Monday, November 16, 2020

पगली

"

अरे!!ये पगली है,  देखो इसे!!,
पत्थर उठा कर मार दिया इसने बच्चों को। देखो-देखो कैसे दांत पीस रही है, लगता है जैसेे चबा ही जाएगी", कुछ लोग चिल्ला कर कह रहे थे।


और

मोहल्ले की कुछ औरते राजश्री की माँ के पास उसकी शिकायत ले कर आयीं, "सम्भालो अपनी लाडली को, आते-जाते बच्चों पर पत्थर फेंकती है। पकड़ ले तो काट लेती है।"


"

मेरे तो करम ही फूट गए, कितने अरमानों से बेटी व्याही थी। ऊँचा खानदान, खाता-पीता घर और अच्छी नौकरी बाला दामाद। लेकिन क्या करें जब इस अभागी के भाग्य में सुख लिखा ही नहीं था।


अरे छः महीने भी तो नहीं हुए थे व्याह को और उस खाते-पीते घर के पीने खाने वाले दामाद ने इसे मारना-पीटना शुरू कर दिया।


क्या कमी थी हमारे दान-दहेज में? आस-पास किसी ने सायकल तक नहीं दी होगी अपनी बेटी को और हमने,..हमने तो मोटरसाइकिल दी थी।


फिर भी मेरी फूल सी बेटी को ताना दिया जाता


कि

कंगाल बाप की बेटी लायी ही क्या है दहेज में... अरे सरकारी नोकरी करता है हमारा बेटा कितने अच्छे रिश्ते आये लेकिन ...

हम तो ये सब भी बर्दाश्त कर ही रहे थे कि चलो समय के साथ सब बदल जाएगा लेकिन उस दिन ज्यादा पीकर मोटरसाइकिल चलाते हुए दामाद ट्रक के नीचे...


हाये !!


बिल्कुल पत्थर हो गयी मेरी बेटी एक बूंद आंसू तक ना निकला इसकी पथराई आंखों से।

और वे लोग इसे फेंक गए यहां ये कहकर की ये मनहूस अपने पति को खा गयी और एक बूंद आँसू तक ना बहाया।

क्या करूँ बहन मेरी अभागी बेटी उस सदमे से टूट गयी और अपने होश खोकर पागल हो गयी।"


राजश्री की माँ सुचित्रा रोते हुए उसे पकड़ कर अंदर लायी और कमरे में बंद कर दिया।


राजश्री को आजकल कमरे में बंद करके रखा जाता है या फिर हाथ पांव बांधकर आंगन में चारपाई पर बांध दिया जाता है।


उसकी अवस्था दिन प्रतिदिन हिंसक होती जा रही है।


इधर एक दिन सोमनाथ बाबू को 'श्री' की इस हालत के बारे में पता लगा तो दुख से उनकी आंखें गीली हो गईं और कुछ पुरानी यादें उनकी आंसू से भरी धुंधली आंखों में स्पस्ट चित्रित होने लगीं।


सोमनाथ बाबू को याद आयी सत्रह बरस की तितली सी उड़ती अल्हड़ राजश्री जिसकी एक झलक उनके दिल में ऐसे गहरी उतरी की वे बस हर समय उस झलक को ही ढूंढने लगे।


बीस बरस के सोमनाथ बाबू कालेज में पढ़ रहे थे और राजश्री के पड़ोस में ही अपने किसी सम्बन्धी के घर पर रह रहे थे।


पुराना समय था लोग गली मोहल्ले में किसी के भी रिश्तेदार से बड़ी आत्मीयता से बात करते थे सभी लोग एक दूसरे से सम्बन्ध निभाते थे।


एक दिन श्री की माता जी सुचित्रा देवी ने सोमनाथ बाबू को ठेले से सब्जी लेते देखा और उनके पास जाकर उनके बारे में पूछने लगीं ।


कुछ ही देर की चर्चा के बाद सोमनाथ बाबू सुचित्रा देवी के कोई दूर के सम्बन्धी बन चुके थे सुचित्रा देवी ने उनसे कोई रिश्तेदारी निकाल ली थी ।


अभी ये लोग बात कर ही रहे थे तभी अल्हड़ तितली सी उछलती 'श्री' वहां आ गयी तब पहली बार सोमनाथ बाबू ने श्री को देखा था और वे बस एक तक उसे देखते ही राह गए थे।


श्री बिल्कुल किसी अप्सरा की मूर्ति जान पड़ती थी गोरा चिट्टा रंग लंबे सुनहरे लाल बाल गहरी काली आंखें वे सांचे में ढले नाक नक्श एक अद्भुत आकर्षण था श्री के रूप में।


अनायास ही सोमनाथ की आंखे श्री की आंखों से टकरा गयीं और श्री की आंखों ने भी उनका पूरे सम्मान से स्वागत किया।


दोनों की आंखे मानो जन्मों से बिछड़ी हो ऐसे एकाकार हो गईं दोनों की पलके झपकना भूल गयीं उनके दिल की धड़कने रेस के घोड़े की तरह सरपट दौड़ने लगीं ।


ना जाने क्यों, लेकिन यूँ आंखों का मिलना उन दोनों को ही बहुत सुखद अहसास दे गया।


उसके बाद जाने कितनी बार उन दोनों की आंखों ने ये एकाकार होने का सुख पाया किन्तु कभी एक शब्द की बात भी उनके बीच नहीं हुई थी। लेकिन आंखों के मिलन से ऐसे लगता था जैसे ये दोनों जन्म जन्मांतर के प्रेमी है जो न जाने कब से मिलन के लिए व्याकुल हैं।


उस दिन राजश्री सोमनाथ बाबू के कमरे पर आयी,"जल्दी चलिए आपको माँ ने बुलाया है आज आपका खाना हमारे घर पर है",श्री ने सोमनाथ को देखते ही उतावले पन से कहा।


"अच्छा आप चलिए हम अभी आते हैं", सोमनाथ बाबू ने धीरे से जबाब दिया।


"आते हैं नहीं, चलिए! अभी हमारे साथ", ये कहकर श्री ने सोमनाथ का हाथ पकड़ लिया।


सोमनाथ बाबू को जैसे बिजली का झटका लगा इस स्पर्श से, न जाने इस स्पर्श में ऐसा क्या था जो सोमनाथ बाबू को इतना सुखद लगा जैसे ये स्पर्श उनका चिरपरिचित है जैसे वे जन्मों से इस स्पर्श को जानते हैं।


इधर श्री को भी कुछ ऐसी ही अनुभूति हो रही थी रोज नज़रें मिलाने का बहाना ढूंढने बाली श्री आज शरमा कर नज़रे झुका रही थी। किन्तु हाथ छोड़ना जैसे अब उसके बस में ना था।


"क्या हुआ", सोमनाथ बाबू ने बहुत हिम्मत जुटा कर उससे पूछा।


"

क..क.क...कुछ !!",नहीं श्री ने सकुचा कर कहा और उनका हाथ होले से दबा दिया।


"अच्छा चलो आता हूँ ", सोमनाथ बाबू ने फिर प्यार से धीरे से कहा और श्री ने उनका हाथ छोड़ दिया।


हाथ छोड़ते ही श्री को लगा जैसे एक पल पहले वह पूर्ण थे और अब एक अधूरा पन उसके मन को उदास कर रहा है।


अब अक्सर ये होने लगा की श्री या कभी सोमनाथ जी भी बहाने से एक दूसरे के पास आते और आंखों से बातें करते या कभी हाथ स्पर्श हो जाते तो नज़रें शरमा कर खुदबखुद झुक जाती।


सोमनाथ बाबू पूछते ,"हमारा क्या सम्बन्ध है श्री जो आप आस-पास होती हो तब सबकुछ इतना अच्छा लगता है।"


"हमें क्या पता अपने हृदय से पूछो", श्री धीरे से कहती और दौड़ती हुई चली जाती।


"पगली" पीछे से सोमनाथ बाबू कहते और मुस्कुराने लगते।


"आज मेरी श्री सच में पगली हो गयी" सोमनाथ बाबू खुद में ही बुदबुदाने लगे ।


मुझे एक बार जाना चाहिए उसे देखने शायद उसके बैचैन मन को कुछ धैर्य बंध जाये।


"क्या मुझे जाना चाहिए?? " सोमनाथ बाबू ने खुद से सवाल किया।


"

अगर उसके घरवाले फिर से नाराज़ हो गए तो?"

सोमनाथ बाबू को याद आया की कैसे जब श्री के भाइयों को उनके प्रेम प्रसंग के विषय में जानकारी हुई थी तो वे गुस्से से आग बबूला हो गए थे।


हालांकि श्री की माताजी ने उन्हें समझाया भी था कि "लड़का पढ़ा लिखा है, अच्छे खानदान का है और बिरादरी के भी हैं; कर देते हैं दोनों की शादी।"


किन्तु श्री के दोनों भाइयों को ये कतई मंज़ूर नहीं था कि उनकी बहन प्रेम विवाह करे।


उस दिन शाम को दोनों भाई कंधे पर लाठी लिए आये थे इर सोमनाथ को धमका कर बोले थे,"खबरदार जो आगे से श्री के आसपास भी नज़र आये तो हाथ पांव तोड़ देंगे, तुम्हारी भलाई इसी में है की ये शहर हमेशा के लिए छोड़कर चले जाओ, ये भूल जाना की तुम कभी श्री से मिले थे।"


सोमनाथ बाबू करते भी तो क्या उनके रिश्तेदारों ने भी उन्हें अपने यहां रखने को मना कर दिया ।


सोमनाथ बाबू उदास परेशान अधूरे से गांव लौट आये एवं मन लगाने के लिए गांव में एक छोटा सा स्कूल खोल लिया।


उनके आने के दो महीने बाद ही उन्हें पता लगा कि श्री के भाइयों ने इसका विवाह तय कर दिया है।


उन्हें पता था कि वह लड़का शराबी है और श्री के लिए ठीक नहीं है उसने किसी परिचित से श्री की माता जी पर खबर भी भिजवाई, किन्तु श्री के भाई अपनी जिद पर अड़े रहे।


और श्री की शादी कर दी।


किन्तु सोमनाथ बाबू ने घरवालों के लाख समझाने पर भी शादी नहीं की, वे ज्यादातर समय स्कूल में ही रहते थे कभी-कभी तो खाना खाने भी नहीं आते और स्कूल में ही सो जाते।


सोमनाथ बाबू शहर से चले तो आये थे किंतु कुछ अधूरे से उनकी आत्मा जैसे राजश्री के पास ही राह गयी थी।


जीवन जीने की अभिलाषा उनमें शेष न थी बस किसी तरह यादों के सहारे समय व्यतीत कर रहे थे।


"हे ईश्वर मेरी पगली आज सचमुच की पगली हो गयी है


क्या अब भी मुझे नहीं जाना चाहिए??" सोमनाथ बाबू फिर खुद से सवाल करने लगे।


"जीवन की कोई अभिलाषा तो अब है नहीं, जीवन के डर से तो मैं तब भी नहीं लौटा था, मुझे तो तब चिंता थी 'श्री' के सम्मान की ओर उसके उज्जवल भविष्य की मुझे डर था कि आवेश में श्री के भाई कहीं श्री को नुकसान..! किन्तु अब परिस्थितियां भिन्न हैं अब श्री को कोई क्या नुकसान पहुंचाएगा उसकी तो चेतना ही लुप्त हो चुकी है; मुझे जाना ही होगा", सोमनाथ ने जैसे कोई निर्णय सा किया।


"किन्तु यदि उसने हमें नहीं पहचाना तब?" उनका मस्तिष्क तो सारी यादें भुला चुका है, वह तो अपनी मां, अपने भाइयों तक को नहीं पहचानती।" सोमनाथ जी के मस्तिष्क ने फिर से सवाल किया।


"जरूर पहचानेगी वह उस स्पर्श को, उन आंखों के मिलन को, इस दिल की धड़कनों को सुनकर अवश्य जागेगी मेरी श्री की सोई चेतना। हमारा सम्बन्ध तो आत्माओं का है, हम तो जन्मजन्मांतर के साथी हैं, ऐसे कब तक नियति हमें अलग करती रहेगी।


बस बहुत हुआ अब उन्हें मेरी आत्मा की आवाज सुननी ही होगी", उनके हृदय ने जैसे कोई निश्चय किया और वे उठ खड़े हुए।


सोमनाथ जी को आज पल-पल सदियों से लंबा लग रहा था वे उड़ कर श्री के पास पहुँचना चाहते थे। उनका दिल किसी अनहोनी की आशंका से बार-बार डर रहा था बैठ रहा था।


जैसे ही सोमनाथ बाबू ने राजश्री के घर में प्रवेश किया उन्हें एक झटका सा लगा; घर में बहुत भीड़ थी कुछ सफेद कोट धारी नर्स एवं अस्पताल के अन्य कर्मचारी भी थे।


यूँ तो उन्होंने घर के बाहर ही अस्पताल की गाड़ी भी देख ली थी,। उनकी धड़कने तो तभी बढ़ गईं थी, किन्तु अब उनकी धड़कने मानो बन्द होने लगीं थी ।


"कहीं मेरी श्री को कुछ", उनके मन की आवाज आई।


"क्या हुआ हटिए आप लोग", सोमनाथ जी ने जोर से कहा तो सारे लोग एक तरफ हट गए।


सामने का दृश्य देखकर सोमनाथ जी जम से गये उनके हृदय ने धड़कना लगभग बन्द ही कर दिया।


सामने राजश्री जंजीरों में जकड़ी खड़ी थी उसके हाथों, पांव एवं गले में भी जंजीरें डाली गयीं थी।


उसके बाल बिखरे हुए थे, उनमें धूल भरी हुई थी, श्री के कपड़े फटे हुए थे और उसके बदन पर असंख्य चोटों के निशान थे, कुछ निशान तो इतने गहरे थे कि उनमें से खून बह रहा था। राजश्री बार-बार अपने सर को झटके देते हुए दांत किटकिटा रही थी। उसकी आंखें पथराई हुई एक जगह जैसे जम सी गयीं थीं और उसकी पलकें मानों झपकना ही भूल चुकी थी।


सोमनाथ से राजश्री की ये हालत देखी नहीं गयी, उनकी आंखें आंसू बहाने लगीं; वे बिना किसी की परवाह किये राजश्री की और बढ़ने लगे।


"ऐ क्या करता है देखता नहीं ये पगली है, काट खाएगी उसके पास मत जा ऐ मेन", एक नर्स जोर से चीखी लेकिन सोमनाथजी पर जैसे उसकी चीख का कोई असर ही नही हुआ, या कहो कि उन्हें तो इस समय राजश्री के अलावा कोई नज़र ही नहीं आ रहा था।


"श्री,, !! ये क्या हाल बना लिया तुमने मेरे तनिक दूर जाते ही" सोमनाथ जी ने जोर से कहा।


आश्चर्य!! जो श्री किसी आवाज को नहीं सुनती थी वह इस आवाज पर पलट कर देखने लगी, उसकी आंखें सीधी होने लगीं।


सोमनाथ जी ने उसके बन्धन खोलने का इशारा किया, और उसकी आँखों में देखने लगे, राजश्री भी उनकी आँखों से नज़र मिलने लगी।


जब तक सोमनाथ जी श्री के पास पहुंचते उसके सारे बन्धन खोल दिए गए थे।


सोमनाथ जी ने बिना उसकी आँखों से आँखे हटाये उसका हाथ पकड़ लिया।


"क्या श्री हम तनिक छुपन छुपाई में क्या छिपे की तुमने तो खुद को ही भुला दिया", कहते हुए सोमनाथ जी ने राजश्री का हाथ दबा दिया।


लोगों ने देखा कि राजश्री की पथराई हुई आंखों की धुन्ध उसके आंसुओं के साथ बह रही है राजश्री रो रही है।


"क्या हुआ श्री? भूल गयी क्या हमें?", सोमनाथ जी ने धीरे से पूछा।


अबकी राजश्री की पलक हल्के से झपकी जिससे उसकी आँखों से आंसुओं की कुछ मोटी-मोटी बूंदे छलक पड़ीं।


"कहाँ चले गए थे आप??" श्री ने सुबकते हुए कहा और सोमनाथ के गले लग कर हिलकी भर कर रोने लगी।


"कहीं नही गया मैं श्री, मैं तो सदा तुम्हारे हृदय में था, लेकिन तुम ही पता नही क्यों हम सब से दूर जा रही थी, लेकिन अब नहीं। अब हम कभी अलग नहीं होंगे,आओ अपने घर चलें हमेशा के लिए।" सोमनाथ जी ने राजश्री का हाथ पकड़े पकड़े कहा।


"चलिए, और अब कभी मत छोड़कर जाना हमें , राजश्री की आंखे निरन्तर बरस रही थीं मानो उनमें जमी बरसों की बर्फ प्यार की गर्मी पाकर पिघल उठी हो।


दोनों हाथ पकड़े घर से बाहर निकलने लगे तब राजश्री की मां ने उसे अपनी चादर उढ़ा दी, आज राजश्री के दोनों भाई भी इन्हें जाते देख रहें है किन्तु उनकी आंखों में गुस्सा नहीं बल्कि पश्चताप एवं प्रसन्नता के आंसू हैं।


समाप्त


©नृपेंद्र शर्मा "सागर"