शीर्षक:- दुल्हन
मेहँदी भरे रचे हाथ
और किये सोलह सृंगार।
मन में उथल-पुथल कि जाने कैसा होगा ससुराल।।
नाजुक मन है, नाजुक तन है,
और है दिल में भाव अपार।
क्या सास -ससुर दे पाएंगे,
अम्मा -बाबा जैसा प्यार।।
लाल परिधानों से सजी,
और लज्जातुर कपोल भी लाल।
अभी उम्र बीती ही कितनी,
यही कोई साढ़े उन्नीस साल।।
कहाँ फिक्र थी उसे किसी की,
रही खेल खेलने में व्यस्त।
लेकिन आज बना कर दुल्हन,
उसे बना डाला वयस्क।।
नए लोग और नए नातों की,
मर्यादा समझती माँ।
आज उम्मीदों से भी बढ़कर,
कुछ ज्यादा समझाती मां।।
लेकिन मन से अभी बालपन,
गया कहाँ वह सोच रही है।
अपने अंदर भी एक माँ को,
आज बेचारी खोज रही है।।
दुलहन बनकर अब आ पहुंची,
एक नए घर आँगन में।
ज्यूँ अम्बर से बिछड़ के पानी,
वह जाता है सावन में।।
नज़र झुकाये तौल रही है,
अपने दोनों आंगन को।
एक छोड़ दूजे में आई,
जग की रीत निभाने को।।
खोज रही कोई परिचित चेहरा,
नए लोगो की भीड़ में।
जोड़ रही खुद ही को उनसे,
सम्मान की उम्मीद में।।
साँझ हुई और हुआ अंधेरा,
पिया मिलन की बेला आई।
भूल गई सब बातें दुल्हन,
जब साजन ने गले लगाई।।
सुबह पिया संग इसका नाता,
जन्म-जन्म का जुड़ा हुआ।
जैसे पाकर प्यार की वर्षा,
पुष्प हृदय का खिला हुआ।।
दुल्हन बनकर अब सब नाते,
निभा रही है तन मन से।
प्रेम विभल है प्रेम रंगी वह,
खुश है संग में साजन के।।
याद मायके की आती है,
लेकिन केवल यादों में।
दुल्हन अब गृहणी बनकर,
व्यस्त है घर के कामों में।।
नृपेंद्र शर्मा "सागर"