सहमी सिकुड़ी गुड़मुडी बनी घूंघट को घुटनों तक किये दुल्हन बैठी हुई थी।
रमेश ने अंदर आकर टूटा फूटा लकड़ी का दरवाजा बंद किया तो उसने पुराने भूतिया फिल्मों के दरवाजों की तरह, "चु..ऊ..ऊनन!! चूँ....!"
की तेज आवाज की जिसने खटिया पर बैठी दुल्हन का ध्यान खींचा, या ये कहो कि उसकी नींद उचका दी।
वह झट से खटिया से उठी और पास आते रमेश के पाँवों में झुक गयी।
"अरे!..रे!! ये क्या करती हो रश्मि, बैठी रहो पैर छूने की क्या जरूरत है?", रमेश ने उसे कंधों से पकड़ कर उठाते हुए कहा।
"ब...बो.. अम्मा ने कहा था कि आपके पैर छू लूँ", दुल्हन ने घूंघट के अंदर से धीरे से कहा। उसके सर का पल्ला उसके पेट तक आ रहा था और साड़ी ऐसे लग रही थी जैसे किसी लकड़ी को लपेटी गयी हो।
"अच्छा ठीक है बैठ जाओ, और बताओ कैसा लगा हमारा घर?" रमेश ने हंसते हुए कहा।
"ठीक है", उसने धीरे से जवाब दिया।
"अच्छा ये घूँघट तो हटा लो, गर्मी लग रही होगी", रमेश ने उसे चारपाई पर बिठाते हुए कहा।
"नहीं...! भाभी ने कहा था कि घूँघट पति ही उठाते हैं", वह सकुचाते हुए बोली।
"अरे वाह, तुम तो सब सीख कर आयी हो।
अच्छा और क्या कहा था तुम्हारी अम्मा और भाभी ने?" रमेश उसी तरह हँसते हुए बोला।
"यही की पति की हर बात मानना, जो कहें, जो करें किसी बात को मना मत करना। और पति-पत्नी के बीच की बात किसी को कभी मत बताना। सासु माँ की सेवा करना और उन्हें कभी सामने से जवाब मत देना", वह एक साँस में कहती चली गयी।
रमेश उसके भोलेपन पर मुस्कुरा रहा था।
"अच्छा हटाओ ये घूँघट, बहुत गर्मी है", कहकर रमेश ने उसका घूँघट उठा दिया।
रश्मि मुश्किल से अभी तेरह साल की भी नहीं थी उसके पिता की किसी बीमारी से मौत हो गयी थी।
उसकी माँ, बड़ा भाई और भाभी सभी ईंट भट्ठे पर मज़दूरी करते थे।
वहीं भट्ठे से ही कुछ दूरी पर इन्होंने एक झोंपड़ी डाल रखी थी। इनके पास ना तो खेती की जमीन थी और ना ही कोई अच्छा काम।
रश्मि की माँ को हमेशा रश्मि की चिंता लगी रहती थी। एक दो बार उसने देखा था कि मुंशी और कुछ उसके मुँह लगे कामचोर शराबी मजदूर रश्मि को भूखी नज़रो से देख रहे हैं।
ये देखकर उसका दिल कांप उठा था।
"क्या करूँ मैं अपनी जवान होती बेटी का मेरी गरीबी और लाचारी क्या इसे इन भेड़ियों से बचा पाएगी?", वह जानती थी कि गरीब की बेटी समय से पहले ही जवान हो जाती है।
उसने घर जाकर रश्मि को बिना बात पीट दिया और कहा, "आज के बाद घर से बाहर मत निकलना और अगर भट्ठे पर दिखी तो वहीं आग में फेंक दूँगी। रामदयी ने जैसे उन वहशियों का गुस्सा रश्मि पर निकाला था।
रश्मि बेचारी को तो समझ में भी नहीं आया था कि उसकी गलती क्या है।
"रामदयी, देख लड़का बीस-बाईस साल का है, अपनी ही बिरादरी का है और अगले ही गांव में है। चार भाई हैं कोई दो-ढाई बीघा जमीन भी है।
लड़का पढ़ा लिखा भी है। और एक स्कूल में पढ़ाता भी है। सौ-डेढ़ सौ तो मिल ही जाते होंगे महीने के, कुछ बड़े लोगों के घर बच्चों को पढ़कर कमा लेता होगा।
लेकिन गरीब परिवार होने से शादी के रिश्ते नहीं आ रहे।
सबसे बड़े भाई की शादी हुई है, बाकी बीच वाले दोनों भी कुँवारे ही हैं लेकिन वे दोनों यहां नहीं रहते। मज़दूरी ढूंढने बड़े शहर गये थे दो साल से लौटे ही नहीं।
लड़के की माँ शादी को तैयार है, लड़का भी मना नहीं कर रहा, अब तुम लोग देख लो।
घर परिवार बहुत अच्छा है सभी तारीफ करते हैं। तुम्हारी बिटिया खूब खुश रहेगी रामदयी",
एक पड़ोसन ने रामदयी को बताया, रामदयी ने अपनी लड़की को उन लोगों की नज़रों से बचाने का ये रास्ता निकाला था कि उसका विवाह कर दिया जाए।
सब कुछ जल्दी-जल्दी तय करके रमेश और रश्मि की शादी कर दी गयी।
और तेरह साल की रश्मि बालिका बधू बनकर रमेश के घर आ गयी।
रश्मि की माँ ने अपनी बेटी का बाल विवाह करके अपने कुल की इज़्ज़त बचाई थी, लेकिन वह भूल गयी थी कि विवाह दो शरीरों का भी होता है। उसने बस अपना फर्ज पूरा कर लिया था।
रमेश बाबू पढ़े लिखे समझदार और बहुत गुणी व्यक्ति थे।
कस्बे के छोटे से मांटेसरी स्कूल में पढ़ाने के साथ ही वे खुद भी आगे पढ़ रहे थे। इस बार उनका ग्रेजुएशन का दूसरा साल था। वे कस्बे में ही कुछ बच्चों को टयूशन भी पढ़ाते थे।
जब उनकी माँ ने उनसे रिश्ते की बात की तो पहले तो वे बहुत नाराज हुए, उन्होंने कहा,
"माँ क्या सोचकर तुम एक तेरह साल की बच्ची के साथ मेरे वियाह की बात सोच रही हो? अरे ये उस बेचारी के पढ़ने लिखने के दिन हैं और तुम उससे उसका बचपन छीन लेना चाहती हो।"
"बेटा उसके हालात इस लायक नहीं हैं कि वह पढ़ लिख सके, और हमारे हालात इस लायक नहीं हैं कि कोई रिश्ता आ सके।
चार भाइयों में एक का वियाह भी बड़े जतन के बाद हुआ है।
और अब जब देवी मैया खुद किरपा कर रही हैं तो हम मना क्यों करें।
अरे चल मान लिया अभी लड़की छोटी है लेकिन साल दो साल में बड़ी तो होगी ही। और फिर उम्र में सात-आठ साल का अंतर कौन बड़ी बात है।
तू मान लियो की तेरा वियाह दो साल बाद होगा बस।
और तब तक तू लड़की को पढ़ा लिखा भी दियो।
सुखिया कह रही थी कि लड़की पांचवी तक स्कूल गयी है।
अरे बेटा हमारे घर में रहेगी तो चार अच्छी बातें सीखेगी और सबसे बड़ी बात लोगों की गन्दी नज़र से बचेगी। तू ही सोच बेटा भट्ठे पर मजूरी करने वालों की बच्चियां भला कब तक बच्ची रहती हैं।
उसकी माँ झोली फैला कर यही कह रही थी बेटा की उसकी बच्ची की इज़्ज़त और जिंदगी उसकी शादी से ही बच सकती है", रमेश की माँ ने उसे रश्मि के परिवार की हालत और उसकी हकीकत समझायी।
रमेश ने शादी के लिए हाँ तो कर दी लेकिन कहीं ना कहीं ये उसे ठीक नहीं लग रहा था।
और अब रश्मि के भोलेपन पर उसे हँसी आ रही थी।
"अच्छा आराम से बैठो, इतना सहम क्यों रही हो, किसी ने ये नहीं बताया कि पति कोई हौआ नहीं होता जो तुम्हे खा जाएगा", रमेश ने उसकी खामोशी या ये कहो कि डर को भांपते हुए कहा।
"नहीं... बताया था, भाभी ने कहा था कि अगर मैं अपने पति के साथ अच्छे से रही तो वे मुझे बहुत प्यार करेंगे। मैं बहुत अच्छे से रहूंगी, आपकी हर बात मानूँगी, कभी कोई जिद भी नहीं करूँगी। सासु माँ की भी खूब सेवा करूँगी, उन्हें कभी सामने से जबाब भी नहीं दूँगी। आप करोगे ना मुझे प्यार?", रश्मि भोलेपन से कहती चली गयी।
"हाँ.. हाँ रश्मि हम सब तुम्हे खूब प्यार करेंगे, ये अब तुम्हारा अपना घर है। तुम बिल्कुल मत डरो यहाँ सब तुम्हारे अपने हैं।
और मैं भी तुम्हे खूब प्यार करूँगा और मेरी हर बात मानोगी तब सबसे ज्यादा प्यार करूँगा", रमेश ने उसका चेहरा ऊपर उठाते हुए कहा।
"सच, पापा से भी ज्यादा? मेरे पापा मुझे बहुत प्यार करते थे। वे कहते थे कि मैं उनकी परी हूँ", रश्मि ने चहक कर कहा और अगले ही पर वह अपने पिता को याद करके उदास हो गयी।
"हाँ.. हाँ रश्मि उनसे भी ज्यादा", रमेश ने कहा और फिर वह कुछ सोचने लगा।
तब तक रश्मि झपट कर उसके गले लग गयी बिल्कुल किसी नन्ही बच्ची की तरह।
रमेश ने उसके माथे को चूमा और उसका सर सहला दिया।
"अच्छा जी, मेरे पापा हमेशा कहते थे कि वे मेरी शादी किसी राजकुमार से करेंगे। लेकिन मेरी शादी तो आपके साथ हो गयी है, तो क्या आप ही वो राजकुमार हो", रश्मि ने मासूमियत से सवाल किया।
"पता नहीं", रमेश ने उसकी पीठ सहलाते हुए कहा।
"अच्छा रश्मि तुम आराम से सो जाओ मैं नीचे दरी बिछा कर सो जाऊँगा", रमेश ने एक फ़टी-पुरानी सी दरी उठाते हुए कहा।
"नहीं आप ऊपर सो जाओ ये दरी मुझे दो, मैं नीचे सो जाऊंगी", रश्मि कुछ उदास होकर बोली।
"अच्छा लालटेन बुझा दो", रमेश ने लेटते हुए कहा।
"नहीं....!!!, मुझे अंधेरे में अकेले डर लगेगा", रश्मि चीख कर बोली और रमेश से चिपक गयी।
"अरे क्या हुआ,ऐसे डर के चीख पड़ी पागल, मैं यहीं तो हूँ", कहकर रमेश ने उसे खुद से अलग करते हुए कहा।
"अच्छा क्या मैं यहाँ आपके पास नहीं सो सकती, पापा तो हमेशा मुझे अपने पास सोने देते थे", रश्मि सुबकती हुई बोली।
"अच्छा बाबा ठीक है सो जाओ, मैं लालटेन धीमी तो कर दूं खाली में तेल जलेगा", पागल रमेश ने धीरे से कहा और उठ कर लालटेन की बत्ती नीचे कर दी।
रश्मि बैठी हुई उसका इंतजार कर रही थी, रमेश के लेटते ही वह उसके सीने पर सर रखकर लेट गयी।
"आप सच में बहुत अच्छे हैं, ये कल्लो बेकार में मुझे डरा रही थी। आप पापा से भी ज्यादा प्यार करते हो मुझे। आप सच्ची के राजकुमार हो। रश्मि ने धीरे से फुसफुसाया और आँखें बंद कर लीं।
"ये कल्लो कौन है, और क्या डरा रही थी?" रमेश ने उसकी पीठ सहलाते हुए पूछा।
"कल्लो हमारे पड़ोसी की लड़की है, मुझसे तीन साल बड़ी। पिछले साल उसकी भी शादी हुई थी एक पहलवान जैसे काले कलूटे से, अच्छा ही है कल्लो को कालिया मिल गया", रश्मि हँसने लगी, "लेकिन शादी के अगले ही दिन कल्लो हस्पताल पहुँच गयी थी।
सब कह रहे थे उसको अंदर चोट लगी है और बहुत खून बह गया है। उसके पति ने पता नहीं क्यों पहली ही रात में मारा होगा?
हो सकता है उसने अपने पति की बात ना मानी हो इसलिए... मैं तो आपकी हर बात मानूँगी... आप तो नहीं मरेंगे ना मुझे", रश्मि रमेश से और ज्यादा कस कर चिपटते हुए बोली।
"पागल है कल्लो, कह रही थी सदी की पहली रात सभी पति ऐसे ही करते हैं, बताओ ये भला कोई बात हुई, अरे जब हर बात मानोगे तो क्यों नाराज़ होंगे भला", मासूम रश्मि ने ज्ञान झाड़ा।
रमेश उसके भोलेपन पर मुग्ध हो गया उसके मन में रश्मि के लिए प्यार का सागर उमड़ आया लेकिन उसमें वासना का अंश मात्र भी नहीं था। उस प्रेम में पवित्र स्नेह था जिसकी छाया में रश्मि खुद को पूरी तरह महफूज़ महसूस कर रही थी।
रात भर वह उसके सीने से लिपटी जी भर कर सोई, जैसे शायद कभी अपने घर में भी नहीं सोई थी।
सुबह जब रमेश की आँख खुली तो उसने देखा कि रश्मि उदास बैठी है, उसकी आंखें गीली थीं।
"क्या हुआ रश्मि रो क्यों रही है, मैंने तुझे नींद में पीट दिया या मम्मी की याद आ रही है", रमेश ने उसकी हालत देखकर हँसते हुए पूछा।
"नहीं कुछ नहीं, आप तो बहुत अच्छे हैं और मां की भी याद नहीं आ रही", वह उसी तरह सुबकते हुए बोली।
"फिर क्या हुआ पगली, ऐसे रो क्यों रही है?" रमेश ने गम्भीर होकर पूछा।
"ये साड़ी.. उसने अपनी फैली हुई साड़ी को समेटते हुए धीरे से कहा।
"क्या हुआ इसे?" रमेश को जैसे उसकी बात समझ में नहीं आयी।
"माँ ने कहा था की सुबह बिखरे कपड़ों में सास के सामने मत जाना अच्छे से तैयार होकर ही कमरे से बाहर निकलना। लेकिन मुझे तो साड़ी बांधनी ही नहीं आती और ना ही बाल संवारने आते हैं", रश्मि उदास होकर बोली।
"बस इतनी सी बात?" रमेश जोर से हँसा।
"आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे आपको ये सारा काम आता है", रश्मि रमेश को ऐसे हँसते देखकर तुनक कर बोली।
"हाँ! हाँ आता है, लाओ मैं करता हूँ", रमेश ने शांत होकर कहा।
रश्मि ने अपनी पूरी साड़ी खोली और रमेश के सामने जाकर खड़ी हो गयी।
रमेश ने एक नज़र उसे देखा, लंबी, पतली, सांवली सी रश्मि इतनी भी कमजोर नहीं थी जो बिल्कुल बच्ची लगे बल्कि उसकी शारीरिक बनाबट उसे सुदृढ और बहुत सुंदर बना रही थी।
लेकिन अगले ही पल रमेश ने अपने सर को झटका और उसकी साड़ी बाँधने लग।
साड़ी बान्धकर उसने उसके बाल ठीक करके एक चोटी बना दी।
इस दौरान रश्मि बस उसे देखती ही रही।
बाहर आकर रश्मि ने सर पर पल्ला लिया और आगे बढ़कर सास के पैर छुए।
उसके बाद उसने रमेश की भाभी की पैर छुए।
"अरे सदा सुहागन रहो रश्मि बहु, और बताओ देवर जी ने ज्यादा सताया तो नहीं रात में?" जेठानी ने उसे एक तरफ ले जाते हुये हँस कर पूछा।
"नहीं जिज्जी, ये तो बहुत अच्छे हैं बहुत प्यार करते हैं हमें इन्होंने तो हमारी चोटी...!" रश्मि कुछ कहते-कहते रुक गयी और अपनी जीभ दाँतो में दबा ली। उसे माँ की बात याद आ गयी थी कि पति-पत्नी के बीच की बात किसी को भी नहीं बताते चाहे कुछ भी हो जाये।
अगर बहुत जरूरी लगे तो बस अपनी माँ को बता सकते हैं।
"क्या चोटी...?" तब तक उसकी जेठानी ने सवाल किया?
"अरे कुछ नहीं जिज्जी, हमारी चोटी उन्हें बहुत अच्छी लगी", रश्मि ने बात बदली और दोनों हँसने लगीं।
"अरे रश्मि ये क्या कर रही हो?" रमेश ने रश्मि को देखकर कहा जो उसके पैरों पर पेन से कुछ लिख रही थी।
"वो जिज्जी ने बताया कि पति के तन-मन पर केवल उसकी पत्नी का अधिकार होता है।
उस पर अपने निशान छोड़कर अपना हक जमाये रखना नहीं तो कोई और औरत... ये मर्द लोग बहुत रसिया होते हैं किसी भी औरत की मीठी बातों में फँस जाते हैं। इसीलिए आपके अंगों पर अपना नाम लिख रही हूँ", रश्मि ने बहुत भोलेपन से जवाब दिया।
"अच्छा मासाब पति का भी तो उतना ही हक होता होगा पत्नी के तन-मन पर...? तो लो आप भी लिखो आपका नाम मेरे अंगों पर।
हाँ याद आया मेरी भाभी ने मेहंदी से आपका नाम लिखा था मेरे हाथों में लेकिन अब मिट गया", वह अफसोस करके बोली।
"लो लिखो ना", उसने पैन रमेश के हाथ में रखकर कहा।
रमेश आश्चर्य से उसके भोलेपन को देखता रह गया।
"अरे पागल भाभी मज़ाक कर रही थी तुम्हारे साथ", उसे अपनी भाभी की सोच पर गुस्सा आ रहा था कि इतनी छोटी बच्ची को क्या सिखा रही हैं।
"अच्छा रश्मि तुम्हे लिखना आता है?" रमेश ने प्यार से पूछा।
"हाँ मास्साब मैं पांचवी तक पढ़ी हूँ", रश्मि अब रमेश को मास्साब कहती थी।
"तो आगे क्यों नहीं पढ़ी?", रमेश ने पूछा।
पापा के मरने के बाद अम्मा ने स्कूल नहीं जाने दिया", रश्मि उदास होकर बोली।
"तुम्हे पढ़ना अच्छा लगता है रश्मि? आगे पढ़ोगी?", रमेश ने उसका हाथ पकड़कर प्यार से पूछा।
"हाँ, पढूंगी लेकिन सासु माँ नाराज़ नहीं होंगी?" रश्मि ने खुशी के साथ ही सवाल भी किया।
"कोई नाराज नहीं होगा, कल से मैं तुम्हे पढ़ाऊँगा। मैं तुम्हारे लिए किताब, कॉपी, पेन सब लेकर दूँगा और स्कूल में भी बात कर लूंगा तुम्हारे इंतिहान की।
तुम सीधे आठवी की परीक्षा देना और फिर दो साल बाद हाई स्कूल की बोर्ड की।
बोलो कर लोगी इतनी मेहनत?" रमेश ने बड़े प्यार से पूछा।
"हाँ जी सर जी कर लेंगे हमने वादा किया था ना कि आपकी हर बात मानेंगे", रश्मि खुशी से चहकते हुए बोली।
अगले ही दिन से रश्मि की पढ़ाई शुरू हो गयी।
रश्मि पढ़ाई में होशियार भी थी और मेहनती भी। साथ ही उसने घर के कामों को भी पूरी लगन से सीख लिया, उसकी सास और जिठानी को कभी उससे कोई शिकायत नहीं हुई।
अब वह खुद साड़ी भी बांधने लगी और चोटी तो पूरे मोहल्ले की लड़कियां उससे सीखती थीं। साथ ही वह उन लड़कियों को पढ़ना भी सिखाती थी।
आज रश्मि की शादी को पूरे तीन साल हो चुके थे। उसने हाईस्कूल की परीक्षा दी थी और आज ही उसका परिणाम भी आया था।
रश्मि प्रथम श्रेणी में पास हुई थी। रमेश और उसकी माँ बहुत खुश थे। उसकी माँ ने तो मोहल्ले में मिठाई भी बांटी थी।
"अरे रमेश की माँ बाकी सब तो ठीक है, तेरी बहु सुंदर भी है और गुणी भी लेकिन एक बात तो बता, तीन साल हो गए व्याह को और अभी तक कोई खुशखबरी ना सुनाई तेरी बहु ने। मेरी मान तो किसी बैध या ओझा से बात कर", रश्मि के कान में किसी महिला की आवाज आई जो उसकी सास से बात कर रही थी।
"अरे बहन हो जाएगा अभी जल्दी भी क्या है, अभी बच्चे ही तो हैं दोनो कर लेंगे बच्चे भी",
उसने अपनी सास का जवाब भी सुना।
वह औरत चली गयी लेकिन जाते-जाते वह अपने साथ कि औरतों से इसी बारे में बात करती जाती थी।
रश्मि के कानों में पहली बार किसी की बातें चुभी थीं।
अब रश्मि इतनी बड़ी तो हो ही गयी थी कि उसे इन बातों का मतलब पूरी तरह समझ में आ रहा था।
"बच्चा...", वह सोचकर अंदर तक शरमा गयी, आज उसे न जाने क्यों अपने औरत होने का अहसास हो रहा था। आज उसे समझ आ रहा था कि वह बच्ची नहीं है।
"लेकिन बच्चे के लिए बैद्य के पास..?" उसने खुद से सवाल किया, "बच्चे तो पति-पत्नी के मिलन..." सोच कर वह अंदर तक लजा उठी, लाज की लाली उसके पूरे चेहरे पर फैल गयी।
लेकिन हमारे बीच तो कभी वैसे सम्बन्ध..." उसने मन ही मन सोचा। आज पढ़ी लिखी रश्मि को अच्छे से पता था कि बच्चा होने के लिए उसे बैद्य नहीं अपने पति के ही सहयोग की जरूरत होगी।
"बस बहुत हो गया, कोई मेरी बजह से माँ जी को ताने मारे ये मुझे बर्दास्त नहीं होगा", उसने जैसे मन ही मन कोई फैसला कर लिया था।
रात को ट्यूशन पढ़ाकर लौटे रमेश ने साइकिल खड़ी की, आजकल ज्यादा ट्यूशन होने के चलते अक्सर उसे रात हो जाती थी और रश्मि या तो पढ़ रही होती थी या फिर सो जाती थी।
रमेश की माँ ने उसे खाना दिया और खाना ख़ाकर वह कमरे में चला गया।
कमरे में जाकर उसे बाहर आश्चर्य हुआ।
रश्मि दुल्हन का जोड़ा पहने घूँघट ओढ़े चारपाई पर बैठी हुई थी।
सामने मेज पर थाली में एक दिया जल रहा था और उसमें सिंदूर की डिब्बी भी रखी थी।
"क्या हुआ रश्मि, ये सब क्या है? रमेश ने पूछा।
"आज हमारी शादी को पूरे तीन साल हो गए हैं जी, भूल गए आप? आज हमारी एनिवर्सरी है" रश्मि ने घूँघट के अंदर से जवाब दिया।
"हाँ-हाँ याद है लेकिन ये सब क्या है", रमेश ने चकित होकर पूछा।
"आज मुझे अपना राजकुमार चाहिए, आपने एक पिता की भूमिका बहुत अच्छी तरह निभाई है, अब वक्त आ गया है मेरे सपनों का राजकुमार बनकर एक अच्छे पति की भूमिका निभाने का।
मैं एक बेटी बनकर बहुत जी ली अब मुझे एक पत्नी, एक माँ का अधिकर चाहिए", रश्मि ने कहा।
"पगल हुई हो या फिर किसी ने तुम्हारे कान भर दिए कि पति के शरीर पर पत्नी का हक होता है नही तो दूसरी औरत..." रमेश ने गम्भीर होकर पूछा।
"आप पहले घूँघट उठाकर मेरी माँग में सिंदूर तो भरो फिर बताती हूँ", रश्मि ने कहा।
रमेश ने उसका घूँघट उठाया तो देखता ही रह गया, दिए के प्रकाश में रश्मि बिल्कुल सूरज की पहली किरण ही लग रही थी।
उसने आज जी भरकर खुद को सजाया था उसकी आंखें झुकी हुई थीं।
रमेश ने उसकी मांग में सिंदूर भरा और उसका चेहरा ऊपर उठाया।
"हाँ तो अब बताओ क्या बात है?" रमेश ने पूछा।
"अरे किसी ने मेरे कान नहीं भरे जी, और कोई भर भी नहीं सकता। मैं तीन साल से हर पल आपके साथ थी आपने मुझे हर अवस्था में देखा लेकिन आपके मन में कभी कोई गलत बात नहीं आयी। जबकि आपका मुझपर पूरा हक भी है । तो किसी दूसरी औरत से आपके सम्बन्ध तो आप खुद भी कहोगे तो मैं नहीं मान सकती", रश्मि ने मुस्कुराते हुए कहा।
"फिर ये सब?" रमेश ने पूछा।
"मुझे अपने पति से प्यार हो गया है और मैं अपने प्यार से आज फिर से शादी करके पत्नी होने का अहसास मांगती हूँ", रश्मि ने शरमाते हुए मुस्कुराकर कहा।
"लेकिन रश्मि मैं तुम्हारे साथ..., मुझसे नहीं होगा", रमेश ने धीरे से कहा।
"मैं जानती हूँ, आप मुझे हमेशा बच्ची ही समझते हो और इसीलिए ... लेकिन आज हम जब शादी की रस्म कर लेंगे तो आपके अंदर खुद पति का रूप जन्म ले लेगा, आओ ना फेरे लेते हैं, कहकर रश्मि ने खुद ही रमेश का हाथ पकड़ा और दिए के चक्कर लगाने लगी।
सच में हर फेरे के साथ रश्मि रमेश की नज़रों में बड़ी होती जा रही थी।
फेरे खत्म करके रश्मि फिर घूँघट ओढ़ कर चारपाई पर जाकर बैठ गयी और बोली,
"अब सुहागरात आप मना लोगे या वह भी मैं ही..."
उसकी बात सुनकर रमेश जोर से हँसा और उसका घूँघट उलट दिया।
रश्मि कसकर रमेश के सीने से चिपक गयी और रमेश के होंठ उसके होंठो की तरफ बढ़ने लगे.....
समाप्त
©नृपेंद्र शर्मा "सागर"
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